शोध आलेख : स्वामी विवेकानंद: मानवता के परिप्रेक्ष्य में एक आधुनिक बुद्ध / ब्रजेश कुमार प्रसाद

स्वामी विवेकानंद: मानवता के परिप्रेक्ष्य में एक आधुनिक बुद्ध 
ब्रजेश कुमार प्रसाद

शोध सार : यह शोध पत्र स्वामी विवेकानंद के विचारों और उनके जीवन को मानवता के परिप्रेक्ष्य में एकआधुनिक बुद्ध के रूप में प्रस्तुत करता है। विवेकानंद ने अपने जीवनकाल में समाज में सुधार, सामाजिक न्याय और वैश्विक भाईचारे की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किए। उनके विचार धार्मिक और आध्यात्मिक दायरे से बाहर जाकर समाज में समानता, सहयोग और मानवता के मूलभूत सिद्धांतों को प्रोत्साहित करते हैं। इस शोध में विवेकानंद के आदर्शों की विस्तृत समीक्षा की गई है, जिसमें उनके विचारों का आधुनिक समाज में लागू होने की संभावनाओं का विश्लेषण किया गया है। विवेकानंद की शिक्षाएँ आज के सामाजिक मुद्दों जैसे सामाजिक असमानता और धार्मिक असहिष्णुता को हल करने में सहायक हो सकती हैं। इस शोध का उद्देश्य विवेकानंद के विचारों की आधुनिक प्रासंगिकता को उजागर करना है और यह दिखाना है कि वे किस प्रकार एक 'आधुनिक बुद्ध' के रूप में समाज को मार्गदर्शन कर सकते हैं।


बीज शब्द : स्वामी विवेकानंद, मानवता, आधुनिक बुद्ध, समाज सुधार, आध्यात्मिकता, सामाजिक न्याय, समानता, विश्व बंधुत्व, धार्मिक समभाव, सामाजिक परिवर्तन

मूल आलेख : स्वामी विवेकानंद, भारतीय आध्यात्मिकता और समाज सुधार के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हैं। उन्होंने अपने जीवन और शिक्षाओं के माध्यम से केवल भारतीय समाज को प्रेरित किया, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी मानवता के मूलभूत सिद्धांतों को उजागर किया। उनके विचारों और शिक्षाओं को 'आधुनिक बुद्ध' के रूप में देखा जा सकता है, क्योंकि उन्होंने अपने समय की धार्मिक और सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए एक समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।

स्वामी विवेकानंद ने मानवता के संदर्भ में सामाजिक न्याय, समानता, और विश्व बंधुत्व के महत्व को रेखांकित किया। उनका उद्देश्य धार्मिक और आध्यात्मिक सुधारों के साथ-साथ समाज में व्याप्त असमानता और भेदभाव को समाप्त करना था। उन्होंने अपने प्रवचनों और लेखनों में 'एकता', 'सर्वधर्म समभाव' और 'सामाजिक सेवा' जैसे महत्वपूर्ण सिद्धांतों को प्रमोट किया।

इस शोध पत्र का उद्देश्य स्वामी विवेकानंद की शिक्षाओं और उनके विचारों को आधुनिक युग के परिप्रेक्ष्य में समझना है। यह पत्र विवेकानंद के दृष्टिकोण की गहराई और उनके विचारों की सामाजिक प्रासंगिकता पर प्रकाश डालता है, और यह दर्शाता है कि कैसे उनकी शिक्षाएँ आज के समाज में सकारात्मक बदलाव ला सकती हैं। विवेकानंद का मानवता के प्रति दृष्टिकोण और उनकी सोच के आधुनिक संदर्भ में मूल्यांकन करने से यह स्पष्ट होता है कि वे एक सशक्त और प्रेरणादायक आधुनिक बुद्ध के रूप में क्यों प्रतिष्ठित हैं।

प्राचीन काल में महात्मा बुद्ध नेमानव-कल्याणहेतु जो उपदेश दिए वह बौद्ध धर्म के रूप में स्थापित हुआ। वहीं, आधुनिक काल में स्वामी विवेकानन्द ने अपने शिक्षाओं और उपदेशों मेंमानवताका सन्देश दिया, जो हिन्दू धर्म का आधार-स्तम्भ है। अर्थात् बुद्ध के मानवता के सन्देश को विवेकानन्द ने आधुनिक रूप दिया। सभी धर्मों का सार मानवता अर्थात्मनुष्य मात्र की सेवाहै। इसका अर्थ यह हुआ किधर्म या मजहब इन्सानों के लिए बनता हैं, धर्म के लिए इन्सान नहीं बनते।मानवता के सन्दर्भ में विवेकानन्द, बुद्ध के अनुगामी थे।

कुछ दशक पूर्व जिस भगवान बुद्ध की 2500वीं जन्मतिथि के उपलक्ष्य ने इस देश तथा संसार के विभिन्न अंचलों में निवास करने वाले करोड़ों लोगों के हृदय में अद्वितीय उत्साह का संचार किया था, वे भारत के महानतम सपूतों में ही नहीं, बल्कि संसार को ज्ञात कुछ गिने-चुने श्रेष्ठ महापुरुषों में एक है। आज संसार में बुद्ध के अनुयाइयों की संख्या सर्वाधिक है। इस अद्भुत चमत्कार का क्या रहस्य है? बौद्ध धर्म का प्रचार सैन्य शक्ति के सहारे नहीं हुआ था? कोई दबाव नहीं, कोई रक्तपात नहीं। इसकाआदि मध्य तथा अन्त में भी मंगलमयतथाबहुजन हिताय बहुजन सुखायकी भावना से प्रेरित सन्देश, अग्रतः आशीष एवं पृष्ठतः शान्ति से समन्वित, स्वयं भगवान बुद्ध द्वारा सन्तप्त मानवता को अपने उस अमृत सिद्धान्त का उपदेश प्रदान करने के लिए नियोजित तथा चतुर्दिक प्रेषित साधु-सन्यासियों द्वारा सर्वत्र प्रसारित हुआ। उनके विचार एवं सिद्धान्त महान् थे, उनका व्यावहारिक नैतिक उपदेश उत्कृष्ट था, उनका व्यक्तिगत चरित्र उदात्त था, जो बुद्धिवादी व्यर्थालाप की शुष्क अस्थिमयता में प्राण संचरित करता था तथा उनकी वायवीय कल्पनाओं को वास्तविकता की भूमि प्रदान करता था और इससे भी अधिक उत्कृष्ट एवं महान् है उनका प्रेम, जो मानव-आत्मा का उत्थापन कर मानव मात्र को विश्व-भ्रातृत्व के तारों में परस्पर जोड़ देने वाला है।

सन्तप्त मानवता के प्रति प्रेम ही बुद्धि के चरित्र का प्रधान तत्व है और यही उनके समग्र जीवन, कर्म एवं उपदेशों में अनुस्यूत और अभिव्यक्त है। प्रेम और सौम्य करूणा के ये दिव्य गुण उनको उस ईश्वरीय प्रभामण्डल से समलंकृत करते हैं, जिससे सम्मोहित और आकर्षित होकर विश्व ने उनके धर्म को स्वीकार किया है। उनके धर्म का इतना व्यापक और असाधारण प्रसाद अपने सिद्धान्तों के चमत्कार से उतना नहीं, जितना बुद्ध के चरित्र के आकर्षण एवं सम्मोहन से हुआ। बौद्ध और हिन्दू धार्मिक वाङ्मय में ही बुद्ध को प्रकाण्ड बुद्धिवादी बताया गया है। बौद्ध साहित्य में उनके लिएमहा-कारूणिकऔरआर्तबन्धुजैसे विशेषणों का प्रयोग हुआ है। जयदेव ने अपनेदशावतार-स्तोत्रमें सदय हृदय और करूणा का प्रसार करने वाले के रूप में बुद्ध की स्तुति की है। उनका हृदय ऐसा महान था कि उन्होंने मानवीय पीड़ा की समस्या का समाधान खोजने के लिए साम्राज्य एवं समस्त राजकीय सुख भोगों का त्याग कर दिया। वे एक ऐसे हृदय थे, जिन्होंने निर्वाण के दिव्य घनानन्द में लय होना इसलिए अस्वीकार किया, ताकि वे स्वयं को दूसरों के दुःख निवारण करने में नियोजित कर सके। इतना ही नहीं, उनका हृदय ऐसा था कि किसी मूक पशु के लिए भी वे अपना जीवन समर्पित करने को तैयार थे। क्या उन्होंने समग्र जीवन की अखण्डता और सारे नाम-रूपों के मिथ्यात्व तथा भ्रमात्मकता का अनुभव नहीं किया था?

स्वामी जी के जीवन-चरित का अध्ययन करके कोई भी इन दो महापुरुषों के जीवन की अतीव समानता पर विस्मित रह जाता है। लगता है कि उनका जीवन तथा सन्देश मानो भगवान बुद्ध के जीवन तथा सन्देश की ही प्रतिध्वनि हो, जो मूल को और स्पष्टता के साथ उच्चतर स्वर में पुनः प्रस्तुत करती है, क्योंकि विवेकानन्द हमारे समकालीन है। इस सन्दर्भ में स्वामी जी के जीवन के कुछ अंशों का अध्ययन परम उपादेय होगा, क्योंकि वह पच्चीस सदियों से चले रहे सुविख्यात भगवान बुद्ध के पौराणिक स्तर के जीवन की झलक प्रदान करता है। क्या यह मात्र संयोग है कि स्वामी जी बुद्ध को परम सम्मान देते थे और प्रायः ही श्रद्धापूर्वक उनका नाम तथा उदाहरण प्रस्तुत करते थे?

लंदन में साधकों की एक कक्षा के समक्ष ध्यान की व्याख्या करते हुए समाधिस्थ विवेकानन्द के प्रसिद्ध चित्र का अवलोकन करने पर जो पहली बात हमें आकर्षित करती है, वह उसमें और ध्यानी-बुद्ध की प्रशस्त मूर्तियों में विद्यमान समानता ही है। पद्मासन में स्थित, सिर पर सजी हुई पगड़ी, जो बुद्ध के सिर पर बंधी हुई केश-राशि के ही समान है, सौम्य एवं शान्त मुखमण्डल जिसमें उनकी प्रसिद्ध विशाल आंखें ध्यान में बन्द है- परम सत्य की गहराई के आन्तरिक मौन में तादात्म होती हुई, इन्द्रिय वृत्तियों के पहले से ही पूर्ण सुशान्त हो जाने से उत्पन्न अखण्ड शान्ति एवं सन्तुलन में अन्तःस्थित है। रोमां रोलां का कहना है- विवेकानन्द के इस चित्र का अवलोकन प्राचीन और अत्यन्त उत्तम ध्यानी-बुद्ध की रूपाकृति की याद दिलाता है। 1993 ई० के सितम्बर में शिकागों की धर्मसभा के मंच पर उपस्थित स्वामी विवेकानन्द के सम्बन्ध मेंडेली क्रॉनिकलके संवाददाता ने लिखा था- ‘‘उनकी शारीरिक आकृति ध्यानी बुद्ध के प्रशस्त प्राचीन मुखमण्डल से अत्यधिक आश्चर्यजनक रूप से मिलजी-जुलती है।’’[1]

प्रसिद्ध उद्योगपति जमशेद जी टाटा ने 1893 ई० में स्वामी विवेकानन्द के साथ जहाज में जापान से अमेरिका की यात्रा की थी। उनसे सुनकर भगिनी निवेदिता ने कुमारी मैक्लाउड के नाम अपने 3 अक्टूबर, 1901 के पत्र में स्पष्ट लिखा है- ‘‘टाटा ने मुझे बताया था कि जब स्वामी जी जापान में थे तो बुद्ध के साथ उनका साम्य देखकर लोग उनसे तत्काल प्रभावित हो जाते थे।’’

क्या यह मात्र भौतिक संयोग है या यह बाह्य साम्य अनिवार्यतः उनकी आन्तरिक स्थिति की अभिव्यक्ति है? स्वामी जी की जीवनी में लिखा है कि बाल्यकाल में भी एक बार जब स्वामी जी ध्यान कर रहे थे, तो उनके सामने भगवान बुद्ध की आलोकमय आकृति प्रकट हुई। बुद्ध की प्रतिभा बहुमुखी थी और वे एक क्षत्रिय के राजकीय सांचे में ढले हुए थे और स्वामी जी भी वैसे ही थे। शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर दोनों ही अति मानवीय थे। दोनों में ही सत्य तथा बोधातीत शान्ति के लिए अदम्य ललक थी। सत्य की उपलब्धि के बाद उन्होंने समाधि-सुख में रमण करके मानवता की पीड़ा को दूर करने और उसे सुख-शान्ति प्रदान करने की भरपूर चेष्टा की।

हम पाते हैं कि बुद्ध के प्रति स्वामी जी का यह विचित्र आकर्षण उनमें आजीवन बना रहा। ‘‘उन्होंने स्वयं को बौद्ध धार्मिक वाङ्मय से संतृप्त कर लिया था। भगवान बुद्ध की उत्कृष्ट प्रज्ञा, उनके प्रख्यात विवेक समर्थित विचार, सत्य की दृढ़-एकनिष्ठ मांग, उनका तीव्र वैराग्य तथा कारूणिक हृदय, उनका मधुर, गहन आलोकमय जीवन, उनकी उदात्त नैतिकता, तत्वज्ञान और मानव चरित्र के बीच सन्तुलन की प्रक्रिया-इन सबने स्वामी जी में प्रबल उत्साह का संचार किया था।’’[2]  बुद्ध का जीवन और उनके रूप की स्मृति मानों उनमें सदैव बनी रहती थी। परवर्ती काल में श्रीरामकृष्ण जैसे अवतार गुरु का आश्रय पाने के बाद भी वे चुपके से निकलकर बोधगया चले गए थे; उसी बोधिवृक्ष की छाया में ध्यान करने, जहां बुद्ध को परमज्ञान प्राप्त हुआ था। बोध-गया के प्रति उनका आकर्षण प्रबल था और वहां उन्हें अद्भुत अनुभूतियाँ हुई थी।

अपनेकर्मयोगग्रन्थ में स्वामी जी ने आदर्श कर्मयोगी के रूप में बुद्ध को उच्चतम सम्मान प्रदान किया है-‘‘सर्वश्रेष्ठ दर्शन का प्रचार करते हुए भी इन महान् दार्शनिक के हृदय में क्षुद्रतम प्राणी के प्रति भी गहरी सहानुभूति थी और फिर भी उन्होंने अपने लिए कोई दावा नहीं किया। वास्तव में वे ही आदर्श कर्मयोगी हैं, पूर्णरूपेण हेतुशून्य होकर भी उन्होंने कर्म किया है और मानव जाति का इतिहास यह दिखाता है कि सारे संसार में उनके सदृश श्रेष्ठ महात्मा और कोई पैदा नहीं हुआ। उनके साथ अन्य किसी की तुलना नहीं हो सकती। हृदय तथा मस्तिष्क के पूर्ण सामंजस्य भाव के वे सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं, आत्मशक्ति का जितना विकास उनमें हुआ, उतना और किसी में नहीं हुआ। संसार में वे सर्वप्रथम श्रेष्ठ सुधारक है।’’[3]  कभी-कभी उन्होंने बुद्ध को अपना आदर्श भी बताया है। बुद्ध के प्रति स्वामी जी का यह महत् आकर्षण तथा उनके और स्वामी जी के जीवन की घनिष्ठ समानता को देखकर कोई भी चकित हो जाता है, मानों बुद्ध ने ही स्वामी जी के रूप में अपना दूसरा अवतार लिया हो। स्वामी जी सदैव अपने साथ बुद्ध की मूर्ति रखते थे, जिसे आज भी हम बेलूर मठ के उनके कमरे में देख पाते हैं।

दुःख के सम्पर्क में आने के बाद बुद्ध ने संसार का त्याग किया था। स्वामी जी ने भी वही किया। पीड़ा के दंश ने उनके हृदय का इतना विस्तार किया कि समग्र मानवता को उन्होंने अपने आलिंगन में समेट लिया था। तरूणाई में ही उन्हें देखकर श्रीरामकृष्ण ने कहा था- ‘‘जिस दिन नरेन दुःख और क्लेश के सम्पर्क में आएगा, उसके चरित्र का अभिमान पिघल कर असीम करूणा के भाव में बदल जाएगा। तब उसका प्रबल आत्मविश्वास हारी हुई आत्माओं में विश्वास और श्रद्धा जगाएगा और प्रबल आत्म संयम पर आधारित उसका उन्मुक्त आचरण दूसरों की आंखों में अहंकार से सच्ची मुक्ति के प्रकाश को चमका देगा।’’[4]

बोध-गया में बोधि वृक्ष के नीचे बुद्ध को परम बोध की उपलब्धि हुई थी। स्वामी जी ने भी एक ऐसी ही घटना में अल्मोड़ा के निकट एक वट वृक्ष के नीचे पिण्ड तथा ब्रह्माण्ड विषयक एक महान् समस्या का हल पाया था।

परम बोध की प्राप्ति के बाद भगवान बुद्ध वाराणसी आए थे और उन्होंने सर्वप्रथम सारनाथ मेंधर्मचक्रका प्रवर्तन किया था। दूसरी ओर से देखें तो वाराणसी में ही स्वामी जी ने भी सर्वप्रथम अपनी प्रसिद्ध घोषणा की थी-‘‘मैं जा रहा हूँ। मैं तब तक नहीं लौदूँगा, जब तक मैं समाज में बम की तरह फट पडूं और उसे कुत्ते की तरह अपने पीछे चलने के लिए बाध्य कर सकूँ।’’[5]  मानवता को अपना आशा भरा सन्देश सुनाने के लिए वे भ्रमण करने लगे। अपनी अमेरिका यात्रा के कुछ ही काल पूर्व अपने गुरुभाई स्वामी तुरीयानन्द से कही गयी उनकी प्रसिद्ध उक्ति पर ध्यान दीजिये (स्वामी जी ने रोते हुए कहा) ‘‘हरि भाई! मैं तुम्हारे तथाकथित धर्म को नहीं समझता, पर मेरा हृदय बहुत विशाल हो गया है। मैंने दूसरों के दुःख का अनुभव करना सीख लिया है।’’[6]  भावावेश में स्वामी जी का स्वर रूंध गया। वे मौन हो गए। उनके गालों पर अश्रु-प्रवाह हो रहा था। उक्त घटना का उल्लेख करते हुए स्वामी तुरीयानन्द कहते हैं ‘‘जब मैंने वह करूण क्रन्दन सुना और स्वामी जी की वह राजसी उदासी देखी, तो तुम सोच सकते हो कि मुझ पर क्या गुजरी! मैंने सोचा- क्या ये ही बुद्ध के शब्द और भाव नहीं है? मुझे स्मरण हो आया कि जब विवेकानन्द बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे ध्यान कर रहे थे तब उन्हें बुद्ध भगवान का दर्शन हुआ था, जो उनके शरीर में प्रवेश कर गए थे। मैं स्पष्ट देख सकता कि सारी मानवता का कष्ट उनके धड़कते दिल में समा गया है।’’[7]

बुद्ध ने समस्त मानवता को अपनाया था। गणिका आम्रपाली और एक नाई भी उनकी कृपा से धन्य हो गए थे। इसी तरह स्वामी जी का हृदय भी पतितों और पद-दलितों के प्रति विगलित हुआ था। नर्तकी दुर्गा, खेतड़ी का मोची और अल्मोड़ा का दीन-हीन मुसलमान-सबने उनकी स्नेहांजलि पायी थी। उनके करुणार्द्र-हृदय से ये मर्मभेदी वाक्य उच्चरित हुए थे- ‘‘उसी को मैं महात्मा कहता हूँ, जिसका हृदय गरीबों के लिए द्रवीभूत होता है, अन्यथा वह दुरात्मा है। जब तक करोड़ों भूखे और अशिक्षित रहेंगे, तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघातक समझेंगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, परन्तु उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता।[8]  मेरी अभिलाषा है कि मैं बार-बार जन्म लूँ और हजारों दुःख भोगता रहूँ, ताकि मैं उस एकमात्र सम्पूर्ण आत्माओं के समष्टिरूप ईश्वर की पूजा कर सकूँ, जिसकी सचमुच सत्ता है और जिसका मुझे विश्वास है। सर्वोपरि सभी जातियों और वर्णों के पापी, तापी और दरिद्र रूपी ईश्वर ही मेरे विशेष उपास्य है।’’[9]  अमेरिका में वे भ्रमवश प्रायः नीग्रो समझ लिए जाते थे, लेकिन उन्होंने कभी इसका प्रतिकार नहीं किया और वे अपना परिचय ही देते थे। जब किसी ने पूछा कि दुर्व्यवहार से बचने के लिए वे क्यों नहीं अपना परिचय देते हैं, तो तत्काल उन्होंने तीखे स्वर में कहा, ‘‘क्या? दूसरों की कीमत पर बड़ा बनना।’’ एक नीग्रो ने उनके साथ इतना तादात्म्य अनुभव किया कि अमेरिका में उनकी सफलता को उसने अपनी ही सफलता के रूप में ग्रहण किया।

दर्शन के बौद्धिक ताने-बानों के सभी महाजालों को तोड़कर बुद्ध ने लोगों को व्यावहारिक नैतिक धर्म उपलब्ध कराने की चेष्टा की और स्वामी जी ने भी लोगों को व्यावहारिक वेदान्त का उपदेश दिया।