21 वीं सदी की हिंदी गज़ल में बाल विमर्श की ज़मीन
- महावीर सिंह

बीज शब्द : बाल साहित्य, बाल विमर्श, बाल श्रम, बचपन, बाल समस्याएं, बाल विकास।
मूल आलेख : बाल साहित्य उतना ही पुराना है, जितना कि साहित्य का मौखिक रुप। बाल साहित्य के सूत्र प्राचीनकाल से प्रचलित माँ की लोरियों तथा दादी-नानी की परिकथाओं में दृष्टिगत होते है। जिनका उद्देश्य बच्चों के मनोरंजन के साथ-साथ उनकी कल्पना शक्ति का विकास कर उनकी बचपन की उर्वर खाली जमीन में सुसंस्कारों के बीजों का वपन करना था ताकि बड़े होकर वे बच्चे संवेदनशील, नैतिक मूल्यों एवं सुसंस्कारों से पल्लवित- पुष्पित बरगदमयी व्यक्तित्व से संपन्न बने तथा समाज रूपी उद्यान को सुवासित करें। इन लोरियों व कथाओं की भावभूमि पर ही बाल साहित्य की इमारत खड़ी होती है जिसका उद्देश्य भी बच्चों के मनोरंजन के साथ उनको शिक्षित करना था। यह साहित्य बच्चों को उनके निर्माणकाल-बाल्यावस्था या बचपन में मानसिक, भावात्मक एवं संज्ञानात्मक पोषण प्रदान करता है। तथा उनके बचपन के खाली समय का सदुपयोग कर उन्हें सभ्य नागरिक बनाने में मददगार होता है। लेकिन सामयिक सामाजिक परिदृश्य के बाल जीवन की सच्चाई यह है कि आधुनिकता व उत्तर आधुनिकता के इस दौर में अनेक कारणों से बच्चों से उनका बचपन छिनता जा रहा है। जिसे बचाना बालकों की दृष्टि से आज के समय की बहुत बड़ी जरुरत है। नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित मलाला यूसुफजई और कैलाश सत्यार्थी ने भी बच्चों के अधिकारों एवं बचपन को बचाने की ही आवाज उठाई है। इसलिए वर्तमान दौर में एक साहित्यकार के चिंतन सृजन में बच्चों के बचपन का सदुपयोग कर उन्हें शिक्षित करने से कहीं अधिक उनके बचपन को बचाने की चिंता का स्वर प्रधान है। समाज में बच्चों व उनके बचपन के प्रति उपेक्षा की प्रतिक्रिया ही बाल साहित्य में बाल विमर्श के रूप में उभरी है जिसमें अपने अधिकारों व बचपन से वंचित बच्चों की मनोदशाओं और उनकी समस्याओं का चित्रण किया जा रहा है। हिंदी ग़ज़ल में बाल साहित्य के धरातल की जांच पड़ताल की जाए तो उसमें बच्चों की समस्याओं पर केंद्रित बाल विमर्श की ज़मीन ही अधिक है। प्रस्तुत शोध पत्र में हिंदी ग़ज़ल में चित्रित बाल विमर्श के भू-भाग का रंगायन कर उसे उभारने का प्रयास किया गया है।
बचपन या बाल्यकाल जीवन का निर्माणकाल या आधारकाल है। अंग्रेजी की कहावत ‘चाइल्ड इज फादर ऑफ़ द मैन’ अर्थात बच्चा ही मनुष्य का जनक होता है, इसी बात की पुष्टि करती हैं। एक बालक को बचपन में मिला मानसिक, भावनात्मक एवं संज्ञानात्मक पोषण ही उसके प्रौढ़ व्यक्तित्व की आधारभूत उपादान सामग्री है। बचपन में अपने परिजनों से मिला प्यार एवं मस्ती के अवसर ही किसी बालक के सुखद भविष्य व समृद्ध व्यक्तित्व की सुदृढ़ बुनियाद होती है। एक बच्चे का बचपन जितना प्यार भरा, खुशहाल व समृद्ध होता है, उसका युवा व्यक्तित्व उतना ही विराट व समृद्ध होता है। इसीलिए कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने लिखा है “जिंदगी की वह उम्र जब इंसान को मुहब्बत की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, बचपन है। उस वक्त पौधे को तरी मिल जाए तो जिंदगी भर के लिए उसकी जड़े मजबूत हो जाती है। उस वक्त खुराक न पाकर उसकी जिंदगी खुश्क हो जाती है।”[1] लेकिन दुख की बात है कि बच्चों से आज उनका खुशियों भरा बचपन दूर होता जा रहा है। चाहे अमीर के बच्चे हो या गरीब के बच्चे, नौकरीपेशा वर्ग के बच्चे हो या किसान-मजदूर के बच्चे, शहरी बच्चे हो या ग्रामीण बच्चे, महलों में रहने वाले बच्चे हो या फुटपाथ पर रहने वाले बच्चे हर वर्ग के बच्चे अलग-अलग कारणों से बचपन के पोषण या बचपन से वंचित होते जा रहे हैं, उपेक्षित होते जा रहे हैं, जिसका प्रभाव उनके व्यक्तित्व पर पड़ रहा है। हिंदी ग़ज़ल की विमर्शी जमीन में बच्चों से बचपन के दूर होते जाने के विभिन्न कारणों व प्रभावों को चिह्नित करते हुए उनके बचपन को बचाने की पैरवी की गई है।
बचपन एक ओर मस्ती व खिलंदड़ापन की अवस्था है, तो दूसरी ओर ज्ञानात्मक विकास की आधारशिला। बचपन में बच्चा एक ओर जहाँ अपने साथियों व खिलौनों की दुनिया में रमकर स्वर्गिक आनंद की अनुभूति करता है, तो दूसरी ओर शिक्षा से जुड़कर ज्ञान की सीढ़ी की तरफ भी कदम बढ़ाता है। बचपन में प्राप्त मस्ती खुशियों एवं ज्ञान का पोषण उसके भावी सुदृढ़ स्वास्थ्य के लिए बेहद जरूरी है। गरीबी इसमें बहुत बड़ी बाधा है। गरीबी के कारण बहुत से बच्चे बचपन के इन अधिकारों, सुविधाओं एवं खुशियों से वंचित हो जाते हैं। उनके खाने पीने एवं खेलने के बचपनी शौक पूरे नहीं हो पाते हैं। बहुत से बच्चों को न भरपेट पोषक भोजन मिलता है और न ही तन ढँकने के लिए कपड़े। रोटी कपड़ा के अतिरिक्त बच्चों के लिए सर्वाधिक प्रिय चीज खिलौने होते हैं। गरीबी के कारण बहुत से बच्चे खिलौनों या खेलों की सामग्री तथा खेलों से वंचित रहते हैं जिससे उनका शारीरिक व मानसिक विकास प्रभावित होता है। हिंदी ग़ज़ल में बचपन के शौकों एवं सुख सुविधाओं से वंचित बच्चों की पीड़ा एवं स्थितियों को मार्मिक ढंग से अंकित किया गया है
“पड़ी हुई है जो कड़वी निबौरियाँ उनको
किसी ग़रीब का बच्चा उठाता फिरता है।” [ 2] (ज्ञान प्रकाश विवेक)
“ठिठुर रहे थे गली में ग़रीब के बच्चे
जो मेरे पास था ईंधन जला के आया हूँ।” [ 3] (ज्ञान प्रकाश विवेक)
“फटा हुआ है गुब्बारा ग़रीब बच्चे का
मगर वो जिद पे अड़ा है उसे फुलाने में।” [4] (ज्ञान प्रकाश विवेक)
“उस बच्चे की सोचो जिसके हाथों में
चाहत का गुब्बारा फूटा निकला है।” [ 5] (विनय मिश्र)
एक बच्चे के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए शिक्षा बेहद जरूरी है। उसके अभाव में एक बालक का मानसिक, संज्ञानात्मक एवं संवेगात्मक विकास नैसर्गिक रूप में संभव नहीं है। शिक्षा के इसी महत्व को देखते हुए भारत सरकार ने निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा है। लेकिन गरीबी के कारण फुटपाथी बस्तियों में रहने वाले बच्चे एवं घुमंतू परिवारों के बच्चे आज भी शिक्षा से वंचित रहते हैं। ये बच्चे भी स्कूल जाने की चाहत रखते हैं, लेकिन अपने माता-पिता की आर्थिक स्थितियों के आगे मजबूर ये बच्चे अपने माता-पिता के कार्यों में सहयोग एवं होटलों-ढाबों में कार्य करने के कारण समुचित शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते हैं और शिक्षा के अवसरों के अभाव में इन बच्चों का बचपन के साथ-साथ भविष्य भी बर्बाद हो जाता है। हिंदी ग़ज़ल में गरीबी के कारण शिक्षा से वंचित ऐसे बच्चों की दशाओं एवं दर्द का सूक्ष्म व कलात्मक चित्रण है-
“है परेशान-सा एक बालक
उसका बस्ता कहीं खो गया है।” [ 6] (ज्ञान प्रकाश विवेक)
“आप भी तो जानते हैं ऐसे बच्चों को
पीठ ने जिनकी कभी बस्ता नहीं देखा।” [7] (ज़हीर कुरेशी)
“इल्तिजा करते रहे जो फ़ीस-माफ़ी के लिए
आप ऐसे बालकों की अर्जियों का सोचते।” [ 8] (ज्ञान प्रकाश विवेक )
“बहुत मासूम बचपन पीठ पर ढोता विवशताएं
कहो उस पीठ पर भी एक बस्ता क्यों नहीं होता ?” [9] (महेश अग्रवाल)
भारतीय संविधान के द्वारा बाल श्रम को प्रतिबंधित किया गया है। परन्तु गरीबी के कारण आज भी बहुत से बच्चे बाल श्रम का बोझ ढोते हुए बचपन में ही बूढे हो जाते है। अपने परिवारों की आर्थिक मजबूरियों के चलते आज भी बहुत से बच्चे छोटे-मोटे कल कारखानों, दुकानों एवं होटलों में काम करने को मजबूर हैं। अपने मालिकों से पिटकर, गालियाँ सुनकर आँसू बहाते ये बच्चे मानो अपने बचपन को श्रद्धांजलि दे रहे होते हैं। किसानों-मजदूरों एवं परम्परागत घरेलू व्यवसायी परिवारों के बच्चे अपने माता-पिता के कार्य में सहयोग की मजबूरी के चलते बचपन की सुख सुविधाओं और शिक्षा के समुचित अवसरों से वंचित रहते हैं। तो फुटपाथी बस्तियों के बच्चे कूडे़ कचरे के ढेरों में अपने बचपन की लाश के टुकड़ों को ढूँढते नजर आते हैं। बाल श्रम के कारण बचपन से वंचित इन बच्चों की तस्वीरें बड़ी करुण हैं, परंतु इससे भी चिंताजनक बात यह है कि इन बच्चों के प्रति संवेदनहीन समाज बाल श्रम पर लगे इन बच्चों को स्वावलंबी कहकर गर्वानुभूति करता है। बाल श्रम के कारण ये बच्चे बचपन के प्यार, मस्ती, खुशियों व शिक्षा के अवसरों से वंचित रहते हैं जिससे इनका शारीरिक व मानसिक विकास प्रभावित है। और इनकी विकासी दशाएँ गमले में लगे पीपल के पेड़ जैसी हो जाती है। इस कारण अपने बौने व्यक्तित्व को ढोते हुए ये जीवन भर बौने बने रहने एवं हाशिए पर खड़े रहने को अभिशप्त हो जाते हैं। हिंदी ग़ज़ल में इन बच्चों की पीड़ा का मार्मिक वर्णन है
“घर के पेटों के लिए पीठ अबोला बचपन
ऐसे बचपन कहीं हो तो जवानी कहिए।” [10] (रामकुमार कृषक)
“हसीं फूलों की आँखों में नमी हैं हाथ में छाले
कई बच्चों के हिस्से में यहाँ बचपन नहीं होता।”[11] (वशिष्ठ अनूप)
“होटलों की प्लेट में तक़दीर अपनी खोजता
बेवजह पिटता हुआ मनहूस-सा बचपन मिला।”[12] (वशिष्ठ अनूप)
“देखकर रेल के डिब्बे बुहारता बचपन
लोग कह देते हैं पावों पे खड़ा है तो सही।”[13] (हरेराम समीप)
“इक पीपल गमले में है
ज्यों 'छोटू' ढाबे में है।” [14] (हरेराम समीप)
एक ओर जहाँ आर्थिक रूप से कमजोर निर्धन परिवारों के बच्चे पारिवारिक मजबूरी के चलते बचपन की खुशियों, मस्ती और शिक्षा के अवसरों से वंचित हो जाते हैं, दूसरी और नौकरीपेशा मध्यम व उच्च वर्ग के परिवारों के बच्चे माता-पिता की महत्वाकांक्षाओं के चलते कम उम्र में ही शिक्षा के अत्यधिक बोझ के कारण बचपन से वंचित हो जाते हैं। इन परिवारों में माता-पिता की शिक्षा के प्रति अतिशय व अनावश्यक सजगता बेफिक्री व मस्ती की उम्र में ही दूधमँहे बच्चों के कंधों पर बस्तों का बोझ डाल कर उन्हें बचपन की मस्तियों से दूर कर देती है। इन परिवारों के माता-पिता अपने बच्चों की क्षमताओं को परखे बिना अपने अधूरे सपनों का बोझ उन पर लाद देते हैं। प्रत्येक माता-पिता की एक ही इच्छा होती है कि उसका बेटा सबसे आगे एवं प्रथम हो और इस चक्कर में बचपन से ही प्रतिस्पर्धा और दबाव में रहने वाले ये बच्चे बचपन से वंचित हो जाते हैं। जिनसे इनका स्वाभाविक विकास तो अवरुद्ध होता ही है और कभी-कभी अति दबाव के कारण तनाव व अवसाद के शिकार हो किशोरावस्था में ही फाँसी के फँदे से झूल आत्महत्या के रास्ते मौत को गले लगा लेते हैं। सुबह उठते ही स्कूल जाना, स्कूल से आकर कोचिंग जाना, होमवर्क करके सो जाना और अगले दिन स्कूल चले जाना यही इन बच्चों की दिनचर्या बन जाती है और इस यांत्रिक जीवन शैली को ढोते हुए ये बच्चे संवेदनात्मक एवं भावनात्मक रूप से शून्य एवं यंत्रवत हो जाते हैं। इक्कीसवीं सदी की हिंदी ग़ज़ल में शिक्षा के अति दबाव के कारण बचपन खोते बच्चों की भावदशाओं एवं पीड़ाओं के चित्रण के साथ उन्हें बचपन के समुचित अवसर उपलब्ध करवाने की आवश्यकता पर बल दिया गया है
“लाद कर कंधों पे मम्मी-डैड के सपनों का बोझ
खेलने की उम्र में बच्चे ने बस्ता ले लिया।” [15] (ज़हीर कुरेशी)
“हर माँ-बाप की अन्तिम इच्छा होती है
मेरा बेटा आगे, सबसे आगे हो।” [16] (देवेन्द्र आर्य)
“भले छुट्टी हो स्कूलों की बच्चों की नहीं लेकिन
फँसा फंदों में कोचिंग के उन्हें उनसे निबटना तुम।”[17] (रामकुमार कृषक)
“चले हैं दुधमुँहे बच्चे नई तालीम लेने को
उन्हें कुछ रोज़ क्या ममता का दामन दे नहीं सकते?
हम अपनी ख्वाहिशें बच्चों के ऊपर लाद देते हैं
दुबारा चाहकर बच्चों को बचपन दे नहीं सकते।
उमर तितली के पीछे दौड़ने की फिक्र पढ़ने की
लड़कपन में भी हम इनको लड़कपन दे नहीं सकते।
उदासी आँख में माथ पे चिन्ता की लकीरें हैं
क्या हम मासूम को बेफिक्र जीवन दे नहीं सकते?”[18] (वशिष्ठ अनूप)
भौतिकतावादी व उपभोक्तावादी संस्कृति के वर्तमान दौर में अर्थोपार्जन की लालसा में भागते हुए व्यक्ति के पास परिवार के लिए समय नहीं है। विशेष रूप से नौकरीपेशा परिवारों में व्यक्ति दफ्तर के कामकाज में इतना व्यस्त रहता है कि घर भी उसका दफ्तर ही बना रहता है और यंत्रवत चलता हुआ वह पैसा कमाने की मशीन बनकर रह जाता है। इन परिवारों के बच्चे अपने माता-पिता के प्यार दुलार से वंचित हो जाते हैं जो उनके लिए जीवन के लिए सबसे उत्तम एवं जरूरी पोषण है। ऐसे एकल परिवार जिसमें पति-पत्नी दोनों नौकरीपेशा होते हैं, उनमें बच्चों के लिए माँ बाप का प्यार दुलार और भी दुर्लभ चीज हो जाती है। भौतिक खिलौने ही इन बच्चों के साथी व संरक्षक होते हैं या ऐसे परिवारों में काम पर आने वाली औरतें(बाइयाँ) उनकी देखभाल करती है जिनसे इनका कोई आत्मीय जुड़ाव नहीं होता है। बचपन में माता-पिता के प्यार से वंचित इन बच्चों का अपने माँ-बाप से भी खास आत्मीय लगाव नहीं हो पाता है और ये ही बच्चे आगे चलकर माता-पिता के लिए बदजबानी व संस्कारहीन हो जाते हैं। नौकरी पैसा परिवारों में कामकाजी महिलाओं के पास अपने बच्चों को दुलारने, प्यार करने के अवसर नहीं के बराबर होते हैं। छोटे बच्चों से माँ के दामन के दूर होने के संकट को बयां करते हिंदी ग़ज़लकार लिखते हैं कि मानों अब मशीनें ही बच्चों को लोरियाँ देंगी। ऐसे बच्चों की मनस वेदना को अभिव्यक्ति देते हुए हिंदी ग़ज़लकार कहते हैं
“हमारे दौर में ऐसी तरक्कियाँ होंगी
कि खूँटियों पे टँगी माँ की लोरियाँ होंगी।” [19] (ज्ञान प्रकाश विवेक)
“महीने भर का बच्चा माँ की ममता को तरसता है
मगर माँ क्या करे दफ़्तर से जब छुट्टी नहीं पाती।”[20]
“जिसे माँ-बाप कमरे में अकेला छोड़ जाते थे
वो बच्चा जब नज़र आया, मुझे रूठा नज़र आया।”[21] (ज्ञान प्रकाश विवेक)
“वो कोई सेठ का बालक है यारो!
खिलौनों से बहुत उक्ता गया है।”[22] (ज्ञान प्रकाश विवेक)
“मशीनें लोरियाँ देंगी तमाम बच्चों को
ये होगा हादसा इक्कीसवीं सदी के लिए।”[23] (ज्ञान प्रकाश विवेक)
“शब्दकोशों में बचेंगे प्यार के अल्फ़ाज़ अब
बढ़ रही बच्चों में दिन-दिन बदज़बानी हे प्रभो!”[24] (वशिष्ठ अनूप)
अर्थ प्रधान इस युग में अर्थ की प्राप्ति के लिए हर नैतिक- अनैतिक कार्य जायज बन गया है और अर्थ की इस अतृप्त लालसा की पूर्ति के लिए बहुत से अपराधी प्रवृत्ति के लोग या संगठित अपराध गिरोह बच्चों को भी अपनी अर्थ पूर्ति का साधन बनाते है। ये अपराधी लोग बच्चों की चोरी या अपहरण कर उनकी खरीद फरोख्त करते हैं, बाल तस्करी करते हैं या उन्हें अनैतिक व आपराधिक कार्यों में संलग्न कर उनसे पैसा कमाते हैं। जैसे याचनावृत्ति हमारे दौर का संगठित पेशा बन गया है। महानगरों में इसका सुनियोजित तंत्र स्थापित है जो तस्करी से खरीदे गये बच्चों को याचक के वेष में दयनीय हालत में सड़कों, गली-मोहल्लों में याचनावृत्ति के लिए छोड़ देते हैं और भीख से प्राप्त पैसों से अपनी धन पिपासा शांत करते हैं। बच्चों को माध्यम बनाकर अकूत धनराशि कमाने के बावजूद ये अपराधी लोग उन बच्चों के साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं। अपराधियों के हाथों में पड़कर बच्चों से न केवल उनका बचपन छिन जाता है, अपितु उनका सम्पूर्ण जीवन ही बर्बाद हो जाता है। हिंदी ग़ज़ल में भिक्षुक संगठनों के द्वारा बच्चों पर होने वाले अत्याचार का दर्दनाक चित्र खींचा गया है -
“वो भीख माँगता ही नहीं था... इसीलिए,
उस फूल जैसे बच्चे को अंधा किया गया।”[25] (जहीर कुरेशी)
बचपन से वंचित बच्चों में एक वर्ग अनाथ बालकों का है। वर्तमान दौर में नैतिक बंधनों के शिथिल होने से अवैध संबंधों से पैदा होने वाली संतानों की संख्या बढ़ती जा रही है जिन्हें उनके माँ-बाप लावारिस छोड़ देते हैं। माता- पिता के द्वारा परित्यक्त इन बच्चों का दुनिया में कोई ठौर-ठिकाना नहीं होता है। इनकी स्थिति उस कटी पतंग की तरह होती है जिसे न जमीन मिलती है और न ही आसमान। तलाकशुदा जोडो़ की संतानों की पीड़ा भी ऐसी ही है। बचपन की सुख सुविधाओं मां-बाप के प्यार से वंचित इन बच्चों की अकथ वेदना हिंदी ग़ज़ल में इस प्रकार अभिव्यक्त हुई है-
“कटी पतंग की मानिन्द मैं भटकता हूँ
मुझे ज़मीन मिली है न आसमान यहाँ
प्लेटफा़र्म पे बालक भटकता-फिरता है
कि अपना ढूँढ़ता-फिरता है ख़ानदान यहाँ।” [26] (ज्ञान प्रकाश विवेक)
बचपन में माता-पिता की परवरिश व प्यार एवं शिक्षा से वंछित बच्चों के व्यक्तित्व का नैसर्गिक विकास नहीं हो पता है। इन बच्चों में प्रेम व संवेदनशीलता जैसे मानवीय गुणों एवं पारिवारिक संस्कारों का विकास नहीं हो पाने के कारण एक ओर जहाँ अपने बुढ़ापे में माता-पिता इनकी देखभाल व प्रेम से वंचित रहते हैं, तो दूसरी ओर उचित मार्गदर्शन के अभाव में ये जाने-अनजाने में अपराध व नशे की भूलभुलैयाँ वाली दुनिया में प्रवेश कर जाते हैं। सामयिक परिवेश का बारीकी से अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि माता-पिता के प्यार से वंचित बच्चों में अपराध प्रवृति बढ़ रही है। ऐसे बच्चे खिलौनों की जगह हथियारों से प्यार करने लगने लगे हैं। यह उनके जीवन को बर्बादी की ओर ले जा रहा है। आर्थिक मजबूरियों के बोझ को ढोते कुछ बच्चे बुरी संगत में पड़कर नशे के शिकार हो जाते हैं तथा बचपन में ही अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। हिंदी ग़ज़ल में ऐसे बच्चों की चिंताजनक तस्वीरें चित्रित हैं-
“कबाड़ा बीनते बच्चों की ज़िन्दगी देखो
कबाड़ा बेच के वो फिर चरस ख़रीदेंगे।”[27] (हरेराम समीप)
“रखे हैं ताक पे सारे खिलौने,
नया बचपन गुलेलें माँगता है।”[28] (शिव ओम अंबर)
“खड़ा हूँ उस जगह लेकर खिलौने
जहाँ हथियार की मंडी सजी है।”[29] (ज्ञान प्रकाश विवेक)
हिंदी ग़ज़ल में बचपन से वंचित बच्चों की स्थितियों एवं पीड़ाओं का कोरा शुष्क चित्रण नहीं है, अपितु वंचित-उपेक्षित बच्चों के प्रति बेहद संवेदनशील हिंदी ग़ज़लकार बच्चों से बचपन के छिनने से चिंतित हैं और उनकी चिंता इस बात से और भी अधिक गहरी हो जाती है कि समाज ऐसे बच्चों की समस्याओं के प्रति संवेदनशून्य बना हुआ है। हिंदी ग़ज़लकार अपने अश्आर के माध्यम से समाज में यह चेतना जाग्रत करने का प्रयास करते हैं कि बच्चों से छिनते बचपन को बचाने और उन्हें बचपन की खुशियाँ, मस्ती एवं अधिकार दिये जाने की आज सख्त जरुरत है। इसीलिए इक्कीसवीं सदी की हिंदी ग़ज़ल में बच्चों से बचपन खोने के प्रति चिंता के स्वर के साथ उसे बचाए रखने की प्रभावी अपील भी हुई है।
“ये बुझा-उदास सा बचपना, दम तोड़ती किलकारियाँ
इन्हें ज़िन्दगी दे, पंख दे, ,परवाज़ दे, नये ख़्वाब दे।” [30] (वशिष्ठ अनूप)
“नन्हे-मुन्नों से ममता का आँगन मत छीनो,
बच्चों के जीवन से उनका जीवन मत छीनो।
रोना हँसना जिद करना बच्चों की फ़ितरत है,
नयी कोपलों को बढ़ने दो, ठनगन मत छीनो।
जाने दो स्कूल उन्हें, सपनों को खिलने दो,
उड़ने दो उन्मुक्त गगन में, मधुबन मत छीनो।
सारा जीवन तो तपना है जेठ-दुपहरी में,
तितली वाली उम्र में उनसे सावन मत छीनो।
कठिन काम पर मत भेजो, दो कॉपी-क़लम उन्हें,
इसी उम्र में उनके सर से दामन मत छीनो।” [31] (वशिष्ठ अनूप)
निष्कर्ष : पूंजीवादी एवं बाजारु संस्कृति के इस दौर में हर वर्ग-समुदाय के बालक अलग-अलग कारणों से बचपन से वंचित हो रहे हैं। वंचित समुदायों के प्रति पूरी तरह से संवेदनशील हिंदी ग़ज़ल की केंद्रीय दृष्टि इन वर्गों की समस्याओं, दुश्वारियों एवं पीड़ाओं पर ही टिकी है। यही कारण है कि इक्कीसवीं सदी की हिंदी ग़ज़ल के धरातल का अधिकांश भाग वंचित समुदायों की समस्याओं पर केंद्रित विमर्शी साहित्य का है, जिसमें बाल विमर्श की जमीन का भी बहुत बड़ा स्थान है बच्चों के प्रति बेहद संवेदनशील हिंदी ग़ज़लकार गरीबी, बाल श्रम, शिक्षा के अभाव, शिक्षा के अत्यधिक बोझ एवं अन्य विविध कारणों से बचपन से वंचित हो रहे बच्चों की समस्याओं एवं उनकी पीड़ादायक करुण स्थितियों का न केवल मार्मिक चित्रण करते हैं, बल्कि उनके सुखद व समृद्ध भविष्य के लिए हँसते-खेलते बचपन को बचाने की भी वकालत करते हैं। सार रूप में कह सकते हैं कि इक्कीसवीं सदी के हिंदी ग़ज़लकारों ने बाल साहित्य के अन्तर्गत बाल विमर्श की नई जमीन तोड़ी है, जो निरंतर उर्वर व विस्तृत होती जा रही है।
संदर्भ :
- प्रेमचंद, कर्मभूमि, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 133
- ज्ञान प्रकाश विवेक, काग़ज़ी छतरियां बनाता हूँ, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2022, पृ. 25
- वही पृ.118
- वही पृ. 18
- विनय मिश्र, सच और है, लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस, 2020, पृ. 113
- ज्ञान प्रकाश विवेक, काग़ज़ी छतरियां बनाता हूँ, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2022, पृ. 78
- ज़हीर कुरेशी, जिंदगी से बड़ा जिंदगी का समर, अयन प्रकाशन, दिल्ली, 2019 पृ. 38
- ज्ञान प्रकाश विवेक, काग़ज़ी छतरियां बनाता हूँ, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2022, पृ. 51
- महेश अग्रवाल, अभी शेष है, शिवमपूर्णा प्रकाशन, भोपाल, 2022, पृ. 89
- रामकुमार कृषक, पढ़िए तो आँख पाइए, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली 2022, पृ. 53
- वशिष्ठ अनूप, रोशनी की कोपलें, उद्भावना प्रकाशन, दिल्ली, 2010, पृ.56
- वशिष्ठ अनूप, छंद तेरी हँसी का, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2023, पृ. 137
- हरेराम समीप, चयनित ग़ज़लें, न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, दिल्ली, 2023, पृ. 23
- वही पृ. 27
- जहीर कुरेशी, ज़िंदगी से बड़ा ज़िंदगी का समर, अयन प्रकाशन, दिल्ली, 2019, पृ. 107
- देवेंद्र आर्य, जो पीवे नीर नैना का, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2018 पृ.103
- रामकुमार कृषक, पढ़िए तो आँख पाइए, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली 2022, पृ. 151
- वशिष्ठ अनूप, रोशनी की कोपलें, उद्भावना प्रकाशन, दिल्ली, 2010, पृ. 93
- ज्ञान प्रकाश विवेक, घाट हजारों इस दरिया के, वाणी प्रकाशन, दिल्ली 2017, पृ. 105
- डी. एम. मिश्र, रोशनी का कारवाँ, नमन प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृ. 107
- ज्ञान प्रकाश विवेक, घाट हजारों इस दरिया के, वाणी प्रकाशन, दिल्ली 2017, पृ. ) 88
- वही पृ. 42
- वही पृ. 45
- वशिष्ठ अनूप, रोशनी खतरे में है, उद्भावना प्रकाशन, दिल्ली, 2006, पृ. 57
- डॉ. मधु खराटे (संपादक), जहीर कुरेशी की चुनिंदा ग़ज़लें, विद्या प्रकाशन, कानपुर, 2009 पृ. 114
- ज्ञान प्रकाश विवेक, काग़ज़ी छतरियां बनाता हूँ, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2022, पृ. 52
- हरेराम समीप, यह नदी खामोश है, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2021, पृ. 40
- शिव ओम अंबर, विष पीना विस्मय मत करना, पांचाल प्रकाशन, फर्रुखाबाद, 2018, पृ. 21
- ज्ञान प्रकाश विवेक, काग़ज़ी छतरियां बनाता हूँ, बोधि प्रकाशन, जयपुर, 2022, पृ. 50
- वशिष्ठ अनूप, रोशनी की कोपलें, उद्भावना प्रकाशन, दिल्ली, 2010, पृ.33
- वशिष्ठ अनूप, छंद तेरी हँसी का, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2023, पृ.97
महावीर सिंह
शोधार्थी, हिंदी विभाग, राजकीय कला कन्या महाविद्यालय, कोटा
th.mahaveersingh@gmail.com, 9667362167
शोध पर्यवेक्षक
कविता मीणा
सह आचार्य, हिंदी राजकीय कला कन्या महाविद्यालय, कोटा
बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक : दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
एक टिप्पणी भेजें