शोध आलेख : संस्कृत बाल साहित्य पंचतंत्र की वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता / जितेंद्र थदानी

संस्कृत बाल साहित्य पंचतंत्र की वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता 
– जितेंद्र थदानी


शोध सार : बालमन अत्यंत ही सरल सहज एवं पारदर्शी हुआ करता है बालक के मन में किसी प्रकार का राग, द्वेष, लोभ,मोह, ईर्ष्या, छल, कपट इत्यादि विकार नहीं हुआ करते हैं। धीरे धीरे वह जैसे ही विकारमय लोगों एवं समाज के संपर्क में आता है उन विकारों का संक्रमण बालकों में भी हुआ करता है। उसका परिणाम यह होता है कि अत्यंत सरल सहज बालमन सही और गलत का निर्णय नहीं कर पाने के कारण से उन विकारों से ग्रस्त हो जाता है और यह विकार न केवल उस बालक के लिए हानिकारक है अपितु संपूर्ण समाज राष्ट्र एवं विश्व के लिए भी उतने ही घातक परिणाम वाले हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में पंडित विष्णु शर्मा ने राजा के मूर्ख पुत्रों को विद्वान् बनाने के माध्यम से जो पंचतंत्र रूपी नवनीत नीति शास्त्र को मंथन करके प्रदान किया है वह वर्तमान समय में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था। कई बार ऐसा ज्ञात होता है कि पंडित विष्णु शर्मा ने राजपुत्रों को लक्ष्य करके यह संपूर्ण ज्ञान हम लोगों को प्रदान किया है ताकि हम उतने ही सरल सहज बने रहते हुए समाज में विद्यमान बुराइयों का सामना कर सकें तथा अपने आप को विकारों से रहित रखते हुए अपनी प्रगति कर पाए। इस शोध पत्र में बाल साहित्य पंचतंत्र की वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता के ऊपर प्रकाश डाला जाएगा

बीज शब्द : समस्या, समाधान, भौतिकतावाद, सदाचरण, पवित्रता, बुद्धिमत्ता, नीति,व्यसन, उपदेश, परिस्थितियां, परिश्रम, अनुकूलता, प्रतिकूलता, धैर्य,बुद्धि, त्याग,समर्पण, विवेकशून्यता, कर्त्तव्य, अकर्त्तव्य, आलस्य, अकर्मण्यता, स्वार्थ,परमार्थ, कृतज्ञता, मित्रद्रोह, मित्रधर्म, अतिथिसेवा, एकता, संगठन, उत्तम और मधुर वाणी, प्रासंगिकता।

मूल आलेख : संस्कृत भाषा में विरचित पंचतंत्र बालसाहित्य की एक अमूल्य रचना है। इस ग्रंथ की रचयिता के रूप में हमें पंडित विष्णु शर्मा का नाम ज्ञात होता है। पंचतंत्र नीतिकथा साहित्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें भारत की अत्यंत प्राचीन कथाओं का संग्रह विद्यमान है। ग्रंथ के प्रारंभ में ही यह उल्लेख आता है कि दक्षिण के महिलारोप्य नामक नगर के अमरकीर्ति राजा के मुर्खपुत्रों को विद्वान एवं नीति का ज्ञाता बनाने हेतु राजा को एक योग्य गुरु की आवश्यकता थी। तभी राज्य के एक नीतिकुशल पंडित विष्णु शर्मा ने षड्-मास की अल्पावधि में यह दुष्कर कार्य संपन्न कर राजा के अल्प बुद्धि पुत्रों को बुद्धिमान एवं नीतिज्ञ बना दिया। उन्होंने नीतिपूर्ण, लौकिक एवं व्यवहारिक मनोरंजक कथाओं के माध्यम से अत्यंत अल्प समय में ही उन राजकुमारों को समझदार सदाचारसंपन्न एवं नीतिकुशल बना दिया। कहा भी गया है_

“कथाच्छलेन बालानां नीति तदीह कथ्यते”1

पंचतंत्र की कथा के द्वारा ज्ञान प्रदान करने की अपनी एक अद्भुत विशिष्ट रोचक शैली है जिसमें विभिन्न जीव जंतुओं को पात्र के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया है। इसी कारण यह कथाएं समाज धर्म जाति देश इत्यादि की मर्यादाओं से परे हटकर संपूर्ण विश्व को नीति का उपदेश करने का साधन बन गई। वस्तुत: पंचतंत्र में एक मुख्य कथा है तथा उसी की पुष्टि हेतु क्रमशः अनेक गौणकथाएं उपकथाएं आकर के उस मुख्य कथा को पुष्पित पल्लवित एवं पुष्ट करती रही तथा नीति संबंधी विशेष विषयों पर एक नवीन दृष्टि प्रदान करती रही।

नीति का उपदेश करना पंचतंत्र का परम चरम लक्ष्य है। वस्तुत: इस ग्रंथ में सरल उपदेश शैली के द्वारा नीति की विजय, अनीति की पराजय, सदाचार और उच्च आदर्शो को स्थापित किया गया है। पशु पक्षियों की विभिन्न मनोरंजनात्मक कथाओं के साथ-साथ अत्यंत ही सहज रूपेण धर्म, अर्थ, का, नीति, अनीति, सदाचार, आदर्शराजनीति, कूटनीति एवं व्यवहार का ज्ञान पंडित विष्णु शर्मा के द्वारा जिस प्रकार से राजपुत्रों को दिया गया वह अन्यत्र दुर्लभ है। पुरुषार्थचतुष्ट्य में से केवल त्रिवर्ग का ही उपदेश इस ग्रंथ में किया गया है। यतोहि मोक्ष तत्त्व बालकों के सुखबोध हेतु अनुयुक्त है ।

पंडित विष्णु शर्मा ने छल कपट एवं प्रपंच से भरे हुए इस संसार में किस प्रकार से एक नैतिक जीवन जीना चाहिए उसका उपदेश पशु पक्षियों की कथाओं के माध्यम से अत्यंत सरलता से कर दिया। बल-बुद्धि-प्रधान मनुष्य भी इन कथाओं के उपदेश को हृदयंगम कर अपना जीवन सुलभ, सफल, सरल एवं सार्थक बना सकते हैं।

पंचतंत्र में तो यहां तक कह दिया गया है कि जो भी इस नीति शास्त्र का निरंतर अध्ययन करता है या इसको नित्य ही श्रवण करता है वह निश्चित रूप से देवराज इंद्र के द्वारा भी कभी भी पराभव को प्राप्त नहीं कर सकता

अधीते य इदं नित्यं नीतिशास्त्रं शृणोति च।
न पराभवमाप्नोति शक्रादपि कदाचन ॥2

वस्तुत: पंचतंत्र में जीवन की विभिन्न वैयक्तिक, सामाजिक समस्याओं का समाधान निहित है। उन्हीं समस्याओं के समाधान पर इस शोध पत्र में चर्चा की जाएगी।

इस कलिकाल में समस्याओं का आधिक्य है। राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, और मात्सर्य का हर जगह बोलबाला है ऐसी स्थिति में पंचतंत्र एक मधुर औषधि के समान विभिन्न समस्याओं का समाधान करती है धर्म, अर्थ, का, दंड, राजनीति, नीति, विवेक तथा विभिन्न सद्गुणों का उपदेश करते हुए जीवन को सुगम बनाने का मार्ग प्रशस्त करती है।

वर्तमान समय में भौतिकतावाद में धन को इतना महत्त्वपूर्ण बना दिया है कि विभिन्न रिश्तों में कड़वाहट एवं खटास उत्पन्न कर दी है। अर्थ का न केवल वर्तमान समय में महत्त्वपूर्ण स्थान है अपितु तत्कालीन समय में भी धन का महत्त्वपूर्ण स्थान था। किंतु धन का नीति पूर्वक उपयोग ही उचित है । यद्यपि धन वर्तमान जीवन में सब कुछ नहीं है तथापि बहुत कुछ है कहा भी गया है- “अर्थ बिना सब व्यर्थ है।” क्योंकि जीवन की विभिन्न समस्याओं का समाधान धन के द्वारा किया जाता है किंतु वह धन सदाचरण पवित्रता से युक्त होना चाहिए।

यद्यपि धन के कई दोष दुर्गुण शास्त्रों ने बताए हैं तथापि पंचतंत्र के अपेक्षित कारक में निर्धनता को धिक्कार करते हुए पंडित विष्णु शर्मा ने धन के महत्त्व पर भी प्रकाश प्रकाश डालते हुए कहा है कि

जिस व्यक्ति के घर में धन का अभाव होता है उसको सदाचार, पवित्रता, क्षमा, उदारता, प्रियवादिता, श्रेष्ठ वंश में जन्म लेना यह गुण सुशोभित नहीं करते साथ ही धन का अभाव होने पर मान, गर्व विशिष्ट ज्ञान, आनंद, विलास, सद्बुद्धि इत्यादि सद्गुण भी उसे व्यक्ति को छोड़कर के चले जाते हैं ।

शीलं शौचं क्षान्तिर्दाक्षिण्यं मधुरता कुले जन्म।
न विराजन्ति हि सर्वे वित्तविहीनस्य पुरुषस्य ॥
मानो वा दर्पो वा विज्ञानं विभ्रमः सुबुद्धिर्वा।
सर्वं प्रणश्यति समं-वित्तविहीनो यदा पुरुषः ॥3

मित्र भेद में भी पंडित विष्णु शर्मा ने धन की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा है कि संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे धन के द्वारा प्राप्त न किया जा सके अतः बुद्धिमान व्यक्ति को अपने संपूर्ण प्रयासों के द्वारा एकमात्र धन का अर्जन करना चाहिए क्योंकि जिस व्यक्ति के पास धन है उसी के ही समस्त मित्र बनते हैं उसी के ही बंधु बांधव होते हैं वहीं इस संसार में उत्तम पुरुष और विद्वान भी माना जाता है अतः बुद्धिमान व्यक्ति को प्रयत्न पूर्वक धन का अर्जन करना चाहिए।

कितनी सुंदर बात है कि धन का अर्जन करना चाहिए किंतु साथ ही साथ यह भी कहा गया है कि अत्यंत लोभ नहीं करना चाहिए कितनी विरोधाभास पूर्ण बात होते हुए भी सार्थक है की धन का अर्जन जीवन के सुख सुविधाओं के लिए आवश्यक है किंतु उसे धन का अत्यधिक लोभ नहीं होना चाहिए क्योंकि लोभ मनुष्य को अर्श से फर्श तक पहुंचाने का सामर्थ्य रखता है कहां भी गया है

अतिलोभो न कर्तव्यो, लोभं नैव परित्यजेत्।
अतिलोभाभिभूतस्य चक्रं भ्रमति मस्तके ॥4

पंडित विष्णु शर्मा ने इस पंचतंत्र की रचना ही राजपुत्रों के कर्त्तव्याकर्त्तव्य शिक्षण के लिए की है । जैसे ही बालक विद्यार्थी के रूप में विद्यालय जाना प्रारंभ करता है तब उसे अनेक प्रकार के मित्र प्राप्त होते हैं वस्तुत: कुछ सही होते हैं सन्मार्गी होते हैं सज्जन होते हैं तथा कुछ पथभ्रष्ट मित्र भी उसे प्राप्त होते हैं। तब बालमन यह निर्णय नहीं कर पाता है कौन मित्र है? किसे अपना मित्र बनना चाहिए? और किसी नहीं?

इतना ही नहीं मित्र भेद नाम के अध्याय में वृद्ध वानर के द्वारा यह भी निर्दिष्ट किया गया है कि किस से बात करनी चाहिए तथा किस नहीं। बार-बार किसी कार्य को करने में जो व्यक्ति असफल हो चुका है जो व्यक्ति अपने व्यापार में पराजित हो चुका है ऐसे व्यक्ति से बुद्धिमान व्यक्ति को जो कि अपना हित चाहता है उसे बात तक नहीं करनी चाहिए साथ ही जो मूर्ख, शिकारी, व्यर्थ परिश्रम करने वाले, और व्यसनों में लगे हुए व्यक्ति हैं उनसे भी वार्तालाप का निषेध किया गया है । कहने का तात्पर्य जो व्यक्ति अपने जीवन में पुनः पुनः असफल हो चुका है जिसकी की दूरदृष्टि स्पष्ट नहीं है जो प्रत्येक कार्य में पराजित हो चुका है जो अपने धर्म कर्म व्यापार इत्यादि में असफल हो चुका है जो व्यर्थ ही अटन करता है, जो व्यर्थ का परिश्रम करता है, जो व्यसनी है ऐसे व्यक्तियों के साथ मित्रता तो क्या वार्तालाप करने तक का भी निषेध किया गया है

मुहुर्विध्नितकर्माणं द्यूतकारं पराजितम्।
नालापयेद्विवेकज्ञो यदीच्छेत्सिद्धिमात्मनः ॥
आखेटकं वृथाक्लेशं, मूर्ख व्यसनसंस्थितम्।
आलापयति यो मूढः स गच्छति पराभवम् ॥
पण्डितोऽपि वरं शत्रुर्न मूर्खा हितकारकः।
वानरेण हतो राजा, विप्राश्चौरेण रक्षिताः ॥ 5

मित्र भेद में पुनः बताया गया है जिस व्यक्ति के हृदय में धन प्राप्त होने पर भी विकार उत्पन्न ना रहे ऐसी अवस्था वाले व्यक्ति को ही अपना सच्चा मित्र मानना चाहिए निश्चित रूप से वर्तमान समय में धन की बहुत अधिक महत्त्व के कारण से लोग धन के ही मित्र हुए जा रहे हैं ऐसी स्थिति में जो व्यक्ति धन, प्रतिष्ठा, पद इत्यादि के कारण से अगर आपसे मित्रता करता है वह सच्चा मित्र नहीं माना जा सकता है

जो व्यक्ति संकट आने पर भी मित्र बना रहे वास्तविक सन्मित्र वही है अन्यथा समृद्धि के काल में तो शत्रु भी मित्र ही बन जाते हैं

विकारं याति नो चित्तं वित्ते यस्य कदाचन।
मित्रं स्यात्सर्वकाले च, कारयेन्मित्रमुत्तमम्॥
विद्वद्भिः सुहृदामत्र चिद्वैरेतैरसंशयम्।
परीक्षाकरणं प्रोक्तं होमाग्नेरिव पण्डितैः ॥
आपत्काले तु सम्प्राप्ते यन्मित्रं, मित्रमेव तत्।
वृद्धिकाले तु सम्प्राप्ते दुर्जनोऽपि सुहृद्भवेत्।।6

पंचतंत्र के मित्र भेद नामक तंत्र में आषाढ़भूति जंबूक-दूती कथा में धैर्य और परिश्रम के विषय में भी प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि मनुष्य को विपरीत समय आ जाने पर भी, संकटकाल उपस्थित होने पर भी, भाग्य के विपरीत हो जाने पर भी प्रयत्न कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए, ना ही धैर्य का त्याग करना चाहिए। कहा गया है कि मनुष्य को भाग्य के प्रतिकूल हो जाने पर भी धीरता का त्याग कभी भी नहीं करना चाहिए धैर्य के कारण से कभी-कभी पूर्ववत् अनुकूल स्थितियां प्राप्त हो जाती है जिस प्रकार से समुद्र में जहाज के डूब जाने पर भी वणिक अपने व्यापार की इच्छा रखता है उसी प्रकार से मनुष्य को परिस्थितियों एवं भाग्य के प्रतिकूल हो जाने पर भी धैर्य धारण करके अच्छे समय का इंतजार करना चाहिए

त्याज्यं न दैवे विधुरेऽपि धैर्यं, धैर्यात्कदाचित्स्थितिमाप्नुयाद् यः।
जाते समुद्रेऽपि हि पोतभङ्गे, सांयात्रिको वाञ्छति तर्तुमेव ॥ 7

इसके साथ ही परिश्रमी व्यक्ति को किस प्रकार अपना कर्म करना चाहिए, परिश्रमी व्यक्ति ही लक्ष्मी को प्राप्त करता है क्योंकि कायर पुरुषों का तो यह मानना होता है कि जीवन में जो कुछ भी प्राप्त होता है वह भाग्य से प्राप्त होता है किंतु परिश्रमी व्यक्तियों को भाग्य का साथ छोड़कर के पुरुषार्थ के साथ काम करना चाहिए। लेकिन कई बार प्रयत्न करने पर भी, परिश्रम करने पर भी कार्य अगर सिद्ध नहीं होता है तो वहां भी हताश एवं निराश ना हो करके उस कार्य सिद्धि में दोष को ढूंढ करके उस दोष के निराकरण करके कार्य को करना चाहिए

उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी:
दैवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति ।
दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या
यत्ने कृते यदि न सिद्धयति कोऽत्र दोषः ||8

विपरीत परिस्थितियों होने पर भी मनुष्य धैर्य के साथ और बुद्धि के प्रभाव से उन विपरीत परिस्थितियों को दूर कर देता है इसीलिए विपरीत परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपनी बुद्धि को सम रखने तथा धैर्य का त्याग नहीं करना चाहिए। जिस व्यक्ति की बुद्धि विभिन्न प्रकार के व्यसनों विपत्तियों के आ जाने पर भी नष्ट नहीं होती है वह अपनी इस बुद्धि के प्रभाव से जीवन की विभिन्न प्रकार की समस्याओं और विपत्तियों को दूर कर देता है

व्यसनेष्वेव सर्वेषु यस्य बुद्धिर्न हीयते।
स तेषां पारमभ्येति तत्प्रभावादसंशयम्॥9

महापुरुष लोग संपत्ति और विपत्ति के समय सम रहते हैं क्योंकि वह इस स्थिति को जानते हैं कि यह जो संपत्ति है यह स्थिर नहीं है इसलिए अहंकार नहीं करते तथा विपत्ति के समय भी वे धैर्य को धारण करते हैं विचलित नहीं होते क्योंकि वे यह भी जानते हैं कि विपत्ति भी हर समय नहीं रहने वाली है यह भी अस्थिर है, अस्थाई है आज नहीं तो कल यह विपत्ति भी चली जाएगी इस प्रकार से महापुरुष संपत्ति और विपत्ति के समय में भी समभाव से रहते हैं जिस प्रकार से सूर्य उदय होने के समय रक्त वर्ण का रहता है तथा अस्त होने के समय भी रक्त वर्ण का ही रहता है क्योंकि सूर्य यह जानता है यह उदय और अस्त की प्रक्रिया निरंतर रहने वाली नहीं है

संपत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।
उदये सविता रक्तो रक्तश्चाऽस्तसमये तथा ॥10

वर्तमान समय में बालक कर्त्तव्य अकर्त्तव्य कर्मों में भेद नहीं कर पाते हैं कई बार यह विचारशून्यता, विवेकशून्यता स्वभाववश कई बार प्रकृतिवश कई बार अवस्थावश होती है ऐसी स्थिति में पंचतंत्र उपदेश करती है कैसी भी परिस्थिति आ जाए जीवन में अकरणीय कर्म नहीं करना चाहिए।प्राण त्याग की स्थिति उत्पन्न होने पर भी अनुचित कर्म को नहीं करना चाहिए और उचित कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए यही सनातन धर्म है

अकृत्यं नैव कर्तव्यं प्राणत्यागेऽप्युपस्थिते ।
न च कृत्यं परित्याज्यमेष धर्मः सनातनः ॥11

इसी प्रकार सही और गलत अच्छे और बुरे कर्मों के परिणाम का विचार करके भी मनुष्य को अपने कर्मों पर विशेष सावधानी रखनी चाहिए। मनुष्य अपने द्वारा किए गए अच्छे एवं बुरे कर्मों का भाग्य के कारण से इस स्थान से इस कारण से इस समय इस प्रकार वहीं और उतना ही फल प्राप्त करता है जिस कारण जिस स्थान से जिस काल में जिस प्रकार से जितना उसे फल मिलना चाहिए। इसीलिए कर्म के विषय में फल को ध्यान में रखते हुए भी हमें सत्कर्म करने चाहिए

यस्माच येन च यदा च यथा च
यच्च यावच्च यत्र च शुभाऽशुभमात्मकर्म।
तस्माच तेन च तदा च तथा च
तच्च तावच्च तत्र च कृतान्तवशादुपैति ॥12

परिश्रम करने के साथ-साथ आलस्य त्याग करने का उपदेश पंचतंत्र देती है क्योंकि जो व्यक्ति आलसी होकर के अपने कर्मों का शत्रुओं का एवं रोगों का अपेक्षा भाव से त्याग कर देता है वही वर्धमान होते हुए शत्रु एवं रोग उसे आलसी मनुष्य को नष्ट कर देते हैं जो व्यक्ति शत्रु को एवं रोग को उत्पन्न होते ही नष्ट नहीं करता है वह अत्यंत पुष्ट अंगों वाला होने पर भी,अत्यंत समर्थ एवं समृद्ध होने पर भी शत्रु एवं रोगों के द्वारा मारा जाता है अतः जीवन में प्रत्येक क्षण प्रत्येक कार्य में आलस्य का त्याग करते हुए निरन्तर कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए

य उपेक्षेत शत्रु स्वं प्रसरन्तं यदृच्छया।
रोगञ्चालस्यसंयुक्तः स शनैस्तेन हन्यते ॥
जातमात्रं न यः शत्रु व्याधिञ्च प्रशमं नयेत्।
अतिपुष्टाङ्गयुक्तोपि स पश्चात्तेन हन्यते॥13

प्रत्येक व्यक्ति को आलस्य का त्याग करके कर्म करने चाहिए न केवल कर्म करने में ध्यान रखना चाहिए अपितु न करने योग्य कर्मों का विशेष ध्यान रखना चाहिए क्योंकि जिस कर्म को, जिस कार्य को करने से अपयश की प्राप्ति हो अवगति हो या स्वयं का पतन हो ऐसे कर्मों का त्याग कर देना चाहिए पंचतंत्र में पुनः पुनः कर्मों के विषय में गीता के समान सावधान करते हुए कर्म करने का उपदेश दिया गया है जो कर्म करने चाहिए उनके विषय में भी सावधानी तथा अकरणीय कर्मों के विषय में भी सावधानी का उपदेश किया गया है

अयशः प्राप्यते येन, येन चाऽपगतिर्भवेत्।
स्वार्थाच भ्रश्यते येन, तत्कर्म न समाचरेत्॥14

बालकों का मन छल छद्म से रहित होने के कारण नितांत निर्मल शांत हुआ करता है जिसके कारण से भी वे वर्तमान समय की मायावी दुनिया का सत्य न तो समझ पाते हैं न पहचान पाते हैं ऐसी स्थिति में कोई भी व्यक्ति अगर उनका प्रयोजन पूर्वक भी कुछ अच्छा या हित करता है तो वह बड़ी निश्छलता के कारण से उसके छल को नहीं समझ पाते हैं। जैसा कि आजकल हमें देखने को ही मिलता है कि बच्चों को थोड़ा सा प्रेम, लाभ, लोभ लालच देकर के उनके अपहरण तक किए जाते हैं ऐसी स्थिति में पंचतंत्र हमें उपदेश करती है कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति प्रयोजन के बिना किसी का प्रिय नहीं करता है कोई यदि निष्प्रयोजन होकर के प्रिय कर रहा है तो हमें सावधान होकर के उसकी प्रयोजन को अन्वेषण करना चाहिए तथा सत्-असत् का विवेक करते हुए निर्णय लेना चाहिए

न भक्त्या कस्यचित्कोऽपि प्रियं प्रकुरुते नरः।
मुक्त्वा भयं प्रलोभं वा कार्यकारणमेव वा ॥15

साथ ही कोई व्यक्ति प्रयोजन के बिना अगर किसी को अत्यधिक आदर दे रहा है तो वहां भी संदेह किया जाना चाहिए क्योंकि इस प्रकार के अत्यधिक आदर का परिणाम अत्यंत कष्टपूर्ण हुआ करता है । बालक इस बात का विशेष ध्यान रखें कि जब भी कहीं से हमें बहुत अधिक प्रेम या आदर प्राप्त हो रहा हो तो निश्चित रूप से वहां संदेह करना चाहिए किंतु जहां पर ऐसी परिस्थिति हो वहां पर इस शास्त्र की बात को मानते हुए जहां अत्यधिक आदर एवं प्रेम प्राप्त हो रहा हो वहां संदेह करते हुए उस आदर और प्रयोजन के पीछे के कारण को जानने का प्रयास करना चाहिए जिससे कि हम अत्यंत कष्टपूर्ण परिणाम से मुक्त हो सके

अत्यादरो भवेद्यत्र कार्यकारणवर्जितः ।
तत्राऽऽशङ्का प्रकर्तव्या परिणामे सुखावहा॥16

इस विवेक के साथ में बालकों को कभी भी मित्रद्रोही, विद्रोही कृतघ्न एवं विश्वासघाती नहीं होना चाहिए क्योंकि ऐसा आचरण करने वाला मनुष्य अनंत जन्मों तक जब तक सूर्य और चंद्रमा विद्यमान है नर्क में ही निवास करता है। नरक का भय दिखाकर बालकों को मित्रद्रोही कृतघ्न और विश्वासघाती होने से बचाया जाना चाहिए

मित्रद्रोही कृतघ्नश्च यश्च विश्वासघातकः।
ते नरा नरकं यान्ति यावचन्द्रदिवाकरौ ॥17

“अतिथि देवोभव” अतिथि को देवता मानते हुए अतिथियों का सत्कार करना हमारी प्राचीन भारतीय परंपरा एवं संस्कृति रही है। वर्तमान समय में भौतिकवादी परिस्थिति के कारण से बच्चे अतिथियों को उतना आदर सत्कार नहीं दे रहे हैं। कुछ संस्कारों का परिवर्तन हमारे भारतीय सिनेमा की देन है जहाँ “अतिथि तुम कब जाओगे” जैसे शीर्षकों को प्रस्तुत कर दिया है ऐसी स्थिति में हमारी पंचतंत्र उपदेश करती है कि अतिथियों की पूजा करने वाले लोग देवता सदृश जाते हैं तथा जो लोग अतिथि का स्वागत करते हैं उनको आसन प्रदान करते हैं उनको चरण धोते हैं और अर्घ्य देते हैं ऐसे लोग भगवान् शिव को प्रसन्न करते हैं कहने का तात्पर्य है जो व्यक्ति अतिथि सत्कार करता है वह विभिन्न प्रकार की समृद्धियों से युक्त हो जाता है

अप्रणाय्योऽतिथिः सायं सूर्योढो गृहमेधिनाम्।
पूजया तस्य देवत्वं प्रयान्ति गृहमेधिनः ।।
तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता ।
सतामेतानि हर्येषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन।।
स्वागतेनाऽग्नयस्तृप्ता आसनेन शतक्रतुः ।
पादशौचेन पितरो ह्यर्घाच्छम्भुस्तथाऽतिथेः ।।18

“संघे शक्ति कलौयुगे” कलयुग में संगठन में ही शक्ति होती है निश्चित रूप से कोई भी व्यक्ति किसी कार्य को अगर अकेला करता है तो वह कार्य को उतनी सुंदरता निपुणता कुशलता से नहीं कर पाता है जितना कि वह समूह में संगठन के साथ मिलकर के करता है। पंडित विष्णु शर्मा इसी बात का समर्थन करते हुए कहते हैं कि जब बहुत सारी अशक्त वस्तुएं मिल जाती हैं समूह के रूप में परिणत हो जाती हैं तो अजेय हो जाती है जिस प्रकार से तिनकों से निर्मित रस्सी इतनी कठोर हो जाती है कि वह हाथी को भी बांध लेती है और वही तिनका बिना समूह में एक फूंक मात्र से उड़ाया जाता है

बहूनामप्यसाराणां समवायो हि दुर्जयः।
तृणैरावेष्ट्यते रज्जुर्येन नागोऽपि बद्ध्यते ॥19

संगठन की इसी शक्ति को और अधिक पुष्ट करते हुए एक अन्य उदाहरण के माध्यम से विष्णु शर्मा कहते हैं कि तंतु छोटे हो या बड़े हो परंतु यदि वे संख्या में बहुत अधिक है और परस्पर संबद्ध है तो बहुत अधिक होने के कारण से और संगठन के कारण से वह अनेक प्रकार के बोझ को सरलता से सह लेते हैं सज्जनों के लिए भी यही उदाहरण है कि अगर सज्जन लोग संगठित हो जाए तो वह बड़ी से बड़ी विपत्ति को भी सरलता से पार कर सकते हैं इसी प्रकार से पक्षियों और शिकारी वाली कथा में भी इसी संगठन की शक्ति को बताया गया है जहां की शिकारी पक्षियों के विषय में चिंतन करता है कि जब ये पक्षी आपस में एक साथ होने के कारण जाल उठाकर के ले जा रहे हैं तो इसका मतलब संगठन में शक्ति है किंतु यदि यही पक्षी आपस में किसी न किसी विषय पर विवाद करने लग जाएंगे तो निश्चित रूप से ये नीचे गिर जाएंगे इसमें कोई संदेह नहीं है। तात्पर्य यह है कि संगठन में शक्ति हो तो पशु पक्षी भी असंभव से कार्य को संभव बना सकते हैं

तनवोऽप्यायता नित्यं तन्तवो बहुलाः समाः।
बहू-बहुत्वादायासान्सहन्तीत्युपमा सताम्॥
जालमादाय गच्छन्ति संहताः पक्षिणोऽप्यमी।
यावच्च विवदिष्यन्ति पतिष्यन्ति न संशयः ॥20

शास्त्रों में यद्यपि कहा गया है कि “मौनं भूषण पंडितानाम्” किंतु कई बार मौन जीवन में अत्यंत आवश्यक होता है मौन के कारण कई कठिन कार्य सुलभता से एवं सफलता से किये जा सकते हैं । वाचालता को भी बहुत अधिक अच्छा नहीं माना गया है क्योंकि बहुत अधिक वाचाल होने के कारण से भी मनुष्य को अत्यधिक नुकसान का सामना करना पड़ जाता है उचित ही कहा गया है तोता और सारिकाएं अपने बोलने के कारण पकड़ लिए जाते हैं किंतु बगुले अपने मौन के कारण सुरक्षित रह जाते हैं क्योंकि मौन प्रत्येक कार्य को सिद्ध करने वाला माना गया है।

आत्मनो मुखदोषेण बध्यन्ते शुकसारिकाः।
बकास्तत्र न बध्यन्ते मौनं सर्वार्थसाधनम् ||21

ऐसी प्रकार मौन का समर्थन करने के लिए पंडित विष्णु शर्मा ने पांचाल रसद की कथा बताई है कि जो अपने अधिक बोलने के कारण से मृत्यु को प्राप्त हुआ है एक गार्डन अत्यंत सावधानी पूर्वक रक्षा किया जाता है बाघ के चरण से ढका होने के कारण भयंकर शरीर भी प्रदर्शित करता हुआ वह सुरक्षित रहता है किंतु बोलने के कारण ही वह मर गया

सुगुप्तं रक्ष्यमाणोऽपि दर्शयन्दारुणं वपुः।
व्याघ्रचर्मप्रतिच्छन्नो वाक्कृते रासभो हतः॥22

इसी क्रम में पंडित विष्णु शर्मा सुंदर वाणी के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि एक भ्राता को माता जन्म देती है तथा दूसरे को वाणी जन्म देती है। आपकी मधुर और उत्तम वाणी आपको ऐसे मित्र प्रदान करती है जो भाई के समान सोदर भाई से अधिक श्रेष्ठ होते हैं तथा अधिक सहायता करने वाले होते हैं। इसीलिए वाणी को हमेशा मधुर ही रखना चाहिए।

एका प्रसूयते माता द्वितीया वाक्प्रसूयते।
वाग्जातमधिकं प्रोचुः सोदर्यादपि बान्धवात्’॥23

सरलमना बालकों को बहुत जल्दी विश्वास नहीं करना चाहिए कहा भी गया है कि जिसके स्वभाव की जानकारी नहीं हो उसे कभी भी आश्रय नहीं देना चाहिए क्योंकि खटमल के दोष के कारण से मंदविसर्पिणी जूं मारी जाती है इसीलिए बालकों को जिस व्यक्ति के कुल शील स्वभाव प्रकृति की जानकारी नहीं हो उसे आश्रय देना तो दूर की बात है उसे किसी भी प्रकार का संपर्क नहीं रखना चाहिए। इस प्रकार के उपदेश गलत संग से एवं विभिन्न प्रकार की आने वाली समस्याओं से बचाते हैं।

न ह्यविज्ञातशीलस्य प्रदातव्यः, प्रतिश्रयः।
मत्कुणस्य च दोषेण हता मन्दविसर्पिणी ॥24

इसलिए संगति के विषय में विशेष अवधान की आवश्यकता है क्योंकि दुष्ट मनुष्य की संगति से सज्जनों में भी विकार उत्पन्न हो जाते हैं कहां भी गया है कि दुर्योधन के साथ रहने से भीष्म पितामह पर भी गाएं चुराने का आक्षेप पर लगा था। इसी प्रकार से जो मनुष्य जिस प्रकार की संगति में रहता है उसे उसी प्रकार का फल उसे प्राप्त होता है। गर्म लोहे पर गिरा हुआ जल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, वही जल अगर कमलिनी की पत्र पर गिरता है तो मौक्तिक के समान सुशोभित होता है और जल की वही बूंद स्वाति नक्षत्र में अगर सीपी में गिरती है तो वह मोती बन जाती है इस प्रकार से संगति ही मनुष्य में अधम, मध्यम एवं उत्तम गुनणों को उत्पन्न करती है अतः सत्संगति के विषय में विशेष सावधान रहने की आवश्यकता है

सन्तप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते,
मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते।
स्वातौ सागरशुक्तिकुक्षिपतितं तज्जायते मौक्तिकं,
प्रायेणाऽधममध्यमोत्तमगुणः संवासतो जायते ॥
असतां सङ्गदोषेण साधवो यान्ति विक्रियाम्।
दुर्योधनप्रसङ्गेन भीष्मो गोहरपणे गतः ॥25

फास्ट फूड की इस दुनिया में जहां बालकों का जीवन केवल पिज़्ज़ा बर्गर चाऊमीन पास्ता जैसे अभक्ष्य पदार्थों पर आश्रित हो चुका है। इनसे सावधान करते हुए कहा गया है कि यदि प्राण भी कंठ में आ जाएं तब भी समझदार व्यक्ति को अभक्ष्य का भक्षण नहीं करना चाहिए। किंतु यदि वह अभक्ष्य अल्प मात्रा में ही हो तब तो बिल्कुल ही नहीं करना चाहिए क्योंकि उसे अभक्ष्य के भोग से इहलोक एवं परलोक दोनों ही नष्ट हो जाते हैं । सभी को भोजन संबंधी नियमों का विशेष ध्यान रखते हुए ना खाने योग्य पदार्थ का उपभोग नहीं करना चाहिए ताकि शारीरिक मानसिक एवं आर्थिक हानि से बचा जा सके। क्योंकि इस प्रकार से के पदार्थ से लाभ तो कुछ नहीं होता है वरन् स्वास्थ्य की हानि जरूर हो जाती है।

नाऽभक्ष्यं भक्षयेत्प्राज्ञः प्राणैः कण्ठगतैरपि।
विशेषात्तदपि स्तोकं लोकद्वयविनाशकम्।।26

पंचतंत्र में न केवल कर्त्तव्य विषय का चिंतन किया गया है अपितु अकरणीय कर्मों के विषय में भी सावधान किया गया है। जिन कर्मों को नहीं करना चाहिए उनका भली भांति विचार करके मनुष्य को उनसे दूरी बना लेनी चाहिए। कहा गया है कि जिस काम को करने से अपयश की प्राप्ति हो, अवगति हो तथा स्वार्थ के कारण पतन निश्चित हो ऐसे कार्य को कभी भी नहीं करना चाहिए। वस्तुत: जगत में लोक व्यवहार में यह दृष्टिगोचर होता ही है कि मनुष्य को जिस कार्य को करने से निंदा एवं अपयश की प्राप्ति हो तथा जिस कार्य को करने से उसकी अपगति ,अवनति पतन निश्चित हो तथा जिस स्वार्थ के कारण से मनुष्य का नैतिक सामाजिक आर्थिक चारित्रिक पतन हो रहा हो उन कार्यों से विरत हो जाना चाहिए

अयशः प्राप्यते येन, येन चाऽपगतिर्भवेत्।
स्वार्थाच भ्रश्यते येन, तत्कर्म न समाचरेत्॥27

इस प्रकार से ज्ञात होता है कि पंचतंत्र में विभिन्न प्रकार के करणीय अकरणीय कर्मों के विषय में सावधान किया गया है। साथ ही किन कर्मों को त्याग करने से जीवन में उत्त्थान उन्नति शांति की प्राप्ति होती है। कुछ स्थानों पर संगति का प्रभाव- दुष्प्रभाव, परिश्रम का महत्त्व, अतिथि-सत्कार का महत्ता, सेवा, स्वाध्याय, संगठन की शक्ति,मौन इत्यादि विषयों पर भी प्रकाश डाल करके वर्तमान संदर्भों में प्रासंगिकता पर विशेष बल दिया गया है|

सन्दर्भ :
1 हितोपदेश 8
2 पंचतंत्र मित्रभेद 10
3 अपरिक्षितकारक 2,3
4 अपरिक्षितकारक 22
5 मित्रसम्प्राप्ति 418,419,450
6 मित्रसम्प्राप्ति 116,117,118
7 मित्रभेद 216
8 मित्रभेद 218
9 मित्रसम्प्राप्ति 6
10 मित्रसम्प्राप्ति 7
11 लब्धप्रणाश41
12 मित्रसम्प्राप्ति 20
13 काकोलूकीयम् 2,3
14 मित्रसम्प्राप्ति 115
15 मित्रभेद 445
16 मित्रभेद 446
17 मित्रभेद 454
18 मित्रभेद 181,182,183
19 मित्रभेद 16
20 मित्रसम्प्राप्ति 8,9
21 लब्धप्रणाश 48
22 लब्धप्रणाश 49
23 लब्धप्रणाश 6
24 मित्रभेद 275
25 मित्रभेद 273,274
26 मित्रभेद 319
27 मित्रसंप्राप्ति 115

जितेंद्र थदानी
सह आचार्य, सम्राट पृथ्वीराज चौहान, राजकीय महाविद्यालय अजमेर

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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