आलेख : बच्चों को चाहिए ढेर सारी किताबें / पंकज चतुर्वेदी

बच्चों को चाहिए ढेर सारी किताबें
- पंकज चतुर्वेदी

देश में बाल साहित्य के लिए प्रामाणिक नाम माने जाने वाले नेशनल बुक ट्रस्ट ने हाल ही में बच्चों के लिए एक किताब छापी - खाटू श्याम पर। उसके चतुर्थ आवरण पर एक चित्र है जिसमें कोई किसी की कटी हुई गर्दन हाथ ले कर खड़ा है। वैज्ञानिक चेतना और तार्किक समाज के लिए प्रतिबद्व संस्था से पहले भी रामायण और महाभारत पर, मनोज दास जैसे लेखक द्वारा लिखी ‘कृष्ण कथा’ जैसी किताबें आई हैं लेकिन उसमें प्रसंग, चित्र आदि बाल मन के अनुरूप थे। यह बानगी है कि बाल साहित्य तैयार कने में हमारी संवेदना और सरोकार किस तरह शून्य हो रहे हैं। सनद रहे बाल मन और जिज्ञासा एक-दूसरे के पूरक शब्द ही हैं ।बचे के संबंध में जिज्ञासा का सीधा संबंध कौतुहल से है। वह जो पढ़ता है, उससे अधिक जो देखता है उससे कुछ कम जो सुनता है , वह उसके मानसिक विकास का आधार बन जाता है। शिशुकाल में उम्र बढ़ने के साथ ही अपने परिवेश की हर गुत्थी को सुलझाने की जुगत लगाना बाल्यावस्था की मूल-प्रवृत्ति है। भौतिक सुखों व बाजारवाद की बेतहाशा दौड़ के बीच दूषित हो रहे सामाजिक परिवेश और बच्चों की नैसर्गिक जिज्ञासु प्रवृत्ति पर बस्ते के बोझ के कारण एक बोझिल सा माहौल पैदा हो गया है। ऐसे में बच्चों के चारों ओर बिखरे संसार की रोचक जानकारी सही तरीके से देना बच्चों के लिए राहत देने वाला कदम होता है। पुस्तकें इसका सहज, सर्वसुलभ और सटीक माध्यम रही हैं। भले ही शहरों में रहने वाले बच्चों का एक वर्ग इंटरनेट व अन्य माध्यमों से ज्ञानवान बन रहा है, लेकिन आज भी देश के आम बच्चे को ज्ञान, मनोरंजन, और भविष्य की चुनौतियों का मुकाबला करने के काबिल बनाने के लिए जरूरी पुस्तकों की बेहद कमी महसूस होती है। विशेष रूप से हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओँ में एक तो किताबें बहुत कम हैं, फिर उनकी सुदूर आंचलिक क्षेत्र की बात छोड़ दें, दिल्ली-मुंबई जैसे नगरों में भी उपलब्धता बेहद कमजोर है।

आज बच्चे बड़े अवश्य हो रहे हैं, लेकिन अनुभव जगत के नाम पर एक बड़े शून्य के बीच। पूरे देश के बच्चों से जरा चित्र बनाने को कहें. तीन-चौथाई बच्चे पहाड़, नदी, झोपड़ी और उगता सूरज उकेर देंगे। बकाया बच्चे टीवी पर दिखने वाले डिज्नी चैनल के कुछ चरित्रों के चित्र बना देंगे। यह बात साक्षी है कि स्पर्श,ध्वनि, दृष्टि के बुनियादी अनुभवों की गरीबी, बच्चों की नैसर्गिक क्षमताओं को किस हद तक खोखला किए दे रही है। ऐसे में बच्चों द्वारा पढ़ी गई एक किताब ना केवल इन रिश्तों के प्रति उसे संवेदनशील बनाती है, बल्कि उसके कौतुहल और कल्पना के संसार को भी संपन्न बनाती है।

देश की आजादी की पहली क्रांति 1857 के समय पूरे देश यानी अफगानिस्तान से लेकर कन्याकुमारी तक की , साक्षरता दर महज एक फीसदी थी। आजादी के समय भी हमारी साक्षरता दर बेहद दयनीय ही थी। आज हमारे यहां शिक्षा भी एक क्रांति के रूप में आई है। भले ही अभी जरूरत के मुताबिक स्कूल कम हैं, मौजूदा सरकारी स्कूल भौतिक व अन्य सुविधाओं में बेहद कमजोर है। लेकिन यह हम सभी स्वीकार करेंगे कि अब गांव या मजरे में स्कूल खुलना उतना ही बड़ा विकास का काम माना जाता है, जितना कि सड़क बनना या अन्य कोई काम। लेकिन इस ज्ञान की गंगा ने लोगों को पढ़ना तो सिखा दिया लेकिन उसे गढ़ना नहीं सिखा पाया। बच्चों पर स्कूल में पढ़ाई का बोझ बढ़ता जा रहा है- ऐसी पढ़ाई का बोझा , जिनका बच्चों की जिंदगी , भाषा और संवेदना से कोई सरोकार नहीं है। ऐसी पढ़ाई समाज के क्षय को रोक नहीं सकती, उसे बढ़ावा ही दे सकती हैं।

भारत में बाल साहित्य की पुस्तकों का अतीत अभी 200 साल का भी नहीं हुआ है। 14वीं सदी में अमीर खुसरो ने पहेलियों और मुकरियों को लिखा था जिनका लक्षित वर्ग बच्चों को माना गया था। 1817 में कोलकाता में कुछ ईसाई मिशनरियों ने बच्चों के लिए पुस्तकों का प्रकाशन शुरू किया था। राजा शिव प्रसाद सिंह ‘सितारे हिंद’ ने 1867 में बच्चों के लिए कहानियां और 1876 में लड़कों के लिए कहानियां नाम से अपने संग्रह प्रकाशित करवाए थे। कहा जा सकता है कि आधुनिक मुद्रण में बच्चों की हिंदी में पहली किताबें वही थीं। एक फीसदी से 74 प्रतिशत साक्षरता की दर के उछाल की तुलना करें तो बच्चों के लिए पाठ्येत्तर पुस्तकों के प्रकाशन का आंकड़ा बेहद निराशाजनक ही दिखता है।

21वी सदी में विकास की उपलब्धियों और उससे उपजी त्रासदियों के बीच जो असमानता रही, वह हिंदी के बाल साहित्य में भी देखी गई। “आवश्यकता आविष्कार की जननी है’’ वाले पुराने सिद्धांत के अनुरूप जैसे-जैसे साक्षरता दर बढ़ी, वैसे-वैसे किताबों की मांग भी बढ़ी। एक स्तर पर पहुंच कर जब नीति-निर्धारकों को लगा कि अब शिक्षा में गुणवत्ता जरूरी है तो पाठ्येतर पुस्तकों की जरूरत व मांग बढ़ी। शुरूआती दिनों में हमारा बाल साहित्य पंचतंत्र, हितोपदेष, जातक, पौराणिक व दंत कथाओं तक ही सीमित रहा। कहा गया कि बाजार उभार में है सो प्रकाशक एक ऐसा सुरक्षित रास्ता पकड़ना चाहते हैं जहां उन्हें घाटा ना लगे। इक्कीसवीं सदी में वैष्वीकरण ने पूरी दुनिया के दरवाजे एक-दूसरे के लिए खोल दिए। टेलीविजन, इंटरनेट क्रांति ने सूचना का प्रवाह इतना तीव्र कर दिया कि कई बार भारत जैसे विकासमान देश की बाल पीढ़ी लड़खड़ा सी गई, लेकिन उसका एक फायदा बाल पुस्तकों को जरूर हुआ- उसकी विषय वस्तु, क्वालिटी आदि में सुधार आया। हालांकि अभी यह भी बेहद शुरूआती दौर में हैं। बीते कुछ सालों से सरकारी सप्लाई ने तो इस क्षेत्र को बहुत नुकसान किया है, कई प्रकाशक जिनके पास ना तो बाल साहित्य के संपादक हैं और ना ही उनको इसकी समझ- वही पुरानी राम-कृष्ण, हनुमान की कहानियों को अपने रूतबे या बटुए के बदौलत सप्लाई में खपा रहे हैं। यह भी जरूरी नहीं है कि बच्चों को पुरानी कहानियों, लोककथाओं या परीकथाओं को प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसी सामग्री प्रस्तुत करते समय बच्चों की मानवीय संवदेनाओं और उसके सीखने की प्रवृति को ध्यान में रखना जरूरी है। हिंसा, बदला, सत्ता संघर्श, कुटिलता जैसी कथानक बच्चों के लिए हानिकारक और उत्तेजनात्मक होते हैं। वे ना तो उसके सांस्कृतिक और ना ही सामाजिक या पर्यावरणीय मूल्यों में उत्थान लाते हैं। आने वाले समय में ऐसे मूल्य एक अच्छा नागरिक बनाने का अनिवार्य मानदंड होंगे।

हालांकि कई प्रकाशक बहुत छोटे बच्चों के लिए पुस्तकें प्रकाशित कर रहे हैं - जिनमें शब्द बहुत कम हैं और बेहतरीन रंगीन चित्र हैं, लेकिन विडंबना है कि अभी तक ऐसे लेखकों को बाल साहित्यकार के रूप में पहचान नहीं मिली है। जब तक मोटा संग्रह ना हो, तब तक लेखक कैसा ? इस मानसिक अवधारणा से ग्रस्त हिंदी बाल साहित्य का आलोचना संसार लेखकों के उस वर्ग के लिए निरूत्साहकारी बना हुआ है जो उन बच्चों के लिए 145 करोड़ से अधिक की आबादी वाले इस देश में छह से 17 वर्ष के स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या लगभग 35 करोड़ है। इसके अलावा कई करोड़ ऐसी बच्चियां व लड़के भी हैं, जो कि अपने देश, काल और परिस्थितियों के कारण स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। इतना बड़ा बाजार और पुस्तकें ना के बराबर। अनुमान है कि हमारे देश में सभी भाषाओं में मिलाकर पाठ्येत्तर विज्ञान पुस्तकों का सालाना आंकड़ा मुश्किल से दो हजार को पार कर पाता है और हिंदी में तो यह बमुश्किल 600 है। यह एक कटु सत्य है कि दूरस्थ अंचलों को छोड़ दें, दिल्ली जैसे महानगर में एक फीसदी बच्चों के पास उनके पाठ्यक्रम के अलावा कोई पुस्तक पहुंच ही नहीं पाती है। उन बच्चों के लिए बाल साहित्य के मायने एक उबासी देने वाली, कठिन परिभाषाओं और कठिन कहे जाने वाला ग्रंथ मात्र है। लेकिन इन बच्चों को जब कुछ प्रयोग करने को कहा जाता है या फिर यूं ही अपनी प्रकृति में विचरण के लिए कहा जाता है तो वे उसमें डूब जाते हैं। पुस्तक मेलों में ही देख लें, जहां जादू, मनोरंजक खेल, कंप्यूटर पर नए प्रयोग सिखाने वाली सी.डी. बिक रही होती है, वहां बच्चों की भीड़ होती है। जाहिर है कि बच्चों की पुस्तकें विषय, प्रस्तुति, भाषा सभी कुछ में बदलाव मांग रही हैं। ऐसा नहीं है कि प्रकाशक इसे समझ नहीं रहा है, ऐसा हो भी रहा है, लेकिन गति अभी धीमी है।

यह विडंबना है कि हिंदी के बड़े लेखक बच्चों के लिए लिखने से बचते हैं, जबकि मराठी, बांग्ला में ऐसा नहीं है। एक बात और आंचलिक क्षेत्र में रहने वाला लेखक बेहद उत्साही और कर्मठ है, लेकिन उन तक नए शोध, प्रयोग, नीतियां पहुंच नहीं पाती हैं। आज जरूरी है कि बच्चों की पठन अभिरूचि में बदलाव, उनकी अपेक्षाओं, अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य आदि को ध्यान में रख कर आंचलिक क्षेत्रों तक शोध हों, लोगों को अंग्रेजी ही नहीं भारत की अन्य भाषाओं में बाल साहित्य पर हो रहे काम की जानकारी मिले, हिंदी के बड़े लेखक बच्चों के लिए लिखने के लिए आगे आएं। बाल साहित्य में मनोरंजन, कौतुहल, पाठकों के भविष्य की चुनौतियों, आधुनिक दृष्टिकोण पर सामग्री समय की मांग है। बच्चों के लिए लेखक को अपनी नाम-लिप्सा से दूर होकर आज के समय के मुताबिक नए विषयों पर पुस्तकें तैयार करना चाहिए। उदाहरण के लिए आजादी के 75 साल बाद भी हम राजशाही पर लिखना पसंद कर रहे हैं, जबकि हमें लोकतंत्रात्मक मूल्यों के सशक्तिकरण के लिए अपनी कलम का इस्तेमाल करना चाहिए। हमारी कहानी में कलेक्टर या विधायक या फिर सरपंच या सांसद क्यों नहीं होते। हम यह क्यों नहीं बता पाते कि किसी चोर को पकड़ने के लिए पुलिस है और पेड़ कटने से बचाने को वन विभाग। हम आज भी कहानी में बच्चें को इन सभी से जूझते दिखा देते हैं।

एक बात लेखकों को भी अपने पैसे से खुद की पुस्तकें छपवाने और उसे निःशुल्क बांटने से परहेज करना होगा। न कोई भाषा संपादक न ही चित्र की गुणवत्ता देखने वाला। जो मन में आया बस, प्रेस में छपवा दिया और अपने परिचय में 100वीं किताब का तमगा जोड़ लिया। जब तक लेखक महंगा नहीं होगा, तब तक ना तो उसका सम्मान बढेगा और ना ही बाल पुस्तकों का। यदि कुछ संस्थाएं अच्छी पुस्तकें प्रकाशित करें, उन्हें पाठकों तक ले जाने के लिए प्रदर्शनी लगाएं तो एक सकारात्मक प्रयास होगा। यह भी अनिवार्य लगता है कि विभिन्न विश्वविद्यालयों में बाल साहित्य को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए और कला महाविद्यालय व डिजाईन संस्थान बच्चों की पुस्तकों के चित्रांकन व साज-सज्जा पर विशेष कोर्स तैयार करें। पठनीयता को बढ़ावा दिए बगैर पुस्तकों की गुणवत्ता नहीं बढ़ाई जा सकेगी। जरूरी है कि अधिक से अधिक ऐसे लेखक आगे आएं जो बहुत छोटे बच्चों- प्री स्कूल या प्राईमरी स्तर की मनोरंजक, सूचनाप्रद, वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाली पुस्तकों को लिख सकें और चित्रांकन कर सकें।

पंकज चतुर्वेदी
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत सरकार में संपादक रहे हैं और देश के चर्चित बाल साहित्यकार हैं

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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