शोध आलेख : दलित समाज और बाल साहित्य / साहिल, शेफाली चौहान

दलित समाज और बाल साहित्य
- साहिल, शेफाली चौहान

शोध सार : दलित साहित्य और बाल साहित्य, दोनों ही साहित्यिक विधाएं समाज के विभिन्न पहलुओं को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। दलित साहित्य सामाजिक अन्याय, भेदभाव और उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज़ उठाता है। यह समाज के निचले तबकों की वास्तविकता, उनके संघर्ष और उनके अधिकारों दर्शाता है। इसके माध्यम से पाठकों को समाज में व्याप्त असमानताओं और अन्याय के प्रति संवेदनशील बनाया जाता है, जिससे सामाजिक परिवर्तन की दिशा में जागरूकता और प्रेरणा मिलती है। दूसरी ओर, बाल साहित्य बच्चों के मानसिक और नैतिक विकास में अहम भूमिका निभाता है। यह उनकी कल्पनाशक्ति को प्रोत्साहित करता है और उन्हें नैतिक मूल्यों, सहानुभूति, और सामाजिक चेतना से परिचित कराता है। बाल साहित्य के माध्यम से, बच्चों में सहनशीलता, समानता, और न्याय के प्रति जागरूकता विकसित की जाती है।दलित साहित्य और बाल साहित्य एक दूसरे पर भी प्रभाव डालता है। जब बाल साहित्य में दलित साहित्य के तत्व शामिल किए जाते हैं, तो बच्चे समाज की विविधता और न्याय के महत्व को समझते हैं। इससे वे बचपन से ही सामाजिक समानता और न्याय के प्रति संवेदनशील बनते हैं। इस प्रकार, बाल साहित्य दलित साहित्य के मूल्यों को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का सशक्त माध्यम बन सकता है, जिससे एक अधिक समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण संभव है।इस शोध पत्र में ऐसे ही बदलते आयामों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।

बीज शब्द : दलित समाज, बाल साहित्य, बाल साहित्यमेंदलित, दलित साहित्य में बाल जीवन

मूल आलेख : दलित समाज और बाल साहित्य के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है, लेकिन हम इस तरह के दलित साहित्य देखते हैं जो बच्चों के जीवन को प्रस्तुत करते हैं और हम यह भी देखते हैं कि ऐसे कई बाल साहित्य हैं जो दलित बच्चे और उच्च जाति के बच्चे के जीवन और दोनों के बीच के अंतर को प्रस्तुत करते हैं।इससे पहले कि हम दलित समाज और बाल साहित्य की अवधारणा पर चर्चा करें, उससे पहले हमें दोनों पहलुओं को समझना होगा।अगर हम दलित समाज की बात करें तो हम पाते हैंकिभारत में दलित समुदाय को ऐतिहासिक रूप से जाति व्यवस्था के कारण गंभीर सामाजिक उत्पीड़न और भेदभाव का सामना करना पढता है। दलित, जिन्हें "अछूत" भी कहा जाता है, हिंदू जाति पदानुक्रम (कास्ट हिरारकी) में सबसे नीचे हैं और सदियों से सामाजिक बहिष्कार, आर्थिक शोषण और हिंसा का शिकार होते रहे हैं।अस्पृश्यता के कानूनी उन्मूलन और सकारात्मक कार्रवाई नीतियों के बावजूद, दलितों को भारतीय समाज के कई हिस्सों में भेदभाव, हिंसा, सामाजिकऔर आर्थिक हाशिए का सामना करना पड़ रहा है।[1]

दलित अक्सर सीमांत किसान या भूमिहीन मजदूर होते हैं। गरीबी के कारण कई लोग कर्ज में डूबे हुए हैं और बंधुआ मजदूरों के रूप में काम करते हैं, यह प्रथा 1976 में कानून द्वारा समाप्त कर दी गई थी लेकिन उच्च ब्याज दरों और गरीबी के कारण यह प्रथा जारी है।दलितों को अक्सर भीड़ की हिंसा का सामना करना पड़ता है, जिसका नेतृत्व अक्सर उच्च जाति के जमींदार करते हैं, खासकर उन स्थितियों में जहां वे शोषण का विरोध करते हैं या शिक्षा और आर्थिक गतिशीलता चाहते हैं।दलितों की स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, आवास, रोजगार और राजनीतिक भागीदारी तक सीमित पहुंच है। उन्हें अक्सर विकास नीतियों और कार्यक्रमों से बाहर रखा जाता है।[2]इन कारणों से, दलितों ने अपना समाज बनाया और अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज, प्रथाएँ विकसित कीं, जहाँ वे अपने समुदाय में रह सकें ताकि उन्हें किसी भी प्रकार के भेदभाव का सामना न करना पड़े।इसके कारण हम जाति या पेशे के आधार पर विभिन्न प्रकार की बस्तियाँ देखते हैं, उदाहरण के लिए - कुम्हार की बस्तियाँ, लोहार की बस्तियाँ, रविदासिया और वाल्मिकियों की बस्तियाँ आदि।जहां वे अपने समुदाय के लोगों के साथ रहते हैं, जिनका जीवन स्तर समान है, रीति-रिवाज और परंपराएं भी समान हैं।

बाल साहित्य -

हिन्दी साहित्य में बाल साहित्य एक अत्यंत समृद्ध और महत्वपूर्ण परंपरा है। बाल साहित्य वह सारा साहित्य है जिसमें बच्चों के मानसिक स्तर और रुचियों को ध्यान में रखकर लिखा जाता है।बाल साहित्य में रोमांचक और मनोरंजक कहानियाँ प्रमुख हैं, जो बच्चों को आकर्षित करती हैं।बाल साहित्य में सरल, मधुर और भावपूर्ण कविताएँ शामिल होती हैं, जो बच्चों के मन को छू लेती हैं।शकुंतला वर्मा के शब्दों में “बाल साहित्य वह साहित्य है जो बच्चो के मानसिक स्तर को ध्यान में रखकर इस तरह से सृजित किया जाए कि बच्चे न केवल उसे पढ़ने में रुचि लें बल्कि उससे कुछ ग्रहण भी करें। इसके लिए यह परमावश्यक है कि बाल साहित्य बच्चो के धरातल तक उतरकर, उनके मनोभावों तथा रुचियों को ध्यान में रखकर, मनोरंजन शैली में ज्ञानवर्धक रूप से लिखा गया हो”।[3]बाल साहित्य में अच्छे आचरण, नैतिक मूल्यों और सकारात्मक संदेशों को प्रस्तुत किया जाता है।इस प्रकार, हिन्दी साहित्य की समृद्ध परंपरा में बाल साहित्य एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, जो बच्चों के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

बाल साहित्य के बदलते आयाम -

बाल साहित्य के बदलते आयामों का विश्लेषण करने के लिए, हमें पुरानी पीढ़ी के बाल साहित्य के विशेष स्थान के साथ-साथ नई पीढ़ी के बाल साहित्य के नवीन प्रतीकों और मौलिक उद्भावनाओं का अध्ययन करना होगा।पुरानी पीढ़ी के बाल साहित्य में भारतीय मिथकों और पंचतंत्र की कहानियां प्रमुख थीं। ये कहानियां बच्चों को जीवन मूल्यों की दिशा प्रदान करती थीं। पंचतंत्र की कहानियां मूल्यों और नैतिक प्रशिक्षण के लिए बनाई गई थीं और ये कहानियां बच्चों को राजा बनने के लिए आवश्यक जीवन कौशल सिखाती थीं।नई पीढ़ी के बाल साहित्य में तकनीक के प्रभाव से बदलाव आया है। जिसमें सोशल मीडिया और ऑडियोबुक्स का प्रभाव आसानी से देखा जा सकता है। डिजिटल फॉर्मेट, वीडियो और इंटरैक्टिव गेम्स ने बच्चों के पढ़ने के अनुभव को सुधारा है।भारत में बच्चों के लिए प्रकाशन का क्षेत्र दिन प्रतिदिन विकसित हो रहा है। प्रकाशक जैसे तारा, तुलिका, कराडी टेल्स, डकबिल, काठा और प्राथम बुक्स ने क्वालिटी की पुस्तकें प्रकाशित की हैं। ये पुस्तकें सुंदर रूप से चित्रित होती हैं और बच्चों के लिए संवेदनशील विषयों को भी कवर करती हैं।नए लेखकों ने संवेदनशील विषयों को संबोधित किया है, जैसे मृत्यु, स्वीकृति, दुर्व्यवहार और क्रोध। ये विषय बच्चों को उनके परिवेश में सामना करने वाले चुनौतियों को समझने में मदद करते हैं।बाल साहित्य में कहानियों, लोरियों, प्रभातियों, जीवनियों और पत्रिकाओं जैसी विविध विधाओं का समावेश हुआ है।कहानियाँ बहुउद्देशीय और बहुगुणीय होने के कारण बच्चों को सबसे अधिक आकर्षित करती हैं।सांस्कृतिक ग्रंथ बच्चों में दृढ़ संकल्प, मानसिक और बौद्धिक ज्ञान के साथ-साथ मनोरंजन के तत्त्व भी प्रस्तुत करते हैं।[4]

दलित बाल साहित्य -

ओमप्रकाश वाल्मीकि के अनुसार, "दलित साहित्य जन साहित्य है, यानी मास लिटरेचर (Mass Literature)। केवल इतना ही नहीं,यह लिटरेचर ऑफ एक्शन (Literature of Action) भी है, जो मानवीय मूल्यों की भूमिका पर सामंती मानसिकता के विरुद्ध आक्रोश से भरे संघर्ष को दर्शाता है। इसी संघर्ष और विद्रोह से दलित साहित्य का उदय हुआ है”।[5]दलित बाल साहित्य, दलित बचपन की कठोर वास्तविकताओं को दर्शाता है, जो कि भारतीय साहित्य में पाए जाने वाले बचपन के रोमांटिक मुख्यधारा चित्रण से काफी अलग है। जबकि ऊंची जाति के बच्चों को अक्सर आश्चर्य, मासूमियत और आराम की दुनिया में रहने वाले के रूप में चित्रित किया जाता है, दलित बच्चों के लिए वास्तविकता काफी अलग है।[6]दलित बच्चों को भारी भेदभाव, उत्पीड़न और बुनियादी संसाधनों और अवसरों तक पहुंच की कमी का सामना करना पड़ता है। उनका बचपन गरीबी, शोषण और सम्मान एवं अस्तित्व के लिए निरंतर संघर्ष से गुजरता है।[7]दलित साहित्य मुख्यधारा के अधिकांश लेखन में पाई जाने वाली बचपन की आदर्श धारणाओं से हटकर इन कठोर वास्तविकताओं को आवाज देता है।[8]

दलित समाज और बाल साहित्य के बीच सीधा संबंध नहीं है। दलित साहित्य में मुख्य रूप से दलित समाज की समस्याओं, शोषण, अत्याचार और उनके संघर्षों को प्रमुखता से उठाया जाता है।[9]इसमें दलित समाज के जीवन की कड़वी सच्चाइयों को बेबाक ढंग से व्यक्त किया जाता है।[10]वहीं बाल साहित्य में बच्चों के मनोरंजन और शिक्षा पर ज़ोर दिया जाता है। इसमें बच्चों की रुचि और समझ के अनुरूप कहानियाँ, कविताएँ और अन्य रचनाएँ लिखी जाती हैं।[11]दलित समाज का वर्णन बाल साहित्य में कम मिलता है। अधिकांश बाल साहित्य में प्रमुखता से उच्च जाति के बच्चों और उनके अनुभवों का चित्रण किया जाता है। हालांकि, कुछ दलित लेखकों ने अपने बाल साहित्य में दलित बच्चों की समस्याओं और अनुभवों को प्रस्तुत किया है। उदाहरण के लिए, 'जूठन' (आत्मकथा)[12], 'मुर्दहिया' (आत्मकथा)[13], और 'पांच चका लेढ़ा' (कहानी संग्रह)।इन रचनाओं मेंदलित बच्चों के जीवन का यथार्थ चित्रण किया गया है। इन रचनाओं में दलित बच्चों के सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक संघर्षों को उजागर किया गया है।

बाल साहित्य में दलित समाज का वर्णन करने वाली कुछ प्रमुख रचनाएं हैं -

ऐसे कई दलित लेखक हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं में बाल जीवन और समाज, विशेषकर दलित समाज के विभिन्न पहलुओं को भी प्रस्तुत करता है।दलित रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने बचपन के बारे में लिखा है। उनकी आत्मकथा 'जूठन' में उनके बचपन की घटनाओं का विस्तार से वर्णन है। इसमें उन्होंने अपने जीवन के सामाजिक, आर्थिक और मानसिक कष्टों को प्रकट किया है।[14]पुस्तक में वाल्मिकी और उनके परिवार द्वारा अत्यधिक गरीबी, अभाव और अपमान काजो सामना करना पड़ा था, उसका स्पष्ट वर्णन किया गया है, जिसमें हम देखते हैंकि उनकी कड़ी मेहनत के लिए उन्हें बहुत कम मजदूरी दी जाती थी, अक्सर बचा हुआ खाना ही दिया जाता था। उन्हें बुनियादी अधिकारों और सम्मान से वंचित रखा गया।यह पुस्तक वाल्मिकी की इस दयनीय शुरुआत से लेकर एक शिक्षित, प्रमुख दलित लेखक और कार्यकर्ता बनने तक की यात्रा का वर्णन करती है, जिसमें आवश्यक व्यक्तिगत संघर्ष और लचीलेपन पर प्रकाश डाला गया है।

प्रेमचंद की कहानियों में दलित बच्चों का चित्रण काफी संवेदनशीलताकिया गया है। उनकी कहानियों में दलित बच्चों को सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित होने के रूप में प्रस्तुत किया गया है। 'गोदान' में प्रेमचंद ने भारतीय समाज की जाति-व्यवस्था को मुख्य विषय बनाया है।उन्होंने दर्शाया है कि कैसे उच्च जातियों का श्रम पर आधारित अर्थव्यवस्था दलित समुदायों को शोषित करती है। उन्होंने इस व्यवस्था को समाज की धुरी बताया है।[15]“गौदान” में प्रेमचंद ने दलित समाज की समस्याओं को गहराई से प्रस्तुत किया है। उन्होंने होरी और धनिया जैसे दलित चरित्रों के माध्यम से दलितों की दयनीय स्थिति का वर्णन किया है।[16] “कफ़न” कहानी का नायक अस्पृश्य तबके का है और वे ब्राह्मण धर्म का मजाक बनाते है। कफ़न के घीसू माधव में श्रम के प्रति अलगाव की भावना है। जिसकी वजह समय बताई गई है की जिस समाज में हाड़तोड़ मेहनत करने वालो की हालत घीसू माधव से बेहतर न हो, उसमे इसी मनोवृति का पैदा हो जाना कोई आश्चर्य की बात नही है। इसके विपरित घीसू माधव कहते है कि जो धर्म जीवितो को भूखा मारे और मरे हुए को नया कफन दे, वह अमानवीय और परित्याज्य है।[17]

"बच्चों की कहानियाँ" (1981) में ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी "बच्चों का बाजार" जिसमें दलित बच्चों की दयनीय स्थिति का वर्णन है। “नयी सदी की पहचान: श्रेष्ठ दलित कहानियाँ" (2001) में शामिल कहानियों में से कुछ बाल साहित्य के दायरे में आती हैं, जैसे बुद्धशरण हंस की "बच्चा" और कर्मशील भारती की "बच्चा”।बुद्धशरण हंस की "बच्चा"कहानी में एक दलित माता-पिता की कहानी है, जो अपने बच्चे के लिए पानी लाने के लिए एक कुएँ पर जाते हैं। लेकिन कुएँ पर जाना प्रतिबंधित है, क्योंकि कुएँ का पानी सिर्फ उच्च जाति के लोगों के लिए है।कहानी में दलित समाज की वेदना को बखूबी चित्रित किया गया है। कहानी में दलितों के लिए प्रतिबंधित कुएँ का प्रतीकात्मक महत्व है।कर्मशील भारती की कहानी "बच्चा" मेंभी दलित बच्चों की दयनीय स्थिति का वर्णन है। कहानी में दलित बच्चों की गरीबी, भेदभाव, शोषण और उपेक्षा जैसे विषयों को प्रमुखता से उठाया गया है। लेखक ने दलित बच्चों की दर्दनाक स्थिति को चित्रित कर समाज को जागरूक करने का प्रयास किया है।[18]

"आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श" (2003) में देवेन्द्र चौबे ने दलित बच्चों की शिक्षा और उनकी समस्याओं पर लिखी कहानियों का उल्लेख किया है।[19] पुस्तक में दलित साहित्य की परम्परा का विस्तृत अध्ययन किया गया है, जिसमें दलित लेखकों की आत्मकथाओं और कहानियों का विश्लेषण किया गया है। यह पुस्तक दलित साहित्य के विकास के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों का भी अध्ययन करती है।एल आर बाली (लाहौरी राम बाली, एक अनुभवी अम्बेडकरवादी और सामाजिक कार्यकर्ताथे) द्वारा लिखित "बच्चों के अम्बेडकर" नामक पुस्तक में डॉ. भीमराव अंबेडकर के जीवन और उनके योगदान का बच्चों के लिए सरल और रोचक ढंग से वर्णन किया गया है। यह पुस्तक बच्चों को डॉक्टर भीम रावअंबेडकर के जीवन से प्रेरणा लेने और उनके आदर्शों पर चलने के लिए प्रेरित करती है।पुस्तक में अंबेडकर के बचपन, शिक्षा, सामाजिक कार्यों और राजनीतिक योगदान का वर्णन किया गया है। इसमें उनके संघर्ष और उपलब्धियों को बच्चों की समझ में आने वाले शब्दों में प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक में अंबेडकर द्वारा अस्पृश्यता उन्मूलन, मूल अधिकारों और समानता के लिए किए गए प्रयासों का भी उल्लेख है।"बच्चों के अम्बेडकर" बच्चों को अंबेडकर के जीवन से प्रेरणा लेने और समाज में बराबरी और न्याय की लड़ाई लड़ने के लिए प्रोत्साहित करती है। यह पुस्तक बच्चों को अंबेडकर के आदर्शों और विचारों से परिचित कराने का एक उत्कृष्ट माध्यम है।यह पुस्तक पंजाबी भाषा में भी उपलब्ध है।

सूरज येंगडे द्वारा लिखित पुस्तक “कास्ट मैटर्स” लेखक की आत्मकथा 'बीइंग दलित' से शुरू होती है जो दलित बस्तियों के गरीबी से त्रस्त, अस्वस्थ जीवन को दर्शाती है।इस पुस्तक से पता चलता है कि समाज के दलित परिवार की जीवनशैली किस प्रकार एक बच्चे के दिमाग को आकार देती है।[20]'अक्करमाशी' में लिम्बाले ने अपने जीवन के कठिन पलों को बेबाकी से उजागर किया है। उन्होंने अपने जन्म से लेकर शिक्षा और व्यवसाय तक के संघर्षों का वर्णन किया है। इस आत्मकथा में दलित समाज की गरीबी, भेदभाव और उत्पीड़न की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत की गई है।लिम्बाले ने अपने जीवन के 'बलात्कार' को भी इस पुस्तक में उजागर किया है। उन्होंने बताया है कि कैसे उन्हें अपने ही समाज में अस्वीकृत और अपमानित होना पड़ा।इस आत्मकथा में दलित समाज की वेदना और संघर्ष की कहानी है।[21]

दलित समाज और दलित साहित्य के बदलते आयाम -

दलित साहित्य की शुरुआत मराठी से मानी जाती है। दलित पैंथर आंदोलन के दौरान, मराठी में कई दलित रचनाकारों ने अपनी भावनाओं, पीड़ा, दुखों-दर्दों को लेखों, कविताओं, निबन्धों, जीवनियों, कटाक्षों, व्यंगों, कथाओं आदि के माध्यम से आम जनता तक पहुंचाया।हीरा डोम, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, जयप्रकाश कर्दम, डॉ. कंवल भारती, सूरजपाल चौहान, श्यौराज सिंह, बेचैन, डॉ. कुसुम वियोगी और रजनी तिलक जैसे लेखकों ने दलित साहित्य का विकास किया।[22]दलित साहित्य का मूल प्रयोजन सामाजिक न्याय और मनुष्य की मुक्ति रहा है। यह साहित्य समाज की बर्बरता और उसकी विद्रूपता का कारुणिक और यथार्थ चित्रण करता है।[23]दलित चिंतकों ने इतिहास की पुनर्व्याख्या करने की कोशिश की है। वे मानते हैं कि लोगों ने दलितों और स्त्रियों को इतिहास में हीन मान लिया है, जबकि भारत के इतिहास में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है।[24]दलित साहित्य का मूल उद्देश्य नये मानवीय और समतामूलक समाज का निर्माण करना है। यह साहित्य भारतीय समाज का सबसे निचले पायदान पर होने के कारण न्याय, शिक्षा, समानता और स्वतंत्रता आदि मौलिक अधिकारों से वंचित दलितों की पीड़ा को प्रकट करता है।[25]

निष्कर्ष : हालांकि, दलित बाल साहित्य अभी भी एक उपेक्षित क्षेत्र है और इस दिशा में और अधिक प्रयास की आवश्यकता है।लेकिन इसके साथ ही हम यह भी देखते हैंकिदलित लेखकों का साहित्य समाज के हाशिए पर खड़े समुदायों के जीवन की वास्तविकताओं को उकेरने का सशक्त माध्यम रहा है। यह साहित्य न केवल सामाजिक अन्याय और भेदभाव की कहानियाँ सुनाता है, बल्कि बच्चों के जीवन और उनकी परवरिश की भी गंभीर तस्वीर पेश करता है। बाल जीवन और बाल साहित्य का दलित जीवन के चित्रण में एक महत्वपूर्ण स्थान है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।दलित लेखकों का बाल साहित्य बच्चों को शिक्षा और सशक्तिकरण के महत्व को समझाने का भी कार्य करता है। यह साहित्य बच्चों को यह सिखाता है कि शिक्षा ही वह माध्यम है जिससे वे अपनी स्थिति में सुधार ला सकते हैं और समाज में एक समान स्थान प्राप्त कर सकते हैं। इन कहानियों में बच्चों को प्रेरणा देने वाली घटनाएँ और उदाहरण होते हैं, जो उन्हें कठिनाइयों का सामना करने और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देते हैं।दलित लेखकों के लेखन में बाल जीवन और बाल साहित्य का चित्रण दलित जीवन की वास्तविकताओं को उजागर करने के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह साहित्य बच्चों को समाज की असमानताओं के प्रति संवेदनशील बनाता है और उन्हें एक न्यायपूर्ण और समान समाज की ओर अग्रसर करता है। दलित लेखकों का यह योगदान आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा स्रोत है, जो उन्हें अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने और समाज में एक समान स्थान प्राप्त करने की दिशा में प्रेरित करता है। इस प्रकार, दलित साहित्य और बाल साहित्य के बीच यह अंतर्संबंध समाज में सकारात्मक परिवर्तन और समतामूलक दृष्टिकोण विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

संदर्भ :
[1] माइनॉरिटी राइट्स ग्रुप, https://shorturl.at/R5dJe
[2] माइनॉरिटी राइट्स ग्रुप, https://minorityrights.org/communities/dalits/
[3] शकुंतला वर्मा, बाल साहित्य की संक्षिप्त रूपरेखा,पृ. 33.
[4] सुरेश सारोठिया और संगीता राणा, “इक्कीसवीं सदी का बाल साहित्य”, शब्द–ब्रह्मा: भारतीय भाषाओं की अंतर्राष्ट्रीय मासिक शोध पत्रिका, 17 दिसंबर 2016
[5] ओम प्रकाश वाल्मिकी, दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2001, पृ.15
[6] श्रीदीपा दंडपत और प्रियंका त्रिपाठी, रिथिंकिंग रेजिलिएंस: एड्रेसिंग दलित चाइल्डहुड इन सिलेक्टेड इंडियन पिक्चरबुक्स, सेज जर्नल, 4 जुलाई, 2023.
[7] डॉक्टर रिनी रेबा मैथ्यू, न्यूंस्ड एबसेंस एंड प्रेजेंस ऑफ इनोसेंस: रीडिंग दलित चाइल्डहुड इन सिलेक्टेड पोएम्स, इंटरनेशनल जर्नल ऑफ क्रिएटिव रिसर्च थॉट्स (IJCRT), वॉल्यूम 10, इशू 11, नवंबर 2022.
[8] समरजित दत्ता और सूताद्रिपा दत्ता चौधरी, “दलित चिल्ड्रन आर चिल्ड्रन टू”: रिफ्रेमिंग दा वर्ल्ड ऑफ दलित चिल्ड्रन थ्रू सम दलित नैरेटिव, कंटेंपरेरी लिटरेरी रिव्यू इंडिया, वॉल्यूम 10, नंबर 4, नवंबर 2023.
[9] डॉ. हरिनारायण ठाकुर, दलित साहित्य का समाजशास्त्र, भारतीय ज्ञानपीठ वाणी प्रकाशन (चौथा संस्करण), नई दिल्ली, 2018. (ये भी देखें - देवेन्द्र, दलित कहानियाँ, दलित साहित्य, https://shorturl.at/yYXyD)
[10] ओम प्रकाश वाल्मीकि, हिंदी: साहित्य साहित्य की 10 श्रेष्ठ रचनाएँ, BBC न्यूजहिंदी, 16 सितंबर 2013, https://shorturl.at/c6OkM
[11] डॉ. एन सिंह, (संपादक), दलित साहित्य और समाज,नॉटनलप्रकाशक, लखनऊ, अप्रैल 2023.
[12] किशोरी लाल रैगर, दलित साहित्य की अवधारणा, दलित साहित्य, https://shorturl.at/S4c6D
[13] ओम प्रकाश वाल्मीकि, हिंदी: साहित्य साहित्य की 10 श्रेष्ठ रचनाएँ, BBC न्यूजहिंदी, 16 सितंबर 2013, https://shorturl.at/c6OkM
[14] गंगा सहाय मीणा, “जूठन का आलोचनात्मक अध्ययन”, दलित साहित्य, https://shorturl.at/Euwzf
[15] सिद्धार्थ, “गोदान का कथ्य: वर्ण–जाति व्यवस्था ही भारतीय समाज की धुरि है”, फारवर्ड प्रेस, 13 अगस्त, 2020.https://shorturl.at/6lujp
[16] कुसुम लता और श्वेता संगल, “प्रेमचंद की कहानियों में दलित चेतना”, श्रृंखला एक शोधपरक वैचारिक पत्रिका, वॉल्यूम 6, इशू 10, जून 2019.
[17] कुसुम लता और श्वेता संगल, “प्रेमचंद की कहानियों में दलित चेतना”, श्रृंखला एक शोधपरक वैचारिक पत्रिका, वॉल्यूम 6, इशू 10, जून 2019.
[18] वे तीन दलित बेटियाँ: कर्मशील भारती की कविता,स्त्रीकाल: स्त्रीका समय और सच्च,October 5, 2016.https://streekaal.com/2016/10/05/literaturepoetry/
[19] देवेन्द्र चौबे,दलित कहानियाँ,दलित साहित्य, https://shorturl.at/3atez
[20] मधुमिता मंडल, “राइस आफ एन अनवॉइडेबल दलित वॉइस: अ रिव्यू आफ सूरज येंगडेस “कास्ट मैटर्स”, आल अबाउट अंबेडकर: अ जर्नल आफ थ्योरी एंड प्रैक्सिस,वॉल्यूम 2, इशू 1, जनवरी–अप्रैल 2021.
[21] सूर्यनारायण रणसुभे, (अनुवाद), स्वर्ण पिता और अछूत माता की संतति की व्यथा–कथा, गद्य कोश, https://shorturl.at/oH0qI
[22] हिंदी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल)/दलित विमर्श, https://shorturl.at/xncBE
[23] किशोरी लाल रैगर, “दलित साहित्य की अवधारणा”, दलित साहित्य, https://shorturl.at/2rqxz
[24] हिंदी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल)/दलित विमर्श, https://shorturl.at/xncBE
[25] मोहरसिंह बैरव, समकालीन परिदृश्य में दलित साहित्य की अभिव्यक्ति(2001 के बाद),पी. एच. डी., शोध प्रबंध, कोटा विश्विद्यालय, कोटा, 2019.

साहिल
वरिष्ठ शोधकर्ता (पी.एच.डी.), इतिहास विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर

शेफाली चौहान,
सहायक प्रोफेसर, इतिहास विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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