शोध आलेख : वीरेंद्र जैन के साहित्य में बाल मनोविज्ञान / कमलेश कुमारी

वीरेंद्र जैन के साहित्य में बाल मनोविज्ञान
- कमलेश कुमारी


शोध सार : प्राचीन काल से भारत में बालकों के सर्वांगीण विकास-चारित्रिक निर्माण, व्यक्तित्व विकास के लिए विभिन्न संस्कारों की भावनाओं के साथ साहित्यिक निर्माण भी किया जाता है। साहित्य के माध्यम से उन्हें अंधकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर, अन्याय से न्याय की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा दी जाती है। हमारे पौराणिक ग्रंथ रामायण, महाभारत, पुराण आदि इस दृष्टि से महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ बच्चे ही स्वस्थ समाज का निर्माण करते हैं। अतः इन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु ज्ञान के साथ मनोरंजन युक्त जो साहित्य लिखा जाता है वह बाल साहित्य की श्रेणी में आता है। कहने का तात्पर्य है कि वह साहित्य जिसे बच्चों के मानसिक स्तर को ध्यान में रखकर लिखा गया हो, बालकों के लिए, बालकों के नजरिये से, बच्चों की भाषा में लिखा गया साहित्य बाल साहित्य कहलाता है। संस्कार युक्त, ज्ञानवर्धक, बाल मनोविज्ञान तथा मनोरंजन पर आधारित यह साहित्य अपनी विशेष पहचान रखता है। वर्तमान में बालकों के लिए रचनाकार कविता, कहानी या फिर बाल साहित्य की अन्य विधाओं पर लेखनी चला रहा है। गुणवत्ता की दृष्टि से बाल साहित्य का सर्जन करने वालों की संख्या आज भी बहुत अधिक नहीं है। क्योंकि बालकों के लिए साहित्य लिखना इतना सरल कार्य नहीं है। साहित्यकार जो बड़ों के लिए बहुत आसानी से लिखने की दक्षता रखते हैं किन्तु नन्हें-मुन्नों की रुचि व बाल मनोविज्ञान के अनुरूप लिखने में बड़ी कठिनाई का अनुभव करते हैं। ऐसा स्वाभाविक है एवं अनेक पहुँचे हुए साहित्यकारों ने इस बात को स्वीकार भी किया है। कारण की तह में पहुंचने पर आभास होता है कि जहाँ बड़ों के लिए लिखने में अनुभव के किसी एक विशेष स्तर से गुजरना पड़ता है जबकि बाल-मनोविज्ञान के धरातल से गुजरते हुए बाल भावनाओं के अनुरूप बच्चों के लिए कहानियाँ लिखना एक कठिन रचना प्रक्रिया से गुजरना है। ऐसा वहीं कर सकता है जिसके पास सर्जन की प्रतिभा के साथ-साथ बाल मन की गहरी समझ हो। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि बच्चों के लिए लिखना बच्चों का खेल नहीं है। चहुंमुखी प्रतिभा के धनी वीरेंद्र जैन के लिए बच्चों के लिए लिखना बच्चों का सा ही खेल है। उन्होंने बालोपयोगी कहानियां बच्चों के स्तर को ध्यान में रखते हुए लिखी है।

बीज शब्द : चारित्रिक निर्माण, सर्वांगीण, ज्ञानवर्धक, मनोरंजन, जिज्ञासा, बाल मनोविज्ञान, कल्पना, संस्कार, धरातल, भावना, रोचक

मूल आलेख : किसी भी बालक का विकास उसकी पारिवारिक एवं सामाजिक परिस्थितियों पर आधृत होता हैं। बालक के व्यक्तित्व के निर्माण में उसकी परिस्थितियाँ ही सर्वोपरि होती है। “पारिवारिक वातावरण से ही बालक में सामाजिक गुण का उद्भव होता है। सहकारिता, सहयोग, स्नेह, भ्रातृत्व की नींव परिवार से ही पड़ती है। जिस परिवार में संघर्ष व अशान्ति का वातावरण होगा, उस परिवार का बालक इन गुणों से वंचित रह जाएगा।”1 बाल मनोविज्ञान बचपन के विविध पहलू जिसमें संज्ञानात्मक, भावात्मक और सामाजिक विकास की पड़ताल करता है। बच्चों को बड़ा होते होते सामाजिक परिवेश जिसमें परिवारिक गतिशीलता, सामुदायिक प्रभाव तथा सांस्कृतिक वातावरण जिसमें सांस्कृतिक विश्वास, परम्पराएं, भाषा और रीति-रिवाज शामिल हैं, साथ ही बालक पर परिवार की आय, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि भी प्रभाव डालते हैं।

बाल साहित्य विशेष रूप से बच्चों के लिए लिखा जाता है इसमें कहानियाँ, कविताएँ, नाटक, और अन्य साहित्यिक रूप शामिल होते हैं जो बच्चों की रुचियों, मानसिकता और समझ के अनुसार होते हैं।

बाल साहित्य लिखना वास्तव में एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, क्योंकि इसे बच्चों की मानसिकता, रुचियों, और उनकी समझ के अनुसार लिखना होता है। बच्चों के लिए साहित्य रचना करते समय कई महत्वपूर्ण बिंदुओं का ध्यान रखना पड़ता है- बच्चों के लिए लिखते समय भाषा सरल और सहज होनी चाहिए। जटिल शब्द और वाक्य संरचनाएँ बच्चों को समझने में कठिनाई पैदा कर सकती हैं। बाल साहित्य का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन नहीं है, बल्कि इसके माध्यम से बच्चों को नैतिक मूल्य, ज्ञान और रचनात्मकता भी सिखाई जाती है तथा बच्चों में मासूमियत और कल्पनाशक्ति प्रबल होती है। बाल साहित्य में इन तत्वों का समावेश महत्वपूर्ण है ताकि बच्चे कहानी से खुद को जोड़ सके और उनकी कल्पनाशक्ति को प्रोत्साहन मिल सके। बाल साहित्य के माध्यम से सकारात्मक और प्रेरणादायक संदेश देना आवश्यक है, जो बच्चों को सही दिशा में मार्गदर्शन कर सके। बाल साहित्य समाज के भविष्य को आकार देने में सहायक होता है, क्योंकि यह बच्चों के जीवन में सकारात्मक प्रभाव डालता है और उन्हें एक अच्छा नागरिक बनाने, मानसिक विकास और उनके व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

अतः ऐसा साहित्य जो बच्चों की जिज्ञासाओं और कल्पनाओं को शांत करके उनके स्तर के अनुसार, उनके मनोविज्ञान को समझ कर बच्चों भाषा में लिखा गया हो, विभिन्न विद्वानों ने बालसाहित्य को भिन्न- भिन्न प्रकार से परिभाषित किया है। “बाल साहित्य रोचक और प्रेरक दोनों होना चाहिए क्योंकि बाल साहित्य रोचक नहीं होगा तो बालकों को अपनी ओर आकर्षित नहीं करेगा। उसे प्रेरक भी होना चाहिए, अन्यथा वह निरुद्देश्य होने से गुणकारी नहीं हो सकता।”2

महादेवी वर्मा “बालक तो स्वयं एक काव्य है, स्वयं ही साहित्य है।”3

बालकों की प्रिय पत्रिका के चंदामामा के सम्पादक श्री बालशौरि रेड्डी ने कहा है कि “बाल साहित्य वह है जो बच्चों के पढ़ने योग्य हो, रोचक हो, उनकी जिज्ञासा की पूर्ति करने वाला हो। उसमें बुनियादी तत्वों का चित्रण हो। बच्चों के साहित्य में अनावश्यक वर्णन न हो। कथावस्तु में अनावश्यक पेचीदगी न हो। वह सरल, सहज और समझ में आने वाला हो। सामाजिक दृष्टि से स्वीकृत तथ्यों को प्रतिपादित करने वाला हो।”4

डॉ. नागेश पाण्डेय 'संजय' के अनुसार “ऐसा बाल साहित्य जिसे पढ़कर बच्चे आनंदित हों, उनका सम्यक विकास हो और वे आत्म सुधार तथा जीवन के संघर्षों से जूझने की दिशा में क्रियाशील हो सकें, सही मायने में यही बाल साहित्य है। भले ही उसकी रचना बाल साहित्य के रूप में नहीं हुई हो। वस्तुतः बाल साहित्य का प्रणयन अत्यंत कठिन कार्य है। बच्चों द्वारा स्वयं अपने लिए लिखा जाना कठिन है और बड़े कभी बाल मानसिकता से ऊपर उठ चुके होते हैं। बाल साहित्य लेखन को इसलिए 'परकाया प्रवेश' की संज्ञा दी गई है। बाल अनुभूतियों को आत्मसात कर उसे उन्हीं की भाषा में प्रस्तुत करने वाला ही वास्तविक बाल साहित्यकार है।”5

बाल साहित्य की लेखन परंपरा अति प्राचीन है और विभिन्न संस्कृतियों में इसे अलग-अलग रूपों में विकसित किया गया है। बाल साहित्य की सर्वप्रथम विधा कहानी ही है। प्राचीन काल से ही बाल कहानियों का मुख्य उद्देश्य रोचक घटनाओं के माध्यम से बच्चों को शिक्षित करना रहा है। बाल साहित्य का काल विभाजन विभिन्न चरणों में किया जा सकता है। यह विभाजन साहित्यिक विकास, समाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों के आधार पर किया गया है। वेद, उपनिषद, महाभारत, रामायण जैसे प्राचीन ग्रंथों में बच्चों की शिक्षा और मनोरंजन के लिए कहानियाँ शामिल थीं। विभिन्न लोक कथाएँ, जैसे पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक कथाएँ, बच्चों के मनोरंजन और नैतिक शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण थीं। धार्मिक ग्रंथों और लोक कथाओं का प्रभाव निरंतर रहा। तेनालीराम, अकबर-बीरबल की कहानियाँ अपने समय की प्रमुख रचनाएँ थीं। सूरदास, तुलसीदास, और अन्य भक्ति कवियों ने अपनी रचनाओं में बाल मनोविज्ञान पर लिखा, विशेष रूप से धार्मिक उद्देश्यों से लिखा।

कालांतर में ब्रिटिश शासन के कारण पश्चिमी साहित्य और शिक्षा प्रणाली का प्रभाव भारतीय बाल साहित्य पर पड़ा। ईश्वरचंद्र विद्यासागर और रवींद्रनाथ ठाकुर ने बच्चों के लिए कहानियाँ और कविताएँ लिखीं। तत्पश्चात हिंदी में बच्चों के लिए विशेष रूप से साहित्य लिखा जाने लगा। मिश्र बंधुओं द्वारा 'गौरा बादल की कथा' को बाल साहित्य की पहली कृति माना जाता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बाल साहित्य का व्यापक विकास हुआ। प्रेमचंद, सुभद्रा कुमारी चौहान, सुमित्रानंदन पंत जैसे लेखकों ने बच्चों के लिए साहित्य रचा। इस काल में बच्चों के लिए कई पत्रिकाएँ और पुस्तकें प्रकाशित होने लगीं जैसे 'नंदन', 'चंपक', 'पराग' आदि। 21वीं शताब्दी में बाल साहित्य ने डिजिटल माध्यमों में भी प्रवेश किया। ई-बुक्स, ऑडियो बुक्स, और इंटरएक्टिव कहानियाँ बच्चों के लिए उपलब्ध होने लगीं। समकालीन बाल साहित्य में विविधता और समावेशिता का समावेश किया जा रहा है, जिससे बच्चों को विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों के प्रति जागरूक किया जा सके।

वर्तमान में बालकों के लिए रचनाकार कविता, कहानी या फिर बाल साहित्य की अन्य विधाओं पर लेखनी चला रहा है। गुणवत्ता की दृष्टि से बाल साहित्य का सर्जन करने वालों की संख्या आज भी बहुत अधिक नहीं है। क्योंकि बालकों के लिए साहित्य लिखना इतना सरल कार्य नहीं है। जाने माने साहित्यकार जो बड़ों के लिए बहुत आसानी से लिखने की दक्षता रखते हैं किन्तु नन्हें-मुन्नों की रुचि व बाल मनोविज्ञान के अनुरूप लिखने में बड़ी कठिनाई का अनुभव करते हैं। ऐसा स्वाभाविक है एवं अनेक पहुँचे हुए साहित्यकारों ने इस बात को स्वीकार भी किया है। कारण की तह में पहुंचने पर आभास होता है कि जहाँ बड़ों के लिए लिखने में अनुभव के किसी एक विशेष स्तर से गुजरना पड़ता है, परन्तु बच्चों को लिए अनुभव के दोहरे स्तर से दो-चार होना पड़ता है। बाल-मनोविज्ञान के धरातल से गुजरते हुए बाल भावनाओं के अनुरूप बच्चों के लिए कहानियाँ लिखना एक कठिन रचना प्रक्रिया से गुजरना है। ऐसा वहीं कर सकता है जिसके पास सर्जन की प्रतिभा के साथ-साथ बाल मन की गहरी समझ हो। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि बच्चों के लिए लिखना बच्चों का खेल नहीं है। चहुंमुखी प्रतिभा के धनी वीरेंद्र जैन के लिए बच्चों के लिए लिखना बच्चों का सा ही खेल है। उन्होंनें बालोपयोगी कहानियां बच्चों के स्तर को ध्यान में रखते हुए लिखी हैं। इस संदर्भ में लेखक ने इन कहानियों के सृजन की पृष्ठभूमि और उद्देश्य को व्यक्त करते हुए लिखा है। “इन कहानियों का लेखक मैं माना जाता हूँ। मैं ही माना जाता रहूँगा भी। ये मेरे नाम से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है। इनमें से कुछ के लिए मैं पुरस्कृत भी हुआ। फिर भी यह सच है कि उन्हें मैंने लिखा भर है, गढ़ा नहीं है। मेरे मौहल्ले में मेरे आसपास कुछ बच्चे रहते थे- रानी, राजू, चारू, बॉबी, विवेक और गुड़िया और भी कई जिनके अब नाम याद नहीं आ रहे। ये जैसे ही स्कूल से लौटते थे, घर में बस्ता पटक मेरे दरवाजे पर आ डटते और कहते- भाई साहब, कोई कहानी सुनाओ! और तब मैं इनसे पिंड छुड़ाने के लिए कोई कहानी गढ़ने की कोशिश में जुट जाया करता था। मैं शुरू करता और वे उसे आगे बढ़ाते जाते। कभी गढ़ने में, कभी ऐसी हरकतें करके दिखाने में, जिन्हें लिखे बिना रहा ही न जा सके। बस इस तरह ये कहानियाँ बनी। इन्हें सुनकर जब वे हँसते, ठहाके लगाते तो न केवल उनकी बल्कि मेरी भी सारी थकान उड़न छू हो जाती और हम नयी स्फूर्ति के साथ अपने नए काम में जुट जाते।”6


वीरेंद्र जैन एक उच्च कोटी के साहित्यकार ही नहीं अपितु एक प्रबुद्ध पत्रकार भी है। उन्होनें न केवल वयस्क पाठकों के लिए लिखा है बल्कि उन्होंने बालोपयोगी साहित्य की भी रचना की है। उनका बाल साहित्य बच्चों के लिए अत्यन्त शिक्षाप्रद है। सीधी-सरल भाषा में उन्होनें बच्चों के स्तर को ध्यान में रखते हुए उपदेशात्मक कहानियाँ लिखी है। उनके द्वारा रचित बालकथाएँ पंचतंत्र अथवा हितोपदेश की भाँति न केवल उपदेशात्मक है अपितु सरस एवं रोचक भी है। वीरेंद्र जैन का बालोपयोगी साहित्य किशोरोपयोगी भी है। उनके बाल साहित्य के अन्तर्गत रचित कहानियों, व्यंग्य कथाओं एवं चित्रकथाओं में न तो किसी प्रकार की गहन गुत्थी को सुलझाने का प्रयास किया गया है और न ही किसी सामाजिक समस्या का चित्रण किया है और न ही समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इनका बाल साहित्य वास्तव में किशोरों के लिए मनोरंजन का उत्तम साधन है।

वीरेंद्र जैन द्वारा लिखित बाल साहित्य से संबंचित रचनाओं में 'हास्य कथा बत्तीसी' जैसा कि नाम से ही आभासित है बत्तीस बालोपयोगी हास्य कथाओं का संग्रह है जिसका प्रकाशन सन् 2008 में हुआ। 'भोजन भट्ट जब रह गए भूखे' हास्य कथा एक ऐसे भोजनभट्ट व्यक्ति की कथा है जो मुफ्तखोरी में विश्वास रखता है। लुभायाराम राय एक ऐसा व्यक्ति है जो दूसरों के पैसे खर्च कराकर खाता-पीता है। यह दूसरों के पैसों से इतना अधिक खाता है कि उसे न ही पेट फटने का डर सताता और न ही संकोच होता है। वे एक कंपनी में मैनेजर है। एक बार कंपनी के तीन कर्मचारियों ने उन्हें सबक सिखाकर इस मुफ्त में खाने की आदत से तौबा करा दी।

'चुनावी लाल चुनाव हार गए' में भाई चुनावी लाल हर बार होने वाले विभिन्न चुनावों में भाग लेते और हर बार हार जाते हैं । भिन्न-भिन्न तरीकों से चुनाव प्रचार और चुनावी घोषणाएँ करने के उपरान्त भी वे चुनाव नहीं जीत पाए।

'बात में बात में बात' कहानी में दफ्तर के मालिक और उसके कर्मियों की कथा है जो अपने दफ्तर में आने वाले इनकम टैक्स के अधिकारी का स्वागत करने के लिए इंतजार करते हैं किन्तु हड़बड़ाहट में अधिकारी के स्थान पर नौकरी माँगने आए व्यक्ति का स्वागत बैंड बाजे के साथ कर देते हैं ।

'जैसे को तैसा' दो भाईयों और सेठ की कथा है। इस कहानी में सेठ राम को बार-बार मूर्ख बनाता है किंतु राम का भाई श्याम सेठ से अपने भाई का बदला ले लेता है। मुफ्तखोर जी जैसा कि नाम से ही इनके गुणों का पता लगता है 'मुफ्तखोर जी की दीवाली' नामक हास्य कथा का नायक है। ये प्रत्येक वस्तु को मुफ्त में प्राप्त करने की फिराक में रहते हैं। मुफ्तखोर जी के घी माँगने के किस्से के साथ-साथ दीवाली के पटाखे मुफ्त में हथिया लेने के किस्से बड़े ही रोचक हैं। कहानी का अंत अत्यंत हास्यास्पद है कि मुफ्तखोर जी पटाखों से जलने के उपरान्त दूसरे मौहल्ले में मुफ्त की दवाई लेने चले गए भले ही वह दवा अच्छी नहीं थी किन्तु मुफ्त में मिली हुई थी।

'हमारे मास्टर जी' कहानी में लेखक अपने स्कूली दिनों में पढ़ाने वाले अध्यापकों को याद कर रहे हैं। लेखक जिस स्कूल में पढ़ता था वहाँ साठ अध्यापकों का स्टाफ था। प्रत्येक अध्यापक की अपनी अलग विशेषता और पहचान थी। स्कूल के प्रिंसिपल भी अपनी अलग तरह की पहचान लिए हुए थे। उन सभी अध्यापकों में एक अध्यापक 'पुराने पहलवान' के नाम से मशहूर है जबकि उनका असली नाम कोई भी नहीं जानता था। वे अपने नाम से बिल्कुल विपरीत हैं। वे शरीर से इतने कमजोर हैं कि हवा का झोंका भी उन्हें उड़ा ले जाए। एक बार एक विद्यार्थी को दण्ड देने के लिए अपने हाथ से उसकी गर्दन दबोची लेकिन वे गर्दन को हिला नहीं पाए। जब बच्चे ने अपनी गर्दन को पीछे किया तो मास्टर जी धड़ाम से गिर पड़े। तब मास्टर जी ने गुस्से में आकर मानीटर को डंडा लाने का आदेश दिया किन्तु बच्चे ने अपनी गर्दन स्वयं हिला ली। तब मास्टर जी ने आदेश दिया, “मानीटर को वापस बुला लाओ। डंडे की जरूरत नहीं वह लड़का बाहर गया और मानीटर को बुला लाया। मानीटर ने आते ही कहा, “हिल गई गर्दन! आखिर हमारे मास्टर जी पुराने पहलवान हैं।”7

'चोट की दवा' हास्य कथा में लेखक के चोट लगने और उस चोट लगने का कारण जानने वाले शुभचिंतकों में हुई गहमा गहमी की कहानी है। एक बार लेखक को कुत्ते ने काट लिया लोगों ने अफवाह फैला दी कि उसे पागल कुत्ते ने काट लिया है। लेखक को उसी दौरान आगरा जाना पड़ा। रेल यात्रा के दौरान सहयात्रियों ने पट्टी बँधी देख कारण जानने का प्रयास किया। लेखक ने अपना पिंड छुड़ाने के लिए लोगों को अलग-अलग कारण बता दिए। परंतु लेखक की झूठ पकड़ी गई। तभी जानपहचान के एक व्यक्ति ने बताया कि इसे पागल कुत्ते ने काटा है। यह बात सुनने के बाद सहयात्री डर गए और अगला स्टेशन आने पर डिब्बा बदल लिया। आगरा पहुँचने पर लेखक ने सोचा-‘ एक यह पट्टी कोई और गुल न खिला दे’ इसलिए यही उतार कर फैंक दी तथा दृढ़ निश्चय किया कि, “जब इस चोट पर चाहे और कुछ दवा लगवाएँ या न लगवाएँ पर पट्टी नहीं बंधवाएंगे।”8 'मामाजी का खेल प्रेम' एक ऐसी हास्य कथा है जो किशोर का भरपूर मनोरंजन करती है।

कहानी नायक के मामा जी अनेक खेलों के खिलाड़ी रह चुके हैं। वे खेलों के संस्मरण सुनते-सुनाते इतने तल्लीन हो जाते हैं कि खिलाड़ी का ही अभिनय करने लग जाते हैं। उंगली को तीर का प्रतीक बनाकर अपने तीरंदाजी के संस्मरण सुनाते हुए उन्होंने एक बालक की आँख ही फोड़ दी। इसी प्रकार अन्य खेलों के संस्मरण सुनाते-सुनाते कभी किसी बच्चे को बॉल समझकर उछाल देते हैं तो कभी कबड्डी का प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी समझकर दबोच लेते। इन्हीं संस्मरणों का नतीजा है कि उनके नौ बच्चे विकलांग हो गये हैं। लेखक स्टेशन पर मामाजी को लेने गए और चरण स्पर्श करने लगे तो उसे भी प्रतिद्वंद्वी पहलवान समझकर दे पटका और तो और किसी सहयात्री को भागदौड़ के संस्मरण सुनाते समय चाय की प्याली को औंधा पटक दिया एवं खुद भी लहुलुहान हो गए। लेखक को पता चला कि उन्हीं के खेल प्रेम के कारण मामी जी भी अस्पताल में भर्ती हैं। इस प्रकार प्रस्तुत कहानी के माध्यम से किशोरों का मनोरंजन किया गया है तथा सीधी सरल बोलचाल की भाषा में लिखी गई यह हास्य कहानी अत्यंत सुंदर बन पड़ी है। वीरेंद्र जैन के बाल साहित्य की अगली कड़ी में सन् 2009 में प्रकाशित 'खोजा बादशाह' कहानी में 33 बालोपयोगी कहानियाँ हैं। कहानियों में खोजा की चतुराई और हाजिर जवाबी के शिक्षाप्रद किस्से हैं। 'महल की दीवार' कहानी में खोजा ने महल की ऊँची होती दीवार का काम बंद करवाकर राजा के समक्ष अपनी समझदारी कायम की। राजा ने मंत्रियों और अधिकारियों की सलाह पर राजमहल की दीवार ऊँची करवाने का आदेश दिया ताकि महल में चोरी न हो सके। किंतु खोजा ने बादशाह के समक्ष कटु सत्य प्रस्तुत करते हुए कहा, “माना कि दीवार ऊंची करने से बाहर के चोर राजमहल में नहीं घुस पाएँगे लेकिन इससे राजमहल में चोरियाँ घटेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं। दरअसल चोर तो राजमहल के भीतर ही है, आपके आसपास है। बड़े-बड़े ओहदों पर है। जब तक ये लोग जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करने की आदत जब तक नहीं छोड़ेंगे तब तक राजमहल में चोरियाँ होती रहेगी।”9 इस प्रकार खोजा ने महल की सुंदरता को कायम रखा क्योंकि दीवार ऊँची होने से महल की सुंदरता भंग हो जाती और साथ ही दीवार बनाने वाले मजदूरों को दीवार न बनने के बावजूद दिहाड़ी दिलवाई।

‘जैसे को तैसा’ कहावत को चरितार्थ करने वाली कथा है 'दही का खाली बरतन' । एक बार बादशाह और वजीर शिकार खेल कर लौटते हुए खोजा के घर के सामने चिल्लाने लगे। कुछ देर बाद खोजा बाहर आया तो वजीर ने कहा हम प्यासे हैं, दही की लस्सी बनाकर लाओ। खोजा ने कहा कि यह अभी-अभी खेत में काम करके लौटा है और सारे दही की लस्सी बनाकर पी चुका है। यह सुनकर बादशाह और वजीर चले गए। उनके कुछ दूर जाने पर खोजा ने उन्हीं के लहजे में आवाज लगाई। जब वे दोनों समीप आ गए तब कहा, “बड़े अफसोस की बात है कि आप खुद देख लीजिए, क्या बरतन सचमुच खाली नहीं है?”10

'उबले अंडे और चूजे' कहानी में एक सेठ द्वारा खोजा को ठग लेने की कथा है किंतु खोजा अपनी बुद्धि चातुर्य से सेठ की गिरफ्त से बाहर निकल गया। सेठ के कहने पर खोजा को दण्ड देने का मनसूबा बनाए बैठे राजा की योजना पर खोजा की हाजिर जवाबी ने पानी फेर दिया।

'कहते हैं आदत अच्छी हो या बुरी बड़ी मुश्किल से छूटती है' प्रस्तुत कहावत को जीवंत बनाने वाली कथा है-‘कंजूस सेठ की दावत’। इस कहानी में एक कंजूस सेठ खोजा को अपने घर दावत पर बुलाता है क्योंकि खोजा काजी बनने जा रहा है। स्वार्थ के वशीभूत होकर सेठ ने खोजा को दावत पर बुला तो लिया किंतु कुछ खिलाने की बजाय थोड़ा दूध पिलाया और स्वयं ज्यादा पी लिया। इस बात से क्रोधित खोजा ने अपनी बेलाग कहने की आदत के कारण सेठ पर अनेक कटाक्ष किए। खोजा के घर से जाने के उपरांत सेठ ने “इस समझदारी के लिए अपनी पीठ खुद ही थपथपाई कि भला हुआ जो मैंने आधा कटोरा दूध ही खर्च किया, कहीं मुर्ग मुसल्लम बनवा लिया होता तो मैं अच्छे खासे घाटे में रहता।”10 खोजा एक स्पष्टवादी व्यक्ति होने के कारण चापलूसी से कोसों दूर रहते हैं। चाहे बादशाह हो या मौलवी अपने मन की बात तुरंत सबके सामने कह देते हैं। 'बादशाह का चेहरा' एक ऐसी हैं कहानी है जिसमें खोजा की स्पष्टवादिता के दर्शन होते हैं।

वीरेंद्र जैन द्वारा रचित 'खोजा के कारनामें' बालोपयोगी कहानी संग्रह का प्रकाशन 2010 में हुआ। प्रस्तुत कहानी संग्रह में खोजा की हाजिर जवाबी और होशियारी के किस्से हैं। इस संग्रह में 33 कहानियाँ है।

'आदेश का पालन' कहानी में खोजा एक सेठ के घर चाकरी करता था। सेठ बड़ा ही धूर्त और कंजूस था। वह साल के अंत में खोजा को वेतन देता तथा इस ताक में रहता कि खोजा की कोई गलती पकड़कर इसका वेतन काट लूं। इस नीयत से उसने खोजा को आदेश दिया कि मैं बाहर जा रहा हूँ और मेरे वापस आने तक तुम आंगन बुहार देना तथा बुहारने के बाद आंगन गीला दिखाई देना चाहिए। इसके लिए तुम पानी की एक बूंद भी नहीं छिड़कोगे। खोजा को एक युक्ति सूझी। उसने तेल के कनस्तर आंगन में बहा दिए। इस प्रकार आंगन भी गीला दिखाई देने लगा और पानी भी नहीं छिड़का। अतः सेठ के आदेश का पालन करते हुए खोजा ने उससे बदला ले लिया तथा अपना पूरा वेतन भी प्राप्त किया।

'जहर का कटोरा' कहानी में खोजा भूत भगाने के लिए प्रसिद्ध काजी के घर नौकरी करता था। एक दिन काजी को उपहार में शहद से भरा कटोरा मिला। किंतु काजी का पेट भरा होने के कारण वे उसे नहीं पी सके। उसी समय काजी को बाहर जाना था। काजी ने सोचा कि खोजा इसे पी जाएगा उसने कहा कि मैं बाहर जा रहा हूँ। इस शहद के कटोरे में जहर है, तुम संभालकर रखना। खोजा काजी की चालाकी समझ गया और उसने एक तरकीब सोची। खोजा ने घर के सारे सामान को तोड़ दिया और शहद पी लिया। काजी आने पर उसने कहा कि कोई भूत उस पर सवार हो गया और आपका घर पता होने के बाद निकलकर भाग गया। मैं गरीब इस नुकसान की भरपाई नहीं कर यह सोचकर शहद में मिले जहर को मैंने पी लिया।

‘बटुए की हिफाजत’ कहानी में खोजा किसी दूसरे के द्वारा दी हुई धरोहर की रक्षा करते हुए दिखाया है। खोजा अपनी ईमानदारी और दयालुता के कारण प्रसिद्ध है। खोजा अक्सर लोगों की सहायता के लिए एक शहर से दूसरे शहर यात्रा पर जाया करता था। एक बार किसी व्यक्ति ने उसे रुपयों से भरा बटुआ दे दिया। खोजा दूसरे शहर में पहुँचने से पहले रात को सराय में रुकता है। सराय के मालिक ने खोजा के पास रखे हुए बटुए को चुराने का भरसक प्रयास किया किंतु सफल न हो सका। खोजा ने रात भर जागकर उस बटुए की रक्षा की।

'कुछ नहीं आता' कहानी खोजा और उसके कामचोर मित्र की है जिसको खोजा ने अच्छा सबक सिखाया। खोजा और उसका मित्र पिकनिक मनाने गए तो वहाँ उन्होंने पुलाव बनाने की सोची। कामचोर मित्र यह कहकर सो गया कि मुझे कुछ बनाना नहीं आता। तब खोजा अकेला ही पुलाव बनाता है। खोजा ने अपने और अपने गधे के लिए पुलाव परोसा लिया किन्तु अपने मित्र को नहीं जगाया। आँख खुलने पर मित्र ने कहा कि तुमने मेरे हिस्से का पुलाव क्यों खा लिया? तब खोजा ने बड़ी आत्मीयता से उत्तर दिया, “मेरे प्यारे दोस्त, क्या तुमने यह नहीं कहा था कि तुम्हें कुछ नहीं आता? मैंने सोचा तुम्हे पुलाव खाना भी नहीं आता होगा। इसलिए नहीं जगाया।”12

'पेट के चूहे का इलाज' खोजा की हाजिर जवाबी पर आधारित हैं। खोजा हुनरमंद होने के कारण हकीमी का काम भी संभाल लेता है तथा गरीबों को सस्ता इलाज मुहैया करवाता है। परंतु उसके इस उपकार से लोग बहुत ईर्ष्या करते थे। अतः उसे बदनाम करने के लिए सेठ ने खोजा से कहा कल रात मेरे पेट में एक चूहा घुस गया कृपया आप मेरा इलाज कर दें। खोजा सेठ की चालाकी को समझ गया और कहा, “मैं अभी एक बिल्ली मंगवाता हूँ और उसे जिंदा का जिंदा आपके मुंह के रास्ते पेट में पहुँचाता हूँ। वह जरूर तुम्हारे पेट के चूहे को खा जाएगी। मेरी समझ से तो आपकी बीमारी का दूसरा कोई इलाज नहीं है।”13

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि वीरेंद्र जैन की बाल कहानियां बाल मनोविज्ञान के गहरे पहलुओं को प्रभावी ढंग से उजागर करती हैं। उनकी कहानियों में बच्चों के मानसिक और भावात्मक विकास को गहराई से समझा जा सकता है। वीरेंद्र जैन की कहानियों में बच्चों की मनोवृतियाँ, उनकी जिज्ञासाएँ और भावनात्मक अवस्थाएं अत्यंत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत हुई है। वे बालकों की आंतरिक दुनिया को समझने और उसे कथानक के माध्यम से प्रस्तुत करने में माहिर हैं। उन्होंने बाल कथा में उपदेश की नीरसता को दूर करने के लिए हास्य-व्यंग, काल्पनिक पात्रों और पशु-पक्षियों को आधार बनाकर प्रेरणास्पद कहानियों को मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। उनकी कहानियों में नैतिक द्वन्द्व, सामाजिक दबाव एवं व्यक्तिगत संघर्ष को केंद्रित किया गया है। अतः पाठक वर्ग को बालकों के मनोवैज्ञानिक पहलुओं को समझने में मदद मिलती है तथा वे बाल मनोविज्ञान गहराई से समझ सकते हैं। वीरेंद्र जैन की कहानियाँ बच्चों के विकसात्मक चरणों और उनके भावात्मक अनुभवों को ईमानदारी से पेश करती है।

संदर्भ :
  1. जायसवाल सीताराम, बाल मनोविज्ञान, आर्य बुक डिपो, संस्करण 1986, नई दिल्ली, पृष्ठ 257
  2. ‘संजय’ डॉ. नागेश पांडेय, बाल साहित्य के प्रतिमान, राष्ट्रीय प्रकाशन मंदिर, लखनऊ, संस्करण 2009, पृष्ठ 12
  3. सं. परवीन फरहत, आजकल, नवंबर 2014, पृष्ठ 15
  4. विक्रम डॉ. सुरेन्द्र, हिंदी बाल पत्रकारिता:उद्भव और विकास, इलाहबाद:साहित्य वाणी प्रकाशन, संस्करण 1992, पृष्ठ 16
  5. ‘संजय’ डॉ. नागेश पांडेय, बाल साहित्य के प्रतिमान, राष्ट्रीय प्रकाशन मंदिर, लखनऊ, संस्करण 2009, पृष्ठ 10
  6. जैन वीरेंद्र , हास्य कथा बत्तीसी, आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली, संस्करण 2008, फ्लैप से
  7. जैन वीरेंद्र, हास्य कथा बत्तीसी, आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली, संस्करण 2008, पृष्ठ 65
  8. वही, पृष्ठ 73
  9. जैन वीरेंद्र , खोजा बादशाह, आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली, संस्करण 2009, पृष्ठ 7
  10. वही, पृष्ठ 10
  11. वही, पृष्ठ 28
  12. जैन वीरेंद्र, खोजा के कारनामे, आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली, संस्करण 2010, पृष्ठ 26
  13. वही, पृष्ठ 40
कमलेश कुमारी
सह-आचार्य, हिंदी विभाग, हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, महेंद्रगढ़

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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