साक्षात्कार : चित्रकला में शारीरिक भाषा एवं भाव-भंगिमा की अभिव्यक्ति के सन्दर्भ में कला विशेषज्ञों से चर्चा / सचिन सैनी

चित्रकला में शारीरिक भाषा एवं भाव-भंगिमा की अभिव्यक्ति के सन्दर्भ में कला विशेषज्ञों से चर्चा
- सचिन सैनी

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शोध सार : इस अनुसंधान के माध्यम से ‘चित्रकला में शारीरिक भाषा एवं भाव-भंगिमा की अभिव्यक्ति’ के निष्कर्षों को प्रामाणिक स्तर तक ले जाने का प्रयास किया गया है। चित्रकार, चित्र, समीक्षक और प्रेक्षक के चतुष्टय में चित्र का जो भाष्य स्थापित होता है उसे विवेचित करना ही इस अनुसंधान का मुख्य लक्ष्य है। समकालीन चित्रकारों की अपनी समझ, बोध, समकालीनता को पकड़ने की शक्ति, तकनीक और शैली है तथा जाहिर है कि इसी कारण उनकी एक विशिष्ट शारीरिक भाषा का प्रकटीकरण चित्रों में हो रहा है। समकलीन समीक्षक और कलाविदों से गंभीर चर्चा उपरांत शोध को एक महत्त्वपूर्ण दिशा और अनुसंधानपरक तथ्य मिले हैं जो इस शोधपत्र की एक मौलिक उपलब्धि हैं।

बीज शब्द : शारीरिक भाषा, भाव-भंगिमा, समीक्षक, कलाविद, सवेंदनात्मक सघनता, भावसृष्टि, मूर्त-अमूर्त, सम्प्रेषण, नितांत, आकृतिमूलक, निरूपित, हृदयंगम, प्राकट्य।

मूल आलेख : अनुसंधान की प्रक्रिया विभिन्न चरणों से गुजरती है। इन चरणों में एक ओर समीक्ष्य विषय की ऐतिहासिक परम्परा को समझना नितांत आवश्यक होता है वहीं दूसरी ओर समीक्ष्य परिप्रेक्ष्य में सम्बद्ध विषय का विश्लेषण भी निष्कर्षों तक ले जाने में सहायक होता है। किंतु यह विश्लेषण पूर्णता की ओर होने के साथ ही सटीकतायुक्त तभी माना जा सकता है जब एक युग के साक्षी रहें एवं युगों के मिलन-बिंदु के दोनों ओर स्थित परम्परा के प्रवाह और आधुनिकता की प्रवृत्तियों के सचेष्ट और सतर्क द्रष्टा, भोगी और इतिहास निर्माताओं से साक्षात् उन गूढ़ और गंभीर रचना-प्रक्रिया की पहचान कराना, जो समीक्ष्य विषय को समकालीन प्रमाण प्रदान करती है, जिससे यह अनुसंधान प्रविधि को और अधिक सशक्त एवं प्रामाणित बनाती हैं।

इसी दृष्टिकोण से, शोधकर्ता ने भारतीय आधुनिक चित्रकला के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से युक्त यात्रा को समीक्ष्य विषय से समझा है। इनके तर्कपूर्ण निष्कर्षों तक पहुँचने की इस यात्रा में अनुभवी विश्लेषकों की विवेचना से जांचा-परखा है। दूसरी ओर भारतीय आधुनिक चित्रकला में अभिव्यक्त शारीरिक भाषा एवं भाव-भंगिमा आदि के अनछुए पहलुओं के विश्लेषण हेतु चित्रकृतियों का संकलन, समीक्षकों की दृष्टि एवं व्यावहारिक तथा मौलिक व्याख्या भी समकालीन परिप्रेक्ष्य में करने का प्रयास वैज्ञानिक प्रविधि के साथ किया है। इसी अनुक्रम में समीक्ष्य विवेचना को गंतव्य तक ले जाने में अतीव सहायक सिद्ध होता है- समकालीन समय मे मौजूद अनुभवी, अथवा सक्रिय चित्रकार, जिनके कार्य मील के पत्थर साबित होते हुए हमारे समीक्ष्य विषय को पुष्ट करते हैं, ऐसे ही चित्रकारों से साक्षात्कार के जरिये कई नये तथ्यों का उद्घाटन किया जाना हमारे विषय को न केवल परिणति तक पहुँचाता है, बल्कि नये और भावी अनुसंधान के मार्ग भी खोलता है।

चित्रकार मनीष पुष्कले भी इस घोषणा को अधिक तार्किक और स्पष्ट ढंग से सामने रखते हैं- “हम आधुनिक चित्रकला की बात कर रहे हैं तो निश्चित ही ऐसे तमाम चित्रकार हुये हैं, जो आधुनिक भारत में और आधुनिक भारतीय चित्रकला के नायक रहे हैं और उन्होंने इस किस्म की शैली में काम करा है जहाँ पर कि मनुष्य की देह या एक मनुष्य की रचना उसमें केन्द्रित है। तो इस तरीके से देह लेके भारतीय कला में या विश्व की कला में या हर काल की कला में.............. देह केन्द्र में रही है तथा आज भी है।”

मनुष्य की देह या शारीरिक चित्रण विभिन्न आधुनिक कलाकारों के लिए कई मायनों में केन्द्रबिन्दु रहा है। मनीष पुष्कले इसे एक सहज किन्तु जटिल प्रक्रिया मानते हैं। यह सरल रूप से इस मायने में चित्र दृश्य विधा है और उसका रूपकार होना स्वाभाविक है। जटिल और विशिष्ट इसलिए कि यह दो चित्रकारों के बीच अंतर का कारण भी है- “ये एक चित्रकार के लिये एक सामान्य और जटिल प्रक्रिया भी है, ये दृश्य कलाऐं हैं, जिनमें हम चित्र बनाते हैं और उसमें देखना उनकी पहली शर्त है, जैसे की संगीत को सुनना उसकी शर्त है या साहित्य को पढ़ना उसकी शर्त है। इसी तरह चित्र को देखना भी उसकी शर्त है, तो हर चित्रकार इस प्रक्रिया से गुजरता है और ऐसा नहीं है कि ये प्रक्रिया खत्म हो जाती है, यह जीवन पर्यन्त हैं और इसमें लगातार निरन्तरता बनी रहती है। जैसे अपने समय की बात करूँ तो मेरे सामने कुछ चित्रकार थे, उदाहरण के लिये मकबूल फिदा हुसैन ही लें या मंजीत बावा लें या तैयब मेहता लें या जोगेन चौधरी लें, ऐसे बहुत से कलाकार हुये हैं, जिनके चित्रों में मनुष्य आकृति या देह या उससे संबंधित विषय मुख्य रूप से रहे हैं। हाँ, उस विषय को या उन मनुष्य की देह को कैसे बरता, कैसे रखा, इसका यहाँ पर अंतर पैदा हो जाता है- दो कलाकारों के बीच में, क्योंकि यहीं पर उनकी व्यक्तिगत शैली भी बनती है। इसलिए कुल मिलाके दो चित्रकार जिस आकृति को रचने की कोशिश कर रहें हैं वो एक तरह से है तो मनुष्य की आकृति, लेकिन हर चित्रकार अपना एक अलग मनुष्य बनाता है। जैसे की ईश्वर हरेक मनुष्य अलग बनाता है।”

इस प्रकार प्रत्येक चित्रकार अपनी कृति को इस मायने से भी विशिष्ट या अलग बना देता है कि उसकी शारीरिक भाषा भिन्न है। आधुनिक चित्रकार आकृतियों और मानवीय रूपों के आकृतिमूलक चित्रण की अलग-अलग खासियतों के कारण चर्चा का केन्द्र बनते हैं। चर्चा इस रूप में कि जीवन, जगत, समाज और परम्परा को किस तरह चित्रकार आधुनिक या समकालीन बनाता है। मनुष्य और मनुष्यता के किस पक्ष को लेकर वह इस शरीरी आकृतियों के आकार-प्रकार, सतह और चित्रण के तौर-तरीकों में बदलाव की कोशिश करता है यही समीक्ष्य विषय बन जाता है। मनीष पुष्कले इस प्रकार प्रकाश डालते हुए कहते हैं- “मंजीत बावा के चित्रों को देखकर ये एहसास होता है कि किस तरह से उन्होंने परम्परा के रूपकों को समकालीन करा। अपने चित्रों में तो इस तरीके से अलग-अलग समय पर कलाकार योगदान देते हैं। चित्रकार चित्रों के माध्यम से ही समाज को योगदान देगा, तो ऐसे बहुत सारे उदाहरण हो सकते हैं। तैयब मेहता............ मंजीत बावा के उन चित्रों में एक गोलाई को और एक भारहीनता को देख रहे थे। तो तैयब मेहता उसी किस्म की मनुष्य आकृति में एक किस्म की ऐसी सपाट सतह को देख रहे थे जो मनुष्य में नहीं होती। मंजीत बावा ने मनुष्य के किस पक्ष को चित्रित किया होगा, इस पर चर्चा हो सकती है, लेकिन ये चर्चा तभी हो सकती है, जब चित्र की आध्यात्मिकता का ज्ञान हो, क्योंकि यही तो कलाकार की विशेषता है।”

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कलाकार की दृष्टि बड़ी व्यापक है, वह केवल चेहरे से ही भाव नहीं पकड़ता और दर्शाता बल्कि भाव-भंगिमा और मुद्रा के लिए विभिन्न अवयवों से उत्पन्न होने वाले भावों का रेखांकन कर लेता है। कला के अन्योन्य रूपों के साथ-साथ चित्रकला में यह बात बड़ी प्रखरता के साथ उपस्थित है। मनीष पुष्कले इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं- “मनुष्य आकृति बनायेंगे तो उसका कुछ ना कुछ भाव तो स्वतः बनेगा। आप चेहरा बनायें या ना बनाये, मकबूल फिदा हुसैन ने मदर टेरेसा बनायी, और उसका चेहरा नहीं बनाया तो उसका चेहरा न बनाने से भी वो मदर टेरेसा बराबर प्रेषित होती है। तो चेहरा महत्त्वपूर्ण नहीं है और हम ये ना भूलें कि भाव सिर्फ चेहरे पर नहीं होते, भाव पूरे शरीर में होते हैं। नृत्य वहीं तो है आपने उंगली उठाई और ऐसा करा कि वो चंद्र बन गया या उंगली थोडी से मोड़ दी............... तो वह हिरन बन गया, ये क्या है मुद्रा और भाव-भंगिमायें।”

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 आधुनिक और समकालीन चित्रकार जागरुक हैं। प्रेक्षक होने के साथ-साथ अध्येता भी है। वह परम्परा को पूरी तरह से छोड़कर नहीं चलता। वह मिथकों से प्रेरणा पाता है, सभ्यताओं से प्रकाश पाता है। विकास को परम्परा से तोड़कर आधुनिकता नहीं पाता, बल्कि भौतिक के बीच भीतरी परिवर्तनों को देखता है और रूपायित करता है। मनीष पुष्कले कहते हैं- “मै तो इसकी बड़ी............. चिन्ता करता हूँ। इस बात को लेके और ये मेरे लिये इन्क्वायरी का एक बड़ा कारण रहा है। आपको एक तरीके से मेरे चित्र देखने में अमूर्तन लगते जरूर हैं, लेकिन अमूर्तता का अर्थ ये नहीं है कि हमारी परम्परा से जो टूट चुका है, वह रूप अमूर्त है, ऐसा नहीं है, इसमें परम्परा का गहरा बोध है।” समकालीन चित्रकार मनुष्य की चित्र पर मौजूदगी को एक काल-विशेष की घटना नहीं मानता। भीतर घटित होने वाले परिवर्तनों के कारण उसके चित्रण में आने वाले बदलावों को आधुनिक दृष्टि या समकालीनता कहता है। लेकिन परम्परा का पूर्ण उच्छेद करने में विश्वास नहीं रखता। क्योंकि इसी प्रक्रिया के कारण उसकी हर काल में एक अर्थवत्ता है यानि एक अर्थ है। मनीष पुष्कले जैसे समकालीन कलाकारों का यह बयान इसे पुष्ट करता है कि- “पूरा शास्त्र जो है चित्र का ...........एक तत्व सूत्र जो है उसका .......वो मनुष्य ने समय-समय में ........अलग-अलग कालों में .........अलग-अलग शताब्दियों में ...........अलग-अलग समाजों में ............इन्हीं चीजों को तो पकड़ने की कोशिश की। आप चाहे मिश्र की सभ्यता को देख लें ............ या सिंधु घाटी की सभ्यताओं को देख लें या हमारे लघु चित्रों को देख लें, हमारे शिल्पों को देख लें, कुल मिलाके मनुष्य है, मनुष्य की आकृति है तो उसकी भंगिमा भी होगी, उसका भाव भी होगा, उसका अर्थ भी होगा, उसका तात्पर्य भी होगा।”

इतना ही नहीं मिथकीय या सभ्यता विकास के इतिहास से आगे बढ़कर वस्तुतः आधुनिक चित्रकला के इतिहास को आधुनिक चित्रकारों के कार्य और समकालीन कार्य के रूप में प्रत्यक्षतः देखें तो भी यह पाया जाता है कि अमूर्तन से मूर्तन अधिक रहा। उद्देश्य यह नहीं कि इसकी कार्यगत अधिकता से इसका महत्व प्रतिपादित करने का इरादा हो, बल्कि यह स्वाभाविक प्रकटीकरण है जो कलाकार की एक आंतरिक घटना का परिणाम है क्योंकि प्रत्येक चित्रकार अपने अंतःकरण से ब्रह्माण्ड के जीवन-जगत को जोड़कर या समेटकर सामने रखता है। वह स्वयं की अनुभूति, अपनी दृष्टि और नेपथ्य में आने वाले रूपों से वहीं कहना चाहता है, जो समग्र सृष्टि में महसूस किया जा सकता है। यह सामान्यीकरण की प्रक्रिया उसे स्वाभाविक रूप से रूपाकारों से जोड़ती चली जाती है। मनीष पुष्कले आधुनिक और समकालीन चित्रकारों पर दृष्टिपात करते हुए अपना मत व्यक्त करते हैं कि- “इतिहास फिलहाल जो हमारे सामने जिस रूप में है उस रूप में पहले से ही हमारा इतिहास मनुष्य आकृतियों से भरा हुआ है और इस तरह से देखा जाये तो ............. मैं इसको पुर्नागमन नहीं मानूंगा। क्योंकि आकृतियाँ कभी भी विलोप नहीं हुई, वे कभी भी विलीन नहीं हुई, वो हमेशा से रही हैं। चाहे वे रवीन्द्रनाथ के चित्र हों या जो आप इस प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप की बात कर रहे हैं वो हो। आप अगर गौर से देखें तो उसमें से कुल मिला के एक ही चित्रकार निकला जो अमूर्तन में काम करता था। बाकी तो सारे देह को लेके ही काम कर रहे थे। सिर्फ रजा हैं। 1890 ग्रुप से देखें तो सिर्फ अम्बादास हैं। स्वामीनाथन जो हैं मनुष्य आकृतियाँ बनाई हैं। तो अगर हम अनुपात देखें अमूर्तन और मूर्त कला के संदर्भ में आधुनिक चित्रकला के काल में तो बहुत गहरा अंतर है और अमूर्तन में काम करने वाले पिछले 50 साल में मुश्किल से 15 लोग हुये हैं। इसका ये अर्थ नहीं है कि ................. ये बहुत सारे लोग है, बात कम ज्यादा की नहीं है, बात ये है कि हम चित्रकला या कलाओं के सहारे हम दरअसल एक पोस्टर नहीं एक कला का निर्माण करते हैं। एक पोस्टर और एक कला में अंतर होता है और कलाओं का काम है कि हम अपने माध्यम से, अपने स्वभाव, अपने अस्तित्व, अपने वितांत, अपनी नजर, अपने नजरिये को समझने की कोशिश करते हैं हम कलाओं से दूसरों को नहीं समझते, बल्कि हम कलाओं से स्वयं को समझते हैं। क्योंकि कला ही एक ऐसी चीज है जहाँ पे दूसरा हमसे अन्य नहीं होता, वो हम में ही निहित होता है।”

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 समकालीन चित्रकार की अपनी एक खास तरह की सजगता है वह पूर्वकृत कार्यों और भावी संभावनाओं पर गहराई से विचार करता है तभी वह काल से होड़ करने की स्थिति में आ पाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो काल को समझने की और प्रकट करने की दक्षता पाता है और इसके लिए वह परम्परा को अपने ही ढंग से समझते हुए शारीरिक भाषा के परम्परागत प्रयोगों के प्रति श्रृद्धावन्त होता है, पुनः व्याख्या करता है। समकालीन संदर्भों में प्रयोग करता है। पुराने रूपकों को अचरज के साथ देखता है और नये रूपक गढ़ने का प्रयास करता है। उसे ये रूपक भारतीय परम्परा में हीं नहीं बल्कि विश्व-परम्परा में भी मिलते हैं। कैनवस पर ही नहीं गुफाओं में भी मिलते हैं और इन सबसे वह अपने कथ्य की भाव-भंगिमाएँ तथा रूप और आकार को अपने विशिष्ट और मौलिक चित्रांकन में उतारता है। मनीष पुष्कले इस दृष्टि को इस प्रकार व्याख्यायित करते हैं- “आपको एक महत्त्वपूर्ण बात ये कहना चाहूंगा कि अपनी परम्परा में मेरा बड़ा गहरा विश्वास है और जब मैं देखता हूँ कि परम्परा में ऐसी तमाम आकृतियाँ हैं मनुष्य जहाँ पर गणेश के रूप में है......... . मनुष्य जहाँ पे राम के रूप में है.......... मनुष्य जहाँ पर रावण के रूप में है.......... मनुष्य जहाँ पर उसके दस सिर लग गये ..........तो परम्परा में अपने आप मनुष्य आकृति के साथ इतने एक्सपेरीमेंन्ट हो चुके हैं और वो एक्सपेरीमेंट इस हद तक हमारे लोक में स्थापित हो चुके हैं कि अब वे श्रद्धा के रूपक हैं। उनको देखने के बाद मुझे ये सोचना पड़ता है कि मैं मनुष्य आकृति बनाऊँ तो, ऐसी कैसी आकृति बनाऊँ, जो आज तक न बनी हो, क्योंकि भीमबेठका की गुफाओं से होते हुये जहाँ से मनुष्य बिल्कुल रेखाओं से बनाया गया है, वहाँ से होते हुये रेनेसां से आते हुये और आज तक के चित्रों में मनुष्य आकृति को इतने तरीके से बरता जा चुका है। और हम ये ना भूलें कि उसकी शर्त लगातार एक ही बनी रहती है कि उसका एक सिर होगा, उसका एक धड़ होगा, उसके दो हाथ होंगे और उसके दो पैर होंगे, लेकिन परम्परा में इसी मूलभूत शर्त को कितनी बार तोड़ा गया है, जब रावण के रूप में 10 सिर कर दिये, जब हनुमान के रूप में उसमें पशु का ...........। ऐसे न जाने कितने सारे उदाहरण है हर सभ्यता में। हमारी सिर्फ भारतीय सभ्यताओं में ही नहीं बल्कि विदेश की और अन्य दूसरी सभ्यताओं में दूसरे द्वीपों, महाद्विपों की सभ्यताओं में हर जगह ऐसे उदाहरण हैं, तो हमें ये देखना जरूरी है कि क्या-क्या हो चुका है। एक चित्रकार होने के नाते मेरा काम ये है कि जो-जो हो चुका है उसको उसके बारे में मैं अपनी श्रद्धा रखूं और जो होने की संभावना है उस पर अपनी नजर रखूं।”

कला-समीक्षक आधुनिक काल की चित्रकला में शारीरिक भाषा के प्रयोग पर विस्तृत चिंतन करते हैं। ज्योतिष जोशी ने इसे सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों पक्षों से देखा है तथा चित्रकला के साथ-साथ अन्य कलारूपों में भी इसकी महत्ता पर विचार किया है। चित्रकला में शारीरिक भाषा के प्रयोग को उन्होंने गतिक माना है। वे मौलिक रूप से यह समझते हैं कि शारीरिक भाषा और विभिन्न मुद्रायें सर्जना को गतिमयता देती हैं। वे साक्षात्कार के दौरान कहते हैं कि- “शरीर की भाषा का, शरीर की आंगिकता का और नाना रूपो में शरीर की विभिन्न मुद्राओं का .............. अक्स चित्रों में दिखता है और उसका एक सैद्धान्तिक पहलू है, क्योंकि ये दिखाने के पीछे ये भाव रहता है, कि उससे चित्रकारी में ......चित्रकला में गतिमयता आती है और गति का चित्रों से बहुत गहरा ताल्लुक है, रेखाओं में भी अगर गति नहीं है...... तो वो अस्थैतिक हो जाती है। और इस चित्र का कोई अर्थ नही होता जिसमें गति न हो तो डायनामिज्म जिसको कहते है, गतिशीलता........प्रवाह...... उसका बहुत अर्थ होता है।”

गत्यात्मकता एक तरह का प्रवाह है, जो कि कला के अन्य क्षेत्रों में अभिनव प्रयोगों के साथ भी अभिव्यक्ति की अनिवार्यता बना हुआ साथ-साथ चलता है। अभिनय में जो अंग-संचालन की गतिशीलता होती है वही सैद्धांतिक बनकर रेखाचित्रों के क्षेत्र में प्रवेश कर जाती है। ज्योतिष जोशी इस सम्बन्ध में स्पष्ट करते हैं कि- ‘‘गतिशीलता ....प्रवाह..... उसका बहुत अर्थ होता है।..ये शाब्दिक लेखन में और चित्रकारी में दोनों में आप खुद देखें तो रंगमंच में इसका कितना बड़ा अर्थ है कि एक अभिनेता बिना कुछ बोले ....................अपने अंग संचालन से अपने अभिनय से सब कुछ कह देता है तो इसका तो एक सैद्धांतिक पक्ष है और उसका सीधा-सीधा संबध रेखाओं से है। अर्थात रेखाओं की गति से है।’’ इसके व्यावहारिक पक्ष की ओर ध्यान खींचते हुए ज्योतिष जोशी बताते हैं कि.......... इसका जो व्यवहारिक पहलू है वो ये ............कि खासकर आकृतिमूलकता में एक व्यक्ति का अध्ययन उसके सोने, बैठने-उठने और उसके बात करने के अंग संचालन का अध्ययन आकृतिमूलक कामों के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है। अगर कोई अतिरिक्त Figurative काम करता है। आकृतिमूलक कला करता है तो उसके लिए बहुत जरूरी है कि एक व्यक्ति की Physical Study करे और ......इसका भौतिक सत्यापन करते हुए अध्ययन करे तथा उसको समझने करने की भी चेष्टा करें, अपने में उतारें कि कैसे मनुष्य चलता है, कैसे रूकता है, दूसरी बात इसकी ये है कि कलाकार जिस भी विषय को उठाता है और उसको निरूपित करने की चेष्टा करता है या उसकी और आगे बढ़ने की चेष्टा करता है।” लेकिन मनुष्य भी सचेत रहता है कि इसके लिए कलाकार उसे इस प्रकार हृदयंगम कर ले कि कला के रूप में प्राकट्य से पूर्व एक प्रकार का आत्मसातीकरण हो जाये। वे कहते हैं कि- “तो उसमें ये जरूरी है कि उस विषय के अनुरूप या उस विषय में समाहित होने वाले पात्र उसकी चेतना में उसके मन प्राण में और हृदय में ठीक उसी तरह से उतर जाए जिस तरह से एक समग्रता में एक व्यक्ति विभिन्न स्थितियों में आमने-सामने आता है।”

इस कार्य को सम्पादित करने और पूर्णता देने में चित्रकार का श्रम और साधना और अधिक बढ़ी हुई मानते हुए ज्योतिष जोशी कहते हैं कि- “एक चित्रकार पर ये ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी होती है क्योंकि वो अपने को भाषा में नही व्यक्त करता है और उस चित्र में ये क्षमता होनी चाहिए कि वह चित्र अपनी पूरी बनावट, पूरी गतिमयता उस सवेंदनात्मक सघनता को और उस उदाहरण स्थिति को व्यक्त कर सके।” यही कारण है कि एक चित्रकार को मूर्त और अमूर्त से चुनाव करते हुए अथवा अपनी शैली विकसित करते हुए सावधानीपूर्वक पग बढ़ाना होता है। बतौर समीक्षक ज्योतिष जोशी का मानना है कि आधुनिक कलाकार को अमूर्तता के चयन से पूर्ण अमूर्तता का दर्शन समझना होगा ताकि वह उलझकर न रहे, जिसका कोई ओर हो न छोर। भावसृष्टि करनी होगी तभी आधुनिक कलाकार सच्ची निष्पत्ति तक पहुंच सकेगा। वे कहते हैं कि- ”आधुनिक कला की पहचान को उसके महत्व को खराब करते हैं ये बहुत जरूरी है कि अमूर्त काम करने वाले लोग एक दार्शनिक निष्पत्ति को समझे और इसे समझने के आधार पर ............ और उसे आकर देने की चेष्टा करें। तब उसमें उन्हें सफलता मिलेगी।” यही वजह है कि आधुनिक और समकालीन कला-समीक्षक चित्र में शरीर की आवयविक उपस्थिति की महत्ता को स्वीकार करता है। ज्योतिष जोशी कहते हैं- “शरीर का होना ......शरीर के अंगों का होना .........अपने आप में चित्र का एक कथानक है ................... उसका एक आख्यान है क्योंकि उसमें उस चित्र की समूची संवेदना प्रकट हो जाती है। चित्र में ये जरूरी है ........और होना चाहिए।”

शरीर, रूप, हाव-भाव और उसे अपनी कृति में प्रकट करने के बीच एक विशेष सम्बन्ध होता है। यह सघन सम्बन्ध कलाकार की समझ पर निर्भर है। इसका प्रमाण है कि जाने-पहचाने व्यक्ति का भी पोट्रेट बनाते समय उसके सबसे सघन बिन्दु को............उसके व्यक्तित्व के केन्द्र को उसके हाव-भाव में एक ही बानगी में दिखा देना कलाकार की सफलता होती है। ज्योतिष जोशी इस अहम पहलू पर ध्यान आकृष्ट कराते हुए कहते हैं कि- “हम किसी व्यक्ति का पोट्रेट बना रहे हैं तो हमें ये समझना पडे़गा ............ कि अब जाहिर है हम उस व्यक्ति का पोर्टेट बना रहे हैं..... जो पहचाना चेहरा है। वो कोई अनाम व्यक्ति नहीं है। उसकी किस मुद्रा में उसका दर्शन व्यक्त होता है .....और वो खुल के सामने आता है। उसकी जो संवेदनात्मक सघनता है........ सोच की मुद्रा है...... बोलने की मुद्रा है ........ उसको किस ढंग से हम अंकित करें कि वो Totality में ..........समग्रता में ........उभर सकें, ये देखना कलाकार का काम है।”

एकल या समूह चित्रण के समय कलाकार के शारीरिक संयोजन की अपनी-अपनी सीमायें भी होती हैं दूसरे शब्दों में उसकी परीक्षा होती है। एकल से समूह शारीरिक चित्रण के माध्यम से अपने भाष्य को मुखरित करते हुए कलाकार अधिक कुशलता की अपेक्षा का सामना करता है। ऐसा मानते हुए ज्योतिष जोशी कहते हैं कि- “समूह का जो संयोजन होता है वो एक तरह से जैसे कलाकार के दृश्य और आरेखण या दृश्य चित्रण के कौशल की परीक्षा होता है। उसका एक तरह से टेस्ट होता है कि कैसे एक प्रसंग............क्योंकि वो एक प्रसंग है.............Episode पूरा एक-एक Episode को, एक प्रसंग को कैसे वो अंकित करता है और कितने Layers वो निकालता है। उसमें कितनी बहुस्तरीयता निकल के आती है।”

कलाकृति आदिम चित्रों को भी समकाल में उतारती है लेकिन आत्मानुसंधान में, यह मनुष्य स्त्री भी हो सकता है और पुरुष भी। उसकी मानव और मानवेतर आकृतियाँ भले ही किसी संदर्भ से पैदा हुई हों, लेकिन अंततः वे वैश्विक होती चली जाती हैं। एक ओर बिना युद्ध के ही प्रस्तुत योद्धा मनुष्य हैं तो दूसरी ओर मां के मातृत्व की व्यापकता को चेहराविहीन किया है। कहीं नगर चेहरे हैं तो कहीं ग्रामीण। मंजीत बावा, विकास भट्टाचार्य आदि के चित्रों में यह देखा जा सकता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आधुनिक काल और समकालीन चित्रकला में शारीरिक भाषा के प्रयोग ने अनेक आयामों में विविधतापूर्ण संसार की रचना की है। आधुनिक काल जितने अर्थों में व्यापक है, आधुनिक चित्रकला ने भी मानव की अनुभूति की व्यापकता को शारीरिक भाव-भंगिमा में रच डाला है। वास्तव में आधुनिक चित्रकार के चित्रों की भाषा आधुनिक जीवन और अंतर्मन की प्रतिनिधि प्रवक्ता दृष्टिगोचर होती है, उसे देखने वाला दर्शक और उसकी समीक्षा करने वाला समालोचक - इनके बीच स्वयं कलाकार की अपनी दृष्टि को भी इस लिहाज से जानना आवश्यक होता है कि वास्तव में वह चित्रों की शारीरिक भाषा का जिस रूप में इस्तेमाल कर रहा है वह उसी विकसित रूप में प्रेक्षक तक पहुँच रही है। शोधकर्ता द्वारा चित्रकार से चर्चा कर इस विषय में अध्ययन को प्रामाणिक बनाने का कार्य किया। सामान्यतः समकालीन चित्रकार की दृष्टि में मूर्तताएं शारीरिक भाषा आदि को लेकर सकारात्मक हैं। समकालीन चित्रकार की अनुभूति में ये सब इसलिये प्रवेश करते हैं क्योंकि मनीष पुष्कले शारीरिक भाषा की अभिव्यक्ति को सरल और जटिल दोनों प्रक्रिया मानते हैं और देह को विशिष्ट मायनों में केन्द्र मानते हैं समीक्षक के रूप में डॉ. ज्योतिष जोशी चित्रकला में गतिशीलता और प्रवाह को शारीरिक भाषा की सफलता का मुख्य आधार मानते हैं।

सन्दर्भ :
  1. श्री मनीष पुष्कले से शोधकर्ता का साक्षात्कार जून 2016/ निज निवास पर, नई दिल्ली
  2. श्री ज्योतिष जोशी से शोधकर्ता का साक्षात्कार जून 2016/ ललित कला अकादमी कार्यालय, नई दिल्ली

चित्र सन्दर्भ :
  1. Table 1महाभारत, एम. एफ. हुसैन, http://www.pem.org/sites/epicindia/ 22/05/2016
  2. Table 2शांतिनिकेतन, त्रिफलक, तैयब मेहता, कैनवास पर तैलरंग, 1985 http://www.artnewsnviews.com/view-article.php?article=tormented-delineations-and-violent-deformations&iid=17&articleid=416 7/7/2016
  3. Table 3भावना -1 मंजीत बावा, कागज़ पर ऑफसेट लीथो,2000http://www.artalivegallery.com/artists.php?page=5&cat=artists&scat=32&show_display=&show_work=true#5 7/7/2016
  4. Table 4रोता हुआ आदमी तथा बालक, कागज़ पर शुष्क रंग, जोगेन चौधरी, http://www.archerindia.com/jogen-chowdhury 17/05/2016
कला समीक्षक
-ज्योतिष जोशी


कला समीक्षक-मनीष पुष्कले
लेखक- सचिन सैनी




सचिन सैनी
सहायक आचार्य, दृश्य कला विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज, उ. प्र.,
ssaini@allduniv.ac.in, 9990926567


दृश्यकला विशेषांक
अतिथि सम्पादक  तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-55, अक्टूबर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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