- तरुण कुमार
शोध सार : आत्महत्या मानव सभ्यता के इतिहास की प्राचीन और गंभीर समस्या है, जो वर्तमान समय में तीव्रता से बढ़ती जा रही है। आधुनिकता और वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ आत्महत्या की प्रवृत्ति भी समाज में विकरालता के साथ विकसित हो रही है। परंपरागत टीवी धारावाहिक, महाभारत-रामायण से लेकर हॉलीवुड, नेट्फ़्लिक्स, ओटीटी के हर दूसरे-तीसरे प्रोग्राम्स जैसे वेब-सीरीज, फिल्म, डॉक्युमेंट्री में आत्महत्या के प्रसंग मिल जाते हैं। आत्महत्या की यह प्रवृत्ति हिन्दी फिल्मों से भी अछूती नहीं है। 21वीं सदी में जितनी तेज़ी से भारतीय समाज में आत्महत्याएँ बढ़ी हैं, हिन्दी सिनेमा में भी उसका चित्रण उतनी ही तेज़ी से बढ़ा है। अनेकों ऐसी हिंदी फिल्में बनी हैं, जो आत्महत्या के ऐतिहासिक, मानसिक और सामाजिक सरोकारों पर बात करती हैं, जैसे 'थ्री इडियट्स', 'पीपली लाइव', 'छिछोरे', 'कार्तिक कॉलिंग कार्तिक', 'द डर्टी पिक्चर', 'हैदर', 'ए डेथ इन द गंज', 'पद्मावत', 'मसान', 'डंकी' आदि। प्रस्तुत शोध पत्र एक प्रयास है उन हिन्दी फिल्मों को जानने और समझने का जिनमें आत्महत्या के प्रस्तुतीकरण को विषय बनाया गया है। आत्मघात जैसे संवेदनशील विषय पर फिल्म बनाते समय कई बार इस बात का खतरा होता है कि वह फिल्म आत्महत्या को रूमानी तौर पर प्रदर्शित न करे। निर्देशक फिल्म में आत्महंता को प्रदर्शित करते समय कौन-सी सावधानियाँ लेते हैं तथा दर्शक इसे कैसे अनुभूत करते हैं, इस बात की चर्चा करना बहुत आवश्यक है। इस शोध पत्र के माध्यम से आत्महत्या के सिनेमाई संदर्भ को समझने में मदद मिलेगी। साथ ही आत्महत्या निवारण हेतु हिन्दी सिनेमा की भूमिका को भी इसमें रेखांकित किया गया है।
बीज शब्द : आत्महत्या, हिन्दी सिनेमा, आत्मघात, प्रेम जीवन त्रासदी, ख़ुदकुशी, स्टूडेंट सुसाइड, किसान आत्महत्या, फिल्म सुसाइड, मनोरोग, मेंटल डिसऑर्डर।
मूल आलेख :
हिन्दी सिनेमा भी साहित्य के समान ही सामाजिक समस्याओं को अपने अंदर समेटे रहता है। हिन्दी सिनेमा को लेकर हिंसा, अश्लीलता, ड्रग्स, मादक पदार्थों जैसे अनेकों प्रश्न पहले उठाए जा चुके हैं किन्तु आत्महत्या की समस्या पर न के बराबर बात की गयी है। यह एक हैरान कर देने वाला तथ्य है कि भारत में जितनी भी हत्याएँ होती हैं, उसकी तुलना में आत्महत्या की संख्या बहुत अधिक है। भारत में जहाँ एक ओर हत्या दर (Homicide Rate) 2 से 4 प्रतिशत के बीच है, तो वहीं दूसरी ओर आत्महत्या दर 12.4 प्रतिशत दर्ज है।1 इसका अर्थ है, लोग लोगों को उतना नहीं मार रहे, जितना स्वयं को मार रहे हैं।
भारत में प्रेम और त्रासदी को लेकर अनगिनत हिन्दी फिल्में बनी हैं जिनमें 'तेरे नाम' (2003)
फिल्म सर्वोपरि है। 'तेरे नाम' त्रासदी भरे असफल प्रेम की दुखान्त कहानी है जिसका केंद्रीय विषय प्रेम का संघर्ष है। इस फिल्म का अंत नायिका निर्जरा के आत्महत्या करने और राधे के वापस पागलखाने चले जाने के साथ होता है। निर्देशक सतीश कौशिक ने आत्महत्या करती हुए निर्जरा को दिखाना जरूरी नहीं समझा, जो कि सराहनीय है। केवल संवाद से इस बात का संकेत दे दिया गया है कि निर्जरा प्रेम में हारने के कारण जहर खाकर आत्महत्या करती है। वर्ष 1935 की फिल्म 'देवदास' को छोड़कर प्रेम विषयक फिल्म की बात नहीं की जा सकती। स्वतन्त्रता पूर्व बनी इस फिल्म का जनता पर बहुत घातक प्रभाव पड़ा था, इतना घातक कि फिल्मी दुनिया से प्रभावित होकर लोग देवदास के व्यवहार को अपने जीवन में उतारने लगे थे। मृदुला पंडित बताती हैं कि
"'देवदास' फिल्म में निराश प्रेमी द्वारा आत्महनन और शराब की शरण में जाने का चित्रण इतना मार्मिक और प्रभावोत्पादक था कि सुनते हैं कि कलकत्ते में इस फिल्म के प्रदर्शन के एक सप्ताह के अंदर ही करीब 15 आत्महत्याओं के मामले प्रकाश में आये। फलतः सरकार को इसका प्रदर्शन रोक देना पड़ा।"2 'तेरे नाम' फिल्म का भी जनता पर व्यापक प्रभाव पड़ा था, फिल्म में निर्देशक यदि राधे के जीवन का अंत भी आत्महत्या से कराते तो निश्चित रूप से उसका अनुकरण कई लोग करते। राधे की भूमिका निभाने वाले सलमान खान अपने एक साक्षात्कार में कहते भी हैं "एक कैरेक्टर करते हुए मुझे बहुत डर लगा था वो है 'तेरे नाम' का कैरेक्टर...ये जो कैरेक्टर है इसे कभी फॉलो नहीं करना। ये लूसर कैरेक्टर है, कि एक लड़की के पीछे पागल हो गए हैं और अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर दी है।...बालों तक की हेयरस्टाइलिंग वगैरह की फॉलोइंग ठीक है लेकिन पर्सनालिटी की फॉलोइंग बहुत गलत होती है। इससे मैं डर रहा था कि आवाम उसे कहीं अपना न ले।"3
आशिक़ी 2 (2013) फिल्म में राहुल जयकर (आदित्य रॉय कपूर) स्वयं को आरोही शिर्के (श्रद्धा कपूर) के करियर में एक अवरोध स्वरूप देखता है। जीवन में सभी उपलब्धियों के बावजूद प्रेम में राहुल का आत्महत्या कर लेना प्रेम के प्रति आत्मसमर्पण दर्शाता है। 'रांझणा' फिल्म का किरदार कुन्दन (धनुष) बचपन से ही एक मुस्लिम लड़की जोया से प्यार करता है, लेकिन जोया की वर्गभेद दृष्टि कुन्दन को उस रूप में नहीं देखती, जैसे कुन्दन उसे देखता है। अंत में कुन्दन द्वारा परोक्ष आत्महत्या के स्पष्ट संकेत फिल्म में मिलते हैं। एक तो यह कि पता होने के बावजूद वह उस स्थान पर गया, जहाँ बॉम्ब-ब्लास्ट होना था तथा दूसरा संकेत उसकी आत्माभिव्यक्ति -
"ये जो लड़की मुर्दा-सी आंखें लिये बैठी है बगल में, आज भी हाँ बोल दे तो महादेव की कसम वापस आ जाएँ!
पर नहीं, अब साला मूड नहीं
आंखें मूँद लेने में ही सुख है, सो जाने में ही भलाई है!
पर उठेंगे किसी दिन..
उसी गंगा किनारे डमरू बजाने को..
उन्ही बनारस की गलियों में दौड़ जाने को, किसी जोया के इश्क में फिर से पड़ जाने को..!"4
'मसान' (2015) में भी होटल में प्रेमी-जोड़े को पुलिस द्वारा परेशान करने और प्रेमी द्वारा आत्महत्या करने का प्रसंग है। वर्ष 2023 में आयी हिन्दी फिल्म 'डंकी' में सुक्खी (विकी कौशल) की प्रेमिका लंदन में रहती है और पति के अत्याचार से परेशान होकर आत्महत्या कर लेती है। जब सुक्खी को इस बात का पता चलता है, तो वह केरोसिन-स्टोव से आत्मदाह कर लेता है। आत्महत्या का स्लो-मोशन चित्रण और बर्बर माध्यम (आकृति-1) का प्रयोग दर्शकों को आकर्षित करता है।
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आकृति 1: घातक माध्यम द्वारा आत्महत्या करता किरदार सुक्खी (डंकी, 2019) |
अतः हिन्दी सिनेमा में प्रेम संबंधी आत्महत्याओं के कारक वैयक्तिक कम, सामाजिक अधिक प्रतीत होते हैं। 'तेरे नाम' का राधे समाज का तथाकथित गुंडा प्रवृत्ति का व्यक्ति है जिसके कारण शुरू में निर्जरा उसे पसंद नहीं करती, 'रांझणा' में कुन्दन के प्रति जोया वर्गभेदीय दृष्टि रखती है, 'आशिकी 2' में शराब की लत करियर और प्रेम में अवरोध बनता है, 'मसान' में एक प्रेमी जोड़े को भ्रष्ट पुलिस व्यवस्था होटल में पकड़ती है और ब्लैकमेल करती है। 'डंकी' में अंग्रेजी न आने के कारण सुक्खी लंदन नहीं जा पाता और अंततः साथी के मरने की खबर सुनकर आत्मदाह कर लेता है।
मनोवैज्ञानिक संदर्भ को छोड़कर आत्महत्या जैसे संवेदनशील विषय पर चर्चा नहीं की जा सकती। आत्महत्या के पीछे समाज की भूमिका महत्वपूर्ण होती है पर उसका मनोवैज्ञानिक पक्ष भी होता है। कई ऐसे मनोरोग हैं जिससे भारतीय समाज वंचित है। शारीरिक क्षति होने पर तो हम अस्पताल जाने के आदि हैं, परंतु कोई मानसिक क्षति हो तो उसके लिए भी अस्पताल ही जाना होता है, इसकी सजगता जन-सामान्य में न के बराबर है। मानसिक समस्याओं को आधार बनाकर कई निर्देशकों ने हिन्दी फिल्में बनाई हैं। ‘भूल भुलैया' (2007) एक साइकोलॉजिकल कॉमेडी-हॉरर फिल्म है, जिसमें अवनी (विद्या बालन) मंजूलिका की कथा में इतनी रुचि लेती है कि एक समय पर आकर एकाधिक व्यक्तित्व विकास (Dissociative Identity Disorder) से ग्रसित हो जाती है और अचेतन मन में मंजुलिका के घर कर जाने के कारण वह मंजुलिका-सा ही व्यवहार करती है। अवनी को अंत में मनोवैज्ञानिक चिकित्सक उसके अतीत जीवन अध्ययन और मनोचिकित्सा (Psychiatric Treatment) से ठीक करता है।
ए. आर. मुरूगाडोस द्वारा निर्देशित 'गजनी' (2008) फिल्म में संजय सिंघानिया (आमिर खान) को सिर पर हुए हमले के कारण पूर्व स्मृति लोप (Anterograde Amnesia) की समस्या हो जाती है जिसके कारण उसे 15 मिनट से अधिक कोई भी चीज़ याद नहीं रहती। मनोरोग के प्रति सामाजिक प्रतिक्रिया और सजगता के अभाव को प्रस्तुत करने का कार्य किया है विजय लालवानी की फिल्म 'कार्तिक कॉलिंग कार्तिक' (2010) ने। फिल्म का केंद्रीय पात्र कार्तिक (फरहान अख्तर) एक अंतर्मुखी व्यक्ति है। ईमानदार और मेहनती होने बाद भी बॉस का दुर्व्यवहार तथा बचपन की घटना का ट्रौमा उसे स्किज़ोफ्रेनिया (Schizophrenia) के मार्ग पर अग्रसर करता है। इस मनोरोग के कारण उसकी गर्लफ्रेंड भी उससे दूरी बनाने की कोशिश करती है। इन सभी चीजों से हताश होकर वह ओवर-डोसिंग से आत्महत्या करता है। लेकिन ठीक समय पर अस्पताल पहुंचाने के कारण वह बच जाता है। फिल्म आत्महत्या पर नहीं, आत्महत्या के प्रयास के बाद उसे खुश दिखाते हुए समाप्त होती है, यह निर्देशक की समझदारी का परिचायक है। '404' (2011) फिल्म अभिमन्यु नामक एक मेडिकल छात्र की कहानी है। अभिमन्यु हॉस्टल के कमरा नंबर 404 में रहता है जिसके बारे में कहा जाता है कि उसमें एक विद्यार्थी गौरव ने आत्महत्या की थी। उस कमरे में रहने और गौरव में अत्यधिक रुचि लेने के कारण अभिमन्यु को वह जीवित लगने लगता है और उसे इल्ल्यूशनव मानसिक भ्रम (Hallucinations) होता है, जो कि उसकी मनोविकृति (Psychosis) का सूचक है। फिल्म के अंत में अभिमन्यु भी उसी कमरे में पंखे से लटका पाया जाता है। 2016 में आयी 'डियर ज़िंदगी' मानसिक स्वास्थ्य को लेकर सकारात्मकता के साथ चर्चा-परिचर्चा करती फिल्म है, जो दर्शकों में मेंटल हैल्थ के प्रति सजगता को बढ़ावा देती है। 2018 की 'बागी 2' में नेहा नामक किरदार को मनोरोग (Post-traumatic Stress Disorder) के कारण अपनी एक बेटी होने का भ्रम (Hallucination) होता है, उसकी बात पर कोई विश्वास नहीं करता, जिसके कारण वह बिल्डिंग से कूदकर अपनी जान दे देती है।
भारत में आत्महत्या जितनी गंभीर सामाजिक समस्या है, किसान आत्महत्या उससे अधिक गंभीर समस्या है। यह समस्या हिन्दी सिनेमा में भी परिलक्षित होती है। 'पीपली लाईव' (2010) व्यंग्यात्मक फिल्म है, जो किसानों के प्रति संवेदनहीन व्यवस्था और मीडिया का वास्तविक रूप दिखाती है। बैंक का कर्जा चुकाने के लिए मुखिया के पास गये नत्था को जान देने और मुआवजा से कर्ज चुकाने का सुझाव मिलता है। इसके बाद से राजनीति शुरू हो जाती है, विपक्ष कहता है नत्था मरेगा और पक्ष आत्महत्या को रोकने का प्रयास करती है। श्यामा माथुर इसपर लिखते हैं कि "यह फिल्म किसानों की बदहाली को दिखाते-दिखाते खुदकुशी के मनोविज्ञान की पड़ताल करने लगती है और बेहद चतुराई के साथ मीडिया के गैर जिम्मेदाराना रवैये पर फोकस करते हुए हमारी संवेदनाओं को झकझोरने का प्रयास करती है।"5 हाल ही के वर्षों में आयी 'मेरे देश की धरती' (2022) केवल किसान आत्महत्या पर ही नहीं शहरों के युवा वर्ग में बढ़ती आत्महत्यक प्रवृत्ति पर भी प्रकाश डालती है। सम्पूर्ण फिल्म आत्महत्या के विषय को लेकर चलती है। बंबई में रह रहे दो इंजीन्यरिंग ग्रेजुएट नौकरी के अभाव से परेशान होकर आत्महत्या के निरंतर कई प्रयास करते हैं। इसके लिए वह अपना घर छोड़ एक गाँव पहुँच जाते है, वहाँ किसान को आत्महत्या करते देख (आकृति-2) उन्हें अनुभूति होती है कि उनका जीवन तो किसानों की तुलना में बहुत बेहतर है। अपनी आत्महत्या स्थगित कर वह गाँव में रहते हैं और किसानों का जीवन बेहतर करने के लिए कार्य करते हैं।
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आकृति 2: फाँसी पर लटके किसान को देखते दो स्तब्ध युवक (मेरे देश की धरती, 2022) |
किसान आत्महत्या के बाद भारत में जो दूसरी सबसे बड़ी समस्या है वह विद्यार्थियों की ख़ुदकुशी। देश में बढ़ती बेरोजगारी, प्रतिस्पर्धा और मनोवैज्ञानिक पोषण का अभाव इसके प्रमुख कारणों में है। बच्चों में मानसिक स्वास्थ्य समस्या पर प्रकाश डालने वाली सर्वश्रेष्ठ फिल्म है 'तारे ज़मीन पर' (2007), जिसमें एक बच्चा ईशान अवस्थी अपने विद्यालयी जीवन में रुचि नहीं ले पाता और परिवार में भी कोई उसके व्यवहार पर विशेष ध्यान नहीं देता। प्रोत्साहन की कमी के कारण ईशान 'Dyslexia' से जूझता है। यह फिल्म एक बच्चे के शुरुआती जीवन में अच्छे शिक्षक की भूमिका और अपब्रिंगिंग को रेखांकित करती है। इस फिल्म के दो वर्ष बाद आती है '3 इडियट्स' जो इस विषय को और गहनता से उठाते हुए वयस्क विद्यार्थियों के जीवन की कठिनाइयों को दर्शाती है। इस चल-चित्र में आत्महत्या का पहला दृश्य तब दिखता है जब कॉलेज प्रेसिडेंट, जॉय लोबो नामक विद्यार्थी का ग्रेजुएशन रोक देता है क्योंकि उसने समय से प्रोजेक्ट जमा नहीं कराया होता। प्रोजेक्ट से इतर कुछ नया आविष्कार करने के बाद भी उसकी प्रतिभा को एकनोलेज न करना और डिग्री एक साल के लिए रोक देना जॉय के लिए भारी तनावपूर्ण हो जाता है और वह अपने हॉस्टल रूम में पंखे से लटककर प्राण दे देता है। इसके बाद फिल्म में एक किरदार और है जो आत्महत्या का गंभीर प्रयास करता है। राजू मित्र के खिलाफ गवाही दे या अनेकों आशाएँ लिए बैठे परिवार को निराश करे, इसी मानसिक-द्वंद्व (Mental Conflict) के कारण वह खिड़की से कूद जाता है, लेकिन बाद में अस्पताल में दोस्तों व परिवार के स्नेहपूर्ण प्रोत्साहन के कारण बच जाता है। यह फिल्म न केवल विद्यार्थी जीवन के संघर्ष को चित्रित करती है बल्कि अकादमिक जगत में बच्चों के प्रति अनैतिक रवैये को दर्शाती है। 2009 में आई 'चल चलें' एक छात्र पर अच्छे ग्रेड हेतु दबाव तथा अत्यधिक चिंता के कारण आत्मघात की व्यथा बताती है।
पिछले दशक की कई हिन्दी फिल्मों में भी इस विषय को मुखरता के साथ उठाया गया है।
2014 की 'जय हो' में एक दिव्यांग छात्र इसलिए आत्महत्या कर लेती है क्योंकि परीक्षा लिखने के लिए उसे कोई मदद करने वाला नहीं मिलता। 'छिछोरे' (2019) फिल्म राघव नामक किरदार आई.आई.टी में प्रवेश न मिलने के कारण बालकनी से छलांग लगा देता है। पिछले वर्ष रिलीस हुई 'ओएमजी 2' (2023) का पात्र विवेक सेक्स एजुकेशन के अभाव में निरंतर हस्तमैथुन करता है फलतः उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ता है। जब यह बात बाहर आती है तो स्कूल व पूरा समाज उसे व परिवार को घृणा की नज़रों से देखता है। हस्तमैथुन को सामाजिक वर्जना (Social Taboo) के रूप में देखनेवाले लोगों के व्यवहार से परेशान विवेक जहर खाता है, ट्रेन के आगे आता है। लेकिन फिल्म में उसे चमत्कारिक रूप से भगवान द्वारा हर बार बचा लिया जाता है। विद्यार्थी जीवन को लेकर जो भी समस्याएँ हिन्दी फिल्मों में दिखाई जा रही हैं वह वास्तव में हमारे समाज का कटु यथार्थ है। हमें इस बात को समझने की आवश्यकता है कि बच्चों को बच्चों की तरह पाला जाए, आवश्यकता से अधिक असुरक्षा का भाव उनके जीवन को जटिल बना सकता है।
लैंगिक दृष्टि से देखा जाए तो समाज में पुरुषों की तुलना में स्त्री आत्महत्या के प्रयास सबसे ज्यादा किए जाते हैं जिसके पीछे अनेकों सामाजिक-सांस्कृतिक कारक हैं। स्त्री आत्महत्याओं के इन कारकों के कई विविध रूप हिन्दी फिल्मों में प्रतिबिम्बित हैं। ‘द डर्टी पिक्चर' (2011) की रेशमा (विद्या बालन) द्वारा ओवर-डोसिंग (आत्महत्या) से फिल्म का समापन होता है। रेशमा को नृत्य की दुनिया के सारे सपनों से निराशा ही मिलती है, समाज उसे तथा उसके नृत्य को 'Sexual
Symbol' की तरह देखता है। एक समय पर आकर उसके पास कोई काम नहीं रहता, रेशमा अपने सुसाइड नोट में कहती है "लाइब्रेरी में भी पेज टर्न होने की आवाज़ आती है, साइलेंस जोन में भी कोई न कोई हॉर्न बजा ही देता है। पर जब तालियाँ सुनने वाले कानों में गालियों की आवाज़ भी न आए तो ज़िंदगी खाली थिएटर जैसी हो जाती है!"6 विशाल भारद्वाज द्वारा निर्देशित 'हैदर' (2014) फिल्म में दो स्त्री (अर्शिया, गज़ाला) आत्महत्या दिखाई गई है। जवरीमल्ल पारख इस आत्महत्या के विषय में लिखते हैं "अपने ही प्रेमी के हाथों अपने पिता की हत्या का सदमा अर्शिया (श्रद्धा कपूर) बर्दाश्त नहीं कर पाती और आत्महत्या कर लेती है।"7 इसी फिल्म में आत्महत्या करने वाली दूसरी स्त्री हैदर की माँ गज़ाला भी अपने बच्चे और प्रेमी को बचाने के द्वंद्व में खुद को बम से (Sucide Bombing) उड़ा देती है।
इसी वर्ष आयी फिल्म 'महाराज' में किशोरी नामक पात्र बाबा के झाँसे में आकर जाने-अनजाने तथाकथित महाराज के जाल में फँस जाती है। चरण-सेवा के नाम पर किशोरी आत्मसमर्पण कर देती है, उसे इस बात की अनुभूति नहीं होती कि बाबा उसके शरीर का अनुचित लाभ ले रहा है। जब उसे पता चलता है कि महाराज केवल उसका फायदा उठा रहा था तब वह कुएँ में कूदकर आत्महत्या कर लेती है। डॉ मनोहर भाटिया ऐसी घटनाओं के पीछे के कारक को बताते हैं “Today, a godman is not just the miracle maker; he is
also the distress reliever – a psychologist, the family consultant, and the
spiritual guide. He offers answers, solutions and happiness – an easy path to
follow in an otherwise cruel and difficult world.”8
2017 में बनी 'काबिल' फिल्म दृष्टिहीन दंपति की कहानी है, जिसके अंतर्गत सुप्रिया (यामी गौतम) के साथ बलात्कार होता है। हमारी जटिल व्यवस्था और अन्याय से मिली घोर निराशा उसे आत्महत्या के लिए बाधित करती है। इस फिल्म में जो घटित हुआ है, ऐसी कई वास्तविक घटनाएँ हिंदुस्तान में रोज होती हैं। फिल्मों में बलात्कार संबंधी चित्रण पर शीबा असलम टिप्पणी करती हुए कहती हैं "यहाँ तक कि बलात्कार के दृश्य फिल्म की कामयाबी का अचूक फॉर्मूला बन गए, और इन बेहद चाव से फिल्माए और दिखाए जाने वाले बलात्कारों को समस्या सुलझाने के प्रयास के तौर पर नैतिक जामा पहनाया गया। बलत्कृत महिला की आत्महत्या को एक सही रिस्पांस की तरह प्रचलित किया गया। याद कीजिये फिल्म 'आखिरी रास्ता', जिसमें अमिताभ बच्चन की पत्नी बनी जयाप्रदा बलात्कार की शिकार होने पर आत्महत्या कर लेती है। फिल्म में अमिताभ बच्चन कहते हैं कि 'बलात्कार के बाद या तो आत्महत्या होगी या हत्या'।"9
यह एक तथ्य है कि स्त्री आत्महत्या के प्रयास
(Suicide Attempt) सबसे ज्यादा किए जाते हैं लेकिन यह भी एक तथ्य है कि पुरुषों में आत्महत्या
(Suicide) बहुत अधिक है। इसके पीछे के कारण पर प्रसिद्ध समाजशास्त्री दुर्खीम टिप्पणी करते हैं
"यदि स्त्रियाँ पुरुषों के मुक़ाबले स्वयं को कम मारती हैं तो यह इसलिए क्योंकि वे सामूहिक जीवन में पुरुषों के मुक़ाबले कम संलिप्त होती हैं और वे इसके अच्छे-बुरे प्रभाव को कम झेलती हैं।"10
'चुप चुप के'
(2006) फिल्म की शुरुआत ही एक ऐसे किरदार (जीतू) से होती है जो कर्ज के कारण दरिया में कूदकर सभी कर्जदारों के समक्ष आत्महत्या करता है लेकिन बाद में बच जाता है और पूरी फिल्म इस प्रसंग से ही शुरू होती है। पानी में कूदने से पहले जीतू कहता है
"इन्शुरेंस एजेंट से आप लोग कहिएगा मेरी मौत एक हादसा थी, ख़ुदकुशी नहीं, आप लोगों से बात करते-करते मेरा पैर फिसल गया और मैं पानी में गिर गया। पैसा मिलते ही पिताजी आपसब लोगों की रकम लौटा देंगे।"11अर्थात वह जीने की इच्छा रखता था लेकिन सामाजिक दबाव और कर्ज के कारण उसके पास कोई विकल्प नहीं बचता। 'मसान' (2015)
फिल्म में दो प्रेम कहानियाँ एक साथ चलती हैं। जिसमें से एक कहानी है देवी की, जो अपने साथी पीयूष के साथ होटल में जाती हैं। उनके निजी क्षणों में पुलिस उन्हें पकड़ लेती हैं और ब्लैकमेल करती है। सामाजिक बदनामी के भय से पीयूष कलाई काटकर आत्महत्या करने के लिए बाधित होता है। बाद में पीयूष की आत्महत्या की सजा पुलिस देवी को देती है और उसे जेल का डर दिखाकर पैसे लेती है। 'ए डेथ इन द गंज' (2016)
कोंकणा सेन द्वारा निर्देशित एक युवक के पारिवारिक-मानसिक तनाव को अभिव्यक्त करती फिल्म है। फिल्म में शुटू एक संवेदनशील किरदार है जिसने हाल ही में अपने पिता को खोया है और अपने अकादमिक जीवन में भी असंतुलित है। ऐसी स्थिति में उसे अपने परिवार के लोगों द्वारा सहानुभूति नहीं मिलती, क्योंकि परिवार में एक विषाक्त पुरुषत्व
(Toxic Masculinity) की लंबी परंपरा चलती आ रही है। शुटू की भावनात्मक असुरक्षा
(Emotional Vulnerablity) का स्तर इतना बढ़ जाता है कि उसका समाधान कोई भी नहीं करता। फिल्म समीक्षक अनुष्का रॉय फिल्म के शीर्षक की गहनता को उभारते हुए बताती हैं
"The titular ‘death’ in the title of the movie refers to a physical death
as well as an emotional one brought to fruition through violentmusculantiy."12
फिल्म के अंत में शुटू स्वयं को बेरहमी से (आकृति-3) बंदूक द्वारा मार देता है। इन फिल्मों के अलावा 'मेरे देश की धरती' (2022) में भी हम दो युवकों को नौकरी के अभाव में आत्महत्या के कई प्रयास करते देखते हैं, 'अनजाना-अनजानी' (2010) में भी आकाश (रनबीर कपूर) को कर्ज के कारण जॉर्ज वॉशिंगटन ब्रिज से आत्महत्या के प्रयास का चित्रण मिलता है।
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आकृति 3 : भावनात्मक नियंत्रण के अभाव में शुटू द्वारा आत्महत्या (ए डेथ इन द गंज, 2016) |
वर्ष
2018 में आयी 'पद्मावत' बहु-चर्चित व विवादित फिल्म रही है। ‘भारतीय आत्महत्या के इतिहास’ पुस्तक में उपेन्द्र ठाकुर बताते हैं "Words fail to describe this horrible yet
glorious rite, and the history of mankind fails to offer any parallel to this
otherwise common custom among the brave Rajputs, anywhere in any corner of the
world at any time."13 इस बात में कोई दोराय नहीं कि समय व परिस्थितियों के कारण राजपुतानी स्त्रियों ने आत्मसमर्पण के स्थान पर आत्मबलिदान को प्राथमिकता दी और इस बात को प्रमाणित किया कि उनके लिए उनका आत्मसम्मान उनके प्राणों से भी बढ़कर है। फिल्म में जौहर परंपरा का चित्रण अंत में दिखाया गया है। जवरीमल्ल पारेक 'जौहर' के दृश्य के संबंध में कहते हैं कि
"फिल्म के आरंभ में यद्यपि कहा गया है कि फिल्म सती प्रथा का समर्थन नहीं करती, लेकिन फिल्म में जौहर के पूरे कृत्य को जिस विस्तार से धार्मिक परंपरा का पालन करते हुए भव्यता से (आकृति-4 में) दिखाया गया है, वह शर्मनाक भी है और खतरनाक भी।"14 फिल्म में रानी पद्मावती के साथ-साथ, रानी नागमती, गर्भवती स्त्री, बच्चियाँ व बूढ़ी स्त्रियाँ, रानी पद्मावती का अनुसरण करती हैं।
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आकृति 4 : जौहर से पूर्व-संस्कार का अनुपालन करती रानी पद्मावत, नागमती और दो छोटी बच्चियाँ (पद्मावत, 2018) |
भारतीय मध्यकालीन युग को लेकर एक और ऐतिहासिक हिन्दी फिल्म है 'पानीपत'।
2019 में आयी इस फिल्म में मराठा साम्राज्य के गौरवशाली इतिहास और बलिदान को दिखाया गया है। फिल्म में अहमदशाह अब्दाली और राजा सदाशिव के बीच युद्ध तथा सदाशिव की मृत्यु को दिखाया है। फिल्म में ध्यान देने योग्य प्रसंग यह है कि राजा सदाशिव युद्ध में जाने से पहले अपनी रानी पार्वती बाई से कहता है "पार्वती अगर मुझे कुछ हो जाए, मुझसे वादा करो, तुम सती नहींहोगी।"15 संकेत स्पष्ट है कि तत्कालीन समय में युद्ध हारने और योद्धाओं के मृत्यु पश्चात स्त्रियों द्वारा मृत्यु का वरण करना प्रचलित परंपरा थी।
चुप चुप के, भागम-भागम, भूल भुलैया और खट्टा मीठा ऐसी हिन्दी फिल्मों के श्रेणी में गिनी जाती हैं जिनका केंद्रीय विषय हास्य
(Comedy) है। हास्य के लिए प्रसिद्ध इन फिल्मों में भी आत्महत्या के प्रसंग छूटे नहीं हैं। 'भागम भाग' फिल्म में विक्रम नामक किरदार अपनी पत्नी निशा की हत्या कर उसे आत्महत्या साबित करने की कोशिश करता है ताकि वह पत्नी की सारी संपत्ति ले सके। विक्रम बड़ी चतुरता से हत्या के बाद एक दूसरी लड़की (अदिति) को पैसे देकर उसकी पत्नी बनने का नाटक करने को कहता है। अदिति, निशा बनने का नाटक करती है और आत्महत्यक संकेतों (Suicidal Tendencies) का दिखावा करती है। वह कभी गाड़ी के सामने आ जाती है, कभी नदी को देख कर पानी मे समाने की बात करती है, कभी जलते को देख कर उमसेखुद को सौंप देने की बातें करती है।
2010 में आयी 'खट्टा मीठा' फिल्म एक ईमानदार म्यूनिसिपल अधिकारी गहना के गंभीर आत्महत्या के प्रयास को प्रदर्शित करती है। ठेकेदार सचिन टिचकुले प्रपंच रचकर गहना को झूठे रिश्वत के आरोप में फँसाता है, जिसे गहना बर्दाश्त नहीं कर पाती और अपनी कलाई काट लेती है। हालाँकि बाद में वह बच जाती है और सचिन टिचकुले को भी माफ कर देती है। 'चुप चुप के'
(2006) फिल्म में भी कर्ज के कारण जीतू द्वारा दरिया में कूदने का प्रसंग आता है।
हिन्दी फिल्में आत्महंता के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक तथ्यों की पड़ताल करती हैं और उन कारकों पर भी विचार विमर्श करती हैं जो आत्महत्यक विचारों के अनुयोजन में व्यक्ति को प्रेरित करते हैं। सिनेमा में आत्महत्या को बारीकी से दिखाना या उसे उत्प्रेरक (Sensationalize)
अथवा ग्लोरीफाई करना आम-जन, विशेषकर मानसिक संघर्ष से जूझते दर्शकों पर अनुकरणात्मक व्यवहार
(Imitational Behaviour) का खतरा बढ़ा सकता है, इसका एक प्रामाणिक उदाहरण 1935 की फिल्म 'देवदास' है। शोध से भी इस बात की पुष्टि की गई है “If the viewer develops the attitude that violence is
normative, they may become desensitized and callous to violence in real life”16
बड़े पटल पर हिन्दी सिनेमा में हिंसा और आत्महत्या को गहनता से दिखाना उस विषय को जेनेरलाइज कर देता है, उसकी संवेदनशीलता को संवेदनहीनता में परिवर्तित कर देता है। निर्देशकों को इस समस्या के समाधान हेतु विशेष स्टोरी-टेल्लिंग टेकनीक को व्यवहार में लाने की आवश्यकता है। फिल्मों में कुछ ऐसे पात्र और विकल्प दर्शाने चाहिए जिससे दर्शक यह समझ सके कि उसके पास भी विकल्पहीनता नहीं है, जैसे '3 इडियट्स' के रेंचो-फरहान, 'कार्तिक कॉलिंग कार्तिक' की शोनाली, 'छिछोरे' का अनिरुद्ध, ये सभी पात्र आत्महंता को गलत रास्ते पर जाने से रोकते हैं और जीवन का मूल्य समझाते हैं। प्रियजनों और समुदाय पर आत्महत्या के विनाशकारी प्रभाव को प्रदर्शित करना, आशा-उम्मीद जैसे नियंत्रक बिन्दुओं पर केन्द्रित रहना भी आत्मघातक निर्णयों को रोक सकते हैं। इनके अलावा फिल्म में उत्प्रेरक चेतावनी
(Trigger Warning) को स्पष्ट रूप से इंगित करना, आत्महत्या की कगार पर खड़े लोगों हेतु फिल्म में सहायता-सूत्रों की सूचना उपलब्ध कराना और तनाव, अवसाद संबंधी थीम को वैकल्पिक तरीके से दर्शाना भी लाभदायक सिद्ध होगा।
निष्कर्ष : हिन्दी सिनेमा समाज की पतनावस्था की अनेक सतहें खोलता है। 21वी शताब्दी के हिन्दी सिनेमा में आत्महत्या के चित्रण तीव्रता से बढ़े हैं। हिन्दी फिल्मों में आत्महत्या की ऐतिहासिक परंपरा के साथ-साथ वर्तमान समस्याओं की भी मुखर अभिव्यक्ति हो रही है, जिनमें किसान समस्या, अकादमिक समस्या, बेरोजगारी, प्रेम, तनाव आदि के कारण हो रही आत्महत्याएँ प्रमुख हैं। कई हिन्दी फिल्में ऐसी हैं, जिनमें आत्महत्या के प्रस्तुत दृश्य दर्शकों को विचलित करते हैं, जैसे 'डंकी' में आत्मदाह (आकृति-1),
'ए डेथ इन द गंज' (आकृति 3) का गन-शूट, ‘हैदर’ में सुसाइड बॉम्बिंग आदि। लेकिन दूसरी ओर ऐसी फिल्में भी हैं, जो आत्महत्या व मनोरोग विषयक जटिल प्रसंगों को सरलता से दर्शकों के समक्ष रख सकारात्मक दृष्टिकोण देती हैं। इस श्रेणी में 'कार्तिक कॉलिंग कार्तिक', 'मेरे देश की धरती', 'डीयर ज़िंदगी', 'छिछोरे', 'तारे ज़मीन पर' आदि प्रमुख हैं।भारत के लोग विशेषकर युवा वर्ग का हिन्दी सिनेमा से एक विशेष लगाव है, ये लगाव वर्तमान समय में न मीडिया से है और न परम्परागत रंगमंच से। विस्तृत प्रभाव क्षेत्र होने के कारण सामान्य-जन में व्याप्त आत्महत्या की समस्या पर नियंत्रण करने में हिन्दी सिनेमा सहायक माध्यम हो सकता है, केवल लीगल-डिस्क्लेमर द्वारा दर्शकों में जागरूकता की अपेक्षा नहीं की जा सकती, सुनियोजित सावधानीपूर्वक प्रस्तुतीकरण भी आवश्यक है।
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- जीन बी फंक, वाइलेंस एक्स्पोजर इन रियल-लाइफ, वीडियो गेम्स, टेलीविज़न, मूवीज़ एंड इंटरनेट: इज़ देयर डीसेंसिटाइज़ेशन?,
जर्नल ऑफ़ अडोलेसेंस,
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