कला के जितने रूप हैं उसमें सिनेमा सबसे लोकप्रिय कला माध्यम है। यह एक सामूहिक कला है। सामूहिक प्रयास से ही कोई भी फ़िल्म अपने बेहतरीन प्रदर्शन को सम्भव बना पाती है। फ़िल्म की कहानी किसी के मन में होती है। उसे पर्दे पर उतारता कोई और है। अभिनय की कला कोई और बिखेरता है। कैमरा किसी और के हाथ में होता है। फ़िल्म की कहानी पर गीत कोई लिखता है, संगीत कोई और देता है। अपने स्वर से साधता कोई और है।नृत्य की बारीकियां बताता कोई और है। नृत्य कोई और करता है। कला के इसी नायाब रूप को सिनेमा कहा गया।यह एक ऐसा तकनिकी माध्यम है जो कम समय में करोड़ों दर्शकों तक पहुंच जाता है। इसलिए सिनेमा में समाज को प्रभावित करने की क्षमता भी निहित है। एक अच्छी फ़िल्म समाज में सकारात्मक बदलाव के लिए प्रेरित कर सकती है। सिनेमा भले मनोरंजन का साधन है लेकिन उसके साथ-साथ उसकी सामाजिक उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता। सिनेमा अपनी शुरुआत से लेकर आज तक कई परिवर्तन से गुजरा है। कथ्य, तकनीक और विषय प्रस्तुति में समय-समय पर बदलाव हुआ है।
कला का एक सामाजिक पक्ष भी होता है। अच्छी कला वही मानी जाती है जिसमें सामाजिक प्रतिबद्धता भी निहित हो। सामाजिक सच्चाई और यथार्थ से मुंह न मोड़ें बल्कि खुरदरी सच्चाई को कला में पिरोकर दर्शक तक ले जाए। हिन्दी सिनेमा जिसे बंबइया सिनेमा भी कहा जाता है, यदि उसका ईमानदारी से मूल्यांकन किया जाए तो हिन्दी सिनेमा के ज़्यादातर निर्माता, निर्देशक सच्चाई से आँखें मूंदकर सिनेमा बनाते रहे हैं इसलिए सत्यजित रे जैसे निर्देशक की ऊंचाई को छू नहीं पाए। उनकी कला पर व्यावसायिकता हमेशा हावी रही। अतिरंजित हिंसा, प्रेम की भावुकता और फिल्म के हिट करने वाले कुछ जरूरी नुस्ख़े का प्रयोग करके दर्शकों को परोसा जाता रहा है। दर्शकों का मानसिक अनुकूलन बंबइया फिल्म ने इस प्रकार कर दिया कि सामाजिक मसले पर फिल्म बनाने वाले निर्देशक भी दर्शकों की चुनौतियों से जूझते रहे।
मैं जब पहली बार श्याम बेनेगल की फिल्म ‘निशांत’ देखी तो लगा कि क्या वाकई में इस तरह की फिल्म भी बनती है। ग्रामीण और सामंती व्यवस्था का इतना यथार्थ चित्रांकन फिल्म के माध्यम से पहली बार देखा। फिर उनकी लगभग सभी फिल्में खोज-खोजकर देख डाली। गोविंद निहलानी की फिल्म ‘आक्रोश’ देखकर उनका भी मुरीद हो गया। फिर उनकी भी सभी फिल्में खोजकर देखी। फिर सिनेमा की थोड़ी समझ बढ़ी तो पता चला कि इस तरह की फिल्मों को समानान्तर सिनेमा या कला सिनेमा कहा जाता है। इनका व्यावसायिक सिनेमा से इतर संसार है। नब्बे के बाद समानान्तर सिनेमा भी खत्म सा हो गया। उसका मुख्य कारण दर्शकों का अभाव ही रहा होगा क्योंकि आम भारतीय दर्शक सिनेमा में हल्का और सस्ता मनोरंजन खोजता है। समानान्तर सिनेमा बुद्धजीवी वर्ग को ही ज्यादा अपील कर रहा था। सिनेमा के दो ध्रुव दिखाई पड़ते थे। एक तरफ विशुद्ध मनोरंजन दूसरी तरफ विशुद्ध समाजिकता। यदि एक वर्ग ने अपनी फिल्मों में थोड़ी सामाजिकता और दूसरे वर्ग ने अपनी फिल्म में थोड़ा मनोरंजन समाहित कर लिया होता तो सिनेमा का एक अलग रूप में दिखाई देता।
हिन्दी सिनेमा हमेशा स्वप्नलोक की तरह रहा है। अपनी चमक-धमक से दर्शकों को मंत्रमुग्ध और सम्मोहित करने वाला रहा है। अभाव में पला बढ़ा बेचारा दर्शक सिनेमा के करिश्माई दुनियाँ के लोक में विचरण करने लगता है। अभिनेता-अभिनेत्री की जीवन शैली उसे लुभावनी लगती है। महानगरीय जीवन ही सिनेमा का केंद्र बिन्दु रहा है। गाँव की याद तभी आती थी जब किसी डाकू को केंद्र में रखकर फिल्म बनानी होती थी। ‘नदिया के पार’ जैसी फिल्म तो अपवाद की तरह लगती है। बॉलीवुड की फिल्मों में सभी समाज का उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिखाई देता है इसके पिछे निर्माता और निर्देशक की एक खास पृष्ठभूमि बड़ी वजह रही है। एक अच्छा सिनेमा मनोरंजन के साथ समाज को एक नया दृष्टिकोण भी दे सकता है। महबूब खान की ‘मदर इंडिया’, विमल राय की ‘दो बीघा जमीन’ राजकपूर की ‘आवारा’, गुरुदत्त की 'प्यासा' फिल्म पुरानी होने के बाद भी अपनी चमक के साथ बनी हुई है क्योंकि वह कोई मसाला फिल्म नहीं थी जिसे देखकर दर्शक भूल जाए। कला सिनेमा ने स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी, नसीरुद्दीन शाह, ओमपूरी जैसे बेहतरीन कलाकार से परिचित कराया। स्मिता पाटिल को बहुत कम जीवन ही मिला लेकिन कला सिनेमा में अपनी अदायगी से अमिट छाप छोड़ गयी।
सिनेमा हँसाने, गुदगुदाने और रोमांस के अलावा भी बहुत कुछ चित्रित कर सकता है अगर वह एक विजनरी निर्माता और निर्देशक है किन्तु बॉलीवुड एक उद्योग का रूप ले चुका है। वहाँ पर उसी फिल्म का ज्यादा महत्व दिया जाता है जो कम समय में ज्यादा पैसा वसूल कर दे। हालांकि अब इधर के दशक में बंबइया फिल्म ने अपना कथ्य और विषय बदला है। अब सार्थक सिनेमा भी बन रहा है। दिवगंत इरफान खान की ज़्यादातर फिल्में सार्थक सिनेमा ही थी। मनोज वाजपेयी, पंकज त्रिपाठी, राजकुमार राव जैसे अभिनेता इसी तरह की फिल्में दे रहे हैं। रोमांस के किंग शाहरुख खान सामाजिक मुद्दे की फिल्म ‘जवान’ में भूमिका निभा रहे हैं। अमीर खान ने भी इधर जो भी फिल्में बनाई वह पुरानी बंबइया फिल्म की लीक से हटकर थी। अब उन लोगों को भी पता चल गया है कि दर्शक सेक्स, प्रेम और हिंसा की घिसी-पिटी कहानियों से ऊब चुका है। दर्शक को अब कुछ वैसा चाहिए जो दिल के साथ दिमाग को भी झकझोरे।
ओटीटी प्लेटफॉर्म आने के बाद अब सिनेमा सिर्फ थियेटर की चीज नहीं रह गया है। सिनेमा ने अपना स्वरूप बदला है। घर बैठे वेब सीरीज देखने का प्रचलन बढ़ा है। ‘पंचायत’ जैसी वेब सीरीज अपनी अलग पहचान बनाई है। निर्माता, निर्देशक अपनी बात को बड़े कैनवास पर कह सकते है। दर्शक भी तसल्ली से इंतजार करता है। अब फिल्म कई-कई पार्ट में बन रही है। इधर बॉलीवुड से ज्यादा दक्षिण भारत की फिल्में चर्चित रही हैं। यह सब तेजी से बदलाव देखने को मिला है। वेब सीरीज में नग्नता और गाली की भाषा बहुत तेजी से पनपी है। अब महिला पात्र को भी गाली देते हुए सुना जा सकता है। यह एक प्रकार से बाजारवाद का ही एक रूप है। सामाजिक व्यवहार में इसका बुरा असर भी देखने को मिल रहा है। इन सबके बाद भी सिनेमा से हमें और भी बेहतर की उम्मीद बची हुई है।
सिनेमा विशेषांक का विचार बहुत लंबे समय से मेरे दिमाग़ में चल रहा था। दरअसल मैंने महसूस किया कि नई शिक्षा नीति में सिनेमा बहुत जगह पाठ्यक्रम का हिस्सा भी बना है लेकिन पाठ्य सामाग्री का बहुत अभाव है। माणिक से चर्चा भी होती रही लेकिन कुछ व्यस्तताओं के कारण उचित समय नहीं मिल पा रहा था। फिर एक दिन वह घड़ी आ गई जब हमने 'सिनेमा विशेषांक' के प्रस्ताव की घोषणा की और आप सभी ने अपने-अपने महत्वपूर्ण लेखन के माध्यम से सिनेमा अंक को विशिष्ट बनाने में योगदान दिया। आप सभी का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ। सभी आदरणीय प्रो. श्योराज सिंह बेचैन, प्रो. आशीष त्रिपाठी, प्रो. नीलम राठी, डॉ. सुनील कुमार का विशेष रूप से आभार। एक संपादक हमेशा संग्रह और त्याग के संकट से गुजरता है इसलिए कुछ लेख अपने-अपने कारणों से प्रकाशित नहीं हो पाए। सिनेमा विशेषांक काफी वैविध्यपूर्ण है। लेखकों ने सिनेमा के हर पहलू को छूने का प्रयास किया है। हमारी कोशिश रही है कि अंक संग्रहणीय हो। अब हमारी कोशिश कहाँ तक सफल है यह आप आकलन करेंगे। इस विशेषांक में सहयोग देने के लिए विनोद जी, मित्र सौरभ कुमार, सुनील यादव, प्रभात जी, प्रवीण मिश्र, अनुज यादव सभी का आभार प्रकट करता हूँ, अर्जुन और गुणवंत का आभार जिनके सहयोग से अंक प्रकाशित हो पा रहा है।
जितेंद्र यादव
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर (हिंदी विभाग), सकलडीहा पी.जी. कालेज, सकलडीहा ( उत्तर प्रदेश )
सम्पर्क : jitendrayadav.bhu@gmail.com, 9001092806
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