शोध आलेख : सिनेमा भीतर सिनेमा / अनंत विजय पालीवाल

सिनेमा भीतर सिनेमा
- अनंत विजय पालीवाल

शोध सार : सिनेमा की मुख्यधारा मनोरंजन है। इससे इतर सिनेमा सामाजिक मुद्दों, आंदोलनों, सुधारों और अस्मिताओं को भी अपना विषय बनाती रही है। विचारधाराओं और राजनीति के विरोध और पोषक के तौर पर भी इसे बारहा देखा जा सकता है। अपने शुरुआती दौर में भक्ति, मिथक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को आधार बनाते हुए बीते वर्षों में सिनेमा ने खुद के लिये भी कई मिथक गढ़े हैं। साथ ही तमाम विधाओं के बीच अपना एक इतिहास भी दर्ज किया है। धुर साहित्य हो या मसाला फिल्में या फिर सामाजिक सरोकारों से जुड़ी समांतर फिल्में हिंदी सिनेमा ने अपनी ही तरह की नई कथात्मक शैली प्रस्तुत की है। संगीत और नृत्य के क्षेत्र में भी उसने शास्रीयता के साथ कैबरे, डिस्को, पॉप और जैज को बखूबी अपनाया है। बदलते बाज़ार के अनुसार खुद को ढालने और बाजार को अपने हिसाब से बदलने की क्षमता हिंदी सिनेमा में शुरू से रही है। यही कारण है कि मूक फिल्मों से लेकर बोलती तक और बोलती से लेकर कानफाड़ू शोर तक हिंदी सिनेमा की दस्तक कभी मद्धम नही पड़ी। उसकी चमक-दमक और अधिक धमक के साथ सुनाई पड़ती रही। वास्तव में नवरस और नवरंग का यह मेल ही हिंदी सिनेमा की जान है। यह अंदाजा इसकी दशकों की सफलता से लगाया जा सकता है। बावजूद इसके सिनेमा के कई स्याह पक्ष भी रहे हैं जो इसकी भीतरी से लेकर बाहरी दुनिया को अपने तरीके से प्रभावित करते रहे हैं। यह शोधालेख सिनेमाई दुनिया के ऐसे ही सुने-अनसुने पक्षों को विश्लेषित करने का प्रयास है।

बीज शब्द : लॉबिंग, गिरमिटिया, लोकपक्ष, पुरखों, अक्स, कमर्शियल सिनेमा, न्यूवेव सिनेमा, समांतर सिनेमा, व्यावसायिक सिनेमा, स्क्रिप्ट, सेंसर बोर्ड, एग्जामिनिंग कमिटी, रिवाइजिंग कमिटी, हिंदी पट्टी, हनी ट्रैप, लो-बजट।

मूल आलेख : हिंदी सिनेमा के लगभग सभी प्रारूपों में परदाई प्रदर्शन और सिने जगत की अंदरूनी हकीकत कमोबेश बहुत जुदा रही है। सिनेमाई पर्दे के पीछे का सिनेमा भी कम दिलचस्प नहीं है। अपने सफर में इसने ‘लगाव' से लेकर ‘लॉबिंग' तक का लंबा सफर तय किया है। इसमें दो राय नही है कि हिंदी सिनेमा का शुरुआती दौर लगाव का रहा है और यह आजादी के बाद और सघन हुआ। इस दौर में क्षेत्रीय भाषा-बोली और संस्कृति का प्रभाव उस समय के तमाम गीतों, धुनों और संवादों में आसानी से मिल जाएगा। अक्सर देखा गया है कि परिस्थितिवश विस्थापित किसी भी समाज की प्रथम पीढ़ी अपनी जड़ों को और भी मजबूती से पकड़े रहती है। परदेश में यह अपनत्व के साथ एक मनोवैज्ञानिक दृढ़ता का बहुत बड़ा जरिया है। गिरमिटिया मजदूरों और प्रवासी रचनाकारों के साहित्य के जरिये भी इसे महसूस किया जा सकता है। विभाजन के बाद लाहौर फ़िल्म उद्योग से मुम्बई की ओर कई जाने माने फिल्मकारों का पलायन हुआ। ये अपने साथ पंजाबी भाषा-संस्कृति लेकर महानगरी बम्बई पहुंचे लेकिन इन कलाकारों का अपनी जड़ों की ओर बार-बार मुड़ना भी स्वाभाविक था। दरअसल अपनी मिट्टी और जड़ों की खुशबू अभी तक लोगों के जेहन में वैसे ही थी जैसी वह पीछे छोड़ आये थे। कुछ ऐसी ही तड़प उत्तर भारतीय फिल्मकारों में भी देखने को मिलती है। वे ऐसा कोई भी मौका नहीं गँवाना चाहते थे जहाँ उन्हें अपने देशी या लोकपक्ष से जुड़ी किसी भी विधा को दर्शाने का मौका मिल रहा हो। खासतौर पर गीतों और धुनों के मसले पर यह मामला और भी भावुक हो जाता था। छोटे-छोटे दूरदराज गावों से महानगर तक का सफर किसी अन्य देश या दुनिया से कम नहीं था। ऐसे में अपनी मिट्टी की थोड़ी सी गर्द भी किसी मलहम से कम नहीं लगती थी। ये गीत-संगीत मिट्टी की ऐसी ही सोंधी खुशबू की बयार थी जिसमें न जाने कितनी ही यादें सराबोर थीं। गँवई बचपन से लेकर पुरखों की बानी का पूरा स्वाद इन धुनों और शब्दों की लरज़ में महसूस किया जा सकता था। लगाव का यह सिलसिला हिंदी सिनेमा के शुरुआती दौर में बदस्तूर जारी रहा। मजरूह सुल्तानपुरी, कैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी, आनंद बख्शी, हसरत जयपुरी, शैलेन्द्र, नीरज, अंजान सरीखे कई गीतकारों को जब भी मौका मिला उन्होंने अपनी मिट्टी को गीतों के जरिये बखूबी याद किया। कुछ ऐसा ही हाल संगीतकारों का भी रहा। इनमे से एक नाम ‘नौशाद’ का पुरजोर लिया जा सकता है। नौशाद लखनऊ को कभी भुला नहीं सके। कहा जाता है कि मुम्बई में भी उन्होंने छोटा सा लखनऊ बसा रखा था। अवधी उनके जेहन में बराबर बनी रही। इसे उन्होंने अपने कई साक्षात्कारों में स्वीकार भी किया है। अवधी को हिंदी फिल्मों में पिरोने का मौका वे अक्सर ढूंढा करते थे और ऐसे मौके उन्हें मिले भी। 1961 में आई फ़िल्म 'गंगा जमना' ऐसा ही एक मौका था। फ़िल्म के अधिकतर संवाद अवधी में थे, तो जाहिर है गीत-संगीत भी उसी अनुसार होने थे। ‘दगाबाज तोरी बतियाँ', 'नैन लड़ जैहैं', ‘दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गयो रे', मोरे कान का बाला' जैसे अवधी गीतों से सजा यह संगीत उत्तर भारतीयों के दिलों में सीधे उतर गया। पर संगीत की सफलता से कही अधिक सुकूनदेह वह यादें थीं जिन्हें अवधी के जरिये नौशाद ने दुबारा से रवाँ किया था। ‘गंगा जमना’ फिल्म के विषय में एक और बात बड़ी दिलचस्प रही कि अवधी भाषा के अत्यंत प्रयोग के बाद भी केंद्रीय हिंदी फिल्म प्रमाण बोर्ड ने इसे क्षेत्रीय की बजाय हिंदी सिनेमा की श्रेणी में रखा। उस दौर में पूरबी भाषा की छौंक लिये ऐसे कई गीत आसानी से मिलते रहे हैं जैसे ‘मोरा गोरा रंग लै ले', ‘चलत मुसाफिर मोह लिया रे', ‘कजरा मुहब्बत वाला', ‘पिया ऐसो जिया में समाई गयो रे', ‘रसिक बलमा', ‘माई री मैं का से कहूँ' आदि। कुछ इसी तरह की रीति पंजाबी भाषा में भी देखने को मिलती है जैसे ‘उड़े जब जब जुल्फें तेरी/ कवांरियों का दिल मचले/जींद मेरिये', ‘मैं कोई झूठ बोलया'(जागते रहो), ‘नी मैं यार मनाना नी'(दाग), ‘नाचे अंग वे'(हीर राँझा), ‘दिल करदा, ओ यारा दिलदारा मेरा दिल करदा'(आदमी और इंसान')। एकतरफ जहां हिदी भाषी कलाकारों ने गीतों की ‘धुन' और ‘बोली' दोनों ही क्षेत्रीय रखी वहीं पंजाबी कलाकारों ने हिंदी सिनेमा में ‘बोली' की बजाय अपनी लोक धुनों को अधिक तरजीह दी। यहाँ शब्द तो खड़ी बोली हिंदी के थे लेकिन धुने पंजाबी लोक की थीं जैसे ‘ऐ मेरी जोहरा जबीं', ‘मिलो न तुम तो हम घबराएं', ‘ये देश है वीर जवानों का अलबेलों का मस्तानों का' इत्यादि। इन गीतों के बोल भले ही खड़ी हिंदी में हों पर इनमे पंजाबी अक्स आसानी से ढूंढा जा सकता है। इसी तरह कई अन्य कलाकारों जैसे, पृथ्वीराजकपूर, राजकपूर, बी.आर. चोपड़ा, यशचोपड़ा, केतनआनंद, विजयआनंद, देवआनंद, सुनील दत्त, मुहम्मद रफी, वर्मा मलिक, साहिर लुधियानवी, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना आदि ने पंजाबी संस्कृति को हिंदी सिने जगत में अलग मुकाम पर पहुंचा दिया। कहना गलत न होगा कि उस दौरान बम्बई में एकसाथ रहते हुए भी अवधी और पंजाबी ये दो धाराएं समानांतर रूप से बह रहीं थीं, पर यह सिलसिला ‘लॉबिंग’ की बजाय ‘लगाव’ का अधिक था।

कालांतर में यही लगाव घरानों में तब्दील होने लगा। हिंदी सिनेमा भी एक बड़े व्यवसाय के रूप में अपनी पहचान बना चुका था। मोटे तौर पे देखा जाए तो इस व्यावसायिक व्यवस्था में तीन घराने प्रमुख रूप से उभरे थे। पंजाबी घराना ,बंगाली घराना और तीसरा दक्षिण भारतीय घराना। हिंदी पट्टी कभी भी संगठित तौर पर किसी घराने में नहीं बंध पाई। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। जिनमे एक प्रमुख कारण भाषा का भी है। पंजाबी और बंगाली का दर्शक अपनी भाषा के अर्थों को बखूबी समझता है। वहाँ साहित्य और आम भाषा के शब्दों में उतनी दूरी नहीं है जितनी हिंदी पट्टी में है। हिंदी मातृभाषा वाले प्रदेशों में इतनी तरह की बोलियाँ और उच्चारण है कि इनका अर्थग्रहण सामान्य दर्शक के लिये मुश्किल है। अतः साहित्यिक भाषा को हिंदी फ़िल्म संवाद के रूप में यथावत नहीं रखा जा सकता। बतौर फ़िल्म लेखक ‘कमलेश्वर' इसे बयाँ करते हुए लिखते हैं कि “हमें फ़िल्म लेखक के रूप में वह आजादी नहीं होती, जो साहित्य में हमें मिलती है। फिल्मी लेखन में हमें इकहरे शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ता है और शब्दों में हमें चुनाव इस नजर में करना पड़ता है कि प्रयुक्त हिंदी शब्द कश्मीर से कन्याकुमारी तक हिंदी सुनने वाला (जानने या पढ़ने वाला नहीं) उसे समझ सके। हमें अपने शब्दों के कोश को घटाना पड़ता है, परिसीमित करना पड़ता है। अर्थवाहक शब्दों को कामचलाऊ शब्दों का रूप देना पड़ता है। एक तरह से और कहूँ तो जैसे हमारे विज्ञापनों में चुने हुए शब्दों का ही इस्तेमाल बार-बार किया जाता है, कुछ वैसा ही काम फ़िल्म लेखक को भी करना पड़ता है।”(1) दरअसल पिछले कई दशकों के दौरान अधिक से अधिक आबादी तक पहुचने का जरिया रेडियो, टेलीविजन और फिल्मे ही रही हैं। साहित्यिक भाषा और सिनेमाई भाषा में कुछ फर्क हो सकता है लेकिन इन माध्यमों और इनमे प्रयुक्त भाषा की उपेक्षा नही की जा सकती। दोनों का ही अपने क्षेत्रों में अलग-अलग महत्व है। “सिनेमा की भाषा रूप की भाषा है, इसलिए इसका प्रभाव व्यापक और तात्कालिक है भाषाओं में भेद है पर भाव और रूप की अपील एक है। इस तरह सिनेमा में संभावनाएँ जबरदस्त हैं लेकिन रूप चित्र-विचित्र है और सहसा सीधा कोई अर्थ वह प्रदान नहीं करता।”(2) फिर भी, “चाहे साहित्य हो, सिनेमा हो या अभिव्यक्ति का कोई माध्यम हो समय के अनुसार भाषा बदलती है। सिनेमा इस बदलते प्रभाव को सबसे पहले ग्रहण करता है।”(3) यहां ऐसा भी नही है कि फिल्मी लेखन को साहित्य या साहित्यकारों ने वर्जित माना हो। यदि ऐसा होता तो प्रेमचंद, भगवती चरण वर्मा, उपेंद्रनाथ अश्क, अमृतलाल नागर, फणीश्वर नाथ रेणु, सुदर्शन, पण्डित नरेंद्र शर्मा, नरेश शास्त्री, नीरज, नेपाली आदि जैसे साहित्यकार इस ओर आकर्षित ना होते। वास्तव में साहित्य ने इन माध्यमों को और सशक्त ही किया है जो कि मलयालम, बांग्ला और मराठी सिनेमा में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

इसके साथ ही उस दौर की कई पत्रिकाएँ जैसे सारिका, धर्मयुग, माधुरी आदि ने फ़िल्मी पत्रकारिता को एक सहित्यिक स्तर देने की भरपूर कोशिश की। हिंदी कमर्शियल सिनेमा और हिंदी साहित्य को विविध कला आयामों से जोड़ने व प्रस्तुत करने का कार्य भी इन पत्रिकाओं ने बखूबी किया। माधुरी के संपादक ‘अरविंद कुमार' फिल्मांकन के लिए कुछ अच्छी कृतियों की तलाश में थे इसके लिए उन्होंने एक अंतरंग गोष्ठी या समिति का भी निर्माण किया था। इस समिति में पूना फ़िल्म इंस्टीट्यूट से प्रशिक्षित लोगों के अलावा मणि कौल, कुमार साहनी, मृणाल सेन, अरुण कौल, बासु चटर्जी तथा राज मारबोस जैसे लोग शामिल थे। इन्ही गोष्ठियों के प्रयास से मृणाल सेन ने ‘बनफूल' की कहानी पर फ़िल्म बनाने की बात कही जिसका आधिकारिक नाम ‘भुवनशोम' रखा गया। यह फ़िल्म ‘न्यूवेव सिनेमा' की पहली फ़िल्म थी। इस तरह अरविंद कुमार के सक्रिय सहयोग से ‘न्यूवेव सिनेमा' की शुरुआत हुई जिसे बाद में ‘समांतर सिनेमा' का नाम भी अरविंद कुमार ने ही दिया। दरअसल न्यूवेव सिनेमा की शुरुआत भी एक मौन शपथ के साथ हुई थी। साहित्यकार, गीतकार शैलेन्द्र की साहित्यिक फिल्म ‘तीसरी कसम’ उनकी जान की कीमत पर पूरी हुई थी। शैलेंद्र के प्राणहीन शव को याद करते हुए कमलेश्वर लिखते हैं, “गीतकार शैलेंद्र का पार्थिव शरीर उस नर्सिंग होम के एक कमरे में रखा हुआ था। राजकपूर एक कोने में खड़े सिसक उठते थे। हसरत जयपुरी अर्द्धमूच्छित खड़े थे। वहीदा रहमान सर झुकाये बैठी थीं। नरगिस की आँखें आँसुओं से भरी हुई थीं और यहीं हम लोग भी एक तरफ खड़े थे- अरविंद कुमार, भारती जी, महावीर अधिकारी और मैं। बेहद भारी और पश्चाताप से भरा वातावरण था.. हम सब जैसे शैलेंद्र की मृत्यु के लिए खुद को कहीं न कहीं जिम्मेदार पा रहे थे- एक बड़ी अमूर्त-सी जिम्मेवारी का अहसास हमें सता रहा था कि अच्छी साहित्यिक फिल्म बनाने वाले का यह हश्र भविष्य में न होने पाये।”(4) कालांतर में न्यू वेव सिनेमा ने अपनी उस शपथ को पूरा किया और तमाम साहित्यिक कृतियों को एकत्रित कर एक ‘स्क्रिप्ट बैंक’ बनाया और उन पर फिल्मों की शुरुआत की।

समांतर सिनेमा ने नई ऊर्जा के साथ अर्थवान फिल्मो को जन्म दिया। यह एक आत्मसंतुष्टि के साथ कठिन आंदोलन के रूप में भी था। यह आंदोलन सिनेमा जगत में एक बड़े परिवर्तन की गुंजाइश तलाश रहा था। यह गुंजाइश विचारधारा के साथ साथ सामाजिक दर्शन के उस पक्ष से भी जुड़ी थी जो मसाला फिल्मों की चकाचौंध में धुंधले हो चुके थे। दूसरी ओर मसाला फिल्मों की दुनिया में इन्हें हिकारत से लो बजट या आर्ट फिल्मों का तमगा दिया जाता रहा। बावजूद इसके यह समांतर सिनेमा की ही देन है कि हिंदी सिनेमा में ‘लो बजट' फिल्मों का प्रचलन शुरू हुआ और ये कारगर भी रहीं। बॉक्स ऑफिस पर बड़े बजट की फिल्मों के धराशाई होने से कई निर्माता-निर्देशक कर्ज के बोझ से कभी भी उबर नहीं पाए और कई तो इस आघात से मृत्यु तक पहुंच गए। ऐसे में इन ‘लो बजट' यथार्थवादी फिल्मों की तरफ निर्माताओं का ध्यान जाना स्वाभाविक था। इन फिल्मों पर 1961 में बम्बई में स्थापित इप्टा का भी प्रभाव रहा। इप्टा की फिल्मों के केंद्र में आम आदमी और उससे जुड़ी समस्याएं आरम्भ से ही दिखाई देती हैं। उस दौर को याद करते हुए जवरीमल्ल पारख लिखते हैं- “इस दौरान जो लेखक और कलाकार प्रलेस और इप्टा से जुड़े थे, उनमें से कईयों ने सिनेमा को आजीविका का ऐसा क्षेत्र मानकर अपनाना शुरू कर दिया, जहां कुछ हद तक उनकी रचनात्मक जरूरतें भी पूरी होने की उम्मीद थी। इप्टा से जुड़े ऐसे लेखकों और कलाकारों की लम्बी सूची है, जिन्होंने फिल्मों से अपने को जोड़ लिया।”(5) आजादी बाद के सिनेमा में ख़ास तौर पर समानांतर सिनेमा के दौर में लो बजट फिल्मों के निर्माण में इसने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। व्यावसायिक सिनेमा ने इसे सार्थक पहल के रूप में स्वीकार किया। परिणामस्वरूप कुछ उम्दा और सफल फिल्मों का निर्माण हुआ जैसे ‘रजनीगंधा', ‘छोटी सी बात', ‘आक्रोश', ‘जाने भी दो यारों', ‘मासूम', ‘मिर्च मसाला', ‘एक रुक हुआ फैसला', ‘अर्द्धसत्य', ‘स्पर्श', ‘गर्म हवा', ‘बाजार', ‘साथ साथ', ‘अर्थ', ‘सलाम बॉम्बे', ‘इजाज़त', ‘नमकीन', ‘कथा' आदि। साथ ही समांतर सिनेमा ने फ़िल्म उद्योग को कई उम्दा कलाकार भी दिए जैसे ओमपुरी, नसीरुद्दीन शाह, अमोल पालेकर, गिरीश कर्नाड, पंकज कपूर, फारूख शेख, कुलभूषण खरबंदा, स्मिता पाटिल, शबाना आजमी, दीप्ति नवल इत्यादि। “आठवें दशक से ही हम पाते हैं कि सिनेमा का थोड़ा-बहुत प्रशिक्षण पाए व्यक्ति भी स्टूडियो और सेटों को सलाम करके अपने कंधे पर कैमरा लिए हजारों गांवों, बस्तियों, झोपड़ पट्टियों और दुर्गम क्षेत्रों में घूम रहे हैं। जिसे देखो, यह कह रहा था- 'एक आर्ट फिल्म बना रहा हूँ।' यह सिनेमा में एक जनतांत्रिक क्रांति थी, क्योंकि सिनेमा की इस नई धारा में बहुत अराजकता थी, लेकिन एक महत्वपूर्ण माध्यम को कुछ मुट्ठी भर लुभावने सितारों और साधन संपन्न निर्माता-निर्देशकों के कैद खाने से आजाद करना मामूली घटना नहीं थी। अब सिनेमा एक उच्च वर्गीय माध्यम से जन माध्यम बन चुका था। इससे बड़ी आशा बंधी थी कि सिनेमा आजाद हुआ है तो कोई सकारात्मक प्रभाव भी छोड़ेगा।”(6) इन्हीं लो बजट फिल्मों के दौर में ताराचंद बड़जात्या एक महत्वपूर्ण निर्माता के रूप में उभरे। मसाला फिल्मों से इतर देशी और ग्रामीण यथार्थ पर केंद्रित उनकी फिल्मों ने व्यावसायिक सिनेमा की परिभाषा ही बदल दी। बिना किसी अश्लीलता और ताम-झाम के उनकी लगभग सभी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर जबरदस्त कमाई की। उनकी फिल्मों जैसे 'पिया का घर', ‘सौदागर', ‘गीत गाता चल', ‘तपस्या', ‘चितचोर', ‘तराना', ‘सावन को आने दो', ‘नदिया के पार' आदि ने लो बजट फिल्मों का सितारा ही चमका दिया। वर्तमान समय में भी सिनेमा के भविष्य को कुछ इसी निगाह से देखने की कोशिश करते हुए अनुराग कश्यप लिखते हैं कि “नया सिनेमा छोटे-छोटे गांव मोहल्ले से आएगा।”(7)

इन सब के बावजूद यह भी एक कटु सत्य है कि कुछ ही वर्षों में स्थापित होने के बाद ज्यादातर कलाकार और फिल्मकार समांतर सिनेमा या लो बजट सिनेमा से किनारा करने लगते थे। इसका सबसे प्रमुख कारण था समांतर सिनेमा की आर्थिक विपन्नता। लो बजट के नाम पर मेहनताना भी नाम मात्र का ही था। ज्यादातर जोड़ तोड़ से पैसा इकट्ठा होता था लेकिन वापसी न के बराबर होती थी। समांतर सिनेमा के सिनेमाघरों की उपलब्धता भी सीमित थी उन्हें ज्यादातर सुबह के शो ही मिलते थे। बाकी शो व्यावसायिक फिल्मों के लिये रखे जाते। कुल मिलाकर ऐसी गंभीर और संजीदा कहानियों के लिए उचित दर्शक नहीं मिल पाते थे। इन परिस्थितियों को कथाकार कमलेश्वर ने अपने फिल्मी लेखन के दौरान खुद महसूस किया था। दर्शकों की कमी और वित्तीय समस्या को उन्होंने नजदीक से जाना समझा था। इसे स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि “ऐसा नहीं था कि दर्शक सिनेमा में बदलाव नहीं चाहता था, पर यह यथार्थवाद या कलावाद के नाम पर अपने दुखों और सन्तोषों को दुबारा नहीं सहना चाहता था। कलावादी और यथार्थवादी समांतर सिनेमा के दर्शक थे भी, पर वे फिल्में इन तक पहुंच नहीं पाती थीं, क्योंकि प्रदर्शन का कोई ऐसा सर्किट नहीं था, जो इन फिल्मों को उन तक पहुंचा सके। इसलिए ऐसी फिल्में सार्थक होते हुए भी निरर्थक हो जाती थीं, उनके दो चार उत्सवधर्मी शो हो जाते थे, पर वे लागत का पैसा वापस नहीं ला पाती थीं। यह सच है कि समांतर सिनेमा के लिए स्क्रिप्ट लिखने में रचनात्मक संतोष मिलता था, पर बाद में निर्माता-निर्देशक की आर्थिक दुर्गति देखकर यह संतोष, क्षोभ और अवसाद में बदल जाता था।”(8) कहने का अर्थ है कि एक नए यथार्थवादी आंदोलन का दम लगातार घुट रहा था। मसाला फिल्मों की दुनिया में ‘लो बजट' फिल्में कारगर होने के बावजूद अपने अस्तित्व की लड़ाई में उस मकाम को हासिल नहीं कर पाईं जिसकी उन्हें दरकार थी।

मसाला से लेकर यथार्थवादी सिनेमा तक या सिनेमा के किसी भी प्रारूप की बात हो, इसके एक पहलू को कतई नजरन्दाज नहीं किया जा सकता। हिंदी सिनेमा के बनने और प्रदर्शन के बीच सबसे मुश्किल और महत्वपूर्ण कोई चीज है तो वो है ‘सेंसर बोर्ड'। केंद्रीय सेंसर बोर्ड का भी अपना संसार है। बोर्ड के सदस्य बनने के लिए राजनीति से लेकर सिफारिशी बाजार के सारे हथकंडे अपनाये जाते हैं। बोर्ड की एग्जामिनिंग कमेटी और रिवाइजिंग कमेटी में शामिल होने के लिए तो दोस्ताना सिफारिशें जरूरी अर्हता सी मानी जाती रही हैं। बतौर सेंसर बोर्ड सदस्य कमलेश्वर ने भी इस बात का जिक्र किया है कि “केंद्रीय सेंसर बोर्ड एक अजीब जगह थी। उसमें कितना भ्रष्टाचार था वह मुझे अंदर पहुंचने पर ही पता चला और यहीं यह कह देना भी जरूरी है कि मामूली और मध्यम स्तर के निर्माताओं की बिसात ही क्या- राजकपूर, विजयआनंद, नासिर हुसैन, देवानंद, मल्लिकार्जुन राव जैसे पचासों प्रख्यात और प्रतिष्ठित निर्माता-निर्देशक इस भ्रष्टाचार के शिकार रहे हैं। सेंसर के लिए आई फिल्में कैसे फँसाई जाती थीं...यह एक निहायत ‘कलात्मक' कहानी है। बावजूद इसके सेंसर की जरूरत को भी नकारा नहीं जा सकता।”(9)

सेंसर की कैंची कोई नैतिकता का औजार नहीं है फिर भी एक सभ्य समाज के मानदंडों को बनाये रखने में इसकी एक मत्वपूर्ण भूमिका रही है। प्रत्येक समाज के कुछ सामूहिक दायरे होते हैं जिन्हें समाज खुद तय करता है। इसके इर्द-गिर्द वह अपनी आस्था, रहन- सहन, जीवन निर्वाह और मनोरंजन के साधनों का निर्माण करता है। इसके साथ ही वर्जनाएं भी तय होती हैं। हिंसा, वीभत्सता, अमानवीयता, नग्नता किसी भी स्वस्थ मस्तिष्क के मनोरंजन का हिस्सा नही हो सकते। ये वर्जनाएं लगभग सभी समाजों में मौजूद हैं। यह देखा गया है कि कहानी की मांग का बहाना बनाकर निर्माता-निर्देशक ऐसे दृश्यों को पेश करते रहे हैं। उत्तेजित करने वाले ये दृश्य सिनेमा के खिड़की तोड़ या हिट पॉइंट्स माने जाते हैं। मसाला सिनेमा में सेक्स और हिंसा के ऐसे दृश्यों का सेंसर सबसे मुश्किल काम रहा है। दूसरी तरफ “कला-फिल्मों के ताजातरीन जागरूक कलाकार भी अपनी प्रतिबद्धता भूल कर किस तरह बाजार के सुनहली तोंद में घुस गए, यह किसी से छिपा नहीं है। इस क्षेत्र में पैसा और यश किसी को भी भ्रष्ट कर देते हैं। पहले ‘सुषमा', ‘माधुरी' जैसी फिल्मी पत्रिकाओं में कभी-कभार सार्थक बहसें भी होती थीं। उनमें विश्लेषण होता था। इधर की ‘स्टारडस्ट', ‘फिल्मी दुनिया', ‘मायापुरी' आदि पत्रिकाएँ यौन उत्तेजना पैदा करने वाले चित्र और फिल्मी हस्तियों के निजी जीवन के सच्चे झूठे किस्से छापने में ही डूबी हुई हैं। ये रंगीन कचरा है। सिनेमा की दुनिया में सार्थक बहस का अभाव भी सिनेमा के अंत की मुख्य वजह बन रहा है।”(10)

70' से 90' के दशकों की बात करें तो फिल्मों में अमूमन बलात्कार का एक दृश्य जरूरी सा हो गया था। पहले पहल ऐसे दृश्य हीरो की बहन या किसी साइड एक्ट्रेस पे फिल्माए जाते थे, बाद में मशहूर हीरोइनें और प्रसिद्ध खलनायक भी ऐसे दृश्यों में काफ़ी सक्रियता से दिखाई पड़ने लगे। कई बार ऐसा भी देखने में आया कि जिस सीन को हेरोइन ने किया ही नहीं था, वह बॉडी डबल के साथ बड़े ही सनसनी और विकृत रूप में फ़िल्म में मौजूद है। कुछ ऐसा ही वाकया ‘जीनत अमान' के साथ भी पेश आया। उनकी एक फ़िल्म सेंसर के लिए आई। बतौर सेंसर बोर्ड सदस्य ‘कमलेश्वर' इसे बयाँ करते हैं कि “जीनत अमान की बलात्कार वाली उस फिल्म में वह सब कुछ था जो निर्माता और निर्देशक अंतिम छोर तक दिखा सकता था, जिसमें प्रतिवाद की चीख़-पुकारों के साथ-साथ ही सेक्स सुख की मंद कराहों और चटखारों की आवाजें भी मिश्रित थीं।..मुझे जीनत अमान के इस दृश्य को देखकर धक्का और झटका भी लगा था कि उन जैसी मशहूर हीरोइन ने यह दृश्य देना कैसे स्वीकार किया। तभी जीनत अमान का एक बयान अखबारों में आ गया का कि अमुक फ़िल्म में बलात्कार वाला वह दृश्य उन्होंने उस रूप में नहीं दिया है, जिस रूप में वह तथाकथित फ़िल्म में मौजूद है।”(11) दरअसल बहुत ही संक्षिप्त और मात्र प्रतीकात्मक रूप में दिया जाने वाला वह दृश्य निर्देशक की प्रतिभा के चलते फ़िल्म में लगभग साढ़े तीन मिनट तक फैला हुआ था। होता यह है कि ऐसे दृश्यों के लिए एक्स्ट्रा एक्ट्रेसेस जो औसत दर्जे से कुछ बेहतर होती हैं, इंडस्ट्री में आसानी से मिल जाती हैं। फिल्मी दुनिया की तेज रफ्तार जिंदगी में दूर तक निकल चुकी इन लड़कियों के लिए घर लौटना नामुमकिन सा हो जाता है। ऐसी लड़कियों का उपयोग इंडस्ट्री में अक्सर ‘हनी ट्रैप' के रूप में भी किया जाता है। कई प्रख्यात निर्माता- निर्देशक इस ट्रैप का शिकार होकर अर्श से फर्श तक पहुंच गए। इसके लिये फिल्मी दुनिया मे बाकायदा गिरोह चलते हैं जो साजिशन ऐसे मशहूर कलाकारों को फंसाने या उनसे व्यावसायिक बदला लेने की सुपारी तक लेते हैं। कुछ ऐसा ही वाकया प्रख्यात कथाकार व फ़िल्म निर्देशक राजेन्द्र सिंह बेदी के साथ गुजरा। सुमन नाम की लड़की के चक्कर में बेदी साहब अपनी तमाम भौतिक और मानसिक संपत्ति से हाथ धो बैठे। सुमन ने उनकी स्थिति एक कठपुतली की तरह कर दी थी। जिसकी वजह से वे कई बार उसी के हाथों बेज्जत हुए और लगभग विक्षिप्त अवस्था में पहुंच गए। फिल्मी दुनिया मे ऐसी साजिशों और घटनाओं की कमी नहीं है। “फिल्मी दुनिया के बेताज बादशाह, सिल्वर किंग चंदूलाल शाह भी लगभग ऐसी ही दुर्दशा से गुजरे थे। करोड़ों की संपत्ति के मालिक, 150 फिल्मों के निर्माता चंदूलाल शाह की सारी दौलत भी ‘दूसरी औरत' ने लूटी थी। उनके तकिये के नीचे प्रेमनाथ पांच सौ- हजार रुपये रख आते थे और जो कभी कीमती कार के अलावा किसी वाहन पर चलते नहीं थे, बम्बई की एक बस में सफर करते हुए उन्होंने अंतिम साँस ली।”(12) सिनेमा के पीछे की यह एक वीभत्स तस्वीर है जो पर्दे पे तो नहीं आई लेकिन फिल्मी दुनिया इससे बखूबी रुबरू है।

निष्कर्ष : अपने लंबे सफर में हिंदी सिनेमा का पर्दा श्वेत-श्याम से रंगीन हो गया लेकिन पर्दे के पीछे कई स्याह धब्बे छोड़ गया। जोड़-तोड़ और साजिशों के पैबंद से जड़े ये धब्बे सिनेमा के भीतर एक नए सिनेमा की स्क्रिप्ट से लगते हैं, जिसमे घात-प्रतिघात, नाम, पैसा और क्षणिक उपलब्धि का खुला दौर चलता है। पार्टियों में शराब और स्पर्शों से बनने वाले रिश्ते भी खुमारी उतरने तक के होते हैं। रोज- रोज बनने वाले इन रिश्तों की बुनियाद पार्टी की हद तक ही होती है। एक अघोषित तथ्य की तरह यह सभी कुछ पर्दे के पीछे की सिनेमाई हकीकत है। जिसे जानते तो सभी हैं लेकिन प्रदर्शित नहीं कर सकते। दरअसल लगाव से लॉबिंग तक के इस सफर में सिनेमा ने बाहरी रंगीनियत तो पाई लेकिन ‘लगाव' का वह रुपहला पर्दा सिनेमा के भीतर ही कहीं गुम सा होकर रह गया।

संदर्भ :
1 कमलेश्वर, यादों के चिराग, 1997, राजपाल एंड संस, दिल्ली, पृ. 95 
2 सामाजिक अंकुश की जरूरत, सत्यवती देवी, बहुरंग सिनेमा, संपा. आलोक पांडेय, 2019, मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद, पृ. 154 
3 सत्यकेतु सांकृत, हिंदी सिनेमा: भाषा, समाज और संस्कृति, बहुरंग सिनेमा, संपा. आलोक पांडेय, 2019, मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद, पृ. 19
4 कमलेश्वर, यादों के चिराग, 1997, राजपाल एंड संस, दिल्ली, पृ. 64
5 ईप्टा की यादें, जवारीमल पारेख, संपा. राजेंद्र शर्मा, पृ. 98 
6 डा. मुकुल श्रीवास्तव, सार्थक बहस की जरूरत, बहुरंग सिनेमा, संपा. आलोक पांडेय, 2019, मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद, पृ. 121 
7 अनुराग कश्यप, नया सिनेमा छोटे-छोटे गांव मोहल्ले से आएगा, हंस, फरवरी, 2013, पृ. 30
8 कमलेश्वर, यादों के चिराग, 1997, राजपाल एंड संस, दिल्ली, पृ. 107
9 उपरिवत, पृ. 67 
10 डा. मुकुल श्रीवास्तव, सार्थक बहस की जरूरत, बहुरंग सिनेमा, संपा. आलोक पांडेय, 2019, मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद, पृ.125
11 कमलेश्वर, यादों के चिराग, 1997, राजपाल एंड संस, दिल्ली, पृ. 69 
12 उपरिवत, पृ. 72

अनंत विजय पालीवाल
सहायक प्राध्यापक, हिंदी, डा. बी.आर अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली, लोथियन रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
avpaliwal25@gmail.com, 9899657399, 7982058044

सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

Post a Comment

और नया पुराने