बनारसी लोक साहित्य में ब्रिटिश राज के विरुद्ध जनसंघर्ष की परंपरा
- भारती
बीज शब्द : बनारस, चेतसिंह, लोकनायक, ब्रिटिश सरकार, हिंदी साहित्य, गुण्डा, जमींदार, रक्षक, श्रमिक, प्रदर्शन
मूल आलेख : बनारस आधुनिक हिंदी साहित्य का प्रमुख केंद्र रहा है। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में रूमानीवाद पर आधारित हिंदी साहित्य ने धार्मिक आदर्श, देव पूज्य परंपरा और काल्पनिक फंतासियों के आख्यानों से बाहर आकर यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना प्रारंभ कर दिया था। प्रारंभिक 20वीं शताब्दी में हिंदी साहित्य में समाज का ‘यथार्थवादी’ चित्रण प्रस्तुत करने पर अधिक बल दिया गया जिसमें वर्ग-व्यवहार मुख्य तत्व था। सर्वप्रथम भारतेंदु हरिश्चंद्र की साहित्यिक मंडली ने औपनिवेशिक शोषण के विरुद्ध भारतीय जनमानस को एकसूत्र में बाँधने के लिए भारत की पुरातन गौरवशाली संस्कृति को कथा-साहित्य का आधार बनाया था। इसी कड़ी में आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘गुण्डा वर्ग’ पर जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘गुण्डा’, तेग़ अली कृत ‘बदमाश दर्पण’ (भोजपुरी), प्रेमचंद के संपादन में ‘हंस’ पत्रिका अंक 1933, पुरातत्विद मोतीचंद के ऐतिहासिक शोध ‘काशी का इतिहास’, शिवप्रसाद मिश्र ‘रूद्र’ कृत उपन्यास ‘बहती गंगा’, सांवलजी नागर की रचना ‘काशी की कुछ ऐतिहासिक घटनाएँ’ और विश्वनाथ मुखर्जी कृत ‘बना रहे बनारस’ आदि सर्वश्रेष्ठ आधुनिक क्लासिक रचनाएँ लिखी गईं। इन रचनाओं में गुण्डे, वीर और बांके प्रवृति के लोकनायकों के नेतृत्व में आम लोगों और ब्रिटिश सरकार के बीच आंतरिक संघर्ष प्रस्तुत हुआ। इन विद्वानों ने एकमत से बनारस में ‘नायक रूपी’ गुण्डों का उदय 1781 में गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के द्वारा बनारस के राजा चेतसिंह पर कुशासन का आरोप लगाकर उन्हें बंदी बनाने के ऐतिहासिक प्रकरण से माना है। ध्यान रहे कि अंतिम 18वीं शताब्दी में चेतसिंह को सत्ता से बेदखल कर सारी सर्वोच्च शक्तियाँ ईस्ट इण्डिया कंपनी ने प्राप्त कर ली थी। परिणामस्वरूप बनारस में चेतसिंह को बंदी बनाने से रोकने के लिए उनके लड़ाकू समर्थकों और कंपनी फौजों के बीच सशस्त्र संघर्ष हुआ था। चेतसिंह अपने समर्थकों द्वारा गंगा पार करने में सफल रहे लेकिन कंपनी फौजों ने उनके समर्थकों का निर्दयता से दमन कर बनारस का नया राजा महीपनारायण को बना दिया था।1 प्रसाद ने ‘गुण्डा’ कहानी और प्रेमचंद ने ‘हंस पत्रिका’ के एक कथा भाग में लोक स्मृतियों के आधार पर इस ऐतिहासिक घटना का एक अलग परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत किया। प्रसाद लिखते हैं कि:- “अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दौर में जब न्याय और बुद्धि, बाहुबल के सामने परास्त हो रहे थे तो उस समय एक नये समुदाय का भी उदय हो रहा था, जिन्हें ‘गुण्डा’ कहा जाता था। ये लोग साधारण-जन को आतंकित करने वाले शोहदे नहीं थे, बल्कि ऐसे वीर पुरुष थे जो दलित-दमित शोषित जन को अन्याय, अत्याचार और दमन से मुक्त करते थे। जमींदार बाबु निरंजन सिंह का पुत्र नन्हकू सिंह इनमें से एक था। जब उसे वेश्या पुत्री दुलारी के माध्यम से पता चला कि राजमाता पन्ना अपने पुत्र चेतसिंह के साथ बंदी थी तो उसने अपने प्राण हथेली पर लेकर उनकों मुक्त करवाया।”2
प्रसाद ने कहानी के अंत में चेतसिंह के प्रति नन्हकू सिंह की वफ़ादारी का उल्लेख इस प्रकार किया:-“कोतवाली के सामने फिर सन्नाटा हो गया। नन्हकू उन्मत्त था। उसके थोड़े से साथी उसकी आज्ञा पर जान देने के लिए तुले थे। वह नहीं जानता था कि राजा चेतसिंह का राजनीतिक अपराध क्या था। उसने चेतराम चौबेदार और कुबरा मौलवी को राजा के साथ विश्वासघात करने के कारण मार दिया और ललकार कर चेतसिंह से कहा “आप क्या देखते है? उतरिये डोंगी पर।” उसके घावों से रक्त के फुहारे छुट रहे थे। उधर फाटक से तिलंगे भीतर आने लगे थे। चेत सिंह ने खिड़की से उतरते हुए देखा कि बीसों तिलंगों की संगीनों में वह अविचिलित होकर तलवार चला रहा है। नन्हकू के चट्टान-सदृश शरीर से गैरिक की तरह रक्त की धारा बह रही है। गुण्डे का एक-एक अंग वहीं कटकर गिरने लगा। वह काशी का गुण्डा था।”3
‘लोकनायक रूपी’ गुण्डों के इस प्रकार के विवरण बनारस की राजनीति में आगे भी प्राप्त होते हैं क्योंकि चेतसिंह प्रकरण के पश्चात कंपनी सरकार के सीधे नियंत्रण में बनारस की व्यवस्था में कुछ सुधार अवश्य हुए लेकिन लोग सरकार के निरंकुश शासन से असंतुष्ट रहे। 1795 में बनारस में रेज़ीडेंट जोनथन डंकन की सेवानिवृत्ति के पश्चात नए अंग्रेज अधिकारियों की कराधान और भू-राजस्व की अनुचित मांगों ने लोगों में असंतोष की भावना को और बढ़ा दिया था। इसी समय 1797 में आसफउद्दौला की मृत्यु के पश्चात अंग्रेजों ने वजीर अली को अवध का नाममात्र का नवाब बनाया। लेकिन वजीर अली स्वतंत्र नवाब की तरह रहते थे। परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने राजनीतिक दंड के रूप में उन्हें 1798 में अपदस्थ कर बनारस भेज दिया। वजीर अली ने इस कार्रवाई का बदला लेने के लिए अवसर पाते ही बनारस के तत्कालीन मजिस्ट्रेट डेविस पर हमला कर दिया जिससे शहर में बगावत फैल गई। इस बगावत में बनारस के कई प्रमुख निवासियों, जमींदारों और गुण्डों ने वजीर अली का साथ दिया था।4 जे.एफ.डेविस ने अपने संस्मरण ‘वजीर अली खां एंड मेसाकर ऑफ़ बनारस’ में इस घटना का वर्णन किया है:-“वजीर अली का साथ देने में सम्भवतः जगत सिंह, भवानी शंकर, शिवदेव सिंह और शिवनाथ सिंह का हाथ था। जैसे ही वजीर अली के भागने का पता चला, उनकी गतिविधियों पर नजर रखी जाने लगी। जगत सिंह का घर जगतगंज में था पर अन्य तीन, बनारस से 14 मील दूर पिंडरा में रहते थे। भवानी शंकर और शिवदेव चुनार के छोटे से किले के पास चितईपुर के रहने वाले थे। ये योजना बनायी गई कि इन सभी को एक-दुसरे से मिलने से पहले कैद कर लिया जाये ताकि कोई भाग कर एक-दुसरे से मिल नहीं पाए। पिंडरा के साथ अन्य दोनों किलों पर कब्जा करना जरूरी हो गया था क्योंकि वे उनकी पुश्तैनी भूमि और उनके मालिकों के पुराने अनुचरों के निवास स्थान थे। बाबु शिवनाथ का अंत दुःखद रहा। उन्होंने बन्दूकों और दुसरे हथियारों सहित अपने पांच आदमियों के साथ खुद को एक छोटे से कमरे में बंद कर लिया था। उन्होंने खुद मरने से पहले फौज के बहुत से सिपाहियों को मार डाला था। उनके वर्ग का प्रसिद्ध ‘बांका’ नाम उनके द्वारा तलवार की तरह के बांके शस्त्र चलाने की दक्षता के कारण पड़ा था। जगत सिंह और भवानी शंकर को मौत की सजा दी गयी। जगत सिंह को काले पानी की सजा के लिए भेज दिया गया।”5
यद्यपि डेविस शिवनाथ सिंह और उनके गुण्डे साथियों की बहादुरी का प्रशंसक था लेकिन डेविस अपने उपनिवेशी दृष्टिकोण के कारण उन्हें उपद्रवी ही समझता था। मोतीचंद के अनुसार ‘तलवारबाज शिवनाथ सिंह और बहादुर सिंह मित्र थे जिनका बनारस में एक अखाड़ा था। लोग इनकी लड़ाकू बाँकी प्रवृत्ति से डरते थे। कंपनी अधिकारियों ने वजीर अली की बगावत का समर्थन करने से रोकने के लिए कोतवाल मिर्जा पांचू को उनसे सुलह के लिए भेजा था। लेकिन जब कोई सुलह नही हुई तो उन्हें गिरफ्तारी करने के लिए भेजी गई पल्टन से लड़ते-लड़ते दोनों वीरगति को प्राप्त हुए।
बनारस के जीवन में भूमिहार, जमींदार और विभिन्न उप-शाखाओं में विभाजित ब्राह्मण जातियों और मुस्लिम धर्म की व्यावसायिक जातियों की विशेष भूमिका थी। इतने सारे जाति-धर्मों की साझी धार्मिक-आध्यात्मिक संस्कृति के प्रतीक बनारस शहर में लोगों का अपने अधिकारों और कर्तव्यों के निर्वाह की उधेड़बुन में आपसी मतभेदों का उठाना स्वभाविक था। 1809 में शहर में ज्ञानवापी मस्जिद और विश्वनाथ मंदिर के बीच के भू-भाग पर अधिकार के लिए जुलाह मुसलमानों और राजपूतों, गोंसाईयों के बीच भड़के सांप्रदायिक दंगे तथा 1810 में नया हाउस टैक्स लगाने के विरुद्ध बनारस में जगह-जगह सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन हुए थे।6 1852 में भी बनारस में नाटी इमली में जेल के कैदियों के खाने में मिलावट की अफवाह ने, हिंदू-मुस्लिम समुदायों के छिटपुट मतभेद और सांडों को हौद में बंद करने से नागर ब्राह्मणों के पशु व्यापार के नुकसान के विभिन्न कारणों से कंपनी अधिकारियों के विरुद्ध बड़ा बलवा भड़क गया था। स्थानीय मजिस्ट्रेट मि.गबिंस और कोतवाल ने असंतुष्ट भीड़ और उनके अगुवाओं के आक्रोश को शांत कराने का प्रयास किया तो लोगों ने दोनों पर हमला कर दिया। फलस्वरूप गबिंस ने इस नागरिक उपद्रव को रोकने के लिए फ़ौज बुलवाकर शहर की नाकाबंदी कर डाली। हजारों लोगों की क्रोधित भीड़ को शहर के प्रसिद्ध महाजनों और बनारस के राजा के हस्तक्षेप के पश्चात शांत कराया गया। सरकार ने बलवा फैलाने के उत्तरदायी नागर समुदाय और अन्य उपद्रवी वर्गों को कारावास का दंड दिया।7
शिवप्रसाद मिश्र ने ”बहती गंगा” में नई व्यवस्था के कुटिल नियमों को तोड़ने वाले नागरों के एक नेता दाताराम नागर का वर्णन इस प्रकार किया है:-“अलईपुर में, छूतहा अस्पताल के पास ऐतरनी-बैतरनी तीर्थ के बगीचे में भंगड़ भिक्षुक का कुआँ था। वहीं नागर का अखाड़ा भी था। वहाँ फिरंगियों तथा उनके सहायकों को क्षति पहुचाने की योजनाएँ बनाई जातीं थी। बनारस में शम्भुराम पंडित, बेनीराम पंडित, मौलवी अलाऊद्दीन, कुबरा, मुंशी फैयाज अली तथा मिर्जापुर में अंग्रेजों की ओर से ठेकेदार मिसिर अंग्रेजों के प्रमुख सहायक थे। कुबरा मौलवी चेतसिंह के पलायन के समय नन्हकू सिंह द्वारा मारा जा चुका था। बेनीराम और शम्भुराम, गुण्डों के भय-वश घर के बाहर कम निकलते। मुंशी फैयाज अली बनारस के नायब और मिसिर मिर्जापुर में रहने के कारण अपने को खतरे से बाहर समझते थे। मिर्जापुर में ही उसे खबर मिली कि बनारस के नायब फैयाज अली इस बार फिर मुहर्रमी जुलुस के दुलदुल घोड़े को ठठेरी बाजार की ओर से निकलवाने की कोशिश कर रहे थे। कंपनी का राज होने के पश्चात् गत दो वर्ष से फैयाज अली मुहर्रम के जुलुस के लिए नया रास्ता निकाल रहे थे। इस बार उसने सुना कि वह जुलुस के साथ पल्टन भी भेजने वाला था। नागर का रक्त उबल पड़ा। वह मिर्जापुर से सीधे बनारस आया और सुन्ड़िया होते हुए ठठेरी बाजार में उस समय पँहुचा जब दुलदुल का घोड़ा उसके ठीक सामने से ही जा रहा था। उसने घोड़े पर वार किया और पल्टन भी नागर पर टूट पड़ी। गोरों की संगीनों और तिलंगों की तलवारों से नागर के खांडे की लड़ाई थी। तिलंगों की सेना ने उसे घेरकर गिरफ्तार कर लिया। दाताराम नागर को बीस वर्ष कालेपानी-निवास की सज़ा सुनाई गयी, तो उनके बहादुर संगी-साथी और चेले-चपाटे रो पड़े।”8
एक प्रकार से बनारस के ऐतिहासिक बाज़ारों की सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान भी रही थी जिसे यह वर्ग बचाने की कोशिश कर रहा था।“9 यह भी ध्यान रहे कि ‘गुण्डा’ कहानी 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में ऐसे समय रची गई जब ब्रिटिश सरकार के शोषण से जनसाधारण को जागरूक करने के लिए हिंदी साहित्यकारों ने भारतीय संस्कृति के गौरवशाली अतीत का पुर्नलेखन प्रारंभ किया। भवानी शंकर, शिवदेव सिंह और शिवनाथ सिंह का वर्णन ऐसे लोकनायकों के रूप में किया गया जिन्होंने अपने देसी पराक्रम से सैंकड़ों कंपनी फौजों का निडरता से सामना किया था। वहीं इन कथाओं में दाताराम नागर को साझे सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करने वाले ऐसे लोकनायक के रूप में प्रस्तुत किया गया जो सरकार के देसी हुक्मबाज़ों की धार्मिक मतभेदों को बढ़ाने वाली चालबाजियों का पुरजोर विरोध करते थे।
इस प्रकार बनारस के ‘लोकनायक रूपी’ गुण्डा वर्ग के जन संघर्ष की पृष्ठभूमि काल्पनिक नही थी, इसका सीधा संबंध बनारस के बदलते प्रशासनिक ढाँचे से भी जुड़ा था। 1795 में यूरोपियन विचारों पर आधारित नए प्रशासनिक ढाँचे की शुरुआत हुई जिसमें केंद्रीय एवं स्थानीय व्यवस्था के वंशानुगत अधिकारियों में काज़ी, कोतवाल, अमील और पटवारियों की पारंपरिक शक्तियों में कटौतियां की जाने लगी। मध्य 19वीं शताब्दी तक भू-व्यवस्था में स्थायी बंदोबस्त में आए कु-परिणाम से राजस्व भुगतान में देरी करने वाले बनारस के कुल-गोत्र परंपरा के प्रतीक स्थानीय जमींदारों की 40% भूमि सरकारी नीलामी के पश्चात नये अधिकारियों और नये भू-सौदागरों के हाथों में आ गई थीं। इन नए गैर-निवासी प्रबंधकों के लिए भूमि केवल एक वस्तु के रूप में आमदनी का स्रोत थी। भूमि की इस सामाजिक प्रतिष्ठा में गिरावट से भूमिहार तथा राजपूत जमींदारों का वंशानुगत वर्चस्व घटता गया। बनारस में अनिश्चितता के इस संकट ने शहरी-ग्रामीण व्यवस्था के आंतरिक निकायों को भी बुरी तरह प्रभावित किया था10 क्योंकि नन्हकू सिंह, भवानी शंकर, शिवदेव सिंह, शिवनाथ सिंह, बहादुर सिंह आदि भी जमींदार ही थे, संभवत: उनका आक्रोश जमींदारी अधिकारों में सरकारी हस्तक्षेप के परिणामों से भी उपजा होगा। क्योंकि बनारस इस समय व्यवसायिक और व्यापारिक गतिविधियों का परिवर्तनशील केंद्र था।11
सेंड्रिया बी.फ्रिटाग के अनुसार “प्रारंभिक 19वीं शताब्दी में बनारस में जनसमूह का सार्वजनिक स्थानों पर सरकार की मनमानियों का विरोध करना भीड़ की निशानी नही था। लेकिन सार्वजनिक और धार्मिक विवादों की रोकथाम में असफल अंग्रेजों ने धीरे-धीरे इन विरोधों को हुडदंगी भीड़ से जुड़े ऐसे प्रदर्शनों के रूप में दर्ज किया जो सभ्य नागरिकों की शांति के लिए खतरा थीं।”12 अंतिम 19वीं शताब्दी में बनारस में सार्वजनिक प्रदर्शन की परंपरा लिखित प्रार्थना-पत्र याचिका का स्थान ले चुकी थी। यद्यपि भाषाई स्तर पर अंतिम 19वीं शताब्दी तक अधिकारिक तौर पर हिंदी तथा अंग्रेजी भाषा में ‘गुण्डा’ शब्द का पर्यायवाची अर्थ ‘बदमाश’ नही था। तमिल में भी ‘गुण्डा’ शब्द शक्तिशाली प्रधान नेता और मराठी में ‘गाँव-गुंड’ ग्राम नायक के रूप में दर्ज था। हिंदी में भी ‘गुण्डा’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘गुंड्’शब्द से हुई जिसका अर्थ आच्छादित या रक्षा करना होता है। लेकिन ‘गुण्डा एंव गुंड’ की शाब्दिक अर्थावनति दो कारणों से हुई। पहला, गुण्डों की बढ़ती अशिष्ट, उदंड और अहंकारी वृत्ति ने उन्हें ‘खलनायक’ बना दिया। दूसरा, हिंदी-ईरानी परिवार की पश्तो भाषा में गुण्डे का अर्थ ‘बदमाश’ था जिसके सीधा प्रभाव में उर्दू और फारसी में गुण्डे का शाब्दिक अर्थ ‘बदमाश’ हो गया।13
भारतेंदु साहित्यिक मंडली के सदस्य तेग़ अली ने भोजपुरी भाषा में 1895 में “बदमाश दर्पण” बिरहा संगीत आधारित नामक गजल दीवान लिखा था। सम्भवतः उस समय तक भी गुण्डे का शाब्दिक अर्थ सरकारी रिपोर्ट्स में ‘बदमाश’ नही था क्योंकि ब्रिटिश सरकार द्वारा ज़ारी देसी भाषाओं की साहित्यिक सूची में ‘बदमाश दर्पण’ का नाम भी शामिल था।14 ‘बदमाश-दर्पण’ ऐसे बदमाश के जीवन-चरित्र को प्रस्तुत करता है जो अवैध तरीकों से महाजनों से धन वसूलने वाला लड़ाकू गुण्डा था लेकिन अपराधी नही था।15 लेकिन 1898 के पश्चात अचानक ही भारत और इंग्लैंड में ‘गुण्डा’ शब्द का समानांतर अर्थ ‘हूलिगन’ लिखा गया। क्योंकि सरकारी रिपोर्ट में गुण्डों को हुडदंगबाज युवाओं के रूप में दर्ज करने से उन पर कारवाई करना आसान हो गया जिससे 1923 के कलकत्ता गुण्डा एक्ट के अंतर्गत ‘गुण्डा’ वर्ग की ऐसी विकृत छवि गढ़ी गई जो योग्य नागरिक-समुदाय नही थे।16 1930 के दशक में संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में कुछ खेतिहर जातियां जब नो-रेंट-कैम्पेन के अंतर्गत सरकार को किराया देने के विरोध में प्रदर्शन कर रहीं थीं। परिणामस्वरूप सरकार ने इनके प्रदर्शन को रोकने के लिए उनके नेताओं पर गुण्डा एक्ट लगा दिया।17
निष्कर्ष : 1930 के दशक में संयुक्त प्रांत और उसके पश्चात 1932 में गुण्डा एक्ट पुरे भारत में लागु किया गया। कानपुर जैसे बड़े औद्योगिक शहर के श्रमिक संगठनों के अधिकारों के समर्थक कांग्रेस पार्टी के स्थानीय अनुयायियों को श्रमिक हड़ताल करवाने के कारण सरकार ने नकारात्मक संदर्भ में गुण्डा’ बना दिया क्योंकि ब्रिटिश सरकार इनको मातृभूमि के रक्षक लोक नेताओं की तरह सहानुभूति लेने वाले अवसरवादी समूह मानती थी। फिर भी मध्य 20वीं शताब्दी तक बनारस में गुण्डा एक्ट के अंतर्गत स्थानीय गुण्डों पर कारवाई के अधिकारिक दस्तावेज नही मिलते। सम्भवतः इसका कारण गुण्डा एक्ट से बचने के लिए स्थानीय गुण्डों ने अपने पारंपरिक स्वरूप को बदल लिया था जिससे बनारस में गुंडई पेशा लोक संस्कृति में लोकनायकों की वीरता का मिथक बनकर रह गया। यद्यपि लोक-साहित्य की विभिन्न धाराओं में इनका ऐतिहासिक संस्मरण जीवित रहा जिसके भाषाई और राष्ट्रवादी स्वरूप को आज हम देखते हैं।
संदर्भ :
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- वही.
- मोतीचंद, काशी का इतिहास, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 1962, पृ.331-334.
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- देखें, आर्काइव्ज.ओ.आर.जी.बदमाश दर्पण,1906, से सम्बन्धित लिंक.
- तेग अली, बदमाश-दर्पण, 1895, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणासी, प्रथम संस्करण 2001, पृ.12
- सुरंजन दास, दी गुण्डाज़:टुवर्ड्स द रिकंस्ट्रक्शन ऑफ दी केलकटा अंडरवर्ल्ड थ्रू पुलिस रिकार्ड्स, इकॉनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली, वोल्यूम.XXIX, नं.44, 1994, पृ.2881.
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भारती
पीएचडी एवं गेस्ट फैकल्टी, इतिहास विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
bhanu782@gmail.com, 8744905809, 8595353470,
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन : कुंतल भारद्वाज(जयपुर)
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