ताराबाई शिंदे और नारी मुक्ति : भारत में स्त्रीवाद
- अमित कुमार प्रधान एवं रश्मि राय

बीज शब्द : नारीवाद, स्त्री अधिकार, पुरुष प्रधानता, असमानता, लैंगिकता, विमर्श, विधवा।
मूल आलेख : आखिरकार कैसे करें हम संघर्ष की परिकल्पना, जहाँ विमर्श का आंदोलन शामिल न हो। भारत वर्ष की शस्यश्यामला भूमि अनगिनत राजनीतिक आर्थिक और धार्मिक क्रांतियों की ध्वजवाहक रही है। क्या भारतवर्ष में नारीवादी स्वर थे? क्या वह स्वर यूरोप में उठने वाले स्वरों से संवाद रखते थे; अगर नहीं, तो भारतीय नारीवाद को कैसे समझा जाए? इस लघु कलेवर लेख में नारीवाद के विषय में कुछ टिप्पणियाँ हैं और विशेषकर ताराबाई शिंदे के विचारों की समीक्षा है।
नारीवाद : नारीवाद क्या है? यह एक दुरूह प्रश्न है, क्योंकि नारीवाद विविधता का उत्सव है। जितने प्रकार के नारीवादी हैं, उतनी ही तरह का नारीवाद है। ध्यातव्य है कि नारीवाद एक राजनीतिक विचार है, जो मानता है कि स्त्रियाँ भी मनुष्य हैं। नारीवाद शब्द का उद्भव फ्रेंच शब्द ‘फेमिन्स्मे’ से हुआ, जो 19वीं शताब्दी की प्रघटना है। 20वीं शताब्दी तक आते-आते संयुक्त राज्य अमेरिका में महिलाओं के समूह कुछ मुद्दों पर एक जुट हुए, जो स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन के हामी थे। नारीवाद शब्द बहुवाचिक और बहुसान्दर्भिक है क्योंकी बहुत सी स्त्रियाँ स्वयं को नारीवाद से तदात्मीकृत नहीं करती हैं। कहने का आशय यह है कि प्रत्येक आंदोलन की तरह नारीवादी आंदोलन भी अपनी देश काल और परिस्थितियों की उपज था, जहाँ लैंगिक पहचान, आर्थिक असमानता और राजनीतिक प्रतिनिधित्व मुख्य मुद्दे रहे।
ताराबाई शिंदे (1850-1910 ) और भारतीय नारीवाद का एक नया आयाम : ताराबाई शिंदे महाराष्ट्र के एक समृद्ध खेतिहर समुदाय से थी, जो विदर्भ क्षेत्र के बुल्दवाना शहर के मराठा वंश में आता है। ताराबाई शिंदे का परिवार उन चार में से एक था जो बुल्दवाना का सामाजिक बुर्जुआ घोषित होता था। थारू और ललीता लिखती हैं कि ‘उन्होंने शास्त्रीय और आधुनिक साहित्य को पढ़ा था।’1 ताराबाई शिंदे के द्वारा रचित एक मात्र पुस्तक ‘स्त्री पुरुष तुलना’ का उल्लेख ज्योति बा फूले के द्वारा सत्यशोधक समाज के 1885 में प्रकाशित जर्नल में हुआ। मराठी साहित्यकार एस जी मल्शे द्वारा यह रचना 1975 में प्रकाशित की गई। यह पुस्तक मराठी पत्रिका ‘पुणे वैभव’ में प्रकाशित एक लेख का प्रति-उत्तर था। एक विधवा ब्राह्मणी विजयलक्ष्मी के ऊपर अपनी संतान की तथाकथित हत्या का आरोप था, जिसके लिए पहले मृत्युदंड और बाद में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। विजयलक्ष्मी के बचाव में सिर्फ एक महिला ताराबाई शिंदे सार्वजनिक रूप से बचाव के लिए सामने आई।
ताराबाई के जीवन के विषय में हमें बहुत कम जानकारी है। इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद उनका क्या हस्र हुआ, वस्तुतः हम नहीं जानते हैं। इतना मालूम है कि वह उस आजादी को नहीं हासिल कर सकी, जिसके लिए वह प्रयासरत थी। क्या वह मराठा मालिकों की संकीर्ण मानसिकता में अपना स्थान बना पाई? यह शायद हम कभी नहीं जान पाएँगे।
अपने मुखर विचारों के कारण ताराबाई शिंदे की यह पुस्तक एक विवादास्पद रूप ले लेती है। यह हिंदू धर्म ग्रंथों पर एक सीधा और तर्कसंगत प्रहार नहीं है, वरन एक व्यंगात्मक विवेचन है; जहाँ कामकाजी औरतों का हवाला दिया गया है। जहाँ रमाबाई ने संस्थागत ढाँचा विकसित करने का प्रयास किया और अपना जीवन उच्च एवं निम्न जाति की विधवाओं की सेवा में बिताया वहाँ ताराबाई शिंदे ने पुरुषवादी ढाँचे पर प्रहार किया।
ताराबाई शिंदे और भारतीय नारीवाद में पितृसत्ता को चुनौती : मराठी साहित्य में 13वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक औरत संतों की एक लम्बी परम्परा रही है। संभवतः भक्तिकालीन संतों के बाद ताराबाई ने ही पितृसत्तात्मकता पर आवाज उठाई। दंडवते लिखते हैं कि “1873 से 1920 के बीच 300 औरतों ने किताबें लिखी लेकिन एक उत्कृष्ट गुणवत्ता, एक गहराई वाला प्रतिरोध और चेतना का स्तर सिर्फ तीन महिलाओं ताराबाई शिंदे, पंडिता रमाबाई और आनंदी बाई की रचनाओं में ही मिलता है।”2 ब्रिटेन में भी 16वीं सदी में ऐसे तमाम उदाहरण मिलते हैं, जब औरतों ने ग्रंथ आधारित निषेधों का बहिष्कार कर दिया। इस पुस्तिका में न केवल विधवा विवाह की पुरज़ोर सिफारिश की गयी थी बल्कि धार्मिक आस्थाओं पर भी करारी चोट की गयी थी। पितृसत्ता की न्यूनताओं को उज़ागर करने, पाखंडों, आडंबरों की कटु आलोचना करने से लेकर बालिका शिक्षा पर बल देने, बाल विवाह की मनाही, विधवा विवाह की सिफारिश, महिला पुरुष की समानता आदि विविध विषयों पर बेबाक टिप्पणी की गई थी। यह प्रथम अवसर था, जब एक महिला पुरुष सत्ता के विरुद्ध खड़ी हुई थी। जब ताराबाई की पुस्तिका की घोर आलोचना हो रही थी, तो इनको महात्मा ज्योतिराव फूले एवं सावित्रीबाई फूले से सम्बल और सहायता मिली, जिन्होंने ‘सत्यशोधक समाज’ नामक संस्था की स्थापना की थी। ज्योतिराव फूले ‘सत्सार’ के दूसरे अंक में ही ताराबाई शिंदे के बचाव में आए, इनकी पुस्तिका के कथ्य को सराहा और इसे पढ़े जाने पर बल भी दिया ताकि लोग इनके साहसिक और मौलिक प्रयासों से अवगत हो सकें।
ताराबाई अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में लिखती हैं “चूँकि यह मेरा लिखने का पहला प्रयास है और मैं मराठा रीति-रिवाजों के इस अनंत कारागार में असहाय, बंधी और बेजुबान थी, इसलिए इस निबंध की भाषा अत्यंत कठोर है। लेकिन जब मैंने देखा कि पुरुषों के अहंकार और एक तरफा नैतिकता के नए-नए भयानक उदाहरण हर दिन सामने आते हैं और उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है, जबकि सारा दोष महिलाओं पर थोप दिया जाता है, तो मेरे मन में महिलाओं की स्थिति के प्रति गहरा आक्रोश और गर्व उत्पन्न हुआ।”3 आगे वह स्त्रीधर्म के प्रचलित अर्थ की व्याख्या करती हुई लिखती है कि “स्त्री धर्म क्या है? एकल पति के प्रति अनंत भक्ति, चाहे वह उसे पीटे, लांछन लगाए, वेश्या रखे, शराब पिए, खजाने की चोरी करे या रिश्वत ले, जब वह घर लौटे तो उसे भगवान के रूप में पूजना चाहिए, जैसे स्वयं कृष्ण महाराज दूध चुराकर आए हों....पतिव्रता धर्म तोड़ने के अनगिनत कारण हो सकते हैं।”4
इसके बाद ताराबाई पुराणों के देवताओं और ऋषियों पर व्यंग्यात्मक और उपहासजनक तरीके से हमला करती हैं, “पाँच पतियों के होते हुए भी क्या द्रौपदी को कर्ण महाराज की मंशाओं की चिंता नहीं थी?...[सत्यवती और कुंती का क्या?] एक ने अपने शरीर की दुर्गंध दूर करने के लिए एक ऋषि की इच्छाओं का पालन किया, तो दूसरी ने एक के मंत्र का। क्या अद्भुत देवता! क्या अद्भुत ऋषि!”5
वास्तव में यही वह तरीका था, जिससे कई कामकाजी वर्ग और किसान महिलाएँ उन कहानियों के बारे में बात करती थी, जिनसे वे परिचित थीं। रामायण और महाभारत अधिकांश लोगों के जीवन का हिस्सा थे, लेकिन इससे यह आवश्यक नहीं था कि वे धर्म का हिस्सा बन जाए, जैसा कि धार्मिक प्रवक्ताओं द्वारा प्रस्तुत किया जाता था। जब हिंदू सिद्धांतकारों ने इन ग्रंथों को ‘शास्त्र’ के रूप में स्थापित करना शुरू किया, तो ताराबाई और रमाबाई जैसी महिलाओं ने इसका विरोध किया और उन्हें खारिज कर दिया।
पार्था चैटर्जी जैसे विद्वानों का मानना है कि ‘स्त्री सशक्तिकरण जैसे विषय 19वी सदी की राजनीतिक शब्दावली से गुम हो गए थे। 1890 के दशक में फ्रेंच भाषा का यह शब्द अंग्रेजी में आया। आश्चर्यजनक रूप से अंग्रेजी डिक्शनरी में इसका नकारात्मक अर्थ है। उस समय कुछ लेखकों ने वोमेनिज्म शब्द का प्रयोग शत्रुता के साथ किया।’6
उमा चक्रवर्ती लिखती है कि ‘पितृ सत्ता से अपने सीधे टकराव के बावजूद ताराबाई शिंदे औरतों को विवाह जैसी संस्था से बाहर निकलने का विकल्प नहीं देती है। साथ ही साथ वह औरतों की आत्मनिर्भरता के लिए मुखर नहीं है। वह सिर्फ आदमियों को उपदेश देती है कि उनमें इतनी हिम्मत होनी चाहिए कि विधवाओं का पुनर्विवाह करवा पाए और उन्हें प्यार से रख पाए।’7 उन्होंने पुरुषों के नायक की छवि को चुनौती दी। वह विधवाओं को औरत के तौर पर समझना चाहती है। वह तर्क देती है कि वैवाहिक संबंध आदर्श प्रेम पर आधारित होना चाहिए, न कि गैर बराबरी पर। साथ ही वह पुरुषों को अनुशासित करने के लिए सरकार का सहयोग भी चाहती है। स्त्री पुरुष तुलना में वह औरतों के लिए एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए अपील करती है।
उमा चक्रवर्ती कहती है कि ‘पुरुष सुधारवादियों की बाल विधवाओं से आगे वह सभी विधवाओं के लिए एक घर और एक प्यार करने वाले पति की वकालत करती है। हाल के वर्षों तक भारतीय इतिहास में औरतों को मौन भाग की तरह समझा जाता था, किसी के पास उम्मीद नहीं थी कि उनकी आवाज़ भी होगी।’8
यहाँ याद रखना चाहिए कि औपनिवेशिक दौर में नए शिक्षित वर्ग का उदय हुआ, जिसके समक्ष अपने अस्तित्व की रक्षा के अतिरिक्त विदेशी शासन को उचित ठहराने का कार्य था; जो यूरोपियन उपयोगितावाद, व्यक्तिवाद और क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित थे, जिसे शासक वर्ग और आम लोग दोनो ही संदेह की दृष्टि से देख रहे थे। औरतों की शिक्षा के लिए हर स्तर पर काम हो रहा था; उदाहरण के लिए, ज्योतिबा फूले ने शूद्रों और अतिशूद्रों के लिए विद्यालय खोले। कार्यान्वयन और सिद्धान्त के स्तर पर फूले ने एक बृहद गठजोड़ बनाया, जिसमें गैर-ब्राह्मण जातियाँ और औरतें शामिल थी। उनका यह कार्य पुरातनपंथी हिंदुवाद के विरुद्ध था। ताराबाई निश्चित रूप से तत्कालीन समाज-सुधार विषयक अवधारणों से परिचित थी। विद्युत भागवत लिखते हैं कि ‘ताराबाई भारत की पहली नारीवादी साहित्यिक आलोचक थी, जिन्होंने प्रसिद्ध नारीवादी चिंतक सीमोन द बोउवार की ‘द सेकेंड सेक्स’ से एक सदी पहले महिलाओं के प्रति पुरुष रुढ़ीवादिता को उजागर किया।’9
रमाबाई ने 1887 में लिखा कि “जिन्होंने तन्मयता और निष्पक्षता से संस्कृत साहित्य पढ़ा है, वे मनु (प्रथम कानून निर्माता) को पहचानने में असफल नहीं हो सकते हैं, जिसने महिलाओं को दुनिया की नजर में घृणित बनाने में अपना सर्वोत्तम योगदान दिया। मैं ईमानदारी से यह बात कह सकती हूँ कि मैंने महिलाओं के बारे में घृणित भावना के बिना कोई भी पवित्र संस्कृत किताब नहीं पढ़ी है।”10
पार्था चटर्जी ने इसे ‘महिलाओं के प्रश्न का राष्ट्रवादी समाधान बताया, जिसका आधार भौतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र को अलग करने पर आधारित था। महिलाओं का कार्य घर को नैतिक और आध्यात्मिक बनाना था। जो महत्त्वपूर्ण था, वह भौतिक प्रविधियों को विकसित करना था, जो आधुनिक पश्चिमी सभ्यता को बरकरार रखते हुए राष्ट्रीय आध्यात्मिक संस्कृति को मजबूत करना था।’11
गेल आमवेट लिखती है कि ‘पूर्वी नैतिकता और पश्चिमी समाधान को देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सुधारवादी हिन्दुओं और हिन्दू राष्ट्रवादियों में स्त्रियों के विषय में कोई गुणात्मक भेद नहीं था।’12 ताराबाई शिंदे ने इस बात को नकार दिया कि स्त्रियों की स्थिति ईश्वर और ऋषि-मुनियों से नीचे है। उनके कृत्यों को स्त्रियों ने मजबूरी या छोटे फायदों के लिए अंजाम नहीं दिया है।
ऑल इंडिया वूमेन कांग्रेस के बनने पर सीता और सावित्री उच्च वर्गीय स्त्रियों और बर्जुआ संस्थाओं की आदर्श बनी। उनके लिए सीता और सावित्री पुरुष उत्पीड़न के प्रतीक नहीं हैं। कालांतर में नारीवादियों ने संपत्ति और विवाह विच्छेद संबंधी अधिकारों की मांग की। किसान महिलाओं का अपना कार्य व्यापार था, जहाँ उन्होंने परम्परारों की पुनर्व्याख्या की। यहाँ मुख्य मुद्दा महिलाओं को भू-अधिकार देने और पुरुषों के बहु-विवाह का विरोध था।
प्रारंभिक नारीवादियों ने पतिव्रता के दोहरे मानदंड पर प्रहार किया। उनका मुख्य लक्ष्य पितृसत्ता और लैंगिकता का विरोध था। वेद पुराण उनके लिए कहानियाँ थीं, वह पुरुष उत्पीड़न का एक रूप थे, न कि दैविक आदेश। फूले का मानना था कि शिक्षा के माध्यम से ब्राह्मण औरतें भी शास्त्रों को फेंक देंगी। फिर भी शिक्षा पितृसत्ता को खत्म करने वाली भूमिका नहीं निभा सकी जितनी उससे अपेक्षा थीI मेरेडिथ बोर्थविक ने ‘बंगाली समाज सुधारकों के मध्य ‘भद्र महिला’ के विचार को ब्राह्मणवादी और मध्यवर्गीय विक्टोरियन सामाजिक प्रतिमानों का एक सम्मिश्रण माना था, जो स्वाभाविक रूप से पुरुषों का सहगामी है।’13 भद्र महिला’ से आशय पाक कला में निपुण, लेखा-जोखा में दक्ष और पारिवारिक पृष्ठभूमि को जानने वाली महिलाएँ हैं। रोसलिंड हैनेलॉन इसको ‘सामाजिक परिवर्तन की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी मानती है।’14 हमें यह विस्मृत नहीं करना चाहिए कि औपनिवेशिक समाज में पूर्व-औपनिवेशिक भारत की तुलना में धार्मिक एवं जातीय अस्मिता ब्राह्मणवादी हो गई थी। औपनिवेशिक समाज में लैंगिक संबंध एक शक्तिशाली हथियार की तरह उभरे, जिन्होंने सामाजिक उच्चताक्रम और जातिगत विशिष्टता को जोड़ा।
जयंत लेले लिखते हैं कि ‘1880 में महिला मुक्ति के प्रश्न पर हुई बहस में ताराबाई के एकमात्र हस्तक्षेप में चार प्रमुख विषय उभरकर सामने आते हैं :
- पुरुषों के ब्राह्मणिक ग्रंथों और उनके दैनिक जीवन में प्रदर्शित दोहरे मापदंडों और पाखंड पर तीखा प्रहार।
- औपनिवेशिक शासकों के हितों के प्रति पुरुषों और महिलाओं की अधीनता के परिणामस्वरूप उनके दैनिक जीवन के पतन का गंभीर विश्लेषण।
- उस समय के जीवन का संवेदनशील लेकिन भावनात्मक चित्रण, जब यह पतन अभी नहीं हुआ था।
- पूरे पाठ में महिला के शरीर को प्रेम और सौंदर्य के प्रतीक के रूप में निर्बाध रूप से महिमामंडित किया गया है।’15
ताराबाई ने विडंबना और उपहास का कुशलता से उपयोग किया, जिससे पाखंड और कट्टरता को उजागर किया और यह केवल प्रतिवाद के साधारण कृत्य नहीं थे।
यह बात दीगर है कि पूरी उन्नीसवीं शताब्दी में स्त्री और पुरुषों में विधवा पुनर्विवाह, महिला शिक्षा और सती जैसी कुप्रथा के निवारण के लिए बात की। यह प्रयास निःसंदेह शुभेक्षा से पूर्ण थे और स्त्री सशक्तिकरण के दायरे के अन्दर भी आएँगे, लेकिन ताराबाई शिंदे का प्रयास कही ज्यादा भिन्न और उत्कट था; जहाँ स्त्री और पुरुष के बीच समानता पर जोर दिया गया था। रोसलिन ओ हैनेलॉन लिखती है कि ज्योति बा फूले और ताराबाई शिंदे शायद मिले हो या ना भी मिले हो लेकिन फुले निश्चित रूप से ताराबाई की रचनाओं को जानते थे और सराहते थे। रामचंद्र गुहा इस प्रयास को संवादी मानते हैं, “फूले के लिए ब्राह्मणवादी धर्म निम्न जाति में जनित व्यक्तियों हेतु शोषणकारी था, क्योंकि यह ब्राह्मणों द्वारा रचित व्यवस्था थी और तारा बाई के लिए यह स्त्रियों के लिए शोषणकारी था क्योंकि यह पुरुषों द्वारा रचित था।”16
रमाबाई ने एक अलग संस्थागत ढाँचा बनाने की कोशिश की, जिसमें मानव संबंधों की एक नई व्याख्या की जा सके। उन्होंने अपना पूरा जीवन उच्च और निम्न दोनों जातियों की विधवाओं की सेवा में समर्पित कर दिया, जिनकी स्थिति उस समय महिलाओं के सबसे भयावह भाग्य का प्रतीक थी। ताराबाई, जो इतनी सशक्त नहीं थीं, ने पितृसत्ता की संरचनाओं पर अपने तीखे और भाषणात्मक हमलों के माध्यम से विद्रोह व्यक्त किया। रोसलिंड ओ हैनेलॉन के अनुवाद में यह उद्धहरण मिलता है, कि “यह एक महिला, सावित्री थी, जो अपने पति का जीवन बचाने के लिए यम के दरबार में गई थी। लेकिन यम के दरबार को छोड़िए, क्या आपने सुना है कि कोई पुरुष उस दिशा में एक कदम भी चला हो? जैसे एक महिला अपना सौभाग्य खो देती है और इस कारण उसे एक अपराधी की तरह अपना चेहरा छिपाना पड़ता है और अपना सारा जीवन अंधेरे में बिताना पड़ता है, क्या आपको भी अपनी दाढ़ी मुंडवाकर और अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद अपना सारा जीवन एक तपस्वी की तरह बिताना पड़ता है? यदि किसी चालाक देवता ने आपको यह प्रमाणपत्र दिया हो कि आप अपनी पत्नी की मृत्यु के दसवें दिन दूसरी महिला से विवाह कर सकते हैं, तो मुझे वह दिखाइए!”17
ताराबाई और रमाबाई जैसी महिलाएँ अपने-अपने तरीकों से उन्नीसवीं सदी में ही उस समाधान के खिलाफ आवाज़ उठा रही थीं। यह समाधान भौतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों को अलग करने और महिलाओं को घर की नैतिक और आध्यात्मिक संरक्षिका बनाने पर आधारित था। आवश्यक यह था कि आधुनिक पश्चिमी सभ्यता की भौतिक तकनीकों को अपनाते हुए राष्ट्रीय संस्कृति के विशिष्ट आध्यात्मिक सार को बनाए रखा जाए और उसे सुदृढ़ किया जाए।
पूर्वी नैतिकता और पश्चिमी विज्ञान के इस समाधान की ओर देखते हुए, सुधारवादी हिंदुओं और हिंदू राष्ट्रवादियों के बीच कोई गुणात्मक अंतर नहीं था। यह उन महिलाओं के लिए अपर्याप्त था, जो संपूर्ण मानव के रूप में मानी जाना चाहती थीं, क्योंकि ‘पूर्वी नैतिकता’ ही उन्हें दबाती थी। (क्या ‘पश्चिमी नैतिकता’ भी ऐसा करती थी, यह एक अलग मुद्दा है; वास्तव में, रमाबाई को अपने धर्म परिवर्तन के बाद महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण को लेकर अपने ईसाई मार्गदर्शकों के साथ कई संघर्षों का सामना करना पड़ा।) उदाहरण के लिए, आर्य समाजियों के विपरीत, रमाबाई महिलाओं की वर्तमान स्थिति को केवल ‘पतनोन्मुख’ नहीं मान सकती थीं। ब्रह्म समाजियों और गांधी जैसे पुरुषों के विपरीत, वह वेदों और उपनिषदों के आदर्श संस्करणों की ओर नहीं मुड़ सकती थी, ताकि वह खुद को यह विश्वास दिला सके कि हिंदू आध्यात्मिकता का ‘सार’ इसकी जातिवादी और पितृसत्तात्मक विकृतियों से बचाया जा सकता है। फूले एवं बाद में आए उग्र दलितों की तरह रमाबाई को भी हिंदू धर्म को अस्वीकार करना पड़ा। इसी तरह ताराबाई भी अपने को निम्नतर स्थिति में स्वीकार किए बिना ऋषियों और देवताओं को दिव्यता के प्रतीक के रूप में नहीं देख सकती थी।
1920 के दशक में यह महिला आंदोलन कुछ स्वायत्तता के साथ उभरा, ऑल इंडिया विमेन कांग्रेस और इसी तरह के संगठनों की स्थापना के साथ। इन उच्च जाति और अभिजात्य महिलाओं के संगठनों ने हिंदू ढाँचे के भीतर काम किया और सीता और सावित्री को महिलाओं के आदर्शों के रूप में प्रस्तुत किया, न कि पुरुष उत्पीड़न के प्रतीकों के रूप में। उन्होंने वैदिक काल की स्वतंत्रता की प्रशंसा की और पर्दा प्रथा और अन्य बुराइयों को मुस्लिम आक्रमण से उत्पन्न सामाजिक परिस्थितियों का परिणाम बताया। उन्होंने महिलाओं के लिए संपत्ति और तलाक जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण, हालांकि पूरी तरह से समान नहीं, अधिकार देने वाले नई हिंदू संहिता के लिए लड़ाई लड़ी और अंततः किसी रूप में इसे लागू करने का प्रयास किया।
ऐसा लगता है कि किसान महिलाओं ने अपने कार्यों के रूप में उन परंपराओं की पुनर्व्याख्या की जो हिंदू विमर्श के भीतर रहते हुए महिलाओं के लिए एक संगठनात्मक स्थान का निर्माण भी किया।
निष्कर्ष : बार ताराबाई शिंदे को पढ़ते हुए ऐसा लगता है की वह नारीवादी सारवाद की वकालत कर रही है लेकिन लूस इरिगिरे, केट मैकनीनन और मार्था नुस्बाम भी नारीवादी सारवाद को स्वीकार करते दिखते हैंI इरिगिरे का कहना है कि स्त्रियाँ सारवादी पदों में विचारित की गई यह समस्या नहीं है वरन उन पदों का कार्य समस्यात्मक है। याद रखना चाहिए कि पितृसत्ता के अन्दर सभी महिलाएँ एक समान सार को व्यक्त करती थी। लैंगिककता एक सामाजिक प्रक्रिया है, जो कामनाओ को निर्मित एवं निर्देशित करती है। स्त्रियाँ एक वस्तु की तरह इस प्रक्रिया में निर्मित होती हैं, पुरुषों की इच्छाओ को संतुष्ट करने के लिए। मार्था नुस्बाम अपने आपको अधिकारों और मानवीय क्षमताओ की भाषा में अभिव्यक्त करती है, लेकिन वह भी जोर देती है कि पुरुष आधिपत्य सार्वभौमिक रूप से सभी महिलाओं द्वारा महसूस किया जाता है। यह संशयवाद आधुनिक युग में भी महसूस किया जाता है जहाँ अर्थ, प्रतिनिधित्व, बोधगम्यता और अस्तित्व जैसे प्रश्न संशयों से परे माने जाते हैं। ताराबाई शिंदे ने अपने समय में साहसिक रूप से पुरुष-प्रधान समाज की आलोचना की और यह बताया कि कैसे महिलाओं को उनके अधिकारों और मानवता से वंचित किया गया। उनका दृष्टिकोण आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि आधुनिक युग में भी महिलाओं पर पुरुषों के प्रभुत्व की पकड़ कमजोर नहीं हुई है।
सन्दर्भ :
- Tharu Susie and Lalita K., Women Writing in India Volume I : 600 B.C to The Early 20th Century, The Feminist Press, at The City University of New York, New York, 1991, pg 221
- Dandavate, G R quoted by Bhagwat Vidyut “Marathi Literature as a source for Contemporary Feminism”, Economic and Political Weekly, Apr 29,1995, Vol.30 No.7 pp WS24-29
- Omvedt Gai, Understanding Caste from Buddha to Ambedkar and Beyond, Orient Blackswan , Delhi , 2011 Pg 33
- ibid pp 33
- Op cit. pp 33
- Sangari Kumkum and Vaid Sudesh(Ed), Recasting Women : Essays in Colonial History, Chatterjee Partha, The Nationalist Resolution of the Women’s Question, Kali for Women Press, Delhi,1989 pp238
- Chakravarti Uma, Rewriting History: The Life and Times of Pandita Ramabai, “On Widowhood The Critique of Cultural Practices in Women’s Writing”, ZUBAAN, Delhi, 2013
- Ibid
- Bhagwat Vidyut, “Marathi Literature as a source for Contemporary Feminism”, Economic and Political Weekly, Apr 29,1995, Vol.30 No.7 pg 27 pp WS 24-29
- Omvedt Gail, Understanding Caste from Buddha to Ambedkar and Beyond, Orient Blackswan, New Delhi , 2011, pp 32
- Sangari Kumkum and Vaid Sudesh(Ed), Recasting Women : Essays in Colonial History, Chatterjee Partha, The Nationalist Resolution of the Women’s Question, Kali for Women Press, Delhi,1989 pp238
- Omvedt Gail Op cit pg.34
- Borthwick Meredith quoted by O’Hanlon Rosalind, A Comparison Between Women and Men Tarabai Shinde and the critique of gender relations in colonial India, Oxford University Press, New Delhi, 2002, pp 3
- Feldhaus Anne(Ed), Images of Women in Maharashtrian Society, “Gender Consciousness in Mid –Nineteenth Century Maharashtra” Lele Jayant, State university of NewYork Press, 1998, pp185
- Ibid pg185
- Guha Ramchandra, Makers of Modern India, Penguin Books Gurgaon Haryana, 2012, pp 131
- O’ Hanlon Rosalind, A Comparison Between Women and Men Tarabai Shinde and the critique of gender relations in colonial India, Oxford University Press, New Delhi, 2002, pg80
अमित कुमार प्रधान
एसोसिएट प्रोफेसर, रामजस कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
रश्मि राय
असिस्टेंट प्रोफेसर, आर्यभट्ट कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन : कुंतल भारद्वाज(जयपुर)
The way this article has explored patriarchy, widow remarriage, interpretations of religious texts, and the struggles for women’s liberation through the lens of Tarabai Shinde’s thoughts is remarkable. Kudos to your research and writing!
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