शोध आलेख : आधुनिक मनोविज्ञान एवं योग का समन्वय / दीक्षा एवं अरुण कुमार साव

आधुनिक मनोविज्ञान एवं योग का समन्वय
- दीक्षा एवं अरुण कुमार साव

शोध सार :
पृष्ठभूमि : पातंजल योगसूत्र की रचना चित्त (मन) को मूल में रखकर न केवल मानसिक स्वास्थ्य अपितु समग्र स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से की गई। इस तथ्य के आलोक में आधुनिक मनोविज्ञान की एक प्रचलित मनोचिकित्सा मॉडल, संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा को पातंजल योगसूत्र के पदों में निर्मित कर मानव के व्यक्तित्व को समग्रता से विकसित किया जा सकता है।

उद्देश्य : इस शोध पत्र का मुख्य उद्देश्य पातंजल योगसूत्र के सिद्धांतों पर आधारित संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा मॉडल की रचना करना है। जो न केवल मानसिक स्वास्थ्य अपितु समग्रता से मानव के व्यक्तित्व का विकास कर सके। साथ ही समाज को पातंजल योगसूत्र जैसी प्राचीन कृतियों के तात्कालिक प्रभाव एवं उपयोगों से अवगत कराकर भारतीय ज्ञान परम्परा की ओर पुनः आकर्षित कर सके।

सामग्री एवं विधि : पातंजल योगसूत्र के सिद्धांतों के माध्यम से वर्णनात्मक समीक्षा एवं विश्लेषण के द्वारा संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा मॉडल का निर्माण किया गया है। जिसके लिए मूल में संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा के मुख्य पाँच चरणों (पहचान, विश्लेषण, विकल्प, अभ्यास, परिणाम) का व्यवहार किया गया है।

निष्कर्ष : पातंजल योगसूत्र के सिद्धांतों के वर्णनात्मक समीक्षा एवं विश्लेषण द्वारा प्राप्त संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा मॉडल स्वास्थ्य की समग्र अवधारणा, जिसके मूल में मानसिक स्वास्थ्य स्थित है को समाज के उपयोग हेतु विकसित करने में सफल रहा है।

बीज शब्द : योग, आधुनिक मनोविज्ञान, संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा, पातंजल योगसूत्र, मॉडल, संज्ञान/चिंतन, मनोचिकित्सा, पहचान, विश्लेषण, विकल्प, अभ्यास, परिणाम।

प्रस्तावना : भारत सदा से एक आदर्श जीवनशैली का अनुयायी एवं विभिन्न समृद्ध विद्याओं का जनक और विकासक रहा है। आज जिसके प्रमाण के रूप में प्राचीन आगम शास्त्र हमें उस महान जीवनशैली एवं ज्ञान से परिचित कराते हैं। इन्हीं शास्त्रों को आधार मानकर यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि ‘योग’ एक प्राचीन भारतीय आदर्श एवं समग्र जीवनशैली है। जिसका अनुसरण मानव जीवन को समग्रता से विकसित कर उन्नति के मार्ग पर अग्रसर करता है। मानव जीवन से तात्पर्य शरीर, इंद्रिय, मन एवं आत्मा के संयोग से है (च.सा.-1/42)। जहां मन मानव व्यक्तित्व के मूल में रहकर इंद्रियों द्वारा जनित उसके व्यवहार को नियंत्रित करता है (छा.उप.-7/16)। अतः मन मानव जीवन का संचालक (Coordinator) है। जिसकी संरचना, कार्यों, व्यवधानों एवं स्वास्थ्य का संदर्भ हमें वेदों, विभिन्न उपनिषदों एवं अन्य आगम शास्त्रों में यत्र-तत्र प्राप्त होता है इसी के साथ एक ऐसी कृति भी प्राप्त होती है जोकि इस यत्र–तत्र विकिणित ज्ञान को एकत्रित कर मन की सम्पूर्ण अवधारणा को स्वयं में समावेशित की हुई है। जो महर्षि पतंजलि जी जिन्हें योग के प्रणेता की उपाधि प्राप्त है, के द्वारा रचित पातंजल योगसूत्र के नाम से विख्यात है (पांडे, 2018 )। यहाँ ‘मन’ को ‘चित्त’ की संज्ञा प्राप्त है एवं इन सूत्रों का दृष्टिकोण भी मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर केंद्रित है, जो चित्तवृत्तियों के निरोध (चित्त की विभिन्न अवस्थाओं का नियंत्रण) और मानसिक संतुलन की स्थापना पर बल देता है। पतंजलि का योगदर्शन न केवल मानसिक शांति और आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह मानसिक समस्याओं के समाधान में भी सहायक हो सकता है (Iyengar, 1993)।

आधुनिक मनोविज्ञान समकालीन समाज में मानव व्यवहार और मानसिक प्रक्रियाओं के अध्ययन और समझ को संदर्भित करता है (Wang, 2015)। यह वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति मानव के व्यक्तित्व निर्माण के मूल में विद्धमान ‘मन’ की संरचना, विषयों एवं इससे जनित मानव व्यवहार का अध्ययन करने का प्रयास करती है (Psychology | Definition, History, Fields, Methods, & Facts | Britannica, n.d.; Psychology - Quick Search Results | Oxford English Dictionary, n.d.)। साथ ही मानव व्यवहार में उत्पन्न होने वाली विकृतियों की पहचान कर उनमें सुधार लाने हेतु विभिन्न प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों को विकसित कर उनका परिस्थितिनुसार अनुसरण भी करता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि आधुनिक मनोविज्ञान आज के परिपेक्ष्य में मन एवं व्यवहार की पूर्ण चिकित्सा पद्धति (समस्या संबंधी ज्ञान: अवधारणा + समस्या की पहचान करना: रोगनिदान + समस्या के समाधान हेतु सिद्धांत: उपचार) है। इसी चिकित्सा पद्धति के अंतर्गत संज्ञान एवं व्यवहार संबंधी समस्याओं के समाधान हेतु विकसित संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (Cognitive Behavior Therapy) एक प्रचलित चिकित्सा है। जो मानसिक और भावनात्मक समस्याओं के उपचार के लिए संज्ञानात्मक (विचारों से संबंधित) और व्यवहारात्मक (आचरण से संबंधित) तकनीकों का उपयोग करती है। यह चिकित्सा पद्धति मुख्यतः इस विचार पर आधारित है कि हमारे विचार, भावनाएँ और आचरण आपस में गहरे रूप से जुड़े होते हैं और यदि हम अपने नकारात्मक या विकृत विचारों को पहचानकर उन्हें बदलें, तो हमारी भावनात्मक स्थिति और आचरण में भी सकारात्मक परिवर्तन आ सकता है (Beck, 1976; Beck, 2011)।

इस अध्ययन का उद्देश्य पतंजलि के योगसूत्रों और संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा के बीच के संबंधों का विश्लेषण करना और यह समझना है कि कैसे इन पातंजल योगसूत्र के चित्त (मन) संबंधी सिद्धांतों को तात्कालिक समस्याओं के उपचार में उपयोगी चिकित्सा विधियों के विकल्प के रूप में मानसिक स्वास्थ्य के उपचार में अधिक प्रभावी दृष्टिकोण विकसित किया जा सकता है।

मनोवैज्ञानिक चिकित्सा उपकरण : संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (CBT) -

मनोवैज्ञानिक चिकित्सा उपकरणों में बहुप्रचलित संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (CBT) का विकास 1960 के दशक में हार्वर्ड के मनोचिकित्सक डॉ. आरोन टी. बैक (Dr. Aaron t. Beck) द्वारा किया गया था। यह मनोचिकित्सा की विधि व्यक्ति विशेष के विचारों, भावनाओं एवं व्यवहारों के मध्य उपस्थित संबंध को समझने और उन्हें संशोधित करने पर केंद्रित है(Beck & Fleming, 2021)।

संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा के मूल सिद्धांत के अनुसार, व्यक्तिगत संज्ञान अथवा चिंतन (Cognition) उसके भावनात्मक एवं व्यावहारिक प्रतिक्रियाओं को प्रभावित करता है। सकारात्मक संज्ञान अथवा चिंतन जिस प्रकार सकारात्मक एवं तर्कसंगत सोच से व्यक्ति को उत्तम व्यवहार, निर्णय एवं संयम शक्ति का धनी बनाकर जीवन को संतुलित रखता है उसी प्रकार यदि यह व्यक्तिगत संज्ञान अथवा चिंतन किसी प्रकार की नकारात्मकता व विकृति से ग्रसित हो जाता है तो इसके परिणामस्वरूप उस व्यक्ति विशेष की भावनाओं एवं व्यवहार पर भी नकारात्मक प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगता है। जिसको पुनः सकरात्मकता की ओर अग्रसर करना संतुलित जीवन निर्वहन हेतु अनिवार्य हो जाता है (Sachdeva, 1978)। जिसके लिए यह मनोचिकित्सा उपकरण उपयुक्त सिद्ध होता आया है। अतः संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा ऐसा उपचार उपागम है जो रोगी के संज्ञान (विश्वास, आत्म-कथन, तथा समस्या-समाधान उपायों) को प्रभावित करके उसके कुसमायोजी व्यवहार (Maladaptive Behavior) को परिवर्तित करने का प्रयास करता है (Neitzel, Bernstein & Milich, 1991)। जिसका उद्देश्य रोगी का संज्ञानात्मक पुनर्संरचना (Cognitive Restructuring) कर नकारात्मक चिंतन व विश्वास को उपयुक्त चिंतन व विश्वास द्वारा परिवर्तित कर समायोजी व्यवहार (Adaptive Behavior) करने योग्य बनाया जा सके (सिंह, 2016 )।

संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (CBT) के चरण :

आधुनिक मनोविज्ञान के अंतर्गत इस मनोचिकित्सा के विभिन्न प्रकारों का समावेश देखने को मिलता है जैसे – बेक की संज्ञानात्मक चिकित्सा, रैसनल-इमोटिव चिकित्सा एवं तनाव चिकित्सा इत्यादि परंतु इन सभी प्रकारों के मूल सिद्धांत का क्रियान्वयन सामान्य रूप से उद्देश्यों की पूर्ति करने हेतु कुछ प्रमुख चरणों में होता हैं। ये चरण व्यक्ति की सोच, भावनाओं और व्यवहारों को समझने और उनमें सकारात्मक बदलाव लाने के उद्देश्य से बनाए गए हैं जोकि निम्नवत हैं-

1. पहचान (Identifying & Assessment) :

संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (CBT) के इस प्रारम्भिक चरण के अंतर्गत चिकित्सक द्वारा रोगी की नकारात्मक अथवा विकृत चिंतन को रोगी की समस्याओं, इतिहास और वर्तमान जीवन स्थिति का विस्तृत मूल्यांकन कर पहचाना जाता है। इसके आधार पर ही सम्पूर्ण मनोचिकित्सा का प्रारूप तैयार किया जाता है। इस पहचान के सही ढंग से होने पर ही अग्रिम चिकित्सा की प्रक्रिया का प्रभावी होना निर्भर करता है। जिसके लिए चिकित्सक रोगी के चिंतन, धारणाओं, पूर्वानुमानों एवं आंतरिक संवाद को समझने हेतु कई प्रश्नों को पूछते हैं और रोगी के व्यवहार का गहराई से निरीक्षण करते हैं। (Beck, A. T., 1976)

2. विश्लेषण (Analysis) :

संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (CBT) के द्वितीय चरण में पूर्व के चरण ‘पहचान’ से प्राप्त जानकारी (नकारात्मक चिंतन, धारणाओं, पूरानुमानों से जनित सोच एवं धारणाएं) को विश्लेषित किया जाता है। तत्पश्चात रोगी को उनकी स्थिति, स्थिति उत्पन्न होने के कारण जो उनके स्वचालित नकारात्मक विचार (Autonomic Negative Thought) हैं, से परिचित कराया जाता है साथ ही यह भी समझाया जाता है कि कैसे उनकी यह सोच उनके भावनात्मक और व्यवहारिक समस्याओं को जन्म दे रही है। इस विश्लेषण के दौरान चिकित्सक और रोगी मिलकर यह पता लगाते हैं कि इन विचारों का क्या स्रोत है और यह कितनी हद तक यथार्थ से मेल खाते हैं (Clark, D. A., & Beck, A. T., 2010) ।

3. विकल्प (Alternative Thought Development) :

इस चरण के अंतर्गत चिकित्सक द्वारा रोगी को उनकी समस्या के मूल में विद्यमान स्वचालित नकारात्मक विचार (Autonomic Negative Thought) के स्थान पर इनके सकारात्मक विकल्पों से अवगत कराया जाता है एवं कैसे अपनी नकारात्मक सोच को चुनौती देकर उसे सकारात्मक और यथार्थवादी सोच से बदल सकते हैं, यह सिखाया जाता है। यह चरण चिकित्सक द्वारा रोगी को उसके संज्ञानात्मक पुनर्गठन (Cognation Restructuring) के मार्ग की ओर अग्रसर करता है। जिसमें बैक (1976) द्वारा वर्णित संज्ञानात्मक पुनर्गठन तकनीक में किसी विचार के साक्ष्य पर सवाल उठाना, संज्ञानात्मक विकृतियों की पहचान करना और वैकल्पिक विचार उत्पन्न करना शामिल है। अतः इस चरण का उद्देश्य रोगी की नकारात्मक चिंतन/ संज्ञान में बदलाव करना एवं व्यवहारिक रूप से सकरात्मकता को अपनाने हेतु प्रेरित करना है (Padesky, C. A., & Mooney, K. A., 1990)।

4. अभ्यास (Practice and Behavioral Change) :

इस चरण में रोगी पूर्ववत सीखे स्वचालित नकारात्मक विचारों (ANTs) के सकारात्मक विकल्पों एवं तर्कसंगत चिंतन को व्यावहारिक रूप से अपनाने का अभ्यास करता है। यह चरण संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा का आधार है। यहीं पर रोगी उन गतिविधियों में संलग्न होता है जो सुखद हैं अथवा जिनके द्वारा वे अपने स्वचालित नकारात्मक विचारों (ANTs) के कारणों को निष्क्रिय कर सकता हैं। रोगी को उसकी वास्तविक जीवन स्थितियों में अपने नए कौशल को आजमाने और अभ्यास करने का मौका मिलता है। व्यवहारिक हस्तक्षेप, जैसे कि भूमिका-निर्धारण, एक्सपोजर थेरेपी और कौशल प्रशिक्षण इस चरण में शामिल होते हैं (Meichenbaum, D., 1977)।

5. परिणाम (Outcome and Evaluation) :

इस अंतिम चरण में पूर्ववत चरणों में किए गए सभी प्रयासों एवं बदलावों का मूल्यांकन किया जाता है। चिकित्सक रोगी के साथ मिलकर यह समीक्षा करता है कि यह मनोचिकित्सा की विधि रोगी की समस्याओं के निराकरण में किस हद तक सफल रही है। यह समीक्षा ही चिकित्सा की आगे की योजना बनाने में मदद करती है। आवश्यकता होने पर कुछ अतिरिक्त सत्रों की योजना बनाई जा सकती है या व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से नए कौशल को जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है (Hofmann, S. G., & Smits, J. A. J., 2008)।

संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा के यह चरण रोगी को स्वचालित नकारात्मक विचार से मुक्ति दिलाने में एक संरचित एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कार्यरत हैं। प्रत्येक चरण व्यक्ति को उनके नकारात्मक सोच और व्यवहारों को बदलने के लिए मार्गदर्शन करता है, जिससे वे अधिक संतुलित और सकारात्मक जीवन जीने की ओर अग्रसर होते हैं।

पातंजल योगसूत्र : सम्पूर्ण मनोविज्ञान का एकल संग्रह

विश्व का प्रथम मनोवैज्ञानिक ग्रंथ पातंजल योगसूत्र (Yadav, n.d.), भारतीय ज्ञान परम्परा की समृद्धि का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। यह कृति स्वयं में भारतीय योगदर्शन के साथ–साथ सम्पूर्ण मनोविज्ञान के ज्ञान को समेटे हुए है। पातंजल योगसूत्र की रचना का श्रेय भारतीय इतिहास में वर्णित महानतम व्यक्तित्वों में से एक महर्षि पतंजलि को जाता है, जिन्होंने योग दर्शन (योग की कला और विज्ञान के माध्यम से सर्वोच्च वास्तविकता का एक श्रद्धापूर्ण दृष्टिकोण) की संहिता बनाई (पांडे, 2018 )। वह वास्तव में एक अद्भुत व्यक्तित्व रहे होंगे, क्योंकि उन्हें हमें ये देने का श्रेय दिया जाता है: मन (चित्त) की शुद्धि के लिए योग (महर्षि पतंजलि के रूप में), हमारी भाषा और वाणी की शुद्धि के लिए व्याकरण (पाणिनि के रूप में) और स्थूल भौतिक शरीर की शुद्धि के लिए आयुर्वेद (प्राचीन भारतीय चिकित्सा) (चरक के रूप में)। उनके व्यक्तित्व के इन तीन पहलुओं को भोज के सूत्रों पर भाष्य में पाए जाने वाले शास्त्रीय श्लोक में अच्छी तरह से प्रस्तुत किया गया है, जो उन्हें इस प्रकार संबोधित करता है:

योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन ।
योपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोस्मि॥

महर्षि पतंजलि द्वारा योग दर्शन की शाश्वत अवधारणाओं को योगसूत्रों के माध्यम से संक्षेप में संहिताबद्ध किया गया है। पातंजल योगसूत्र में संक्षिप्त सूत्र शामिल हैं जो क्रमबद्ध हैं जिस प्रकार एक धागे पर मोतियों की माला निर्मित हो। जो सामान्य मानव को योग की जटिलताओं को समझने में मदद करती है, आंतरिक अनुभव का यह सबसे बड़ा विज्ञान जिसे योग महर्षि डॉ. स्वामी गीतानंद गिरि ने 'सभी विज्ञानों की माँ' के रूप में परिभाषित किया है (Giri, 1999 )। इन सूत्रों को मौखिक परंपरा द्वारा लगभग 1000-1500 ईसा पूर्व से ही प्रसारित किया गया होगा, लेकिन लिखित रूप में लगभग 500 ईसा पूर्व- 300 ईस्वी में संसार के सम्मुख आए(Bhavanani, 2010)।

पातंजल योगसूत्र की संरचना एवं संदर्भ :

योगसूत्र, 195/196 सूत्रों से युक्त चार भागों में विभक्त है, जिन्हें पाद कहा गया है। इन्हीं पादों को योगसूत्र का अध्याय-वार विभाजन भी कहा जा सकता है। साथ ही यह भी विचारणीय तथ्य है कि पाद शब्द पैरों को संदर्भित करता है और यह महर्षि पतंजलि द्वारा समर्थित चरण-दर-चरण दृष्टिकोण को इंगित कर सकता है। 195/196 सूत्रों को तार्किक रूप में व्यवस्थित किया गया है और चार पादों में रखा गया है। यह चार पाद समाधि पाद, साधन पाद, विभूति पाद एवं कैवल्य पाद के नाम से प्रसिद्ध हैं (Bhavanani, 2010)।


पाद का मुख्य विषय

पाद में निहित मनोवैज्ञानिक विषय

यह पाद समाधि के विभिन्न स्वरूप को स्पष्ट करता है और व्यक्ति को स्वयं का आत्मनिरीक्षण करने की प्रक्रिया के विषय में जानकारी देता है। (इंद्राणी, 2018 )

आदर्श मानसिक स्वास्थ्य को अवस्था (समाधि) के विभिन्न स्वरूप को स्पष्ट करना, व्यक्ति द्वारा स्वयं के संज्ञान को निरीक्षित कर सुधार करने के उपाय सुझाना (सुरेश वर्णवाल, 2002 )।

यह पाद व्यक्ति के व्यक्तित्व को उत्कर्ष तक ले जाने के लिए अष्टांग योग के पहले पाँच अंगों के माध्यम से बहिरंग साधना के रूप में योग साधना का मार्ग बताता है। (Vivekananda, 2005)

यहाँ व्यक्ति को नकारात्मकता के स्वरूप से अवगत कराना, दुख क्या है, क्यों है, दुख का कारण एवं निवारण का वर्णन एवं व्यावहारिक कुशलता जोकि न केवल स्वयं, समाज से भी संदर्भ में सिखाने के मार्गों का वर्णन मिलता है (आत्रेय, 1965)। 

यह पाद अन्तरंग योग से संबंधित है और ब्रह्मांड के विभिन्न पहलुओं पर संयम के अभ्यास के माध्यम से प्राप्त की जा सकने वाली सिद्धियों या मानसिक उपलब्धियों का विवरण देता है। (गोयन्दका)

यह पाद मानसिक एकाग्रता एवं संयम के चरम की अवस्था को समझता है एवं साथ ही इससे प्राप्त होने वाली लौकिक एवं पारलौकिक उपलब्धियों के मार्ग को सुझाता है (आत्रेय, 1965)।

यह पाद कैवल्य (मुक्ति) की उच्चतम अवस्था की प्राप्ति से संबंधित है जो तब होती है जब हम क्लेशों (दुखों) और कर्मों (क्रिया-प्रतिक्रिया के बंधन) से परे जाकर अंततः ‘ईश्वर के साथ एक’ हो जाते हैं।(Bhavanani, 2010)

यह पाद मानसिक स्वास्थ्य की चरमावस्था (कैवल्य) की प्राप्ति से संबंधित है। मानव के अतिचेतन स्तर के जागरण के पश्चात मन की आदर्शवस्था का वर्णन करता है (रामनाथ शर्मा, 2005 )।


पातंजल योगसूत्र व्यावहारिक मनोवैज्ञानिक क्रियाओं एवं उससे प्राप्त परिणामों के आलोक में निर्मित कृति है। जिसका व्यवहार व्यक्ति विशेष द्वारा स्वयं की मानसिक समस्या के मूल में विद्यमान कारणों को जानने समझने हेतु, उनके निराकरण के लिए मार्ग जानने हेतु, मानसिक संतुलन एवं दृढ़ता द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक उपलब्धियों को प्राप्त करने की दिशा में एवं आदर्श मानसिक स्वास्थ्य प्राप्ति की ओर जाने वाले मार्ग का पथ प्रदर्शित करता है। साथ ही उस लक्ष्य विशेष का स्वरूप उजागर करता है जो मानसिक स्वास्थ्य का चरम है। अतः पातंजल योगसूत्र में निहित ज्ञान के द्वारा तात्कालिक समय में प्रचलित विभिन्न मनोचिकित्सा मॉडलों के व्यावहारिक स्वरूप को उजागर किया जा सकता है (Bhogal, 2015)। जिनमें से संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा मॉडल का पातंजल योगसूत्र के पदों में व्यावहारिक स्वरूप का निरूपण इस शोध पत्र में किया जाना है।

पातंजल योगसूत्र के पदों में संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा मॉडल :

संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (CBT) के 'पहचान' चरण का उद्देश्य है कि व्यक्ति अपनी विचार प्रक्रियाओं, विश्वासों और भावनाओं को पहचाने, जो उनकी मानसिक स्थिति और व्यवहार को प्रभावित करते हैं। 'वृत्तिसारूप्यम' का तात्पर्य उस स्थिति से है जब व्यक्ति अपने विचारों और भावनाओं से पूरी तरह से पहचान बनाता है (पा.यो.सू., 1/4)। व्यक्ति अपनी विचार प्रक्रियाओं को देख सकता है और उनमें नकारात्मकता की पहचान कर सकता है (Vivekananda, 2005)। व्यक्ति के मानसिक कष्टों का कारण उसके स्वयं के कर्म एवं उनके बीज होते हैं। जिसको समझकर भविष्य की सुधार की दिशा में व्यक्ति द्वारा अतीत के अनुभव एवं वर्तमान की परिस्थितियों से जन्य मानसिक क्लेशों की जड़ को पहचानकर व्यक्ति के कष्टों के मूल कारणों (क्लेश) का पता लगाने और उन्हें दूर करने की दिशा में पहला कदम उठाने में मदद मिलती है(पा.यो.सू., 2/12)। क्योंकि नकारात्मक विचार और भावनाएँ (क्लेश) उपस्थित रहते हुए मानव जीवन की गुणवत्ता, दीर्घायु होने के गुण और अनुभवों पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं(पा.यो.सू., 2/13)। साथ ही व्यक्ति को यह समझाने में सहायता मिलती है कि उनके विचार और विश्वास किस प्रकार उनके अनुभवों और भावनाओं को आकार देते हैं, जो या तो सुखद या दुखद होते हैं (पा. यो. सू., 2/14)। विवेकशील व्यक्ति के लिए संसार में जो कुछ भी है, वह दुःखमय है जोकि परिणाम दुख, ताप दुख एवं संस्कार दुख रूप में विधमान है (पा.यो.सू., 2/15)। CBT में, व्यक्ति अपने चित्त (मन) में इन दुखों के प्रकारों के प्रति जागरूकता उत्पन्न कर नकारात्मक विचारों और भावनाओं को पहचानता है और यह समझता है कि ये विचार किस प्रकार उनके सुखद अनुभवों के परिणाम स्वरूप भी दुख की उत्पन्न करने वाले हैं। (Giri, 1999 ) जिससे मुक्ति हेतु व्यक्ति को अपने विचारों और विश्वासों में जागरूकता के साथ अवलोकन कर सुधार लाने के लिए काम करना है। साथ ही व्यक्ति को यह समझने में मदद मिलती है कि आने वाले दुःख को पहचाकर दूर किया जा सकता है(पा.यो.सू., 2/16)।

संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (CBT) में 'विश्लेषण' चरण का उद्देश्य मानसिक स्थिति, विचारों और भावनाओं के कारणों का गहन अध्ययन करना है। मानसिक वृत्तियों (मानसिक अवस्थाओं) को पहचानकर CBT के विश्लेषण चरण में यह समझा जा सकता है कि कौन से विचार और विश्वास असत्य (विपर्यय) या संभावित (विकल्प) हैं एवं व्यक्ति अपनी मानसिक गतिविधियों का निरीक्षण कर सकता है कि वह क्लिष्ट हैं अथवा अक्लिष्ट जो CBT में नकारात्मक सोच के विश्लेषण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है (पा.यो.सू., 1/6)। इसके पश्चात उन बाधाओं का वर्णन किया गया है, जो चित्त को अस्थिर करती हैं। CBT में, विश्लेषण चरण में यह समझना महत्वपूर्ण है कि कौन से आंतरिक और बाहरी अवरोध (जैसे आलस्य, संदेह, प्रमाद) मानसिक शांति और सकारात्मक सोच को बाधित कर रहे हैं (पा.यो.सू., 1/30,31)। CBT में इन लक्षणों का विश्लेषण महत्वपूर्ण है क्योंकि यह व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक प्रतिक्रियाओं को समझने में मदद करता है। क्लेशों (मानसिक कष्टों) के मुख्य स्रोत - अविद्या (अज्ञान), अस्मिता (अहंकार), राग (आसक्ति), द्वेष (घृणा), और अभिनिवेश (मृत्यु का भय) हैं। इन क्लेशों का विश्लेषण कर, व्यक्ति यह समझ सकता है कि उसकी नकारात्मक भावनाएं और विचार किस प्रकार उत्पन्न हो रहे हैं और कैसे इनसे मुक्ति पाई जा सकती है(पा. यो. सू., 2/3)। सूत्र (पा.यो.सू., 2/16) में द्रष्टा (आत्मा) और दृश्य (प्रकृति) के संयोग को हेय (अवांछनीय) बताया गया है। CBT में, यह विचार इस तथ्य को समझने में मदद करता है कि व्यक्ति के विचार और भावनाएं उसकी वास्तविक आत्मा (स्वरूप) से नहीं बल्कि बाहरी घटनाओं और स्थितियों से प्रभावित होती हैं। इसका विश्लेषण यह समझता है कि व्यक्ति की मानसिक दशा बाहरी दुनिया से किस प्रकार प्रभावित हो रही है (रामनाथ शर्मा, 2005 )। CBT में, नकारात्मक विचारों का विश्लेषण कर, व्यक्ति उनके विपरीत सकारात्मक विचारों का अभ्यास कर सकता है। इस प्रकार, यह सूत्र व्यक्ति को उसके नकारात्मक सोच को सकारात्मक सोच में बदलने की प्रक्रिया में मार्गदर्शन करता है(पा.यो.सू., 2/33)।

‘विकल्प’ चरण में, व्यक्ति को यह सिखाया जाता है कि नकारात्मक या आत्म-पराजयकारी विचारों की जगह नए, सकारात्मक और यथार्थवादी विकल्प कैसे अपनाए जाएं। पातंजल योगसूत्र में भी ऐसे अभ्यास और साधन दिए गए हैं जो चित्त (मन) को नियंत्रित करने और विकल्प विकसित करने में सहायक होते हैं। अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से चित्त की वृत्तियों का निरोध किया जा सकता है। CBT के विकल्प चरण में, यह समझना आवश्यक है कि नकारात्मक विचारों को नियंत्रित करने के लिए निरंतर अभ्यास करना आवश्यक है (पा.यो.सू., 1/12)। श्रद्धा, वीर्य (साहस), स्मृति (याद), समाधि और प्रज्ञा के माध्यम से चित्त को नियंत्रित किया जा सकता है। CBT में नए विकल्पों को अपनाने के लिए इन गुणों का विकास आवश्यक है, जिससे व्यक्ति आत्मविश्वास और समर्पण के साथ नए विचारों को अपना सके(पा.यो.सू., 1/20)। ईश्वर में समर्पण के द्वारा चित्त का निरोध किया जा सकता है। आस्था और विश्वास के माध्यम से मानसिक शांति और स्थिरता प्राप्त की जा सकती है (पा.यो.सू., 1/23)। इसी प्रकार मंत्र का जप और उसके अर्थ की भावना करना चित्त को नियंत्रित करने में सहायक होता है (पा.यो.सू., 1/28)। CBT में नकारात्मक विचारों को सकारात्मक विचारों से बदलने के लिए मंत्र या सकारात्मक आत्म-संवाद का अभ्यास किया जा सकता है। चित्त की अशांति को दूर करने के लिए एक तत्व (वस्तु या विचार) का अभ्यास करना (पा.यो.सू., 1/32), प्राण (सांस) के अभ्यास द्वारा चित्त (मन) को नियंत्रित करना (पा.यो.सू., 1/34), मित्रता, करुणा, मुदिता, और उपेक्षा के गुणों को विकसित करके चित्त की शांति एवं नकारात्मक विचारों के स्थान पर करुणा, सहानुभूति और सकारात्मकता का विकास करना (पा.यो.सू., 1/33), ज्योतिष्मती (प्रकाशवान) ध्यान का अभ्यास मानसिक अंधकार को दूर करने और मानसिक प्रकाश (सकारात्मकता) उत्पन्न करने हेतु (पा.यो.सू., 1/36), तप, स्वाध्याय, और ईश्वरप्रणिधान के माध्यम से आत्म-अनुशासन और आत्म-अध्ययन (पा.यो.सू., 2/1) एवं अष्टांग योग के द्वारा व्यक्ति चित्त की वृत्तियों पर नियंत्रण पाकर नए विकल्पों को अपनाने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो सकता है(पा.यो.सू., 2/29)। इन उपायों के पश्चात मन की आंतरिक उत्कृष्टता हेतु चित्त को एक स्थान पर बांधने का नाम धारणा है। CBT में नकारात्मक विचारों से मुक्त होने के लिए ध्यान और एकाग्रता का अभ्यास किया जाता है और धारणा में चित्त की एकतानता को ध्यान कहते हैं। CBT के विकल्प चरण में, ध्यान के अभ्यास से व्यक्ति नए सकारात्मक विकल्पों पर ध्यान केंद्रित कर सकता है (पा.यो.सू., 3/1,2)।

CBT के इस् चरण ‘अभ्यास’ के अंतर्गत पूर्ववत चरण में सुझाए गए विभिन्न विकल्पों का अभ्यास कर उन्हें दृढ़ बनाना शामिल है। CBT में, नकारात्मक विचारों को बदलने के लिए एक स्थिर और निरंतर अभ्यास आवश्यक है, जो व्यक्ति की मानसिक स्थिति को स्थिर और संतुलित बनाता है। साथ ही अभ्यास की लंबी अवधि और सततता पर जोर देता है। किसी भी व्यवहार परिवर्तन के लिए दीर्घकालीन और निरंतर प्रयास की आवश्यकता होती है(पा. यो. सू., 1/13,14)। इस चरण में, निरंतर अभ्यास से व्यक्ति की मानसिक स्थिति में स्थायी बदलाव लाया जा सकता है, जिससे CBT के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। अभ्यास के माध्यम से सूक्ष्म मानसिक बाधाओं (क्लेशों) को उलटने (प्रतिप्रसव) की आवश्यकता होती है। CBT में, व्यक्ति को अपने नकारात्मक विचारों और भावनाओं की सूक्ष्मता को पहचानकर उन्हें बदलने के लिए अभ्यास करना होता है (पा.यो.सू.,2/15)।

ध्यान की अवस्था में विचारों का निरोध किया जाता है। ध्यान के माध्यम से, व्यक्ति अपने नकारात्मक विचारों और भावनाओं को पहचानकर उन्हें छोड़ने का अभ्यास कर सकता है, जिससे मानसिक संतुलन प्राप्त किया जा सके (पा.यो.सू.,2/11)। CBT में 'अभ्यास' का उद्देश्य विवेक (सतर्कता) की स्थिति प्राप्त करना है, जो मानसिक विकारों को समाप्त करने का उपाय है(पा.यो.सू., 2/26)। CBT में, मनोवैज्ञानिक स्थिरता और शांति प्राप्त करना महत्वपूर्ण है। यह सूत्र आसन (शारीरिक मुद्रा) के स्थिर और सुखद होने पर जोर देता है(पा.यो.सू., 2/46)। इसके साथ ही श्वास पर ध्यान केंद्रित करना और उसकी गति को नियंत्रित करना मानसिक स्थिरता और संतुलन प्राप्त करने हेतु प्राणायाम (श्वास नियंत्रण) का अभ्यास करना (पा.यो.सू., 2/49), मानसिक इंद्रियों का नियंत्रण और चित्त की स्थिरता प्राप्त करने हेतु प्रत्याहार (इंद्रियों का नियंत्रण) का अभ्यास करना जिससे इंद्रियों को उनके विषयों से हटाकर चित्त के स्वरूप में स्थिर किया जा सके (पा. यो. सू., 2/54) साथ ही मानसिक और भावनात्मक स्थितियों पर संयम प्राप्त करने के लिए निरंतर अभ्यास करना चाहिए (आत्रेय, 1965)।

संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (CBT) के 'परिणाम' चरण का उद्देश्य मानसिक स्थिति में बदलाव लाना और नए, सकारात्मक विचार और व्यवहार स्थापित करना है। जब चित्त की वृत्तियों (मानसिक प्रवृत्तियाँ) का निरोध हो जाता हैं, तो मन स्वाभाविक रूप से निर्मल हो जाता है (पा.यो.सू.,1/41)। यह स्थिति संज्ञानात्मक पुनर्गठन (cognitive restructuring) में देखी जा सकती है, जहाँ पुराने नकारात्मक विचारों को नए सकारात्मक और यथार्थवादी विचारों से बदल दिया जाता है। यहाँ विचारों और उनके अर्थों के बीच के संबंध को समझा गया है। यह CBT के परिणाम चरण में महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस चरण में विचारों के अर्थ और उनके परिणामस्वरूप उत्पन्न भावनाओं का विश्लेषण किया जाता है (पा.यो.सू., 1/42)। स्मृति की शुद्धि होने पर विचार केवल अर्थ के आधार पर प्रकट होते हैं। CBT में, जब एक व्यक्ति अपने नकारात्मक विचारों से मुक्त हो जाता है, तो उनका विचार स्पष्ट और यथार्थवादी हो जाता है(पा.यो.सू.,1/43)। विचारों की शुद्धि और स्पष्टता आत्मिक प्रसाद (आंतरिक शांति) की ओर ले जाती है। यह वह स्थिति है, जहाँ व्यक्ति संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा के माध्यम से आत्म-स्वीकृति और आंतरिक शांति प्राप्त करता है (पा.यो.सू.,1/47)। जब व्यक्ति यथार्थ ज्ञान प्राप्त करता है, तो उसकी प्रज्ञा (बुद्धि) ऋतंभरा (सत्यस्वरूप) हो जाती है। जो व्यक्ति को यथार्थवादी और सकारात्मक दृष्टिकोण से सोचने में सक्षम बनाता है(पा.यो.सू.,1/48)। जब सभी प्रकार के विचारों का निरोध हो जाता है, तब निर्बीज समाधि (पूर्ण शांति) की प्राप्ति होती है(पा.यो.सू.,1/51)।

यूं तो सम्पूर्ण पातंजल योगसूत्र मनोवैज्ञानिक प्रष्ठभूमि पर निर्मित है जिसमें मानसिक समस्याओं, उनके कारणों, समस्याओं के मुक्ति के उपायों, मानसिक स्थिरता से प्राप्त लाभों (विभूतियों) एवं मानसिक स्वास्थ्य की उत्कृष्ट अवस्था के विभिन्न चरणों और स्वरूप का वर्णन ही मिलता है (इंद्राणी, 2018 ) (आत्रेय, 1965) (सुरेश वर्णवाल, 2002 ), परंतु यहाँ व्यवहारिक एवं तत्कालिक संदर्भ में पातंजल योगसूत्र के पदों में संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा मॉडल के निर्माण हेतु सीमित सूत्रों का व्यवहार किया गया है।

मनश्चिकित्सा के अनुसार संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा के चरण

पातंजल योगसूत्र के अनुसार संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा के उपकरण

पातंजल योगसूत्र में उपकरण की संदर्भ प्राप्ति (सूत्र संख्या)

पहचान

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।

क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः।

सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः।

ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात्।

परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः।

हेयं दुःखमनागतम्।

तस्य हेतुरविद्या।

1/4

2/12

2/13

2/14

2/15

2/16

2/24

विश्लेषण

प्रमाण विपर्यय विकल्प निद्रा स्मृतयः।

व्याधि-स्त्यान-संशय-प्रमाद-आलस्य-अविरति-भ्रांति-दर्शन-अलाभ-भूमिकत्व-अनवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः।

दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासाः विक्षेपसहभुवः।

अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः।

द्रष्टृदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः।

वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम्।

1/6

1/30

 

1/31

2/3

2/17

2/34

विकल्प

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।

श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्।

ईश्वरप्रणिधानाद्वा।

तज्जपस्तदर्थभावनम्।

तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः।

प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य।

मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणांसुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणांभावनातश्चित्तप्रसादनम्।

विशोका वा ज्योतिष्मती।

तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।

यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि।

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।

1/12

1/20

1/23

1/28

1/32

1/34

1/33

1/36

2/29

3/1

3/2

3/3

अभ्यास

तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः।

स तु दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारासेवितो दृढभूमिः।

ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः।

ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः।

विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः।

वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम्।

स्थिरसुखमासनम्।

तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।

बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः।

स्वविषयसंप्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इव इन्द्रियाणां प्रत्याहारः।

त्रयमेकत्र संयमः।

ततः पुनः शान्तोदितौ तुल्यप्रत्ययौ चित्तस्यैकाग्रतापरिणामः।

1/13

1/14

2/10

2/11

2/23

2/33

2/46

2/41

2/51

2/54

3/4

3/12

परिणाम

क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्राहणग्राह्येषु तत्स्थिततदञ्जनता समापत्तिः।

तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः।

स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का।

निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः।

ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा।

तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः।

समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च।

तदभावात्संयोगाभावो हानं तद्दृशेः कैवल्यम्।

योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः।

अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।

सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्।

अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्।

ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः।

अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासंबोधः।

शौचात्स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः।

सत्त्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्र्येन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च।

संतोषादनुत्तमसुखलाभः।

कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः।

स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोगः।

समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्।

प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम्।

ततो द्वन्द्वानभिघातः।

ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्।

धारणासु च योग्यता मनसः।

ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम्।

तज्जयात्प्रज्ञालोकः।

सर्वार्थतैकाग्रतयोः क्षयोदयौ चित्तस्य समाधिपरिणामः।

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति।

1/41

 

1/42

1/43

1/47

1/51

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3/11

4/34



निष्कर्ष : प्राचीन काल से भारतीय जीवनशैली में हमारे ज्ञानी पूर्वजों के द्वारा इस प्रकार की व्यवस्था विकसित की गई थी कि व्यक्ति स्वतः सर्वथा मानसिक रूप से स्वस्थ, संतुलित एवं सुदृढ़ बना रहता था परंतु वर्तमान समयानुसार जीवनशैली में आने वाली विकृतियों से मानसिकता में अंत्यन्त विचलन, संज्ञानात्मक समस्याएं एवं उनसे जन्य दूर्व्यवहार, विचारात्मक क्षमताओं में कमी व्यक्ति के मानसिक स्तर को बीमार कर रहे हैं। जिसके लिए आधुनिक समय में प्राप्त मनोचिकित्सा पद्धति का व्यवहार अधूरा सा जान पड़ता है क्योंकि यह पद्धतियां व्यक्तित्व के मात्र एक ही स्तर (मानसिक स्तर) को ध्यान में रखकर निर्मित की गई है अर्थात इनमें समग्रता की परिकल्पना का सर्वथा अभाव देखने को मिलता है। अतः आवश्यक है कि मानव आधुनिकता की दौड़ में बिसारे गयी पुरातन जीवनशैली जो समग्रता की अवधारणा पर निर्मित होती थी, के तत्वसार को आज की आवश्यकताओं के रंग में रंग कर पूर्ण विश्वास के साथ अपनाया जाए। यह शोध पत्र इसी दिशामें एक कदम है जोकि आधुनिक मनोविज्ञान से हमारी पुरातन ज्ञान परम्परा के मूल में स्थित योगदर्शन के ज्ञान को आज की आवश्यकता के अनुरूप एक चिकित्सा मॉडल का निर्माण करने के उद्देश्य से रचा गया है। पातंजल योगसूत्र में वर्णित सूत्रों को संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा हेतु उपकरण की भांति उपयोग कर वर्तमान समय में व्यक्ति को ना केवल मानसिक स्वास्थ्य अपितु समग्र व्यक्तित्व को निखार जा सकता है।

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दीक्षा
शोधार्थी, डॉ. हरि सिंह गौर विश्वविद्यालय सागर,मध्य प्रदेश

डॉ. अरुण कुमार साव
सहायक प्राध्यापक, डॉ. हरि सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (मध्य प्रदेश)
  
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

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