शोध आलेख : लोकनाट्य परंपरा और बदलता स्वरूप / पुष्कर लाल धाकड़

लोकनाट्य परंपरा और बदलता स्वरूप
- पुष्कर लाल धाकड़


शोध सार : हमारे देश में लोकनाट्यों की बहुत ही समृद्ध और विशद परंपरा रही है| भारतीय समाज में लोकनाट्य लोक जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग बन कर हमेशा से रहा है। जीवन के हर सुख-दुख में लोक नाट्यों की अपनी महत्ता रही है परंतु समय के साथ-साथ विभिन्न कारणों से लोक नाट्य परंपरा का महत्त्व शनै-शनै कम होता गया है। वर्तमान दौर उत्तर आधुनिकता का दौर है, जहाँ मानवीय मूल्यों का निरंतर ह्रास हो रहा है और पूँजी का ही वर्चस्व सर्वत्र छाया हुआ है। ऐसे बदलते दौर में लोकनाट्यों ने अपनी महत्ता खोई है। वर्तमान पीढ़ी बढ़ते तकनीकी युग के आगोश में आकर लोकनाट्यों से विमुख होती जा रही है। लोक नाट्य कलाकारों व दर्शकों की रुचि में भी परिवर्तन आया है। जिसका असर सदियों से चली आती लोक परंपरा पर दिखाई पड़ रहा है, कई लोक नाट्य कलाएँ तो विलुप्त होने की कगार पर हैं या फिर विलुप्त ही हो चुकी हैं। इसलिए वर्तमान दौर में इन लोकनाट्यों के संरक्षण और संवर्धन की अति आवश्यकता है।

बीज शब्द : ‘लोक’, ‘लोक साहित्य’, ‘लोक संस्कृति’, ‘लोकनाट्य’, ‘परम्परा’, ‘आधुनिक’, ‘पूँजीवाद’, ‘वर्तमान समय’, ‘जीवन’, ‘मनोरंजन’, ‘अभिव्यक्ति’|

मूल आलेख : भारतीय समाज में लोकनाट्यपरंपरा अत्यंत प्राचीन परंपरा रही है। लोक कलाएँ मनुष्य के हर सामाजिक उत्सव में जीवन का अंग बन कर रही है और जब तक मनुष्य में सामाजिक भाव है तब तक जुड़ी रहेगी। सदियों से चली आ रही इन लोक कलाओं व मनुष्य की अभिरुचि में समय के साथ परिवर्तन होता आया है। यह परिवर्तन बहुत ही आहिस्ता-आहिस्ता व दीर्घकाल में दिखाई पड़ते हैं। लोकनाट्यों की उत्पत्ति के बारे में ठीक से कहा नहीं जा सकता परंतु ऐसा माना जाता है कि आदिकाल में जब से मानव में सामाजिक बोध जागृत हुआ, तब से वो अपने भावों को विभिन्न शारीरिक क्रियाओं द्वारा व्यक्त करने लगा तभी से लोकनाट्यों की उत्पत्ति मानी जा सकती है। ‘हिन्दी साहित्य कोश’ के अनुसार “लोकनाट्यों की उत्पत्ति लोकविश्वास, धार्मिक रूढ़ियों, परंपराओं, वीर पूजा, मनोरंजन, उत्सव, मांगलिक पर्व तथा शोध आदि के अवसरों पर सहज अभिव्यक्त उल्लास, शोक आदि मनोभावों के बीच हुई होगी।”[1]

लोकनाट्य ‘लोक’ और ‘नाट्य’ दो शब्दों से मिलकर बना है। विभिन्न विद्वानों ने ‘लोक’ की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ कि हैं, “लोक का उत्पत्तिजन्य अर्थ है, दिखाई पड़ना अथवा गोचर होना अर्थात् सारा संसार जो इंद्रिय गोचर है, वह सभी लोक है।”[2] साथ ही हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार “लोक शब्द का अर्थ – जनसामान्य हैं। इसका हिंदी रूप ‘लोग’ है। इसी अर्थ का वाचन ‘लोक’ शब्द साहित्य का विशेषण हैं।”[3] इसी प्रकार नाट्य की उत्पत्ति को लेकर भी विद्वानों में भिन्न-भिन्न मत हैं। देवीलाल सामर नाट्य की उत्पत्ति नट से मानते हैं यथा “नाट्य की उत्पत्ति नट शब्द से हुई है। अंग संचालन से किसी विशेष परिस्थिति या व्यक्ति के क्रिया-कलापों को अभिव्यक्त करना ही नट का प्रमुख कार्य था। यही नट कला प्रारम्भिक क्रिया-कलापों से विकसित होकर गीतबद्ध हुई और विशिष्ट पर्व, समारोह तथा देवी-देवताओं के पूजन के समय उसका प्रदर्शन होने लगा”[4]। श्याम परमार लोक नाट्य कि परिभाषा इस प्रकार करते है “लोक नाट्य से तात्पर्य नाटक के उस रूप से है, जिसका संबंध विशिष्ट शिक्षित समाज से भिन्न सर्वसाधारण के जीवन से हो और जो परंपरा से अपने-अपने क्षेत्र के जनसमुदाय के मनोरंजन का साधन रहा हो।”[5]

लोकनाट्य केवल जनसामान्य का मनोरंजन ही नहीं करते बल्कि गाँवों में जाकर खेले जाने वाले इन लोक नाट्यों में उस क्षेत्र विशेष में जन्म लेने वाले महापुरुषों, वीर नायकों आदि का जीवन चरित्र, उन कलाकारों द्वारा किए गए जन कल्याणकारी कार्य आदि की जानकारी भी प्रदान करते हैं। उनके जीवन आदर्श अनुकरणीय कर्तव्यों को भी प्रदर्शित करते हैं। लोग नाट्य सामुदायिक प्रक्रिया है। वैसे तो लोक नाट्य का उद्भव लोक के मनोरंजन के लिए हुआ परन्तु धीरे-धीरे इनके द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक विभिन्न रीति-रिवाजों, परंपराओं व ज्ञान का भी हस्तानातंरण होता रहा है। “लोक-नाटक सामूहिक आवश्यकताओं और प्रेरणाओं के कारण निर्मित होने से लोक-कथानकों, लोक-विश्वासों और लोक-तत्त्वों को समेटे चलता है और जीवन का प्रतिनिधित्व करता है।”[6]

नाटक कि उत्पत्ति के संबंध में लोक में एक रोचक कथा प्रचलित है कि “इंद्र तथा अन्य देवताओं ने सब लोगों के मनोरंजन के लिए ब्रह्मा से कोई मनोविनोद का साधन उत्पन्न करने की प्रार्थना की। वे ऐसा साधन चाहते थे, जो श्रव्य तथा दृश्य दोनों हो तथा जिसमें सभी वर्णों के लोग समान रूप से भाग ले सकें। चूँकि वेदों के पठन-पाठन का अधिकार शूद्रों के लिए निषिद्ध था, अतः पंचम वेद की रचना अत्यंत आवश्यक प्रतीत हुई”[7]। अत: ब्रह्मा ने ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस लेकर पंचम नाट्य-वेद की सर्जना की। आचार्य भरत मुनि ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ में इस लोक कथा का उल्लेख किया है -

“जग्राह पाठ्यमृग्वेदात्सामभ्यो गीतमेव च।
यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथर्वणादपि ॥”[8]

जिस प्रकार मिट्टी से अन्न पैदा होता है तथा लोक की क्षुधा मिटाता है, उसी प्रकार लोक नाट्य लोक से ही उपजते हैं और लोक का ही अनुरंजन करते हैं। जबकि तथाकथित सभ्य समाज द्वारा रचित उत्कृष्ट नाट्य भी लोक से ही ऊर्जा पाते हैं तथा लोक की स्वीकृति पाकर ही प्रसिद्धि पाते हैं। आचार्य भरत मुनि भी इस बात को रेखांकित करते हैं -

“वेदाध्यात्मोपवान्नं तू शब्दच्छन्द: समन्वितम्।
लोकसिद्ध नाट्य लोकस्वभावनम्।
तस्मात् नाट्य प्रयोगे तू प्रमाण लोक इष्यते।

अर्थात वेद से उत्पन्न नाटक हो अथवा आध्यात्म से उत्पन्न नाट्य हो उसकी सार्थकता तभीहै जब लोक उसे स्वीकृति प्रदान करे।”[9]

भारतीय इतिहास में दसवीं से बारहवीं सदी का काल उथल-पुथल का काल था| इस दौरान भारत पर कई आक्रमण हुए जिन्होंने लोककलाओं को भी प्रभावित किया। इस भयाक्रांत परिवेश में राजदरबारों में किए जाने वाले उत्कृष्ट नाट्य लुप्तप्राय: हो गये, लेकिन दूर-दराजक्षेत्रों में किसी न किसी रूप में लोकनाट्य का विकास होता रहा। “यह सच है कि 10वीं-12वीं शताब्दी तक आते-आते संस्कृत नाटक लुप्त प्रायः हो गये थे। हमारी जितनी भी पुरातात्विक इमारतें हैं, उनमें से कोई ऐसी इमारत नहीं मिलती जहाँ पुरानी नाट्यशाला थी।”[10] मुगलों का राज स्थापित हो जाने से भी लोकनाट्य परंपरा प्रभावित हुई उस समय लोकनाट्य “मठों और मन्दिरों तक सीमित हो गए। धार्मिक तत्त्वों ने उन पर धार्मिक और पौराणिक कथाओं का बंधन लाद दिया। इस प्रकार रामलीला और कृष्णलीला की ही उन्नति उन दिनों द्रुत गति से हुई”[11] इसी काल में कृष्ण व राम की लीलाओं का भी आरंभ और विकास तेजी से हुआ। यद्यपि “भक्ति आंदोलन के पूर्व रामलीला प्रदर्शन के प्रमाण मिलते हैं। हरिवंश पुराण(500 ईसा पूर्व) में रामलीला पर आधारित एक नाटक अभिनीत किये जाने का उल्लेख है।”[12] श्याम परमार इस बात की पुष्टि कुछ इस प्रकार के शब्दों में करते हैं, “मध्यकालीन भक्ति-आन्दोलन के समय उत्कृष्ट रंगमंच के अभाव में लोकमंच को ही विकसित होने का अवसर प्राप्त हुआ। भक्ति आन्दोलन के प्रमुख संतों ने लोकनाट्य शैली को अपनाकर गीति-नाट्य परम्परा को प्रश्रय दिया।”[13]

लोक साहित्य लोक के प्रत्येक वर्ग में व्याप्त है। इसकी सर्वव्यापकता के कारण भरत मुनि कहते है कि ऐसा कोई ज्ञान, शिल्प, कला, योग या कार्य नहीं जो लोक नाट्यों में न देखा जाता हो। लोक नाट्यों की सर्वव्याप्ती को लेकर भी सोहनदान चारण का यही मत है, “लोक-साहित्य की पहुँच पर्ण-कुटी से लेकर राज-प्रासाद तक है। लोक-साहित्य लोक से सम्बन्धित होने के कारण हर घर में समादृत है। प्रत्येक व्यक्ति के मुख पर शोभायमान हो रहा है। सार्वजनिक संपदा के रूप में जन-मन का मोदन कर रहा है।”[14]

जब से आधुनिक काल की शुरुआत हुई, वैज्ञानिक सोच मनुष्य के चिंतन के केंद्र में आयी, तब से मनुष्य तर्क व विचार करने लगा है। लोक साहित्य ने भी सामाजिकता से वैयक्तिकता की ओर रास्ता तय किया है। इस वैज्ञानिक युग में विज्ञान के नए-नए आविष्कारों ने पूरी दुनिया को समेट कर रख दिया है। उन्नीसवीं सदी के बाद परिवर्तन जल्दी-जल्दी होने लगे और इस परिवर्तन की प्रक्रिया में लोकनाट्य के स्वरूप में भी परिवर्तन आया है। “आज विज्ञान के प्रभाव से तकनीकी प्रगति की गति अत्यन्त तीव्र हो गई है। इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जो कपड़ा सिलाया जाता है उसके फटने के पूर्व ही कटाई-छँटाई संबंधी फैशन कई बार बदल जाती है। यही कारण है कि आज लोकनाट्य भी हमें पिछड़े हुए लगने लगे हैं। समसामयिक संदर्भों से वे कटे हुए से प्रतीत होते हैं”[15]

आज के तकनीकी युग में सूचना क्रान्ति तथा डेटा की सुलभता ने मनोरंजन के साधनों तक पहुँच को सुलभ बनाया है। डिजिटलाइजेशन ने मनुष्य को अपने बंधन में जकड़ लिया है। मनोरंजन के साधन पर एक क्लिक करने पर टी.वी.,मोबाइल व कंप्यूटर पर मिल जाते हैं। “संचार के नए साधन, औद्योगिक विकास, कृषि क्रांति और आधुनिक शिक्षा ने इस समाज को भी पर्याप्त प्रभावित किया है और उसकी जीवन पद्धति, दृष्टि और रुचियाँ बदली हैं, बदल रही हैं।”[16] इस प्रकार मनोरंजन के साधन तक पहुँच सुलभ हो जाने के कारण लोकनाट्यों के दर्शकों में भी कमी आयी है और युवाओं में इसके प्रति रुचि कम हुई है।

वर्तमान पूँजीवाद में मनुष्य के जीवन में पूँजी का ही वर्चस्व हो गया है। मनुष्य बाजारवाद के माया जाल में धँसता चला गया तथा भौतिक सुख-सुविधा की खोज में मनुष्य पूँजी के पीछे भागने लगा, ऐसे में पहले जहाँ लोकनाट्य कलाकार जब गाँव में लोकनाट्य करने के लिए जाया करते थे तो उन्हें वहाँ सम्मान के साथ गाँव में ही आवश्यक सुविधाएँ मुहैया करा दी जाती थी। आज के दौर में न तो कलाकारों के प्रति दर्शकों को इतना सम्मान बचा, और न ही कलाकारों की इतनी व्यक्तिगत रुचि रही है। साथ ही उनमें सामूहिक भावना की भी कमी दृष्टिगत होती है। ऐसे में परंपरागत लोक कलाकारों को भी उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है, “पहले लोकनाटक स्वांत: सुखाय था। गाँव के लोग मिलकर नाटक रचते थे। स्वयं रंगमंच बनाते थे। स्वयं खर्च करते थे और रात-रात भर खेल करते, हजारों लोग उनका अवलोकन करते। किसी का कोई व्यवसाय नहीं था। कोई जात-पात का बंधन नहीं था। ऊँच-नीच का कोई भेदभाव नहीं था परन्तु आज व्यवस्था ही उलट गई है। स्वांत: सुखाय ढंग से नाटक करने की प्रथा अब बहुत ही कम रही।”[17] लोकनाट्य कभी भी व्यावसायिक नहीं रहे हैं। बढ़ते पूँजीवाद के प्रभाव से वर्तमान में कोई भी लोकनाट्यों का आयोजन स्वांत: सुखाय के लिए नहीं करता अपितु कुछ विशेष कलाकारों ने इसको कमाई का जरिया बना लिया है, इससे लोकनाट्यों के स्वरूप में भी परिवर्तन आया है ऐसे में “कुछ पेशेवर लोगों ने यह काम पकड़ लिया। उससे लोक नाटक ने शक्ल अवश्य बदली। उसमें रंगत भी आ गई। समाज की छिपी हुई प्रतिभाएँ सामने आने लगीं परन्तु उसका सामुदायिक रूप खत्म हो गया। मिलावट भी उसमें खूब हो गई। वह बहुमुखी होने के बजाय एकमुखी हो गया। सभी दृश्यावलियाँ, जो स्थल विशेष पर बिखरी होती थीं, वे मथुरा की रामलीला की तरह एक रंगमंच पर केन्द्रीभूत हो गई। राजस्थान का कुचामणी, चिड़ावी नाटक भी ऐसा ही हो गया है। दक्षिण भारत के यक्षगान नाट्य ने भी ऐसी शक्ल पकड़ ली। हरियाना का सांग, बीकानेर की रम्मत तथा मेवाड़ की रासधारी अभी भी अपने सामुदायिक रूप में विद्यमान है।”[18]

लोकनाट्य के स्वरूप में बदलाव का एक अन्य कारण वर्तमान जीवन व सभ्यता में जटिलता का आना भी है। मध्यकाल में मनुष्य अपने विचारों भावनाओं व प्रकृति में सरल था। गाँवों-ढाणियों में निवास करने वाले उस जन समुदाय में सामूहिकता का भाव था। यही कारण है कि उसमें लोकगीत और लोकनाट्य जैसी विधाओं का प्रचलन था। वर्तमान में मनुष्य के जटिल होते जीवन में सोचने, समझने व विचारने के तरीकों में अंतर आ गया है। इसलिए लोकगीत व लोकनाट्य जैसी सामूहिक विधाएँ संकट के दौर से गुजर रही हैं। जैसे-जैसे नगरीकरण का विकास हुआ सामाजिक संरचना में भी जटिलता आती गई। इसका कारण यह था कि नगरों में भिन्न-भिन्न परिवेश व भिन्न-भिन्न मूल्यों के लोग एक साथ रहते आए थे। जाति, धर्म जैसी संरचनाएँ मनुष्य को बाँधे रहती थी, नगरों में आने के बाद टूटने लगी तथा पारिवारिक मूल्यों में भी परिवर्तन आया। जिससे संयुक्त परिवार टूटने लगे व एकाकी परिवार का प्रचलन तेज़ी से बढ़ने लगा, जिससे एक ऐसे समाज का निर्माण हुआ जिसमें समरूपता नहीं अपितु विषमताएँ अधिक थी।

लोकनाट्य कलाकारों को अपनी जीविका को लेकर भी चिंता लगी रहती है। “जो जातियाँ सामाजिक व्यवस्था में अपनी कलाएँ प्रदर्शित कर पेट पालती रही हैं, उनके लिये आज की सामाजिक व्यवस्था में अब स्थान नहीं रहा है। हर प्रबुद्ध व्यक्ति जानता है कि इन जातियों को जीविका के लिये विविध साधन अपनाने पड़े हैं। बढ़ती हुई औद्योगिक और नए मूल्यों की दिशा में लोककलाओं का भार निश्चय ही इन जातियों से कुछ माने में छिनकर मिले-जुले कलाभिरुचियों वाले व्यक्तियों के हाथ में आ गया है। यद्यपि इन व्यक्तियों के लिये इन्हीं कलाजीवी जातियों के बचे हुए व्यक्तियों का सहयोग लिये बिना आगे बढ़ना संभव नहीं है।”[19] लोकनाटकों के प्रति यहीं से उनके नवीनीकरण और नैरन्तर्य का सिलसिला शुरू होता है।

अभिजात्य साहित्य ने कई श्रेष्ठ प्रतिमान स्थापित किए तथा परंपरागत लोकसाहित्य की अपेक्षा अभिजात्य साहित्य ही मुख्यधारा में आ गया। यद्यपि भारतीय लोकनाट्य परम्परा शास्त्रीय नाट्य से कहीं अधिक पुरानी है, मगर इसे अभिजात्य साहित्य कभी भी इतना प्रश्रय नहीं दे पाया जितनी उसे आवश्यकता थी इसका परिणाम यह हुआ कि लोक साहित्य अभिजात्य साहित्य से कटा हुआ व अलग होकर रह गया। इन कारणों को समझते हुए तथा अकादमिक क्षेत्र में भी लोक के प्रति उपेक्षित भाव को लेकर महेन्द्र भाणावत अपनी चिंता इस प्रकार व्यक्त करते हैं कि- “इस देश में लोकप्रचलित नाट्यशैलियों को साहित्य के स्तर पर कभी महत्त्व नहीं दिया गया। साहित्य-परक मान्यताओं के अन्तर्गत लोकसंबद्ध विधाओं को समुचित महत्त्व इसलिए भी नहीं मिला कि अभिव्यक्ति का यह क्षेत्र लिखित साहित्य के अर्जित आभिजात्य के अनुकूल नहीं पड़ता। विश्वविद्यालयों ने लोकसाहित्य सम्बन्धी शोधकार्यों को जिस रूप में प्रोत्साहन दिया है, उससे केवल औपचारिकता का ही निर्वाह हुआ है।”[20]

लोकनाट्य परंपरा के ह्रास के कारणों की पड़ताल करने में एक कारण यह भी दृष्टिगत होता है कि इनके कथानक परंपरागत एवं रूढ़ रहे हैं, वर्तमान की बदलती रुचि के साथ यह तालमेल नहीं बिठा पाए है। कथानकों में नयापन नहीं होने के कारण वर्तमान समय से नहीं जुड़ पा रहे हैं, जिससे दर्शकों में भी इनके प्रति अरुचि पैदा हो रही है। भारत के कई राज्यों में लोकनाट्य लुप्तप्राय: हो गए हैं क्योंकि वहाँ अंग्रेजों का सीधा शासन था। अंग्रेजों ने भारतीय लोक कलाओं में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। जबकि राजा महाराजाओं के दरबार में प्रायः मनोरंजन के लिए लोकनाट्य हुआ करते थे। लोककलाकार भी राजाओं से पारितोषिक व उपहार प्राप्त करके अपना जीवन यापन करते थे। अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना के पश्चात लोक कलाकारों के जीवन यापन पर संकट आ गया। वे धीरे-धीरे लोक कलाओं को छोड़ कर अन्य कामों में प्रवृत्त होने लगे। अतः जहाँ-जहाँ राजाओं का राज्य था, वहाँ-वहाँ लोकनाट्य कुछ बच गए अन्य जगहों पर लुप्त हो गए।

पहले लोकनाट्य रात-रात भर चलते थे, इनके पीछे एक कारण यह था कि कई किलोमीटर से पैदल चलकर दर्शक लोक नाट्य देखने आया करते थे। उनका रात को लौटकर घर वापिस जाना मुश्किल होता था वे अपनी पूरी रात इन लोकनाट्यों को देखकर ही बिताना चाहते थे, ताकि उनको रात में ठहरने कि असुविधा न हो; इसलिए दर्शकों के आग्रह पर लोकनाट्य प्रदर्शकों को मूल प्रसंग में अन्य अप्रासंगिक प्रसंग भी शामिल करके कलेवर को बढ़ाना पड़ता था। इस प्रकार अन्य प्रसंग भी मूल नाटकों में जुड़ जाते थे परंतु वर्तमान में स्थिति ठीक इसके उलट है सामान्य जन के पास भी समयाभाव है और यातायात के साधनों के विस्तार से भी लोगों के आवागमन में अनेक सुविधाएँ हैं। अब लोग जल्दी से जल्दी घर पहुँचना चाहते हैं, इस प्रकार लोकनाट्य के प्रदर्शनों की लंबाई इसकी विशेषता थी वो अब इसकी कमज़ोरी बन गई, अब दर्शक इतने लंबे नाटक देख कर ऊबने लगते हैं, उन्हें तो जल्द से जल्द कुछ नया या प्रभावित करने वाला कलेवर चाहिए।

निष्कर्ष : लोक साहित्य की व्यापकता भारतीय समाज में हमेशा से रही है। जीवन के प्रत्येक महत्त्वपूर्ण समय में लोक साहित्य की मौजूदगी रही है। लोकनाट्यों की बहुत ही लम्बी परंपरा रही है। प्राचीन समय में गाँवों से लेकर राजदरबारों तक लोकनाट्यों की पहुँच थी, राजा-महाराजा भी इन परंपराओं के माध्यम से जनसामान्य से जुड़े रहते थे। मध्यकाल में जब सभी तरफ उथल-पुथल मची हुई थी, तब भी लोकनाट्य विकसित होते रहे, परंतु वर्तमान में तकनीकी युग के व्यापक हस्तक्षेप और आधुनिकता के प्रभावों में जिस गति से हमारा जीवन बदल रहा है उस स्थिति से परम्पराओं में बदलाव नहीं हो पा रहा है। इससे पुरानी परंपराएँ पीछे छूटती चली जा रही हैं। ऐसे में बहुत सी लोक नाट्य परम्पराएँ विलुप्त हो चुकी हैं तथा बहुत-सी विलुप्त होने के कगार पर हैं। आवश्यकता इस बात की है कि अकादमिक क्षेत्र तथा निजी संस्थाओं में भी इन परंपराओं के दृष्टिकोण विकसित हो ताकि इन परंपराओं का संरक्षण किया जा सके।

सन्दर्भ :
1. अमरनाथ : हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012 पृ.सं. 317
2. हेमंत कुकरेती(सं.) : भारत की लोकसंस्कृति, प्रभात प्रकाशन, पृ.सं. 1
3. धीरेन्द्र वर्मा(सं.) : हिंदी साहित्य कोश, भाग 1, ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी, 1985 पृ.सं. 748
4. देवीलालसामर : लोकधर्मी प्रदर्शनकारी कलाएँ, भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर 1968 पृ.सं. 163
5. श्याम परमार : लोकधर्मी नाट्य परम्परा, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी, पृ.सं. 30,31
6. नगेन्द्र(सं.) : भारतीय नाट्य-साहित्य, सेठ गोविंददास हीरक जयंती समारोह समिति, नई दिल्ली, पृ.सं. 84
7. विद्या सिन्हा : भारतीय लोक साहित्य पंपरा और परिदृश्य, प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार, नई दिल्ली, 2011, पृ.सं.42
8. भरत मुनि : नाट्यशास्त्र, 1/17
9. अमरनाथ : हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012, पृ.सं. 317
10. भानु भारती : रंगायन, लोकनाट्यों की प्रासंगिकता(वर्तमान परिप्रेक्ष्य में), अंक 1, 2019 पृ.सं.1
11. श्याम परमार : भारतीय लोक साहित्य, राजकमल पब्लिकेशन लिमिटेड, बम्बई,1954
12. श्याम परमार : लोकधर्मी नाट्य परम्परा, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी, पृ.सं. 30,31
13. श्याम परमार : मालवी लोक साहित्य एक अध्ययन, पृ.सं. 299
14. सोहनदान चारण : राजस्थानी लोक-साहित्य का सैद्धांतिक विवेचन, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 2016, पृ.सं.20
15. महेन्द्र भाणावत : लोकरंग, भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर 1971, पृ.सं.373
16. रामप्रसाद दाधीच : राजस्थानी लोक साहित्य : अध्ययन के आयाम, जैन सन्स, रातानाडा जोधपुर, 1976, पृ.सं.86
17. देवीलाल सामर : संस्कृति के रखवारे, भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर 1980, पृ.सं. 6
18. वही, पृ.सं. 6
19. महेन्द्र भाणावत : लोकरंग, भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर 1971, पृ.सं. 371
20. वही, पृ.सं. 367

पुष्कर लाल धाकड़
शोधार्थी, गोविंद गुरु जनजातीय विश्वविद्यालय बाँसवाड़ा,(राज.)

शोध निर्देशक
डॉ. लोकेन्द्र कुमार
सहायक आचार्य, गोविंद गुरु राजकीय महाविद्यालय, बाँसवाड़ा,(राज.)

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

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