आलेख : सिनेमा का सांस्कृतिक संघर्ष / आशीष त्रिपाठी



सिनेमा का सांस्कृतिक संघर्ष
- आशीष त्रिपाठी


अभी मैंने एक तमिल फिल्म हिंदी डबिंग में देखी, फिल्म का नाम है थंगालान। जिसका निर्देशन पा. रंजीत ने किया है। तमिल में इसका उच्चारण क्या होगा, यह मुझे नहीं पता, लेकिन हिंदी में हम इसे थंगालान कह सकते हैं। फिल्म देखते हुए मेरे मन में यह सवाल उठा कि हिंदी भाषा में जो सिनेमा बन रहा है, वह बहुत सारी चीजों को छू पाने में असमर्थ हो रहा है। किसी समाज का जो सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य होता है, चाहे वह कहानी में हो, नाटक में हो, किसी बड़ी कविता में हो या फिर सिनेमा में, वह कहीं कहीं भीतर से मौजूद होना चाहिए, उसकी तहों में बसा होना चाहिए। लेकिन हिंदी सिनेमा में भारतीय समाज की हजारों वर्षों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का अभाव दिखाई देता है। विशेष रूप से भूमंडलीकरण के बाद के हिंदी सिनेमा को देखें तो यह मनुष्य और समाज के द्वंद्व को आधुनिक भारतीय परिप्रेक्ष्य में ही रखकर प्रस्तुत करता है। जिन सामाजिक टकरावों की बात यह उठाता है, वे मोटे तौर पर आधुनिक भारतीय मनुष्य और उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जुड़े होते हैं। लेकिन मैंने देखा कि आधुनिकता से पहले जो समाज था, उसकी सांस्कृतिक अनुगूंजें भी कुछ सिनेमाई प्रस्तुतियों में दिखाई देती हैं। इसका बहुत अच्छा उदाहरण यह फिल्म थंगालान है।

फिल्म की कहानी अंग्रेज अधिकारियों और दक्षिण भारत के एक विशेष समुदाय के इर्द-गिर्द घूमती है। थंगालान , जो इस कथा का नायक है, वह दलित है, आदिवासी है, या फिर किसी ऐसे समुदाय से आता है जो इन दोनों के बीच की कोई कड़ी हैयह स्पष्ट नहीं है। हो सकता है कि वह ऐसा आदिवासी हो, जो कभी पहाड़ों में रहता था लेकिन अब ग्रामीण क्षेत्र में आकर बस गया है। या फिर वह वे आदिवासी हैं जो खेतिहर समाज में बदल चुके हैं, खेती ही उनकी आजीविका का मुख्य स्रोत बन चुकी है। इन्हें मोटे तौर पर सेमी-ट्राइब, सेमी-ग्रामीण आदिवासी कहा जा सकता है। फिल्म में तीन तरह के आदिवासी समुदाय दिखाए गए हैं। पहले वे जो अब पूरी तरह ग्रामीण जीवन अपना चुके हैं, दूसरे वे जो जंगल छोड़कर शहरों में मजदूर बन चुके हैं, और तीसरे वे जो अब भी अपने पारंपरिक अनुष्ठानों और त्योहारों को बचाए रखने की कोशिश कर रहे हैं। थंगालान  जब अंग्रेज अधिकारियों के साथ सोने की खदानों की खोज में एक इलाके में जाता है, तो वहां उसका सामना एक ऐसे आदिवासी समुदाय से होता है, जिसने अपनी पारंपरिक जीवनशैली को पूरी तरह बचाकर रखा है।

फिल्म में आदिवासी समुदायों के आपसी संघर्ष को बहुत गहराई से दिखाया गया है। एक समुदाय अंग्रेजों के करीब रहा है, उनके साथ जुड़ रहा है, जबकि दूसरा उनसे संघर्ष कर रहा है। थंगालान  को अपने बचपन में सुनी कहानियां याद आती हैं और वह इस संघर्ष को एक प्राचीन आख्यान के रूप में देखने लगता है। यह दो आदिवासी समुदायों के संघर्ष की कथा प्राचीन पौराणिक कथाओं से जुड़ जाती है।

संघर्ष के केंद्र में एक मूर्ति है। एक तरफ थंगालान  और अंग्रेज अधिकारी हैं, और दूसरी तरफ आदिवासी समुदाय है। यह मूर्ति किसी भव्य मंदिर में स्थापित नहीं है, बल्कि वीराने में है। थंगालान  इसे अपनी भाषा में मुनि कहता है। आदिवासी इसे सीधे संबोधित नहीं करते, लेकिन ऐसा लगता है जैसे यह मूर्ति उनके पूरे अस्तित्व का केंद्र है। यह प्रतीकात्मक रूप से भारतीय संस्कृति के हजारों वर्षों के संघर्ष को सामने लाती हैबौद्ध बनाम वैदिक, बौद्ध बनाम वैष्णव, बौद्ध बनाम ब्राह्मणवाद। इस संघर्ष में स्त्रियों की भूमिका महत्वपूर्ण है। थंगालान  के प्रतिद्वंद्वी आदिवासी समुदाय का नेतृत्व स्त्रियां कर रही हैं, जो इसे एक मात्र-सत्तात्मक समाज के रूप में प्रस्तुत करता है। फिल्म स्त्री की शक्ति को महिमामंडित करती है, और जब प्रमुख स्त्री पात्र क्रोधित होती है, तो उसकी आवाज आंधी की तरह पूरे दृश्य पर छा जाती है। यह दृश्य भारतीय समाज की पुरातन मात्र-सत्तात्मकता की ओर संकेत करता है, जिसे पूरी तरह छोड़ा नहीं गया है।

भारत के लगभग हर गांव में किसी किसी रूप में माई (मां) की पूजा की जाती है। चाहे वह किसी भी जाति या वर्ण का व्यक्ति हो, वह ग्राम देवी, वन देवी, जल देवी या पहाड़ों की देवी की आराधना करता है। हालांकि, हमारी प्रमुख देव-प्रणाली में सारे महत्वपूर्ण देवता पुरुष हैंब्रह्मा, विष्णु, महेश। लेकिन गांवों की लोक-आस्थाओं में मातृशक्ति का एक अलग स्थान है। दामोदर धर्मानंद कोसांबी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक मिथक और यथार्थ में बताया है कि किस प्रकार प्राचीन मातृदेवियों का रूपांतरण हुआ। पहले उन्हें बौद्ध और जैन संहिताओं में समाहित किया गया, फिर वे वैष्णव और शैव परंपराओं में शामिल हुईं, और अंततः उन्हें ब्राह्मणवादी हिंदू संहिताओं में सम्मिलित कर लिया गया। थंगालान  की कथा भी कहीं कहीं इसी ऐतिहासिक बदलाव का प्रतिबिंब है।फिल्म में एक राजा ब्राह्मणों के कहने पर बुद्ध की मूर्ति को खंडित कर देता है। सोने की खोज में आया यह राजा अंततः एक गहरे सांस्कृतिक संघर्ष का हिस्सा बन जाता है।

फिल्म के अंत में थंगालान  अंग्रेजों का साथ छोड़कर उस प्राचीन आदिवासी समुदाय के साथ मिल जाता है, जो अपनी परंपराओं को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा था। कहानी के कई राजनीतिक और सामाजिक व्याख्याएं हो सकती हैं, लेकिन इसके भीतर हजारों वर्षों की सांस्कृतिक टकराहट, ब्राह्मणवाद और आदिवासी संघर्ष, ग्रामीण समाज का विकास, जमींदारी और सामंतवाद की छायाएं, और यहां तक कि वैष्णववाद और शैववाद के आंतरिक टकराव भी झलकते हैं। इस संदर्भ में थंगालान  की तुलना मणिरत्नम की फिल्म पोन्नियिन सेल्वन से की जा सकती है। पोन्नियिन सेल्वन की कहानी लगभग 1000 साल पहले के चोल साम्राज्य के इर्द-गिर्द घूमती है। इसमें जैन और बौद्ध धर्मों के प्रति सहानुभूति रखने वाले क्षत्रियों की स्थिति को दिखाया गया है। फिल्म में दक्षिण भारत के शैव-वैष्णव संघर्ष, मंदिरों से जुड़े शैववाद और आदिवासी शैव परंपराओं के बीच की टकराहट को भी उजागर किया गया है।

मेरा ध्यान इस बात पर है कि जब पोन्नियिन सेल्वन की कहानी कही जाती है, तो उसके भीतर 3000 वर्षों के सांस्कृतिक संघर्ष को कितनी खूबसूरती से पिरोया गया है। लेकिन हिंदी सिनेमा में यह गहराई कम ही देखने को मिलती है। ऐसा नहीं कि हिंदी में कोई महत्वपूर्ण सिनेमा नहीं बन रहा, लेकिन उसमें इतनी परतें और सांस्कृतिक अनुगूंज स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देतीं। थंगालान  और पोन्नियिन सेल्वन जैसी फिल्में यह दिखाती हैं कि सिनेमा सिर्फ कहानी कहने का माध्यम नहीं है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक स्मृतियों और ऐतिहासिक संघर्षों का भी दर्पण हो सकता है।

मणिरत्नम की फिल्मों में सांस्कृतिक पृष्ठभूमियाँ अलग-अलग प्रकार के दर्शन और संगठनों से जुड़ी हुई हैं, जिससे उनके कथानक में राजनीतिक संघर्ष के साथ-साथ सांस्कृतिक टकराव भी देखने को मिलता है। मणिरत्नम ने इस द्वंद्व को कुशलता से जोड़कर प्रस्तुत किया है। वैष्णव समुदाय अपेक्षाकृत अधिक विकसित सांस्कृतिक बोध वाले लोग हैं, जो मुख्य रूप से खेतिहर और नागर समाज से आते हैं। वहीं, शहरों में मौजूद कुछ समुदाय अब भी अपने पुरातन विश्वासों को लेकर चल रहे हैं। यह दिलचस्प है कि मणिरत्नम की फिल्मों में बौद्ध, जैन, वैष्णव, वैदिक और आदिवासी समाजों के सांस्कृतिक संघर्ष को अनूठे ढंग से पिरोया गया है। हिंदी में ऐसी कहानियाँ क्यों नहीं दिखाई देतीं? आखिर हिंदी पट्टी ही तो गौतम बुद्ध की कर्मस्थली रही हैबोधगया, सारनाथ, कौशांबी, कुशीनगर, सांची, भरूच जैसे महत्वपूर्ण स्थल हिंदी पट्टी में हैं, केवल लुंबिनी को छोड़कर, जो नेपाल में स्थित है। लेकिन हिंदी फिल्मों में इन बौद्ध-जैन परंपराओं की छवि नजर नहीं आती, जबकि दक्षिण भारतीय फिल्मों में यह सांस्कृतिक विविधता स्पष्ट रूप से झलकती है।

इसका एक बड़ा कारण हिंदी पट्टी में आधुनिकता की जटिल प्रक्रिया हो सकती है। यहां आधुनिकता को अपनाने के साथ यह धारणा बन गई कि पुरानी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराएँ अंधविश्वास और रूढ़ियों से भरी हुई हैं, इसलिए उन्हें त्याग देना चाहिए। जबकि दक्षिण भारत में ऐसा नहीं हुआ। वहाँ सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों को बचाए रखने का प्रयास किया गया। उदाहरण के लिए, थंगलान फिल्म में कई अंधविश्वास दिखाई देते हैंबुद्ध की मूर्ति टूटने से विपत्ति आना, मूर्ति जुड़ने से जीवन सुधरना, या ऐसी स्त्री का चित्रण जिसके पेट में खंजर घोंपने से उसकी रक्तरंजित मिट्टी सोने में बदल जाती है। यह अति-प्राकृतिक घटनाएँ हैं, लेकिन दक्षिण भारतीय फिल्मकारों ने इन फिक्शनल तत्वों और ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संदर्भों को जोड़ने का तरीका विकसित कर लिया है। हिंदी सिनेमा में आधुनिकता के नाम पर इस कला को खो दिया गया है।

दूसरा बड़ा कारण यह हो सकता है कि हिंदी फिल्में मुख्य रूप से अहिंदी भाषी लोग बनाते हैं। हिंदी सिनेमा उद्योग में तीन प्रमुख लॉबियाँ हैंपंजाबी लॉबी (राज कपूर, यश चोपड़ा, बी. आर. चोपड़ा आदि), दक्षिण भारतीय लॉबी (तमिल, तेलुगु, मलयालम फिल्मकार), और कभी प्रभावशाली रही बंगाली लॉबी (हिमांशु राय, देविका रानी से लेकर सत्यजीत राय तक) वर्तमान में मुख्य रूप से दक्षिण भारतीय और पंजाबी लॉबी हावी हैं, और धीरे-धीरे गुजराती फिल्मकार भी उभर रहे हैं। हिंदी पट्टी के फिल्मकार अब कुछ हद तक सामाजिक यथार्थ को फिल्मों में शामिल कर रहे हैं, लेकिन मुख्य प्रवृत्ति अभी भी व्यावसायिकता है। व्यवसायिकता के इस प्रभाव को देखते हुए पोन्नियन सेल्वन और थंगलान जैसी दक्षिण भारतीय फिल्मों की व्यावसायिक सफलता को समझना जरूरी है। इन फिल्मों ने हिंदी डबिंग और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर भी शानदार प्रदर्शन किया, जबकि हिंदी फिल्म उद्योग व्यावसायिकता की सीमित परिभाषा में बंधा हुआ है। यही कारण है कि इस तरह की ऐतिहासिक-सांस्कृतिक गहराई वाली फिल्में हिंदी में कम बनती हैं।

हालाँकि, हिंदी फिल्मों में सांस्कृतिक आधार को संवेदनशीलता से प्रस्तुत करने के कुछ अच्छे उदाहरण भी मिलते हैं। केतन मेहता की भवानी भवई गुजरात के लोकनाट्य "भवाई" पर आधारित थी। इस फिल्म की पूरी शैली लोकनाट्य के प्रदर्शन से प्रेरित थी, जहाँ मंचीय प्रस्तुति के तत्वों को बड़े कैनवास पर फैलाया गया था। इसी तरह, गुजराती उपन्यास सरस्वतीचंद्र पर आधारित फिल्म में भी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को जीवंत बनाया गया था। इस फिल्म में हिंदी सिनेमा का पहला गरबा गीत आया था—"मैं तो भूल चली बाबुल का देश, पिया का घर प्यारा लगे।"

इसी तरह, केशव प्रसाद मिश्र के उपन्यास कोहबर की शर्त पर आधारित नदिया के पार फिल्म में भी ग्रामीण संस्कृति का गहरा प्रभाव दिखता है। इन फिल्मों ने समाज की कथा कहते हुए उसकी सांस्कृतिक जड़ों को भी संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया था। लेकिन ऐसे उदाहरण हिंदी सिनेमा में दुर्लभ हैं। सिनेमा मुख्य रूप से कथा और चाक्षुष सौंदर्य (विजुअल एस्थेटिक्स) का माध्यम है। जब आप सिनेमा देखने जाते हैं, तो आप केवल कहानी नहीं सुनते, बल्कि उसे देखते भी हैं। दक्षिण भारतीय फिल्मों ने कथा और विजुअल एस्थेटिक्स को मिलाकर सांस्कृतिक पहचान बनाए रखी, जबकि हिंदी फिल्मों में यह प्रवृत्ति कमजोर पड़ी है। हिंदी सिनेमा में इस सांस्कृतिक विविधता और ऐतिहासिक गहराई की कमी को दूर करने की जरूरत है, ताकि यह केवल व्यावसायिकता तक सीमित रहे, बल्कि अपने समाज की समृद्ध परंपराओं को भी आत्मसात कर सके।हिंदी फिल्मों में गांव का चित्रण अलग-अलग रूपों में देखने को मिलता है। अगर हम 20 साल बाद आने वाली फिल्मों की बात करें तो अमिताभ बच्चन की फिल्म सुहाग एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। इस फिल्म में कल्याणजी-आनंदजी का संगीत है, जो मूल रूप से गुजराती थे। इसी तरह, सरस्वती चंद्र जैसी फिल्मों में भी संगीत का एक विशिष्ट सांस्कृतिक आधार दिखाई देता है।

अगर हम नदिया के पार जैसी फिल्में देखें, तो वे बड़े बैनर की फिल्में थीं, और राजश्री प्रोडक्शन द्वारा बनाई गई थीं। राजश्री प्रोडक्शन के संस्थापक मूल रूप से हिंदी भाषी क्षेत्र से नहीं थे, बल्कि उनका संबंध हरियाणा, हिमाचल, भारत के पंजाब और पाकिस्तान के पंजाब के किसी इलाके से था। यह फिल्म गांव के असली परिवेश को जीवंत तरीके से प्रस्तुत करती हैमिट्टी के घर, गलियां, खेत, सिवान, और नदी किनारे का प्राकृतिक दृश्य। फिल्म का गीत गूंजा रे चंदन चंदन इस संस्कृति को और प्रामाणिकता प्रदान करता है। यदि यह फिल्म सिनेमैटिक दृष्टि से थंगालान  या पोन्नियिन सेल्वन जैसी गहराई से बनाई गई होती, तो इसका प्रभाव और अधिक गहरा होता। हिंदी फिल्मों में गांव का चित्रण अक्सर वास्तविकता के करीब नहीं होता। मुंबईया सिनेमा में गांव का जो चित्रण होता है, वह अधिकतर रूढ़ियों और सतही तत्वों से भरा होता है। वहीं, समानांतर सिनेमा ने गांव और सामाजिक यथार्थ को अधिक प्रभावी रूप से प्रस्तुत करने की कोशिश की। श्याम बेनेगल जैसे निर्देशकों की निशांत, अंकुर, मंथन जैसी फिल्में इसका उदाहरण हैं। मंथन में ग्रामीण पृष्ठभूमि को वास्तविकता के करीब लाने की कोशिश की गई, लेकिन यह फिल्में थंगालान  या पोन्नियिन सेल्वन की तरह 3000 साल की सांस्कृतिक यात्रा को संबोधित नहीं करतीं।

गिरीश कर्नाड की उत्सव, शोध, और त्रिकाल जैसी फिल्मों में भी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को चित्रित करने का प्रयास किया गया, लेकिन वे गहराई से 4000 साल की सांस्कृतिक परंपरा को पकड़ने में असफल रहीं। इससे यह होता है कि जाति, वर्ण व्यवस्था, और स्त्री शोषण जैसे प्रश्न केवल 100-150 वर्षों के दायरे में सिमटकर रह जाते हैं। सत्यजीत राय की सद्गति एक अच्छी फिल्म थी, लेकिन इसमें दलितों की कोई सांस्कृतिक विरासत दिखाई नहीं देती। यह फिल्म जातिगत उत्पीड़न को तो दिखाती है, लेकिन इस प्रश्न को नहीं उठाती कि दलित समुदाय, जिसे ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने बहिष्कृत कर दिया, वह फिर भी ब्राह्मण के घर सत्यनारायण की कथा सुनने क्यों जाता है? सत्यजीत राय के पास इस प्रश्न को उठाने का अवसर था, लेकिन उन्होंने केवल सामाजिक यथार्थ को चित्रित किया, सांस्कृतिक यथार्थ को नहीं।

जब हम थंगालान  जैसी फिल्मों की बात करते हैं, तो वहां यह दिखता है कि आदिवासी समाज की अपनी संस्कृति, नृत्य, रीति-रिवाज, और धार्मिक आस्थाएं हैं। अंग्रेजों के भारत आने के समय तक आदिवासी महिलाएं पारंपरिक वस्त्र ही पहनती थीं, क्योंकि सिलाई तकनीक उस समय तक इन समुदायों में नहीं पहुंची थी। यह सांस्कृतिक परिवर्तन एक ऐतिहासिक प्रक्रिया का हिस्सा है, लेकिन हिंदी सिनेमा में इस तरह की ऐतिहासिक गहराई नहीं दिखाई देती। महाराष्ट्र का दलित आंदोलन अपने सांस्कृतिक रूपों को संरक्षित करने में सफल रहा। मराठी दलित साहित्य और नाटक इस सांस्कृतिक धरोहर को जीवंत रखते हैं। उत्सव और पोन्नियिन सेल्वन जैसी फिल्मों में ऐतिहासिक संदर्भों को गहराई से चित्रित किया जाता है, लेकिन हिंदी सिनेमा में यह प्रवृत्ति कम देखने को मिलती है। गुलजार जैसे निर्देशकों ने प्रेमचंद के साहित्य को छूने की कोशिश की, लेकिन गोदान जैसी फिल्म बनाकर वे असफल रहे।

गुलजार की उत्सव और नाना पाटेकर की फिल्म तु तु मैं मैं जैसी फिल्मों में विद्रोह और सामाजिक संघर्ष को दिखाने का प्रयास किया गया। इनमें लोकगीतों और पारंपरिक संगीत का प्रयोग किया गया, जो सांस्कृतिक यथार्थ को उभारता है। लेकिन जब हम सत्यजीत राय की शतरंज के खिलाड़ी देखते हैं, तो हमें अवध की पूरी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि देखने को मिलती है। इसके विपरीत, सद्गति में दलितों की कोई सांस्कृतिक पहचान नहीं दिखती। संजय लीला भंसाली का सिनेमा कलात्मक रूप से समृद्ध है, लेकिन वह संस्कृति को अलंकरण की तरह उपयोग करता है। पद्मावत और बाजीराव मस्तानी में नृत्य, वेशभूषा और संगीत का भव्य चित्रण है, लेकिन यह ऐतिहासिक यथार्थ के बजाय कल्पनाशीलता पर अधिक आधारित है। सत्यजीत राय के सिनेमा में यह भव्यता नहीं है, क्योंकि वे यथार्थवाद को प्राथमिकता देते थे।

हिंदी पट्टी के सिनेमा में सांस्कृतिक आधार को लेकर गहराई से काम नहीं किया गया। 1857 के बाद से हिंदी क्षेत्र में आधुनिकता की जो प्रक्रिया शुरू हुई, उसने पारंपरिक संस्कृति को विस्थापित कर दिया। इसके कारण तो समानांतर सिनेमा और ही मुख्यधारा का सिनेमा इस सांस्कृतिक विरासत को प्रभावी रूप से प्रस्तुत कर पाया। हालांकि, समानांतर सिनेमा ने कम से कम सामाजिक यथार्थ को प्रभावशाली तरीके से चित्रित किया, लेकिन यह धारा भी धीरे-धीरे समाप्त हो गई।पहले जब बड़े सिनेमा हॉल होते थे, जिनकी क्षमता 500-700 लोगों की होती थी, तो समानांतर सिनेमा का दर्शक वर्ग था। लेकिन समय के साथ दर्शकों की प्राथमिकताएं बदलीं, और यह सिनेमा धीरे-धीरे समाप्त होता गया। अब सिनेमा एक व्यवसायिक माध्यम बन गया है, जहां बड़े बजट, ग्लैमर, और लोकप्रियता ही सफलता का मापदंड बन गए हैं।

  


आशीष त्रिपाठी
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
7007116565 
  
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

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