- मनीषा प्रकाश, संदीप कुमार दुबे
शोध सार : भारतीय सिनेमा के शोमैन राज कपूर के सिनेमा को भारत ही नहीं बल्कि सोवियत रूस, चीन, अफगानिस्तान, तुर्की सहित दुनिया के कई अन्य देशों में लोकप्रियता मिली। फिल्मों के व्यापक पैमाने पर लोकप्रिय होने के पीछे राज कपूर की दृश्य भाषा के साथ-साथ फिल्मों का संगीत और गीतों को प्रमुख कारण माना जाता है। भारतीय सिनेमा के इतिहास में सिनेमाई यथार्थवादी फिल्मों के लिए राज कपूर को जितना श्रेय दिया जाता है उतना ही श्रेय शैलेंद्र के गीतों को यथार्थवाद के चित्रण के लिए भी मिलता है। प्रस्तुत शोध पत्र शैलेंद्र के गीतों की राज कपूर की फिल्मों की सफलता में हिस्सेदारी की पड़ताल करता है। अंतर्वस्तु विश्लेषण के द्वारा यह पता लगाने का प्रयास किया गया है कि राज कपूर निर्देशित व अभिनीत फिल्मों को यथार्थवादी बनाने में शैलेंद्र के गीतों ने क्या और कैसे योगदान दिया है? प्रस्तुत शोध पत्र दृश्य विश्लेषण के जरिए इस बात की भी पड़ताल करता है कि शब्द और भावों का दृश्यानुवाद कितना सफल रहा है?
बीज शब्द
: शैलेंद्र, राज कपूर, फिल्म संगीत, सिनेमा अध्ययन, यथार्थवादी सिनेमा, समानांतर सिनेमा, शो-मैन, बॉलीवुड।
मूल आलेख
: मानव का विकास ध्वनियों को अर्थ देते और नई ध्वनियों का उत्पादन करते हुए हुआ है। सदियों के अभ्यास से ध्वनियों को लयबद्ध रूप में लाया गया उसके बाद ही उसे राग और गीतों की शक्ल मिल सकी। गीतों को आत्म अभिव्यक्ति के प्रभावी माध्यम के रूप में समझा जाता रहा है। आप बीती, पुकार, मांग, समाज वर्णन,परनिंदा, और कल्पना आदि को लय में पिरोकर गानों की रचना की जाती है। समाज वर्णन करने वाले गीतों को यथार्थवादी प्रकृति का समझा जाता है। इसके कारण ही कुछ अपवादों को छोड़कर इस प्रकार के गानों में सामाजिक यथार्थ देखा जा सकता है। आलमआरा में गानों की पूरी श्रृंखला भारतीय सिनेमा के सवाक् होने का पहला साक्ष्य है।[i] सिनेमा जैसा माध्यम मिलने के बाद ध्वनियों, खासतौर पर गीतों का प्रसार तेजी से बढ़ा। कुछ ही समय बाद भारतीय सिनेमा, संगीत और गीतों के बिना असरहीन माना जाने लगा। फिल्मों को प्रभावी माध्यम के रूप में विकसित करने में गीतकारों, संगीतकारों और गायकों का महत्वपूर्ण योगदान है। विभिन्न भाषाओं के रचनाकारों ने फिल्मों को अपनी कहानियों और गीतों से समृद्ध किया है। तमाम गीतकारों ने फिल्मों के लिए पटकथा भी लिखी।[ii]
शैलेंद्र का जन्म 30 अगस्त,
1930 को पंजाब के रावलपिंडी में एक दलित परिवार में हुआ।[iii]
फिल्मों में आने से पहले उनका नाम शंकरदास केसरीलाल था। शैलेंद्र के गाँव के अधिकांश लोग खेतिहर मजदूर थे। उनके पूर्वज बिहार के आरा जिले से थे लेकिन पिता के फौजी अस्पताल में नौकरी के कारण परिवार रावलपिंडी आ गया। आजादी से पहले ही परिवार मथुरा में बस गया। हंस, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान आदि पत्रिकाओं में उनकी कविताएं छपने लगी। इस दौरान
1942 के भारतछोड़ो आंदोलन के वक़्त कॉलेज के साथियों के साथ वे जेल भी गए।[iv]
स्वतंत्र पत्रकार और अध्यापक अशोक बंसल ने अपने ब्लॉग ‘मथुरा’ में
2010 को लिखे एक लेख में लिखा, ‘मथुरा के बाबू लाल शैलेन्द्र के एक मात्र जीवित सहपाठी हैं जो मथुरा के किशोरी रमण इंटर कॉलेज में उनके साथ पढ़े और धौली प्याऊ कालोनी में पड़ोसी रहे। मथुरा रेलवे कर्मचारियों की कॉलोनी रही धौली प्याऊ की गली के गंगा सिंह के उस छोटे से मकान में शैलेन्द्र अपने भाईयों के साथ रहते थे। सभी भाई रेलवे में थे। बाबू लाल ने बताया कि मथुरा के राजकीय इंटर कॉलेज में पढ़ते हुए हाई स्कूल में शैलेन्द्र ने पूरे उत्तर प्रदेश में तीसरा स्थान प्राप्त किया। वह बात
1939 की है। तब वे 16 साल के थे। इसके बाद शैलेन्द्र ने रेलवे वर्कशॉप में नौकरी कर ली।’ किशोरी रमण विद्यालय में ही शैलेंद्र की मुलाकात इंद्र बहादुर खरे से हुई| यह मुलाकात शैलेंद्र को कविता की विधा के लिए प्रेरित करने वाली रही। दोनों ने मथुरा स्टेशन के पास रेलवे यार्ड और रेलवे ट्रैक के बीच स्थित एक तालाब के किनारे एक चट्टान पर बैठकर कविता लिखना शुरू किया। कुछ दिन बाद शैलेन्द्र का तबादला माटुंगा हो गया। यही वो दौर था जब बम्बई औद्योगिक रूप से विकसित हो रहा था। ऐसे में मालिक, मजदूर और अधिकारों पर चर्चाएं और गतिविधियां भी जोर पकड़ने लगी थीं। वह एक यूनियन नेता के रूप में अपने सहकर्मियों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ने के लिए मशहूर हो गए।[v] मजदूर आंदोलनों को आवाज देने में उनकी कविता, गीत और नारों का योगदान ऐसा हुआ कि वह लोगों में लोकप्रिय होने लगे। उसी दौर में एक मशहूर नारा दिया -
तो अपनी भी तैयारी है, तो हमने भी ललकारा है,
यह हर उत्पीड़न के खिलाफ़ लड़ाई का उद्घोष बन गया। उनके नारे और कविताओं ने दलितों की आवाज़ को बुलंद किया और आज भी हर मजदूर के लिए पथ प्रदर्शक की तरह है। वह वंचित होने और अभाव में जीवन का दर्द समझते थे। अपनी कविताओं में उन्होंने अन्याय के खिलाफ अपनी सोच को प्रदर्शित किया।[vi]
वह व्यक्ति को समस्याओं के लिए खुद लड़ने और बेहतर जीवन के लिए काम करने में यकीन रखते थे।
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर
शैलेन्द्र कहते थे कि समुद्र की मचलती लहरें उनके गीतों को प्रेरणा देती हैं।[vii] वे काम के बाद अपना समय प्रगतिशील लेखक संघ के दफ़्तर में बिताते।[viii]
सेंट्रल रेलवे वेलफेयर एसोसिएशन द्वारा आयोजित एक कवि सम्मेलन में शैलेंद्र की कविताओं ने मुख्य अतिथि अभिनेता पृथ्वीराज कपूर को बहुत प्रभावित किया।
1947 में जब देश विभाजन के बीच आजादी के जश्न में डूबा हुआ था, तब शैलेंद्र ने एक गीत लिखा - जलता है पंजाब साथियों। जन नाट्य मंच के एक कार्यक्रम में जब शैलेंद्र इसे गा रहे थे, तब राज कपूर भी श्रोताओं में मौजूद थे। अमला शैलेंद्र (शैलेंद्र की बेटी) बीबीसी न्यूज हिंदी को अगस्त
2016 में दिए एक साक्षात्कार में कहती हैं कि चाचा राज ने बाबा (पिता) से इस गीत के लिए कहा था। बाबा ने कहा कि वे पैसे के लिए नहीं लिखते हैं।[ix] हालांकि, कुछ महीने बाद, जब उनकी पत्नी गर्भवती थीं और वित्तीय आपातकाल की स्थिति थी, शैलेंद्र को राज कपूर की पेशकश याद आई। अपने पहले बच्चे शैली के जन्म और उनकी बिगड़ती वित्तीय परिस्थितियों ने शैलेंद्र को सिनेमा के लिए गीत लिखने में जो भी झिझक हो सकती थी, उसे दूर कर दिया। राज कपूर नेउनका गर्मजोशी से स्वागत किया। बरसात की शूटिंग में व्यस्त राज कपूर ने शैलेंद्र से दो गीत लिखने को कहा। इस तरह शैलेंद्र ने अपना पहला और दूसरा गाना राज कपूर के लिए लिखा था। हमसे मिले तुम और पतली कमर है, तिरछी नज़र है गीत और फिल्म दोनों हिट रहीं। बरसात से लेकर मेरा नाम जोकर तक, राज कपूर की हर फिल्म के थीम गीत शैलेन्द्र ने लिखे। शैलेंद्र की मृत्यु के बाद राज कपूर ने फिल्म फेयर पत्रिका में अपने दोस्त की मृत्यु पर शोक व्यक्त करते हुए एक खुला पत्र लिखा[x]
(सिनेमाज़ी
2020) राज कपूर ने अपने अंतिम साक्षात्कार में शैलेंद्र को उनकी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के प्रसिद्ध गीत की पंक्तियों के साथ याद किया
:
शैलेंद्र
(1923-1 966) ने 1950 और
1960 के दशक में अपने 17 साल के कॅरियर में करीब 900
गाने लिखे। इसमें 171 हिंदी और 6 भोजपुरी फिल्मों के 800
गाने शामिल हैं।[xi]
पर शंकर-जयकिशन के साथ, उन्होंने सबसे ज्यादा गाने लगभग 70 फ़िल्मों में लगभग 400
गाने लिखे (खन्ना
2018)।[xii] राज कपूर की जन-समर्थक फ़िल्मों में शैलेंद्र की कविताई खूब उभरी।
1963 में साहिर लुधियानवी ने शैलेंद्र का सम्मान करते हुए साल का फिल्म फेयर अवार्ड यह कहकर लेने से इंकार कर दिया था कि उनसे बेहतर गाना तो शैलेंद्र कालिखा ‘मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे’ है। शैलेंद्र ने तीन बार सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार जीता। इन तीनों में से दूसरा पुरस्कार
1959 में राज कपूर की फ़िल्म अनाड़ी का गीत‘सब कुछ सीखा हमने’ के लिए मिला था।[xiii]
शैलेंद्र के गीतों में एक ऐसा आकर्षण है जो श्रोताओं के मन में भावनाओं को सहजता से उभार देता है।
शैलेंद्र ने गीतकार के साथ प्रोड्यूसर बनने की ठानी। राज कपूर और वहीदा रहमान को लेकर तीसरी कसम बना डाली। खुद की सारी दौलत और मित्रों से उधार की भारी रकम फिल्म पर झोंक दी। फिल्म डूब गई। कर्ज से लदे शैलेन्द्र बीमार हो गए। यह
1966 की बात है। अस्पताल में भर्ती हुए। तब वे ‘जाने कहाँ गए वो दिन, कहते थे तेरी याद में, नजरों को हम बिछायेंगे’ गीत की रचना में लगे थे।[xiv]
शैलेन्द्र ने राज कपूर से मिलने की इच्छा जाहिर की। वे लीवर सिरोसिस बीमारी में भी आरके स्टूडियों की ओर चले। रास्तें में उन्होंने दम तोड़ दिया। यह दिन 14 दिसंबर,1966
का था।उस समय उनकी उम्र महज 43 साल थी। यह भी एक विडंबनापूर्ण संयोग है कि उनकी मृत्यु उसी दिन हुई जिस दिन राज कपूर का बयालीसवां जन्मदिन था।
राज कपूर
(1924-1988) ने अपने 40 साल से ज्यादा लंबे कॅरियर के दौरान भारत और विदेशों में एक स्टार, निर्देशक और निर्माता के तौर पर प्रसिद्धि हासिल की। राज कपूर ने नारायण राव व्यास की संगीत अकादमी में शास्त्रीय संगीत सीखा था। पिता पृथ्वीराज कपूर द्वारा स्थापित पृथ्वी थियेटर में प्रदर्शन के बाद, युवा राज ने अपना अधिकांश समय राम गांगुली, शंकर और जयकिशन के साथ संगीत बनाने में बिताया। राज कपूर ने वास्तव में संगीत निर्देशक बनने के उद्देश्य से फिल्म उद्योग में प्रवेश किया था। राज कपूर फिल्म निर्देशक बने पर फिर भी संगीत के प्रति उनका प्यार ताउम्र बरकरार रहा। राज कपूर फिल्मों में संगीत और कविता के मूल्य को पहचानने वाले व्यक्ति थे, इसलिए शैलेंद्र आरके स्टूडियो की फ़िल्मों का अनिवार्य हिस्सा बन सके। शंकर-जयकिशन ने एक बार स्वीकार किया था कि उन्होंने राज कपूर की फिल्मों में प्रत्येक धुन के लिए पाँच धुनें बनाईं (वॉरियर
2015, आईएएनएस
2017)।
राज कपूर की फिल्मों में शैलेंद्र के लिखे गीतों का दृश्य विश्लेषण
शैलेंद्र के लिखे गीतों को राज कपूर ने जिस अंदाज में पर्दे पर उतारा है उसके कारण ही यह गीत सिनेमा के पर्दे से निकल कर जनमानस के पटल पर छा जाते हैं। गानों और दृश्यों का प्रभाव ऐसा है कि यह देश की सीमाओं के पार भी लोगों को दुख-सुख में अनायास याद आ जाता है। राज कपूर उन दुर्लभ निर्देशकों में से एक हैं जिन्होंने गानों को फिल्माने से पहले विजुअलाइज़ किया। एक साक्षात्कार में लता मंगेशकर ने टिप्पणी की थी कि कैसे संगीत के कारण राज कपूर कीफिल्म अन्य निर्देशकों से अलग हो जाती है।[xv]
वह इस तथ्य की पुष्टि करती हैं कि आरके स्टूडियो की फिल्मों का संगीत राज कपूर की अपनी रचना थी (इंडिया टीवी
2021)।
[xvi] राज कपूर ने कई मौकों पर स्वीकार किया कि उन्हें ऐसे संगीतकारों और गायकों के साथ काम करने का सौभाग्य मिला, जो संगीत तैयार करने में उन्हीं की तरह जूनूनी थे। राज कपूर ने अपनी मौत से ठीक एक दिन पहले दिए एक साक्षात्कार में स्वीकार किया कि उनकी फिल्मों के संगीत का दिल, आत्मा और शरीर मुकेश, लता, शंकर-जयकिशन, शैलेंद्र और हसरत जयपुरी थे।[xvii]
(प्रसार भारती अभिलेखागार, 2018)[xviii] शैलेंद्र, राज कपूर और शंकर-जयकिशन को आज भी बॉलीवुड के इतिहास की सबसे बेहतरीन टीमों में से एक माना जाता है।[xix]
राज कपूर द्वारा निर्देशित ‘बरसात’
(1949) ने हिंदी सिनेमा को कई यादगार गीत दिए। इस फिल्म के दो प्रमुख गीत ‘बरसात में हमसे मिले तुम सजन’ और ‘पतली कमर है तिरछी नजर है’ शैलेंद्र ने लिखे और शंकर-जयकिशन की जोड़ी ने संगीत बद्ध किया। इन दोनों गीतों में महज़ प्रेम और सौंदर्य का चित्रण नहीं है। ‘पतली कमर है तिरछी नजर है’, गीत में पतली कमर और तिरछी नजर को रूपक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। दृश्य में नायिका के रूप-सौंदर्य को प्रमुखता से दिखाने के लिए मिड क्लोज़अप, क्लोज़अप और एक्स्ट्रीम क्लोज़अप का प्रयोग किया गया है। संगीतकार शंकर-जयकिशन ने प्रत्येक फिल्म के लिए एक शीर्षक गीत रखने का एक नया रिवाज स्थापित किया (परसा,
2020)।
बरसात उभरते हुए संगीत निर्देशक जोड़ी शंकर-जयकिशन की भी पहली फ़िल्म थी। फ़िल्म बहुत सफल हुई और इस सफलता के बाद, मंच लेखन के अनुभव वाले एक और कवि हसरत जयपुरी के साथ-साथ गुजरात और आंध्र प्रदेश के दो युवा राज कपूर की टोली में शामिल हुए। राज कपूर, शंकर-जयकिशन, शैलेंद्र और हसरत जयपुरी यानी दो गीतकारों और दो संगीतकारों की एक शानदार चौकड़ी बनी जिसने भारतीय सिनेमा को नई उंचाई तक पहुँचाया। साथ तब और आगे बढ़ा जब शैलेन्द्र ने हिंदी के मशहूर उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी पर आधारित फ़िल्म तीसरी कसम बनाने का फ़ैसला किया, जिसे बाद में कल्ट फ़िल्म माना गया। मशहूर निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास ने इसे सेल्युलाइड पर लिखी कविता बताया। इस फिल्म केलिए शैलेन्द्र को मरणोपरांत राष्ट्रपति स्वर्ण पदक से सम्मानित भी किया गया।[xx]
फिल्म के दस गाने, जो शंकर-जयकिशन द्वारा संगीत बद्ध किए गए थे, एक गाने को छोड़कर, सभी गीत शैलेंद्र द्वारा लिखे गए थे। पान खाए सैयां हमार हो और सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है जैसे गीतों ने फिल्म को कालजयी बना दिया।[xxi] ‘बरसात में हमसे मिले तुम सजन’ गीत में बारिश को एक प्रेम-उत्सव के रूप में प्रस्तुत किया गया है। बारिश, को लॉन्ग शॉट और मिड शॉट के जरिए रोमांटिक संदर्भ में फिल्माया गया है। बारिश में भीगते हुए, दोनों की आँखों में प्रेम का एक अद्वितीय भाव प्रकट होता है, जिसे क्लोज़ अप शॉट के जरिए बहुत ही संजीदगी और सौम्यता से पेश किया गया है। बारिश प्रेमियों के बीच एक प्राकृतिक पुल के रूप में आती है और गीत की सुंदरता को बढ़ा देती है।
आवारा
(1951) का शीर्षक गीत बृहद सामाजिक यथार्थ समेटे हुए है। आवारा के सभी गीत फिल्म के कथानक में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन गीतों के दृश्य प्रेम, संघर्ष, और समाज के विभिन्न पहलुओं को गहराई से दर्शाते हैं। नायक का यह कहना कि वह आवारा है, और उससे कोई प्रेम नहीं करता और उसे किसी से प्रेम नहीं, उसका कोई घर-बार नहीं वैश्वीकरण की आंधी में उड़ने की तैयारी में बैठे भारतीय परिवार के संबंधों का बिम्ब प्रस्तुत करता है जो पूंजी संचय के भारी दबाव में अपना घर-बार छोड़कर महानगरों की ओर कूच कर रहा था। इस गीत को शैलेंद्र ने लिखा और मुकेश ने गाया था, इसे शंकर-जयकिशन ने संगीतबद्ध किया था। यह राष्ट्रीय सीमाओं से परे फैल गया और पूर्व यूएसएसआर में बेहद लोकप्रिय हो गया और इसका चीन, तुर्की, उज्बेकिस्तान और ग्रीस सहित 15 देशों की भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। (पांडे
2023)
‘एक दो तीन आजा मौसम है रंगीन’, गीत का भाव प्रेम और उल्लास का प्रतीक है। दृश्य में नायिका (नर्गिस) अपने प्रेमी (राज कपूर) को छेड़ते हुए बुलाती है। नायिका का हंसता-खेलता स्वभाव और उसकी स्वतंत्रता को दर्शाने के लिए लॉन्ग शॉट, मिड शॉट और कुछ मिड क्लोज़अप शूट किए गए हैं। 'आवारा हूं या गर्दिश में हूं आसमान का तारा हूं’, गीत नायक के जीवन की स्वतंत्रता और अस्थिरता को दर्शाता है। लॉंग शॉट और एक्सट्रीम लॉंग शॉट से इस भटकाव को प्रदर्शित किया गया है। चेहरे पर एक मुस्कान है, लेकिन उसमें एक गहरी उदासी भी छिपी हुई है। क्लोज़अप शॉट के जरिए यह उदासी दर्शकों तक पहुंचती है। आसमान का तारा हूं– ये शब्द नायक की महत्वाकांक्षा और उम्मीद का प्रतीक है। यह गीत बाजारीकरण, उदारीकरण के कारण पैदा हो रहे आवारा जीवन की मजबूरियों और समाज में अपने स्थान की खोज की गहरी भावनाओं को व्यक्त करता है। आवारा के प्रभाव में आने में तुर्की भी पीछे नहीं रहा क्योंकि यह
1950 के दशक के मध्य में धीरे-धीरे डेमोक्रेटिक पार्टी के सत्तावादी नेतृत्व से बच रहा था (नाबे
2015; रमन
2017)।[xxii]
शैलेन्द्र ने तत्कालीन लोकप्रिय हिंदी पत्रिका धर्मयुग (अब छपती नहीं) के 16 मई,
1965 के अंक में प्रकाशित एक लेख मैं, मेरा कवि और मेरे गीत में कहा था-मैंने यह गीत केवल फिल्म के नाम से प्रेरित होकर लिखा था, बिना आवारा की कहानी सुने। जब मैंने गीत सुनाया तो राज कपूर ने इसे अस्वीकार कर दिया।[xxiii]
गीत में घर-बार नहीं, संसार नहीं, मुझसे किसी को प्यार नहीं जैसे शब्द सहानुभूति की तलाश में नहीं हैं, बल्कि यह दर्शाते हैं कि जीवन में जो कुछ भी है, किरदार ने उसके साथ किस प्रकार सामंजस्य बना लिया है।
‘घर आया मेरा परदेसी’, गीत का भाव विरह के बाद मिलन का प्रतीक है। इसमें प्रेम, प्रतीक्षा, और पुनर्मिलन की भावनाओं को प्रस्तुत किया गया है। गीत की धुन और नर्गिस के अभिनय ने इसे भावनात्मक रूप से और भी प्रभावशाली बना दिया। गीत के दृश्य में नायिका (नर्गिस) का नृत्य और हाव-भाव प्रमुख है। क्लोज़अप शॉट में लिए गए दृश्य में नायिका की आँखों में खुशी और संतोष झलक रही है। यह गीत करोड़ों परिवारों के रोजी रोटी कमाने के लिए अपना घर-बार छोड़कर परदेश गए लोगों की आकांक्षाओं का भी भाव व्यक्त करती है।
‘दम भर जो उधर मुंह फेरे ओ चंदा’ गीत में नायक चंद्रमा से यह आग्रह करता है कि वह अपनी दिशा बदल ले ताकि वह अपनी प्रेमिका से एकांत में मिल सके। चंद्रमा की उपस्थिति को एक गुप्त पर्यवेक्षक के रूप में प्रस्तुत किया गया है, और दोनों प्रेमियों की अंतरंगता को बढ़ाने के लिए इसे एक प्रतीक के रूप में उपयोग किया गया है। यह सामंजस्य दृश्यों के क्रम और कट के जरिए स्थापित किया गया है। राज कपूर की मासूमियत और नर्गिस की खूबसूरती को क्लोज़अप के जरिए उभारा गया है जिससे दृश्य और भी प्रभावी बन जाता है। लॉन्ग शॉट में चंद्रमा और कट के बाद नायक-नायिका का क्लोज़अप के माध्यम से प्रकृति और प्रेम के बीच के संबंध को उजागर किया गया है।
1955
में प्रदर्शित ‘श्री
420’ में राज कपूर ने सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया। इस फिल्म के गीत, शंकर-जयकिशन के संगीत और शैलेंद्र तथा हसरत जयपुरी के लिखे शब्दों के माध्यम से, पात्रों की भावनाओं और समाज की वास्तविकताओं को प्रकट करते हैं। ‘श्री
420’ के प्रत्येक गीत अपने आप में एक दृश्यात्मक और भावनात्मक यात्रा वृतांत हैं। दिल का हाल सुने दिलवाला में शैलेंद्र ने राज कपूर के अभिनय को एक नई उंचाई तक पहुँचाया है। इसी फिल्म का मशहूर गाना प्यार हुआ इकरार हुआ क्लासिक बारिश गीत माना जाता है।
‘मेरा जूता है जापानी’, गीत नायक (राज कपूर) के आत्मविश्वास और आशावादी दृष्टिकोण को दर्शाता है। भले ही नायक के पास ज्यादा धन नहीं है, लेकिन वह अपने आत्मसम्मान और भारतीय मूल्यों पर गर्व करता है। ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिस्तानी, सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ के माध्यम से यह संदेश दिया जाता है कि बाहरी दुनिया चाहे जैसी हो, दिल से वह एक सच्चा भारतीय है। गाने के बोल उदारीकरण के बाद बदल रही दुनिया का भी खाका प्रस्तुत करते हैं। लॉंग शॉट में फिल्माए गए दृश्य में नायक सड़क पर चलता है। नायक का हावभाव क्लोज़अप में स्पष्ट होता है। यह गीत आशावाद, बेफिक्री और संघर्षों के बावजूद सकारात्मक दृष्टिकोण का प्रतीक है। क्लोज़अप शॉट ने सरलता और मासूमियत को दर्शकों तक पहुँचाया है।
‘मुड़ मुड़ के ना देख मुड़ मुड़ के’ गीत, नायिका (नर्गिस) के माध्यम से नायक को आगे बढ़ने और अपने अतीत को पीछे छोड़ने की सलाह देता है। नायक के भावनात्मक संघर्ष को गीत के दृश्यों में दर्शाया गया है, जहाँ वह अपने बीते समय और वर्तमान के बीच फंसा हुआ दिखता है। गाने के एक दृश्य में राज कपूर को तुरही बजाते हुए दिखाया गया है। यह गीत जीवन में प्रगति और सकारात्मक दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करता है। पूरे गाने का दृश्य संयोजन गीत को नया संदर्भ देता है।
‘प्यार हुआ इकरार हुआ है’, गाना नायक और नायिका के बीच के प्रेम की स्वीकृति, प्रेम में सुरक्षा की भावना और वचनबद्धता का बयान है। एक लॉंग शॉट दृश्य में नायक (राज कपूर) और नायिका (नर्गिस) बारिश में छाता लेकर चल रहे हैं। लॉंग शॉट में बारिश में एक साथ चलते हुए दोनों के बीच का प्यार और आपसी भरोसा गहरे भावनात्मक प्रभाव के साथ प्रस्तुत किया गया है। क्लोज़अप शॉट में दोनों की आँखों में प्यार और एक-दूसरे के प्रति समर्पण दिखाया गया है। यह भारतीय सिनेमा का एक यादगार दृश्य है।
‘रामय्या वस्तावय्या’, गाने में नायक अपनी कठिनाइयों और जीवन के संघर्षों के बारे में बात करता है। ‘रामय्या वस्तावय्या’ का अर्थ है ‘हे राम, क्या तुम वापस आओगे?’ यह गीत मजदूर वर्ग के व्यक्ति के संघर्षों और उसकी आशाओं को जीवंत रूप में प्रस्तुत करता है। यह गीत जीवन में अनिश्चितता और आशा के बीच के संघर्ष को दर्शाता है। गाने के दृश्यों को क्लोज़अप, मिडक्लोज़अप, लॉन्ग शॉट और मिड शॉट में फिल्माया गया है।
‘दिल का हाल सुने दिलवाला’, गाने के जरिए नायक अपनी भावनाओं और जीवन के अनुभवों को साझा करता है। गीत के दृश्य में नायक अपनी सादगी और बेफिक्र अंदाज में सड़कों पर घूमता है। शहर के विभिन्न हिस्सों को लॉन्ग शॉट और मिड शॉट में दिखाया गया है। बीच-बीच में क्लोज़अप भी आते हैं, जहाँ वह लोगों से दिल की बात करता है। राज कपूर का सहज अभिनय, गीतों के बोल और शॉट का चयन दृश्य को और भी प्रभावशाली बनाता है।
‘मैंने दिल तुझको दिया’, यह गीत नायक के प्रेम और समर्पण के भाव को दर्शाता है। इसमें वह अपनी प्रेमिका के प्रति समर्पित होने का भाव प्रकट करता है। नायक के चेहरे के भाव और उसकी दैहिक भाषा से यह स्पष्ट होता है कि वह अपने प्रेम में पूरी तरह से समर्पित है। नायिका की स्वीकृति और प्रेम के प्रति समर्पण को भी इस दृश्य में खूबसूरती से दिखाया गया है। गीत का दृश्य संयोजन इस प्रकार है कि दर्शक गीतों के बोल से जुड़ जाते हैं और सुखानुभूति करते हैं।
संगम
(1964),
दृश्यात्मक रूप से अपने गीतों के शॉट साइज और फ्रेमिंग के माध्यम से प्रेम, मित्रता, और त्याग की भावनाओं को चित्रित करती है।‘ओ मेरे सनम ओ मेरे सनम’, गीत नायक (राज कपूर) और नायिका (वैजयंतीमाला) के बीच संवाद है। इस गीत की शुरुआत क्लोज़-अप शॉट से होती है, जिसमें नायिका के चेहरे पर नायक के प्रति प्रेम और स्नेह की भावनाएं स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। जब दोनों एक-दूसरे की ओर देख रहे होते हैं तो मीडियम शॉट का उपयोग किया जाता है जिससे उनकी भावनाओं की गहराई से दर्शाया जा सके। क्लोज़-अप और मीडियम शॉट्स ने दोनों के बीच की निकटता और प्रेम को प्रमुखता से उभारा है। वाइड शॉट्स में प्राकृतिक दृश्य, जैसे नदी, पहाड़, और हरे-भरे वातावरण का इस्तेमाल किया गया है, जो प्रेम की विशालता और गहराई को प्रतीकात्मक रूप से प्रस्तुत कर रहा है। वाइड शॉट्स ने उनके प्रेम को प्रकृति की विशालता के साथ जोड़ते हुए प्रेम की अनंतता को दर्शाया है।
‘दोस्त दोस्त ना रहा, प्यार प्यार ना रहा’ यह गीत नायक (राज कपूर) की भावनाओं और दुख को दर्शाता है, जहाँ वह अपने दोस्त (राजेंद्र कुमार) और नायिका के साथ संबंधों में आए बदलाव को व्यक्त कर रहा है। मीडियम क्लोज़-अप शॉट्स में नायक का चेहरा दुख और निराशा से भरा हुआ है, और क्लोज़-अप में उसकी आँखों के भाव को गहराई से दिखाया गया है। नायक की बेचैनी और मन की अशांति को प्रकट करने के लिए मीडियम शॉट का इस्तेमाल तब होता है। वाइड शॉट नायक के अकेलापन और भावनात्मक दूरी को दर्शाता है। क्लोज़अप शॉट्स ने नायक के चेहरे की भावनाओं को दर्शकों तक पहुँचाया है। शॉट साइज ने गाने को और भी प्रभावशाली बना दिया है।
‘मेरे मन की गंगा और तेरे मन की जमुना का बोल राधा बोल संगम होगा के नहीं’, इस गीत में तीनों मुख्य पात्र (राज कपूर, राजेंद्र कुमार, और वैजयंतीमाला) के बीच प्रेम त्रिकोण का चित्रण किया गया है। राज कपूर ने बीबीसी डॉक्यूमेंट्री, (लिविंग लीजेंड राज कपूर) में सिमी ग्रेवाल के साथ एक साक्षात्कार में बताया कि वह वैजयंती माला को फिल्म में भूमिका देना चाह रहे थे। इसलिए, उन्होंने मद्रास में शूटिंग के दौरान उन्हें टेलीग्राम भेजा, ‘बोल राधा बोल संगम होगा के नहीं होगा’। बिना किसी उत्तर के कई दिन बीत गए। एक दिन, वे शैलेंद्र के साथ बैठे थे, जब उन्हें एक टेलीग्राम मिला। इसमें लिखा था, ‘होगा, होगा, जरूर होगा’। जब उन्होंने शैलेंद्र को टेलीग्राम दिखाया और इसके पीछे की कहानी सुनाई, तो शैलेंद्र प्रेरित हुए और तुरंत ये पंक्तियाँ लिखीं, ‘मेरे मन की गंगा और तेरे मन की जमुना का, बोल राधा बोल संगम होगा के नहीं?’[xxiv]
इस गाने के दृश्यों में क्लोज़-अप शॉट्स का उपयोग तीनों पात्रों के चेहरे के भावों को उजागर करने के लिए किया गया है। नायक और उसके मित्र (राजेंद्र कुमार) के बीच की तनावपूर्ण स्थिति को भी इन शॉट्स के माध्यम से दिखाया गया है। मीडियम शॉट्स का उपयोग तब होता है जब तीनों पात्र एक-दूसरे के करीब होते हैं, जिससे उनके बीच की दूरी को दिखाया गया है। वाइड शॉट्स का उपयोग तब किया गया है जब नायक गंगा और यमुना के प्रतीकात्मक रूप में उनके मिलन की बात करता है। नदी के दृश्य, जहाँ संगम होना है, वाइड शॉट में दिखाई देते हैं। क्लोज-अप शॉट्स ने प्रेम त्रिकोण की जटिलता और तनाव को गहराई से उभारा है। वाइड शॉट्स ने गीत के प्रतीकात्मक अर्थ को और मजबूत किया है, विशेष रूप से गंगा और यमुना के संगम की तुलना नायक और नायिका के प्रेम से की गई है।
‘हर दिल जो प्यार करेगा, वो गाना गाएगा’’ यह गीत प्रेम की सार्वभौमिकता और उसके उत्सव का प्रतीक है। शॉट्स में नायक (राज कपूर) और नायिका (वैजयंतीमाला) के बीच खुशी और प्रेम की भावना को दर्शाया गया है। क्लोज़-अप शॉट्स का उपयोग प्रमुखता से नायिका के चेहरे की मुस्कान और नायक के उत्साह को दर्शाने के लिए किया गया है। मीडियम शॉट्स का उपयोग तब किया गया है जब दोनों नृत्य कर रहे हैं या साथ चलते हैं, जिससे दर्शकों को उनके बीच की निकटता का अनुभव होता है। वाइड शॉट्स में एक बड़े सेट का उपयोग किया गया है, जिसमें कई पात्र हैं। क्लोज़-अप शॉट्स ने नायक और नायिका के बीच के प्रेम को गहराई से दिखाया है, जबकि वाइड शॉट्स ने प्रेम के उत्सव को और विस्तृत रूप में दर्शाया है।
‘मेरा नाम जोकर’ (1970)
राज कपूर द्वारा निर्देशित और अभिनीत फिल्म है, जो जीवन, प्रेम, और एक कलाकार के संघर्षों की कहानी प्रस्तुत करती है। यह फिल्म अपने प्रभावशाली गीतों के लिए जानी जाती है। ’अंग लग जा बलमा, हाय मोरे अंग लग जा बलमा’, यह गीत नायक (राज कपूर) और सर्कस में काम करने वाली रूसी कलाकार (सिमी ग्रेवाल) के बीच की निकटता को दर्शाता है। इस गीत में क्लोज़-अप शॉट्स का उपयोग राज कपूर के चेहरे पर आकर्षण, उत्तेजना और उलझन के भावों को गहराई से व्यक्त करने के लिए किया गया है। वाइड शॉट्स ने सर्कस के माहौल को पूरी तरह से प्रदर्शित किया है। क्लोज़-अप और मीडियम शॉट्स ने प्रेम और शारीरिक निकटता के भाव को सजीव किया है। यह गीत प्रेम, दैहिक आकर्षण और कला की दुनिया के बीच के संघर्ष को खूबसूरती से दिखाता है।
‘जीना यहां मरना यहां, इसके सिवा जाना कहाँ’, इस गीत में नायक के चेहरे पर भावनात्मक उतार-चढ़ाव को दिखाने के लिए क्लोज़-अप शॉट्स का प्रभावी उपयोग किया गया है। क्लोज़-अप शॉट्स ने इस गीत में नायक राज कपूर के चेहरे पर एक जोकर के रूप में मुस्कान, लेकिन उसकी आँखों में गहरा दुःख, निराशा और अंतर्मन के संघर्ष को गहराई से व्यक्त किया है। जब नायक सर्कस के मंच पर चलता हुआ दिखाई देता है तब उसके शरीर की भाषा, उसकी चाल और जीवन की अपूर्णता के भावों को मीडियम शॉट्स के माध्यम से दिखाया गया है। नायक का मंच पर अकेले होना, और मीडियम शॉट्स में उसकी पीठ और जोकर की पोशाक में उदास चाल दर्शक को उसकी तन्हाई और जीवन के प्रति उसकी निराशा का आभास कराती है। वाइड शॉट्स ने मंच और नायक के जीवन के बीच के संबंध को गहराई से प्रस्तुत किया है, जहाँ वह कलाकार के रूप में प्रदर्शन करता है, लेकिन उसकी आंतरिक दुनिया खाली और अकेली है। नायक मंच के बीच में अकेला खड़ा होता है, जबकि दर्शकों का पूरा जमावड़ा उसके चारों ओर होता है।
निष्कर्ष : व्यावसायिक हिंदी भाषा सिनेमा में गीत-संगीत और नृत्य शामिल है|
1931 (बूथ,
2000) के बाद से निर्मित लगभग हर फिल्म में गीत और नृत्य दृश्यों की नियमित उपस्थिति है। अपनी शुरुआत से ही हिंदी फिल्मी गीतों का स्थापित कथात्मक परम्पराओं और दृश्यों के साथ घनिष्ठ संबंध रहा है।[xxv]
हिंदी व्यावसायिक सिनेमा के दर्शकों की संख्या सबसे ज़्यादा थी; इसलिए इसका संगीत और गीत काफ़ी महत्वपूर्ण थे। शैलेंद्र का जन्म और परवरिश गुलाम भारत में हुई, लेकिन जब वह युवा हो रहे थे तब पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में धर्मनिरपेक्ष और आदर्शवादी भारत का उदय हो रहा था। उसी दौर में भारतीय फ़िल्में आज़ादी के बाद एक युवा देश की आकांक्षाओं को दर्शाने का प्रयास कर रही थीं।
शैलेंद्र ऐसे गीतों को गढ़ने में माहिर थे जो गाने में आसान होते थे लेकिन उनमें एक ऐसा हुक होता था जो आपको अपनी ओर खींचता और एक गहरा अर्थ प्रकट करता था (खन्ना,
2018)। शैलेंद्र के लेखन ने कई लोगों को आवाज़ दी, खासकर उन खामोश लोगों को जिन्हें समाज के प्रभावशाली तबके ने चुप करा दिया था।[xxvi]
शैलेन्द्र के गीत संभवतः
1948 और
1966 (खन्ना,
2018) के बीच सबसे अधिक पसंद किए जाने वाले हिंदी फिल्म गीतों की सूची में दिखाई देंगे। गायक मुकेश के साथ, शैलेन्द्र, शंकर-जयकिशन और राज कपूर ने यकीनन भारतीय सिनेमा की अब तक की सबसे रचनात्मक टीम बनाई। उनका सिनेमाई काम दर्शकों को चमत्कृत करता है।[xxvii]
गीतकार और फिल्म निर्माता गुलजार अपने एक लेख में कहते हैं, ‘शैलेन्द्र नज़्म (कविता/छंद) और नगमा (गीत) के बीच का अंतर जानते थे, वह जानते थे कि नज़्म से नगमा कैसे बनाया जाता है। शैलेन्द्र की खासियत थी सांसारिक परिस्थितियों के बारे में सरल शब्दों में बड़ी बातें कह देना।’ (गुलजार
2011) फ़िल्मों के लिए लिखे गए गीतों को साहित्यिक दर्जा देना शैलेन्द्र का ही काम था। गुलजार ने कई मौकों पर कहा है कि ‘शैलेन्द्र हिंदी फ़िल्म जगत के अब तक के सबसे बेहतरीन गीतकार हैं।’[xxviii]
शैलेंद्र इतने बहुमुखी थे कि जन्म से लेकर मृत्यु, रोजमर्रा की घटनाओं और जीवन के लगभग हर अवसर, हर भावना और परिस्थिति के लिए उनके पास एक गीत था। राज कपूर ने अपनी फिल्म निर्माण शैली से शैलेंद्र के गीतों को सिनेमाई यथार्थवादी अर्थ दिया। पुस्तक ‘लाइट ऑफ द यूनिवर्स’ में ‘शैलेंद्रः द लिरिकल रोमांस ऑफ सुसाइड’ शीर्षक निबंध में, अशरफ अजीज ने लगभग दो दशकों के सिनेमा गीतों में फैले हुए शैलेंद्र के गीतों में जागरूकता के मनोवैज्ञानिक ढांचे को उजागर किया हैं। शैलेंद्र ने कभी भी अलंकृत भाषा या जटिल रूपकों का इस्तेमाल नहीं किया, लेकिन वे अपनी सीमित शब्दावली के साथ अनंत की पूर्णता को व्यक्त करने में सक्षम थे (अजीज,
2012)। शैलेंद्र ने हिंदी में लिखना शुरू किया, जबकि उस समय उर्दू रोमांस और अभिजात वर्ग की भाषा थी। जब आकर्षक, प्रामाणिक और गहन हिंदी कविता बॉलीवुड प्रस्तुतियों से काफी हद तक गायब थी, तब शैलेंद्र ही थे जिन्होंने गीतों को एक नया आयाम दिया। शैलेंद्र ने हिंदी क्षेत्र के विचारों और शब्दों को अपनी सिनेमाई कविताओं में शामिल किया। शैलेन्द्र अपने जीवन के अनुभवों को कागज़ पर उतारते रहे। इस दौरान उन्होंने सिनेमाई मीटर की धुनों का भी ख्याल रखा और आम लोगों के दर्द का भी। शैलेन्द्र की काव्य प्रतिभा सबसे जटिल विचारों को कम से कम शब्दों में व्यक्त करने की उनकी क्षमता में निहित थी। उनके शब्द हमेशा ऐसे लगते थे मानो वे संगीत के लिए ही बने हों।
राज कपूर को जिस चीज के लिए याद करते हैं, वह है उनकी फिल्मों में गीत और नृत्य, साथ ही रोमांस और आध्यात्मिकता का मिश्रण, जिसने भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए एक शब्दावली तैयार की। इन सभी घटकों को समकालीन, स्वतंत्र भारत और इसकी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं की पृष्ठभूमि में रखा गया है।[xxix]
शैलेंद्र के गीतों ने राज कपूर को दृश्यात्मक अर्थ देने वाले शब्द उपलब्ध कराए जिसे नायक-नायिकाओं के जरिए दर्शकों तक उपलब्ध कराया गया। शैलेंद्र के गीतों का दर्शकों पर जबरदस्त प्रभाव पड़ता था क्योंकि उनकी विशद कल्पना और अभिव्यक्ति की तीव्रता गानों में समा जाती थी। राज कपूर की फिल्मों में प्रदर्शित शैलेंद्र के ज्यादातर गीत भौगोलिक सीमाओं के पार जाकर भी मशहूर हुए। अपने गीतों के ज़रिए उन्होंने विदेशों में भारत का प्रचार किया और समतामूलक भारतीय समाज की स्थापना के अपने लक्ष्य को व्यक्त किया। राज कपूर की फिल्मों के कथ्य शैलेंद्र के इस लक्ष्य को साझा करते हैं। आजादी के बाद शुरू हुए भारत निर्माण की बाधाओं और सरकारी प्रयासों की सफलता-असफलता को राज कपूर ने अपनी फिल्मों में बखूबी दर्शाया। शैलेंद्र ने अपने गीतों से तत्कालीन समय का कविता और गानों की शैली में दस्तावेजीकरण किया। शायद इसीलिए उन्हें भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी पसंद करते थे।
संदर्भ :
सहायक प्राध्यापक, स्कूल ऑफ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन, आर्यभट्ट ज्ञान विश्वविद्यालय, पटना
manishaprakash@live.com
संदीप कुमार दुबे
कंसल्टेंट, स्कूल ऑफ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन, आर्यभट्ट ज्ञान विश्वविद्यालय, पटना
drskdjmc@gmail.com
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