वहीदा रहमान हिंदी सिनेमा का एक ऐसा नाम है जो 1956
से लेकर अब तक सिनेमा में गुंजायमान है। हिंदी सिनेमा में उनका नाम और प्रभाव अमिट है। हिंदी सिनेमा का वह दौर जब फिल्में एक आदर्श भारतीय नारी की छवि गढ़ रही थीं, उस दौर में वहीदा जी ने उस छवि को समय-समयपर तोड़ा और नये प्रतिमान बनाये। ये प्रतिमान आज भी अभिनेत्रियों के लिये आदर्श हैं। हिंदी सिनेमा की बेहतरीन अभिनेत्रियों में पिछले पांच दशक से उनका योगदान अविस्मरणीय है। हिंदी सिनेमा में महिला चरित्रों को दशा और दिशा देने के लिए वहीदा जी ने जो भी किया है उसको कुछ शब्दों या किताबों में पिरोना मुश्किल काम है, फिर भी इस शोध लेख में वहीदा जी के जीवन और उनकी फिल्मों का एक सूक्ष्म मूल्यांकन करने की कोशिश की गई है। साथ ही साथ वहीदा जी के द्वारा अभिनीत चरित्रों के माध्यम से हिंदी फ़िल्मों के महिला पात्रों को समझने का प्रयास भी किया गया है।उनपर कितने ही इंटरव्यू हुए हैं, लेख लिखे गये हैं, फिल्मों और गीतों के कार्यक्रम प्रस्तुत हुए हैं और रेडिओ पर वार्तायें हुई हैं। प्रस्तुत लेख उनकी जीवन यात्रा और उनकी फिल्मों को देखने का एक प्रयास भर है।
वहीदा रहमान परदे पर एक तिलिस्म सा रचती शख़्सियत! अगर किसी को बोलता, नाचता और मुस्कुराता जादू देखने का मन हो तो वहीदा जी की फिल्में देखिये, आप उस जादू में खो जायेंगे। वहीदा जी जब बोलती हैं और धीमे से मुस्काती हैं, ऐसा लगता है सावन का मेह मद्धम-मद्धम बरस रहा है और हम उस अमृतमयी बरसात में भीग रहे हैं।सच में वहीदा रहमान हिंदी फिल्मों की इकलौती वहीदा रहमानहैं। फिल्में तो बहुत हैं लेकिन जिन फिल्मों ने एक छोटी सी तमिल लड़की को महान वहीदा रहमान बनाया या इन फिल्मों में वहीदा जी के होने से जादू जगा ये कहना बहुत मुश्किल है। रहमान का जन्म 3फरवरी 1938
को मद्रास में हुआ। वे भारतनाट्यम नृत्य में पारंगत हैं और उन्होंने इसका विधिवत प्रशिक्षण लिया है। इसके सम्बन्ध में वहीदा जी एक इंटरव्यू में कहती हैं, उनके गुरु तिरु चंद्रू मीनाक्षी सुन्दरम पिल्लई थे और नृत्य सिखाने से पहले वहीदा जी की कुंडली बनाई गई थी और गुरु ने कहा था कि यह लड़की मेरी बसे अच्छी शिष्या होगी। यह बात बाद में सच साबित हुई।
वहीदा जी को पहले-पहल दूरदर्शन पर रविवार के दिन प्रातः आने वाली रंगोली में देखा। उसमें गाईड और चौदवीं का चाँद सरीखी फ़िल्मों के गीत खूब आते थे। उन गीतों को बार -बार देखने का मन होता था लेकिन यू-ट्यूब जैसा कोई प्लेटफोर्म तब नहीं था कि जब चाहो गीत को सुन-देख लो, फिर भी कोशिश रहती थी उनके जो भी गीत आयें उनको देखा जाये।‘चौदवीं का चाँद’ के शीर्षक गीत के विषय में वहीदा जी ने अपने एक इंटरव्यू में खुद बताया है कि इस गीत को सेंसर बोर्ड ने बड़ी सख़्ती से देखा था क्योंकि बोर्ड को वे ज्यादा ही सेंसेशनल लगीं थी। उनके चेहरे पर पड़ने वाली लाइट्स की चमक को कम किया गया ताकि चेहरा थोड़ा कम उजला लगे। मीना कुमारी, आशा पारेख, साधना, नूतन, मुमताज और शर्मिला टैगोर जैसी अभिनेत्रियों के होते हुए वहीदा जी एक लम्बे समय तक फिल्मकारों की पसंद बनी रही। ये उसी जादू का असर था औरआज भी वहीदा जी फिल्मों में सक्रिय हैं।
‘प्यासा’ उनकी शुरूआती दौर की मुख्य भूमिका वाली फिल्म है। इस फिल्म में उनका किरदार एक वेश्या का था जो एक असफल मगर बेहतरीन शायर से प्यार करती है। यह किरदार गुरु दत्त ने अदा किया था।‘गुलाबो’ का ये किरदार प्रेम और सहनुभूति से भरा हुआ है। शायर की मौत के बाद उसकी रचनाओं को प्रकाशित करवाने की कोशिश करती है। ‘जाने क्या तूने कही’ जैसा गीत,जिसमें वहीदा जी की आँखें बोलती हैं, कभी-कभी ही बनता है।सामान्य रूप से हिंदी फिल्मों में वेश्या को या तो अकेले रहना पड़ता है या उसकी मौत होती है लेकिन इस फिल्म के अंत में नायक अपनी गुलाबो को लेकर कहीं चला जाता है। ये ‘कहीं’ उस सुंदर दुनिया का नाम है जिसका सपना हर सच्चा प्यार करने वाले देखा करते हैं। इस दृष्टिकोण से देखें तो ये फिल्म 1957
की जगह आज की लगती है। ‘मुकद्दर का सिकंदर’ की ज़ोहरा की चर्चा बहुत बार हुई है,कभी-कभी हमको ‘गुलाबो’ के नज़रिए से ज़िन्दगी को देखना होगा।वेश्या भी ‘कहीं’ अपनी एक सुंदर दुनिया बसा सकती है। जब विजय पूछता है ‘मेरे साथ चलोगी?’ ये बात गुलाबो के लिए दुनिया की सबसे खूबसूरत बात थी।
रहमान की फिल्मों पर बात हो और गाईड का ज़िक्र न हो तो कुछ अधूरा लगेगा। गाईड आर के नारायण के अंग्रेज़ी उपन्यास पर बनी थी जिसमें एक औरत को पति के होते दूसरे आदमी के साथ बिना विवाह के रहते हुए दिखाया गया है।यह फिल्म अपने वक़्त से आगे की फिल्म थी जिसेबड़े प्यार और इत्मीनान से बनाया गया था। फिल्म का संगीत बड़ा हिट था। गाईड फिल्म उस दौर में बन रही लगभग सभी फिल्मों से बिल्कुलअलग थी। स्त्री की आज़ादी और उस आज़ादी को पाने के लिये एक औरत के ज़रिये किया गया संघर्ष, कभी-कभी किसी को इसमें तत्कालीन भारतीय समाज की नैतिकता के ढांचे टूटते भी नज़र आ सकते हैं,इस फिल्म में पहली बार दिखाया गया था। वहीदा के किरदार को लेकर अलग तरह के ख्याल भी मन में आते हैं जो कि स्वाभाविक है क्योंकि औरत परिवार के लिए लड़ती है, बच्चों के लिए लड़ती है लेकिन खुद के अस्तित्व के लड़ते हुए हमें गाईड में साफ़ तौर पर दिखती है।
यहाँ एक बात का उल्लेख करना ज़रूरी लगता है,गाईड और नीलकमल उनकी बिल्कुल एक ही वक़्त की फ़िल्में हैं लेकिन किरदार एकदम उलट। जब हम गाईड की रोज़ी को नील कमल की सीता के बरअक्स रखते हैं तो कोई भी वहीदा जी की तारीफ किये बिना नहीं रह सकता! एक ही काल खंड में इतने अलग किरदार। कई आलोचक तो यह भी कहते थे कि गाईड के बाद वहीदा का करियर खत्म लेकिन गाईड ने सफलता के नये प्रतिमान बुने और नील कमल भी बड़ी हिट साबित हुई। रोज़ी और सीता दोनों ही को दर्शकों का खूब प्यार मिला। गाईड में उनके किये नृत्य आज भी वहीं उसी ऊंचाई पर हैं। 'रात को जब चाँद चमके जल उठे तन मोरा' चाँद से गुज़ारिश कि इस गली मत आना वो भाव शायद ही कोई अपने चेहरे पर ला पाये जो वहीदा जी ला पाईं।
जहाँ गाईड आर के नारायण के अंग्रेज़ी उपन्यास पर बनी थी, वहीं मशहूर आंचलिक लेखक फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी पर बनी फिल्म 'तीसरी कसम' भी कम चर्चित नहीं है। भले यह फिल्म व्यवसायिक रूप से सफल नहीं थी लेकिन अपनी अपरंपरागत कथा के चलते इसकी चर्चा हिंदी की बेहतरीन फिल्मों में होती है। हीरा बाई और हीरा मन हिंदी सिनेमा के सबसे प्यारे किरदारों में शामिल हो जाते हैं। 'हमने मंगाई सुरमे दानी ले आया ज़ालिम बनारस का ज़रदा' इस पंक्ति में उलाहना देती हुई वहीदा जी अपनी भाव भंगिमाओं से सबको वश में कर लेती हैं। 'तीसरी कसम' परदे पर एक धीमी नदी की तरह बहती है जो अपनी बाढ़ में किसी को बहाती नहीं बल्कि उसमें तैर कर आसानी से पार हुआ जाता है।
यह फिल्म फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी 'मारे गये गुलफाम' पर आधारित थी। फिल्म को बासु चटर्जी ने निर्देशित किया था। राज कपूर हीरो थे। वहीदा का अभिनय इस फिल्म में भी बेजोड़ है। 'पान खायो सैया हमारो' गीत में उनकी भाव भंगिमाएं देखने योग्य हैं। आज भी ये गीत पुराना नहीं हुआ। नौटंकी वाली की भूमिका में वहीदा रजत पट पर शायरी जैसी लगती हैं। कोई दिखावा नहीं सिर्फ साधारण साड़ी में जो सुंदरता उन्होंने बिखेरी है वो पीढ़ियों तक मानक बनी रहेगी। फिल्म व्यवसायिक रूप से सफल नहीं थी लेकिन आज भी कल्ट मानी जाती है। व्यवसाय अलग बात है जीवन जीने की कला सिखाना दूसरी बात। हीरामन और हीराबाई के किरदार असल ज़िंदगी में पतझड़ में शाख पर लगे पत्तों जैसे हैं जो शाख से गिरने तक संघर्ष करते हैं।
एक और किरदार जो साहित्यिक रचना पर आधारित था और साथ ही नृत्य पर भी वो है गुलज़ार की निर्देशित फिल्म 'नमकीन'। ये फिल्म बंगाली लेखक समरेश बसु की कहानी पर आधारित था। इस फिल्म में वो जुगनी/ज्योति हैं जो अपनी तीन बेटियों के साथ एक गाँव में रहती है। शर्मिला, शबाना और किरन वैराले ने बेटियों के किरदार निभाये। गाँव में रहने वाली औरत जो अपनी बेटियों की शादी के लिए फिकर मंद है। वक़्त के थपेड़ों ने उसे बाहर से बहुत कठोर बना दिया है। अंदर से कहती है हमारी गरीबी न होती तो तुझसे पैसे लेती, बेटों से कोई पैसे लेता है भला! आशा जी का गाया इस फिल्म का एक गीत 'बड़ी देर से मेघा बरसे' जिसमें वहीदा जी ने फिर वही भंगिमाएं दी हैं जो नृत्य और अभिनय की भिन्न ऊंचाइयों को छूती हैं। इस फिल्म में भी एक महिला का संघर्ष दिखता है। एक अकेली औरत अपनी तीन बेटियों का पालन-पोषण करती है। ज़माने के तरह-तरह के डर हैं और इन डरों के बीच अकेली जूझती जुगनी।
असित सेन द्वारा निर्देशित फिल्म 'खामोशी' में नर्स राधा का किरदार हिंदी फिल्मों की अभिनेत्रियों द्वारा निभाये गये सबसे जटिल किरदारों में से एक है। ऐसी नर्स जो मानसिक रूप से असन्तुलित लोगों के लिए बने अस्पताल में काम करती है और अपने मरीजों को ठीक करने के लिए प्रेमिका का अभिनय करते करते एक मरीज को दिल दे बैठती है। फिल्म को हेमंत कुमार के मधुर संगीत की वजह से भी याद किया जाता है। इस रोल के लिए उस दौर में वहीदा जी से बेहतर कोई हो भी नहीं सकता था। आज भी यह फिल्म मनोविज्ञान पढ़ने वाले विद्यार्थियों को दिखाई जाती है। यह किरदार आज भी उतना नया है जितना 40
साल पहले था।
‘कभी-कभी’ वहीदा जी के करियर की एक और उम्दा फ़िल्म है जिसमें वे अमिताभ की पत्नी के रोल में थीं। इस फ़िल्म में उनके द्वारा एक अविवाहित माँ की भूमिका निभाई गई थी जो अपनी बेटी को दुनिया के डर से किसी और को सौंप देती है लेकिन जब इस बेटी के अधिकारों की बात आती है तो वह पीछे नहीं हटती और अपनी सच्चाई बता देती है। इसी तरह इस दौर की एक और फिल्म है, ‘त्रिशूल’ इस फिल्म में वे बिना शादी के ही बच्चे को जन्म देती हैं। इसमें संजीव कुमार उनके साथ थे और बेटे की भूमिका में अमिताभ। इस फ़िल्म का एक गीत है ‘तू मेरे साथ रहेगा मुन्ने..
मेरी बर्बादी के जामिन अगर आबाद रहे, मैं तुझे दूध न बक्शुंगी तुझे याद रहे’,कहते हैं इस गीत को साहिर लुधियानवी साहब ने अपनी माँ को केंद्र में रखकर लिखा था। वहीदा जी ने ये फ़िल्में उस वक़्त की, जब मुख्य अभिनेत्री के रूप में उनको उतनी अच्छी भूमिकायें नहीं मिल रही थी,लेकिन इन फ़िल्मों ने उनकी उपस्थिति को और मज़बूत किया। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि मान्यताओं को तोड़ा जा सकता है।
बाद के दौर की उनकी फिल्मों की बात करें तो चाँदनी, लम्हें, ओम जय जगदीश,दिल्ली 6, रंग दे बसंती और 15 पार्क एवेन्यू जैसी फिल्में हैं जिनमें वो एक स्नेह में डूबी माँ के किरदार में हैं। 'लम्हें' की दाईजा को कौन भूल सका है। अनुपम खेर ने तब उनसे कहा था कि अगर कभी उन्होंने फिल्म बनाई तो उनको पक्का उस फिल्म में काम करना होगा। 'ओम जय जगदीश' फिल्म इसकी बानगी है। 'दिल्ली 6' की दादी और 'ससुराल गेंदा फूल' गीत पर उनका डांस, ऐसा लगता है कि ये पल यहीं रुक जाये वो नाचती रहें, परदे पर जादू चलता रहे और हम उस जादूई माहौल में कहीं गुम हो जाएं।
अमिताभ बच्चन जी के साथ उनकी कई फिल्में हैं जो काफी चर्चित और कुछ काफी हिट रहीं। कभी-कभी, त्रिशूल, नमक हलाल, महान, अदालत, कुली, रेशमा और शेरा प्रमुख हैं। विभिन्न मंचों पर जब अमिताभ उनको वहीदा जी कहकर बुलाते हैं तो 'सम्मान' शब्द स्वयं उनके सम्मान में झुका जाता है। कुछ समय पहले जब उनको दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया तो लगा दर्शकों से वे इस पुरस्कार को कब का पा चुकी हैं, दिल्ली जाकर ट्रॉफि लाना बस एक औपचारिकता है।
वहीदा जी के लिए कहा जाता है वे अपने बच्चों की पेरेंट-टीचर मीटिंग में पंक्ति में खड़ी होती थी। ये बात जब प्रिंसिपल को पता चली तो वेउनको लेने आईं लेकिन वहिदा जी चाहती थी उनके बच्चे उनको एकदम सामान्य माँ की तरह ही देखें और उनका पालन -पोषण वैसे ही हो। जीवन को खुश होकर जीने की कला उनको बखूबी आती है। अस्सी पार की उमर में वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी करना इस बात की गवाही देता है। एक बार जब उनसे पूछा गया आपने फिल्मों में रिविनलिंग ड्रेस क्यों नहीं पहनी तो उन्होंने उत्तर दिया कि मुझपर वो सब अच्छा नहीं लगता रेविलिंग छोड़िये मैंने कभी स्लीवलेस ब्लाउज नहीं पहना। पहनना न पहनना उनका निर्णय, लेकिन येकुछ बातें हैं जो उनको और ऊँचा कर देती हैं। फ़िल्मी करियर के शुरुआत ही में उन्होंने राज खोसला जैसे निर्देशक को चुनौती दे डाली कि वे बेवजह ऐसे कपडे नहीं पहनेंगी जो स्त्री को ऑब्जेक्ट के रूप में पेश करते हों और इस शर्त पर वे ताउम्र रहीं। वहीदा सच में चाँद हैं देख तो सकते हैं छू नहीं सकते।
जब वहीदा जी का ज़िक्र आता है तो गुरु दत्त साहब बरबस ही याद आ जाते हैं। दोनों ने बेहद उम्दा फिल्मों में काम किया। वहीदा जी हमेशा गुरु दत्त को अपना मेन्टर मानती रही हैं।व्यक्ति के रचनात्मक जीवन का फलक जब बहुत विस्तृत होता है तो निजी जीवन पर बात करना छोटा लगता है,इसीलिये वहीदा जी और दत्त साहब का सम्बन्ध दोस्ती से कहीं ऊपर था जिसमें प्रेम था, समर्पण था और साथ ही ज़माने के ताने थे फिर भी वो ताल्लुक पवित्रता की उस ऊँचाई पर जाकर खत्म होता है जहाँ से मिलना-बिछड़ना, छूटना-टूटना सब कुछ बहुत साधारण लगने लगता है।
इस प्रकार वहीदा रहमान ने अपने करियर में विभिन्न प्रकार की भूमिकाएं निभाई हैं, जिसमें नारीत्व की सशक्त छवियां थीं। वह उन कुछ अभिनेत्रियों में से हैं जिन्होंने 1950
और 60
के दशक में भारतीय महिलाओं के जटिल और सशक्त किरदारों को पर्दे पर जीवंत किया। उनके अभिनय की गहराई, उनकी सहजता, और उनकी खूबसूरती ने उन्हें सिनेमा के स्वर्णिम युग की एक अनमोल धरोहर बना दिया है।वहीदा रहमान की अदाकारी, उनकी शख्सियत और उनके जीवन की कहानी भारतीय सिनेमा की एक प्रेरणादायक गाथा है। वह सिनेमा की उन कुछ अभिनेत्रियों में से हैं, जिनके किरदार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उनके समय में थे। उनकी सादगी, गरिमा और अभिनय का स्तर उन्हें भारतीय सिनेमा की एक कालजयी अभिनेत्री के रूप में स्थापित करता है।सिनेमा के क्षेत्र में जीवनभर के योगदान के लिए उन्हें 2021 में भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान दादा साहेब फाल्के से नवाज़ा गया। इस तरह संक्षेप में अगर उनके विषय में कहें तो हमारे आसमान में एक ही चाँद है, पृथ्वी पर एक ही ताज महल है और हमारे पास एक ही वहीदा रहमान है।
संदर्भ
:
- गर्ग, बी.डी.(2005):
द आर्ट ऑफ़ सिनेमा, एन इनसाइडर जर्नी थ्रो फिफ्टी इयर्स ऑफ़ फिल्म हिस्ट्री
- दोयेर, आर.(2014):
बॉलीवुड इंडिया: हिंदी सिनेमा ऐज़ अ गाईड तो मॉडर्न इंडिया
- कबीर, एन. एम.(1996):
गुरु दत्त: ए लाइफ इन सिनेमा
- प्यासा
(1957) फिल्म
- नमकीन(1982)
फिल्म
- गाईड
(1965) फिल्म
- नीलकमल(1967)फिल्म
- लम्हें(1991)
फिल्म
- दिल्ली सिक्स(2009)फिल्म
- ख़ामोशी(1969)फिल्म
- कभी-कभी (1976)
फ़िल्म
- त्रिशूल (1978)
फ़िल्म
- वहीदा जी से सम्बंधित विभिन्न टीवी, रेडिओ और समाचार पत्र साक्षात्कार
भूगोल विभाग, एस एस जे विश्वविद्यालय, अल्मोड़ा, 263645
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