- सुरेंद्र कुमार
शोध सार : सिनेमा अपने आप में जीवंत इतिहास है। किसी फ़िल्म को देखते हुए हम कलाकारों के चेहरे और पोशाक भर नहीं देख रहे होते हैं। उन कलाकारों के पीछे की दुनिया भी कैमरे में दर्ज होती चली जाती है। शहर की ईमारतें, सड़कें और सड़कों पर चलते लोग और उनका स्वभाव भी उस कैमरे में दर्ज होता है। किसी भी समय के समाज और उसकी संस्कृति को समझने में फ़िल्में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। आज़ादी के बाद हमारे सामने राष्ट्र निर्माण की समस्या थी। राजनैतिक मतभेदों और टकरावों से पार पाते हुए नीति-निर्माताओं को ऐसी नीतियों का निर्माण करना था जो देश के भविष्य के लिए हितकारी हों।कला सृजन और उसकी अभिव्यक्ति के लिहाज से यह महत्त्वपूर्ण समय था। एक देश के रूप में हमारी सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक दिशा क्या होनी चाहिए, यह एक बहुत बड़ा द्वन्द्व था। इस शोधालेख में हम आज़ादी के बाद के हिंदी सिनेमा की उन फ़िल्मों के बारे में बात करेंगे जिन फ़िल्मों ने इन द्वंद्वों को कलात्मक तरीके से प्रस्तुत किया है।
बीज शब्द : आज़ादी, सिनेमा, राष्ट्र-निर्माण, महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, मशीनीकरण, त्रासदी, यथार्थवाद, लोकतांत्रिक, आधुनिकता, औद्योगीकरण, सामूहिकता।
मूल आलेख : 1947 में भारत की आज़ादी के बाद सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक रूप से भारत को संगठित करना सरकार के सामने एक चुनौती भरा काम था।लगभग 200 साल के बाद औपनिवेशिक ग़ुलामी से मुक्ति तो मिल गई थी लेकिन उसके साथ-साथ विभाजन जैसी त्रासदी भी भारतीय समाज के हिस्से आयी थी। विभाजन के बाद लाखों की संख्या में लोगों को अपनी ज़मीनों से उखड़ना पड़ा जिसकी कल्पना भी लोगों ने नहीं की थी। 1947 के सांप्रदायिक दंगों में जान-माल का नुकसान तो हुआ ही साथ ही सांस्कृतिक विभाजन का सामना भी हमें करना पड़ा। नए-नए आज़ाद हुए राष्ट्र को व्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए संविधान निर्माण का काम एक तरफ चल रहा था तो दूसरी तरफ आर्थिक रूप से भारत को खड़ा करने के प्रयास सरकार के द्वारा किए जा रहे थे। पूरे समाज में उथल-पुथल मची हुई थी और हमारा देश अनिश्चितताओं के मोड़ पर खड़ा हुआ था। आज़ाद हिंदुस्तान की इस दशा को देखकर मशहूर शायर ‘फ़ैज़ अहमद फ़ैज़’ लिखते हैं -
वो इंतिज़ार था जिसका ये वो सहर तो नहीं”[1]
विभाजन की त्रासदी को झेलते हुए हम आगेबढ़े और 1950 में हमारे देश का संविधान लागू हो गया था। इसके बाद राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया शुरू होनी थी, और यही वह समय था जब बड़े-बड़े उद्योगों में मशीन और मनुष्य के सामंजस्य को बनाए रखने की ज़रूरत थी। 1948 में महात्मा गाँधी की हत्या के बाद भी उनके विचारों का समाज में प्रभाव बना रहा और भारतीय समाज के विकास मॉडल में शहर और गाँव का द्वंद्व उभरकर सामने आया। गाँधी जी का मानना था की भारतीय गाँवों को ठीक से जाने बिना भारतीय समाज की वास्तविक परिस्थिति से अवगत नहीं हुआ जा सकता। वहीं आज़ादी के बाद के सबसे बड़े राजनीतिक नायक जवाहर लाल नेहरू का ज़ोर शहरों के विकास के माध्यम से राष्ट्र का निर्माण करना था। गाँधी जी लिखते हैं-
“मेरा विश्वास है की भारत को और भारत के माध्यम से विश्व को भी सच्ची स्वतंत्रता पानी है तो उसे गाँवों में रहना होगा-झोपड़ियों में रहना होगा, महलों में नहीं। कुछ करोड़ लोग शहरों और महलों में कभी भी सुख और शांतिपूर्वक नहीं रह सकते।... मेरे गाँव इस समय मेरी कल्पना में हैं... मेरी कल्पना के गाँव का गाँववासी निरुत्साह नहीं होगा... वह अपनी ज़िंदगी किसी काल-कोठरी में बंद जानवर की तरह नहीं जिएगा... आदमी और औरत स्वतंत्र होंगे और दुनिया का सामना करने के लिए तैयार भी। कॉलेरा,प्लेग और स्मॉलपॉक्स जैसी बीमारियों का कोई नाम तक न जानता होगा... न आलस्य होगा न विलासिता, इस सबके बाद मैं उन ढेर सारी चीज़ों के बारे में सोच सकता हूँ जो बड़े पैमाने पर (हमारे यहाँ) बनेंगी। शायद वहाँ रेलें हों, डाक और दूरसंचार भी। मुझे नहीं पता क्या होगा और क्या नहीं; मुझे परवाह भी नहीं। यदि हम सारतत्व बनाए रख पाए, शेष सब ठीक हो जाएगा। यदि सारतत्व छूट गया, समझो सब छूट गया।”[2]महात्मा गांधी (नेहरू के नाम पत्र में, 5 अक्टूबर, 1945)
“ मुझे हिन्द स्वराज पढ़े हुए काफी अरसा हुआ और अब मेरे दिमाग में उसकी एक धुंधली सी तस्वीर है। बावजूद इसके की मुझे इसे पढ़े हुए 20 साल से अधिक हो गये। मुझे यह पूर्णतः अवास्तविक लगती है... एक गाँव, यदि व्यावहारिक रूप से कहें तो, बौद्धिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़ा होता है और एक पिछड़े हुए परिवेश में कोई प्रगति नहीं हो सकती ।”[3]
जवाहर लाल नेहरू (पत्त्रोत्तर में)।इसी द्वंद्व के बीच में से किसी रास्ते को निकालते हुए भारत को विकास के पथ पर लेकर जाने की चुनौती एक राष्ट्र के रूप में हमारे सामने थी। इस द्वंद्व को हम आज़ादी के बाद के हिन्दी सिनेमा में भी देख सकते हैं। 1940 के दशक में राज कपूर सिनेमा में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके थे और आज़ादी के बाद के सिनेमा के प्रमुख अभिनेता और फ़िल्मकार बनकर उभरे थे। उनकी फ़िल्मों के विषयों में नेहरू के विचारों को साफ तौर से पहचाना जा सकता है, वहीं उनके अभिनय में पश्चिमी जगत के महान फ़िल्मकार-अभिनेता चार्ली चैपलिन का प्रभाव भी देखा जा सकता है। महात्मा गांधी हमेशा से इस पक्ष में थे कि भारत में विकास पश्चिम की देखादेखी न हो क्योंकि दोनों जगहों की सामाजिक संरचना में ज़मीन-आसमान का अंतर है। आधुनिकता के बढ़ते प्रभाव ने औद्योगिक क्रियाकलापों के लिए मशीनों को जन्म दिया और मानव संसाधन को अपदस्थ कर दिया। गाँधीजी मशीनों का विरोध करते थे। एक बार चार्ली चैपलिन की गांधी जी से मुलाक़ात हुई जिसके बाद चार्ली चैपलिन ने ‘मॉडर्न टाइम्स’ जैसी बड़ी फ़िल्म का निर्माण किया। इस फ़िल्म के मूल विचार को इसके एक दृश्य के माध्यम से समझा जा सकता है। अभिनेता चार्ली चैपलिन किसी फैक्ट्री में लगी एक मशीन में काम कर रहे हैं। इस मशीन में काम करते वक़्त एक ही क्रिया को बार-बार दोहराना है। इस क्रिया का असर ये होता है कि काम का समय खत्म होने के बाद भी उनके हाथ उस क्रिया को करने के आदि हो गए हैं और अपने आप उनके हाथ इस तरह चल रहे हैं मानो वे मशीन पर काम कर रहे हैं। आधुनिक समय की प्रमुख समस्याओं में से एक बढ़ता हुआ मशीनीकरण था जो मानव संसाधन की उपेक्षा कर रहा था।
1950 के बाद जब शहरीकरण हुआ तो इसके साथ नयी तरह की समस्याओं का समाज में जन्म हुआ। 1950 के दशक का सिनेमा इन्हीं समस्याओं को दर्ज करता और इस तरह के सवालों को अपने ढंग से ढूँढने की कोशिश करता हुआ सिनेमा था।भारतीय सिनेमा हमेशा किसी न किसी रूप में पश्चिमी सिनेमा से प्रभावित रहा है। इटली के नवयथार्थवादी सिनेमा ने भारतीय सिनेमा को भी प्रभावित किया। इस सिनेमा आंदोलन का भारतीय सिनेमा पर सबसे अधिक प्रभाव 1950 के बाद के सिनेमा पर देखने को मिलता है। भारत में 1950 के बाद राजकपूर, बिमल रॉय, गुरुदत्त, ख्वाजा अहमद अब्बास, देवानंद, बलराज साहनी जैसे अभिनेताओं और निर्देशकों ने भारतीय सिनेमा को विश्व भर में पहचान दिलाई। इस समय के भारतीय सिनेमा पर बात करने से पहले ठीक इसी समय फ़्रांस में चल रहे ‘न्यू वेब सिनेमा’ की बात कर लेना ज़रुरी है।
इटली के यथार्थवाद के बाद फ़्रांस में 1950 के उत्तरार्ध में एक सिनेमा आंदोलन खड़ा होता है जिसे, फ्रेंच सिनेमा की नयी लहर के नाम से जाना जाता है। इस आंदोलन के अगुआ वहाँ के फिल्मी समीक्षक थे जिनका मानना था कि जिस तरह कोई लेखक किसी कृति को लिखता है उसी तरह से फ़िल्मकार भी अपनी फ़िल्म को बनाता है। इस धारणा ने एक नयी सिने अवधारणा को जन्म दिया जिसे ‘ऑतर थ्योरी’ के नाम से जाना जाता है। इस आंदोलन का नेतृत्व करने वालों में फ़्रांसवा त्रुफ़ो, ज्यां लुक गोदार, क्लाउड शाबरोल, जैकस रिवेते, और एरिक रोहमर का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। ये सभी पहले प्रमुख रूप से समीक्षक-आलोचक थे और बाद में समर्थ फ़िल्म निर्देशक के रूप में सामने आए। ऑतर थ्योरी आंदोलन क्या था और इसका महत्त्व क्या था उसे गोदार के इस कथन के माध्यम से समझा जा सकता है- “ हम उसी दिन यह लड़ाई जीत गए थे जिस दिन हमने सिद्धांततः यह मान लिया था कि अल्फ्रेड हिचकॉक की फ़िल्म लुई आरागां की पुस्तक जितनी अहम है।”[4]न्यू वेब सिनेमा पर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के निराशावादी और निरर्थकता बोध का असर साफ देखा जा सकता है। इस सिनेमा आंदोलन ने विश्व भर के सिनेमा को प्रभावित किया और भारतीय सिनेमा भी इससे अछूता नहीं रहा।
इटली में जिस समय यथार्थवाद का प्रभाव सिनेमा में पड़ रहा था उस समय भारत में ‘इप्टा’ जैसी संस्था ने नाटक को आम आदमी और ग़रीबों, मज़दूरों की ज़िंदगी से जोड़ा और उसे सड़कों पर अलग ही शैली में प्रस्तुत किया जिससे कलाकार और दर्शक की दूरी काफी हद तक मिट गई।”इटैलियन नवयथार्थ के विशेषज्ञों में से एक चियारमोंते ने इस आंदोलन की खूबियों की चर्चा करते हुए कहा था कि “इन फ़िल्मों के निर्देशकों में आम आमदियों की तरह गलियों और मोहल्लों में रहकर वह सब देखा जो वास्तविक ज़िंदगी का हिस्सा था”।[5] आगे चलकर ‘इप्टा’ ने फ़िल्मों का निर्माण करना भी शुरू किया और एक संस्था के रूप में जनवादी सिनेमा का निर्माण होने लगा। प्रसिद्ध फ़िल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास पहले इस संस्था से जुड़े हुए थे और बाद में उनकी पहचान जनवादी फ़िल्मी लेखक के रूप में बनी। भारत विभाजन के बाद जो परिस्थितियाँ बनीं उनका चित्रण हमें 1950 के बाद के राजकपूर, बिमल रॉय, गुरु दत्त की फ़िल्मों में देखने को मिलता है। आज़ादी के बाद, मुख्य रूप से 1950 के बाद बनी उन फ़िल्मों की बात करना यहाँ आवश्यक है जिनकी कामयाबी-नाकामयाबी ने हिंदी सिनेमा को सार्थकता से जोड़ा।
आज़ादी के बाद शहर और गाँवों में जो द्वंद्व उपस्थित हुआ उसकी चर्चा हमने पहले की थी, अब यही द्वंद्व फ़िल्मों में भी नज़र आने लगा था। 1950 के दशक में राजकपूर की अधिकतर फ़िल्मों का नायक ग्रामीण पृष्ठभूमि से आता था और जब उस नायक का शहर में प्रवेश होता था तो उसके माध्यम से आधुनिक शहरी समस्याओं से हम परिचित होते थे। चर्चित फ़िल्म ‘जागते रहो’ के निर्माण से पहले राजकपूर ‘आवारा’ जैसी फ़िल्म का निर्माण कर चुके थे जो व्यावसायिक रूप से भी सफल रही थी। इस फ़िल्म से जो सबसे बड़ी बात निकलकर सामने आई वह यह कि इस फ़िल्म ने राजकपूर को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाई और रूस जैसे देश में इस फ़िल्म को बड़ी सफलता मिली।‘आवारा’ रूस में रिलीज हुई आज तक की सबसे सफल फिल्मों में से एक भी बनी। सिर्फ रूस में इस फिल्म की 63 मिलियन टिकट बेची गईं। 1960 आने तक राजकपूर हर एक रूसी के दिल में बस चुके थे”।[6]इस फ़िल्म की एक और खास बात यह थी कि इस फ़िल्म से कथाकार अब्बास, संगीतकार शंकर-जयकिशन, गीतकार शैलेन्द्र एवं हसरत जयपुरी,गायक मुकेश जैसे कलाकारों की प्रतिभा को दुनिया ने जाना। 1955 में राजकपूर की फ़िल्म ‘श्री 420’ प्रदर्शित हुई और राजकपूर एक भोले-भाले किरदार में नज़र आते हैं। श्री 420 का नायक चार्ली चैपलिन की मासूमियत लेकर आता है, इस फ़िल्म का नायक भी ग्रामीण क्षेत्र से संबंधित होता है जो बाद में शहर की और रुख करता है और शहर में भटकते हुए जानता है कि ईमानदारी से जीने वालों के साथ ये समाज किस तरह का व्यवहार करता है। ‘आवारा’ और ‘श्री 420’ राजकपूर की सफल फ़िल्में थीं और इसके बाद राजकपूर की वह फ़िल्म आती है जिसने शहर और उसमें रहने वाले लोगों के स्वभाव को उसके यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया।
1957 में राजकपूर ने ‘जागते रहो’ बनायी जिसके माध्यम से उन्होंने शहर की विसंगतियों और आज़ादी के बाद के शहर का चित्रण किया। इस फ़िल्म का नायक एक देहाती व्यक्ति होता है जो पूरी फ़िल्म के दौरान शहर में भटकता रहता है। काम की तलाश में गाँव से आया नायक अपनी प्यास बुझाने के लिए एक भद्र कॉलोनी में घुस जाता है और चारों तरफ शोर फैल जाता है कि कालोनी में चोर घुस आया है। इसके बाद पूरी फ़िल्म में शहरी भद्र पुरुषों द्वारा उस चोर को ढूँढा जा रहा है और नायक इस दौरान ऐसे-ऐसे अनुभवों से गुज़रता है जो सभ्य समाज की पोल खोल के रख देते हैं। अपने आप को बचाने के लिए जिस-जिस घर में वह नायक छिपता है वहीं से हमें कोई न कोई सामाजिक विसंगति दिख जाती है। कहीं पर एकांत पाकर प्रेमी-प्रेमिका संवाद स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं तो कहीं किसी स्त्री का पति उसके गहने चोरी करने का प्रयास कर रहा है। पूरी फ़िल्म के दौरान प्यास से जूझ रहा नायक अपने को बचाते-छिपाते फिरता है और इसी क्रम में वह शहर को उसकी वास्तविकता के साथ जानता है। इस फ़िल्म के माध्यम से हमें आज़ादी के बाद के शहरी माहौल को समझने का अवसर मिलता है। आज़ादी के बाद “शहर में ही आधुनिकता के गर्भ से वे अंतर्विरोध निकले जिन्होंने राष्ट्रीय जीवन का विकास किया। जिस दिन भारत लोकतांत्रिक गणतंत्र बना, उसी दिन से उसने इन अंतर्विरोधों को अपना लिया था। शहर में सफलता और असफलता एवं संगमरमर और कीचड़ एक-दूसरे से गुँथे हुए हैं। इस विरोधाभास ने शहरी जीवन को एक उत्तेजक अनुभव में बदल दिया। शहर में आधुनिकता के सभी प्रलोभन मौजूद हैं लेकिन शहर में आकार ही लोगों को आधुनिक जगत की मृगतृष्णा का एहसास होता है।”[7]आधुनिक शहर के इन्हीं विरोधाभासों और सामाजिक विद्रूपताओं को राजकपूर ने इस फ़िल्म के माध्यम से दिखाया है। ‘जागते रहो’ फ़िल्म में इटली के फिल्मकार ‘डि सिका’ की फ़िल्म ‘बाइसिकल थीव्स’ का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। बाइसिकल थीव्स का नायक अपने पुत्र के साथ साइकिल की तलाश में शहर से परिचित होता है उसी तरह ‘जागते रहो’ का नायक भी एक ऐसे समाज को हमारे सामने लाता है जो अंदर से अनैतिक और खोखला है।
जिस समय राजकपूर सफल फ़िल्मों का निर्माण कर रहे थे उसी समय उनके बरक्स बिमल रॉय जैसे निर्देशक ने 1953 में एक महत्वपूर्ण फ़िल्म ‘दो बीघा जमीन’ बनायी । इस फ़िल्म ने बिमल रॉय को हिन्दी सिनेमा में प्रतिष्ठित कर दिया। बिमल रॉय की यह फ़िल्म एक ऐसे किसान की कहानी है जो अपनी ज़मीन को बचाने के लिए शहर की ओर जाता है ताकि पैसे कमाकर वह क़र्ज चुका सके। लेकिन कलकत्ता जैसे शहर में जीवनयापन ही बड़ी चुनौती है और वह नायक कभी भी इतने पैसे नहीं जुटा पाता जिससे वह अपना क़र्ज चुका सकता। ‘दो बीघा जमीन’ की कहानी सलिल चौधरी ने लिखी थी और पटकथा लेखन का काम ऋषिकेश मुखर्जी ने किया था। बलराज साहनी इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे और उनका अभिनय इस फ़िल्म को विशेष बना देता है। जिस तरह राजकपूर की फ़िल्मों का नायक शहर आकर पाता है कि उसके मूल्यों का शहर में कोई मोल नहीं है, उसी तरह दो बीघा ज़मीन का नायक भी अपने मूल्यों से किसी प्रकार का समझौता नहीं करता । फ़िल्म में एक मार्मिक दृश्य है। शंभू रिक्शा खींच-खींचकर बीमार पड़ जाता है, उसके पास दवालेने तक के पैसे नहीं हैं। शंभू का बेटा अपने बीमार बाप की दवाई लाने के लिए पैसे की व्यवस्था करना चाहता है लेकिन किसी भी तरह वह पैसे की व्यवस्था नहीं कर पाता। अंत में वह चोरी की तरफ जाता है और उन चोरी के स स पैसों से अपने पिता के लिए दवाई लेकर आता है। जब शंभू को पता चलता है की उसके लिए जो दवाई लायी गई है वह चोरी के पैसों की है तो वह अपने बेटे को यह कहकर पीटने लगता है कि “किसान का बेटा होकर तू चोरी करता है”।[8]
कलकत्ता जैसे शहर में पेट काटकर पैसे जुटाने की हिम्मत एक दिन जवाब दे देती है और शंभू अपनी जमीन को नहीं बचा पाता। इस फ़िल्म में पिता-बेटे की जोड़ी को देखकर एक बार फिर ‘बाइसिकल थीव्स’ का स्मरण हो आता है। यह शहर “एक उजड़े हुए गैर-बंगाली की आँखों से देखा गया कलकत्ता है जो इस शहर में पैसे कमाने तथा पूँजीपति जमींदार से अपने जमीन छुड़वाने आया है। यह फुटपाथों और काम के बोझ से थक गए रिक्शा वालों का कलकत्ता है।”[9]बिमल रॉय की यह फ़िल्म शहर का क्रूर स्वभाव हमें दिखाती है जहाँ अमीर और ग़रीब के बीच एक बड़ा अंतर है, पूँजीवाद का समाज में बोलबाला है और उच्च वर्ग निम्न वर्ग का शोषण कर रहा है। इस फ़िल्म की कथा सतही और सपाट नहीं है बल्कि आर्थिक और सामाजिक समस्याओं के साथ मानव मन के अंतर्विरोधों का चित्रण भी कुशल तरीके से किया गया है। “दो बीघा जमीन” को देखकर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था कि “भारत किसी अन्य प्रकार से न सही, लेकिन राजनीतिक दृष्टि से एक नवस्वतंत्र देश है। इस देश का एक फिल्मकार अपने देश के आर्थिक विकास को इस क्रूर निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात है।”[10]
1957 को हिन्दी सिनेमा की दृष्टि से एक ऐतिहासिक साल माना जाता है। इस साल 3 ऐसी फ़िल्में आयीं जो अपनी विशेषताओं की वजह से मील का पत्थर हैं। महबूब खान के निर्देशन में ‘मदर इंडिया’ बी. आर चोपड़ा के निर्देशन में ‘नया दौर’ और गुरुदत्त की ‘प्यासा’। मदर इंडिया में नरगिस मुख्य भूमिका में थीं, और अपने अभिनय से नरगिस ने एक महान चरित्र का निर्माण किया। आज़ादी के बाद प्रगति, औद्योगीकरण, और राष्ट्र निर्माण की दृष्टि से देखें तो इस फ़िल्म में इन सभी विषयों को सूक्ष्मता से चित्रित किया गया है। फ़िल्म में नरगिस एक ऐसी महिला है जो तमाम विपत्तियों का सामना करते हुए जीने की आस नहीं छोड़ती, बार-बार टूटने के बाद भी खड़ी हो जाती है और अपनी मेहनत के बलबूते खुद को विपत्तियों से बाहर निकाल लाती है।यह स्वाभिमानी महिला है जो किसी भी हालत में अपने सम्मान और स्वाभिमान से समझौता नहीं करती। विपत्तियाँ मनुष्य को कठोर बना देती हैं और जीवन मूल्य हमें सही-गलत की पहचान करना सिखाते हैं। राधा का छोटा बेटा बिरजू स्वभाव से विद्रोही होता है और बड़ा होकर शोषण के खिलाफ़ हथियार उठा लेता है। सूदखोर लाला से बदला लेने के लिए वह उसकी तिजोरी खाली करता है और उसकी बेटी जिससे वह प्यार करता है उसे अगवा कर अपने साथ ले जाना चाहता है। राधा की नज़र में यह अपराध है और वह दिल पर पत्थर रखकर अपने बेटे को गोली मार देती है लेकिन गलत के साथ खड़ी नहीं होती। यह आज़ादी के बाद का भारत है जिसके निर्माण में महिलायें आगे आकर पुरुषों के बराबर अपना योगदान देती हैं और अपने निर्णय लेने की हिम्मत भी रखती हैं। महेंद्र मिश्र इस फ़िल्म के संदर्भ में लिखते हैं- “स्वाधीनता के बाद के वर्षों में आशावाद और प्रगति की आस्था को यह फ़िल्म एक सीधे-सादे गरीब किसान की दुखभरी कहानी के माध्यम से प्रस्तुत करती है।”[11]
1957 में ही एक और फ़िल्म आई ‘नया दौर’ जिसके शीर्षक से ही झलक रहा है कि यह दौर आज़ादी के बाद का नेहरूयुगीन दौर है जिसमें समाजवाद के रास्ते देश को आगे बढ़ना है। बढ़ते औद्योगीकरण ने मशीनों को बढ़ावा दिया था और मानव श्रम की जगह ले ली थी। गांधी और नेहरू के वैचारिक द्वंद्व की बात हमने की थी, इस फ़िल्म में इसी द्वंद्व का चित्रण किया गया है। इस फ़िल्म का जोर एकता और संगठन पर था इसका पता इस फ़िल्म के गीत द्वारा लगाया जा सकता है- ‘साथी हाथ बढ़ाना/एक अकेला थक जाएगा मिलकर हाथ बँटाना’। इस फ़िल्म का केन्द्रीय भाव बढ़ते हुए मशीनीकरण का सामूहिक विरोध करना था। फ़िल्म का नायक शंकर तांगा चलाता है और उससे अपनी जीविका चलाता है, उसके लिए तब मुश्किल खड़ी होती है, जब कुंदन नाम का व्यक्ति उस इलाक़े में बस चलवाना चाहता है। शंकर जानता है की इससे उसकी आजीविका में असर पड़ेगा और अंत में दोनों के बीच तांगे और बस की दौड़ की शर्त लगती है। यह स्वाभाविक नहीं है कि तांगा बस से जीत जाएगा लेकिन इस दौड़ में तमाम घटनाओं के बाद अंत में तांगे की जीत होती है। दरअसल, यह सिर्फ एक तांगे की, बस से जीत नहीं है बल्कि मानव श्रम की मशीनों पर जीत है। यह फ़िल्म उस दौर की एक सुपरहिट फ़िल्म थी और इसके गानों ने भी लोगों को बृहद स्तर पर प्रभावित किया था। ‘उड़े जब-जब ज़ुल्फ़ें तेरी’ ‘मांग के साथ तुम्हारा‘ और ‘साथी हाथ बढ़ाना’ जैसे गाने आज भी उतने ही ताज़ा बने हुए हैं जितना उस दौर में थे।
गुरुदत्त इस दौर के बाक़ी फ़िल्मकारों के मुक़ाबले अलग लीक में चल रहे थे। उनकी फ़िल्म का नायक सामाजिक व्यवस्था से परेशान और हताश व्यक्ति है। गुरुदत्त ने जितनी भी फ़िल्में बनायीं अधिकांश उस समय व्यावसायिक रूप से असफल फ़िल्में थीं लेकिन आज उन्हीं फ़िल्मों को क्लासिक का दर्जा प्राप्त है। अक्सर जिन फ़िल्मों को दर्शकों के द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है वे फ़िल्मकार की निजी और महत्वपूर्ण फ़िल्में होती हैं। गुरुदत्त की दो फ़िल्में ‘प्यासा’ और ‘काग़ज के फूल’ उनकी असफल फ़िल्में थीं लेकिन आज उन्हीं फ़िल्मों के लिए गुरुदत्त को याद किया जाता है। ‘प्यासा’ फ़िल्म का नायक विजय एक कवि है और अपनी कविताओं के प्रकाशन के लिए वह प्रकाशकों के दर-दर भटकता रहता है लेकिन कोई भी उसकी क़ाबिलियत को तवज्जो नहीं देता। एक समय ऐसा आता है जब विजय अपनी कविताओं को फेंककर गुमनामी में जीवन बिताने लगता है। लोगों को लगता है की विजय की मृत्यु हो चुकी है और बाद में उसकी कविताओं को उसके नाम पर छपवाकर लोग मुनाफ़ा कमाना चाहते हैं। जिसे जीते-जी वो सम्मान नहीं मिला जिसका वह हक़दार था, मरने के बाद उसकी कला के कसीदे गढ़े जा रहे हैं। विजय की लोकप्रियता को भुनाने के लिए प्रकाशक अंत में उसे सबके सामने प्रस्तुत करना चाहते हैं लेकिन जब विजय ये सब देखता है तो अपने आप को विजय मानने से इनकार कर देता है और गाता है- “ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया/ ये इंसां के दुश्मन समाजों की दुनिया/ ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया/ ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है।”[12] इस फ़िल्म की समस्या ही असल में गुरुदत्त की समस्या थी। गुरुदत्त ने अपने सिनेमा के माध्यम से अपने समाज की आलोचना की थी। “नेहरू और उनकी राष्ट्रवादी परियोजना एक समरूपीकृत पहचान के तले ‘सार्वभौम मनुष्य’ गढ़ने की कोशिश में जुटी थी। उस दौर का सिनेमा भी इसमें बड़ा योगदान दे रहा था। लेकिन गुरुदत्त का सिनेमा इस धारा से अलग रहा। इस तरह की ‘सार्वभौम पहचान’ वाले मनुष्य गढ़ने की कोशिशें दरअसल तमाम ‘अन्य’ पहचानों को दबाने का काम भी करती हैं। गुरुदत्त की फ़िल्मों में इन्हीं असुविधापूर्ण पहचान वाले क़िरदारों के नज़रिये से शहर दिखाई देता है।”[13]हम कह सकते हैं कि भले ही गुरुदत्त की फ़िल्में उस समय असफल रही हों लेकिन उन फ़िल्मों में एक परेशान युवा का मन दर्ज हुआ है जो सामूहिकता से अलग अपनी पहचान को स्थापित करना चाहता है।
1950 के दशक के सिनेमा को नेहरूयुगीन सिनेमा के नाम से जाना जाता है इसका प्रमुख कारण यही है कि इस दौरान बनने वाले सिनेमा पर नेहरू के विचारों को साफ देखा जा सकता है। समाजवाद की स्थापना के द्वारा वे एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे जिसमें अमीर और गरीब के बीच विभाजन रेखा को मिटाया जा सके। देश में कारखाने लगाने थे, कृषि की नयी पद्धतियों को विकसित करना था ताकि आर्थिक रूप से देश को सशक्त बनाया जा सके। समाजवाद के आगमन के बाद उसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों में सामंजस्य बनाने की जरूरत थी। पूरे विश्व में मशीनीकरण का बोलबाला बढ़ रहा था और इस विषय पर चार्ली चैपलिन ‘मॉडर्न टाइम्स’ जैसी फ़िल्म बना चुके थे। भारत में भी विकास के जिस रास्ते को अपनाया जा रहा था उसमें बड़ी संख्या में मशीनों का प्रयोग होना था लेकिन चिंता का विषय यह था कि इस मशीनीकरण का परिणाम मनुष्यों के लिए ठीक नहीं था। इसलिए इस दशक की अधिकतर फ़िल्में जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया, कहीं न कहीं नवनिर्माण एवं मशीनीकरण के विषयों से जुड़ी हुई थीं।
निष्कर्ष : 1950 के दशक के सिनेमा को; सिनेमा के स्वर्णिम युग के नाम से जाना जाता है। हिंदी सिनेमा अपने कच्चेपन को पीछे छोड़ परिपक्व हो रहा था। इस दशक में निर्देशकों, फ़िल्म लेखकों, गीतकारों, और अभिनेताओं ने अपने काम से लोगों को अत्यधिक प्रभावित किया। स्वतंत्रता के बाद सामाजिक और आर्थिक स्तर पर विकास करने की बड़ी चुनौती हमारे सामने थी और इन परिस्थितियों को हिंदी सिनेमा ने बहुत गहराई से और महीन कलात्मकता के साथ प्रस्तुत किया। नेहरु और गाँधी की वैचारिक भिन्नता को हम ‘नया दौर’ और ‘मदर इंडिया’ फ़िल्म के माध्यम से देख सकते हैं। गांधी के सपनों का भारत गाँवों में बसता था तो नेहरु बाँधों को नये भारत के मंदिर के रूप में देख रहे थे। इसी कशमकश और द्वंद्व के बीच से एक रास्ता निकालना था जो देश के लिए हितकारी होता। ऐसा कहा जा सकता है कि अगर हमें आज़ादी के बाद के भारत की सच्ची तस्वीर देखनी हो तो आज़ादी के बाद के हिंदी सिनेमा में वह तस्वीर देखी जा सकती है।
संदर्भ :
[2]मिहिर पंड्या, शहर और सिनेमा:वाया दिल्ली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2011, पृष्ठ-18
[3]वही
[4]दिनेश श्रीनेत, पश्चिम और सिनेमा, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2012, पृष्ठ-42
[5]वही- पृष्ठ-38
[6]https://www.indiatimes.com/hindi/entertainment/awaara-the-film-which-made-raj-kapoor-famous-in-russia-510231.html
[7]मिहिर पंड्या, शहर और सिनेमा:वाया दिल्ली, वाणी प्रकाशन,प्रथम संस्करण-2011, पृष्ठ-31
[8]दो बीघा ज़मीन(फ़िल्म), निर्देशक-बिमल रॉय
[9]मनमोहन चड्ढा, हिंदी सिनेमा का इतिहास, मध्यप्रदेश ग्रंथ अकादमी, प्रथम संस्करण-2021, पृष्ठ-216
[10]वही, पृष्ठ-105
[11]महेंद्र मिश्र, भारतीय सिनेमा, अनामिका प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2020, पृष्ठ-44
[12]प्यासा 1957 (फ़िल्म), निर्देशक-गुरुदत्त
[13]मिहिर पंड्या, शहर और सिनेमा:वाया दिल्ली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2011, पृष्ठ-105
शोधार्थी, हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, तेलंगाना
kumarsurender@gmail.com, 9971587268
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