शोध आलेख : सिनेमा के रुपहले पर्दे पर महात्मा गांधी / सुधीर कुमार, सत्यपाल यादव

सिनेमा के रुपहले पर्दे पर महात्मा गांधी
- सुधीर कुमार, सत्यपाल यादव

शोध सार : सिनेमा जनसंचार का एक ऐसा प्रभावी माध्यम है, जो केवल शिक्षा और मनोरंजन प्रदान करता है, बल्कि राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक जागरूकता को भी बढ़ावा देता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह दृश्य और श्रव्य माध्यमों का उपयोग करके गहरी भावनाओं और विचारों को प्रभावशाली तरीके से दर्शकों तक पहुंचाता है। सिनेमा महात्मा गांधी के विचारों और आदर्शों को पुरानी और नई पीढ़ी तक पहुंचाने तथा उनकी शिक्षाओं की प्रासंगिकता को आज के समाज में बनाए रखने में भी मददगार साबित हुआ है। गांधीवाद केवल इतिहास का हिस्सा नहीं रहा, बल्कि यह एक जीवन दर्शन बन गया है, जो आज भी लोगों को प्रेरणा देता है। गांधीजी के विचारों और संदेशों को फिल्मों के विभिन्न पात्रों के माध्यम से बड़े ही प्रभावशाली तरीके से दर्शाया गया है। ये पात्र गांधी के सत्य, अहिंसा और नैतिकता के आदर्शों को प्रस्तुत करते हैं, जो दर्शकों को केवल शिक्षित करते हैं बल्कि सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक भी करते हैं। सिनेमा महात्मा गांधी के संघर्षों और जीवन दर्शन को व्यापक जनसमूह तक पहुंचाने का एक सशक्त माध्यम बना है। इसके माध्यम से गांधीजी के विचार केवल इतिहास की किताबों तक सीमित नहीं रहे, बल्कि आम लोगों के जीवन में भी अपनी प्रासंगिकता बनाए रखे हैं। इस लेख का उद्देश्य यह समझना है कि किस प्रकार फिल्मों ने महात्मा गांधी के विचारों और शिक्षाओं को पात्रों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। साथ ही, यह भी देखना है कि इन फिल्मों ने गांधीवादी आदर्शों को समाज में कैसे स्थापित किया और उनकी प्रासंगिकता को कैसे बनाए रखा?

बीज शब्द : महात्मा गांधी, सिनेमा, चित्रण, गांधीगिरी, दर्शन, रूपांतरण, अहिंसा, शांति, मनोरंजन, वृत्तचित्र, सहिष्णुता, संघर्ष, त्याग।

मूल आलेख : महात्मा गांधी के तीन प्रमुख सिद्धांत- शांति, सत्य और अहिंसा- ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी थी। वे केवल राजनीतिक बल्कि सामाजिक और नैतिक आदर्शों के भी प्रतीक बने। गांधीजी ने लालच, अन्याय, शोषण और भेदभाव से मुक्ति का मार्ग दिखाया, जो आज भी प्रासंगिक है। सिनेमा ने उनके विचारों और सिद्धांतों को जन-जन तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह लेख इस बात का विश्लेषण करने का प्रयास करता है कि सिनेमा गांधी के विचारों को किस प्रकार प्रस्तुत करता है और वे समाज पर किस हद तक प्रभाव डालने में सफल हुए हैं। निःसंदेह, सिनेमा ने महात्मा गांधी के आदर्शों और उनके आंदोलनों को प्रभावशाली ढंग से प्रदर्शित किया है। उदाहरण के लिए, रिचर्ड एटनबरो की फिल्मगांधीने गांधीजी के जीवन और उनके संघर्ष की महत्ता को केवल भारत में, बल्कि वैश्विक दर्शकों तक भी पहुंचाया। इस फिल्म ने गांधी के सत्य और अहिंसा के संदेश को विश्वभर में प्रसारित किया, जिससे यह समझा जा सके कि एक व्यक्ति कैसे शांति और सत्य के माध्यम से अत्याचार का सामना कर सकता है। इसके अलावा, भारतीय सिनेमा ने भी गांधी के सिद्धांतों को स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक सुधारों से जोड़ते हुए जनता के बीच उनकी लोकप्रियता को और बढ़ाया।लगान’, ‘स्वदेस’, औरहे रामजैसी अनेक फिल्मों में गांधीवादी विचारधारा की छाया स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। इन फिल्मों में केवल गांधीजी के सिद्धांतों का संदर्भ मिलता है, बल्कि उन्होंने उस सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष को भी दिखाया, जिसे गांधीजी ने अपने जीवनकाल में अनुभव किया था। सिनेमा केवल मनोरंजन का साधन नहीं रहा, बल्कि गांधी के आदर्शों को नई पीढ़ियों तक पहुंचाने का एक सशक्त माध्यम भी साबित हुआ है। इन फिल्मों ने समाज में शांति, सत्य और अहिंसा के महत्व को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया, जिससे गांधीजी की विचारधारा आज भी प्रासंगिक बनी हुई है।

वर्ष 1947 में एक फिल्म आई- नाम इरुवर।  दो घंटे तैंतीस मिनट की इस फिल्म के निर्देशक थे एवी मेयप्पन। इस फिल्म में गांधी की प्रतिमा के समक्ष उनकी प्रशंसा गीत गया गया है। यह फिल्म गांधी के आदर्शों के इर्द-गिर्द राष्ट्रवादी राजनीति का शानदार चित्रण करती है। फिल्म में महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसक स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा अहमदाबाद से दांडी तक की गई नमक यात्रा को दर्शाया गया है। इसी तरह फिल्म में गांधी की द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में इंग्लैंड की यात्रा का भी चित्रण है। वर्ष 1968 में महात्मा: लाइफ ऑफ गांधी ( 1869-1948 ) रिलीज हुई,जिसके लेखक और निर्देशक विट्ठलभाई झावेरी थे, और इसका कुल समय पांच घंटे नौ मिनट है। यह फिल्म गांधीजी के जीवन और उनकी सत्य की खोज को विस्तार से पेश करती है, जिसमें उनके जीवन के विभिन्न चरणों को शामिल किया गया है। इसमें उनके दक्षिण अफ्रीका में नस्लीय भेदभाव के खिलाफ संघर्ष और सत्याग्रह को पहली बार राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की कहानी दिखाई गई है। सत्य और अहंकार, प्रेम और हिंसा के बीच इस संघर्ष को फिल्म में गहराई से चित्रित किया गया है। फिल्म 1931 की प्रमुख घटनाओं को भी दर्शाती है, जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने गांधीजी के नेतृत्व में स्वतंत्रता और अधिकारों का चार्टर स्वीकार किया। इसमें अस्पृश्यता के खिलाफ गांधीजी के प्रयास, जेल में उनके उपवास और भारत भर में उनके द्वारा की गई व्यापक यात्रा को दिखाया गया है। यह यात्रा समाज में सुधार और पुनर्जागरण की भावना फैलाने का एक प्रयास था। इसके अलावा, फिल्म में गांधीजी के गांवों के पुनर्निर्माण के प्रयास और उनके द्वारा गांवों को आत्मनिर्भर बनाने की पहल को भी उजागर किया गया है। फिल्म में भारत छोड़ो आंदोलन और कैबिनेट मिशन के साथ गांधीजी की बातचीत का चित्रण भी शामिल है, साथ ही उनके सांप्रदायिक घृणा को समाप्त करने और राष्ट्रीय एकता के लिए किए गए प्रयासों को भी दिखाया गया है, जबकि पूरा देश स्वतंत्रता का जश्न मना रहा था।

महात्मा गांधी : ट्वेंटिएथ सेंचुरी प्रोफेट फिल्म जो 1953 में रिलीज हुई, उसकी कहानी दिलचस्प है। दरअसल 1937 में .के. चेट्टियार ने महात्मा गांधी: ट्वेंटिएथ सेंचुरी प्रोफेट 20वीं सदी के पैगंबर नामक डॉक्यूमेंट्री पर काम शुरू किया और गांधी के अभिलेखीय फुटेज एकत्र करने शुरू कर दिए। इसके लिए उन्होंने भारत के विभिन्न हिस्सों के अलावे लंदन और दक्षिण अफ्रीका में कई जगहों का दौरा किया था। इस यात्रा से उन्हें बड़ी मात्रा में अभिलेखीय फुटेज मिले थे। इसकी मदद से उन्होंने एक डाक्यूमेंट्री बनाई, जिसे पहली बार 1940 में रिलीज किया गया। मूल रूप से यह तमिल भाषा में बनाई गई। बाद में इसे तेलुगु, हिंदी और अंग्रेजी में डब किया गया। यह वृत्तचित्र 15 अगस्त, 1947 को नई दिल्ली में भी प्रदर्शित किया गया था, जिसमें देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद भी शामिल हुए थे। इस वृत्तचित्र में गांधीजी द्वारा एक विदेशी पत्रकार को दिया गया पहला साक्षात्कार भी शामिल है। राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय की मदद से इस वृत्तचित्र का डिजिटलीकरण किया गया। वर्ष 1953 में सैन फ्रांसिस्को में इस वृत्तचित्र की स्क्रीनिंग की गई थी। अमेरिकन एकेडमी फॉर एशियन स्टडीज द्वारा वित्तपोषित यह वृत्तचित्र महात्मा गांधी के जीवन के 37 वर्षों को दर्शाता है। इसमें शुरुआती सार्वजनिक वर्षों से लेकर 1948 में उनकी हत्या तक का फिल्मांकन उपलब्ध है। जैसे-जैसे फुटेज आगे बढ़ती है, हिंदू नेता के जीवन के विचारों और दर्शन का विकास भी प्रस्तुत किया जाता है।

वहीं 1982 में महात्मा गांधी के जीवन पर एक बड़ी अंतरराष्ट्रीय फिल्म रिलीज हुई- गांधी, जिसके निर्देशक थे- राबर्ट एटनबरो।एटनबरो ब्रिटिश भारत के अंतिम वायसराय लार्ड माउंटबेटन से परिचित थे, क्योंकि उनकी पहली फिल्मइन विच वी सर्वयुद्धकालीन नौसैनिक कारनामों पर आधारित थी।गौरतलब है कि माउंटबेटन भी सैन्य पृष्ठभूमि से ही संबंधित थे। माउंटबेटन ने एटनबरो के विचार को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समक्ष रखा था। प्रधानमंत्री से सैद्धांतिक मंजूरी मिलने के बाद एटनबरो 1963 में पंडित नेहरू से मिलने आए थे। एटनबरो को आखिरी मुलाकात में नेहरू ने कहा था कि आप जो भी करें उन्हें (गांधीजी) देवता बनाएं। यही हमने भारत में किया है और वे इतने महान व्यक्ति थे कि उन्हें देवता नहीं बनाया जा सकता। यह एक ब्रिटिश फिल्म थी, जिसमें गांधी की भूमिका भी एक विदेशी कलाकार बेन किंग्सले ने निभाई थी।

फिल्म की शुरुआत 1948 में गांधी (बेन किंग्सले द्वारा अभिनीत) की हत्या से होती है, जिसे नाथूराम गोडसे (हर्ष नैयर) अंजाम देता है। इसके बाद गांधी के अंतिम संस्कार के दृश्य को दिखाया गया है। फिल्म फिर 1893 में लौटती है, जब गांधी एक युवा वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका में थे। वहां उन्हें ट्रेन से उतार दिया जाता है, और यह घटना उन्हें भारतीयों के साथ हो रहे नस्लीय भेदभाव के खिलाफ विरोध शुरू करने के लिए प्रेरित करती है। फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे गांधी का असहयोग आंदोलन पूरे भारत में फैलता है। वह ब्रिटिश वस्त्रों का बहिष्कार करते हुए लोगों को अपने कपड़े खुद बुनने के लिए प्रेरित करते हैं। इसके साथ ही, गांधी 1930 में ऐतिहासिक नमक मार्च का नेतृत्व करते हैं, जिससे भारतीयों को नमक बनाने का अधिकार मिलता है और वे ब्रिटिश नमक कर का विरोध कर पाते हैं। गांधी बाद में भारतीय स्वतंत्रता की संभावना पर चर्चा के लिए लंदन में गोलमेज सम्मेलन में भाग लेते हैं, लेकिन कोई ठोस समाधान नहीं निकल पाता। फिल्म गांधी के संघर्ष और त्याग को दिखाते हुए उनके जीवन के प्रमुख पड़ावों का सार प्रस्तुत करती है।

हे रामफिल्म को कमल हसन ने 2000 में निर्देशित किया था। यह सांप्रदायिक हिंसा और धार्मिक कट्टरता के विनाशकारी प्रभावों को दर्शाती है। यह विभाजन और दंगों के भीषण परिणामों को प्रभावी ढंग से चित्रित करती है, और यह बताती है कि धार्मिक कट्टरता और उग्रवाद समाज को कैसे तबाह कर सकते हैं। फिल्म का मुख्य पात्र साकेत राम एक पुरातत्वविद् है, जो अपनी पत्नी की हत्या के बाद सांप्रदायिक हिंसा और प्रतिशोध की आग में घिर जाता है। वह गांधी को विभाजन और हिंसा के लिए दोषी मानता है और कट्टरपंथियों के प्रभाव में आकर उनकी विचारधारा का समर्थन करने लगता है। लेकिन बाद में आत्म-चिंतन और पश्चाताप के बाद उसे अहसास होता है कि हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं है। जब वह मुसलमानों के एक समूह को हिंदू हमलों से बचाता है, तो उसे गांधीजी के अहिंसा और सहिष्णुता के सिद्धांतों की सच्चाई का अनुभव होता है। फिल्म का संदेश यह है कि सांप्रदायिक हिंसा केवल भौतिक हानि पहुंचाती है, बल्कि मानवीय रिश्तों और समाज की नींव को भी हिला देती है। यह गांधी के सिद्धांतों की प्रासंगिकता को उजागर करती है, जो शांति और सहिष्णुता के सच्चे आधार हैं।हे रामदर्शकों को विभाजन की जटिलताओं और गांधी के अहिंसा के सिद्धांतों पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित करती है।

वर्ष 2004 में स्वदेशवी पीपल रिलिज हुई। इस फिल्म में मोहन नामक पात्र अमेरिका की नासा के लिए अपना काम छोड़ भारत आता है और गांव में शिक्षा को बढ़ावा देने और जाति विरोधी गतिविधियों में भाग लेना शुरू करता है। वर्ष 2005 में आई फिल्म वाटर भी गांधी के संदेशों पर ही केंद्रित थी।यह फिल्म 1938 के ब्रिटिश शासनकाल के भारत में महात्मा गांधी के उदय और स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि में विधवाओं की दुर्दशा को उजागर करती है। फिल्म में पानी को शुद्धिकरण का प्रतीक माना गया है, जो उन विधवाओं के संघर्षों को दर्शाता है जिन्हें समाज से बहिष्कृत करविधवा गृहमें रहने के लिए मजबूर किया जाता है। वे भीख मांगकर या वेश्यावृत्ति के माध्यम से जीवन यापन करती हैं, और उन्हें बेकार और तुच्छ समझा जाता है। फिल्म विधवाओं के यौन शोषण और उनके अमानवीय जीवन पर ध्यान केंद्रित करती है, जो पुरुष प्रधान समाज की संकीर्ण सोच को उजागर करती है।वाटरविधवाओं की त्रासदी का प्रतीक है, जो 1930 के दशक की वास्तविकता को दर्शाते हुए यह स्पष्ट करती है कि अतीत और वर्तमान में भी महिलाओं को शोषण और अपमान का सामना करना पड़ता है। गांधी का आगमन उनके जीवन में परिवर्तन और आशा की किरण लाता है, जो दर्शकों को यह सोचने पर मजबूर करता है कि महिलाओं को बेहतर जीवन और सम्मान की आवश्यकता है।

मैंने गांधी को नहीं मारा (2005 ) एक सेवानिवृत हिंदी साहित्य के प्रोफेसर की कहानी है, जिसका मन उसे यह विश्वास दिलाता है कि उसने गांधी को मारा था। उसका परिवार एक नकली मुकदमा चलाता है, जिसमें उसे बरी कर दिया जाता है, लेकिन वह दावा करता है कि वह दोषी है। इसलिए वह बार-बार कहता है, “मैंने गांधी को नहीं मारा फिल्म में, प्रोफेसर निर्देशक की कहानी समाज में बढ़ते भ्रष्टाचार और अन्य बुराइयों पर जोर देती है। आधुनिक जीवन के साथ, लोग अपने नैतिक मूल्यों और मानवतावाद को भूल जाते हैं। फिल्म ने एक सवाल उठाया कि गांधी कैसे लुप्त हो गए? यह फिल्म इस बात पर जोर देती है कि यद्यपि गांधी की हत्या एक हिंदू कट्टरपंथी ने की थी, लेकिन आज हम गांधी को हिंसा, भ्रष्टाचार और असत्य के माध्यम से हर दिन, हर मिनट मार रहे हैं!लगे रहो मुन्नाभाई ( 2006 ) फिल्म ने लोगों को गांधी के सिद्धांतों को फिर से अपनाने और उनके माध्यम से समस्याओं का समाधान खोजने का संदेश दिया। निर्देशक ने दिखाया कि कैसे गांधीवादी विचारधारा केवल राष्ट्रीय, बल्कि व्यक्तिगत समस्याओं के समाधान में भी उपयोगी है। फिल्म के बादगांधीगिरीशब्द लोकप्रिय हो गया, जो सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित है। गांधी का कोई नया पंथ या संप्रदाय स्थापित करने का इरादा नहीं था, लेकिन उनके आदर्शों ने लाखों लोगों को स्वतंत्रता और न्याय की ओर प्रेरित किया, और यह फिल्म इन मूल्यों को समकालीन रूप में पेश करती है।

निष्कर्ष : महात्मा गांधी के सिद्धांतों - शांति, सत्य और अहिंसा ने केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को दिशा दी, बल्कि सामाजिक और नैतिक सुधारों के लिए भी एक मजबूत आधार प्रदान किया। सिनेमा ने गांधी के विचारों को जन-जन तक पहुंचाने और उन्हें आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। चाहे वहगांधीजैसी अंतरराष्ट्रीय फिल्म हो यालगे रहो मुन्नाभाईजैसी भारतीय फिल्म, सभी ने गांधीवादी विचारधारा को नए और समकालीन तरीके से प्रस्तुत किया। इन फिल्मों के माध्यम से केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से गांधी के आदर्शों को दर्शाया गया है, बल्कि व्यक्तिगत और सामाजिक समस्याओं के समाधान में भी उनकी प्रासंगिकता को प्रदर्शित किया गया है।वाटरजैसी फिल्मों ने सामाजिक अन्याय पर सवाल उठाया, तोहे रामऔरस्वदेशने गांधी के अहिंसा और सहिष्णुता के सिद्धांतों की प्रासंगिकता को उजागर किया। गांधीजी का विचार केवल एक ऐतिहासिक धरोहर के रूप में सीमित नहीं है, बल्कि वह हमारे आधुनिक जीवन और चुनौतियों में भी मार्गदर्शक के रूप में जीवित है। सिनेमा ने केवल उनके जीवन की कहानियों को जीवंत किया है, बल्कि उनके आदर्शों को नई पीढ़ियों तक पहुंचाने में भी मदद की है। यह स्पष्ट है कि गांधी के सिद्धांतों की प्रासंगिकता केवल उनके समय तक सीमित नहीं थी, बल्कि वे आज भी हमारे समाज और व्यक्तिगत जीवन में एक मार्गदर्शक प्रकाश स्तंभ के रूप में कायम हैं।

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सुधीर कुमार
शोधार्थी, इतिहास विभाग, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी
sudhirphd@bhu.ac.in, 9308242631 / 8787254803

सत्यपाल यादव
असिस्टेंट प्रोफेसर, इतिहास विभाग, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी
satyapaly2@gmail.com, 7800359160
  
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

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