शोध आलेख : पिछवाई चित्रण में युगांतर बदलते प्रतिमान / पुष्कर लोहार

पिछवाई चित्रण में युगांतर बदलते प्रतिमान
- पुष्कर लोहार

शोध सार : कृष्ण जीवन को लेकर मेवाड़ के चित्रकला में एक उपशैली नाथद्वारा में विकसित हुई जिसमें श्रीनाथजी की मूर्ति के पीछे लगने वाले परदे पर चित्रकारी की जाती थी उसे पिछवाई चित्रण कहते है । पिछवाई शब्द 'पिच्छ' से आया है जिसका अर्थ है पीछे और 'वाई' जिसका अर्थ है कपड़ा लटकाना। यह श्रीनाथजी के मंदिरों में पृष्ठभूमि के रूप में उपयोग के लिए विशेष रूप से बनाए गए चित्रात्मक वस्त्रों के एक अनूठे रूप को संदर्भित करता है।

जब हम पिछवाई चित्रकला में रूपकारों का अध्ययन करते हैं 350 साल में उसमें हुए परिवर्तन को हम पिछवाई के विभिन्न रूपाकार जो पिछवाई में चित्रित किए गए हैं उनमें समय और उस समय की अन्य कला का अलग-अलग कालखंड में उसे समय की कला में जो प्रयोग हुए उसकी समाहित कर अपने स्वरूप में अलग-अलग परिवर्तन करती रही।

नाथद्वारा चित्रण शैली रेखांकन या खाका बनाने से लेकर चित्र रचना के संपूर्ण संयोजन एवं संघटन (composition) रंगतों एवं रंग की योजना में एक प्रच्छन्न आध्यात्मिक ऊर्जा और बौद्धिक प्रयोजन दृष्टिगत होता है, जो पुष्टिमार्गीय दर्शन पर आश्रित विभिन्न प्रकार की धार्मिक प्रक्रियाओं (Rituals) एवं धर्माचरण की अभिव्यक्ति साफ-साफ दिखाई देती है। इस शैली के लगभग सभी कालों के चित्रों को देखकर यह कहना समुचित प्रतीत होता है कि इस शैली में किसी विशेष दृष्टिकोण को चित्रों के माध्यम से व्यक्त करने की चेष्टा झलकती है। इसीलिए नाथद्वारा शैली की चित्रांकन परंपरा में अलग-अलग काल एवं अलग-अलग चित्रकारों द्वारा बनाई गई चित्र रचनाओं में विषय वस्तु से लेकर स्थान स्थिति, संस्थिति संयोजन, रंगत, रंग योजना इत्यादि में अधिकांशतः समानता और कहीं कही तो पुनरावृत्ति दृष्टिगत होती है। इसका प्रमुख कारण इस शैली में रूपायन का मात्र प्रतिबिम्बात्मक नहीं होना है इसमें रचना में जो कुछ भी रूपायित किया गया है अथवा किया जाता है वह प्राणान्वित होता है।

नाथद्वारा चित्र शैली अनुसरण या अनुकरणात्मक हो ही नहीं सकती, क्योंकि वह किसी खास संकल्प के साधना बिन्दु से सम्पृक्त रचना होती है। नाथद्वारा चित्रण शैली से संबंद्ध चित्र रचनाओं में चेष्टाएँ कलाकृति प्रस्तुत करने की नहीं होती, वरन जो कुछ जिस रूप रंग रंगत में प्रस्तुत किया गया होता है. वह सब कुछ किसी खास संकल्प की संपूर्ति कर साधना बिन्दु को प्राप्त करने या उस बिन्दु तक पहुँचने की चेष्टा होती है। नाथद्वारा चित्रांकन शैली के प्रसंग में अध्ययन से सार रूप में जो बात प्रकट होती है, वह यह है कि नाथद्वारा चित्रण परंपरा में चित्रण का कार्य सुनिश्चित प्रायोजन साध्य कलात्मक सर्जन के लिए नहीं होता, कलाकार कलात्मक सर्जन को निमित्त बनाकर चित्रण कार्य नहीं करता, वह तो ब्रम्ह्मतत्व प्रभु श्रीनाथजी के सगुण स्वरूप और उससे संबंधि प्रतिदिन के श्रृंगार, राग और भोग सेवा को चिरस्मरणीय, चिर ध्यानस्थ बनाने की चेष्टा करता है। इसिलिए यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि नाथद्वारा चित्रण शैली के अन्तर्गत चित्रांकन का कार्य हाथों से किया जाने वाला एक प्रकार का मंत्रोच्चार है, जिसके माध्यम से चित्रकार-साधक अपने आराध्य को प्राप्त कर लेने या उसके साथ हो जाने का सुख प्राप्त करना चाहता है। इसीलिए यह कहना उपयुक्त लगता है कि नाथद्वारा चित्रण शैली से संबंधित कलात्मक सृजन आत्मिक एवं मानसिक कामनाओं से उद्यत साधना के क्षणों में साधी गई सौन्दर्यानन्द चेतना का रूपायित प्रतिबिम्ब होता है, जो चक्षु निर्वाण दर्शन एवं उससे उत्पन्न चित्र उपलब्धि होती है, जिसे पुनः पुनः देखने अथवा स्मृति में लाने से वहीं सुख प्राप्त होता है जो उसे बनाते समय प्राप्त हुआ था, बल्कि वह चित्र रचना एक उपलब्धि, संतोष का अतिरिक्त सुख भी प्रदान करती है।

नाथद्वारा चित्र शैली से संबंधित अध्ययन से प्रमुख रूप में जो तथ्य उद्घाटित हुआ है, वह यह है कि इस चित्रण शैली में भावों का रंग एवं तूलिका के माध्यम से केन्द्रीकरण होता है जो एक गुरूत्तर अर्थ पर्याप्त दूरी तक जाने वाले अर्थ को अपने देह में समेटे रखता है। इस चित्रण शैली में चित्रकार प्रमुख न होकर नगण्य रहता है और चित्र रचना और रचना में भी दार्शनिक एवं धार्मिक दृष्टि प्रमुख होती है। ऐसी स्थिति में यह कह दिया जाना उपयुक्त ही प्रतीत होता है कि नाथद्वारा चित्रण शैली अपने आपमें उस त्रिक का प्रतिनिधित्व करती है जिसमें पुष्टिमार्गीय दर्शन एवं उस दर्शन से अभिप्रेरित धर्मानुशासन के साथ रंग एवं तूलिका से संबंद्ध कला-चित्रकला एकीभूत होकर प्रकट होते हैं।

बीज शब्द : श्रीनाथजी, श्री विग्रह,पिछवाई , नाथद्वारा, चित्रकला, गाय, मोर ,कदम्ब ,बादल ,पानी ,नारी

मूल आलेख : पिछवाई चित्रों में विभिन्न रूपकारों में कालानुरूप हुए परिवर्तन -

● श्रीनाथजी के स्वरूप का चित्रण -

श्रीनाथजी कृष्ण के एक रूप का प्रतीक हैं, जब उन्होंने एक हाथ ऊपर उठाकर गोवर्धन पर्वत उठाया था। छवि एक काले संगमरमर के रूप में है । जहां भगवान अपने बाएं हाथ को ऊपर उठाए हुए प्रकट होते हैं और दाहिने हाथ को कमर पर मुट्ठी में बांधे हुए हैं, और उनके होठों के नीचे एक बड़ा हीरा लगा हुआ है। देवता को एक अखंड काले संगमरमर के पत्थर में उकेरा गया है, जिस पर दो गायों, एक शेर, एक सांप, दो मोर और एक तोते की छवियां खुदी हुई हैं और इसके पास तीन ऋषियों को रखा गया है। ‘'श्री विग्रह” के पैर का चित्रण में आरंभ में बाहर की ओर मुड़े चित्रित किये जाते थे तत्पश्चात् सम्मुख रुप से क्योंकि योगेश्वर कृष्ण द्वारा गोवर्धन का भार बाहर मुड़े पैरों की ताकत से उठा सकने का भाव दैवीय महाबल को सूक्ष्मता से दर्शाना है जबकि सम्मुख रखे पैरों की स्वाभाविक सरलता, भारीपन को भी गोवर्धन को कनिष्ठ अंगुली पर उठा लेना की सहजता को प्रतिलक्षित करती है। अतएव यह भी तथ्य स्पष्ट होता है कि उपरोक्त चित्रणों में भावनापूर्ण विचार, सज्जा व सौन्दर्यकरण प्रमुख भूमिका बन गया और वास्तविक 'श्री विग्रह' केवल 'दर्शन' स्वरुप निर्मित होने लगा।

पिछवाई में समय के साथ हुए परिवर्तन में सबसे महत्वपूर्ण है श्रीनाथजी का मुखार बिंदु अर्थात चेहरा I श्रीनाथजी का चेहरा अपने आप में पिछवाई चित्रकला में सबसे केंद्र में श्रीनाथजी उसमें भी सबसे महत्वपूर्ण उनके नेत्र जिसे कलाकारों ने श्रीनाथजी का नीचे की तरफ देखते हुए बनाया है जो कि भगवान की अभयदान मुद्रा को दर्शाता है। पिछवाई चित्रों में नेत्रों को जब हम विभिन्न कालखंड की पिछवाई में तुलनात्मक रूप से देखते हैं तो उनमें कई प्रकार के बदलाव आए हैं। भारतीय लघु चित्रकला में एक चश्म चित्र बने हैं उन अधिकांश लघु चित्र शैलियों के नेत्र को देखें तो वह बादाम, मछली या कमल की कली के आकार से प्रेरणा लिए हुए लगाते हैं।[ देखे चित्र 2,3,4]

                   

जब 16वीं सदी में पिछवाई चित्रकला प्रारंभ हुई तो उनके श्रीनाथजी के चित्र एक चश्म से द्विचश्म बनने लगे क्योंकि श्रीनाथजी की मूर्ति को देखकर कलाकारों ने अपने चित्रों को बनाया अतः वह नेत्रों को देखकर उनसे बनाने के प्रयत्न करने लगे। अपभ्रंश के चित्र में जिस प्रकार से एक नेत्र बाहर की तरफ बना हुआ उसी को पूर्ण करके चेहरा बनाया हो ऐसा प्रतीत होता है I

मूल रूप से जो लघु चित्रकला मे जो नेत्र बनाए जा रहे वो मछली ,बादाम, कमल की कली के आकार से नेत्र यहां भी बनाए गए हैं। चेहरे को आधा देखे तो लगभग एक चश्मे चेहरे के जो नेत्र है उन्हीं को दोनो ओर के नेत्रों में बने हुए लगते हैं अतः प्रारंभिक चित्रों में नेत्र की जो पुतलियां ठीक मध्य में होनी चाहिए वह थोड़ी किंचित नाक की ओर खिसकी दिखती है जो शने-शने समय के साथ-साथ पुतलियां ठीक मध्य में बनाई जाने लगी । जब हम श्रीनाथजी के नेत्रों को देखते हैं तो बाकी जितने भी देवों के नेत्र है उसमें वो ऊपर से नेत्र चश्पा करते हैं व उनमें पुतलियां नेत्र के ठीक मध्य में पूरी गोल आकार लिए हुए दिखती है जिससे नेत्र में एक आक्रामक, रौद्र या भव्य रूप दिखाता है और चित्रों में जब भगवान नेत्र भी कलाकार बनते हैं तो उसमें उनके चेहरे पर देवत्त्व हो या अध्यात्म दिखाने के लिए पुतलियां ऊपर की तरफ आधी ही पलकों में बंद ढकी हुई बनाई जाती है जिस देवता की ध्यान अवस्था तथा दिखता है पर पिछवाई चित्रकला में इससे ठीक उलट नेत्र की पुतलियां आंखों की पलक के नीचे वाले हिस्से में आधी कटी हुई बनाई गई है जो सम्मुख सृष्टि को देखते हुए उनकी विशाल स्वरूप प्रदर्शित करती है और श्रीनाथजी को दर्शक के साथ सीधा संवाद स्थापित करती हुई दिखती है मानो बाल कृष्ण का स्वरूप श्रीनाथजी गोकुल वासियों को बड़े गौर से देख रहे हैं।


प्रारंभिक पिछवाई चित्रकला में श्रीनाथजी के नेत्र बादाम के आकार लिए गहरी मोटी लाइन के साथ बनाए गए हैं ।[ देखे चित्र 5] समय के साथ-साथ यह नेत्र पतले होते रहे हैं नेत्र के दाएं तथा बाई तरफ हल्की गुलाबी रंगत भी उनके आकार में देने से उनकी आभा और बढ़ गई। नाक के नथुनों के ऊपर प्रारंभ में बने चित्रों में सपाट रंग होने के कारण नाक चपटी सी लगती थी तथा उसके टॉप पर आभूषण से उसमें अलंकार किया हुआ सभी चित्रों में बना है, धीरे-धीरे चित्रों में या चेहरे में लाइट एंड शेड भी आने लगी और नाक के आकार में तीखापन दिखने लगा। प्रारंभिक चित्रों में रंग गहरा काला होता था। अब समय के साथ बदलते-बदलते गहरे नीले व ग्रे शेड में बदल गया। आधुनिक समय में कलाकार चेहरे को अलग-अलग रंगों में, कई बार संयोजन में केवल चेहरे को प्रयोग करते हुए बनाएं गए हैं।

आधुनिक समय में कलाकार श्रीनाथजी के मुखारविंदु व नेत्र को लेकर कई नवीन प्रयोग कर रहे हैं, जिनमें पूरे चेहरे को चित्र का हिस्सा बनाकर उसमें अपनी कलात्मक सृजनात्मक को शामिल कर आधुनिक परिपेक्ष में अच्छे संयोजन के साथ चित्र बना रहे हैं।श्रीनाथजी के शरीर में छवि का चित्रण में प्रारंभ में जो मूर्ति का स्वरूप बना है उसको वैसा ही बनाने का प्रयत्न हुआ है जिसमें श्रीनाथजी के बाएं हाथ ऊपर गोवर्धन उठा सा लगता है तथा दाहिना हाथ उनके कमर पर उनको एक अभय मुद्रा दर्शाता है । 

नाथद्वारा चित्रांकन परंपरा में पारंपरिक आग्रह विद्यमान है। इस प्रकार के नूतन आयामों को बढ़ावा मिलने के परिप्रेक्ष्य में यह उल्लेखनीय है कि उन्नीसवीं शताब्दी उत्तरार्ध के पहले प्रभु श्रीनाथजी के चित्र में प्रभु का कद कुछ ठिगना, शारीरिक अंग प्रत्यंग पुष्ट एवं दोनों चरण दायें-बांये मुडे हुए बनाये जाते थे। जिसका मुख्य कारण भारतीय चित्रकला में पनपी अधिकांश लघु चित्रकला शैली में एक चश्म आकार चित्रों में बनाए जाने वाले चित्रपट के दाएं-बाई तरफ मुड़े चरण होते थे जो संभवत कलाकार ने बनाने में आसानी और दिखने में अच्छे लगने के कारण ऐसा चित्रण रहा होगा, किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी की अन्तिम पच्चीसी से प्रभु श्रीनाथजी के चित्रण में कुछ परिवर्तन आया। श्रीनाथजी का चेहरा जो पहले अधिक गोल बनता था उसकी गोलाई कम की गई और उसे ऊर्ध्वाधर रेखा में लम्बा किया गया। प्रभु श्रीनाथजी के अंग-प्रत्यंगों की पुष्टता और गठीलेपन में कुछ कमी आई और भगवान के चरणों को दायें-बाये मुड़ा हुआ न बनाया जाकर सामने की तरफ समपाद मुद्रा में सीधा बनाया जाने लगा।

इसी प्रकार पूर्वकाल में श्रीनाथजी के शरीर का रंग नीले के साथ सफेद रंग को मिलाकर श्रीनाथजी के शरीर को आसमानी चित्रित किया जाता थाI किन्तु कालान्तर में उदयपुर के एक स्थापत्य कला विशेषज्ञ चित्रकार राधाकृष्ण ने जैसा मूल शिला का रंग है उस रंग में श्रीनाथजी के शरीर का चित्रण करने के लिए आसमानी के साथ गहरे काली झाँई वाले आसमानी को मिलाकर चित्रण किया, जिसे कांटी का रंग कहा जाने लगा था। श्रीनाथजी के शरीर को मौलिक रंग प्रदान करने की चेष्टा की और तब से श्रीनाथजी के शरीर को आसमानी एवं काले गहरे आसमानी रंग के मेल से उत्पन्न होने वाले रंग में बनाया जाने लगा।


इस प्रकार के परिवर्तनों से यह प्रकट होता है कि श्रीनाथजी के स्वरूप चित्रण में पूर्वकालिक आदर्शीकृत आकृति बनाने के साथ में यथार्थ परक आकृति जैसी श्रीनाथजी की शिला है, वैसी आकृति बनाने की तरफ चित्रकारों की प्रवृति बढ़ी। इसके आधार पर यह कहा जा सकता है, कि नाथद्वारा की चित्रांकन परंपरा में समय के साथ साथ यथार्थ की तरफ रूझान हुआ। चित्रकार घासीराम ने श्रीनाथजी की आकृति की पारंपरिक रचना में आनुपातिक परिवर्तन किये और उसे नया रूप प्रदान किया। नये रूप में श्रीनाथजी की आकृति एवं अन्य स्वरूपों, शरीर संरचना की दृष्टि से अधिक परिशुद्धता का निर्वाह हो।


आधुनिक समय में कलाकार अपनी कल्पनाशीलता और रचनात्मकता का प्रयोग करते हुए मूल भाव में बहुत ज्यादा परिवर्तन ना करते हुए श्रृंगार के चित्रों को अलग-अलग प्रयोग के साथ बना रहे हैं। चित्र सं.-6 में चित्रकार पुष्कर लोहार द्वारा जिसमें श्रीनाथजी मंदिर तथा उसके चारों तरफ कमल के पत्तों पर श्रृंगार का चित्रण I इस तरह के कई प्रयोग वर्तमान समय में पिछवाई कलाकार अपने स्तर पर कर रहे हैं।

 ● गाय का चित्रण -

पिछवाई पेंटिंग में गाय एक और महत्वपूर्ण प्रतीक है। हिंदू संस्कृति में, गाय को पवित्र माना जाता है और अक्सर इसे समृद्धि,धन, प्रचुरता और प्रजनन क्षमता से जोड़ा जाता है। पिछवाई चित्रों में गाय को अक्सर भगवान कृष्ण के बगल में खड़ा दिखाया जाता है, जिन्हें चरवाहे के रूप में जाना जाता है। इन चित्रों में गाय की उपस्थिति भगवान कृष्ण को समर्पित जीवन से आने वाली प्रचुरता और समृद्धि को दर्शाती है।

श्रीनाथजी या कृष्ण के जीवन में गाय उनका अभिन्न अंग रहा है अतः अधिकांश चित्रों में गाय उनके साथ दिखाई गई है । प्रारंभिक चित्रों में गाय के चेहरे और आकार में मांडना व लोक चित्र जैसा स्वरूप था शने-शने आकर में परिवर्तन होते गए, बड़ी ही सुंदर गायों का चित्रण होने लगा।

     

कालांतर में पिछवाई में गाय ने प्रमुख स्थान ले लिया। कई पिछवाई गाय केंद्रित कर बनाई जाने लगी उसमें गाय को एक तरह से कृष्ण का प्रतीक मान कर केंद्र में रखकर कई चित्र बनाए जाने लगे। [देखे सलग्न चित्र 7] वर्तमान में चित्रकार गाय को कृष्ण का प्रतीक मानकर कई प्रयोग कर रहे हैं। डा शैल चोयल ने पिछवाई चित्रकला में बनने वाली गाय को आधुनिक चित्रकला के तत्वों को जोड़कर विशेष आकार कर चित्रण कर प्रसिद्धि पाई

    

चित्रकार युगल किशोर शर्मा ने कामधेनु पर पूरी चित्र सीरीज बनाई[ देखे चित्र 8]

● महिला का चित्रण -

मेवाड़ चित्रकला की विशेषता नारी चित्रण में आकर ठिंगना, सुडोल शरीर , तेरे में नाक थोड़ी बड़ी तथा आंखें बादाम सी बनाई जाती थी जिसमें आकार में सुडोलता ज्यादा सौम्यता का अभाव दिखता था I कालांतर अन्य चित्र शैली का प्रभाव तथा पश्चिमी यूरोपीय चित्र से प्रभावित होकर चित्र बनाए जाने लगे हैंI

     

चित्रकार घासीराम द्वारा निर्मित तेल चित्र राधा के इस चित्र में यूरोपियन प्रभाव स्पष्ट दिख रहा हैI [ देखे चित्र :9]



● मोर का चित्रण -

पिछवाई चित्रों में एक और महत्वपूर्ण प्रतीक मोर है। मोर सुंदरता, राजत्व और अनुग्रह का प्रतीक है। हिंदू पौराणिक कथाओं में, मोर को भगवान कृष्ण से भी जोड़ा जाता है, जिन्हें अक्सर अपने बालों में मोर पंख लगाए हुए दिखाया जाता है। पिछवाई चित्रों में मोर को कभी-कभी नृत्य करते हुए भी चित्रित किया जाता है, जो भगवान कृष्ण की भक्ति से मिलने वाली खुशी को दर्शाता है।


मोर के बनावट भी समय के साथ-साथ बारीकी तथा सुंदरता से अभिव्यक्त होने लगी प्रारंभ में मोर को कृष्ण के साथ पेड़ों पर तथा कही नीचे जमीन पर नाचते हुए दिखाया जाता था समय के साथ-साथ मोर का उपयोग बॉर्डर को सजाने के लिए भी होने लगा । आधुनिक समय बाद में मोर कृष्ण के प्रतीक के रूप में भी बनाए जाने लगे तथा पिछवाई का मुख्य पात्र ही मोर हो गया । मोर तथा मोरपंखी अपने आप में कृष्ण का प्रतीक बन पूरी पिछवाई को आधुनिकता तथा नवीन दृष्टि प्रदान की। [चित्र : 10]

[चित्र: 10 ,पुष्कर लोहार द्वारा चित्रित मोर और मोरपंख को संयोजित कर बनाई दो पिछवाई]

     

● केले ओर कदंब के पेड़ का चित्रण -

केले के पौधे का हमारे सनातन धर्म में विशेष महत्व है. इस पौधे का उपयोग पूजा-पाठ में किया जाता है. इसके साथ ही पत्तों का उपयोग सजावट के लिए किया जाता है. ऐसी मान्यता है कि इसमें भगवान विष्णु का वास होता है. जब से पिछवाई चित्रकला प्रारंभ हुई है तब से इन चित्रों में श्रीनाथजी के साथ पीछे सजावट में केले के पेड़ों को बहुताया से बनाया गया है। केले के पत्तों का विशाल तथा लोचदार जाकर चित्र को सुंदरता प्रदान करता है और यही पत्तों का आकार आधुनिक चित्रकरो को नवीन प्रयोग की संभावना प्रदान करता है और आज कई पिछवाई चित्रों में केले के पेड़ को ही केंद्र में बनाकर कलाकार प्रयोग कर रहे हैं I कदंब का पेड़ वो हैं जिसकी छाया में जहां राधा और कृष्ण उसकी मीठी-सुगंधित कदम्ब की छाया के नीचे खेलना पसंद करते थे। कृष्ण भी अपनी युवावस्था में उसी पेड़ के नीचे 'रास-लीला' आकर्षक बांसुरी/बांसुरी बजाते थे।

   

पिछवाई चित्रकला में कृष्ण के साथ सबसे ज्यादा बनाया गया है पिछवाई में दो रूपाकार गाय तथा कदंब का पेड़ चित्रों के पृष्ठ भूमि का अभिन्न अंग रहा है कदंब का पेड़ सुंदर संयोजन प्रदान करता है समय-समय पर इसमें आंशिक परिवर्तन हुए हैं तथा कदंब का पेड़ तथा उस पर बैठे पशु पक्षियों के चित्र बड़े ही सुंदर व मनोरम दृश्य प्रदान करते हैं । आज भी चित्रों में यह अपनी मौलिकता लिए हुए हैं।

कदंब का पेड़ का ऊपरी वर्ता वार्ताकार आकर चित्रपट के ऊपरी भाग को अच्छी तरह से संयोजित कर दृष्टि को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करता है । कदंब के पेड़ का यहीं आकर पिछवाई चित्रों से आधुनिक चित्रकारो को नवीन प्रतीकात्मक संयोजन की प्रेरणा देने का कार्य करता है।

● आकाश ओर बादल का चित्रण -

अलग-अलग समय में बने आकाश में और बादल को आप उपरोक्त चित्रों में देखकर समझ सकते हैं और इन चित्रों आकाश सपाट तथा उसमें सफेद रंग के कतीर(सिल्वर कलर) से तारों को अंकन किया जाता रहा , बाद में कपासी आकर के गोल-गोल आकार लिए हुए बादलों का सुंदर चित्रण जो भारतीय लघु चित्रकला की पहचान

है ऐसे बनाए जाने लगे यूरोप का जब भारतीय चित्रकला पर जो प्रभाव आया उसके पश्चात कुछ चित्रों में आकाश वह बादल वास्तविकता के नजदीक बनाने का प्रयत्न होने लगा।
    

आधुनिक समय में बादल कपास से आकार और गुच्छे के आकार को मुख्य आधार मान कर आधुनिक समय में कलाकार कई प्रकार के नए प्रयोग कर रहे हैं I

सलग्न चित्र में चित्रकार पुष्कर लोहार द्वारा बादल के रुपाकार को केंद्र में मुख्य संयोजन पर रख चित्र का संयोजन किया गया है। [देखे चित्र : 16]



● कमल दल का चित्रण -

प्रारंभ से ही पिछवाई चित्रकला में कमल पुष्प चित्र का मुख्य रूपाकार रहा है जो चित्र धरातल के नीचे के हिस्से में बनाया जाता रहा है। कलाकारों ने बड़ी सुंदरता से कमल के पुष्प और पत्तो का चित्रण किया है । चित्र के मध्य भाग में श्रीनाथजी के गले में कमल की माला चित्र में दर्शक की दृश्य गति को बैलेंस करता है। आधुनिक समय में लघु पिछवाई चित्रकला में बनने वाले कमल तथा यूरोप से प्रभावित वास्तविक आकर से कमल का दोनो शैलियो का समावेश करके बड़े ही सुंदर तरीके से बनाए जाने लगे हैं।


आज के समय में कई चित्रों में कलाकारों ने कमल को ही कृष्ण के प्रतीक के रूप में प्रयोग कर पिछवाई को पूर्णता प्रदान कर दी है।

● पानी का चित्रण -

17 वीं सदी मैं पिछवाई चित्रण में कलाकार पानी का चित्रण भारतीय लघु चित्रकला में रेखाओं के अर्द्ध चंद्राकार स्वरूप में खींचकर बनाते थे जो चित्र को बड़ा ही अलग तारीख स्वरूप प्रदान करती थी [देखें सलग्न चित्र 18,19]


[चित्र : 18]

बाद में चित्रों में पश्चिम के प्रभाव से किंचित वास्तविकता लिए जल का चित्रण बनाए जाने लगा


[1चित्र : 19]

निष्कर्ष : नाथद्वारा चित्रण परंपरा से जुड़े चित्रकारों ने परंपरा के साथ पूर्णतया पुष्टिमार्गीय दर्शन एवं धर्म से जुड़े रहते हुए एवं मंदिर परंपरा से संबंध चित्रों को बनाते रहने के बावजूद समकालीन कला वातावरण के अनुसार अपने आपको ढाल लिया है। वे निरपेक्ष एवं अमूर्त चित्रांकन की तरफ भी आगे बढ़े हैं और समसामयिक युग की मांग के अनुरूप भावना प्रधान अमूर्त चित्र रचना करने लगे हैं। पिछवाई चित्रकला में चित्रपट की विशालता कलाकारों को इसमें नवीनता व प्रयोग करने की छूट देता है जिसके कारण चित्रों में कई प्रकार के प्रयोग अब हो रहे हैं और अपनी चित्र रचनाओं में समकालीन कला तत्वों को महत्त्व प्रदान करने की प्रवृति दिन प्रतिदिन विकसित हो आगे बढ़ती जा रही है। फिर भी आज भी नाथद्वारा चित्रण परंपरा में पारंपरिक आग्रह अवश्य दिखाई देता है। इसका प्रमुख कारण नाथद्वारा चित्र शैली का भक्ति आधारित होना है। वर्तमान काल तक की समस्त नूतनताओं को अपनी रचनाओं में स्थान देने का साहस दिखाने वाला नाथद्वारा शैली का चित्रकार मूलतः एकभक्त है, एक सेवक है, एक सखा है और उसके चित्रांकन संबंधी सभी प्रयास उसकी भक्ति प्रधान भावनात्मक आवश्यकता। प्रभु श्रीनाथजी को प्रसन्न करने के निमित्त होते हैं। चित्रकार जो कुछ जैसा चित्रण करता है मूर्त या अमूर्त उसमें आकार के स्थान पर भावना की प्रधानता देखने को अधिक मिलती है। चित्रों के संघटन एवं उनके संयोजन की योजना रंग विधान, समग्र संघटन इत्यादि में समसामयिक कला तत्वों के समावेश के बावजूद एक प्रच्छन्न आध्यात्मिक एवं बौद्धिक प्रयोजन दृष्टिगत होता है, जो चित्रकारों की पुष्टिमार्गीय दर्शन एवं धार्मिक पृष्ठभूमि का परिणाम होने के साथ नाथद्वारा चित्रण परंपरा में चित्रकार की नगण्यता एवं चित्र-रचना की प्रधानता को दर्शाता है।

उपर्युक्त समस्त संदर्भों में समग्र रूप में यह कहना उचित प्रतीत होता है कि नाथद्वारा चित्रण शैली में परंपरा के साथ नूतनता का समावेश हुआ है जिसके परिणामस्वरूप इस शैली का विश्व चित्रकला संसार में अपना खास स्थान है।

संदर्भ :
  1. The Art and Architecture of the indain Subcontinent, P. 29.
  2. Kapila Vatsyayan, The Square and the Circle of the Indian Ans (New Delhi: Roli Books International,1983), PP. 103-142.
  3. गर्ग संहिता (गिरिराज-खण्ड), पृ. 6.7.
  4. गर्ग संहिता, ७:३०:३१, श्रीनाथजी की प्राक्टध वार्ता, पृ०१-४, ब्रज की कलाओं का इतिहास पृ०२४३ तथा श्री नाथद्वारा का सांसकृतिक इतिहास पृ० ३२
  5. श्रीनाथजी ना पीटकरी (गुजराती) बल्लभ-सुधावर्त 4, अंक 2, ब्रज की कलाओं का इतिहास, पृ. 369 तथा बीनापद्वारा का इतिहास पृ. 33.34.]
  6. वैरागी, प्रभूदास: नाथद्वारा का सांस्कृतिक इतिहास, विद्या विभाग मंदिर मंडल, नाथद्वारा-वि.स्. 2063
  7. ओझा ,गौरीशंकर हीराचंद: उदयपुर राज्य का इतिहास राजस्थानी ग्रन्थागार,जोधपुर ,1996
  8. वियोगी ,हरि :हमारी परंपरा, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली,वि.स्. 2024
  9. वर्मा सुरेंद्र भारतीय दर्शन संप्रदाय और समस्याएं मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी,1991
  10. व्यास, राजशेखर: मेवाड़ की कला और स्थापत्य, राजस्थान प्रकाशन, जयपुर- 1988
  11. भागवती कृष्ण चंद्र शास्त्री श्रीनाथजी के प्रादुर्भाव की ऐतिहासिकता नाथद्वारा
  12. अमित, अंबालाल: कृष्ण एज श्रीनाथजी राजस्थान

पुष्कर लोहार
शोधार्थी , दृश्यकला विभाग, सामाजिक विज्ञान व मानविकी महाविद्यालय, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर[राजस्थान]

दृश्यकला विशेषांक
अतिथि सम्पादक  तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-55, अक्टूबर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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