शोध सार : प्रियंवद द्वारा रचित बाल उपन्यास ‘नाच घर’ बाल मन की आकांक्षाओं का खुला आकाश है। प्रियंवद इस उपन्यास में बाल पात्रों के जरिए बच्चों में नैतिकता,
सामाजिकता,
संस्कार और संस्कृति का ज्ञान देते हैं और इतिहास का ऐसा वृतांत रचते हैं जिसमें स्वतंत्रता पूर्व,स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के बाद का नाच घर और इसी के बहाने ईस्ट इंडिया कंपनी का विकास और राष्ट्रीय आंदोलन की झांकी है। इसमें गीत,
संगीत और नृत्य से गुजरते हुए बाल पात्र मानवता के शिखर पर पहुंचते हैं। इसमें मोहसिन और दूर्वा के दैनिक जीवन से लेकर स्कूल,
पर्यटन और सोनख्वाब गांव की सुंदरता है और नाच घर का बच्चों के नाम हो जाने की कथा भी। यह उपन्यास प्रेम का भी एक महाकाव्य है,जिसमें कई प्रेम कथाएं चलती हैं। प्रियंवद नें समय को संपूर्णतामें रचा है,वे सुबह को बड़ी बारीकी से देखते हैं। आधुनिकीकरण और बढ़ते महानगरीय परिवेश ने बच्चों का आसमान छीन लिया है,
काला बच्चा के माध्यम से प्रियंवद बिल्डरों की उस दुनिया में ले जाते हैं जहां पैसे की खातिर कुछ भी बर्बाद किया जा रहा है।
बीज शब्द : बाल-साहित्य,
बाल मनोविज्ञान, आधुनिकीकरण, प्राकृति, प्रेम, नैतिकता, आदर्श, धार्मिक विषमता, पर्यटन, भाषा, इतिहास बोध।
प्रस्तावना : सामान्य रूप से बच्चों के लिए निर्मित साहित्य को ही बाल साहित्य कहते हैं,
जिसमें बच्चों के लिए न सिर्फ मनोरंजन होता है बल्कि उनके भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों का समावेश भी होता है। प्रियंवद द्वारा रचित बाल उपन्यास नाच घर बच्चों को सामाजिक चेतना, मनोभावों, बौद्धिकता, राष्ट्रीय गौरव, कर्तव्य प्रेरणा, आदर्श, नैतिकता, भारतीय संस्कृति, और सम्मान का बोध कराता है। नाच घर एक ऐतिहासिक बिल्डिंग है जिसमें नृत्य हुआ करता था। एक अंग्रेज अधिकारी की बेटी मेडलीन के प्रेमी के मृत्यु हो जाने के बाद यह नाच घर बंद हो गया था। मेडेलिन की वसीयत पर नाच घर की प्रॉपर्टी तय होनी थी जो अंत में मोहसिन और दूर्वा को मिलती है, जो चोरी-चुपके नाच घर देखने जाया करते थे। उपन्यासकार ने मोहसिन और दूर्वा के बाल मन को बड़ी ही बारीकी से रचा है। उनकी आकांक्षाओं और सपनों का एक पर्वत खड़ा किया है जो अंततः नाच घर को फिर से नाच घर बना कर मानता है। उपन्यासकार ने प्रकृति को भी दिखाया है और प्रकृति के साथ बच्चों के लगाव को भी। बच्चे की नजर में नदी, नाव, जहाज़, रेल, दरगाह और सुबह को खूबसूरती से रचा है।पंछियों को बचाने के लिए बच्चों के बहादुरी के किस्सों को भी बहुत ईमानदारी से दिखाया है। इस उपन्यास में बाल श्रमिक का भी चित्र खींचा गया है । उपन्यास में प्रकाशित चित्र कथा के फलक को और विस्तृत करते हैं।
मूल आलेख : बाल साहित्य वह साहित्य है जो बच्चों के मन और मनोभावों को परख कर उनकी ही भाषा एवं स्तर के अनुरूप लिखा गया हो। भारतीय इतिहास की परंपरा में आदिकाल से ही बाल साहित्य साहित्य का अभिन्न अंग रहा है,
यहां तक की पौराणिक कहानियों में भी बाल मनोभावों के अनुसार कहानियां- किस्से प्रचलित हैं। बाल साहित्य बालकों का मनोरंजन तो करता ही है साथ-साथ उनका मानसिक एवं बौद्धिक विकास भी करता है। इस साहित्य से बच्चों का ज्ञानवर्धन होता है साथ ही साथ उनमें सृजनात्मक अभिरुचि का विकास भी होता है,बालकों में चारित्रिक निर्माण होता है और बच्चे नैतिक रूप से सबल होते हैं। बाल साहित्य बच्चों में सामाजिक एवं संवेगात्मक विकास करता है और इससे देश के इतिहास एवं संस्कृति के विकास को समझने में आसानी होती है।साहित्य मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं का समुच्चय होता है।यही बात बाल-साहित्य के साथ है। बाल-साहित्य भी बालकों की मानसिकता के स्तर पर मूल्यों और संवेदनाओं का सम्प्रेषण करता है।विष्णुकांत पाण्डेय के अनुसार ‘‘बच्चों के स्वस्थ मनोरंजन के साथ उनके भावी जीवन के लिए उन्हें स्वयं तैयार कर देने की परोक्ष उत्प्रेरणा देने वाला साहित्य ही सच्चा बाल-साहित्य है।’’1इस प्रकार बाल साहित्य ऐसा होना चाहिए जो आधुनिक जीवन और मानवीय मूल्यों को जोड़े। साहित्य के माध्यम से ही बालक अपने वातावरण को सहज रूप से समझते हैं, सचेत होते हैं और अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हैं। यही वह अवस्था होती है जब बालक विभिन्न मानवीय मूल्यों को अर्जित करते हैं।
प्रियंवद द्वारा रचित बाल उपन्यास 'नाच घर' बच्चों में मनोरंजन,नैतिकता, इतिहास बोध, मानवीय मूल्य, एवं कल्पना के गुण देता है। यह वह आकाश है जिसमें बच्चे अपने सपनों को लेकर उड़ते हैं, विस्तृत फलक पर जिंदगी जीते हैं। नाच घर बच्चों के हाव-भाव, सृजनात्मकता और उनके सपनों को समेटे हुए है। प्रियंवद बच्चों की कहानी, बच्चों की भाषा में सहज-सरल रूप में रचते और बुनते हैं कि उसमें बचपन जीता जागता दिखता है। समय बदल रहा है, सुबहें बदल रही हैं, प्रेम, रिश्ते, ममत्व सब कुछ बदल रहा है, इस टेक्नोलॉजी के युग में सब कुछ डिजिटल होता चला जा रहा है इस बीच अगर कुछ बचाने की जरूरत है तो वह बचपन भी है। प्रियंवद न ही बचपन को दिखाते हैं बल्कि बचपन को बचाने का प्रयास भी करते हैं।नवनीत नीरव लिखते हैं“अब कुछ भी बचाने या फिर नई पीढ़ी को हस्तांतरित करने की कोई भावना नहीं। सबकुछ रेडीमेड व्यवस्था पर जैसे आश्रित होता जा रहा है। सामूहिकता जैसे शब्दकोश का एक विस्मृत शब्द बनकर रह गया है। उसी खोते हुए को बचा लेने की कहानी कहता है नाचघर।”2टूटते पारिवारिक परिवेश में प्रियंवद एक ही नहीं दो-दो परिवार की रचना करते हैं और फिर अंत में उन दोनों परिवारों को मिलाकर एक संयुक्त परिवार की पुनर्रचना करते हैं। यह सब इतनी सावधानी से करते हैं कि इसमें मासूमियत, तार्किकता और बौद्धिकता सब कुछ बची रह जाती है।
वैसे तो नाच घर में मोहसिन और दूर्वा के मासूम सपनों के बड़े होने की कहानी है लेकिन प्रियंवद शुरू में ही 'लिल्ली घोड़ी की उदासी’ शीर्षक से सगीर बाशा का बचपन रचते हैं। सगीर बाशा के बचपन के माध्यम से प्रियंवद बाल श्रमिकों की कहानी कहते हैं। सगीर एक मासूम बच्चा है जो बचपन में ही जीवन यापन के लिए काम करना शुरू कर देता है। प्रियंवद ने इस बच्चे में एक कलाकार गढ़ा है जो शुरू में रामलीला मंडली से जुड़ता है। रामलीला कमेटी बंद होने पर जीविकोपार्जन के लिए शादी विवाह में लिल्ली घोड़ी बनता है। आधुनिक बैंड और तकनीकी आ जाने से लिल्ली घोड़ी का काम भी बंद हो जाता है और वह उदास रहने लगता है। प्रियंवद लिखते हैं "बारात में डीजे आ गया। अब लोग उसके गानों पर नाचते। दूल्हा अकसर कार में जाता। शादियां भी होटल में, गेस्ट हाउस में होने लगी। बारात उठना कम हो गया। बैंड वाले, आतिशबाजी, हंडा लेकर चलने वाले, सजावट शहनाई, सेहरा, मंडप सजाने वालों के काम भी कम होते गए। सगीर और लिल्ली घोड़ी भी बेकार हो गए। लिल्ली घोड़ी कोठी की बड़ी दीवार पर टंगी रहने लगी। सगीर की उम्र हो गई थी। अब्बा गुजर गए थे। अब वह दरगाह पर चढ़ने वाली चादर बनाकर बेचता। आते-जाते उसकी निगाह लिल्ली घोड़ी पर पड़ती।.....सगीर तब कई दिनों तक उदास रहता।"3
धार्मिक विभिन्नता हमारे समाज का यथार्थ है, बच्चे समाज का हिस्सा हैं वे सब कुछ इसी समाज से सीखते हैं। प्रियंवद के पात्र दूर्वा और मोहसिन भी इससे अछूते नहीं रहे। जब वे पहली बार मिलते हैं तो दूर्वा कहती है तुम मुसल्ले हो। कहते हैं न कि बच्चे मन के सच्चे होते हैं तो यह सच्चाई उन बच्चों में दिखती है वे बहुत जल्दी धार्मिक विषमता को भूल जाते हैं और अपने घर वालों के लिए दोनों एक दूसरे के अनुरूप नाम बदल लेते हैं। टूर के दौरान जब एक दिन मोहसिन को दूर्वा मुसल्ला बोल देती है तब वह नाराज हो जाता है “आज अम्मी ने जब मटर के कबाब डिब्बे में रखे तो कहा ‘दूर्वा को मत देना’ ‘क्यों’ मैंने पूछा। वह बोली ‘हम मुसलमान हैं वह पूजा पाठ वाले घर की है’। ‘वह गाजर का हलवा लाएगी तो मैं खाऊंगा’ मैंने कहा। ‘हमें फर्क नहीं पड़ता’ अम्मी बोली ‘पर उन्हें बहुत पड़ता है, वह बुरा मानेंगे हर बात में इसका ख्याल रखना’ मोहसिन चुप हो गया।”4
वहीं लिंग विभेद भी बच्चों में नहीं होता। लड़की हो या लड़का एक दूसरे को उसी नजर से देखते हैं, किसी को कम ज्यादा नहीं आंकते। अगर पितृसत्तात्मक समाज का अनुकरण बच्चे कर भी लिए हैं तोविरोध भी तुरंत दिखता है। प्रियंवद नें इस शूक्ष्मता को बारीकी से रचा है “ ‘वहां क्यों बैठी तुम’ मोहसिन गुर्राया। ‘मेरा मन’ दूर्वा हंसी। -‘नहीं तुम्हें हमेशा मेरे मन की बात माननी पड़ेगी’ -‘क्यों’ - ‘क्यों?’ मोहसिन ने एक क्षण सोचा क्योंकि ‘मैं लड़का हूं’ - ‘लड़का होने की ऐसी तैसी, नहीं मानूंगी’।”5
सुरेश पंडित लिखते हैं “बाल साहित्य अपनी संस्कृति से अछूता तो नहीं रह सकता इसलिए जाहिर है यहां अभी भी वही लेखन बच्चों को लुभा सकता है जो उनकी मनोसंरचना से मेल खाता हो।”6 प्रियंवद नाच घर में भारतीय संस्कृति का एक ढांचा तैयार करते हैं जिसमें बच्चों के लिए नैतिकता, आदर, सम्मान को बढ़ावा देने वाले महाकाव्यात्मक वृतांत रचते हैं। इनके पात्र दुआ की बातें करते हैं, भले की बातें करते हैं। नाच घर यथार्थ की जमीन तैयार करता है जिसमें बच्चे इसी जमीन के बच्चे हैं जो अपने मां-बाप, आसपास से सीखते हैं; अच्छाइयां भी, बुराइयां भी। मोहसिन कहता है “- ‘मेरी अम्मी भी रोज सुबह अल्लाह से दुआ करती है उसकी जुबान में’
- तुम वह जुबान समझ सकते हो? - अभी नहीं,पर मैं भी अब सीख लूंगा।”7नाच घर के बच्चे समाज के कुरीतियों की बहाव में नहीं बहते बल्कि वे आदर्शों के मार्ग पर चलते हैं। यह बच्चे बड़ों द्वारा किए जा रहे इर्ष्या-द्वेष, लड़ाई- झगड़ा, नफरत और दंगो को बुरा मानते हैं। उनका आदर्श सच की राह पर चलना है।
बाल मन बहुत चंचल और सहज होता है। यह प्राकृतिक तरीके से ग्रहण करता है, बच्चों के अनुकरण में बनावटीपन नहीं होता। बाल साहित्य में सहजता और स्वाभाविकता का होना आवश्यक होता है।डॉ० रामकुमार वर्मा इस सम्बन्ध में कहते हैं कि, ‘‘बच्चों को स्वभाविकता पसंद होती है। यदि कोई बात बच्चों से भिन्न होती है तो वे उसे पसंद नहीं करते तथा उसका परिहास कर मुँह बनाते हैं। इसलिए यह आवष्यक है कि रचना पर साहित्यकार का व्यक्तित्व हावी नहीं होना चाहिए, जिससे बच्चे उस रचना का परिहास न करें। बच्चे के लिए सारा संसार, कल्पना, आश्चर्य और उत्सुकता का समुद्र होता है जिसमें डूबकर वह अपनी रूचि की वस्तु पाता है वह हमेशा नया निर्माण करने में जुटा रहता है।’’8प्रियंवद का बौद्धिक मन उनके इस बाल उपन्यास पर कहीं हावी नहीं होता। वे बहुत सहजता से टुकड़ा टुकड़ा रचते हैं। बालमन की सरल और चंचल बुनावट से छोटी-छोटी कड़ियों में उपन्यास पूरा करते हैं। नाच घर के बच्चे (मोहासिन) पक्षियों से प्रेम करते हैं, उन्हें घायल होने पर बचाते हैं और उसके किस्से आपस में सुना कर खुश होते हैं।“मोहसिन डाल से उतर आया। उसकी हथेलियों में बच्चे की खाल की गर्माहट और फड़फड़ाहट थी। जीवित, काँपती हुई। मोहसिन ने हथेलियों को चेहरे से छुआया। नाक के सामने रखकर सूँघा। नई...
ताज़ी...
साँस लेती ज़िन्दगी की गन्ध थी।”9
प्रियंवद घरों, स्कूलों, गलियों, छतों, दरगाहों और बाज़ार की स्मृतियों को संजोते हैं, जिसमें इनके पात्र आवा- जाही करते हैं।
नाच घर सिर्फ बिल्डिंग नहीं है बल्कि इतिहास है। इस इतिहास की कहानी जिज्ञासा जगाती हैं, जिसको हर बच्चा जानना चाहता है। इसमें भारतीय स्वतंत्रता का इतिहास है, स्वतंत्रता पूर्व का इतिहास है और स्वतंत्रता के बाद वीरान पड़ते नाच घर का इतिहास है। इसके इतिहास में संगीत है, नृत्य है, दर्शक हैं, दर्शक दीर्घा है, पियानो की धुन है और उस पर नाचती मेडलीन। मेडलीन के प्रेम को प्रियंवद अपनी कहानी कला से गढ़ते हैं। मेडलीन की वसीयत इस कहानी को नया मोड़ देती है।
इस उपन्यास की खूबसूरती है मोहसिन और दूर्वा का मिलन है। इन बच्चों का मिलन साधारण मिलना नहीं था लेकिन अमूमन बच्चे ऐसे ही मिलते हैं। इसके संवादों और चुलबुलेपन से ऐसा लगता है जैसे याह उपन्यास किसी बच्चे ने लिखा हो। जब मोहसिन नाच घर की रोशनदान से नाच घर में झांक रहा था तो हाल में खड़ी लड़की से संवाद होता है । “-‘ऐ!’ लड़की सकपका गई। उसने ऊपर देखा रोशनदान के अंदर मोहसिन का सर घुसा था । ‘कौन हो तुम?’ मोहसिन ने पूछा। ‘तुम कौन हो?’ लड़की ने पूछा। ‘यह मेरी छत है’ मोहसिन ने कहा। ‘यह मेरा हाल है’ लड़की ने कहा । मोहसिन चुप हो गया। ‘क्या कर रही हो?’ कुछ देर बाद मोहसिन बोला। -
देख रही हूं।”10प्रियंवद प्रेम कहानी के मंझे हुए कथाकार हैं। वे प्रेम के एक-एक लम्हों का एहसास कराते हैं। यह उपन्यास भी प्रेम से अछूता नहीं रहा लेकिन पढ़ते हुए लगता है कि कहीं से भी यह बाल साहित्य की परिधि से बाहर नहीं गया, मतलब प्रेम का जिक्र नहीं हुआ पर प्रेम हुआ। मोहसिन और दूर्वा मिले, दोस्त बने, प्रेम हुआ, शादी भी हुई लेकिन इस बीच कहानी जिज्ञासा की रही, कुछ नया करने की रही।
प्रियंवद कानपुर की गलियों का दृश्य बनाते हैं। उनके दृश्य में मोहसिन और दूर्वा का स्कूल में आना-जाना, साइकिल, पैदल और रिक्शे की मनमर्जियां हैं। इनके पात्र राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत किए जाने वाली प्रतियोगिता में इसलिए भाग लेते हैं ताकि वे पर्यटन पर जा सके, संग संग समय बिता सकें। उपन्यासकार बालमन की गहरी समझ रखता है। वह बारीक मनोभावों को दिखाता है। बस से टूर पर निकलने, खाना आपस में बांट कर खाने और नदी को देखने की ललक और खुशी को बड़ी यथार्थ के साथ प्रियंवद ने रचा है। अपने जीवन में एक बार ट्रेन से नदी देखने वाला मोहसिन नदी से ट्रेन देखने पर बड़ा खुश होता है। पहली बार नदी को देखने पर मोहसिन के मनोभावों को प्रियंवद ने कुछ इस तरह रचा है
"अनायास ही मोहसिन की आँखें भर आईं। कोई विराटता उसे छू रही थी। उसे बहुत लघु होने का अहसास हुआ। चुप्प...
बस चुप्प रहा वह। नावें किनारे पर आ गईं।”11उनका नाव देखना, जहाज देखना, खूब घूमना, खुश होना और थकना इस पूरी प्रक्रिया को प्रियंवद ने दिखाया है। प्रियंवद के पास प्रकृति को देखने की एक आंख है, जो हूबहू प्रतिबिंब के रूप में पाठक के सामने लाती है।
प्रियंवद पाठक कोप्रतियोगिता के बहाने निबंध तक ले जाते हैं और बच्चों से निबंध लिखवाते हैं। मोहसिन घोड़े पर विस्तृत निबंध लिखता है और दूर्वा सुबह पर। प्रियंवद सुबह को बच्चों की आंख से देखते हैं, जिसमें दो सुबहें हैं; सुबह के पहले की सुबह और दूसरी सुबह।वे निबंध के बहाने सुबह को ऐसा रचते हैं जहां सिर्फ बाल मन ही पहुंच सकता है जिसमें सुबह की किरणें, पंछियों का चहचहाना, दादाजी का सुबह का टहलना और बहुत सारे कार्य जो नई ऊर्जा और रोशनी के साथ आते हैं
कथाकार ने उपन्यास में बच्चों से पत्र भी लिखवाया है। दूर्वा अपने गांव से मोहसिन को पत्र लिखती है और बड़े सरल और मासूम शब्दों में गांव की खूबसूरती का चित्रण करती है। उपन्यासकार ने शहर के बच्चों की नजर से गांव को दिखाया है। शहरी भीड़-भाड़ और बिल्डिंगों से घिरे शहर के बच्चे जब गांव जाते हैं तो खुला आकाश, खिलते फूल,चहचहाते पक्षी और न खत्म होने वाली जमीन देखते हैं।दूर्वापत्र में लिखती है-
"हमारा घर गाँव के बीच में है। छत से पूरा गाँव दिखता है। यहाँ सब कुछ 'सोती सुन्दरी' कहानी की तरह हमेशा सोया रहता है। धूप...
हवा...
पेड़...
पक्षी...
समय तक। किसी को कभी कोई जल्दी नहीं होती।कोई तेज नहीं चलता। घड़ी नहीं देखता। घरों में ताला नहीं डालता। गाँव में खेत...
कच्ची सड़क और कुछ कच्चे-पक्के मकान हैं। बड़ी चीज़ के नाम पर एक टूटे किले या गढ़ी की टूटी चारदीवारी है। इस पर लोग रंगे हुए कपड़े और चमड़े के टुकड़े सुखाते हैं। उनसे ढँकी चारदीवारी रंगबिरंगे फूलों की तरह रंगीन दिखती है।”12
उपन्यासकार ने काला बच्चा जैसे पात्र को रचकर शहर के बिल्डरों का चित्र उकेरा है जो आसमान निगलने को आतुर हैं। कथाकार ने इसमें मॉल संस्कृति की शुरुआत पर भी ध्यान आकर्षित कराया है। आधुनिकीकरण, भूमंडलीकरण और महानगरीकरण की प्रक्रिया में क्षीण होते बचपन की ओर संकेत किया है। लेकिन यह उपन्यास आनंद और स्मृतियों से भर देता है “अब दूर्वा और मोहसिन नाच घर देखते हैं। उन्होंने इसे सिर्फ बच्चों के लिए बनाया है। बच्चों की किताबें हैं। बच्चों के कार्यक्रम होते हैं। बच्चों को गीत-कहानियाँ सुनाई जाती हैं। फिल्में दिखाई जाती हैं। सबसे बड़ी बात, नाच घर के बारे में सारे फैसले बच्चे मिलकर लेते हैं। इसमें कोई बड़ा व्यक्ति नहीं है। बड़ों का कोई दखल नहीं है। दूर्वा और मोहसिन का भी नहीं। वे सिर्फ वही करते हैं जो बच्चे तय कर लेते हैं। उन दोनों ने हर शहर, हर कस्बे में एक ऐसा नाच घर खोलना तय किया है। वे इसे पूरा करने में लगे हैं। दो शहर और तीन कस्बों में वे नाच घर खोल चुके हैं।”13
यह नाच घर बच्चों की उड़ानों और सपनों का घर है, बाल मन की आकांक्षाओं का महल।प्रियंवद की सधी हुई भाषा है। बाल साहित्य लिखते हुए वे बाल जुबान को रचते हैं। शिल्प की विराटता, पात्रों का चरित्र निर्माण और परिवेश के साथ उनका समायोजन उन्हें अन्य कथाकरो से अलग करता है। वे बाल मन की भाषा को सुनते हैं और उनके मनोभावों का चित्रण करते हैं,उनके इशारों को बिंबो से सजाते हैं। उनकी अनकही जुबान को प्रतीकों से बताते हैं। इस उपन्यास में बहुत से चित्र बने हैं जो उपन्यास को और विराट बनाते हैं, प्रियंवद के उकेरे गए चित्र को और स्पष्ट चित्र देते हैं। यह चित्र न ही बाल मनोभावों को दिखाते हैं बल्कि यह बाल मनभावन भी हैं।
निष्कर्ष : अतः बाल साहित्य बच्चों की शारीरिक, मानसिक तथा मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर लिखा गया साहित्य है। बाल साहित्य का उद्देश्य बालकों में मनोरंजन के साथ-साथ उनमें सामाजिक, नैतिकगुण और उनमें वैज्ञानिकता और जिज्ञासा पैदा करें। प्रियंवद का उपन्यास नाच घर बालकों को सामाजिक नैतिक रूप से सबल बनाता है एवं उनमें जिज्ञासा और सपनों के पंख देता है। इस उपन्यास में बच्चों की भाषा है और बच्चों की भाषा में ही उनके सपने और आकांक्षाएं हैं। प्रियंवद इतिहास से नाच घर को निकलते हैं और बच्चों की कोमल कल्पनाओं को गढ़ कर जिंदगी का एक मुकम्मल खाका तैयार करते हैं, जिसमें इतिहास है, संगीत है, नृत्य है, गीत है। इस उपन्यास में कामकाजी व श्रमिक बच्चों की मानसिक स्थिति को भी बहुत मार्मिक तरीके से दिखाया गया है। सगीर बाशा का रामलीला मंडली में कार्य करने से लेकर दिल्ली घोड़ी बनने और फिर बेरोजगार हो जाने के दुख को प्रियंवद ने रचा है। वे प्रकृति को बहुत खूबसूरत नजरिए से देखते हैं और बच्चों के नजर में गांव नदी,नाव, रेल और गलियां कैसी दिखती हैं इसे गढते हैं। बढ़ती सूचनाक्रांति,तकनीकी और खत्म होते पत्र लेखन के दौर में बच्चों के हाथों से पत्र लिखवाना लेखक की उपलब्धि है। लेखक ने सुबह को बहुत बारीकी से देखा है। यह बच्चों के आंखों की सुबह है जिसमें पक्षियाँ हैं, नई किरणें, नए सपने, मासूम जिज्ञासाएं हैं। नाच घर के बहाने प्रियंवद इतिहास में जाते हैं और ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना से लेकर राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन और उसके बाद नाच घर के बंद होने तक की कहानी को नाटकीय ढंग से रचते हैं। मॉल संस्कृति के निर्माण के दौर में काला बच्चा जैसे बिल्डरों का भी चित्रण करते हैं जो बच्चों का आसमान खत्म कर रहे हैं। यह उपन्यास बच्चों के अरमानों को पूरा करता है। इसमें नाच घर फिर से नाच घर में तब्दील हो जाता है। इस उपन्यास में आए चित्र उपन्यास की विराटता को और विराट करते हैं और बच्चों की मासूमियत उनके बाल मन को दिखाने में सफल रहते हैं।
संदर्भ :
- सुरेन्द्र विक्रम,हिन्दी बाल पत्रकारिता: उद्भव और विकास, पृ०16
- नवनीत नीरव, (आलेख) स्मृतियों का नाचघर,https://samalochan.blogspot.com/2018/06/blog-post_6.html
- प्रियंवद, नाच घर, जुगनू प्रकाशन, नई दिल्ली,2018, पृ० 7
- वही, पृ० 91
- वही, पृ० 90
- सुरेश पंडित, हिंदी में बाल साहित्य : वस्तु स्थिति और संभावनाएं (आलेख), शिक्षा विमर्श पत्रिका, अंक जुलाई-दिसंबर, 2005 , पृ० 62
- प्रियंवद, नाच घर, जुगनू प्रकाशन, नई दिल्ली,2018, पृ० 21
- सरोजिनी पाण्डेय,हिन्दी बाल साहित्य समीक्षा के प्रतिमान और इतिहास लेखन, पृ. 112
- प्रियंवद, नाच घर, जुगनू प्रकाशन, नई दिल्ली,2018, पृ० 36
- वही, पृ० 11
- वही, पृ०,95
- वही, पृ० 50
- वही, पृ०114
शोध छात्र, हिंदी विभाग शहीद मंगल पांडे राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय माधवपुरम मेरठ
Wow dear
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