शोध आलेख : स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यासों में बाल विमर्श / अंकित कुमार मौर्य

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यासों में बाल विमर्श
- अंकित कुमार मौर्य


शोध सार : शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ युवा पीढ़ी ही एक राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में सहायक होसकती है और यह तब संभव है; जब बचपन में उनकी अच्छी परवरिश की जाय। उनको सही जीवन मूल्यों से अवगत कराया जाय, ताकि वे बच्चे कल देश के सुनहरे भविष्य में बेहतर योगदान दे सकें। बच्चों के सही विकास में रही समस्याओं, उनकी क्षमता और संभावनाओं पर विचार करना ही बाल विमर्श का मूल ध्येय है। बाल साहित्यकारों ने तो इस पर लिखा ही है, लेकिन हिन्दी के स्वातंत्र्योत्तर उपन्यासों में भी हमें कुछ ऐसे उपन्यास दिखाई पड़ते हैं जो बाल समस्याओं और बाल विमर्श को केंद्र में रखकर लिखे गए हैं। आपका बंटी, कड़ियाँ, तमस, छप्पर, पारो, तीसरी सत्ता, बलचनमा, समर शेष है, यह भी नहीं, सूत्रधार, पोस्ट बॉक्स नं० 203 नाला सोपारा आदि उपन्यासों के हवाले से स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यासों में बाल विमर्श को बेहतर समझा जा सकता है।

बीज शब्द : स्वातंत्र्योत्तर, परवरिश, बाल विमर्श, बाल्यावस्था, मुख्यधारा, उपन्यास, बाल मनोविज्ञान, बचपन, किन्नर, स्त्री, दलित, आदिवासी।

मूल आलेख : आजकल बढ़ते अपराधों के आँकड़ें हमें इस ओर इशारा करते हैं कि कैसे दिन--दिन हमारे नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है। इसलिए हमें बाल विमर्श पर भी साहित्य के अन्य विमर्शों की तरह बात करनी होगी। चूँकि बच्चे साहित्यिक रूप में अपनी समस्या स्वयं रख पाने में उस तरह से सक्षम नहीं है। इसलिए भी हमारा दायित्व बनता है कि इस पर बात हो। चर्चा-परिचर्चा हो, बहसें हों।

बाल विमर्श का आधार बाल मनोविज्ञान पर टिका हुआ है। बच्चों की रुचि-अरुचि एवं मानसिक दशाएँ अस्थिर होती हैं। उनमें परिवर्तन तेज़ी से होता है। इन दशाओं को समझ लेना ही बाल मनोविज्ञान को समझने में सहायक हो सकता है। रमेश दवे बाल विमर्श को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि "बाल विमर्श एक प्रकार से बच्चों के प्रति सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक चिंता है। यह विमर्श बच्चों के अस्तित्व, उनके विकास, उनकी क्षमता और शक्ति पर सार्थक विचार है।"1 बच्चों में अपार संभावनाएं होती हैं। अगर उनकी परवरिश के समय उनकी इस क्षमता को ठीक से समझ लिया जाए तो उन्हें उस क्षेत्र में दिशा निर्देश देकर एक बेहतर नागरिक बनाया जा सकता है। यह चिंतन बाल मनोवैज्ञानिक होने के साथ ही सामाजिक अवधारणा को भी समेटे हुए है। बच्चों की परवरिश पर समाज का ठीक ठाक असर पड़ता है। उनकी समस्याएँ सुलझाने एवं बढ़ाने दोनों में अपनी भूमिका निभा सकता है। इसी आलेख में इसको और स्पष्ट करते हुए रमेश दवे कहते हैं कि "बाल विमर्श एक प्रकार से बाल में मनोविज्ञान के आधार पर बच्चों के जन्म, विकास और बाल्यावस्था के जीवन पर सामूहिक विचार करना है। विमर्श का तात्पर्य ही यह है कि उसमें एक से अधिक अर्थात् सामूहिक रूप से समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति एवं बालक-बालिकाएँ भागीदारी करें।"2 जब तक कि इस विमर्श में समाज के सभी तबकों के बच्चों को शामिल नहीं किया जाएगा तब तक यह विमर्श अपूर्ण है। इसके लिए जरूरी है कि समाज के सभी वर्गों के बच्चों के सही विकास पर चर्चा हो और यह चिंतन सिर्फ बाल साहित्यकारों को ही नहीं मुख्यधारा के लेखकों को भी करना होगा। क्योंकि उनसे एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग जुड़ा हुआ है। इसलिए उनकी ज़िम्मेदारी इस विमर्श के प्रति और बढ़ जाती है।

हम जानते हैं कि छोटे बच्चें मिट्टी के घड़े के समान होते हैं, उन्हें किसी भी रूप में बदला जा सकता है। वह बचपन में बच्चे जो देखते हैं, सुनते हैं, उसका उन पर जीवन भर के लिए गहरा प्रभाव पड़ता है। एक बच्चा अपने माता पिता को लड़ते हुए या अलग होते हुए नहीं देख सकता। इसका दुष्प्रभाव उसके मन को तोड़ के रख देता है। मन्नू भण्डारी के उपन्यास 'आपका बंटी' में अजय और शकुन के अलग होने के बाद बंटी की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। उसे लगता है कि ममी पापा की लड़ाई हो गई है। जैसे बच्चे लड़ाई हो जाने पर एक दूसरे का सामान लौटाकर हिसाब-किताब बराबर कर लेते हैं। वैसे ही उसके ममी पापा उसके साथ भी करेंगे। वह सोचता है, "पर वह भी किसी की चीज़ है क्या ? है तो किसकी ? ममी की या पापा की ? नहीं, वह ममी का है, ममी के ही तो पास रहता है। पापा उसे प्यार कर हैं, वह पापा को प्यार करता है, पापा उसे अच्छे भी लगते हैं, पर पापा उसे लेना क्यों चाहते हैं ? लेकिन पापा लड़े तो नहीं, उसने मना किया कि मैं वहाँ नहीं रहूँगा, घर जाऊँगा तो चुपचाप यहाँ छोड़ गए। यहाँ तो दोनों बिलकुल नहीं लड़े। ममी-पापा की लड़ाई शायद ऐसी ही होती होगी, चुपचापवाली।"3

एक बच्चे को अच्छी परवरिश के लिए उसके माता पिता साथ चाहिए होते हैं। ममी से अलग होने के बाद बंटी को उसके पापा महीने में सिर्फ़ एक या दो दिन मिलने आते थे। इसलिए उसके जीवन में पापा की कमी बराबर बनी रही। जिस पर फूफी हरिद्वार जाते हुए शकुन को हिदायत भी देती हैं कि "बाप के रहते यह बिना बाप का हो रहा, अब माँ के रहते यह बिना माँ का हो जाए..."4

शकुन डॉक्टर जोशी से दूसरा विवाह करती है, तो बंटी को अपना पुराना घर छोड़कर उसके साथ ही आना पड़ता है। इस नए घर में उसका कहीं भी मन नहीं लगता है। स्कूल हो या घर सब जगह वह अपने आपको अलग-थलग महसूस करता है। डॉक्टर जोशी तो उसे प्रॉब्लम चाइल्ड भी कह देते हैं। आगे बंटी अजय के पास कलकत्ता जाता है, तो वहां भी यही स्थिति आती है। जैसे कि उसके बगीचे के बड़े फूल के पेड़ फिर से उखाड़कर इस नए घर में नहीं लगाएं जा सकते थे। उसी तरह शकुन के विवाह के बाद वह भी कहीं दूसरी जगह जड़ नहीं पकड़ पाया। उसने अपना बचपन फूफी के लाड़-दुलार में बिताया था। जहाँ वह अपने घर में पूरे अधिकार के साथ रहता था। यहाँ उसे इनमें से कोई चीज़ नहीं मिली। यहाँ तक कि उसके ममी पापा भी उसके अपने ममी और पापा नहीं लगते थे।

बंटी के साथ त्रासदी तब और घट जाती है, जब वह शकुन और डॉक्टर जोशी को बेडरूम में बिना कपड़ों के देख लेता है। एक बच्चे पर इसका कितना ग़लत असर पड़ सकता है, इस लेखिका ने लिखा है, "सामने बैठे टोस्ट कुतरते हुए डॉक्टर साहब एक क्षण को उसे कपड़ों में दिखाई देते हैं तो एक क्षण नंगे, एकदम नंग-धड़ंग। मक्खन लगाते-लगाते चाय के घूँट लेती ममी के भी मिनट-मिनट में कपड़े उतर जाते हैं। एक बड़ा भारी-सा रहस्य था जो उसे एकाएक ही पता लग गया है जैसे ! पहले बड़ा डर लगा था फिर अजीब-सी घिन छूटी और अब गुस्से और घिन के साथ-साथ इच्छा हो रही है कि बार-बार उसी दृश्य को देखे।"5

माता पिता के अलगाव में बच्चा किस तरह पिसता है, ये आप 'आपका बंटी' में देख सकते हैं। वहीं अगर माता पिता अलग होने के बजाय एक दूसरे से लड़ते-झगड़ते कलह पूर्ण जीवन बिताते हैं तो उसमें भी पिसता बच्चा ही है। वह कभी नहीं चाहेगा कि उसके मम्मी पापा लड़ें। इसको भीष्म साहनी के उपन्यास 'कड़ियाँ' में देखा जा सकता है। इस उपन्यास में पप्पू अपने माता-पिता के अलगाव के पूर्व होने वाले झगड़ों से परेशान हो जाता है। पप्पू की माँ प्रमिला उपन्यास में कहती है:- "तुमने बच्चे के सामने मुझे पीटा है, तुम बच्चे के सामने मुझे रुलाते हो, बच्चा क्या सीखेगा?"6 इस सबका असर पप्पू पर हुआ। वह कभी-कभी बैठे बैठे ही आँखें मिचकाने लगता, रात में किसी दिन बिस्तर गीला कर दिया या कभी बुरी तरह रोने लगता। वह चीजों के साथ तालमेल नहीं बिठा पाता है, तो उसे हॉस्टल भेज दिया जाता है। वहाँ भी वो इन सब चीजों से मुक्त नहीं हो पाता। "हॉस्टल में दाखिल हुए  छः महीने व्यतीत होने के बाद भी ही वह स्कूल का रहन-सहन सीख पाया था, वह अपने पुराने संस्कार ही छोड़ पाया था।"7गिरिराज किशोर का 'तीसरी सत्ता' और महीप सिंह का 'यह भी नहीं' भी इसी समस्या पर आधारित उपन्यास हैं।

किसी भी व्यक्ति के जीवन में बचपन से 18 साल काफ़ी महत्वपूर्ण होते हैं। इस आयु में कोई नई चीज़ सीखने या कर दिखाने की आकांक्षा बलवती होती है। कभी-कभी इसका नकारात्मक प्रयोग सांप्रदायिक मानसिकता वाले लोग अपने पक्ष में करते हैं। भीष्म साहनी के उपन्यास 'तमस' में 15 साल के रणवीर को मास्टर देवव्रत तथाकथित शत्रुओं को मारने के लिए तैयार कर रहा होता है। इसकी तैयारी वो रणवीर से मुर्गी कटवाकर करता है। पहली बार बाल सुलभ भय के कारण वो इसे नहीं कर पाया तो, मास्टर देवव्रत उसे बरगलाता है कि, "जो युवक एक मुर्गी को नहीं मार सकता वह शत्रु को कैसे मार सकता है।"8इससे उत्तेजित होकर रणवीर जैसे-तैसे दूसरी मुर्गी को बेतरतीब ज़ख्मी कर देता है। इस दीक्षा से उत्साहित रणवीर और उसके अन्य हमउम्र साथी शम्भू और इन्द्र एक बूढ़े मुसलमान इत्रफरोश पर हमला कर देते हैं। "इत्रफरोश इतना घबरा गया था कि उसके मुँह से बोल नहीं फूट रहा था। वह कमर में लगे ज़ख्म से इतना नहीं मर रहा था जितना त्रास और भय से और भोले बालक द्वारा किए गए हमले से।"9 छोटी उम्र के भोले-भाले बच्चों को अपने अमानवीय कृत्यों के लिए कैसे बरगलाया जाता है और वे बच्चे किस हद तक हमलावर हो सकते हैं, ये इस उपन्यास में देखा जा सकता है।

एक दलित स्त्री का तो बचपन होता ही नहीं है। खेलने खाने की उम्र में शादी के बंधन में बाँधकर जिम्मेदारियाँ लाद दी जाती हैं। जबकि खेलना बच्चों को जन्म से ही बहुत प्रिय होता है। जयप्रकाश कर्दम के उपन्यास 'छप्पर' में नायिका अपनी आपबीती के साथ ही अपने समाज की विडंबना कुछ यूँ बयाँ करती है, "हमारे दरिद्र और अशिक्षित समाज की यह भी एक विडम्बना है कि बच्चों की छोटी उम्र में ही शादी करके डाल दिया जाता है बन्धन में, कुछ खाने का अवसर मिलता है खेलने का। जल्दी शादी होने का मतलब होता है जल्दी से बच्चे पैदा होना और जब तक लड़की तनिक सयानी अथवा कुछ सोचने-समझने लायक होती है तब तक वह माँ बन चुकी होती है।"10 इसी प्रकार नागार्जुन के उपन्यास 'पारो' में तेरह-चौदह साल की पारो को पैंतालिस साल के देह के भूखे चौधरी जी से ब्याह दिया जाता है। पारो कहती है:- "चतुर्थी के रात में दस रुपए के दस नोट मेरे आगे फैलाते हुए उन्होंने कहा था-और चाहिए ? क्रोध से मैं जलने लगी। हे भगवान् ! लाख दंड दे, मगर फिर औरत बनाकर इस देश में जन्म नहीं दें-छीआ। पैंतालीस वर्ष का नरपिशाच एक अबोध लड़की के सामने दस रुपयों के नोटों का ढेर इसलिए लगावे कि...मैंने पारो का मुँह बंद कर दिया।"11 यहाँ एक अबोध बालिका से शारीरिक संबंध बनाने के लिए अधेड़ उम्र का व्यक्ति पैसों का लालच दे रहा है; क्योंकि वह उसे अपनी ब्याहता मानकर अधिकार जता रहा है। यौन शोषण जैसी समस्या बाल विवाह और बेमेल विवाह के मूल में है। अंततः फूल सी पारो मुरझा जाती है। आखिर में यह बेमेल विवाह उसकी जान भी ले लेता है।

इसी प्रकार दलित बच्चों को बचपन में शिक्षा के बजाय मजदूरी और शोषण मिलता है। एक खास निचली जाति से होने के कारण भी उन्हें शिक्षा से वंचित रखने की कोशिश की जाती है। संजीव के उपन्यास 'सूत्रधार' में जाति और उससे होने वाली अवमानना को देखा जा सकता है। यह उपन्यास भिखारी ठाकुर के जीवन के कई मार्मिक प्रसंगों को उभारता है। इनको जाति से नाऊ होने का दंश जीवन भर सालता रहा। पाठशाला में जाने पर बड़ जात के बच्चे चिढ़ाते,

""नउवा !"

"नउवा...? हो पड़ेगा ? पढ़-लिख के तें का करेगा रे ?"

"नउवा कौवा, बार बनउवा !" और तरह-तरह की अश्लील टिप्पणियां!

"हजामत के बनाई ?"

"नहरनी ले ले बाड़े रे, तनी नह काट दे।" तरह-तरह की बोलियां"12

भिखारी जिस जाति से आते हैं, उसका काम है हजामत बनाना, न्योतना, टहलुअई करना आदि। बच्चे ही नहीं स्कूल मास्टर भी इनको 'टहलुआ' ही बनाना चाहते थे। गाँवों में यह स्थिति कमोबेश आज भी मौजूद है। जाति के नाम पर भद्दे मज़ाक और टिप्पणियाँ करना, बेगार में काम करवा लेना आदि बड़े जाति का होने के अहम को पुष्ट करता है। जिस कारण भिखारी पढ़ नहीं सकें।

एक बच्चे का सामान्य बचपन किन्नर होने पर कितना कुछ बदल देता है, इसकी आहट चित्रा मुद्गल के उपन्यास 'पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा' में देखी जा सकती है। बिन्नी उर्फ विनोद अपने बारे में कहता है कि, "उस वक्त स्कूल के वार्षिकोत्सव में जब मुख्य अतिथि भाषण देते थे तो सभी अन्य विद्यार्थियों के भांति मैं भी ताली पीटता था। बात-बात पर ताली पीटना मेरी स्वाभाविक प्रकृति नहीं है। स्त्रैण लक्षण मुझमें कभी नहीं रहे। अब भी नहीं हैं और जो लक्षण मुझमें नहीं हैं, उन्हें सिर्फ इसलिए स्वीकारूं कि मेरी बिरादरी के शेष सभी, उन हाव-भावों को अपना चुके हैं?"13

इसी तरह पढ़ने में होनहार होने के बावजूद केवल किन्नर होने के कारण उसके पप्पा उसे स्कूल जाने से रोकते हैं। तो वह अपने शिक्षा के अधिकार के लिए छटपटाता है, "'पप्पा, मैं घर में बैठकर नहीं पढूंगा। सबके साथ पढूंगा। अपनी ही कक्षा में बैठकर। मुझे स्कूल जाना है। मैं अपना ध्यान रखूंगा। अपनी हिफाजत खुद करूंगा। कब तक मैं अपने सहपाठियों से टेलीफोन पर होमवर्क नोट करता रहूंगा, पापा ?'

'मुझे छुट्टी नहीं करनी। मेरी पढ़ाई बर्बाद हो रही है। पिछड़ जाऊंगा। मैं अपनी कक्षा में। पिछड़ना नहीं चाहता मैं। मैं बोर्ड टॉप करना चाहता हूं। मैं टॉप कर सकता हूं पप्पा! मैं टॉप करके दिखाऊंगा। मुझे स्कूल जाने दो... प्लीज पापा प्लीज।'"14

बिन्नी का स्कूल जाना छुड़वा दिया जाता है और बाद में फिर उसे किन्नरों के हाथों सौंप दिया जाता है। वहां वो अपने अस्तित्व को लेकर आत्ममंथन करता है और अपने जैसे बच्चों के बारे सोचता है। "इन मासूमों को नहीं समझ में आया होगा, आखिर घर में पलनेवाले अन्य बच्चों की तरह वे मां के दूध के अधिकार से वंचित क्यों हैं उन्हीं बच्चों की भांति वे स्कूल क्यों नहीं जा सकते ? अपने सहपाठियों के साथ लड़-झगड़ नहीं सकते? खेल नहीं सकते। प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते कक्षा में पढ़ने वाले अन्य विद्यार्थियों के साथ, उन्हें उनकी बनिस्बत अधिक नम्बर लाने हैं।

डाक्टर, इंजीनियर, अध्यापक बनना है। आत्मनिर्भर होकर घर-परिवार की जिम्मेवारी में हाथ बंटाना है। माता-पिता की सेवा करनी है।

रक्षा बंधनों में बहन से राखी बंधवाना है। तीज-त्यौहार उसी उल्लास से मनाना है।

पूजा-पाठ में उसी तरह बैठना है जैसे अन्य बैठते हैं। अंतिम समय में माता-पिता के मुंह में गंगाजल डालना है।

उनका क्रिया-कर्म करना है। पितरों का श्राद्ध करना है।

मनुष्य होकर भी वे मनुष्य कर्म और सामाजिकता से बहिष्कृत हैं।

अपशकुन है...

उनका जन्म कलंक है।

मात्र इसलिए, वे लिंग दोषी हैं? सन्तान पैदा नहीं कर सकते। भोग सुख नहीं उठा सकते। भोग सुख दे नहीं सकते।"15 इस तरह मात्र जननांग दोषी होना एक बच्चे को अभिशाप भरा जीवन जीने पर मजबूर कर देता है। वह किसी भी सामाजिक दायित्व का निर्वहन करने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाता है। इसी तरह आदिवासियों का बचपन भी स्कूली शिक्षा के अभाव में बीतता है।

अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास 'समर शेष है' में बच्चे को पढ़ने के लिए रिश्तेदारों की जी हुज़ूरी से लेकर मजदूरी तक करनी पड़ती है। बचपन में बाल मजदूरी के शिकार बच्चे हमेशा के लिए कुंठित से हो जाते हैं। नागार्जुन के उपन्यास 'बलचनमा' में छोटी जात का बालचंद बाप के मर जाने के बाद बारह-चौदह साल की उमर से ही मालिकों के यहाँ काम करने लगा था। भैंस चराना, बच्चे को खेलाना, पानी भरना, बाहर बैठक में झाड़ू लगाना, दुकान से नून, तेल, मसाला लाना और मलिकाइन के पैर दबाने के साथ ही पूरे मलिकान की गालियाँ सुनना। मलिकाईन द्वारा यह सब उसका नित-प्रतिदिन का काम तय किया गया था। बालचंद उपन्यास में कहता है "मलिकान में कोई ऐसा नहीं था जो बिना गाली दिए मुझे संबोधित करता हो। बात-बात में साला। बात-बात में ससुर, पाजी और नमकहराम का तो कहना ही क्या।"16 शुरू के दो चार दिन ये गालियाँ सुनकर उसे आत्मग्लानि हुई। लेकिन फिर गदहा, सूअर, कुत्ता, उल्लू... जैसे शब्दों की आदत पड़ गई। एक दिन तो मलिकाईन ने आम की आधी जली चैली से उसकी पीठ दाग दी। तथाकथित छोटी जाति का होने के कारण बचपन में पिटाई, दुत्कार, अपमान यह सब एक बच्चे के बालमन को तोड़कर रख देता है। जिससे कि उसमें हीन भावना पनपने लगती है। जोकि एक बच्चे को अपराधिक रास्ते पर भी ले जा सकता है। यह बाल मनोविज्ञान को प्रभावित करने वाला सामाजिक कारण है। इसलिए इस पर बार बार चिंतन करने की आवश्यकता है। 

निष्कर्ष : आज का हिन्दी साहित्य कमोबेश विमर्शों का साहित्य है। ऐसे में जबकि दलित, स्त्री, किन्नर आदिवासी आदि विमर्शों पर बात हो रही है। बाल विमर्श इन सबसे अछूता नज़र आता है। हिन्दी साहित्य में प्रचलित सभी तथाकथित विमर्शों में बाल विमर्श मुझे सभी विमर्शों का निष्कर्ष देता हुआ मालूम पड़ता है। जैसा कि हम जानते हैं कि बचपन सबके व्यक्तिव निर्माण की नर्सरी होती है। फिर चाहे वो दलित हो, स्त्री हो, किन्नर हो या फिर किसी और विमर्श का केन्द्रीय पात्र। अगर बचपन में ही उन्हें सही देखरेख और दिशा मिल जाए, उनकी समस्याओं पर बात हो, उन समस्याओं के समाधान पर बात हो तो आगे चलकर वो अपने समानता एवं अधिकार की लड़ाई स्वयं लड़ सकते हैं। इस बाल विमर्श पर बात करना मतलब कि सभी विमर्शों के मूल पर बात करना है।


सन्दर्भ :


1. दवे, रमेश, बाल विमर्श : बचपन पर संवाद (आलेख), साक्षात्कार, संपादक:- डॉ० विकास दवे, नवम्बर-दिसम्बर, 2020, अंक: 485-486 संयुक्तांक, पृष्ठ संख्या:- 34
2. वही, पृष्ठ संख्या:- 36
3. भंडारी, मन्नू, आपका बंटी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली–110002,चौदहवाँ संस्करण:2021, पृष्ठ संख्या:- 71
4. वही, पृष्ठ संख्या:- 122
5. वही, पृष्ठ संख्या:- 139
6. साहनी, भीष्म, कड़ियाँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली–110002, पाँचवाँ संस्करण: 2022, पृष्ठ संख्या:- 46
7. वही, पृष्ठ संख्या:- 160
8. साहनी, भीष्म, तमस, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली–110002, अठारहवाँ संस्करण: 2019, पृष्ठ संख्या:- 43
9. वही, पृष्ठ संख्या:- 90
10. कर्दम, जयप्रकाश, छप्पर, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली–110002, पहला संस्करण: 2017 पृष्ठ संख्या:- 50
11. नागार्जुन, पारो, नागार्जुन रचनावली- 4, संपादक:- शोभाकान्त, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली–110002, पहले संस्करण की आवृत्ति: 2011, पृष्ठ संख्या:- 548
12. संजीव, सूत्रधार, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली–110002, चौथा संस्करण: 2016, पृष्ठ संख्या:-17
13. मुद्गल, चित्रा, पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली–110002, संस्करण: 2022, पृष्ठ संख्या:- 9-10
14. वही, पृष्ठ संख्या:- 15
15. वही, पृष्ठ संख्या:- 184-185
16. नागार्जुन, बलचनमा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली–110002, पहले संस्करण की पाँचवीं आवृत्ति: 2012, पृष्ठ संख्या:- 27

 

अंकित कुमार मौर्य
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी–221005
ankitkrmauryaaubhu@gmail.com, 9695363793

 

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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