शोध आलेख : बाल साहित्य की चुनौतियाँ (संदर्भ : प्रकाश मनु की कविताएँ) / रीता दुबे

बाल साहित्य की चुनौतियाँ 
(संदर्भ : प्रकाश मनु की कविताएँ) 
- रीता दुबे


शोध सार : हिंदी बाल साहित्य में कविता की विधा प्राचीन काल से ही मुख्यधारा में रही है। कविता में शामिल लय, छंद, गेयता और तुकबंदी को बच्चों ने अपनी दुनिया के बहुत करीब पाया। यही कारण है कि नवजात शिशु से लेकर बालक तुकबंदी और गेय कविताओं के बड़े श्रोता ओर सर्जक रहे हैं। बाल कविता में बच्चे अपने मन की भावनाओं को व्यक्त देख कर प्रसन्न होते हैं। इन कविताओं को बार-बार पढ़ना और दुहराना उन्हें अच्छा लगता है। कई बार बच्चे स्वयं अपने आस-पास के शब्दों और दृश्यों से अपने लिए तुकबंदी रच लेते हैं।

वर्तमान हिंदी बाल कविता के समक्ष कई प्रश्न और चुनौतियाँ हैं। मसलन बाल साहित्य का उद्देश्य क्या है? अंग्रेजी भाषा का बढ़ता प्रभाव, इंटरनेट वीडियो गेम का फलता-फूलता संसार और उसके साथ ही फ्लैट संस्कृति में रहती पीढ़ी के लिए सिमटती संयुक्त परिवार की भावना, खेल-खिलौनों के माध्यम से बढ़ती लैंगिक असमानता-ये सभी बिंदु प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से बाल कविता को प्रभावित करते हैं। इस शोध आलेख में इन्हीं चुनौतियों के साथ को प्रकाश मनु की कविताओं के सहारे जानने और समझने की कोशिश की जाएगी।

बीज शब्‍द : हिंदी बाल कविता, इंटरनेट, फ्लैट संस्कृति , खेल-खिलौने, जेंडर, प्रकाश मनु, लैंगिक असमानता, अंग्रेजी भाषा आदि।

मूल आलेख : 'सबसे ज्यादा कठिन है सबसे सरल होना' यह पंक्ति बाल साहित्य के मुझे सबसे करीब लगती है। किसी भी बाल साहित्यकार के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती है कि किस प्रकार आसान, सरल बच्चों के लिए संप्रेषणीय और मनोरंजक भाषा में वह बच्चों की भावनाओं को अपनी रचना में जगह दे पाए, जिससे बच्चे अपना रिश्ता तुरंत जोड़ सकें। चूँकि बालमन को पूरी तरह समझना बहुत कठिन कार्य है और बच्चों की अपनी दुनिया होती है जो वयस्कों से काफी अलग होती है। इसलिए यह कार्य और भी कठिन हो जाता है। बाल साहित्य क्या है, उसकी भाषा, रूपरेखा और उसके उद्देश्यों को लेकर साहित्य जगत में पर्याप्त बहस है। कुछ विद्वानों का मत है कि बाल साहित्य ऐसा होना चाहिए जो हमें भविष्य की नई-नई गंभीर चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार कर सके। शायद इसीलिए मैडम 'मांटेसरी ' ने अपनी शिक्षा योजना में बच्चों को कल्पना प्रधान साहित्य न पढ़ने देने की बात कही थी। उनका कहना था- ''बालक कल्पना प्रधान साहित्य को पढ़ने से बड़े होकर भी कल्पना में उड़ते रहने वाले बन जाते हैं, जिससे संसार की वास्तविकताओं के सामने आने पर वह उनका सामना डटकर करने के बजाय जीवन के प्रति एक पलायन भाव धारण कर लेते हैं और इसके फलस्वरूप एक प्रकार की भीरूता का भाव सदा के लिए उनके मन में घर कर लेता है।1 इसी क्रम में धर्मयुग पत्रिका के माध्यम से हरिकृष्ण देवसरे ने परीकथाओं के बाल साहित्य में उपयोग को लेकर कई प्रश्न खड़े किए, जिसके पक्ष और विपक्ष में काफी तर्क दिए गए। स्वयं हरिकृष्ण देवसरे बाल साहित्य में परीकथाओं के पक्षधर नहीं थे।

मनहर चौहान ने भी लिखा कि ''बालकों को परीकथाओं से सदैव दूर रहना चाहिए क्योंकि इनसे कोई विशेष लाभ नहीं होता है। आज सामयिक महत्त्व की कथाएं बालकों को सुनाई जाएं तो उसका लहू खौल उठेगा और उसकी बुद्धि तो विकसित होगी ही साथ में एक अनुभव भी होगा। आज के वैज्ञानिक युग में बालकों के बौद्धिक, शारीरिक एवं आरंभिक बल के विकास के लिए उन्हें परीकथाओं से दूर रखना श्रेष्ठ है।''2

1993 में 'वानर' नामक बाल पत्रिका में भी इससे मिलती जुलती घोषणा की गई। पत्रिका की संपादकीय में कहा गया कि बच्चे ऐसे प्रार्थना गीतों में विश्वास न करें जिनमें बच्चों को कमजोर, असहाय और ईश्वर की कृपा पर निर्भर बताया गया है। संपादक का इशारा शायद इस तरह की प्रार्थनाओं की ओर है- ''पितु मातु सहायक स्वामी सखा तुम होइक नाथ हमारे हो/ महाराज महामहिम तुम्हरी समझे विरले बुधवारे हो।''3 अन्यंत्र भी इसी तरह की प्रार्थना मिलती है- ''हाथ जोड़कर करहु यह विनती दीनदयाल/अमर अकंटक करहु प्रभु मानसिंह महपाल।''4

वही दूसरी ओर नंदन पत्रिका के परीकथा विशेषांक निकालने वाले जय प्रकाश भारती ने लिखा है कि- ''आधुनिकता के नाम पर देवी-देवताओं, राजा-रानियों, परीकथाओं और लोककथाओं को बाल साहित्य से निकाल देना नासमझी होगी।''5 प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री कृष्ण कुमार ने अपने लेख 'कहानी कहाँ खो गई' में अमरीकी मनोविश्लेषक ब्रुनो बैटलहाइम की पुस्तक 'यूजेज ऑफ इन्‍चैन्‍टमेंट' के हवाले से कहा कि बच्चों के भावनात्मक विकास की कई जरूरतें पूरी करने का काम परीकथाएं करती हैं। वह आगे लिखते हैं कि इस पुस्तक का उत्तरी अमरीका में बहुत प्रभाव पड़ा और वहां कहानी कहने की कला को फिर से पुनर्जीवित किया गया। वह आगे लिखते हैं- ''लोक कथाओं और परीकथाओं की संरचना छोटे बच्चों की सोचने की शैली से मेल खाती हैं और यही इन कहानियों के प्रति छोटे बच्चों के आक‍र्षण का खास आधार है। बहुत गंभीर विपदाओं के कल्पनाशील और न्याय-सम्मत हल इन कहानियों की संरचना में गुंथे होते हैं। इन कहानियों को सुनते हुए छोटे बच्चे अपनी मातृभाषा की बुनियादी लयों के संपर्क में आते हैं।शब्द और वाक्य रचना का एक पूरा भंडार उनके हाथ लगता है। इस भंडार से वंचित रह जाने वाले बच्चे कुछ बड़े होकर जब पढना और लिखना सीखते हैं, तब उनके लिए भाषा एक यांत्रिक चुनौती बन जाती है। बाद में वे ध्यानपूर्वक सुनने, संयत ढंग से बोलने या संवाद में हिस्सा लेने जैसी क्षमताओं का विकास नहीं कर पाते हैं।''6

बच्चे किसी भी भावी समाज की नींव होते हैं। उनके सम्पूर्ण विकास के लिए जितनी कल्पना की जरूरत है उतनी ही तार्किकता की भी। वर्तमान वैज्ञानिक जगत के जो भी आविष्कार हम देखकर चकित हैं वे कल्पना से ही साकार रूप लेते हैं। कल्पना उनकी पहली सीढ़ी है- रवीन्द्रनाथ टैगौर भी कहते हैं- 'हम सत्य को असंभव कहकर छोड़ते चलते हैं और बच्चे असंभव को भी सत्य कहकर ग्रहण कर लेते हैं।' इससे यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि बाल साहित्य के लेखन का उद्देश्य तो नि:संदेह बच्चों और उनकी कल्पना का विस्तार है। बाल साहित्य की परिभाषा देते हुए सभी विद्वान लगभग जिस एक बात पर सहमत हैं वह यह है कि जो बालकों के मन की बात बालकों की भाषा में लिख दे वही सफल बाल साहित्यकार है। बच्चों की कविताएं लिखते हुए प्रकाश मनु ने बच्चों के कल्पना की दुनिया का पूरा ध्यान रखा है- ''टॉफी जैसे दिन हो भाई/ लड्डू पेड़े जैसी रातें/ परीलोक के मीठे किस्से / चिडियों जैसी प्यारी बातें।'' *एक और कविता में भी वह बच्चों के मन की बात कहते हुए लिखते हैं- ''पेड़ों पर पैसे लगते हों/ रसगुल्ले हो डाली-डाली/ खाएं-पीएं मौज करें हम/ नाचे और बजाएं ताली।''*

बचपन की कविताएं ऐसी होनी भी चाहिए जिनसे सपनों की उड़ान को हौसला मिले तो वहीं उनमें जीवन की कुछ नैतिक, सामाजिक और तार्किक बुनियाद भी हो। प्रकाश मनु का बाल-साहित्यकार मन इस संतुलन को बहुत ही बेहतरीन ढंग से रचता है। तभी तो वह कौतुहल, जिज्ञासापूर्ण भाषा का इस्तेमाल करते हुए ई-मेल के विज्ञान से बच्चों को परिचित कराते हैं- ''क्या होता है ई-मेल सुनो जी/ क्या होता ई-मेल/ दुनिया के कोने-कोने से लाकर सब संदेश/ एक पिटारे में रख जाता/ जादूगर ई-मेल।'' *अपनी ग्लोब कविता में वे बच्चों को बताते है- ''गोल-गोल सा ग्लोब बने है/ इसपर नदिया पर्वत/ तीन ओर से घिरा समंदर/ छोटा सा है भारत।''*

किसी भी स्वस्थ समाज की नींव समानता, समरसता एवं बंधुत्व पर टिकी हुई है और इसकी शुरूआत बचपन से की जानी चाहिए। तभी हम वह समाज बना पाएंगे जिसकी हमने कल्पना की है। बाल साहित्य में जेंडर की समझ बहुत जरूरी है। आजादी से पहले और आजादी के बाद भी लिखे गये बहुत सारी बाल कविताओं में प्राय: संबोधन लड़कों के लिए ही किया गया है। विष्‍णुकांत पांडे की कविता- ''दौडो चुन्‍नू, आओ मुन्‍नू करलो, अब तुम सब तैयारी।''7 रामनरेश त्रिपाठी की एक कविता है-''आई एक छींक नन्‍दू को/ एक रोज वह इतना छींका।''8 देवेंद्र तिवारी की कविता की पंक्ति है- ''मुन्ना की यह जेब नहीं है एक अजायबघर है।''9 लेकिन प्रकाश मनु की कविताएं अपनी भाव-भंगिमा में समानता की पोषक कविताएं हैं वह लिखते हैं- ''अभी लड़कियां भी आएँगी/ हँसती इसी नीम के नीचे/ आँख मिचौली खेलेंगी ये/ चुप-चाप सी आँखे मिचे।'' प्रकाश मनु की कविताओं में लड़कियों के खेलने की बात कही जा रही है, उनकी कविता में लड़का पराठा सेंकने की तैयारी करते हुए कहता है- ''मम्मी –मम्मी अब तुम बोलो/ खाओगी न गरम पराठा/ गोभी वाला मैं सेकूंगा/ खाना हँस –हँस नरम पराठा।'' लैंगिक मानदंडों को चुनौती देने वाला बाल साहित्य बच्चों की पहले से बनी धारणाओं को बदल सकता है। लेकिन खिलौनों के बेतहाशा बढ़ते प्रयोग और उसमें भी खिलौनों के लैंगिक विभाजन ने इस प्रक्रिया को और भी कठिन बना दिया है, जिसे हम आगे उदाहरणों से समझ सकते हैं।

हमारा समाज एक लैंगिक दुनिया का निर्माण करता है, जिसमें वह बच्चों को लड़का और लड़की के भेद में बांटते हुए उनकी परवरिश करता है। एक लड़की की परवरिश में उसकी भाषा, खिलौने, कपड़े उसके ही समकक्ष लड़के की भाषा, खिलौनों और कपड़ों से अलग होती है। स्कूली पाठ्यक्रम में लगाए गए चित्र, कविता, कहानी, नैतिक शिक्षा के वाक्‍यांश सभी में लैंगिक भेदभाव देखने को मिलता है। बाल साहित्यकारों द्वारा जो कविता लिखी जाती है और उनके नीचे जो चित्र बने हुए होते हैं वे उसके अपवाद नहीं है। नवजात शिशुओं और छोटे बच्चों के माता-पिता अनजाने में ही खिलौनों, खेल भाषा और वातावरण के माध्यम से एक लिंग आधारित दुनिया का निर्माण करते हुए लिंग संबंधी रूढ़िवादिता को मजबूत करते हैं।

बचपन के खेल में कविताओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। बच्चे घर से बाहर निकलकर गिल्ली -डंडा, छुपन -छुपाई, जानवरों, चि‍डियों को पकड़ना, पेड़-पौधों से खेलना, टायर, कंचे का खेल खेलना, खो-खो, कबड्डी, तैराकी जैसे खेलों को कविता पढ़ते हुए खेलते थे। शरद बिलौरे की एक कविता का नमूना देखा जा सकता है- ''बच्चे / टिड्डा पकड़ते हैं दबे पॉंव/ दौड़ते, थकते, हॉंफते/ टिड्डे की पूँछ में धागा बॉंध उड़ाते हैं/ बच्चे / उड़ते-उड़ते टिड्डा/ परियों के देश में पहुंचता है/ परियॉं बच्चों का पता पूछती हैं/ रात भर टिड्डा और परियां बच्चों को ढूँढ़ते हैं।''10

रमेश थानवी की भी एक कविता है- ''घर के पास लगा था मेला/ उसमें एक खिलौने वाला/ लाए जाकर चार खिलौने/ रंग बिरंगे बड़े सलोने/ मेले के ये ऐसे ठाट/ झूले ठेले, सुंदर हाट।''11 उस समय भी लड़कियॉं घर के अंदर आभूषण, घर, दूल्हा –दुलहन का खेल खेलती थीं। लेकिन आज इक्कीसवीं शताब्दी में में ये परिदृश्य बदल गया है। बाजार की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है। पूंजीवादी बाजार ने खिलौनों को खिलौना ही न रहने देकर उसे अपने मुनाफे का औजार बनाया। सामान्‍यत: लड़कों से संबंधित खिलौने लड़ाई या आक्रामकता से संबंधित होते हैं (पहलवान, सैनिक, बंदूके, ट्रक, ट्रैक्‍टर आदि) और लड़कियों से संबंधित खिलौने रूप रंग से संबंधित होते हैं(बार्बी, सहायक उपकरण पोशाक, मेकअप, आभूषण आदि)। एक बात जो यहाँ स्पष्ट है वह यह कि बाजार और पूंजी की मिलीभगत से खिलौनों का 'जेंडर' निर्धारित हो चुका है। दूसरा यह कि पहले जब लड़कों के लिए 'नीला' और लड़कियों के लिए 'पिंक' का निर्धारण नहीं था तब भी लड़कियों का खेल-खिलौना घर और गु‍डिया तक ही सीमित था। डेनमार्क की कंपनी 'लेगो' ने जेंडर के हिसाब से खिलौने न बनाने का निर्णय लिया है। अमरीका की कंपनी 'हैस्‍ब्रों' जो 1952 से खिलौने बना रही है उसने अपने खिलौने 'मिस्टर पोटेटो हेड' से 'मिस्टर ' हटा दिया है। यह निर्णय लैंगिक समानता के लिए लिया गया।

आज खिलौनों का बाजार इतना बड़ा और भव्य है कि उसने बच्चों के लिए कविता की जगह नहीं छोड़ी है। STEM (विज्ञान प्रोद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित) S TEAM (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग, कला और गणित) जैसे नये आविष्कृत खिलौनों ने कविता पढ़ने, सुनने और गुनने की कला को क्षीण किया है। आर्टिफिशियल खेल-खिलौनों के बढ़ते व्यापार ने एक ओर लैंगिक असमानता को बढ़ावा दिया है तो दूसरी ओर बाल साहित्य को भी प्रभावित किया है। 'द हिन्दू बिजनेस लाईन' की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत से खिलौनों का निर्यात पिछले आठ वर्षों में 239 प्रतिशत बढ़कर 2022-23 में 326 मिलियन डॉलर हो गया। पहले यह 96 मिलियन डॉलर था। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक अब तक 100 करोड़ बार्बी डॉल बिक चुकी हैं। जाहिर है बार्बी, वीडियो गेम और इंटरनेट में डूबी पीढ़ी बाल साहित्य के लिए चुनौती पेश कर रही है। प्रकाश मनु की एक कविता है- ''अरे फिरकनी घूम रही है/ ला, ला, ला-ला, ला-ला/ गोल-गोल जी, गोलमगोल/ घूम रही है अरे फिरकनी/ संग-संग धरती घूम रही है। घूम रहे हैं चंदा तारे/ जैसी मेरी लाल फिरकनी।'' आज मध्यवर्ग से लेकर उच्च वर्ग तक के बच्चों के लिए न तो यह फिरकनी है और न ही इस तरह की कविता खेल-खिलौनों की श्रेणी में शामिल है।

सुरेशचंद्र शुक्ल जैसे कई शिक्षा-विज्ञानी इस बात पर एकमत रहे कि किस प्रकार अंग्रेजी शासन व्यवस्था ने अपने केंद्रीकृत सरकारी सेवा व्यवस्था के लिए भारतीय समाज के पारम्परिक स्कूल और शिक्षा के अनौपचारिक सांस्कृतिक आधार को तोड़कर उसे पाठ्यक्रमों और प्रमाणपत्रों की दौड़ से जोड़ दिया जिसके घातक परिणाम आज हमारे सामने हैं। इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव और प्रयोग कार्टून, जानलेवा गेम्स के साथ ही अंग्रेजी के 'राइम्‍स' से हिंदी बाल कविता को सबसे बड़ी चुनौती मिल रही है।बच्चों की अंग्रेजी कविता का चैनल 'कोकोमेलन' के यूट्यूब पर 181 मिलियन सब्सक्राईबर हैं जो इसे यूट्यूब की दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा चैनल बनाते हैं और बच्चों की श्रेणी की बात करें तो यह चैनल नम्बर वन पर है। (बाल मनोवैज्ञानिकों ने अपने शोध में यह पाया है कि इस तरह के चैनल बच्चों के मानसिक विकास को काफी नुकसान पहुंचा रहे हैं)

अंग्रेजी के विश्वभाषा बनने और रोजगार में ज्यादा सहायक होने और इस भाषा के साथ जुड़े एक खास किस्म के श्रेष्ठताबोध ने 'कोकोमेलन' जैसे चैनल को और भी प्रसिद्ध किया होगा। आज हम किसी भी घर में चले जाएं आज के बच्चों को हिंदी बाल कविता याद नही होगी। लेकिन मेहमानों को सुनाने के लिए उन्हें कई अंग्रेजी कविता आती होगी जो संभवत: उन्होंने 'कोकोमेलन' से ही सीखी होगी।

शिक्षा के औपचारिक और अनौपचारिक माध्यमों में अंग्रेजी के बढ़ते इस प्रभाव को रेखांकित करते हुए प्रो0 कृष्ण कुमार ने लिखा है कि- ''जिस तरह शिक्षा महज एक माध्यम नहीं है उसी तरह अंग्रेजी सिर्फ भाषा नहीं है। वह एक संस्कार एक मानसिक संरचना है। अंग्रेजी की साधना करने का आशय अंग्रेजी की मानसिकता को स्वीकार करना हे। भारतीय संदर्भ में यह मानसिकता उन मध्यवर्गीय गुणों से मिलकर बनी है, जो किसी को इस प्रतियोगी व्यवस्था में सफलता दिलाते हैं। ये गुण हैं- अपनी विशिष्टता का मान, अपने वर्ग की सुरक्षा और प्रतिष्ठा के प्रति पूर्ण समर्पण और सामान्य जनता के प्रति हिकारत।''12 भारत जैसे देश में अभिभावकों का प्राइवेट स्कूलों के प्रति बढ़ता रुझान और उसमें भी ऐसे स्कूल जो हिंदी के शब्द प्रयोग पर विद्यार्थियों को सजा देते हैं, उनके ग्रेड में कटौती करते हैं तो ऐसे में हिंदी बाल कविता और बाल साहित्यकारों की चुनौतियों का अंदाजा लगाया जा सकता है। हमारा भारतीय समाज धर्मों, वर्णों, रंगों, प्रदेशों, खान-पान और वेशभूषा के साथ ही भाषाई रूपों से एक-दूसरे से अलग है। इस बात को कई बार दुहराया जा चुका है कि अनेकता में एकता ही भारतीय समाज की मूल आत्मा है यही हमारी ताकत भी है। उदाहरण के लिए किसी महानगरीय सोसाइटी में रहने वाला बच्चा जो अपने आस-पास विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले और विभिन्न त्यौहारों को मनाने वाले लोगों को देखता है, तो उसके लिए यह सहज आश्चर्य का विषय होता है। बचपन की इस जिज्ञासा का बहुत ही खूबसूरत उत्तर देते हुए रामनरेश त्रिपाठी ने लिखा है- ''रहन सहन है एक हमारी चाहे ढंग कई हो/ भाव एक है भाषाओं की पोशाकें पहनें हैं/ परमेश्वर है एक हमारा हम भाई बहने हैं।''13 इस बात को प्रकाश मनु ने अपनी कविता में और भी ज्यादा सहज होकर लिखा है- ''कोई तमिल बोलता कोई/ कन्‍नड़, असमी या बंगाली/ यह गोवा वह मुंबई वाला/ पर बगिया के हम सब माली/ पर भेदभाव ये ऊपर के हैं/ पर पहले हम हिन्दुस्तानी ।''*

भारतीय संयुक्त परिवार एकल परिवार में बदल चुके हैं। गांवों से शिक्षा, रोजगार की तलाश में पलायन ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐसे में संयुक्त परिवार के रिश्तों,भावनाओं की कमी से बहुत ही सरल और सहज तरीके से बच्चों को परिचित कराने का काम बाल-साहित्यकारों ने किया है। प्रकाश मनु भी इसके अपवाद नहीं हैं। अपने 'दादाजी का सोंटा' नामक कविता से लिखते हैं- ''चिंटू करता अगर शरारत/ तब आती है उसकी आफत/ छुटकी ज्यादा शोर मचाती/ होमवर्क में देर लगाती/ तब अपने तेवर दिखलाता/ दादा जी का सोंटा।''

फ्लैटों और महानगरों में सिमटी पीढ़ी के बच्चे और अपने पर्यावरण, परिवेश के प्रति उनकी समझ भी हिंदी बाल कविता को एक चुनौती पेश करते हैं। ग्रीन दाल, येलो दाल, पिंक दाल में सिमटी बच्चों की पीढ़ी अरहर, मूंग, मसूर और चना उड़द में अगर अंतर नहीं जानती तो खेत-खलिहानों, जानवरों, पेड़-पौधों, चिडियों के ऊपर लिखी गयी कविता को वह बच्चे कितना समझ पाते हैं यह अपने आप में कई प्रश्न खड़े करती है। लेकिन हिंदी के बाल साहित्यकारों ने इस बात की कोशिश की है कि बच्चे कविता के माध्यम से अपने परिवेश से परिचित हो सकें। प्रकाश मनु की बाल कविता का एक नमूना देखा जा सकता है, कुत्तों और कभी-कभार बिल्लियों से ही संवाद करने वाले बच्‍चों के लिए यह कविता उन्‍हें अनजान दुनिया की सैर कराती है-

''क्यों कूबड़ इतना भारी है/ क्या छिपा खजाना है इसमें/ क्या छिपा हुआ बतलाओ न/ जो माल पुराना है इसमें?''
''एक गिलहरी/ नेक गिलहरी/ बैठी घुटने टेक गिलहरी/ धारीदार/ पहने कोट/ कुट-कुट-कुट खाती अखरोट।''

बाल साहित्यकार की एक प्रमुख चुनौती हिंदी साहित्य आलोचना की तरफ से आ रही है। हिंदी साहित्य की मुख्य धारा बाल साहित्य को प्रश्रय नहीं देती है। एक बार अपने एक साक्षात्‍कार में मैनेजर पाण्डेय ने भी स्वीकार किया है कि बाल साहित्य की आलोचना की कोई स्थायी परम्परा नहीं है। आलोचक बाल कविता को 'चंदा मामा' और 'आई कोयल' से आगे का नहीं मानता लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत है।

अगर हम हिंदी बाल कविता के इतिहास और वर्तमान को देखें तो कविता समय से संवाद करती हुई अपनी तरफ आने वाली हर चुनौती का सामना डटकर कर रही है। बदलती सामाजिक, आर्थिक और सांस्‍कृतिक संरचना में बच्चों के स्वभाव, रूचियों और परिवेश में जो बदलाव आए हैं उसने हिंदी बाल कविता के समक्ष कई चुनौतियॉ पेश की हैं। लेकिन हिंदी बाल साहित्यकारों की पीढ़ी ने इस चुनौती का सामना किया है और बदलती संरचना में बाल कविता के साहित्यकारों ने कविता की भाव-भंगिमा में बदलाव किया है। चकमक पत्रिका में प्रकाशित एक कविता के माध्यम से इसे समझा जा सकता है- ''स्कूटर पर निकली मम्मी की सवारी/ मम्मी है हलकी और हेलमेट है भारी।'' एक और कविता 'पापा रोटी है'- ''कल पापा ने रोटियॉ बनाईं/ थोड़ी फुलाई थोड़ी जलाई/ कुछ पर यूरोप के नक़्शे बनाए/ बाकी पर शेर सी लकीरें बनाईं।''14

संदर्भ :
  1. निरंकार देव सेवक- बालगीत साहित्य किताब महल प्राइवेट लिमिटेड, 1996 पृष्ठ संख्या-95
  2. हरिकृष्ण देवसरे भारतीय बाल साहित्य ,साहित्य अकादमी नई दिल्‍ली, पृष्ठ संख्या -570
  3. निरंकार देव सेवक- बालगीत साहित्य , किताब महल प्राइवेट लिमिटेड, 1966 पृष्ठ संख्या -110
  4. वही पृष्ठ संख्या -110
  5. हरिकृष्ण देवसरे, भारतीय बाल साहित्य , साहित्य अकादमी नई दिल्ली , पृष्ठ संख्या -571
  6. कृष्ण कुमार, दीवार का इस्तेमाल और अन्य लेख, एकलव्य प्रकाशन, 2008, पृष्ठ संख्या -19
  7. निरंकार देव सेवक, बालगीत साहित्य , किताब महल प्राइवेट लिमिटेड, 1966 पृष्ठ संख्या -92
  8. वही, पृष्ठ संख्या -141
  9. वही, पृष्ठ संख्या -181
  10. शरद बिलौरे, तय तो यही हुआ था, परिमल प्रकाशन 1982 पृष्ठ संख्या -21
  11. रमेश थानवी, सारंगी, एन. सी. ई. आर. टी. 2022, पृष्ठ संख्या - 80
  12. कृष्ण कुमार, राज समाज और शिक्षा, राजकमल प्रकाशन 2016, पृष्ठ संख्या - 47
  13. निरंकार देव सेवक, बालगीत साहित्य, किताब महल प्राइवेट लिमिटेड, 1966, पृष्ठ संख्या -64
  14. चकमक पत्रिका एकलव्य फाउंडेशन।

*प्रकाश मनु की सभी कविताएं कविता कोश से ली गई हैं।

रीता दुबे
असिस्‍टेंट प्रोफेसर, हिन्‍दी विभाग, सी.एम. कॉलेज, दरभंगा, बिहार

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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