- दीक्षा मिश्रा
शोध सार : बालक राष्ट्र के कर्णधार होते हैं। राष्ट्र के उन्नयन मेबालकों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। बाल साहित्यके माध्यम से बालकों के कोमल मन को मानवीय मूल्यों,संस्कृति के प्रति आस्थावान बनाने का उपक्रम किया जाता है। जिससे कि राष्ट्र,समाज का दायित्व सुरक्षित हाथों में सौंपा जा सके। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने भी इन्ही मंगल इच्छाओं सेप्रेरित होकर बालकों के लिए साहित्य सृजन किया। निराला बच्चों के मन में स्वाधीनता राष्ट्रीयत,धर्मनिष्ठा जैसे सात्विक भावों के बीजारोपण से भारत के भावी भविष्य को सँवारने के आकांक्षी रचनाकार हैं। उन्होंने बालकों के जीवन को उन्नत और संस्कृति संपन्न बनाने के उद्देश्य से ध्रुव,प्रह्लाद,भीष्म,महाराणा प्रतापऔर रामायण की अंतर्कथाओं का पुनर्सृजन किया। जिसका प्रमुख ध्येय औपनिवेशिक दासता के युग में बालकों के भीतर स्वातंत्र्यऔर आत्म गौरव , देशप्रेम की भावना का रोपण करना था। जिससे की परतंत्रता के बंधन में फँसकर भी बच्चों का स्वाभाविक विकास हो सके। इसके साथ ही निराला ने ऐतिहासिक कथाओं के सृजन से बालकों को मनुष्यता की मंगल आकांक्षा का संदेश दिया है।
बीज शब्द : बालसाहित्य, स्वाधीनता आंदोलन,राष्ट्रीयता,जनजागरण,धर्मनिष्ठा,पुनरूत्थान,, ऐतिहासिकआख्यान,संस्कार,मानवता।
शोध आलेख : किसी भी समाज,राष्ट्र, जाति के उत्थान और सर्वांगीण विकास का सुदृढ़ आधारप्रदान करने में उस जाति,राष्ट्र के नागरिकों के भीतर व्याप्त मानसिक चेतना की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। मनुष्य के भीतर शैशवकाल से ही सुरुचि और संस्कृति संपन्न विचारों का रोपण करके समाज आदर्श नागरिक गढ़ने के पथ पर अग्रसारित होता है। एक आदर्श राष्ट्र निर्माण में बालकों की भूमिका निःसंदेह रूप से महत्त्व की होती है। बालमन के मनोभाव, उनके विज्ञान को समझकर उसी के अनुरूप उन्हें संस्कारित करके वर्तमान में व्याप्त विविध समस्याओं का निराकरण किया जा सकता है। बालकों का मन मिट्टी के लोंदे के समान होता है और उनके भीतर सीखने की अपार संभावनाएँ होती हैं। उन्हें जैसा परिवेश मिलता है उनका अंतःकरणवैसे ही आकर ग्रहण करता है।
बालसाहित्य के माध्यम से बालकों को जटिल से जटिल जीवन सत्य , आदर्श , विषय और परिस्थिति का बोध सरल और सहज तरीके से करा पाना संभव होता है। भारतीय साहित्य की प्राचीन परंपरा में ‘हितोपदेश ’ और ‘ पंचतंत्र’ जैसी रचनाएँ बालकों को जीवन आदर्श और जीवन की वास्तविकता से सहज ढंग से परिचित कराने के लिए की गई। जिससे कि बालक भावी जीवन की समस्याओं को सुलझाने की सूझ- बूझ से अवगत हो सके। शंकर सुल्तानवी कहते हैं – “ आज जब मानव मूल्यों का विघटन हो रहा है, नैतिक मूल्य गिर रहे हैं। स्वार्थ, भ्रष्टाचार, अनैतिकता का बोलबाला है और भारतीय संस्कृति की गरिमा धूमिल हो रही है, ऐसे समय में बाल साहित्यकारों की भूमिका बड़ी अहम है। उन्हें ऐसे बाल साहित्य सृजन की ओर उन्मुख होना है जो क्षणिक मन बहलाव का न होकर स्थायी रूप से बच्चों के चरित्र विकास में, उनका मनोबल ऊँचा करने में प्रेरक सिद्ध हो। ”¹
आरंभ में बालसाहित्य और वयस्कों के साहित्य में कोई विभाजक रेखा नहीं थी। रामायण, महाभारत ,के विविध कथा प्रसंग जीवन के मंगल आदर्शों के प्रतिष्ठापक तो थे ही बालकों के लिए भी प्रेरणा स्रोत थे। किंतु धीरे – धीरेआधुनिक होते समाज में जटिलता आई और बच्चों के लिए अलग से साहित्य सृजन की आवश्यकता महसूस हुई। बाल साहित्य में बालकों की दृष्टि से दुनिया को समझने की कोशिश की जाती है। इस साहित्य सृजन में बड़े बच्चों की काया में प्रवेश कर उनके हैं। प्रसिद्ध बाल साहित्यकार सोहन लाल दिवेदी ने लिखा है– “ सफल बाल साहित्य वही है जिसे बच्चे सरलता से अपना सकें और भाव ऐसे हों, जो बच्चों के मन को भाएँ। यों तो अनेक साहित्यकार बालकों के लिए लिखते रहते हैं, किन्तु सचमुच जो बालकों के मन की बात, बालकों की भाषा में लिख दें, वही सफल बाल साहित्य लेखक हैं।”²
हरिकृष्ण देवसरे बालसाहित्य की गंभीरता से अवगत रचनाकार हैं। उनका मानना है कि जिस भाँति का साहित्य बच्चे पढ़ेंगे उनके मन में वैसी ही छवि और प्रभाव पड़ेगा। वर्तमान समाज की जटिल व्यवस्था में बालसाहित्य की आवश्यकता पर जोर देते हैंऔर बाल साहित्य का स्वरूप भी निर्धारित करते हैं–“आज के जीवन में बच्चों का जो स्वरूप है , वह किसी राजनीतिक या पिछड़ी हुई सामाजिक विचारधारा से प्रभावित है। बच्चों को जिस मनोवैज्ञानिक साहित्य और व्यवहार की आवश्यकता है उससे बिलकुल ही अलग कर दिया गया है। तदयुगीन समाज और वातावरण के अनुकूल बच्चों को बनाना आवश्यक है, किंतु उनकी मूल प्रवृत्तियों को विकसित न होने देना उनके साथ अन्याय है। यदि इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय बालसाहित्य को देखे तो उसका अधिकांश ऐसा है , जो बच्चों को सदियों पीछे ले जा सकता है।”³
हरिकृष्ण देवसरे के बाल साहित्य के स्वरूप निर्धारण से एक बात स्पष्ट रूप से कही जा सकती है कि बाल साहित्य भी समसामयिक घटनाओं, स्थितियों के अनुकूल हो। वह भी वास्तविकता के धरातल पर खरा उतरना चाहिए। बाल साहित्यकारों की यह महती जिम्मेदारी है कि कोरी कल्पना और मनोरंजन के तत्व ही नहीं समकालीन यथार्थ का भी साहित्य में समावेश करे।
भारतीय स्वाधीनता आंदोलन साहित्य की दिशा को एक नया आयाम देता है। इस समय बच्चों के भीतर सांस्कृतिक, राजनीतिक , एकता का भाव जगाकर गुलामी की जकड़न को तोड़ने वाला और राष्ट्रीयता की चेतना को बालकों के मन में उद्दीप्त करने वाले साहित्य का सृजन हुआ। जिससे कि बालकों के चरित्र में देशभक्ति , विश्वबंधुत्त्व , मानवता , जैसे मानवीय मूल्य को स्थापित करने में सरलता हो। औपनिवेशिक काल में बालकों के भीतर गौरव बोध जगाने के लिए जो साहित्य रचा गया उसका स्वरूप अतीत गौरव गायन का था।बच्चों को राष्ट्रीय धारा से जोड़ने के लिए सिर्फ अपने ही देश का नही , दूसरे देश के महापुरुषों की जीवनियों तथा उनके जीवन के प्रेरक प्रसंग बच्चों के लिए लिखे गए। “ बाल साहित्य में महान पुरुषों की जीवनियों ने बच्चों में साहस और कर्तव्यबोध जागया। उनमें नैतिक गुणों का विकास, राष्ट्रीयता की भावना के निर्माण तथा मानवीय मूल्यों के प्रति सजगता लाने के विभिन्न प्रयास हुए। ”⁴
निराला ने भी बालकों के लिए सांस्कृतिक , राजनीतिक , चेतना संपन्न, एकता और उच्चता का विराट भाव को आत्मसात किए हुए बाल साहित्य का सृजन किया। निराला का गद्य भारतीय नवजागरण की चेतना से परिपूर्ण है।“निराला की विचारधारा मूलतः क्रांतिकारी है। साहित्यिक, दार्शनिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक सभी क्षेत्रों में इनके विचार एक नवीन उन्मेष, नई उत्तेजना लेकर आते हैं। किसी भी स्थान पर उनके विचारों को देखकर उनकी क्रांतिकारिता का परिचय प्राप्त किया जा सकता है। समाज की जर्जर व्यवस्थाओं, राजनीतिक गुटबंदियों, धार्मिक रूढ़ियों पर इन्होंने कड़े प्रहार किए हैं।”⁵
निराला ने बालकों के लिए सीख भरी कहानियाँ , महाराणा प्रताप , भक्त ध्रुव , भीष्म , भक्त प्रह्लाद, महाभारत , रामायण की अंतर्कथाएँ का बालमनोविज्ञान को समझते हुए सृजन किया।निराला की रचनाओं में अतीत के गौरवशाली इतिहास का पुनर्सृजन भारतीय जनमानस में आत्मगौरव का बोध जगाने के लिए है। अंग्रेजी सरकार भारतीय समाज का न सिर्फ शोषण कर रही थी बल्कि वह भारतीय जनता के भीतर हीनता की भावना भी भर रही थी। वैसे भी दीर्घकालिक दासता के पश्चात भारतीयों का अंतर्मन
हीनता की भावना से ग्रसित था। निराला भारतीय समाज को उसके प्राचीन गौरव का स्मरण कराकर उनके भीतर अस्मिता का बोध जगाना चाहते थे। अस्मिता , अस्तित्व का यह गौरवशाली बोध निराला ने बालजीवनियाँ और सीख भरी कहानियों के जरिए बालकों के मन में जगाया। निराला मात्र राष्ट्रीय चेतना से संपन्न साहित्य का ही सृजन नही करते बल्कि उनकी कहानियों में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का स्वर भी झलकता है। स्वाधीनता समर के मध्य ही उनका बालसाहित्य भी उत्स लेता है–“निराला ने सन 1942 के बाद गद्य लिखना बंद कर दिया था। … ऐसे में उनका बालसाहित्य भी काफी पहले का ही है। वह साम्राज्यवाद की औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध इस महादेश के विशाल स्वाधीनता आंदोलन का समय था। यही समय हिंदी प्रदेश में नवजागरण का था।”⁶ नवजागरणऔर स्वाधीनता आंदोलन की ऊष्मा उनके साहित्य में झलकती है। “ निराला के साहित्य में स्वाधीनता की ऊष्मा प्रखर रूप से विद्यमान है।स्वतंत्रता की ऊष्मा से अभिमण्डित निराला देशी-विदेशी दासता के विरुद्ध आज तक लड़ता रहा है। अतः छायावादी कल्पनाओं की रंगीनी के साथ निराला में स्वतंत्रता की भावना का नवोन्मेष ओत-प्रेत है।”⁷
औपनिवेशिक सत्ता द्वारा भारतीय संस्कृति और परंपरा के दमित किए जाने से साहित्य में यह ऊष्मा और तीखे अंदाज में व्यक्त हुई है। निराला ने बाल कहानियों के सृजन के लिए जिन आख्यानों को चुनाव किया वह भारत की सामाजिक एकता और गौरव बोध से जुड़ी हुई है।क्योंकि सांस्कृतिक क्रांति के आधार से ही सामाजिक क्रांति पल्लवित होती है। ‘ भक्त प्रहलाद’,‘ भक्त ध्रुव ’, ‘महाराणा प्रताप ’, ‘ भीष्म’ जैसे भारतीय नायकों की जीवनियों को कथा का रूप दिया। उनका मानना था कि अतीत के गौरवशाली स्मरण से बच्चों में नई चेतना और जोश का प्रवाह होगा और वे सहज ही अन्याय और शोषणके विरुद्ध संघर्ष की सीख ले सकेंगे। स्वाधीनता आंदोलन में युवा पीढ़ी के भीतर व्याप्त कमियों के अवलोकन के पश्चात निराला भावी भारत की पीढ़ी में पौराणिक रूपकों के माध्यम से नई शक्ति और एक जिजीविषा का संचार करते हैं। नामवर सिंह इस संदर्भ में लिखते हैं –“ भारतवासियों ने वर्तमान पराधीनता के अपमान को भूलने के लिए अतीत के स्वर्ण युग का सहारा लिया। वर्तमान हार का उत्तर उन्होंने अतीत की जीत से दिया। हीनता का भाव दूर हुआ। जो जाति वर्तमान में विभाजित थी , वह अतीत की पृष्ठभूमि पर एक हो उठी। इस तरह अतीत के पुनरूत्थान ने सम्पूर्ण देश में एक जातीय अथवा राष्ट्रीय भावना का सूत्रपात किया। ”⁸
महाराणा प्रताप जैसे वीर योद्धा का तत्कालीन परिवेश में स्मरण बालकों के भीतर हिंदू जाति के गौरवशाली अतीत स्मरण के उद्देश्य से किया गया। स्वतंत्रता के अभिलाषी प्रताप का जीवन चरित स्वतंत्रता की महत्ता और भारतीयों के गौरवशाली संघर्ष को दिखाने के लिए पुनर्सृजित किया गया।जिससे कि नई पीढ़ी बहुमूल्य स्वातंत्र्य की कीमत समझ सके। बालकों को प्रताप से परिचित कराते हुए निराला लिखते हैं – “ मुसलमानों के शासनकाल में जिन वीरों ने अपने सर्वस्व का बलिदान करके अपनी जाति , धर्म , देश और स्वतंत्रता की रक्षा कि उनमें अधिकांश संख्या राजपूत वीरों की ही देख पड़ती है। जैसे मुसलमानों की दुर्दम शक्ति का प्रतिरोध करने के लिए ही वीर राजपूतों की शक्ति रेखा विधाता ने खींची हो। ”⁹
निराला प्रताप के जीवन आख्यान के माध्यम से बालकों को संघर्ष और जीवन की विकट स्थिति के समक्ष दृढ़ता से अडिग रहने की प्रेरणा देते हैं। भारत के गौरवशाली अतीत को प्रतिरोध और संघर्ष के लिए स्मरण नही किया गया अपितु भारतीय शासकों की प्रजा वत्सलता भी प्रशंसनीय है। निराला औपनिवेशिक शासन प्रणाली की तुलना में भारतीय शासन व्यवस्था की उत्तमता भी इन आख्यानों के माध्यम से सिद्ध करते हैं। भक्त ध्रुव में लिखते हैं – “ सुराज था इसलिए मनुष्यों में एक दूसरे से प्रेम का बर्ताव था। ईर्ष्या की बेली उस समय भारत की वसुंधरा की छाती पर लहराने न पाई थी, इससे किसी को क्षतिग्रस्त ही होना पड़ता। ”¹⁰ वर्तमान शासन व्यवस्था की कमियों के प्रति बालकों के मन में विरोध मात्र जगाना निराला का उद्देश्य नही था अपितु निराला एक लोकतांत्रिक समाज की नीव रखने को प्रयासरत थे।प्रताप अपने भाई जगमल को सुशासन का उपदेश देते हैं जिसमे तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से मोहभंग दिखता है – “ जगमल, ईश्वर की इच्छा से आज तुम विशाल जन – समूह के शासक हो। लाखों मनुष्यों के भाग्य विधाता हो। परंतु तुम्हे स्मरण रखना चाहिए, अधिकार के माने ये नहीं कि स्वेच्छाचार किया जाय, निरपराध मनुष्यों से तुम अपनी शक्ति की थाह लो।”¹¹
भारतीय समाज जितना औपनिवेशिक शासन से पीड़ित था उसकी सामाजिक संरचना में व्याप्त अंतर्विरोध भी उसे क्षीण कर रहे थे। जाति, धर्म के नाम पर विभाजित भारतीय समाज को एककीकृत करने के लिए निराला उन सभी रूढ़ियों पर प्रहार करते हैं जो मनुष्य, मनुष्य में भेदभाव को प्रश्रय देती है। भारतीय समाज की पूर्ण स्वाधीनता में जातिगत संरचना बाधक थी। निराला का मानना है – “ गुलामों की एक जाति होती है , चाहे अंग्रेजी ढंग से कह लीजिए या हिंदोस्थानी ढंग से। पर जब गुलामों के भीतर भी गुलाम जातियाँ निकलती रहती हैं तब समझना चाहिए कि गुलामी के कितने पेंच काटकर उससे निकलने की जरूरत है।”¹²
गुलामी के इस पेंच को काटने के लिए निराला भावी पीढ़ी के अंतर्मन में रुढ़ी ग्रस्तता और अंधविश्वासों के प्रति नकारात्मक भाव का रोपण करते हैं।
प्रत्येक मनुष्य को समान अधिकार, और व्यवहार के आकांक्षी निराला ने ‘ भक्त ध्रुव’ के आदर्श और कर्मठ जीवन आख्यान को किस्सागोई का रूप दिया। ध्रुव के जीवन का पुनर्पाठ तात्कालिक परिवेश की माँग थी। बालकों को पाशविक प्रवृत्तियों, तिरस्कार, अपमान, घृणा के विरोध में दृढ़ संकल्पी बनने की प्रेरणा ध्रुव के जीवन से मिलती है। जीवन की दुष्कर परिस्थितियों के मध्य दृढ़ संकल्पी होकर अपने लक्ष्य को श्रम के जोर से प्राप्त किया जा सकता है। भक्त ध्रुव की भूमिका में निराला ने लिखा कि –“तिरस्कार, अपमान, घृणा, अत्याचारनिर्यातन –इन पाशविक प्रवृत्तियों के विरोध के लिए आज उसके खून का हर एक बूँद तीव्र गति सेकार्यतत्पर कर रहा है। बालक सोच रहा है –इस अत्याचार का उपाय। चिरकाल से मनुष्य जाति, मनुष्य जातिपर जो अत्याचार करती चली आ रही है– इसका कारण, साथ ही प्रतिरोध भी। वह अत्याचार सहने के लिए नहीं आया है। ”¹³अत्याचार , दमन कें खिलाफ और अंग्रेजी शासनसे संघर्षरत भावी पीढ़ी के मन: मतिष्क में निराला प्रतिरोध का बीजारोपण करते हैं जिससे भारतीय जनमानस पुन: ऐसे पतन का शिकार न हो। भारतीय समाज में धर्म के नाम पर व्याप्त अराजकता के विरोध के लिए ध्रुव का चरित प्रासंगिक है। भूमिका में निराला ने स्वयं लिखा –“इस धर्मनिष्ठ और कर्तव्यपरायण बालक के चरित्र का चित्रण हमने यथासाध्य सरल भाषा में करने का प्रयत्न किया है। साथ ही ईश्वर प्राप्ति विषयक गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन भी कर दिया है , ताकि धर्म केमार्ग से घातक कट्टरता का इस देश से लोप हो जाए, बच्चे हर प्रांत और जाति के बालकों से सहानुभूति करना सीखे।”¹⁴निराला धार्मिक कट्टरता के दुराग्रह को दूर करने के उपाय से भी ध्रुव का चरित बच्चों के लिए प्रासंगिक समझते हैं। निराला की धर्म विषयक यह धारणा भारतीय पुनर्जागरण और स्वाधीनता आंदोलन के संदर्भ में उचित है, क्योंकि अंग्रेजी संस्कृति का प्रबल विरोध करने केलिए सांस्कृतिक संपन्नता और एकता बोध होना आवश्यक है।
निराला कर्म आधारित सामाजिक श्रेणी विभाजन के पक्षधर रचनाकार है। मनुष्य जन्म से नहीं कर्मों से श्रेष्ठता को प्राप्त करता है। किसी भी जाति में जन्मे व्यक्ति संस्कार और ज्ञान से ब्राम्हण हो सकता है। एक निबंध में उन्होंने लिखा – “ हर मनुष्य ब्राम्हण , क्षत्रिय वैश्य शूद्र का भाव है। मात्रानुसार यहाँ तक कि आसुरी और दिव्य भाव भी। किसी भी जाति में पैदा हुआ मनुष्य हो , जब वह पढ़ता–पढ़ाता है ज्ञाननुशीलन करता है तोब्राम्हण भी है। जब उसके अंदर देश जाति , विश्व या देश की रक्षा के भाव उठते है तो वह क्षत्रिय है।”¹⁵पुराणों में भक्त प्रह्लादके जीवन प्रसंग को निराला बालकों को कर्म आधारित श्रेष्ठता की शिक्षा देने के लिए करते है। प्रह्लाद असुर जाति में जन्म लेकर भी कर्म से देवत्व को प्राप्त होता है। कर्म की श्रेष्ठता से मनुष्य उच्च आसान को प्राप्त करता है न कि जन्म से। प्रह्लादका संपूर्ण जीवन संघर्ष सत्य की रक्षा के लिए अपने ही पिता के विरोध का है। निराला बालकों को सत्य के प्रति आस्थावान बनाने के लिए भी प्रह्लादकेजीवन की किस्सागोई रचते हैं। भक्त प्रहलाद की भूमिका निराला ने लिखा – “ प्रह्लाद भक्तों के अग्रगण्यहैं। उनकी ईश्वर निर्भरता भारत प्रसिद्ध है। दैत्यों के वंश में जन्म लेकर भी उन्होंने सत्वगुणी वृत्ति का आश्रय लिया था। अंत में आसुरी भावों पर वे विजयी हुए। …. ऐसे धर्मनिष्ठ , सरल और दृढव्रत बालक के चरित्र का प्रचार स्खलित मति,निर्वीर्य , निरुत्साह और पथ भ्रष्ट कर देने वाली शिक्षा से बचाने के लिए देश के बालकों में अवश्य होना चाहिए।”¹⁶ अंग्रेजी सरकार द्वारा दी जाने वाली शिक्षा से भारतीय बालक एक और अपनी संस्कृति से दूर हो रहे थे तो दूसरी तरफ उनके भीतर अपने ही लोगों से घृणा का भाव पनप रहा था। निराला सरकार के इस षड्यंत्र से अवगत थे। पूरी शक्ति और क्षमता के साथ निराला भारतीय संस्कृति से बालकों को जोड़े रखने और उनके भीतर मानवीय मूल्य , संवेदना भरने का प्रयास करते हैं जिससे कि अंग्रेजों के विरोध में और भविष्य में ऐसी अमानुषिक सत्ता के खिलाफ रोष बना रहे। पौराणिक काल में आसुरी शक्तियों ने मनुष्यता को खतरे में डाल रखा था औपनिवेशिक शासन में भारतीय जनता दोहरा दंश झेल रही थी। एक तरफ अंग्रेजी दैत्य है तो दूसरी तरफ अकाल और महामारियाँ। भक्त प्रह्लाद में हिरणकश्यप दोनों भाइयों के आतंक कीतुलना प्लेग से करते हैं–“जिस तरह हिंदुस्तान में आजकल प्लेग का आतंक छाया हुआ है उसी तरह संसार में कभी इन दोनो भाइयों के नाम से से लोगों के लिए खौफनाक हो रहे थे। ”¹⁷इस तरह से निराला बालकों को जीवन के प्रति आस्थावान बनाए रखने का प्रयत्न भी करते हैं।
अन्याय और दमन के खिलाफ युद्ध आवश्यक होता है। महाभारत का आख्यान हमे यह शिक्षा देता है।निराला ने ‘ भीष्म’ के जीवन चरित के माध्यम से महाभारत की कथा को बालकों के लिए लिखा। जिसका उद्देश्य था शोषण, अत्याचार की पराकाष्ठा पर युद्ध की अनिवार्यता और महत्ता को बच्चों के समक्ष रखना हैं। इन कथा प्रसंगों से प्रेरित बालक स्वाधीनता आंदोलन की विस्तृत जमीन तैयार करेंगे और भविष्य में उन कुरीतियों , मान्यताओं का निषेध करेंगे जो मनुष्यता के लिए घातक है।
निराला का विद्रोही व्यक्तित्व प्राचीनता का समर्थक वही तक है जहाँ तक परंपरा मनुष्यता को महत्ता देती है। उन्हें भारतीय समाज में व्याप्त अंतर्विरोधों का भी भली भाँति ज्ञान था। निराला समतामूलक समाज के प्रतिष्ठापन की वकालत करने वाले रचनाकार हैं। वे भावी पीढ़ी के भीतर ऐसे मानवीय मूल्य और स्वातंत्र्य की चेतना जागृत करना चाहते थे जिसमे मनुष्य को मनुष्य रूप में देखा जाय। उसके साथ जाति , धर्म के आधार पर विभेद न हो। भक्त प्रह्लाद कहानी में गुरुकुल के संदर्भ में तत्कालीन समाज में व्याप्त समानता की चेतना अवलोकनीय है “ तीसरी बात यह है कि यहां कभी यह घमंड न कर सकोगे कि तुम राजा के लड़के हो। यहां जितने लड़के हैं , सबका बराबर आसन है।”¹⁸
भारतीय समाज जिस आंतरिक और बाह्य पराधीनता के विरोध में अंग्रेजी शासन से संघर्ष कर रहा था उसके लिए कर्तव्यपरायणता का भाव बहुत जरूर था। निराला ने ‘ समझदार चंडूल ’ कहानी के माध्यम से बालकों के मन में कर्तव्यनिष्ठा का भाव जगाने का प्रयास किया। चंडूल का यह कहना – “ अगर दूसरे के सुपुर्द काम छोड़ दिया जाता है तो कभी नहीं होता। मगर जब आदमी खुद काम करने पर आमादा हो जाता है तब वह जल्द से जल्द पूरा होता है। ”¹⁹बहुत ही सरलता और सहजता से निराला ने गल्प के माध्यम से बालमन में आत्म निर्भरता का बीजारोपण करते हैं।
किसी भी राष्ट्र की जन – जागृति तभी संभव है जब प्रत्येक स्तर का व्यक्ति अपने महत्त्व को समझे। राष्ट्र के लिए जितने महत्त्व का धनी व्यक्ति है उतने ही महत्त्व का निर्धन भी। निराला समाज में बाह्य समता केसाथ – साथ आंतरिक समानता का भाव भी स्थापित करना चाहते थे।अपनी इस मान्यता से प्रेरित होकर बाल कहानी में प्रत्येक जीव की उपयोगिता के दर्शन का समावेश किया।‘ सिंह और चूहा ’नामक छोटी कहानी में स्वयं को दीन हीन समझने वाला चूहा भी राजा की मदद करके अपने महत्त्व को स्थापित करता है। कहानी के अंत में निराला बालकों को सीख देते हैं–“
बहुत कमजोर जीव भी साबित कर सकता हैं कि वह दया का कृतज्ञ है। और कभी कभी बड़ी से बड़ी ताकत वाले भी कमजोर के पूरे के पूरे ऋणी होते हैं। ”²⁰ श्रेष्ठता की मनोवृत्ति के भयावह परिणाम से अवगत होकर निराला बच्चों के माध्यम से सामाजिक को पृष्ठभूमि निर्मित करते हैं जिसमें समानता समाज की नियामक हो।
किसी भी क्रांति का प्रमुख उद्देश्य मानवीय गौरव और एक दूसरे की स्वतंत्र रक्षा से ही प्रेरित होता है। मनुष्यता विवेक में आस्थावान होकर ही किसी भी क्रांति को उसकी पूर्णता तक पहुँचाया जा सकता है। निराला ऐसे समाज की स्थापना पर जोर देते है जिसमे करुणा, सौहार्द , और बंधुत्व की भावना समाज का नियमन करे। इसके लिए बालकों की चेतना में आपसी एकजुटता, और सौहार्द की भावना का बीज सीख भरी कहानियों के जरिए निराला करते हैं।
भारतीय समाज में व्याप्त आपसी कलह के कारण ही भारत ने दासता का दंश झेला था। आंदोलन के समय भी बहुत से रियासते अंग्रेजी शासन के साथ थी। निराला आपसी कलह और लोभ का परित्याग करके संपूर्ण भारत को एकीकृत होने का संदेश देते हैं। बालकों को आपसी कलह और फूट के भयानक परिणाम से अवगत कराते हैं। पथिक और सीपी कहानी में दोव्यक्तियों की आपसी कलह का लाभ तीसरा पथिक उठाता है। अंत में कहानी यह सीख देती है –“ जब दो आदमी किसी एक चीज को पाने के लिए लड़ते हैं तब वह तीसरे के हाथ लगती है। ”²¹
यह कहानी बालकों को उन कारकों की पहचान कराती है जिसके कारण देश पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था और आपसी एकता की शक्ति का भान कराती है। निराला के साहित्य में दासता के बंधन से उपजे दर्द का जितना गहरा अंकन है उससे प्रतिरोध का स्वर भी उतना ही तीव्र है। उपकार , सहायता जैसे मानवीय मूल्य का लाभ उठाकर दुष्ट व्यक्ति अपना हित किस तरह साधते हैं अंग्रजी शासन उसका सटीक उदाहरण है। इसलिए निराला जंगल और कुल्हाड़ी की कथा के माध्यम से बालकों को व्यक्ति पहचानने और सहायता की सीमा का निर्धारण करने का प्रसंग
रचते है। किसी को प्रश्रय वहीं तक देना उचित है जहाँ तक अपना अस्तित्व संकट में न पड़े। जंगल ने कुल्हाड़ी बनाने के लिए लड़की दी फिर उसी कुल्हाड़ी ने जंगल का विनाश कर दिया।
साप और सीही कहानी भी यही जीवन मर्म को उद्घाटित करती है। दुष्ट व्यक्ति को दिया गया संरक्षण कितना घातक होता है। इन कहानियों माध्यम सेसमझा जा सकता है। खुशामद से खुश होकर सांप ने सीही को आश्रय देकर अपना जीवन कष्टकारी बना लिया। सिहि सांप से कहता है – “ मेरी पूछते हो , मै बड़े आराम से हूँ। अगर तुम्हे आराम नहीं तो तुम जब चाहो, इस बिल को छोड़ जाओ।”²²
अंग्रेजी सरकार की कुटिल नीतियों की वास्तविक सच्चाई को निराला बहुत सहजता और सरलता के साथ बालकों को समझते है। चीजे जैसी दिखती हैं वास्तव में उतनी लुभावनी होती नहीं है। ऐसे ही अंग्रेजी शासन की नीतियाँ थी जिनके दलदल में फँसकर भारत गुलाम हुआ। भेड़िया और भेड़ कहानी राज्य हड़प नीति जैसी नीतियों को समझने के लिए बालकों को तैयार करती है। मुर्ग और लोमड़ी कहानी भी कुटिल मनुष्यों से बचने की और बुद्धि प्रयोग की सीख देती है।
निराला बालकों को राज धर्म और नीति ज्ञान देते है जिससे बालकों के मन में वर्तमान व्यवस्था के प्रति क्षोभ और रोष का भाव उपजे।भेड़ और गड़ेरिए कहानी प्रकारांतर रूप से अंग्रेजी शासन की वास्तविकता को उजागर करती है। यह बालकों के मन में यह बीज रोपित करती है कि रक्षक यदि भक्षक बन जाए तो उसका अपराध अक्षम्य होता है–“भेड़ों को मारना भेड़ियों का स्वभाव है मगर जब भेड़ों का रखवाला कुत्ता ऐसा करता है वह साबित करता है कि वह दगाबाज के सिवा और कुछ नहीं है।”²³
भारतीय जनता के भीतर आत्म गौरव की भावना के साथ– साथ उन्हें कर्म की ओर उन्मुख करना भी स्वाधीनता आंदोलन और जागरण का प्रभाव है। भारतीयों की अत्यधिक ईश्वर आश्रिता उनके भीतर निष्क्रियता की प्रवृत्ति को बढ़ाती है। वर्षों की दासता सहते हुए भारतीय जनता अकर्मण्य होकर ईश्वर से मदद की अपेक्षा रखती है। निराला इस कर्महीनता के और निष्क्रियता का परिणाम परिवेश में देख रहे थे इसलिए निराला बालकों के व्यक्तित्व विकास की आधारशिला में ईश्वर केप्रति आस्था को तो महत्त्व देते हैं किंतु कर्महीम आस्था की आलोचना कहानियों में करते हैं और बालकों को कर्म के प्रति सजग करते हैं। वरुण देवता और लकड़हारा कहानी में ईश्वर उपासना से संबंधित नई धारणा को गढ़ते हैं। ईश्वर जाति धर्म देखकर नहीं सच्चे मन के लोगो को पसंद करता है। कहानी में वरुण देवता लकड़हारे से कहते हैं – “ तुम भले आदमी हो। देवता ऐसे ही आदमियों को प्यार करते हैं।”²⁴
जिस समय और परिवेश में निराला ने बाल साहित्य का सृजन किया उस समय की राजनीतिक , सामाजिक जरूरत क्रांति और संघर्ष की थी। निराला जीवन की निरीहता के नहीं जिजीविषा के साहित्यकार हैं। उनकी बाल कहानियों में भीजीवन
निरीहता को नही अपितु उसे संघर्ष और श्रम से सुंदर बनाने की पक्षधरता मिलती है। गधा और मेंढक कहानी में मेंढंक गधे को रोने की अपेक्षा संघर्ष की राह चुनने की सलाह देता है।
निष्कर्ष : निष्कर्ष रूप सेनिराला का बाल साहित्य राष्ट्रीय चेतना , आत्मबोध , गौरबबोध और स्वाधीनता की ललक को जगाने वाला है। जिन विषयों , व्यक्तियों का चयन निराला ने बालको के लिए जीवनी लिखने लिए किया वे भारतीय सांस्कृतिक परम्परा की अमूल्य धरोहर है। जिनके जीवन से बालकों को नई प्रेरणा और जीवन जीने की नई शक्ति मिलेगी ऐसे महान विभूतियों के जीवन आख्यान को बालकों के लिए रचकर एक छोर से बालकों के मन में जीवन मूल्यों के प्रति आस्था का संचार करते हैं दूसरी छोर से बालकों को आगामी स्वाधीनता समर के लिए भी तैयार करते हैं।निराला की बाल कहानियों से प्रेरित राष्ट्र प्रेम विश्वप्रेम में पर्यवासित होता है। निराला का बाल साहित्य जातीयता और राष्ट्रीयता का विस्तार करने वाला है। उनकी बाल रचनाओं में विश्व मंगल की अनुगूँज सुनाई पड़ती हैं। वस्तुत: निराला का बाल साहित्य विरुद्धों का सामंजस्य है।“ जातीयता का समर्थन और जातीय संकीर्णता का विरोध, राष्ट्रीयता का समर्थन और उससे ऊपर उठकर विश्व मानवता का समर्थन, ये दोनों बातें रवीन्द्रनाथ ठाकुर में है और निराला में भी।”²⁵ यही प्रवृत्तियां निराला के बाल साहित्य को सार्वभौमिक बनाती हैं।
संदर्भ :
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शोध छात्रा, हिंदी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
शोध-निर्देशक
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