शोध आलेख : दलित आत्मकथाओं में अभिव्यक्त बचपन और जीवन-सौन्दर्य / राम चन्द्र, प्रवीण कुमार

दलित आत्मकथाओं में अभिव्यक्त बचपन और जीवन-सौन्दर्य
- राम चन्द्र, प्रवीण कुमार


शोध सार : बचपन जीवन का प्रथम सोपान है। बचपन ही भविष्य की रूपरेखा है। बचपन की यादें बहुत ही आह्लादित, स्पंदित, रोमांचित होने के साथ-साथ स्मृति शोक भी है; जिसमें शक्ति है संघर्ष और स्वप्न भी। यह सब कुछ निर्भर करता है घर, परिवार और समाज के परिवेश, स्थिति, प्रस्थिति एवं परिस्थिति पर। इस आलोक में भारतीय समाज के बालमन और बचपन का मूल्यांकन किया जा सकता है। बच्चों को जीवन का प्रथम बोध मांकी गोद में ही होता है। तत्पश्चात आंगन से प्रांगण तक बोध-शोध, संवर्धन एवं परिमार्जन की प्रक्रिया-पद्धति चलती रहती है। पारिवारिक परिवेश से लेकर स्कूल, विद्यालय, शैक्षणिक जीवन तक का माहौल और उससे सम्बद्ध मानवीय इकाई की भूमिका इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण होती है। दलित बचपनकैसा रहा है, कैसी उसकी पारिवारिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षणिक पृष्ठभूमि रही है? उसके बचपन का सौन्दर्यबोध कैसा रहा है? उनकी इच्छाएं, आकांक्षाएं और स्वप्न-संघर्ष कैसा रहा है? आदि की पड़ताल दलित आत्मकथाओं के माध्यम से की जा सकता है।


बीज शब्द : बचपन, बालमन, जीवन प्रेमी, जीवन सौन्दर्य, दलित आत्मकथा।


मूल आलेख : बचपन और बालमन के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में बरबस याद रहा है . एस. नील का कथन। वे कहते हैं: ‘‘जीवन प्रेमी बच्चों में शारीरिक सुख या पढ़ने-लिखने के प्रति ईश्वर, शिष्टाचार या सौम्य व्यवहार के प्रति अपराध बोध पैदा नहीं किया जा सकता। जो माता-पिता या शिक्षक जीवन प्रेमी हैं वे अपने बच्चों को मारते-पीटते नहीं है।’’1 इसी परिदृश्य में दलित समाज के बचपन एवं बालमन को समझने का प्रयास है यह शोध पत्र। नील का यह कथन किसी भी समाज के भविष्य के निर्माण की प्रक्रिया में केवल महत्त्वपूर्ण है बल्कि व्यक्तित्व के विकास के लिए भी अनिवार्य है। यह बाल मनोविज्ञान की वीणा है, जिसके झंकार से जीवन कमल खिलता है। क्या भारतीय समाज में यह कथन पूर्णतः लागू हो पाया है? क्या भारतीय समाज बच्चों के मामले में इन बातों का पालन करता है? निश्चय ही कहा जा सकता है कि यह कथन भारतीय समाज के संदर्भ में अंशतः सही है, क्योंकि भारतीय समाज की संरचना और उसके मूल्यों में ऐसी बातें हैं जो कि इस धारणा के खिलाफ है। भारतीय समाज का वर्तमान सामाजिक स्वरूप वर्ण-जाति आधारित व्यवस्था और मानसिकता में निर्मित हुआ है जोकि मानवता की बात तो करता है लेकिन व्यवहार में मानवीय मूल्यों का क्षरण ही करता है। जहां मानवता की आड़ में जीवन विरोधी गतिविधियां हो रही हैं, वहां के बच्चों का भविष्य कैसा हो सकता है! इसका अनुमान लगाना मुश्किल है। आत्मकथा के आईने में यह साफ-साफ झलकता है। मां की गोद से लेकर स्कूल के प्रांगण में ही बच्चों के भविष्य की रूपरेखा गढ़ी जाती है। भारतीय समाज और विद्यालयों में बच्चों के भविष्य का निर्माण कैसे किया जाता है। क्या वह जीवन प्रेमी या जीवन विरोधी है। इसका ऐतिहासिक दस्तावेज हैं दलित आत्मकथाएं। दलित आत्मकथाओं की रचनाएं स्वाधीनता आंदोलन के बाद हुई हैं जिसकी पृष्ठभूमि पूर्व में बन रही थी। स्वाधीनता से पूर्व दलित आत्मकथाओं की रचना नहीं हुई थी और ही वह साहित्य उपलब्ध है क्योंकि स्वाधीनता से पूर्व भारतीय समाज ने दलित-बहुजन समुदाय को जीवन मूल्यों की स्वतंत्रता ही नहीं दिया। परिणामतः इस समाज में शिक्षा का घनघोर अभाव रहा। डॉ. तुलसीराम ने जब अपनी आत्मकथा मुर्दहियामें यह लिखा कि, ‘‘मूर्खता मेरी जनजात विरासत थी।’’2 तो उन्होंने दलित-बहुजन समाज की अशिक्षा का ऐतिहासिक सर्वेक्षण प्रस्तुत कर प्राचीन क्रांति और प्रतिक्रांति के लक्ष्य की उपलब्धियों को बता दिया। मूर्खता का संबंध सिर्फ विद्यालय में बच्चों को पढ़ाने या हुनर सिखाने तक नहीं है। उसका संबंध सामाजिकता, सामाजिक संरचना, सामाजिक संस्थाओं के मूल्यों दैनंदिन में उसके अभ्यास से भी है। निश्चय ही यह कथन भारतीय शिक्षा एवं समाज के लिए कलंक की तरह है। इससे मुक्ति का मार्ग स्वाधीनता के बाद ही प्रशस्त होता है। ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है कि स्वाधीनता के पूर्व भारतीय समाज में दलित-बहुजन सुमदाय की स्थिति हमेशा ऐसी ही रही। आधुनिक काल से पूर्व मध्यकाल में संत कवियों की वाणी और उससे पूर्व आदिकाल में गौतम बुद्ध ने इन हाशिये के समाज को ज्ञान-विज्ञान से जोड़कर उन्हें चेतनशील एवं प्रबोधित करने का कार्य किया। यही बोध किसी भी बालक की मनोवृत्तियों को निर्धारित करता है और इसी का दूसरा नाम संस्कार व्यवहार है। इसी से समाज में मानवीय और अमानवीय व्यवहार की पहचान भी होती है। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण है जीवन-सौन्दर्य का बोध। जिन्हें यह बोध नहीं होता है वह मृत्यु को वरण करता है। उनके जीवन में अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न, भय, दहशत, साम्प्रदायिकता आदि के कारण उत्पन्न मनोविकार का होना स्वाभाविक है। इसीलिए किसी भी समाज के विकास के लिए वहां के माता-पिता सहित नागरिकों खासकर शिक्षकों को जीवन-प्रेमी होना होता है। अन्यथा बालक का स्वभाव जीवन प्रेमी होने के बजाय जीवन विरोधी हो जाता है। जीवन विरोधी का स्वरूप- आक्रांता और खामोशी की संस्कृति में तब्दील हो जाता है जो कि मानवीय संस्कृति के संकट का सूचक होता है। इसी आलोक में दलित बचपन को आंगण से प्रांगण तक आत्मकथाओं के आईने में समझने की जरूरत है।

 

मानवीय जीवन में बोध-शोध की संपूर्ण प्रक्रिया-पद्धति का नाम शिक्षा है। शिक्षा सिर्फ ज्ञान का प्रतीक नहीं है। उसकी चेतना भी ज्ञान का प्रतीक है। शिक्षा से ज्ञान बोध की प्राप्ति होती है और यह बोध केवल समस्याओं के समाधान में सहायक होता है बल्कि मुक्ति की अवधारणा भी प्रस्तुत करता है। समाज और राष्ट्र के निर्माण की चेतना भी प्रशस्त करता है। राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया में भारतीय शिक्षा पद्धति की भूमिका क्या रही है। इस पर दलित आत्मकथाएँ प्रश्न चिह्न खड़ा करती हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं कि ‘‘मुझे एक दिशा मिल गई थी। यह धारणा भी उन दिनों पुख्ता हो रही थी कि जो शिक्षा स्कूल, कॉलेजों में दी जा रही है, वह किसी भी रूप में हमें राष्ट्रीय नहीं बनाती है, बल्कि कट्टर, संकीर्ण हिन्दू बनाती है।’’3 निश्चित ही कट्टरता की इस शिक्षा को जीवन प्रेमी नहीं कहा जा सकता है। वह जीवन विरोधी शिक्षा है। इससे समाज विकास की ओर नहीं अवनति की ओर बढ़ता है। यूं भी कह सकते हैं कि भारतीय शिक्षा पद्धति वस्तुनिष्ठ नहीं, एक सीमित संस्कृति-हिन्दू संस्कृति के निर्माण में अपनी भूमिका अदा करती है। यह भूमिका शिक्षण संस्थानों, पाठ्यक्रम और शिक्षकों तीनों ही स्तरों पर देखी जा सकती है। यह भारतीय शिक्षा की प्राचीन अवधारणा रही है, जब शिक्षा एक खास वर्ग की संपत्ति समझी जाती थी। शिक्षण संस्थानों पर खास वर्ग ब्राह्मण का आधिपत्य था और उसमें किसी भी शूद्र-अतिशूद्र का प्रवेश वर्जित था। आधुनिकता के साथ शिक्षण संस्थानों की प्रकृति में बदलाव तो आया परन्तु इसे बहुत सार्थक नहीं कहा जा सकता है, दलित-बहुजन समाज के लिए। स्वाधीनता के कई वर्षों तक दलित-बहुजन के लिए शिक्षण संस्थानों में प्रवेश मिलना बहुत कठिन रहा। आज भी दलित समाज के बच्चों के साथ स्कूलों में अमानवीय व्यवहार होता है। प्रवेश से लेकर शिक्षण-अधिगम तक की प्रक्रिया कितनी जटिल रही है। इसे ओमप्रकाश वाल्मीकि के इस कथन से समझा जा सकता हैः ‘‘कई दिन तक स्कूल के चक्कर काटते रहे। आखिर एक रोज स्कूल में दाखिला मिल गया। उन दिनों देश को आजादी मिले आठ साल हो गए थे। गांधी जी के अछूतोद्धार की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती थी। सरकारी स्कूलों के द्वार अछूतों के लिए खुलने शुरू तो हो गए थे, लेकिन जन सामान्य की मानसिकता में कोई विशेष बदलाव नहीं आया था। स्कूल में दूसरों से दूर बैठना पड़ता था, वह भी जमीन पर।... कभी-कभी तो एकदम पीछे दरवाजे के पास बैठना पड़ता था। जहां से बोर्ड पर लिखे अक्षर धुंधले दिखते थे।’’4

उपर्युक्त कथन यह स्पष्ट करता है कि स्कूल में दूसरों से दूर बैठना और पानी के लिए इंतजार करना दलित बच्चों के लिए स्कूली परिवेश भेदभाव से भरा रहा है। शिक्षा व्यवस्था एक विशेष वर्ग के लिए आरक्षित थी और उसमें अन्य के लिए प्रवेश करना वर्जित था। स्कूल में प्यास लगे तो हैंडपम्प के पास खड़े रहकर किसी के आने का इंतजार करना पड़ता था। हैंडपम्प छूने पर बवेला हो जाता था। लड़के तो पीटते ही थे। मास्टर लोग भी हैंडपम्प छूने पर सजा देते थे।...स्कूल आना मेरी अनाधिकार चेष्टा थी।21वीं सदी में मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि राज्यों में दलित बच्चों को सार्वजनिक हैंडपम्प से पानी पीने पर, दलित रसोइया द्वारा मिड-डे-मील बनाने पर गैर दलित बच्चों का खाना खाने का मनाही करना आदि घटनाएं बताती हैं कि विद्यालय का वातावरण विषाक्त है और दलित बच्चों के अनुकूल नहीं है। मनोविज्ञान कहता है कि यह व्यवहार बच्चों के बालमन को सहज नहीं होने देता है और बच्चों में अंतर्मुखी, चिड़चिड़ा, आक्रोशी और विद्रोही आदि प्रवृत्ति को जन्म देता है। जब ओमप्रकाश वाल्मीकि यह लिखते हैं कि ‘‘एक अजीब सी यातनापूर्ण जिंदगी थी, जिसने मुझे अंतर्मुखी और चिड़चिड़ा, तुनकमिजाजी बना दिया था।’’5 तो निश्चय ही इससे भारतीय समाज की शिक्षा का सौन्दर्य स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार वह मानवीय चेतना नहीं पैदा करती है, उससे सामाजिकता की भावना नहीं पनप रही है। वह मानवीय गरिमा, अस्तित्व अस्मिता की संवेदना नहीं पैदा करती है बल्कि मानवीय अधिकार से वंचना का षड्यंत्र रचती है। इस संदर्भ में जूठनके मास्टर कालीराम के व्यवहार से समझा जा सकता है: ‘‘चूहड़े का है? जी, ठीक है...वह जो सामने शीशम का पेड़ खड़ा है, उस पर चढ़ जा और टहनियां तोड़ के झाड़ू बणा ले। पत्तों वाली झाड़ू बणाना। और पूरे स्कूल कू ऐसा चमका दे जैसा सीसा। तेरा तो यो खानदानी काम है। जा...फटाफटा लग जा काम पे।’’6... ‘‘जिसका दरवाजा खटखटाया यही उत्तर मिला, क्या करोगे स्कूल भेजके’’ या ‘‘कौवा बी कबी हंस बण सके’’, ‘‘तुम अनपढ गंवार लोग क्या जाणे, विद्या ऐसे हासिल ना होती।’’ ‘‘अरे ! चूहड़े के जाकत कू झाड़ू लगाने कू कह दिया तो कोण सा जुल्म हो गया’’, ‘‘या फिर झाड़ू ही तो लगवाई है, द्रोणाचार्य की तरियों गुरू दक्षिणा में अंगूठा तो नहीं मांगा आदि आदि।’’7

शिक्षक का बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार तो बच्चों की चेतना को खोलता है ही समाज को लोकतांत्रिक बनाता है। ऐसी स्थिति में समाज में विलगाव, बिखराव की स्थिति का पैदा होना स्वाभाविक है। गिल के शब्दों में शिक्षकों या समाज के लोगों का यह व्यवहार जीवन विरोधीहै। ‘‘जीवन विरोधी का अभिप्राय है दायित्व, आज्ञापालन, लाभ, और सत्ता के पक्ष में होना। मानव के इतिहास में हमेशा ही जीवन विरोधी तत्त्व रहे हैं, और आगे तब तक रहेंगे; जब तक हम अपने युवा वर्ग को वर्तमान वयस्कों की अवधारणाओं के अनुरूप ढालते रहेंगे।’’8 दलित समाज के बच्चों के साथ जिस तरह के व्यवहार तत्कालीन शिक्षकों द्वारा किया जाता रहा है, क्या वह जीवन विरोधी है? जबकि उन्हें जीवन-प्रेमी होना चाहिए। इस सदर्भ में दलित आत्मकथाएं भारतीय शिक्षा व्यवस्था को प्रश्नांकित करती हैं और उसका हिसाब मांगती हैं। ‘‘शिक्षा के प्रसार के कारण जो आशा बंधी थी कि वह जाति-संस्कृति को कमजोर करेगा, उसे जाति व्यवस्था ने झूठा साबित कर दिया। देश में कहीं से भी निकलने वाले अखबारों में छपे वैवाहिक विज्ञापनों पर यह महसूस करने के लिए एक सरसरी निगाह डालनी चाहिए कि बिना अपवाद के देश में ही रहने वाले उच्च शिक्षा प्राप्त लोग ही नहीं बल्कि वर्षों से विदेशों में बसे हुए लोग भी अपनी जाति सूचित करते हुए ऐसे विज्ञापन निकलवाते हैं और जाति सूचनाओं के साथ ही उत्तर चाहते हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त नव-धानाढ्य भूमंडलीकृत वर्गों में यह प्रवृत्ति हर साल बढ़ती नजर रही है।’’9 अर्थात शिक्षा ने लोगों के अंदर जागृति और चेतना को पैदा करने में सांस्कृतिक आयामों से अलग नहीं हुई। चेतना के अभाव में समाज में शिक्षा के प्रति उदासीनता भी रही। शिक्षण संस्थान भारतीय सांस्कृतिक आधार से संचालित होती रही है। सांस्कृतिक संकीर्णता ने शिक्षा को चेतनापरक होने ही नहीं दी। इसलिए कौसल्या बैसंत्री लिखती हैं कि ‘‘हमारी बस्ती में स्कूल नहीं था। परंतु पास में गड्डी गोदाम नाम की बड़ी बस्ती थी, वहां नगरपालिका का स्कूल था जिसमें लड़के ही जाते थे। लड़की एक भी नहीं जाती थी। आसपास लड़कियों का कोई स्कूल नहीं था। लोगों में इतनी जागृति भी नहीं आई थी। बस्ती में किसी भी जाति में लड़के-लड़कियों को पढ़ाने में मां-बाप को रूचि नहीं थी।’’10 माता-पिता द्वारा बच्चों को पढ़ाने में रूचि लेना भी अशिक्षा का कारण है। वहीं 'ब्राह्मणवादियों द्वारा बच्चों को अधिक नहीं पढ़ाना चाहिए, अधिक पढ़ाने से वह बिगड़ जाता है।' यह मानसिकता उसको शिक्षा के प्रति उदासीनता को और ज्यादा बढ़ावा देती है। मुर्दहियाइसका उदाहरण है। ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मणवादियों की इसी मानसिकता का विरोध कर समाज में शिक्षा की ज्योति जगाने का काम किया और 1848 . में लड़कियों के लिए विद्यालय खोलकर शिक्षा की अवधारणा को समाज में प्रचारित-प्रसारित किया। इस अवधारणा का उत्तरोतर विकास भी देखने को मिलता है लेकिन 1848. से वर्तमान तक की शिक्षा की स्थिति पर नजर डालें तो बहुत संतोषजनक स्थिति नहीं है। यहां पर यह बात और भी विचारणीय है कि आखिर क्या कारण है कि भारतीय समाज में शिक्षा व्यस्था का विकास बहुत ज्यादा नहीं हुआ है। इसका कारण है शिक्षा व्यवस्था की भाषा और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की शिक्षा।

शिक्षा व्यवस्था की भाषा अभी भी भारतीय समाज में आम जन की भाषा नहीं बन सकी है। आम जन की भाषा शिक्षा का माध्यम बनने के कारण समाज की बहुत बड़ी आबादी उससे दूर होती चली गई। उसमें चेतना का फैलाव बहुत देर से हुआ। सांस्कृतिक साम्राज्यावादी मूल्यों के कारण वह समाज लगातार वैज्ञानिकता से दूर होता गया और पारंपरिक व्यवस्था उसे विकास की राह में जोड़ने में बहुत ज्यादा सहायक नहीं बनी। दलित आत्मकथाओं ने शिक्षा व्यवस्था को कठघरे में खड़ा तो किया ही, उसकी भाषा को भी प्रश्नांकित किया है। शिक्षण की भाषा ने देशी बनाम अंग्रेजी की बहस को भी जन्म दिया। इसका मतलब यह कहीं भी नहीं है कि दलित आत्मकथाएं अंग्रेजी या अन्य भाषाओं का विरोध करती हैं। वह समाज के विकास के लिए देशी भाषा में ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा की वकालत करती है। भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम है बल्कि शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में जीवन मूल्यों, संस्कृति और इतिहास का संवाहक भी है।

शिक्षा की भाषा क्या हो? यह भारतीय समाज में हमेशा से एक समस्या की तरह रही है। दलित आत्मकथाओं में भाषा की समस्या की बात आयी है। यह भी देखा गया है कि समाज में अंग्रेजी भाषा का दबदबा हमेशा से ही रहा है। यह दबदबा कई बार आतंकित भी करता है। शिक्षा के माध्यम का सवाल एक अलग सवाल बनकर रहा है। यह सर्वविदित है कि शिक्षा हमेशा प्रारंभिक तौर पर मातृभाषा में ही देनी चाहिए लेकिन मातृभाषा के साथ अन्य भारतीय भाषा का ज्ञान भी जरूरी होता है तत्पश्चात अंतर्राष्ट्रीय भाषा की भी आवश्यकता होती है। इसी क्रम में भाषा का ज्ञान आवश्यक है अन्यथा विकास की गति अवरूद्ध हो जाएगी। कौसल्या बैसंत्री लिखती हैं: ‘‘मां-बाबा सोचते थे कि हम बहुत पढ़ी-लिखी हैं इसलिए डॉक्टर से अच्छे ढंग से बातें कर सकती हैं। मां कहती थीं कि डॉक्टर से अंग्रेजी में बात करना। उन्हें लगता था कि अंग्रेजी में बातें करने से उनके ऊपर इम्प्रेशन पड़ेगा। बेचारी क्या जानती थी कि मैं अंग्रेजी अच्छी नहीं बोल सकती। हम अंग्रेजी के शब्द याद करते थे और अंग्रेजी का कुछ होमवर्क करते थे। यह देखकर उन्हें लगता था कि हम अंग्रेजी बोल सकती हैं। हमारे स्कूल में भी लड़कियां कभी अंग्रेजी में बात नहीं करती थीं। अगर कोई लड़की अंग्रेजी बोलने की कोशिश करती तो उसे सब लड़कियां यह कहकर चिढ़ाती थीं कि बड़ी अंग्रेज बनती है। मुझे थोड़ा बहुत अंग्रेजी बोलना कालेज में जाने पर ही आया क्योंकि कालेज में ईसाई लड़कियां अंग्रेजी बोलती थीं और पढ़ाई का माध्यम भी अंग्रेजी था। स्कूल में मराठी मीडियम था और केवल एक विषय अंग्रेजी था जो अनिवार्य था।’’11

इस प्रकार भाषाई वर्चस्व को समझा जा सकता है। वर्चस्व की भाषा का प्रभाव ही समाज पर गहरा होता है; जिसमें आपका मान-सम्मान और आदर-सत्कार सब कुछ अलग ही होता है। वर्चस्व की भाषा आपकी पहचान को खत्म कर देती है। वर्चस्व की भाषा में कमजोर वर्ग के लिए शिक्षा-दीक्षा करना सहज नहीं होता है। वह वर्ग अपने आप को सहज नहीं महसूस करता और ही अपनी शिक्षा पूरी कर पाता है। जहां शिक्षा का स्तर ही बहुत कम हो वहां वर्चस्व की भाषा में शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया संचालित करना कमजोर वर्ग को और कमजोर करने की साजिश के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता है। यहीं पर आकर समानांतर स्कूल की परिकल्पना साकार होती दिखाई पड़ती है। ‘‘जाई बाई चौधरी नाम की एक अछूत महिला ने नई बस्ती नामक जगह पर लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला था। जाई बाई स्कूल चलाने के लिए चंदा एकत्र करने बहुत दूर तक अपना रजिस्टर साथ में लिए घूमती रहती थी। वे अस्पृश्यों की बस्तियों में भी जाकर उन्हें अपनी लड़कियों को स्कूल में भेजने के लिए कहती थीं। उन्हें शिक्षा के महत्व के बारे में बताती थीं। ...गड्डी गोदाम नामक बस्ती में झूलाबाई नाम की एक आदिवासी (गोंड) महिला ने भी एक स्कूल खोला था। वह आदिवासी लोगों में जागृति लाने की कोशिश कर रही थीं।’’12 ‘‘जाई बाई के स्कूल में पढ़ाई की कोई फीस नहीं ली जाती थी।’’13 पूरी आत्मकथा में सहयोग की भावना दिखाई पड़ती है। इससे यह स्पष्ट तो होता ही है कि दलित समाज में शिक्षा के प्रचार-प्रसार का कार्य चेतनशील मानव के द्वारा हमेशा से चलाया जा रहा है। शिक्षा के संसाधन की व्यवस्था भी वे स्वयं करते रहे हैं। वहीं पढ़ाई की फीस लेना भी दलित समाज में शिक्षा के विकास का एक साधन रहा है। क्योंकि दलित समाज के पास आर्थिक तंगी के कारण बच्चों को स्कूल भेजने का परिदृश्य सभी आत्मकथाओं में उजागर है। परिवार का असहयोगात्मक रवैया भी उसका कारक बना है। दलित आत्मकथाएं इन सभी बातों को बहुत बारीकी से सामने रखती हैं। मुर्दहिया' के तुलसीराम का पांचवीं के बाद स्कूल जाने से मनाही और 'शिकंजे का दर्द' की सुशीला टाकभौरे की मां और नानी की इच्छा थीं- मैं कॉलेज जाऊं, आगे और पढ़ूं मगर पिता और भाइयों का विरोध' भी दलित बचपन के खिलाफ का माहौल ही कहा जा सकता है। चाहे कारण कुछ भी हो। इसके बावजूद दलित समाज में स्त्री की चेतना पुरुषों को चुनौती देती हुई समानता, सहकर्मी की भूमिका रही है। वह समाज को दिशा निर्देश देने में अपना योगदान देती रही है। दलित स्त्री आत्मकथा में ही नहीं पुरुष आत्मकथा में भी स्त्री की भूमिका स्पष्ट देखने को मिलती है। दलित साहित्य में मां-नानी की भूमिका अहम रही है दलित चेतना को बढ़ाने में। जूठनमें मां की चेतना, ‘मुर्दहियामें दादी की चेतना, ‘मेरा बचपन मेरे कंधों परमें मां की चेतना जिजीविषा, ‘दोहरा अभिशापऔर शिंकजे का दर्दमें नानी और मां की चेतना दलित बचपन को गढ़ने और बढ़ने में अहम भूमिका निभाती है। यह दलित मां-नानी-दादी की यानी दलित स्त्री की ही चेतना है जिसके कारण बचपन के जीवन सौन्दर्य को पल्लवित-पुष्पित होने का मौका मिला।

जब कौसल्या बैसंत्री लिखती हैं कि ‘‘अब मां ने हमारी शादी की चिंता छोड़ दी और पक्का इरादा कर लिया था कि चाहे कितनी भी अड़चने क्यों आएं, हम सब भाई बहनों को ऊंची शिक्षा देंगी।’’14 तब उनकी यह चेतना शिक्षा से ही जीवन उन्नत हो सकती है, की रही होगी। मां ने अब हम सब बहनों को पढ़ाने का निश्चय कर लिया था। बाकी बहनें अभी छोटी थीं, अभी स्कूल नहीं जाती थीं। फिर भी मां ने बाद में उन्हें पढ़ाने का निश्चय कर रखा था। ‘‘मां को पढ़े-लिखे और अच्छे लोगों के साथ संपर्क रखना अच्छा लगता था। इन्हीं लोगों की वजह से मां को हमें पढ़ाने की प्रेरणा मिली।... मां-बाबा का बड़ी बहन को आगे पढ़ाने का बहुत मन था। मां चाहती थीं कि बहन पढ़कर कम-से-कम प्राइमरी शिक्षिका बनें। परंतु उनका विवाह करना भी जरूरी था, क्योंकि ज्यादा बड़ी होने पर लड़का मिलना मुश्किल काम था। उपजातियों में भी विवाह नहीं होते थे, इसलिए भी विवाह के लिए दिक्कत आती थी।... मां ने बहन के जेठ को बहुत समझाया कि वे बहन को आगे शिक्षिका की पढ़ाई करने दें। सातवीं कक्षा के बाद अमरावती में ट्रेनिंग स्कूल था। मां अपनी ओर से पढ़ाई का खर्चा देने को तैयार थीं। परंतु ससुराल वाले नहीं माने।...बहन की शादी हो गई। वे आगे नहीं पढ़ पाई। इसका मां को जीवन-भर दुःख रहा।’’15

अम्बेडकरवादी चेतना के कारण दलित समाज इस बात से वाकिफ हो गया कि शिक्षा से ही मुक्ति मिल सकती है। दलित समाज में लगातार शिक्षा के प्रति जिज्ञासा भाव है। ‘‘मां, पिताजी और नानी की कामना थी, हम सब बहन भाई आगे तक पढें, डिग्रियां हासिल करें। उन्हें यह आभास था, पढ़-लिखकर नौकरी करने से सम्मान मिलता है, तब जातिभेद का अपमान अधिक नहीं सहना पडे़गा। जाति से जुड़े रोजगार से मुक्ति मिलने पर सम्मान तो बढ़ेगा ही।’’16…‘‘मां बाबा को सबकी पढ़ाई का खर्चा उठाने में बहुत दिक्कत पड़ती थी, फिर भी उन्होंने हमें पढ़ाना जारी रखा। उन्होंने बाबा साहब अम्बेडकर का कस्तूरचंद पार्क में भाषण सुना था कि अपनी प्रगति करना है तो शिक्षा प्राप्त करना बहुत जरूरी है। लड़का और लड़की दोनों को पढ़ाना चाहिए। मां के मन पर इसका असर पड़ा था और उन्होंने हम सब बच्चों को पढ़ाने का निश्चय किया था, चाहे कितनी ही मुसीबतों का सामना करना पड़े। बाबा मां के किसी काम में दखल नहीं देते थे। कभी-कभी स्कूल जाने का मन नहीं करता था तो हम बहाना लगाते कि चप्पल टूट गई या बारिश में छतरी टूटी है तो वे तुरंत कील, तार लगाकर छतरी-चप्पल दुरूस्त कर देते थे। हमें घर में नहीं रहने देते थे, स्कूल जरूर भेजते थे।...नई कक्षा में जाने पर सब बहनों और भाई का किताब-कापियों का खर्चा बढ़ जाता था। गर्मी की छुट्टियों के बाद स्कूल खुलने पर सबको किताबें खरीदनी पड़ती थीं। तब मां अपने कुछ जेवर साहूकार के पास गिरवी रखकर पैसे ले आती थीं। मिल में कुछ लोग भिसी(चिटफंड) डालते थे। मां, चिटफंड से भी पैसा मांगती थी। कभी-कभी मां चिटफंड से पैसे लेकर जेवर बनवाती थीं। ये जेवर ही उनकी जमा-पूंजी थी। जरूरत पड़ने पर इन्हें गिरवी रखकर पैसे लाती थीं। इन पर काफी ब्याज देना पड़ता था। परंतु दूसरा कोई चारा भी नहीं था।’’17 यहां यह कहा जा सकता है कि चेतनशील दलित समाज तमाम विषम परिस्थिति कठिनाइयों के बावजूद शिक्षा से मुंह नहीं मोड़ा। दलित आत्मकथा का सौन्दर्यबोध इस बात को सहज रेखांकित करता है। शिक्षा से केवल चेतना जाग्रत होती है बल्कि आत्मसम्मान, गरिमा, अस्तित्व अस्मिता का भी बोध होता है। हीनताबोध से मुक्ति का आधार देता है। दलित आत्मकथा का सौन्दर्यबोध भारतीय शिक्षा व्यवस्था, उसके तंत्र, उसकी पद्धति, शिक्षण-अधिगम की व्यवहारिकता सामाजिकता को इसी कारण प्रश्नांकित करता है।

जिस समाज में शिक्षा ही नहीं है या जिन्होंने शिक्षा की पहली सीढ़ी पर अभी पांव रखा है। ऐसी स्थिति में यदि हीनताबोध की भावना फैलती है या वह जड़ जमाई हुई है तो उसका टूटना अनिवार्य है। वरना वह सामाजिक संकट है। शिक्षा हीनताबोध को तोड़ती है। खेलकूद आदि शारीरिक शिक्षा व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती है। जो बच्चा इससे वंचित रहा है उसकी तुलना एक संपन्नशील बच्चा से किया जाए तो यह उचित नहीं है। अस्पृश्यता की भावना शिक्षा की व्यापकता और विकास में रूकावट बनी है। कौसल्या बैसंत्री जब यह लिखती हैं कि ‘‘मैंने स्कूल के किसी कार्यक्रम जैसे खेलकूद, नाटक वगैरह में कभी भाग नहीं लिया। मुझमें हीनता की भावना भरी थी। मैं खो-खो, कबड्डी वगैरह अच्छा खेल सकती थी। परंतु मैं आगे बढ़ने से ही डरती थी। मैं अस्पृश्य हूं, यह भावना मेरे मन से जाती ही नहीं थी।’’18तो निश्चय ही बचपन को प्रभावित करने वाला कारक हीनताबोध है। क्या यह हीनताबोध जीवन विरोधी वातावरण की देन नहीं? हमें इस पर ठहर कर विचार करने की जरूरत है। हीनताबोध के वातावरण ने बचपन को खूब रौंदा है। यह आज किसी से छुपा नहीं है। स्थिति इतनी भयावह है कि आत्महत्या तक होती है। यह एक स्वच्छ समाज के लिए उचित नहीं है।

दलित समाज की शिक्षा के प्रति ब्राह्मणवादी शिक्षकों का रवैया हमेशा से ही उपेक्षा का रहा है। इसका मतलब यह भी नहीं समझा जाना चाहिए कि दलित समाज की शिक्षा में गैर दलित शिक्षकों की भूमिका नहीं रही है। दलित समाज की शिक्षा के विकास में गैर दलित शिक्षकों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। खासकर उन शिक्षकों की, जो शिक्षा के मर्म और शिक्षत्व के महत्व को समझते हैं। दोहरा अभिशापकी लेखिका लिखती हैं कि ‘‘हमारे स्कूल के शिक्षकों को अस्पृश्यों के प्रति कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। खरे नाम के एक शिक्षक को कुछ सहानुभूति थी। वे मुझे और मेरी छोटी बहन को गणित और अंग्रेजी फुर्सत के समय पढ़ाते थे। वे जानते थे कि हमारे मां-बाबा अनपढ़ हैं। बहुत दिनों बाद जब वे मिले तो यह जानकर कि मैंने कालेज तक की पढ़ाई की, वे बहुत खुश हुए थे।’’19 वहीं मेरा बचपन मेरे कंधों परके शिक्षक सियाराम आर्य की अस्पृश्यता की भावना को देखा समझा जा सकता है। वे कहते हैं कि ‘‘खान-पान एक हो गया तो चमारों और यादवों में अंतर ही कहां रह जायेगा?’’20जूठनका चमनलाल त्यागी’, ‘मुर्दहियाका संकठा सिंह, तपसीराम, सुग्रीव सिंह, रामवृक्ष सिंह जैसे गैर दलित व्यक्तित्व की भूमिका दलित समाज के विकास में सहज ही देखा जा सकता है। वहां गैर की भावना नहीं आत्मीयता का भाव स्पष्ट है। यह आत्मीय भाव ही जीवन सौन्दर्य को निर्धारित करता है। मुर्दहियाका यह कथन इसी आत्मीय भाव को रेखांकित करता है कि ‘‘मेरे लिए कक्षा एक में संकठा सिंह मुंशीजी से कहीं ज्यादा सफल शिक्षक सिद्ध हुए।’’21 दलित आत्मकथा का सौन्दर्य इसी आत्मीय भाव की चेतना में निखरता है। वह उसी की वकालत करता है। यह आत्मीय लगाव की भावना तभी पैदा हो सकती है जब दूसरों की अर्थात बच्चों की समस्याओं को समझने का प्रयास किया गया है या किया जाएगा। बिना समस्याओं को समझे बगैर आत्मीय भाव पैदा नहीं हो सकता है। कौसल्या बैसंत्री का यह कथन चिंताजनक हैः ‘‘शिक्षक हमारी मजबूरी नहीं समझते थे। हमें अपमानित करते थे, कक्षा की लड़कियों के आगे। हमें रोना आता था। परंतु इसके सिवा हम क्या कर सकती थीं। अफीम खिलाने से अहिल्या बहुत चिड़चिड़ी हो गई थी। बहुत रोती थी। उसका जिगर बढ़ गया था।’’22

शिक्षण अधिगम में बच्चों की समस्याओं को शिक्षक द्वारा नहीं समझा जाना गलत व्यवहार है शिक्षक का बच्चों के प्रति। ऐसा करने से बच्चों के आत्मविश्वास पर कुठाराघात होता है और बच्चों की जिज्ञासात्मक प्रवृत्ति बढ़ नहीं पाती है। ऐसी स्थिति में उसका विकास संभव नहीं हो पाता है। जिज्ञासा के साथ कर्म का संयोग बच्चों के केवल आत्मविश्वास को बढ़ाता है बल्कि उनमें कुछ करने की चेतना भी विकसित करता है। कौसल्या बैसंत्री लिखती हैं कि ‘‘मैं भी बहुत शान से ग्रामोफोन में चाबी भरती और सुई रिकार्ड पर लगाती थी। मुझे लगता था कि मैं बहुत बड़ा काम कर रही हूं।’’23 यहां बच्चों की जिज्ञासु प्रवृत्ति को समझा जा सकता है कि वह कितना उत्साहवर्द्धक चीज है उनके लिए। दलित समाज की जिज्ञासु चेतना और आत्मविश्वास की चेतना ने उसे एक मजूबत आधार दिया है। वहीं शिक्षकों की उपेक्षा बच्चों की इस चेतना को हमेशा ही हतोत्साहित करता रहा है।

 ‘‘अर्द्धवार्षिक परीक्षा में मैं अपने सेक्शन में प्रथम आया था। इस परिणाम ने मेरे भीतर आत्मविश्वास जगा दिया था। परीक्षा के बाद मुझे कक्षा का मॉनीटर बना दिया था तथा पीछे से आगे बैठने लगा था। लेकिन कुछ अध्यापकों का व्यवहार अभी भी ठीक नहीं था, उनके रवैये में प्रताड़ना थी, उपेक्षा का भाव था।’’24 इस उपेक्षा भाव ने हमेशा से ही दलित समाज को सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर विभिन्न कार्यक्रमों से वंचित रखा है। उसे विकास की धारा से नहीं जुड़ने दिया है। ‘‘मुझे सांस्कृतिक कार्यक्रमों क्रियाकलापों से दूर रखा जाता था। ऐसे वक्त मैं सिर्फ किनारे खड़ा होकर दर्शक बना रहता था। स्कूल के वार्षिक उत्सव में जब नाटक आदि का पूर्वाभ्यास होता था, मेरी भी इच्छा होती थी कोई भूमिका मुझे भी मिले। लेकिन हमेशा दरवाजे के बाहर खड़ा रहना पड़ता था। दरवाजे के बाहर खड़े रहने की इस पीड़ा को तथाकथित देवताओं के वंशज नहीं समझ सकते।’’25

शिक्षण-अधिगम की प्रकृति संवाद की होती है। संवाद की प्रक्रिया मानव की चेतना को केवल परिष्कृत करती है बल्कि उसके सौन्दर्य बोध को भी परिवर्तित करती है। परिवर्तन की यह क्रिया समाज में वैज्ञानिकता तार्किकता का वहन करती है, जिसकी वजह से समाज में लोकतंत्र की स्थापना होती है। जहां यह प्रक्रिया नहीं होती है वह समाज वैज्ञानिकता तार्किकता की जगह श्रद्धा भक्ति पर आश्रित होता है। श्रद्धा और भक्ति की भावना समाज को चेतनशील नहीं बनाता है वह अनुचर, अनुगामी बनाता है दूसरों का। इस तरह समाज में हमेशा से वर्चस्वशाली वर्ग की सत्ता कायम होती रहती है। जिससे विकास की राह से समाज का बहुत बड़ा तबका वंचित रह जाता है। व्यक्तित्व के विकास और समाज की तरक्की के लिए शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में संवाद की क्रिया महत्वपूर्ण नहीं अनिवार्य है। शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में संवाद की जगह असंवाद की स्थिति बालक के मन की जिज्ञासा को समाप्त कर देती है और शिक्षक के ज्ञान का आतंक उसकी सृजनात्मकता को समाप्त कर देता है। बालक ओमप्रकाश वाल्मीकि का संवाद इस बात की साक्षी है कि ‘‘मैं खड़ा होकर मास्टर साहब से एक सवाल पूछ लेने की धृष्टता की थी। अश्वत्थामा को तो दूध की जगह आटे का घोल पिलाया गया और हमें चावल का मांड़। फिर किसी भी महाकाव्य में हमारा जिक्र क्यों नहीं आया? किसी महाकवि ने हमारे जीवन पर एक भी शब्द क्यों नहीं लिखा? समूची कक्षा मेरा मुंह देखने लगी थी। जैसे मैंने कोई निरर्थक प्रश्न उठा दिया हो। मास्टर साहब चीख उठे थे, घोर कलियुग गया है... जो एक अछूत जबान जोरी कर रहा है।...चूहड़े के, तू द्रोणाचार्य से अपनी बराबरी करे है...ले तेरे ऊपर मैं महाकाव्य लिखूंगा...’’ उसने मेरी पीठ पर सटाक सटाक छड़ी से महाकाव्य रच दिया था। वह महाकाव्य आज भी मेरी पीठ पर अंकित है। भूख और असहाय जीवन के घृणित क्षणों में सामंती सोच का यह महाकाव्य मेरी पीठ पर ही नहीं मेरे मस्तिष्क के रेशे-रेशे पर अंकित है।’’26 क्या सवाल पूछना गुनाह है? क्या बच्चों में सवाल पूछने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना जीवन विरोधी गतिविधि नहीं है? जिज्ञासा और सवाल दोनों ही जीवन का आधार स्तंभ हैं। बोध-शोध की नींव हैं। फिर हमारी शिक्षा-व्यवस्था कहां खड़ी है। यह विचारणीय है।

शैक्षिक मूल्यों में किसी भी प्रकार का हीनभाव, अपमान, असहिष्णु का भाव नहीं है। शिक्षित होना आदर्श का प्रतीक रहा है। अध्यापकहमेशा वंदनीय-आदरणीय रहा है। आज भी है। लेकिन आदर्श की स्थिति बदली है। दलित आत्मकथाओं में जहां शिक्षक सम्मान के अधिकारी रहे हैं वहीं ब्राह्मणवादी शिक्षक और उनके शिक्षण से समाज में अपमान बोध की भावना पैदा होती रही है। यह बोध उनके व्यक्तित्व निर्माण में बाधक है। व्यक्तित्व और सामाजिकता का संबंध शिक्षा से बहुत ही गहरा रहा है। घर, परिवार, परिवेश और समाज के बीच ही यह संबंध निर्मित पुख्ता होता है। भारतीय समाज जिस पारंपरिक शिक्षा और शिक्षक को आदर्श की उपाधि देता है दलित समाज का सौन्दर्यबोध उस पर प्रश्न चिह्न खड़ा करता है। जहां दलित समाज का स्वप्न रेत की ढूहपर खड़ा है। रेतपर व्यक्तित्व का महल नहीं खड़ा किया जा सकता है। वह कब बिखर जाए यह कहा नहीं जा सकता है। इसलिए जब ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं कि ‘‘ऐसे ही आदर्शवादी शिक्षकों से पाला पड़ा था उस समय, बचपन से किशोर अवस्था की ओर बढ़ते हुए, जब व्यक्तित्व का निर्माण हो रहा होता है, तब ऐसे दहशत भरे माहौल में जीना पड़ा। इस पीड़ा का एहसास उन्हें कैसे होगा जिन्होंने घृणा और द्वेष की बारीक सुइयों का दर्द अपनी त्वचा पर कभी महसूस नहीं किया? अपमान जिन्हें भोगना नहीं पड़ा? वे अपमान बोध को कैसे जान पाएंगे? रेतीले ढूह की तरह सपनों के बिखर जाने की आवाज नहीं होती। भीतर तक हिला देनेवाली सर्द लकीर खिंच जाती है जिस्म के आर-पार।’’27 तब वह जीवन विरोधी शिक्षा-व्यवस्था की सच्चाई की पोल खोलता हुआ नजर रहा है क्योंकि उस व्यवस्था में दलित बचपन ने दम तोड़ा है। उन्हें इंसान बनने की बजाय बंधुआ मजदूर बनाया है। देखिये आगे ओमप्रकाश वाल्मीकि क्या लिखते हैं कि गणित के सवाल हल करने के लिए बृजपाल सिंह के यहां मजदूरी की। घर में ऐसा कोई नहीं था जो मदद करता।यहां तक तो ठीक है लेकिन क्या परीक्षा की तैयारी करवाने की जगह मजदूरी करवाना उचित है? वे लिखते हैं कि बोर्ड की परीक्षाएं हैं, कल गणित का पर्चा है।तब शिक्षक क्या कहते हैं कि रात को पढ़ लियो...अब मेरे साथ चल, ईख बोना है।...ये जुल्म मेरी स्मृति में बहुत गहरे तक भरे हुए हैं जिनकी तपिश में मैं अनेक बार झुलसा हूं।’’28 कितनी भयावह स्थितियां रही हैं? क्या इंसान की जगह बंधुआ मजदूर बनाने की कवायद नहीं है यह ? यहीं कारण है कि भारतीय समाज में घनघोर अशिक्षा, अज्ञानता, अंधविश्वास, पाखंड, आदि व्याप्त है। यह बात मुर्दहियासे और पुष्ट हो जाती है जब डॉ.तुलसी राम लिखते हैं कि मूर्खता मेरी जन्मजात विरासत थी। आम भारतीयों को लिपि का ज्ञान नहीं है, इसलिए वे पढ़ लिख नहीं सकते।...सदियों पुरानी इस अशिक्षा का परिणाम यह हुआ कि मूर्खता और मूर्खता के चलते अंधविश्वासों का बोझ मेरे पूर्वजों के सिर से कभी नहीं उतरा।’’29 वहीं श्यौराज सिंह बेचैन लिखते हैं कि ‘‘उन दिनों मैंने छुट्टियों के दो ढाई महीने प्रेमपाल सिंह के लिए खूब काम किया था। फसल की कटाई और उठाई की। फिर बारिश हो गयी तो जुताई करते महीना गुजर गया। मैं अगर मुक्त होता तो उन दो तीन महीने में चिनाई यानी राज मिस्त्रीगिरी करके इतना कमा लेता कि आगे दो चार महीने बैठकर खाता पर मौका ही नहीं मिला। मास्साब ने स्कूल जाने का अवसर दिलाया था, इसलिए अपने निर्वाह के लिए कमाने खाने का स्वतंत्र निर्णय लेने के बजाय मैंने उनके घर बाहर के कामों को प्राथमिकता दी।’’30

मजदूरीऔर मूर्खताका समाजशास्त्रीय अध्ययन किया जाए तो यह बात स्पष्ट होती है कि दलित समाज को शिक्षा से वंचित करने के इतिहास के पीछे वर्णाश्रम व्यवस्था का सेवा करने का कर्म सिद्धांतहमेशा से काम करता रहा है। किसी किसी रूप में जाति व्यवस्था जातिवादी मानसिकता ने दलित समाज को शिक्षा से वंचित रखा है। दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय समाज की तथाकथित पारंपरिक शिक्षा व्यवस्था जातिवादी व्यवस्था के गिरफ्त में है। ‘‘किसी किसी रूप में जाति बीच में जाती थी। प्रायोगिक परीक्षाओं में अक्सर कम अंक मिलते थे जबकि लिखित परीक्षा में अच्छे अंक आते थे।’’31भारतीय समाज में शिक्षा के प्रति उदासीनता का सवाल भी दलित साहित्य के केंद्र में है। इस उदासीनता का कारण भी जातिवादी मानसिकता है। दलित समाज का छात्र कितना ही होनहार या कुशाग्र बुद्धि का हो, उसकी समस्याओं को ब्राह्मणवादी शिक्षकों ने कभी हल नहीं किया है। इसका कारण उस समाज की शिक्षा-दीक्षा के प्रति उदासीनता ही तो है। इस उदासीनता में शिक्षक की ब्राह्मणवादी मानसिकता काम करती रही है साथ ही दलित समाज के छात्रों का उसकी जाति का बोध कराना भी रहा है जिससे बालमन बहुत प्रभावित रहा है। वह हीनताबोध के शिकार होते रहे हैं। जबकि एक शिक्षक की भूमिका जाति से मुक्ति कराने की होनी चाहिए है, उनमें हीनताबोध नहीं बल्कि चेतना पैदा करना चाहिए यह तभी संभव है जब जाति की मानसिकता से मुक्त होकर जाति की संरचना और उसके निहितार्थ को बच्चों को समझाया जाए। जबकि स्थिति ठीक इसके विपरीत है। जाति की संरचना और उसके निहितार्थ को समझाने के बदले कुछ शिक्षक जाति के हीनताबोध और घृणा का भाव पैदा करते देखे जा सकते हैं। इसी कारण भारतीय शिक्षा व्यवस्था जनतांत्रिक नहीं बन सकी। जिसके परिणाम स्वरूप 21वीं सदी में भी भारतीय शिक्षा दयनीय स्थिति में है। ‘‘जब मैं उनसे (ओमदत्त त्यागी) किसी समस्या पर बात करता या अपनी कोई समस्या उनके सामने रखता था, वे सबसे पहले मेरे भंगीहोने को मुझे एहसास करा देते थे। उस समय मुझे लगता था जैसे मेरे सामने कोई शिक्षक नहीं, जातीय अहम में डूबा कोई अनपढ़ सामंत खड़ा है। राम सिंह कक्षा का सबसे श्रेष्ठ  छात्र था। कक्षा का ही नहीं बल्कि पूरे विद्यालय का। हरफनमौला, तेज, कुशाग्र लेकिन फिर भी था तो चमार ही। यह भाव छात्रों से लेकर अध्यापकों तक में था।’’32 वहीं सूरजपाल चौहान लिखते हैं कि ‘‘जाति का पुछल्ला ब्रह्मराक्षस की तरह सदैव मेरे पीछे लगा रहा। संस्कृत विषय पढ़ाने वाले अध्यापक वेदपाल शर्मा मुझे समय-समय पर जाति का ओछापन याद दिलाते रहे। मैं तड़प उठता था उस द्रोणाचार्य की बातें सुनकर। एक दिन अपने साथी आध्यापकों से मेरी ओर संकेत कर उसने कहा था-यदि देश के सारे चूहड़े-चमार पढ़ लिख गए तो गली-मौहल्लों की सफाई और जूते बनाने का कार्य कौन करेगा? उसकी इस बात का विरोध मेरे हिन्दी के अध्यापक श्री बाबूराम गुप्ता और चित्रकला के अध्यापक श्री राजेन्द्र सिंह ने किया था।’’33 क्या यह परिदृश्य भारतीय बालकों के लिए भयावह नहीं? क्या हमारा वर्तमान इन सब से मुक्त हो गया है ? क्या इन मानसिकता और व्यवस्था में दलित बचपन आज नहीं खत्म हो रहा है? ‘‘जीवन से लेकर मरण तक ही सारी गतिविधियां 'मुर्दहिया' समेट लेती थी। सबसे रोचक तथ्य यह है कि 'मुर्दहिया' मानव और पशु में कोई फर्क नहीं करती थी। वह दोनों की मुक्तिदाता थी।’’34 क्या शिक्षक मुर्दहियानहीं हो सकते हैं? निश्चय ही वे मुक्तिदाता हैं। अपितु शत प्रतिशत होना अभी बाकी है। यह सर्वविदित है कि बिना ज्ञान के विकास संभव नहीं। बिना शिक्षक के ज्ञान। दोनों में पूरक संबंध है। सामाजिक क्रांतिकारी महामानव ज्योतिबा फुले के दर्शन से इसे समझा जा सकता है


‘‘विद्या बिना मति गई, मति बिना गति गई

 गति बिना नीति गई, नीति बिना वित गई

 

 वित बिना शूद्र चरमराये, इतना सारा अनर्थ एक अविद्या से हुआ।’’35

 

ज्योतिबा फुले के इस कथन में शिक्षा के महत्व का मूल निहित है। अविद्या से अर्थात अज्ञानता यानी अशिक्षा से मानव की क्या गति हो सकती है, इसकी व्याख्या ज्योतिबा फुले की शिक्षा की अवधारणा करती है। शिक्षा मानव जीवन की मूलभूत आवश्यकता है। शिक्षा के बिना जीवन का व्यवस्थित होना संभव नहीं है और ही व्यवस्थित हुए जीवन जिया जा सकता है। शिक्षा को दो स्तरों पर देखा जा सकता है- एक व्यवहारिक ज्ञान के स्तर पर और दूसरा शास्त्रीय ज्ञान के स्तर पर। व्यवहारिक ज्ञान अनुभव आधारित होता है जबकि शास्त्रीय ज्ञान किताबी होता है, जिसका व्यवहारिकता से संबद्ध हुए बिना कोई मूल्य नहीं है। दूसरे रूप में इसे इस प्रकार भी देखा समझा जा सकता है। एक पाठ्यक्रम में पढ़ाए जा रहे पुस्तकों के आधार पर और दूसरा शिक्षक एवं शिक्षण-पद्धति के आधार पर। भारतीय समाज में पाठ्यक्रम में पढ़ाए जा रहे पुस्तकों में और विषय-वस्तु में अधिकतर ऐसी चीज पढ़ाई जा रही है जिससे समाज में चेतना का उत्स होता ही नहीं है। अर्थात एक विशेष प्रकार की मानसिकता तैयार की जाती है जिसका आधार ब्राह्मणवादी शिक्षण-पद्धति और ऐसे धार्मिक आधारित पुस्तकें है। वहां संवाद या सहकारिता की भावना का अभाव ही देखा जा सकता है। जिसके कारण बच्चों में सामाजिकता, सर्जनात्मकता और चिंतन के बीज ही नहीं पनप पाते हैं शिक्षाशास्त्री जॉन डेवी के शब्दों में कहें तो ‘‘स्कूल की कक्षा में सामाजिक संगठन के उद्देश्य एवं एकजुटता दोनों का अभाव है। जहां तक जातीयता का प्रश्न है, विडम्बना यह है कि आज का स्कूल समाज के भावी सदस्यों को एक ऐसे माध्यम से तैयार करता है जो सामाजिकता की भावना से शून्य होती है। मानव की अंतर्दृष्टि को विकसित करने के लिए स्कूल को सामुदायिक जीवन के एक वास्तविक स्वरूप के रूप में कार्य करना होगा, कि पाठ पढ़ाने वाली एक अलग इकाई की तरह। आज स्कूल अपने आपको एक स्वाभाविक सामाजिक इकाई के तौर पर संगठित नहीं कर सकता। इसका मूल कारण यह है कि इसमें साझी सृजनात्मकता और परस्पर सहानुभूति की भावना नहीं है।’’36 उदाहरण के तौर पर दलित आत्मकथाओं में व्यक्त शिक्षक के स्वभाव-मनोवृत्तियां और गैर दलित बच्चों का दलित बच्चों के साथ किए गए व्यवहार से समझा जा सकता है। इस संदर्भ में शिक्षक की मानसिकता और उसके अंतर्द्वंद्व को समझने की जरूरत है। जब शिक्षक का व्यवहार, सद्भाव और सौहार्द का नहीं है तो शिक्षार्थी से उसकी अपेक्षा गलत ही है। शिष्य पर इसका प्रभाव कोई आश्चर्य की बात नहीं। यह बात सभी आत्मकथाओं में देखने को मिल जाती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा जूठनमें यह दृश्य बेबाकी ढंग से आया है। जब शिक्षक उन्हें पढ़ने के बदले स्कूल के प्रागंण में गाली शब्द से संबोधित करते हुए झाड़ू से साफ करने को कहता है। स्कूल के हेडमास्टर कलीराम का कथन गौरतलब है -चूहड़े का है?’ मेरी कक्षा में बाकी बच्चे पढ़ रहे थे और मैं झाड़ू लगा रहा था पानी पीने तक की इजाजत नहीं थी।तुलसी राम को चमरकीटकहकर शिक्षकों के द्वारा संबोधित किया जाता था। प्रश्न किया जा सकता है कि क्या यही शिक्षा और शिक्षण-पद्धति का संदेश है या कुछ और? यदि इससे भिन्न शिक्षा का उद्देश्य है तो शिक्षाशास्त्रियों और सरकार को इस पर फिर से विचार करना चाहिए। यह दलित बच्चों के लिए ही नहीं बल्कि भारत के भविष्य के संकट का सवाल है। क्या हमारा वर्तमान इससे मुक्त हो गया है? क्या राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 इससे भारत को मुक्त करा पायेगी? समाज सहित विद्यालय में छुआछूत के अतीत और वर्तमान बचपन के लिए बहुत ही खतरनाक हैं। क्या छुआछूत का अतीत और वर्तमान दोनों अप्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष दलित बच्चों को शैक्षिक मूल्यों से वंचना का सवाल नहीं है? डॉ. तुलसीराम लिखते हैं कि ‘‘हम सभी दलित थे। मुंशी जी (अध्यापक मुंशी रामसूरत लाल) की उपस्थिति में हमें कोई अन्य बच्चा नहीं छूता था। ऐसे ही वातावरण में शुरू हुई मेरी शिक्षा।...शुरू-शुरू में अधिकतर बच्चे 'उपस्थित' शब्द का उच्चारण नहीं कर पाते थे जिस पर मुंशी जी अविलम्ब गालियों का बौछार कर देते थे। विशेषकर दलित बच्चों को वे चमरकिट कहकर अपना गुस्सा प्रकट करते। वे छोटी-छोटी गलती पर बच्चों से ही अरहर के बड़े-बड़े डंठल तोड़वाकर मंगाते और उसी से उनकी हथेली पर जोर-जोर से मारते तथा साथ में गालियां भी देते जाते। इस तरह पहली ही कक्षा में मुंशी जी का आतंक बच्चों पर छा गया।’’37 बच्चों पर शिक्षक का अनुशासनात्मक आतंक बच्चों की सृजनात्मक क्षमता को नष्ट कर देता है। यह काम ब्राह्मणवादियों के द्वारा एक योजनाबद्ध तरीके से किया जाता रहा है ताकि दलित-बहुजन छात्रों में हीनताबोध का बीज बोया जा सकें


        हीनताबोध मानव में आत्मविश्वास को पनपने नहीं देता है। जिस कारण उनकी चेतना जागृत नहीं हो पाती है और बिना चेतनशील हुए मानव सम्मानित जीवन नहीं जी सकता है। इस सन्दर्भ में डॉ. कमलानंद झा का मानना है कि ‘‘अनुशासन ही नहीं बल्कि शासन कर्तव्यबोध, गुरूभक्ति और आदर्श वाक्यों के सुनते-सुनते उनका(बच्चों का) चंचल और स्वच्छंद स्वभाव धीरे-धीरे खत्म होने लगता है।’’38 विद्यालय में छात्रों का सम्मान नहीं होता है जिस कारण उनमें आत्मविश्वास नहीं पैदा हो पाता है। ‘‘विद्यालय में छात्रों के अस्तित्व का सम्मान नगण्य होता है क्योंकि वहां सम्मान के अधिकारी सिर्फ अध्यापक होते हैं। फलस्वरूप छात्रों का व्यक्तित्व निर्मित ही नहीं हो पाता है। स्कूलों में प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्ति होने की शिक्षा दी जानी चाहिए। अध्यापकगण को छात्रों की ऐसी आत्मछवि निर्मित करने में भरपूर मदद करनी चाहिए जिसमें उन्हें महत्व का अहसास हो क्योंकि इसी महत्वबोध से उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न किया जा सकता है। छात्र और अध्यापक की इन्हीं परस्पर विरोधी आत्मछवियों के कारण भी अत्यंत प्रारंभिक कक्षा में ही अधिकांश छात्र विद्यालय छोड़ देते हैं। उनके पढ़ने-लिखने का सपना साकार नहीं हो पाता है। निश्चित रूप से इसका प्रमुख कारण अभिभावकों की अकिंचनता है। लेकिन जब प्राथमिक शिक्षा मुफ्त दी जा रही हो इसके बावजूद अगर अधिकांश छात्र विद्यालय छोड़ने पर विवश हो जाते हैं तो यह समझना चाहिए कि इसके मूल में शिक्षकों के स्वयं को महिमामंडित करने की भावना और छात्रों की दयनीयता है।’’39 इस महिमामंडित श्रेष्ठता ने समाज की शिक्षा व्यवस्था के समीकरण को अव्यवस्थित और असंतुलित किया है। मुर्दहियाइस बात की पुष्टि करती है कि-‘‘गांव के ब्राह्मण हमारे घर वालों से कहते कि ज्यादा पढ़ने से लोग पागल हो जाते हैं। इसलिए बच्चों को ज्यादा नहीं पढ़ाना चाहिए। ब्राह्मणों की इस सलाह से घर वाले शत प्रतिशत सहमत हो जाते थे। ब्राह्मण यह उदाहरण देते कि बभनौटी का कोई लड़का हाई स्कूल के आगे नहीं पढ़ता।’’40 ब्राह्मण समाज का कोई लड़का नहीं पढ़ सका इसलिए दलित समाज के बच्चों को नहीं पढ़ना चाहिए। यह बात ब्राह्मणवादियों की साजिश को उजागर करती है। और दलित समाज में शिक्षा के अभाव तथा उनकी दुर्गति के कारणों को सामने लाती है। जिस समाज में शिक्षा के मर्म को खोलने वाले शिक्षक की मानसिकता और प्रवृत्तियां ही शोषणपरक असमानता और छुआछूतपरक है उस समाज की क्या दिशा और दशा होगी? उसके ग्राफ को आप देख सकते हैं कि आजादी के लगभग पचहत्तर वर्ष बाद भी शिक्षा घर-घर नहीं पहुंच सकी है। अवसर मिलने और गलत मार्गदर्शन और शिक्षक के अमानवीय व्यवहार तथा शिक्षण-पद्धति के ब्राह्मणवादी स्वरूप के बीच कितने ओमप्रकाश वाल्मीकि, श्यौराज सिंह बेचैन और तुलसी राम आदि दफन हो गये होंगे। रोहित बेमुला, पायल तड़वी आदि उसी की परिणति हैं। उसे सिर्फ महसूसा जा सकता है। शिक्षण पद्धति या व्यवस्था या शिक्षक में शिक्षा के प्रति जो भेदभाव है उसका मुख्य कारण समाजशास्त्री टी.बी. बॉटमोर के शब्दों में इस प्रकार हैः ‘‘भारत में प्राथमिक शिक्षा की पूरी धारणा गांधी के सामाजिक दर्शन पर आधारित है जो स्वयं हिन्दूवाद से प्रेरित है, तकरीबन सभी शिक्षा से संबंधित सार्वजनिक विचारों में वर्तमान को शिक्षा की पारंपरिक हिन्दू व्याख्या से जोड़ा जाता है।’’41

शिक्षा व्यवस्था में सुधार और शिक्षण पद्धति के शोषणकारी स्वरूप को रोकने और बदलने के लिए शिक्षण संस्थान में दलित वर्ग के प्रतिनिधित्व का सवाल आया। इससे यह हुआ कि शिक्षण संस्थान में सभी समुदाय के लोगों की भागीदारी बढ़ी है। यह होना ही काफी नहीं है। इसके साथ राज्य का यह कर्तव्य भी बनता है कि शिक्षण पद्धति को वैज्ञानिक, चेतनशील और सृजनात्मक, लोकतांत्रिक बनाने के लिए पाठ्यपुस्तक में ऑथैंटिक विषय वस्तु पढ़ाई जाए और उसे समाज के साथ अर्थात अनुभव से संबंद्ध किया जाए, सिर्फ सैद्धांतिक नहीं बनाया जाए। यह बात तब व्यवहारिकता में बदलेगी जब समाज में शिक्षा का समाजशास्त्रीय विवेचन और लोगों की मानसिकता का विश्लेषण किया जाएगा। शिक्षा और शिक्षित अर्थात किताबी ज्ञान एवं तजुर्बा, अनुभव की शिक्षा के प्रति समाज की मानसिकता क्या है। यह बात इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि दलित आत्मकथाएं इसका पुख्ता प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।

अनुभवजन्य ज्ञान और किताबी ज्ञान के फर्क को समझने की जरूरत है। शिक्षण-अधिगम की प्रकृत्ति और व्यावहारिकता-सामाजिकता को एकमेक करने की आवश्यकता है। जॉन डेवी के अनुसार, ‘‘स्कूली जीवन में पेशे को केन्द्र बनाने से जो परिवर्तन आएगा। उसे शब्दों में बयान करना सहज नहीं है। यह प्रेरणा भावना का अंतर है। यह वातावरण का अंतर है।...जहां तक प्रतिस्पर्धा का सवाल है वह सिर्फ व्यक्तियों की तुलना तक सीमित होती है। वह किसी व्यक्ति विशेष द्वारा आत्मसात जानकारी की गुणवत्ता पर आधारित नहीं होती। उसे किए गए कार्य की गुणवत्ता के संदर्भ में देखा जाता है जो किसी भी समुदाय की गुणवत्ता मानक है। एक व्यापक अनौपचारिक तरीके से स्कूली जीवन सामाजिक आधार पर संगठित किया जाता है।...स्कूल में जो विशिष्ट पेशे सिखाए जाते हैं वे आर्थिक दबाव से मुक्त होते हैं। इनका लक्ष्य उत्पाद का आर्थिक मूल्य होकर सामाजिक शक्ति अंतर्दृष्टि का विकास करना होता है। संकीर्ण उपयोग से मुक्त होने के कारण मानव चेतना के लिए इनमें वे संभावनाएं बनती है। जो हमारे कला, विज्ञान इतिहास के केन्द्रों में दिखाई देती है।...स्कूल को अनुशासन सीखने का सर्वोत्तम केन्द्र माना जाता है लेकिन स्कूल को जीवन की सामान्य स्थितियों उद्देश्यों से इतना अलग-थलग कर दिया गया है वहां अनुशासन सीखना सबसे मुश्किल होता है क्योंकि अनुशासन का संबंध सृजनात्मक और चिंतनशील कार्य से है।...इस वातावरण द्वारा निर्धारित पेशों के आधार पर ही मानव ने अपनी ऐतिहासिकता राजनीतिक प्रगति की है। इन्ही पेशों के माध्यम से ही प्रकृति की भावनात्मक बौद्धिक व्याख्या संभव हो सकती है।’’42 सामाजिक व्यवस्था और उसके तंत्र में सभी वर्गों की भागीदारी व्यवस्था में लोकतांत्रिक पद्धति व्यवस्था के मूल्यों को विकसित करेगी। बात सिर्फ भागीदारी की नहीं है। सवाल वैचारिक दर्शन और मूल्यों की व्यवहारिकता की है। इस संदर्भ में डॉ. अम्बेडकर के विचार बहुत मार्मिक है। वे लिखते हैं कि ‘‘सामान्यतः यह देखा गया है कि शिक्षण संस्थान में दलित वर्ग के एक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था है। इन वर्गों का केवल एक प्रतिनिधित्व रखने की क्या उपयोगिता है। यह बात मेरी समझ में नहीं आती। उदाहरण के तौर पर अगर शिक्षण संस्थान में दलित वर्गों का प्रतिनिधि यह चाहे कि वे संस्थान से ऐसी नीति पास करा ले जो दलित वर्गों के हित में हैं तो उसके प्रयत्न व्यर्थ ही रहेंगे। बात साफ है कि दस, बारह सदस्यों के निकाय में एक व्यक्ति का कोई महत्व नहीं है।...सरकार किसी ऐसे निरीक्षक एजेंसी को अपने सीधे नियंत्रण में नियुक्त करे जो यह देखे कि वे निकाय जिनको शिक्षा जैसा महत्वपूर्ण काम सौंपा गया है दलितों की उपेक्षा करें।’…उनकी दूसरी महत्वपूर्ण बात है-दलित वर्ग में पिछड़ी जातियों को छात्रवृत्ति देने के लिए एक बजट में कुछ अलग धन रखा जाए। वह हर जाति के लिए जिन्हें वह पिछड़ी जातियां शब्दावली में सम्मिलित करना चाहते हैं अलग से निश्चित धन राशि नियत करें। तब हम यह जान पाएंगें कि मध्यवर्ती हिन्दुओं, पिछड़े हिन्दुओं और मुसलमानों की प्रगति साल दर साल कैसे हो रही है। आजकल हम सबको एक समान माना गया है जबकि वास्तव में ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि हम जितना चाहें कह लें कि हम एक हैं हम निश्चित रूप से एक दूसरे से अलग है।’…तीसरी बात छात्रवृत्ति से संबंधित है। उनका मानना है कि छात्रवृति से लड़का अपने लक्ष्य तक कभी नहीं पहुंच सकता। इसकी व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं कि 1. दलित वर्ग का लड़का बुरे माहौल में पलता है। 2. उचित दिशा निर्देशन के अभाव में उसे पढ़ाई छोड़ देनी पड़ती है। और इस प्रकार उस पर खर्च होने वाला धन बेकार हो जाता है। इस प्रकार के धन का उपयोग छात्रावासों की अभिवृद्धि के लिए करें, जिसे या तो सरकार खुद बनाए चलाए या यह काम पिछड़ी जातियों की शिक्षा को बढ़ावा देने वाली निजी संस्था करे। सबसे पहली बात तो यह है कि छात्रावास लड़कों को गंदे माहौल से दूर रखता है। उसे प्रभावी निरीक्षण उपलब्ध होता है और जब छात्रावास की व्यवस्था निजी संस्था द्वारा की जाएगी, तो सरकारी धन की कुछ बचत होगी।’’43 डॉ. अम्बेडकर की बातों से यह स्पष्ट होता है कि दलित वर्ग के छात्रों के लिए छात्रवृत्ति के साथ-साथ छात्रावास की व्यवस्था की जाए और उसका नियंत्रण या तो सरकार खुद करे या निजी संस्थान जो दलित वर्ग की शिक्षा के लिए प्रतिबद्ध हो और शिक्षा के वैचारिक मूल्य समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय की चेतना को विकसित करे। यह बात सिर्फ सैद्धांतिकी में नहीं व्यवहारिकता में होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो विकास के आधारभूत संरचना पर बल दिया जाना चाहिए।

दलित साहित्य में समय, समाज एवं परिवेश के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक जीवन के यथार्थ और दलित जीवन के प्रत्यक्षदर्शी कठोर अनुभवों को प्रामाणिकता से व्यक्त करने वाली सशक्त विधा आत्मकथा है। भूख दलित आत्मकथाओं की प्रधान संवेदना में से एक है। दलितों के लिए भूख सिर्फ रोटी की नहीं अस्तित्व का मामला है। भूख से लड़ने के उनके तौर-तरीके मनुष्यों की आदिम विरासत में चली आती अदम्य और उद्दाम जिजीविषा के अवशेष हैं। भूख के भयावह रूप दलित आत्मकथाओं में चित्रित हैं। दलित आत्मकथाएं अतीत, वर्तमान और भविष्य का स्वरूप गढ़ती हैं। बच्चों को भूख से बिलबिलाकर मौत की नींद सोने पर क्या दशा हो सकती है। इस दर्दनाक आपबीती को दोहरा अभिशापके आजी के दर्द से महसूस किया जा सकता है। उसे समझा जा सकता है। यह है दलित साहित्य की प्रामाणिक अनुभूति का यथार्थ क्या मीड-डे-मीलइसका समाधान है? जहां कुछ पल के लिए रोटी की भूख तो खत्म हो सकती है अपितु ज्ञान की, मानसिक भूख की तृप्ति एवं प्रबोधन नहीं। ओमप्रकाश वाल्मीकि के शब्दों में ‘‘…गरीबी और अभाव से किसी तरह निबटा जा सकता है जाति से पार पाना उतना ही कठिन है।’’44 क्या भारतीय शिक्षा व्यवस्था जातिवाद की गिरफ्त में नहीं हैं? जहां दलित बचपन का सौन्दर्य दम तोड़ रहा है? संघर्ष से स्वप्न तक की प्रक्रिया में ही जीवन सौन्दर्य फलता-फूलता है। परंतु द्रोणाचार्य के चक्रव्यूहमें बालक अभिमन्युका जीवन सौन्दर्य भी मुरझा जाता है, खत्म हो जाता है। संघर्ष की प्रक्रिया में कुछ भी असंभव नहीं है क्योंकि संघर्ष में समाज का सामाजिक तंत्र खुल जाता है। ‘‘दलित आत्मकथाएं भारतीय जीवन जगत के सच्चाई को हिन्दू व्यवस्था की सड़ांध को तथा उसके जहरीले और नुकीले पंजों को बेनकाब कर रही हैं।’’45 बेनकाब की यह प्रक्रिया लंबी भी है और सामाजिक परिवर्तनकामी भी, जिसमें जाति व्यवस्था का अंत संभव है नामुमकिन नहीं। आत्मकथाओं के माध्यम से ‘‘दलित बचपन भारत के बचपन का जो नया दृश्य प्रस्तुत करता है वह कई बार बचपन के प्रति घृणा पैदा करती है। यह घृणा असल में भारतीय समाज की अमानवीय और विषमतापूर्ण सभ्यता और संस्कृति के प्रति है। जो बचपन का गुणगान करने के आदी हैं, जो गौरवशाली भारतीय संस्कृति पर अभिमान करते हैं, लाजिमी है कि उन्हें दलित बचपन पर एतराज होगा क्योंकि ये बचपन अपनी समस्त विद्रूपता में उन्हें उनकी गौरवशाली भारतीय संस्कृतिका वास्तविक चेहरा दिखा रहा है। दलित बचपन में प्रवेश के लिए बहुत ज्यादा संवेदनशील और मानवीयता से परिपूर्ण हृदय चाहिए। इसमें दुखों, तकलीफों, वंचनाओं, अभावों की बेहद महीन और गहरी तहें और गिरहें हैं।...विकृत, विद्रूपित, अपमानित और किये जाने के बावजूद दलित बचपन रचनात्मक, विवेकशील, प्रतिभापूर्ण और साहसी है।...अपनी समग्रता में हमें यह एक ऐसी नयी दुनिया में ले जाता है जो एक बेहद रचनात्मक ऊर्जा और मानवीयता से परिपूर्ण है।’’46 बचपन और बालमन को वर्ण-जाति की सड़ांध व्यवस्था से मुक्त होने और करने की जरूरत है। बचपन बहुत खूबसूरत है और सौन्दर्यपूर्ण भी। 

निष्कर्ष : कहा जा सकता है कि दलित आत्मकथाओं में बचपन और बालमन के दो तरह के स्वरूप हैं- एक स्वरूप दलित समाज के बीच का है तो दूसरा गैर दलित समाज का। दलित समाज के पास अशिक्षा, अज्ञानता, मिथक, अभाव, वंचना, अपमान, हीनताबोध आदि के साथ वर्ण-जाति और धार्मिक सम्प्रदाय का माहौल है, जिसके कारण उनका बालमन और बचपन प्रभावित है। उनमें भटकाव, तनाव, संघर्ष, द्वंद्व, आक्रोश, चिड़चिड़ापन, तुनुकमीजाजी, खामोशी आदि का भाव है। वहीं दूसरी ओर वर्ण-जाति की श्रेष्ठता के कारण गैर दलित समाज में वर्चस्व और आक्रांता की संस्कृति है, जिससे वह अपनी ज्ञानात्मक और भौतिक दोनों सत्ता पर वर्चस्व स्थापित करता है और सभी मानवीय विकास की संस्थाओं पर कब्जा रखता है। वर्चस्व और आक्रांता की संस्कृति के माध्यम से ही वह समाज में शासन सत्ता को भौतिक और मानसिक दोनों रूपों में संचालित करता है। दलित समाज ने इन्हीं शासनसत्ता में केवल गुलामी की अवस्था को प्राप्त किये है बल्कि अपने जीवन सौन्दर्य के मूल्यों से भी वंचित रहा है। दलित आत्मकथाओं में अभिव्यक्त बचपन एवं बालमन जीवन विरोध एवं वर्चस्वशाली आक्रांति की संस्कृति से प्रभावित दुश्वार की जिंदगी जीता है तो वहीं जीवन-प्रेमी बौद्ध दर्शन, संत वाणियों, फुले दाम्पत्य और डॉ. अम्बेडकर के दर्शन, चिंतन एवं संघर्ष से संपृक्त मुक्ति एवं प्रतिरोध की संस्कृति से प्रेरणा प्राप्त कर जीवन सौन्दर्य की अथातोजिज्ञासा में संघर्ष से स्वप्न को साकार करता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि, तुलसीराम, श्यौराजसिंह बेचैन’, कौसल्या बैसंत्री, सुशीला टाकभौरे आदि का बचपन ऐसा ही है। ये विभूतियां अपने समाज के बचपन को प्रेरित एवं उत्साहित कर रही हैं और बचपन की मरूभूमि को रचनात्मक ऊर्जा तथा मानवीयता से पूरिपूर्ण नीर क्षीर से सिंचित कर रही हैं।

दलित आत्मकथाओं का अतीत और वर्तमान आज भारतीय समाज के सामने मानवीय मूल्यों एवं विकास से संबंधित अनेक सवालों का आवृत्त खड़ा कर रहा है। 21वीं सदी में भी मानवीय विकास निकष के लिए निर्धारित मानवीय संसाधन दलित समाज के अनुकूल नहीं है। मानवीय संसाधनों का अनुकूलित होना यह दर्शाता है कि दलित बचपन के विकास के लिए चक्रव्यूहऔर 'द्रोणाचार्य' की मानसिकता समाज-संस्थानों में अभी भी व्याप्त है। मानवीय विकास के सभी संसाधनों में उनका वर्चस्व एवं आधिपत्य है और सांस्कृतिक साम्राज्यवादतथा उसका अद्यतन स्वरूप सांस्कृतिक राष्ट्रवादकी धारणाएं, आचार-विचार, सामाजिक संरचनाओं, व्यवस्थाओं और संस्थाओं में संचालित हैं। जिसमें एकलव्यका अंगूठा ही नहीं कटता है बल्कि शम्बूककी हत्या और सीता-मीराका निर्वासन-निष्कासन भी मौजूद है। ये आत्मकथाएं हमें प्रेरित करती हैं कि हमें अपने आचार-विचार-आचरण-व्यवहार में सिर्फ लोकतांत्रिक होने की जरूरत है। सिर्फ जीवन में लोकतांत्रिक ही होने की जरूरत नहीं है बल्कि संस्थाओं को भी लोकतांत्रिक अभ्यास की जरूरत है। कार्यशैली में जीवन-प्रेमी और संवैधानिक होना भी अनिवार्य है तभी केवल दलित बचपन सुरक्षित, समृद्ध एवं विकासशील-विकसित हो सकता है बल्कि समृद्धशाली, कौशलयुक्त, समतामूलक समाज और राष्ट्र का निर्माण भी हो सकता है।


संदर्भ :

1.    . एस. नील, समरहिल (हिन्दी अनुवाद- पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा), एकलव्य प्रकाशन, भोपाल, पृ. 277
2.    डॉ. तुलसीराम, मुर्दहिया, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010, पृ. 9
3.    ओमप्रकाश वाल्मीकि, जूठन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 1997, पृ. 89
4.    वही, पृ. 12
5.    वही, पृ. 13
6.    वही, पृ. 14
7.    वही, पृ. 17
8.    . एस. नील, समरहिल, पृ. 278
9.    आनंद तेलतुमड़े, साम्राज्यवाद का विरोध और जातियों का उन्मूलन, ग्रंथ शिल्पी, 2010, पृ. 31
10. कौसल्या बैसंत्री, दोहरा अभिशाप, परमेश्वरी प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 20
11. वही, पृ. 20
12. वही, पृ. 37
13. वही, पृ. 39
14. वही, पृ. 75
15. वही, पृ. 38-39
16. सुशीला टाकभौरे, शिकंजे का दर्द, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011, पृ. 122
17. कौसल्या बैसंत्री, दोहरा अभिशापपृ. 47
18. वही, पृ. 53
19. वही, पृ. 54
20. श्यौराज सिंह 'बेचैन', मेरा बचपन मेरे कंधों पर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ. 383
21. डॉ. तुलसी राम, मुर्दहिया, पृ. 25
22. कौसल्या बैसंत्री, दोहरा अभिशाप, पृ. 54
23. वही, पृ. 54
24. ओमप्रकाश  वाल्मीकि, जूठन, पृ. 26
25. वही
26. वही, पृ.34
27. वही, पृ. 62
28. वही, पृ. 71-72
29. डॉ.तुलसी राम, मुर्दहिया, पृ. 9
30. श्यौराज सिंह 'बेचैन', मेरा बचपन मेरे कंधों पर, पृ. 401
31. ओमप्रकाश वाल्मीकि, जूठन, पृ. 71
32. वही, पृ. 79
33. सूरजपाल चौहान, तिरस्कृत, अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद, 2002, पृ. 16
34. डॉ.तुलसी राम, मुर्दहिया, भूमिका से
35. महात्मा जोतिबा फुले रचनावली, (सं.)एल.जी.मेश्रामविमलकीर्ति’, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996
36. जॉन डेवी, स्कूल और समाज (अनुवाद-सुशील कपूर), आकार प्रकाशन, दिल्ली, 2009, पृ. 12
37. डॉ.तुलसी राम, मुर्दहिया, पृ. 23-24
38. कमला नंद झा, मस्ती की पाठशाला, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, 2010, पृ. 37
39. वही, पृ. 38
40. डॉ. तुलसी राम, मुर्दहिया, पृ. 149
41. टी. बी. बॉटमोर, समाजशास्त्र (अनूवाद-गोपाल प्रधान), ग्रंथ शिल्पी, 2004, दिल्ली, पृ. 247
42. जॉन डेवी, स्कूल और समाज, पृ. 16
43. डॉ.अम्बेडकर संपूर्ण वांग्मय(खंड-3),डॉ .अम्बेडकर प्रतिष्ठान, कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, 1998, पृ. 61
44. ओमप्रकाश वाल्मीकि, जूठन, पृ. 28
45. राम चन्द्र, वर्ण-व्यवस्था के संत्रास और शिक्षा तंत्र की नग्नता को उकेरती है जूठन, जूठन: एक विमर्श, (सं.)शिवबाबू मिश्र, शब्द सृष्टि, दिल्ली, 2006,116
46. मुकेश मानस(सं.), मगहर-5 (दलित बचपन), जनवरी-2013, पृ. 4-5

 

प्रो. राम चन्द्र
भारतीय भाषा केंद्र, भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-110067
ramchandra.jnu@gmail.com, 9968293185
 
डॉ. प्रवीण कुमार
हिन्दी विभाग, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक, मध्यप्रेश-484887
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बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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