प्रसिद्ध बाल साहित्यकार कन्हैयालाल “मत्त” (1911-2003) के बाल कविता-संग्रहों में मुख्य रूप से दो कविता-संग्रह पाठकों में राष्ट्रीय भावना को जागृत कर देने वाली कविताओं के लिए जाने जाते हैं। इनमें पहला बाल कविता-संग्रह बढ़े चलो, भइ, बढ़े चलो!(1986) और दूसरा, आगे बढ़ो, जवान!(1986) है। मत्त जी ने देशभक्ति से परिपूर्ण अपने इन दोनों संग्रहों को क्रमशः प्रथम भाग व द्वितीय भाग कहा। प्रथम भाग, बढ़े चलो, भइ, बढ़े चलो!14 से 15 वर्ष तक के बालकों के लिए उन्होंने रचा और दूसरा भाग, आगे बढ़ो, जवान!तरुण पाठकों के लिएतैयार किया। मत्त जी ने ये देशभक्ति कविताएँ तय करके एक धुन में नहीं रच डालीं, बल्कि, यह कह सकते हैं कि समय-समय पर उनके भीतर उमड़ने वाली राष्ट्रीय भावनाओं का ये कविताएँ प्रतिफलन रहीं। प्रायः इस प्रकार से रचे गए साहित्य में सहजता का रस होता है| मत्त जी के इन संग्रहों में संकलित देशभक्ति में डूबी कविताओं में बालरुच्यानुसार सहजता व्याप्त है। इस संबंध में मत्त जी द्वारा लिखित बढ़े चलो, भइ, बढ़े चलो! पुस्तक में “दो शब्द” शीर्षक से उनकी भूमिका की कुछ पंक्तियां पढ़ी जा सकती हैं। वे लिखते हैं:“मैंने पहली बार सन्1941 ई. में चार—पाँचप्रयाण—गीत (मार्च—गीत) लिखे थे और उन्हें उसी वर्ष अपनी “लोरियां और बालगीत” नामक पुस्तिका में प्रकाशित कर दिया था। फिर, सन्1948—49 ई. में कुछ और मार्च–गीत लिखे, शेष गीत सन 1970–71 ई. में लिखे (पृ. 3)।”
इस तरह हम पाते हैं कि मत्त जी समय-समय पर अपनी रुचि के अनुसार देशभक्ति से संपृक्त बालगीत लिखा करते थे। मजेदार बालकविताओं और बालगीतों को लिखने के लिए पहचाने जाने वाले कन्हैयालाल जी का यह प्रयास अवश्य ही उल्लेखनीय है कि उन्होंने बच्चों के लिए मजेदार बाल गीत लिखते हुए भी राष्ट्रीय भावना को जागृत करने वाली कविताएँ लिखना नहीं त्यागा। इन कविताओं के पीछे उनका एकमात्र उद्देश्य था कि बच्चों में राष्ट्रीय भावना जागृत हो सके। पूर्व में कही गई भुमिका में वे आगे स्वयं लिखते हैं: “यदि इनके द्वारा बालकों के हृदय में राष्ट्रीय भावना जागृत हो सकी, तो लेखक अपना प्रयास पुरस्कृत समझेगा (पृ. 3)!”
राष्ट्र-गीतों के ही दूसरे संकलन आगे बढ़ो, जवान! की प्रस्तावना में कन्हैयालाल “मत्त” अपने इन प्रयाण-गीतों के पीछे के उद्देश्य को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं: “सांस्कृतिक आदान-प्रदान के युग को प्रारंभ हुए अभी थोड़ा ही समय व्यतीत हो पाया था कि देश में ‘संस्कृति के संकट’ के लक्षण प्रकट होने लगे| इस संकट ने जहाँ हमारी बौद्धिक दुर्बलता को उजागर किया है,वहाँ हमारे लोक मानस की कुछ विदेशोन्मुख प्रवृत्तियों की ओर भी संकेत किया है| इसके मूल में यही विषमता रही कि हम सांस्कृतिक निर्यात तो कम कर सके, आयात अवश्य बढ़ाते रहे और अब लगता है कि यदि इसी क्रम में आयात बढ़ता रहा, तो यह विदेशी ऋण एक दिन इतना बढ़ जायेगा कि हम उसका ब्याज भी चुकता न कर सकेंगे| यदि इस स्थिति का निराकरण अभीष्ट है, तो आज की सबसे बड़ी आवश्यकता यह हो जाती है कि राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण करने वाले तथा भारतीय गौरव के उद्बोधक साहित्य की पुनः प्राण-प्रतिष्ठा हो(पृ. 3)|”
यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इन दोनों संग्रहों में प्रयाण-गीतों की बहुलता होने के कारण मत्त जी ने इन्हें प्रयाण-गीत संग्रह कहा है| प्रयाण-गीत की संरचना और उसके विधायक तत्वों की बात करें तो डॉ. महेश उपाध्याय द्वारा संपादित पुस्तक गीत कवि रमेश रंजक में एक स्थान पर कहा गया है कि “ऐसे गीतों में कथ्य का संप्रेषण तीव्र गति से होना चाहिए| कानों में पड़ते ही यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कवि क्या कहना चाहता है| दूसरी विशेषता यह होनी चाहिए कि प्रयाणगीतों में राग एवं लय का प्रयोग लोकगीतों की तरह हो, अर्थात ऐसे राग में गीत होना चाहिए कि हर एक की जुबान पर आसानी से चढ़ सके| तीसरे, ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए जो आमफ़हम हो तथा जिन्हें सरलता से उचारित किया जा सके| इनके अतिरिक्त प्रयाणगीतों में ज्वाला का ताप होना चाहिए, न कि जल की शीतलता| उनमें गति, तीव्रता और उतार-चढ़ाव का ऐसा संयोजन होना चाहिए कि गाते हुए लोगों में सहज ही उत्साह का संचार होता चला जाए| भावों और विचारों में विशिष्टता होने से प्रयाण-गीत कमजोर पड़ जाते हैं| इसलिए भाव में सरलता और संगीत तथा विचारों में स्पष्टता और सुबोधता का होना अनिवार्य है (पृ. 80-81)|”
हिन्दी साहित्य में प्रयाणगीत की समृद्ध परंपरा रही है| इस परंपरा को केंद्र में रखते हुए उमाशंकर तिवारी अपनी पुस्तक आधुनिक गीतिकाव्य में विस्तार से प्रयाण-गीत पर दृष्टिपात करते हुए कहते हैं: “प्राचीन काल में राजाओं के दरबारों में चारण और भाँट आश्रित कवि के रूप में रहा करते थे जो युद्धकाल में आश्रयदाता एवं उसके सैनिकों को प्रोत्साहित करने के लिए वीर रसात्मक प्रयाण गीतों की रचना करते थे। वैदिक काव्य में ऐसे सूक्त पर्याप्त हैं जिनमें राजा की प्रशस्ति के समान योद्धाओं, अस्त्रों एवं दुंदुभि की स्तुति की गई है। इन सूक्तों को प्रयाण गीत की संज्ञा दी जा सकती है।“ वैदिक साहित्य से वर्तमान के प्रयाण गीत की प्राचीनता को जोड़ते हुए आलोचक तिवारी इसे युद्धकाल के लिए रचा जाने वाला साहित्य बताते हैं| अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वोहिन्दी साहित्य में इसके उद्भव और विकास की भी चर्चा करते है| वो लिखते हैं:“हिंदी साहित्य के उद्भव काल में ऐसे काव्यों की रचना बहुत की जाती थी। आधुनिक युग में राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत होने पर और स्वतंत्रता संग्राम के काल में देशवासियों को जाग्रत करने के लिए राष्ट्रवादी कवियों ने ऐसे अनेक गीतों की रचना की जिन्हें प्रयाण गीत कहा जा सकता है। ऐसे गीतों में संग्राम के लिए सन्नद्ध होने और आगे बढ़ने के लिए स्वातंत्र्य सैनिकों एवं देशवासियों को उद्बुध किया गया है। भारतीय कांग्रेस का झंडा-गान 'झंडा ऊँचा रहे हमारा' श्यामलाल गुप्त पार्षद द्वारा लिखित इसी प्रकार का अभियान गीत था जो स्वातंत्र्य युद्ध के काल में गाँव-गाँव में गूँजता था। विद्रोहयुग में जयशंकर प्रसाद, माखनलालचतुर्वेदी - एक भारतीय आत्मा, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्राकुमारीचौहान, सियारामशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', सोहनलालद्विवेदी, दिनकर आदि कवियों ने इस तरह के उद्बोधनात्मकप्रयाण गीतों की रचना की थी। इनमें से सर्वाधिक लोकप्रिय जयशंकर प्रसाद के चंद्रगुप्त नाटक का 'हिमाद्रितुंगश्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती' प्रयाणगीत है। महादेवी वर्मा का 'चिर सजग आँखें उनींदीं, जाग तुझको दूर जाना' शीर्षक गीत भी प्रयाण गीत ही है (पृ. 226)।” उमाशंकर जी द्वारा प्रयाण-गीतों के विषय में दिए गए प्रमुख साहित्यकारों को संज्ञान में लेते हुए एक व्यापक परिदृश्य के साथ कन्हैयालाल “मत्त” जी को पढ़ना अलग से एक आवश्यक शोधकार्य हो सकता है| हिन्दी साहित्य मेंप्रयाण-गीतों कीइसी समृद्ध परंपरा में कन्हैयालाल “मत्त” जी का योगदान भी विशेष रूप से बाल साहित्य में उनकी बढ़े चलो, भइ, बढ़े चलो!और आगे बढ़ो, जवान!के माध्यम से जाना और समझा जा सकता है|उपरिलिखित विषयों के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत पत्र में उनकी दोनों पुस्तकों में व्याप्त राष्टीयता के प्रेरक स्वरों का पुनःपाठ प्रस्तुत करने का एक प्रयास किया गया है|
बढ़े चलो, भइ, बढ़े चलो! : देशभक्ति से ओत–प्रोत सत्रह बालकविताओं से सजा-सँवराकन्हैयालाल “मत्त” कृत बाल कवितासंग्रहबढ़े चलो, भइ, बढ़े चलो! का प्रथम संस्करण काकली प्रकाशन, गाजियाबाद से सन् 1986 में आया| चित्रकार शेषचंद्र गुप्ता द्वारा उकेरे गए प्रभावशाली चित्रों के साथ इस संग्रह में कई शैली में रचे प्रयाण-गीत शामिल किए गए हैं| इनमें “ढम्ढम्ढम्ढम् ढोल बजा!,” “बढ़े चलो! बढ़े चलो!!,” “आज चले हम कदम बढ़ाकर,” “क्विक मार्च! क्विक मार्च!!,” “चाहे जान बला से जाये!,” “बढ़े चलो! भइ, बढ़े चलो!!,” “जागा भारतवर्ष महान!” आदि मार्च-गीत विशिष्ट हैं| साथ ही, संग्रह में बाल प्रार्थना “प्रभो! हमको दो यह वरदान!,” भारतीय झंडे के महत्व को दर्शाता गीत “झंडा ऊँचा रहे हमारा!,” भारत देश की महिमा का बखान करते बाल गीत “जय-जय भारतवर्ष प्यारा,” “हम हैं वीरों की संतान” तथा “जय भारत माता!,” सैनिकों के भीतर भरे वीरता के भावों को उजागर करती बाल कविता “सैनिक का प्रण,” “आज कुछ कर दिखलायेंगे!,” “देश के हम हैं पहरेदार!” एवं “हम भारत के वीर सिपाही,” बालकों में वीरता का गुण का विकास करने में समर्थ “हम हैं नन्हे वीर जवान!” जैसी रचनाएं भी संकलित हैं|
प्रयाण-गीतों में “क्विक मार्च! क्विक मार्च!!” शीर्षक से गीत मनोहारी और बाकी मार्च-गीतों से अलग है| पढ़ते हुए कोई भी बाल पाठक स्वतः “थम-खाली, एक-दो, एक-दो” करने की मुद्रा में मानसिक रूप से तैयार हो जाता है| इस गीत की पंक्तियाँ भी “एक-दो, एक-दो” की लय से बँधी हुई हैं| गीत में ऐसा आकर्षक रिद्म तो है ही, साथ ही, इसमें प्रयुक्त शब्दावली भी आज के बच्चों के बोलचाल की भाषा के अनुरूप है| उदाहरण के लिए ‘क्विक मार्च,’ ‘कप्तान,’ ‘फौजी शान,’ ‘रँगरूट,’ ‘खाकी सूट,’ ‘बूट,’ ‘बैटरी चार्ज’ आदि-आदि| अनावश्यक रूप से बच्चों को सिखाने के उद्देश्य से संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का प्रयोग न के बराबर है|दूसरे और तीसरे पद्यांश को पढ़ाते हुए तो बिल्कुल ऐसा अनुभव होता है कि पाठक युद्ध के मैदान में खड़ा हुआ है| दूसरा और तीसरा पद्यांश इस प्रकार से हैं :
“हम हैं भारत के रँगरूट / चले डालकर खाकी सूट/ मचक-मचक करते हैं बूट / मानो रहे तमंचे छूट / क्विक मार्च!क्विक मार्च!! / बड़े तोपची गोलंदाज/ बड़े अचूक निशानेबाज / नीचे हुई बैटरी चार्ज / ऊपर नभ में उड़े जहाज, / क्विक मार्च!क्विक मार्च!!(पृ. 19-20)”
इस प्रकार हम पाते हैं कि इन दोनों पद्यांशों में ‘मचक-मचक’ जैसे शब्द या ‘रहे तमंचेछूट’ जैसे पद बंद और ‘तोपची गोलंदाज,’‘अचूक निशानेबाज’‘नभ में उड़े जहाज’ आदि का उपयोग करने से युद्ध के मैदान का दृश्य सामने साक्षात् उपस्थित हो जाता है| इन दृश्यों के बादसकारात्मकता और विजय की भावना से युक्त ये अंतिम पंक्तियाँ विशेष रूप से उद्धरणीय हैं:
“करो न पल भी एक व्यतीत / गाते हुए चलो सब गीत / हम सबको हो रहा प्रतीत / होगी आज हमारी जीत / क्विक मार्च! क्विक मार्च!!(पृ. 20)”
इसी कड़ी में पुस्तक का शीर्षक प्रयाण-गीत “बढ़े चलो! भइ, बढ़े चलो!!” भी उल्लेखनीय है| इस गीत के हर एक छंद में क्रमशः ‘चरैवेति-चरैवेति,’ वीरता, निडरता, आशावादिता और सकारात्मकता के गुणों को पढ़ा जा सकता है जो बालक के चरित्र-निर्माण में आवश्यक कारक सिद्ध होते हैं| उदाहरण के लिए इस गीत का पहला और अंतिम छंद इस प्रकार से है :
“तुम हो बाँके वीर जवान, / बढ़े चलो! भइ,बढ़े चलो!! / बढ़ते रहना सदा महान, / बढ़े चलो! भइ,बढ़े चलो!! / अगर मोर्चे कठिन-कड़े हों, / बाधाओं के घन उमड़े हों, / पथ में कंटक-जाल पड़े हों, / तो, इन सबका यही निदान - / बढ़े चलो! भइ,बढ़े चलो!! /.. .. .. भूख-प्यास का करो न कुछ गम, / कैसा ही निर्मम हो मौसम, / चाहे हो अभियान कठिनतम, /होठों पर लेकर मुस्कान - / बढ़े चलो! भइ,बढ़े चलो!! (पृ. 21)”
इस् गीत को पढ़ते हुए जो बात पाठक को जाने-अनजाने सबसे अधिक आकर्षित करती है वह “भइ” शब्द का प्रयोग है| सामान्य रूप से हिन्दी भाषा में “भाई” शब्द का प्रयोग किया जाता है| इस गीत में "भाई" के स्थान पर देशज शब्द "भइ" का प्रयोग किया गया है| यह प्रयोग ही कई प्रकार से गीत को एक सफल प्रयाण-गीत बनाता है| बहुत ही आसानी से "बढ़े चलो, भइ, बढ़े चलो!" पंक्ति पाठक की जिह्वा पर आ जाती है| आम बोलचाल की भाषा का जोशीले अर्थ के साथ प्रयोग प्रयाण-गीतों को सच्चे अर्थों में शुद्ध रूप से प्रयाण-गीत बनाते हैं|
इस संकलन में अन्य प्रयाण-गीत भी फौजी शैली में यानी वीर रस से रोमांचित कर देने वाली लय में निबद्ध हैं| बड़ी बात यह है कि केवल रिद्म या लय के कारण ही रचनाकार कन्हैयालाल “मत्त” के गीत मनोहारी नहीं हैं, बल्कि उनमें शिक्षाप्रद कथ्य भी हैं जो बच्चों में आवश्यक गुणों के विकास में सहायक होते हैं| यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि प्रयाण-गीतों में जोशीले शब्दों और लय को अत्यंत सहज-सरल और स्वाभाविक बनाए रखने के लिए विचारशील मुद्दों या प्रसंगों को नहीं लाना चाहिए| किन्तु, यह मत्त जी का कौशल है कि वो शिक्षाप्रद कथ्य से भी अपने प्रयाण-गीतों को सजाते हैं| उदाहरण के लिए "हम हैं नन्हे वीर जवान!" नाम से गीत में वो बड़ी सहजता से महात्मा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री, भगत सिंह और जवाहरलालनेहरू जैसे आदर्श महापुरुषों के चित्र सँजो लेते हैं| रचनात्मक लेखन की क्रियाविधि और उसके प्रयोग से जुड़े कवि और विद्वानों को यह भलीभाँति मालूम है कि छंदोबद्ध कविता में नामों यानी संज्ञाओं को छंद के नियमों का पालन करते हुए कविता की पंक्तियों में स्थान दे पाना आसान कार्य नहीं है|आश्चर्य है, एक विशेष गति के साथ गाये जा रहे प्रयाण-गीत में भी मत्त जी छंद के नियमों का पूर्णरूपेण पालन करते हुए प्रेरक महापुरुषों के नाम शामिल कर लेते हैं :
"भारत माता की संतान, / हम हैं नन्हे वीर जवान! / हम हैं गांधी-से वरदानी, / लाल बहादुर-से सेनानी, / भगत सिंह के गर्म रक्त हम, / हमीं जवाहर की मुस्कान! / हम हैं नन्हें वीर जवान! / नहीं मुसीबत से घबराते, / पथ पर निर्भय कदम बढ़ाते, / आन-शान पर मिटे सदा ही, / अमर हमारे हैं बलिदान! / हम हैं नन्हें वीर जवान (पृ. 22)!"
किसी भी महान देश के लिए ऐसे मार्चिंगसॉन्ग अमूल्य निधि होते हैं| मत्त जी ने जो रचा है उसे आज सँजोने और सहेजने की अतीव आवश्यकता है| आज के बाल साहित्यकारों को भी उनसे प्रेरणा लेकर राष्ट्रीयता के सुरों से सजे ऐसे गीत रचने चाहिए|
इसी संकलन में उल्लेखनीय प्रयाण-गीतों के अतिरिक्त अन्य गीतों की विवेचना करें तो पाते हैं कि उनमें भी बालकों के चरित्र-निर्माण में सहायक कथ्यों और बहुत हद तक जोश से भर देने वाले लयों का सुंदर प्रयोग हुआ है, लेकिन उपर्युक्त प्रयाण-गीतों की अपेक्षा वे सीधे-सीधे शब्दों में प्रयाण-गीत नहीं कहे जा सकते हैं| इस संदर्भ में भारत देश की महिमा का बखान करने वाले गीत है जिनमें पुस्तक में सबसे पहले दी गई रचना "प्रभो! हमको दो यह वरदान!” शीर्षक से एक प्रार्थनाउल्लेखनीय है :
"प्रभो! हमको दो यह वरदान! / जननी जन्म-भूमि के हित में हों सहर्ष बलिदान! / जिससे हमने यह तन पाया, / सुख-दुख जिसकी छाया-माया, / चुका सके हम उस मिट्टी की ममता का प्रतिदान / प्रभो! हमको दो यह वरदान! मन हो शौर्य-भाव से दर्पित, / रण में हो यह शीश समर्पित, / मातृ-भूमि पर मर-मिटने का मिले हमें सम्मान! / प्रभो! हमको दो यह वरदान(पृ. 5)!"
इसी प्रकार “सैनिक का प्रण” रचना को भी उदाहरणस्वरूप लिया जा सकता है :
“बड़े सबेरे ही यह किसने रण का बिगुल बजाया है? / सोता था गहरी निंद्रा में, किसने मुझे जगाया है? /“सैनिक! उठ, क्यों पड़ा नींद में?” शुभ संदेश सुनाया है, / किसने मुझ रणधीर वीर को निज कर्तव्य बताया है? / किसकी मंगलमय अंगुलि मुझको सन्मार्ग दिखाती है? / किसने अभी कहा – “भारत-माता तुझ पर बलि जाती है”? / .... .. यदि मैं सच्चा सैनिक हूँ, तो यम से भी लड़ जाऊँगा, / वीरोचित गति पाने को बलिवेदी पर चढ़ जाऊँगा! / मरते-मरते भी जमीन पर सौ-सौ शत्रु गिराऊँगा, / जीने वालों की दुनिया में ‘अमर शहीद’ कहाऊँगा! (पृ. 13)”
इसी संकलन से दूसरा गीत "झंडा ऊंचा रहे हमारा!" शीर्षक से है| यह गीत झंडा-गान और प्रयाण-गीत दोनों की विशेषताओं का मिला-जुला रूप है| प्रायः झंडा-गीत को प्रयाण-गीत का एक प्रकार भी माना जाता है| इस गीत की लय किसी टोली-नायक द्वारा झंडा लेकर आगे बढ़ते हुए कदमताल के साथ संगत करती हुई सी प्रतीत होती है| साथ ही, जिस प्रकार से झंडा के महत्व को इस गीत में दर्शाया गया है उससे यह झंडा-गान सरीखा गीत भी मालूम होता है| इस प्रकार से दोनों की ही विशेषताओं से युक्त होना ही इस गीत की खूबी है जो बाल पाठकों को लुभाने में समर्थ है:
“तन, मन, धन, प्राणों से प्यारा, / झंडा ऊँचा रहे हमारा! / निर्भय धाक जमाने वाला,/ दुश्मन को दहलाने वाला, / विजय-मार्ग दिखलाने वाला, / नील गगन का मुक्त सितारा! / झंडा ऊँचा रहे हमारा! / जन्म-भूमि की शान यही है, / वीरों का अभिमान यही है, / सही राष्ट्र-सम्मान यही है / मातृ-भूमि का अटल सहारा! /झंडा ऊँचा रहे हमारा! / आओ, रे वरदानी, आओ, / भारत के सेनानी, आओ, /जग की मुक्ति-कहानी, आओ, /नभ-जल-थल में गूँजे नारा- /झंडा ऊँचा रहे हमारा(पृ. 8-9)!”
बालकों के व्यक्तित्व-निर्माण में सच्ची देशभक्ति की शिक्षा जो कट्टरता और अंधभक्तिसे इसके अंतर को समझा सके ऐसा आसान नहीं है| मत्त जी द्वारा “चाहे जान बला से जाये!” नाम से लिखे गए गीत को पढ़ते हुए यह ध्यान में आता है कि देशभक्ति का मतलब यह नहीं कि हम अपने देश की प्रशंसा करते हुए सदैव ही आत्ममुग्ध रहें| देश में कुछ क्षेत्रों में सुधार की भी आवश्यकता हो सकती है| जब इस बात का सही तरीके से भान होता है तब देशभक्त उसे सुधार भी सकता है| देश से जुड़ी व्यवस्थागतकमियों को जानकर भी एक देशभक्त के अदम्य साहस और वीरता में कोई कमी नहीं आने पाती है| इस प्रकार की देशभक्ति मेंडूबे उनके गीत “चाहे जान बला से जाये!” में देश के सैनिकों को अच्छी से अच्छी व्यवस्था न मिल पाने का दर्द और उसके बाद भी देश के लिए सब कुछ लुटा देने का जो भाव है पढ़ा जा सकता है :
“नहीं मोर्चे को छोड़ेंगे, / चाहे जान बला से जाये! / राशन अगर नहीं आया, तो- / पत्ते खाकर ही जी लेंगे| / बोतल खाली है पानी की, / तो अपने आँसू पी लेंगे| / नहीं कदम पीछे मोड़ेंगे, / चाहे जान बला से जाये! / वर्दी में सर्दी लगती है / तो, क्या काँप उठेगा यह तन? / इन छोटी-मोटी बातों से - /दहल उठेगा क्या अपना मन? / नहीं प्रतिज्ञा को तोड़ेंगे, / चाहे जान बला से जाये! / इस खाई में पड़े रहेंगे, / जब तक किला न फतह करेंगे| / पहला कदम हमारा होगा, / पीछे, सब मिल टूट पड़ेंगे| / आज विजय करके छोड़ेंगे, / चाहे जान बला से जाये(पृ. 24-25)!”
कुल मिलाकर यह बाल कविता-संग्रह बच्चों में वीरता और सच्चे अर्थों मेंदेशभक्ति से जुड़े गुणों का विकास तथा महापुरुषों और राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति सम्मान के भाव को जागृत करने में पूर्णरूपेण समर्थ है|
आगे बढ़ो, जवान! : प्रयाण-गीतों का यह संग्रह आगे बढ़ो, जवान! काकली प्रकाशन गाजियाबाद से हीवर्ष 1986 में प्रकाशित हुआ| निश्चित रूप से यह संग्रह ‘राष्ट्रीय चेतना एवं आत्मबलिदान की भावना से स्फूर्त’ प्रयाण-गीतों का संग्रह है| इसमें संकलित गीत मत्त जी द्वारा सन् 1970-71 ई. तक लिखे जा चुके थे| बीस राष्ट्र-गीतों वाला यह संग्रह तरुण-पाठकों को अनायास ही अपनी ओर आकर्षित करने में समर्थ है| जैसा कि हम जानते हैं कि किशोरावस्था मानसिक और वैचारिक स्तर पर उथलपुथल भरा होता है| ऐसे में किशोरों की सही दशा और दिशा तय करने में ऐसा साहित्य और विशेष रूप से देशभक्ति व आत्मबलिदान के रस में डूबा साहित्य सहायक सिद्ध होता है| इस संग्रह में अनेक रचनाएं जैसे भारत देश का और भारतीय महापुरुषों का गुणगान करती रचनाएं “हमारा भारतवर्ष,” व “लहरें हमारी संगिनी, सागर हमारा यार!,” राष्ट्रीय चिन्ह अशोक चक्र के महत्व पर आधारित “जय राष्ट्रीय निशान!,” सैनिकों को समर्पित “जय जवान! जय जवान!!,” तरुण सैनिकों के लिए आह्वान-गीत “तुम्हारे लिए ही अमरत्व का संदेश लाये हैं!,” “हम दमन करने चले हैं आज जन-संहारकों का!,” “अरे सिपाही, आँखें खोल,” “उद्घोष,” व “आगे बढ़ो, जवान!,” भावुकता के क्षणों को सँजोये देशभक्ति गीत “बहनें हमको विदा करें, हम रण में जाते हैं,” आत्मबलिदान की परंपरा को जगाए रखने वाला गीत “कूच युद्ध की ओर किया अब,” “बजा बिगुल, उड़ चली पताका!,” “उसका नाम जवानी है,” “आज हथेली पर सिर रखकर....,” “कदम हम निरंतर बढ़ाते रहेंगे” आदि सम्मिलित हैं|
मत्त जी को बाल साहित्य में आयु वर्ग के अनुसार साहित्य लेखन का सुंदर अभ्यास और ज्ञान रहा| इसकी परख के लिए उनके दोनों प्रयाण-गीत संग्रहों का तुलनात्मक अध्ययन यदि किया जाए तो ध्यान में आता है कि प्रयाण-गीतों के लिए जिस प्रकार की बालसुलभ भाषा और शैली का उपयोग बढ़े चलो, भइ, बढ़े चलो!(14-15 वर्ष तक के बालकों के लिए)में है, उससे ठीक विपरीत आगे बढ़ो, जवान! संग्रह में किशोरों और तरुणों(16 से 21 वर्ष के लिए) के अनुरूप संस्कृतनिष्ठ और शुद्ध हिन्दी के शब्दों का प्रयोग हुआ है| उदाहरण के लिए “हमारा भारतवर्ष” गीत की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार से हैं:
“जिसका उत्कट ज्ञान अखिल जगती का मार्ग-विधायक है, / जिसकी ऊर्जस्वलप्रतिभा का साक्षी स्वयं विभाकर है| / चाटुकारिता करता रहता जिसकी मलय-पवन दिन-रात, / जिसके पद-तल में लहराता करुणा-वरुणालय अवदात| / उषा समुज्ज्वलस्वर्ण-रश्मि से करती है जिसका अभिषेक, / प्रभुता का अनवरत जहाँ पर बहता है अविरल उद्रेक| / प्रबल पराक्रम की प्रचंडता का दिग्दर्शन जहाँ हुआ, / जिसकी शौर्य-पताका बनकर स्वयं हिमालय खड़ा हुआ| /.... भावी की उत्प्रेरक आशा, अतीत का मधुमय उत्कर्ष, / है प्राची की आन, सृष्टि की शान, हमारा भारतवर्ष (पृ. 5)!”
इस संकलन में भी मार्च कर रही किसी भी टोली या समूह के साथ-साथ कदम-ताल करते प्रयाण-गीत पढे जा सकते हैं| उदाहरण के लिए "बढ़ा चले कदम-कदम!" से कुछ लयात्मक पंक्तियां द्रष्टव्य हैं :
"बढ़ा चले कदम-कदम! / मिला चले कदम-कदम! / कदम-कदम मिला रहे, / स-रोष युद्ध-घोष का - / अटूट सिलसिला रहे, / उदग्र भीम-ताल पर, / बढ़ा चले कदम-कदम! / दुरंत दैन्य दूर हो, / शरण्य शूर-शूर हो, / प्रमत्त नेत्र-नेत्र से- / छलक रहा सुरूर हो, / उमंग की उछाल पर, / बढ़ा चले कदम-कदम! / चली चलें रवानियाँ, / बढ़ी चलें जवानियाँ, / हरेक वक्ष पर प्रशस्त - / रक्त की निशानियाँ, / उदक्त शत्रु-भाल पर, / बढ़ा चले कदम-कदम (पृ. 25)!"
इसी प्रकार से इस पुस्तक के शीर्षक वाला एक अन्य प्रयाण-गीत भी विशिष्ट लयात्मकता लिए हुए है जो इस तरह से है:
"ऊंचा रहे हमारा झंडा, / उड़ता रहे निशान! / आगे बढ़ो, जवान! / उन्नत भाल, वज्र-सी गर्दन, / लम्बी बाँहें शत्रु विमर्दन, / आँखें हों सक्रिय मशीन-गन, / जिसकी हर चिंगारी में हो लिपटा प्रलय विधान! / आगे बढ़ो, जवान! / मुख पर युवा तेज विखरा हो, / हृदय भावना से निखरा हो, / प्राणों में उत्साह भरा हो, / इतिहासों के स्वर्ण-पृष्ठ पर अंकित हो वलिदान! / आगे बढ़ो, जवान (पृ. 23)!"
इस गीत में आई "आँखें हों सक्रिय मशीन-गन" पंक्ति का तो कहना ही क्या? इसमें प्रयुक्त बिल्कुल नये प्रकार की उपमा प्रयाण-गीत के भाव को मन-मस्तिष्क तक पूरी तरह से पहुँचा देती है| प्रयाण-गीतों के संकलन का यह दूसरा भाग जो कि किशोरों के लिए है मद-मस्त हवा-सी बहती किन्तु अनुशासित लय में "उमड़ चलीं जवानियाँ!" शीर्षक से प्रयाण-गीत को भी सँजोये है :
"उमड़ चलीं जवानियाँ! / बिखर चला निखार है। / मचल चली चलाचली, / बहार ही बहार है! / उमंग अंग-अंग में, / उचंग की खिली कली। / सुगन्ध रन्ध्र-रन्ध्र से- / बखेरती हवा चली। / वसन्तअन्तरंग का - / बहिर्मुखी उफन चला। / पराग-राग ले नवीन, / मनचला चमन चला। / चलीं सु-कान्त कोंपलें, / विशाल वृक्ष भी चले। / धरा चली, गगन चला, / धुरीण अक्ष भी चले| / अचल चले, सचल चले, / अपोह-मोह गल चले। / समग्र अग्र-भाग के, / उदग्र सैन्य दल चले (पृ. 17)।"
बढ़े चलो, भइ, बढ़े चलो! में “ढम-ढम,” “मचक-मचक,” जैसे शब्दों अपेक्षा इसमें यानी आगे बढ़ो, जवान! में ध्वन्यात्मक प्रभाव या ध्वनि अनुकरण से संबंधित अलंकारविधान न के बराबर है| पूर्व के संकलन में राष्ट्रीयता और वीरता के गुणों का विकास के उद्देश्य से युद्धकालीन भावों को बड़े ही सलीके से 14-15 वर्ष के बच्चों की मासूमियत को ध्यान में रखते हुए उद्घाटित किया गया है| जबकि, किशोरों के लिए तैयार किए गए संग्रह आगे बढ़ो, जवान! में आत्मबलिदान, राष्ट्रीयता और वीरता के भाव पाठकों में भरने के उद्देश्य से शत्रु-देश से युद्ध से जुड़ी हिंसा, शत्रुता, हथियारों के प्रयोग आदि से संबंधित भाषा का प्रयोग सीधे-सीधे युद्ध के समय के चित्र उकेरते-से पढ़ने को मिलता है| उदाहरण के लिए “तुम्हारे ही लिए अमरत्व का संदेश लाए हैं!” नाम के राष्ट्र-गीत में वे लिखते हैं:
“तुम्हारे शत्रुओं ने भी तुम्हारे गान गाये हैं,/ तुम्हारे ही लिए अमरत्व का संदेश लाये हैं!/ उठो, तैयार हो जाओ की अस्त्रों से कमर कस लो, / तुम्हारा एक सेनानी गिरे, तुम भेंट में दस लो, / मरण की कल्पना में वास्तविकता का मधुर रस लो, / मिला है एक क्षण वरदान का, तो एक क्षण हँस लो, / तुम्हारे शौर्य ने इतिहास के पन्ने सजाए हैं, / तुम्हारे ही लिए अमरत्व का संदेश लाये हैं (पृ. 9)!”
“अरे, सिपाही,आँखें खोल!” नाम से एक अन्य गीत में चीन और भारत युद्ध के संदर्भ के साथ वो ‘युद्ध-देवता की जय बोल’ का आह्वान करते हुए हथियारों को उठाकर जवाब देने को लिखते हैं :
“अरे सिपाही,आँखेंखोल! / युद्ध-देवता की जय बोल! / उधर देख, वह कौन खड़ा है? / कहता-‘सीमा का झगड़ा है,’ / चल, उसका झगड़ा निपटाने / पड़े न हथियारों में झोल! / युद्ध-देवता की जय बोल! / स्वार्थ-नीति का चीर-दीवाना, / शत्रु बन गया मित्र पुराना / रंग बदलते इस गिरगिट की-/ खोल आज धमकी की पोल! / युद्ध-देवता की जय बोल! /.... नंगी तलवारों से तोल! / युद्ध-देवता की जय बोल (पृ. 11)!”
“कूच युद्ध की ओर किया अब” शीर्षक से गीत में भी कुछ ऐसा ही पढ़ा जा सकता है :
“कूच युद्ध की ओर किया अब, / दुनिया की कुछ चाह नहीं है| /मरने का कुछ खौफ नहीं है, / जीने की परवाह नहीं है| /.... आज चुनौती फिर आई है, / भड़क उठी सीमा पर गोली| / हम भी खूनी फाग रचा कर, / दुश्मन से खेलेंगे होली| / भीम-भयंकर विस्फोटों में, / जीवन के संगीत खिलेंगे|/ ‘धू-धू’ कर जलती तोपों में, / यौवन के वरदान मिलेंगे| / लगा उबलने रक्त नसों में, /आँखों में सुर्खी का पानी| /भौंहों पर चढ़ चलींकमानें, / मचल पड़ी मदमस्त जवानी(पृ. 13-14)!”
ऐसी ही उत्तेजक और वीर रस को जगाने वाली भाषा-शैली में मत्त जी एक अलग तरह से भी गीत के कथ्य को साधते हैं जब वो “हम दमन करने चले हैं आज जन-संहारकों का!” नाम से अपने गीत में कहते हैं कि प्रेम, करुणा, चिर-स्नेह आदि से पाशविकता, क्रूरता, कायरता आदि का दमन करना भी वीरता है| भारत की यह भी एक अलग अपनी पहचान है :
“हम दमन करने चले हैं, / आज जन-संहारकों का! / हम सु-यश गाने चले हैं, / आज जग-उद्धारकों का! / विश्व में निर्भीकता की ज्योति को हम जगमगा कर, / पाशविकता की प्रलय को प्रेम के जल से बुझा कर, / भाव भर देंगे सभी के - / हृदय में उपकारकों का! / हम दमन करने चले हैं, / आज जन-संहारकों का! / क्रूर कायर के हृदय में भाव करुणा के जगा कर, / पीड़ितों के घाव पर चिर-स्नेह का मरहम लगा कर, / हम सुनायेंगे संदेशा - / मर्म के उपचारकों का| / हम दमन करने चले हैं, / आज जन-संहारकों का (पृ. 10)!”
युद्ध कालीन प्रयाण-गीत की ऊपर चर्चा में आई इसी विशेषता से जोड़कर “अमन की राहों के हम हैं राही” नामक गीत को भी पढ़ा जा सकता है जिसमें युद्ध की पहल न करना, निर्माण और विकास में विश्वास, दुश्मन के मन और विश्वास को जीतना, क्षमा, दर्दमंदी, इखलाक, प्रेम, शांति आदि मानवीय मूल्यों को प्रयाण-गीत में जोड़ा गया है| वो लिखते हैं:
“हम अपनी किस्मत के खुद धनी हैं, / है जंगखोरों से हमको नफ़रत| / जहाँ हो निर्माण की समस्या, / वहाँ उलझने की किसको फुरसत? / मगर, शरारत के कुछ शरारे, नये-नये गुल खिला रहे हैं, / अमन की राहों के हम हैं राही, यकीन सबको दिला रहे हैं| /हमारे हथियार हैं क्षमा के, / कि हम से है सुर्खरू शहादत| / हमारा मजहब है दर्दमंदी, / हमारा इखलाक है इबादत| / हमें लुटाना है प्यार उन पर, जो दर्द से तिलमिला रहे हैं, / अमन की राहों के हम हैं राही, यकीन सबको दिला रहे हैं (पृ. 32)|”
निष्कर्ष : मत्त जी के प्रयाण-गीतों की प्रमुख विशेषताओं की संक्षेप में चर्चा करें तो प्रमुख रूप से हम पाते हैं कि उनके प्रयाण-गीतों की यात्रा सहजता के साथ संभव हुई है| उनके ये गीत बाल साहित्य में आयु वर्ग को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं| यही कारण है कि दो भागों में संकलित मनोहारीगीतों की भाषा, शैली, छंद और कथ्य अलग-अलग हैं| एक संकलन में हम उन्हें आम बोलचाल की भाषा के साथ पाते हैं, तो दूसरे संकलन में तरुणों के लिए रचे गए गीतों में उनके रुचि के अनुरूप संस्कृतनिष्ठ और उर्दू के क्लिष्ट शब्दों के संयोजन के साथ पढ़ और गा रहे होते हैं| प्रयाण-गीतों के लिए आवश्यक छंद और लयात्मकता की पहचान होने के कारण औचित्यपूर्णसंगीतात्मकता उनके गीतों में सुनने और अनुभव करने को मिलती है| लोकगीतों की तरह सरलता होने से जिह्वा पर चढ़ जाने वाले देशज और आम जन की भाषा का उपयोग जहाँ-तहाँ दिखाई पड़ता है| उनके प्रयाण-गीत संकलनों में प्रयाण-गीत के अन्य प्रकार जैसे झंडा-गीत, अभियान-गीत, आह्वान-गीत आदि भी शामिल हैं| गीतों में लय को साधते हुए सहजता के साथ शिक्षाप्रद कथ्य, प्रसंग आदि शामिल कर लेना मत्त जी का विशेष कौशल है| एक विशेष गति के साथ गाये जा रहे प्रयाण-गीत में भी मत्त जी छंद के नियमों का पूर्णरूपेण पालन करते हुए प्रेरक महापुरुषों के नाम शामिल कर लेते हैं| कट्टरता और अंधभक्ति से अलग सच्चे अर्थों में देशभक्ति की शिक्षा देने वाले गीत-साहित्य को भी उनके प्रयाण-गीतों के माध्यम से पढ़ा जा सकता है| भाषा के स्तर पर किसी खास भाषा संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी आदि के प्रति तनिक भी दुराग्रह नहीं है| छंद और कथ्य की आवश्यकता के अनुरूप बोल-चाल में प्रयोग की जाने वाली दूसरी भाषाओं के शब्द उनके प्रयाण-गीतों को और अधिक प्रभावशाली बनाते हैं|जोश और वीरता के भाव जगाने वाले ध्वन्यात्मक प्रभाव या ध्वनि अनुकरण से संबंधित अलंकारविधान भी उनके प्रयाण-गीतों की मुख्य विशेषता है| युद्धकाल में लिखे जाने वाले प्रयाण-गीत जैसे साहित्य में भी उन्होंने सच्ची भारतीयता की पहचान करते हुए मानवीय मूल्यों को विशेष स्थान दिया है| सारे ही गीत राष्ट्रीय चेतना एवं आत्मबलिदान की भावना से स्फूर्त हैं| इन विशेषताओं के साथ कन्हैयालाल “मत्त” जी के बाल साहित्य में राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत उपर्युक्त दोनों ही बाल कवितासंग्रह भारतीय बाल साहित्य के लिए मूल्यवान धरोहर हैं|सौद्देश्य बाल साहित्य का आनंदपूर्ण सहज और रोचक निर्माण करते हुए किस प्रकार से देशभक्ति, वीरता एवं राष्ट्रीयता के सुरों को प्रमुखता दी जा सकती है इसे मत्त जी के बाल कवितासंग्रह (प्रयाण-गीतसंग्रह) बढ़े चलो, भइ, बढ़े चलो! और आगे बढ़ो, जवान! को पढ़ते हुए सीखा और समझा जा सकता है|
- महेश उपाध्याय, (संपा.). गीत कवि रमेश रंजक, नई दिल्ली: पुस्तकायन, 2002
- उमाशंकर तिवारी, आधुनिक गीतिकाव्य, नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 1997
- “मत्त,” कन्हैयालाल. बढ़े चलो, भइ, बढ़े चलो!, गाजियाबाद: काकली प्रकाशन, 1986
- ---. आगे बढ़ो, जवान!, गाजियाबाद: काकली प्रकाशन, 1986
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