शोध सार : हिंदी बाल साहित्य के वर्तमान दौर अर्थात् इक्कीसवीं सदी को केंद्र में रखकर लिखे गए प्रस्तुत शोध आलेख में एक विधा के रूप में हिंदी बाल साहित्य के विकास यात्रा को रेखांकित किया गया है|सर्वप्रथम बालसाहित्य को परिभाषित करते हुए इसके इतिहास का संक्षिप्त विवरण दिया गया है| तत्पश्चात हिंदी बाल साहित्य की उत्पत्ति से लेकर इसके वर्तमान स्वरुप तक आने में कौन-कौन से प्रमुख दौर आए जिसने इसकी विकास यात्रा को प्रभावित किया,इस विषय की गहन पड़ताल की गयी है|बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में देश की सामाजिक स्थिति में आए बदलाव एवं आधुनिकीकरण ने कैसे बाल साहित्य का वर्तमान स्वरुप तय किया इसकी चर्चा की गयी है| बालकों के बदलते हुए मानसिक स्वरुप तथा रुचियों को केंद्र में रखते हुए इक्कीसवींसदी में बाल साहित्य की रचना करते हुए इन विशेष बातों का ध्यान रखने की जरुरत है इस विषय पर भी प्रमुखता से बात की गयी है|
बीज शब्द : बाल साहित्य,सभ्यता, साहित्यिक विधा,मनोविज्ञान, आधुनिकीकरण,मीडिया, मनोरंजन,नैतिकता, प्रयोगात्मकता, परंपरा, तकनीक|
शोध आलेख : मानव सभ्यता के इतिहास में कथा कहने की परंपरा प्राचीन काल से ही विद्यमान रही है| मनोरंजन के उद्देश्य से कही जाने वाली ये दन्त कथाएँ मानवीय जीवन में शिक्षा एवं संस्कार देने का कार्य भी करती आई है| रोचक ढंग से तथा कल्पना का पुट देकर दैनिक जीवन से जुड़े क्रिया-कलापों को दन्त कथाओं के रूप में प्रस्तुत करने तथा इसके माध्यम से मानव जाति के ह्रदय की भावनाओं का परिष्कार करने की संस्कृति प्राचीन काल से ही विश्व की लगभग समस्त भाषाओं में लोककथा के रूप में विद्यमान रही है| कहानी कहने की इसी मौखिक परंपरा का विकास जब कालान्तर में लिखित रूप में हुआ तो इसने एक साहित्यिक विधा का रूप ले लिया|
बाल साहित्य क्या है? : साहित्य को समाज की भावनाओं का परिचायक माना जाता है|सामान्यतया जब हम सामाजिक संगठन की बात करते हैं तो इसमें स्त्री तथा पुरुषों के सहभागिता को रेखांकित करते हुए अपनी बात पूरी कर लेते हैं|परंतु समाज में स्त्री तथा पुरुष के साथ-साथ बच्चों का भी एक वर्ग होता है जिनकी कोमल भावनाओं को वाणी देने का कार्य भी साहित्य का ही हैं|साहित्य का यह दायित्व भी बनता है कि वो बालमन तक पहुंचें तथा उनकी भावनाओं को अभिव्यक्ति दें|सामान्य रूप से बालकों की भावनाओं को केंद्र में रखते हुए जिन साहित्य की रचना की गयी उन्हीं को बाल साहित्य की संज्ञा दी जाती है|बाल साहित्य, साहित्य की अन्य विधाओं से इस मामले में भिन्न है कि जहाँ अन्य विधाओं में मनोरंजन आवश्यक शर्त नहीं है वही बाल साहित्य में मनोरंजन का स्थान सर्वोपरि है| रचनाकार जबतक अपनी कृति को दिलचस्प न बनाएं तब तक वह कृति बालमन से जुड़ ही नहीं पाएगी|बालकों के परिप्रेक्ष्य में साहित्य का काम केवल भावनाओं का परिष्कार नहीं बल्कि यहाँ मनोरंजन के माध्यम से संस्कार देने के साथ ही उनकी रूचि तथा सौन्दर्यबोध को जागृत करने का जिम्मा भी साहित्य का ही होता है|
बाल साहित्य का इतिहास : बाल साहित्य की अपनी एक विकास यात्रा रही है जिसपर ध्यानाकर्षित करने पर हम पाते हैं कि सबसे पहले मौखिक रूप से लोक-कथाओं के अंतर्गत बालकों को नैतिकता का ज्ञान देने तथा उनके मनोरंजन के लिए बाल केन्द्रित किस्से-कहानियों की शुरुआत हुई|लोक-कथाओं एवं दन्त-कथाओं में तो बाल साहित्य पीढ़ियों से मौखिक रूप में चला आ रहा है|अकबर-बीरबल, तेनालीरामा तथा शीत-बसंत की अनेक कथाएँ बच्चें अपने दादी-नानी से सुनते रहे हैं|इन कहानियों ने हिंदी बाल साहित्य की उचित पृष्ठभूमि तैयार करने में काफी मदद की|
वाचिक परम्परा से होते हुए जब हम लिखित परंपरा की तरफ आते हैं तो सर्वप्रथम संस्कृत साहित्यके अंतर्गत वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद् भगवद्गीता, वाल्मीकि कृत रामायण का बाल काण्ड तथा कालिदास द्वारा रचित उत्तररामचरित में बाल-लीलाओं का वर्णन दिखता है|इसके पश्चात पंचतंत्र तथा हितोपदेश की कथाएँ हमारे समक्ष उपस्थित होती है जिसका उद्देश्य राजा के बालकों को नीतिगत शिक्षा देना था|इस तरह सर्वप्रथम व्यक्तित्वनिर्माण को केंद्र में रखते हुए बाल साहित्य की रचना की गयी|परंतु हम जानते हैं कि उपरोक्त रचनाएँ संस्कृत भाषा की हैं| जब हम हिंदी भाषा के अंतर्गत बाल साहित्य के आरम्भ पर दृष्टिपात करते हैं तो हमारे समक्ष चौदहवीं से पंद्रहवीं शताब्दीका समय आता है जब अमीर खुसरो की पहेलियों , सूरदास की बाल लीलाओं,जगनिक के ‘आल्हा खंड’ तथा राजस्थानी कवि जटमल की रचना ‘गोरा बादल’ इत्यादिमें बाल साहित्य संबंधी तत्व दृष्टिगोचर होते हैं| हालाँकि इस तथ्य को हिंदी के चर्चित बाल साहित्यकार निरंकार देव सेवक, जयप्रकाश भारती, डॉ. दिग्विजय कुमार सहाय जैसे विद्वान् स्वीकार करते हैंपरंतु फिर भी यह विवाद का विषय है कि हिंदी में बाल साहित्य का सटीक आरम्भ कब से माना जाए|वैसे तो अधिकांश विद्वान् सूरदास रचित श्री कृष्ण की बाल-लीलाओं को बाल रचना का प्रारंभिक बिंदु मानते है परंतुयह स्थापना इसलिए भी अधिक सशक्त रूप से नहीं टिक पायी क्योंकि सूरदास ने मनोवैज्ञानिक रूप से बालकों को केंद्र में रख कर बाल-लीलाओं की रचना नहीं की वरन भक्तों के ह्रदय में वात्सल्य भाव जागृत कराना उनका लक्ष्य था|सूरदास तथा तुलसीदास द्वारा कृष्ण एवं राम के बाल-लीलाओं के अत्यंत सुन्दर एवं मनोहारी दृश्य प्रस्तुत किए गए हैं,जिससे बाल साहित्य कोश की वृद्धि तो हुई है परंतु इसमें समस्या यह रही कि हिंदी ने संस्कृत साहित्य की परंपरा से जो विरासत में ग्रहण किया वह बाल साहित्य से अधिक वात्सल्य की भावना को उद्घाटित करने वाला साहित्य था जिसके केंद्र में वयस्क थे|हिंदी प्रदेश का बाल साहित्य इस परंपरा का अधिक समय तक निर्वहन नहीं कर सका क्योंकि वयस्कों को केंद्र में रखकर लिखी गयी इन रचनाओं में कोमल बाल मन हेतु कुछ भी प्राप्य नहीं था|बहरहाल, पंचतंत्र, हितोपदेश, कथा सरित्सागर एवं सिंहासन बत्तीसी जैसी सरल एवं बालमन को आकर्षित करने वाली रचनाएँ जब प्रकाश में आई तब बाल साहित्य की एक पृष्ठभूमि तैयार हुई|
बाल साहित्य का आधुनिक रूप : हिंदी बाल साहित्य विधाके वास्तविक रूप की बात करें तो इसका प्रारंभ आधुनिक काल यानि उन्नीसवीं सदी के नवजागरण से माना जा सकता है|उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्धतथा बीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक आते-आते हिंदी बाल साहित्य ने आधुनिकता का प्रभाव ग्रहण कर लिया था जिसकी शुरुआत पत्रिकाओं से हुई|आधुनिक हिंदी के निर्माताओं में भारतेंदु हरिश्चंद्र की भूमिका अग्रणी है|उन्होंने वर्षों से चली आ रही गद्य एवं पद्य की ब्रजभाषी परंपरा से निकलकर साहित्य को बोलचाल की भाषा के करीब लाने का प्रयास किया|नाटक, निबंध और कविता जैसी विधाओं में पारंगत भारतेंदु जी ने बाल साहित्य की ओर भी ध्यान केन्द्रित किया तथा 1882 ई. में बाल-दर्पण नाम की पत्रिका शुरू की|इस पत्रिका का प्रकाशन बच्चों की जिज्ञासा और मनोविज्ञान को केंद्र में रखते हुए आरम्भ किया गया परंतु साधन एवं पैसों की अभावग्रस्तता के कारण इस पत्रिका का प्रकाशन 1884 ई. में बंद हो गया| इस अल्पकालिक परंतु महत्वपूर्ण शुरुआत ने उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बाल साहित्य को पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही सही परंतु गति प्रदान की|विभिन्न हस्तलिखित पत्रिकाओं और पोस्टरों के छपाई की शुरुआत हुई जिसने बाल पाठकों को अपनी और आकर्षित किया|‘बाल-हितकर’, ‘छात्र-हितैषी’, ‘बाल-प्रभाकर’, ‘बाल-मनोरंजन’तथा ‘विद्यार्थी’ जैसी पत्रिकाओं ने बाल साहित्य के क्षेत्र में नए आयाम स्थापित किए|
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में शुरू हुई बाल साहित्य की इस परंपरा ने बीसवीं शताब्दी आते-आते गति पकड़ी| इस दौरान बालकों के मनोविज्ञान तथा परिवेश को केंद्र में रखते हुए काफी रचनाएँ की गयी| ‘वानर’, ‘कुमार’ तथा ‘मनमोहन’ जैसी बाल पत्रिकाओं के प्रकाशन ने बाल साहित्य को अत्यधिक प्रोत्साहित किया तथा कई समर्थ बाल साहित्यकार पैदा किए|श्रीधर पाठक तथा अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जैसे वरिष्ठ रचनाकारों ने भी इन पत्रिकाओं में बालकों के लिए रचनाएँ की| तत्पश्चात मैथिलीशरण गुप्त,कामता प्रसाद गुरु, रामनरेश त्रिपाठी,बाबू गुलाबराय,सोहनलाल द्विवेदी,सुभद्राकुमारी चौहान तथा रामधारी सिंह दिनकर ने भी बाल साहित्य को अपनी रचनाओं से समृद्ध किया| स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु चल रहे संग्राम के उस युग में सामाजिक जागरण तथा क्रांति अपने चरम पर थी| स्वाभाविक रूप से उस समय के साहित्य पर भी इसका प्रभाव दिखता है|अतः उस दौरान लिखे गए बाल साहित्य में भी आदर्शवादी, नीतिपरक तथा देशप्रेम से ओत-प्रोत रचनाएँ लिखी गयी| छात्रों को आदर्श रूप में जीवन जीने हेतु प्रेरित करने के लिए उपदेशपरक रचनाएँ की जाने लगी| क्योंकिसाहित्यकारों को बालकों के नैतिक शिक्षा एवं व्यावहारिक ज्ञान हेतु समृद्ध बाल साहित्य की उपयोगिता महसूस हुई अतः वे उस क्षेत्र में प्रयासरत हो गए|ठाकुर श्रीनाथ सिंह, लल्ली प्रसाद पांडे, द्वारका प्रसाद माहेश्वरी,निरंकार देव सेवक तथा विष्णुकांत पाण्डेय जैसे रचनाकारों की एक पूरी पीढ़ी ने बाल साहित्य के विकास हेतु कटिबद्ध होकर रचनाएँ की|इनके प्रयासों से अंततः हिंदी में बाल साहित्य को एक ठोस आधार एवं निश्चित स्वरुप प्राप्त हुआ|इनसे प्रेरणा लेकर कालांतर में शकुंतला सिरोठिया, श्री प्रसाद, चंद्रपाल सिंह यादव,शम्भुप्रसाद श्रीवास्तव, स्वर्ग सहोदर, मयंक, हरिकृष्ण देवसरे,नारायणलाल परमार, शंकर सुल्तानपुरी,दामोदर अग्रवाल, सत्येन्द्र शर्मा, राष्ट्रबंधु, जयप्रकाश भारती, चक्रधर नलिन, विनोदचंद्र पाण्डेय और शोभनाथ लाल जैसे बाल साहित्यकारों की एक विधिवत् श्रृंखला हमारे समक्ष उपस्थित होती है जिन्होंने अपनी लेखनी से बाल साहित्य को एक बहुआयामी विस्तार दिया|इनका साहित्य हिंदी बाल साहित्य के लिए एक धरोहर है|
स्वातंत्रयोत्तर हिंदी बाल साहित्य
: स्पष्ट है कि बीसवीं सदी के शुरुआत से मध्य तक आते-आते बाल साहित्य केन्द्रित रचनाओं का विकास हुआ|परंतु इसके सृजनात्मकता की निरंतरता तथा एक सुदृढ़ स्थिति का अभाव स्वतंत्रतापूर्व तक बना रहा|स्वतंत्रता के पश्चात इस सम्बन्ध में स्थिति थोड़ी बेहतर हुई|1947 ई. के बाद देश में बाल साहित्य से सम्बंधित अनेक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ| हम जानते हैं कि हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु बच्चों के प्रति अत्यधिक स्नेह भाव रखते थे| समाजवाद के प्रबल समर्थक के तौर पर वे देश के हर वर्ग के नागरिक की बेहतरी सुनिश्चित करना चाहते थे|वे देश के भविष्य के रूप में बच्चों को देखते थे तथा मानते थे कि शिक्षित बचपन ही एक सुदृढ़ भविष्य की नींव है| वे चाहते थे कि देश के बच्चे शिक्षित होकर भारत को शीघ्रातिशीघ्र विकसित देशों के समकक्ष खड़ा करें| अतः वे नौनिहालों हेतु वैज्ञानिक शिक्षा की अनिवार्यता स्वीकार करते थे|इसी दूरदर्शिता के परिणामस्वरूप देश में राष्ट्रीय बाल भवन तथा चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट की स्थापना हुई|नेहरु जी के इन प्रयासों के पश्चात देश के बुद्धिजीवियों का ध्यान हमारे नौनिहालों की ओर गया तथा वे बाल मनोविज्ञान जैसे उपेक्षित विषय की ओर प्रभृत हुए|इसके साथ ही शिक्षा के प्रसार, विज्ञान की बढती पैठ,देश के बुद्धिजीवियों का बढ़ता अंतर्राष्ट्रीयसंपर्क तथा प्रिंट मीडिया के साथ-साथ दृश्य और श्रव्य मीडिया के क्षेत्र में आई सुचना क्रांति ने भारतीय समाज में आधुनिकता का संचार किया| इसका परिणाम हुआ किआदर्श और नैतिकता के नाम पर बालकों पर जो मत समाज द्वारा थोपे जा रहे थे उस स्थिति में बदलाव की गुंजाइश बनने लगी|बदलाव की यह बयार साहित्य में भी दिखी क्योंकि साहित्य का समाज से सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है| परिणामतः, हिंदी में बाल साहित्य प्रचुरता से लिखे जाने लगे|स्वतन्त्रतापूर्व लिखे जाने वाले बाल साहित्य से यह साहित्य इन अर्थों में भिन्न थे कि स्वतन्त्रतापूर्व बाल साहित्य जहाँ नैतिकता प्रधान थे वहीं स्वतंत्रता के पश्चात साहित्यकारों ने बाल मनोविज्ञान को मद्देनजर रखते हुए मनोरंजन के माध्यम से बालकों को नीतिगत शिक्षा देने का मार्ग चुना| उन्होंने ‘बालक के लिए’ नहीं बल्कि ‘बालक का’ साहित्य जैसी पद्धति को प्राथमिकता दी|कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, जंगल कथाएँ, यात्रा-वर्णन जैसी अनेक विधाओं के माध्यम से बालमन की कोमलता व्यक्त की जाने लगी|इस दौरान हिंदी के कई प्रमुख रचनाकारों ने बाल साहित्य की विधा में भी अपना योगदान दिया|इनमें वे रचनाकार भी थे जो सामान्यतया बाल साहित्यकारों की श्रेणी में नहीं आते हैं| जैसे- प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद,अमृतलाल नागर, सुभद्राकुमारी चौहान, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना,अमरकांत, भीष्म साहनी, रामकुमार वर्मा, कमलेश्वर तथा प्रयाग शुक्ल|इन साहित्यकारों ने बाल साहित्यकार न होते हुए भी हिंदी के बाल साहित्य को समृद्ध करने में अपनी महती भूमिका निभाई| इतना ही नहीं, इंग्लैण्ड के विद्वान् फ्रेडरिक पिन्काट ने भी हिंदी के बाल साहित्य पर उल्लेखनीय कार्य किया|‘बाल-दीपक’ नाम की उनकी पुस्तक जो उस दौर में बिहार के विद्यालयों में प्राथमिक स्तर पर पढाई जा रही थी, ने बाल साहित्य की धारा को गतिमान करने का कार्य किया|
छठे दशक के पश्चात हिंदी साहित्य में भाषा एवं शिल्पगत नवीनता देखने को मिलती है|नएपन की इस बयार से हिंदी का बाल साहित्य भी प्रभावित हुआ और बाल साहित्यकारों ने कविता,कहानी, उपन्यास और नाटकों की विधा के अतिरिक्त भी रचनात्मक स्तर पर अनेक प्रयोग शुरू किए|साठ के बाद की इस प्रयोगधर्मी पीढ़ी में दिविक रमेश,रतनलाल शर्मा,रोहिताश्क अस्थाना, उषा यादव, सूर्यकुमार पांडे, सुरेन्द्र विक्रम, बानो सरताज, भगवती प्रसाद द्विवेदी, सूर्यभानु गुप्त,चित्रेश, राजनारायण चौधरी, संजीव जायसवाल,रमेश तैलंग, शम्भुनाथ तिवारी और सरोजिनी कुलश्रेष्ठ जैसे समर्थ बाल साहित्यकार हुए जिन्होनें अपनी प्रयोगात्मक सृजनात्मकता से बाल साहित्य को समृद्ध किया|इसी दौरान गीताप्रेस, गोरखपुर ने रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों में अन्तर्निहित छोटी कहानियों को आकर्षक चित्रों के साथ बालकों की समझ के अनुकूल बनाकर प्रस्तुत किया| हालाँकि यहाँ मनोरंजन के माध्यम से धार्मिक संस्कार प्रदान करने का लक्ष्य था परंतु इतना तो निश्चित हो गया कि पौराणिक कथाओं को भी बालकों के अनुसार ढालने की कवायद शुरू हो गयी|चंदामामा, नई पौध, चम्पक तथा नंदन जैसी पत्रिकाएँ इन्हीं प्रयासों की दें है जो आज भी बच्चों के बीच लोकप्रिय है|
वर्तमान हिंदी बाल साहित्य का स्वरुप : नब्बे के दशक तक आते-आते बाल साहित्य पहले की तरह उपदेशात्मक न होकर पूर्णतः बाल मनोविज्ञान के अनुकूल होता चला गया|इसका प्रमुख कारण समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास था| आधुनिकता के प्रभाव से मानव मन को समाज से इतर एक व्यष्टि रूप में देखने की चेतना विकसित हुई|इस चेतना ने बाल साहित्य का भी आधुनिकीकरण किया|इक्कीसवीं सदी के प्रारंभिक दौर में ही साहित्यकारों को यह भान हो गया कि बालक के साहित्य का समय सापेक्ष होना अनिवार्य है|बालकों के मनोविज्ञान को समझने हेतु साहित्यकार का अपने रचनात्मक क्षण में बालक बन जानाअथवा अपने अनुभव एवं ज्ञान को समन्वित कर बालक का दोस्त बन जाना जरूरी है|बालकों के मनोभाव तक पहुँचने कि यह आवश्यक शर्त है कि रचनाकार के अनुभवों में बालकों की साझेदारी हो| इस विषय में अंग्रेजी के बाल साहित्य समीक्षक निकोलस टकर कहते हैं- “विश्व के नए बाल साहित्य के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह एकदम साफ़-सुथरा हो, उसकी कहानियां एकदम आदर्शपरक हों और उनका अंत सदा सुखदायी ही हो|यह तो वास्तव में अपने समय काल से जुड़ा प्रश्न है|यदि बाल साहित्य में पाठक यह समझ लेता है कि इसके पीछे एक सुदृढ़ आग्रह हैकि जीवन की कठिनाइयों से जूझने और जीवन जीने का वही फार्मूला अपनाओं जो हम बता रहे हैं, तो वह तत्काल उसे छोड़ देता है|”1
वस्तुतः आज का बाल साहित्यकार पारंपरिक ढंग से तथा सतही तौर पर कुछ भी लिखकर बालकों को प्रभावित नहीं कर सकता है| बीसवीं शती के अंतिम दशक से देश में विज्ञान तथा तकनीक का जो विकास शुरू हुआ वह आगे चलकर इक्कीसवीं सदी में अपने चरम पर पहुँच गया है|इन तीन दशकों में विज्ञान तथा तकनीक के इस विकास ने सुचना विस्फोट का कार्य किया है जिसका प्रभाव हमारे सामाजिक, पारिवारिक तथा व्यक्तिगत जीवन पर भी पड़ा|परिवार में मौजूद बच्चें भी इससे प्रभावित हुए|ज्ञान एवं समझ विकसित होते ही वह अपने आस-पास टी.वी., कंप्यूटर और मोबाइल को पाता है|इनके माध्यम से वह आसानी से दुनिया से जुड़ जाते हैं और कोई भी जानकारी उनके लिए दर्लभ नहीं प्रतीत होती है|मनोरंजन के पारंपरिक संसाधनों का स्थान भी तकनीक ने ही ले लिया है|वर्तमान दौर में सामाजिक संरचना में आए बदलावों के कारण पारिवारिक विघटन की समस्या भी दिखती है|अब संयुक्त परिवार की पारंपरिक संरचना के बरक्स एकल परिवार का प्रचलन बढ़ता जा रहा है|माता-पिता के कामकाजी होने तथा परिवार के छोटे होने के कारण बच्चों का जुड़ाव तकनीक से बढ़ता ही जा रहा है| ये तकनीक उनके समक्ष जानकारी का पिटारा खोल देते हैं|इस बदलते हुए परिवेश में पारंपरिक किस्से-कहानियां जिनमें परी, अप्सरा, भूत-प्रेत और चमत्कार की बातें होती थी, अब बच्चों के लिए बेमानी हो चुकी है| उन्हें अब विज्ञान संपन्न तार्किक कहानियां चाहिए| इस सम्बन्ध में मूर्धन्य बाल साहित्यकार निरंकार देव सेवक का मत उल्लेखनीय है|वे कहते हैं- “परी कथाएँ सहियों से बच्चों का मन बहलाती रही हैं|नव बालसाहित्य की रचना के सिलसिले में एक आवश्यकता यह भी अनुभव की गयी कि बच्चों को झूठे कल्पना लोक से बचाने के लिए जरुरी है कि परी कथाओं के कथ्य को नए आयाम दिए जाएँ|”2 इस कथन से स्पष्ट है कि वैज्ञानिकता के इस युग में काल्पनिकता को भी नए आयाम की दरकार है| तकनीक ने बच्चों के जीवन में साहित्य के प्रति रूचि को भी प्रभावित किया है|अब बच्चे कहानी-कविता से अधिक कार्टून और फिक्शनल करैक्टर जैसे मार्वल, एवेंजर जैसी सीरीजों के प्रति आशक्त होते जा रहे हैं|उनके जीवन में पुस्तकों से दूरी दिन-प्रतिदिन बढती ही जा रही है| ऐसे में बाल साहित्य की जरुरत और भी बढ़ जाती है|वर्तमान दौर में साहित्यकारों पर यह एक बड़ी जिम्मेदारी है कि तकनीक के इस बयार ने बच्चों के जीवन में बाल साहित्य की गुंजाइश को जिस तरह सीमित कर दिया है, उसके बरक्स वे बच्चों के समक्ष सुरुचिपूर्ण साहित्य प्रस्तुत कर सकें|इसके लिए अपने आप को वर्तमान बाल मनोविज्ञान तथा तकनीक के अनुसार अपडेट रखना आवश्यक है|बाल मनोभावों के हिसाब से तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से साहित्य का सृजन वर्तमान युग की दरकार है क्योंकि आधुनिक बालकों के कौतूहल तथा जिज्ञासा का परिहार वैज्ञानिक तथा तर्कसम्मत दृष्टिकोण से ही संभव है|इक्कीसवीं सदी के बालकों हेतु कल्पना भी तभी स्वीकार्य है जब उसमें वास्तविकता का भान हो| अर्थात् उनके लिए काल्पनिकता का आधार भी विश्वास है|अगर कोई घटना उन्हें असंभव लगेगी तो यह उनकी साहित्य के प्रति रूचि को प्रभावित कर सकती है|अतः साहित्यकार की यह जिम्मेदारी है कि वे बच्चों के सामने ऐसी रचनाएँ न प्रस्तुत करें जो अन्धविश्वास तथा अनहोनियों की पोषक हो| उनकी रचनाओं में विश्वसनीयता और मौलिक उद्भावना आवश्यक है| इसके लिए बाल साहित्यकारों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संपन्न रचनात्मक जमीन तैयार करने की जरुरत है| कहानियों में उपस्थित रजा एवं परियों को अब चेतनाशील तथा ज्ञानी होना आवश्यक है, कहानियों के भूत को दुनियादारी की सटीक जानकारी होनी जरुरी है तभी बच्चे उनसे तादात्म्य स्थापित कर पाएँगे|
हालाँकि अब ऐसी रचनाएँ उपलब्ध होने लगी हैं जो समय-सापेक्ष हैं तथा वर्तमान दौर की विसंगतियों को भी बालकों के समक्ष रखती है|समाज में जिस तरह छोटे बच्चों के साथ छेड़खानी की घटनाएँ होती है, परिवार में अपनों के बीच भी वे असुरक्षा की भावना का शिकार होते हैं, ऐसी स्थिति में उन्हें सहज तरीके से गुड टच तथा बैड टच की जानकारी देते हुए रचनाओं की दरकार है|वर्तमन में कई सजग बाल रचनाकार इन जरूरतों को केंद्र में रखते हुए रचनाएँ कर रहे हैं| आधुनिक दृष्टि संपन्न इन रचनाकारों में शुकदेव प्रसाद,जयंत विष्णु नार्लीकर, विजयकुमार उपाध्याय, गुणाकर मूले, लल्लन कुमार, संजीव जायसवाल,संजय अरविन्द मिश्र, जाकिर अली, शिवचरण चौहान,राजकुमार जैन राजन, मोहम्मद फहीम और अरशद खान जैसे लेखकों का नाम उल्लेखनीय है जिनकी सतत सक्रियता ने आधुनिक हिंदी बाल साहित्य को वर्तमान युग में बेहतर दिशा दी है|
कोई भी तकनीक अभिशाप नहीं बन सकती अगर उसका प्रयोग सही रूप से किया जाए|इन्टरनेट तथा तकनीक की मदद से इस दौर में बाल साहित्य को घर-घर पहुँचाने का कार्य किया जा रहा है|आज अनेक बाल साहित्य इन्टरनेट के माध्यम से आसानी से उपलब्ध हैं| कई ब्लॉग चल रहे हैं जिनपर बालोपयोगी रचनाएँ नियमित रूप से प्रकाशित होती है| ‘बालमन’ इस तरह का पहला ब्लॉग है| इसके अलावा मजदूर बच्चों द्वारा संचालित ‘बाल सजग’, ‘नानी की चिट्ठियां’ तथा ‘फुलबगिया’ जैसे ब्लॉग भी उल्लेखनीय है जो इन्टरनेट तथा बाल साहित्य का सार्थक सम्बन्ध बना रहे हैं| कई ऐसे वेबसाइट हैं जिनपर किताबों की सॉफ्ट कॉपी उपलब्ध है|
वर्तमान दौर में फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी बाल केन्द्रित फिल्मों को लेकर फिल्म निर्देशकों के बीच सजगता आई है| चिल्लर पार्टी, तारें जमीं पर,आबरा का डाबरा, स्टेनले का डब्बा और भूतनाथ जैसी फिल्में अपने अलग विषय तथा यथार्थबोध के कारन बच्चों के बीच खूब पसंद की गयी|हमारी धार्मिक संस्कृति के बाल चरित्रभी कंटेट क्रिएटरों की रचनात्मकता के कारण बच्चों की रूचि के अनुरूप एनीमेशन फिल्मों के रूप में ढलकर हमारे समक्ष प्रस्तुत किए गए| माई फ्रेंड गणेशा,हनुमान, घटोत्कच आदि फिल्म इसी का परिणाम है|
निष्कर्ष : उपरोक्त स्थितियों का विश्लेषण करने के पश्चात यह कहना अनुचित नहीं कि इक्कीसवीं सदी में बाल साहित्य ने समयानुकूल परिवर्तन को ग्रहण किया है|वर्तमान में इस क्षेत्र में जो भी रचनात्मक कार्य हुए हैं उसने हिंदी के बाल साहित्य को निरंतर विकास के पथ पर अग्रसारित किया है जिससे इसके उज्जवल भविष्य की सम्भावना निश्चित ही तय की जा सकती है|हालाँकि अभी भी पारंपरिक ढंग से लिखे जाने वाले बाल साहित्य मौजूद हैं परंतु समसामयिक मुद्दों पर केन्द्रित तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण संपन्न रचनाओं की प्रासंगिकता निःसंदेह अधिक है|
1. भारतीय बाल साहित्य, संपा. हरिकृष्ण देवसरे, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली,2016, पृष्ठ संख्या-15.
2. नव बालसाहित्य के दिशादर्शक, संचेतना,दिसम्बर, 1982, पृष्ठ संख्या-215.
अतिथि सम्पादक : दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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