- ओमप्रकाश कश्यप
खेल के बारे में अक्सर कहा जाता है कि वे मन-मस्तिष्क को राहत प्रदान करते हैं. सीखने की प्रक्रिया को आसान बनाते हैं. लेकिन बच्चों के लिए खेल गंभीरता पूर्वक सीखना है. खेल सही मायने में बचपन का काम है.
- फ्रेड रोजर्स
क्या आप ऐसी दुनिया की कल्पना कर सकते हैं जिसमें खेल और खिलौने बिलकुल भी न हों? जहां बचपन हो, मगरउसकी निश्छल हंसी, उसकी शरारतें, सपने और उमंगें सब नदारद हों. नहीं न! गरीब से गरीब और विपन्नतम स्थितियों में जी रहा बचपन भी अपने लिए खिलौने चुन लेता है. खिलौनों का महंगा या दुर्लभ होना कतई आवश्यक नहीं हैं. बच्चे की रचनात्मक क्षमता मिट्टी, रेत, फूलों, पत्तों, कागज, पेंसिल यहां तक कि संपर्क में आने वाली प्रत्येक वस्तु को खिलौना बना सकती है. ‘जंगल बुक’ के पात्र ‘मोगली’ से कौन परिचित नहीं है. ऐसे ही एक और बालक की कल्पना करते हैं जो जन्म के साथ ही अपने माता-पिता से बिछुड़ गया हो. जो मानव पेड़-पौधों, वन-लताओं और जंगली जानवरों के बीच बड़ा हुआ हो. उस अवस्था में वह मानव-सभ्यता से दूर होगा. मगर उन परिस्थितियों में भी उसकी कल्पना, उसका कौतूहल अपने लिए खिलौने खोज ही लेगा. बालक द्वारा अपने परिवेश को समझने की शुरुआत खिलौनों के माध्यम से ही होती है. बगैर खिलौनों के बचपन की कल्पना असंभव है. जब से मनुष्य ने दुनिया को समझने की शुरुआत की थी, तभी से खिलौने और बालक की कल्पना एक-दूसरे को समृद्ध करते आए हैं. बच्चों की भौगोलिक परिस्थितियों में अंतर हो सकता है. उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थितियां भिन्न हो सकती हैं. इस हिसाब से उनके खिलौनों का रंग-रूप, मूल्यादि भी अलग-अलग हो सकते हैं....परंतु यह कतई संभव नहीं है कि बालक हो और खिलौने बिलकुल न हों. गैबरियल गुटोन के शब्दों में खिलौने बालक के समाजीकरण का माध्यम होते हैं. उसी के शब्दों में—‘खेल वह युक्ति हैं जिनके माध्यम से बच्चे अपने परिवेश से जुड़ते हैं. जिनकी मदद से वे संसार को अनुभव करना शुरू करते हैं. नए कौशल का अभ्यास करते हैं, नवीन विचारों को आत्मसात करते हैं. कुल मिलाकर खेल बचपन के लिए अनिवार्य गतिविधियां हैं.’(गुटेन, यूजिंग टॉयजटू सपोर्ट इन्फेंट टोडलर्स लर्निंग एंड डेवपलमेंट). और खेल यदि बचपन की नैसर्गिक गतिविधियां हैं तो खिलौने भी बालक की नैसर्गिक आवश्यकता कहे जा सकते हैं.
बालक और खिलौनों का संबंध सभ्यता के आदिकाल से है. प्रस्तर युग में बालक के खिलौने भी पत्थर के ही रहे होंगे. नदी और समुद्र किनारे रहने वाले बच्चों के लिए रेत का घर ऐसा खिलौना होता है जिसे वे रोज तोड़ते और बनाते हैं. रेतीले घरोंदों को बनाते-तोड़ते, फिर बनाते एक दिन वे समझने लगते हैं कि निर्माण और ध्वंस प्रकृति का सहज गुण हैं. प्रकृति के बाद एकमात्र मनुष्य ऐसा प्राणी है जिसमें निर्माण चेतना अपने उत्कृष्टतम रूप में मौजूद है. सिंधु सभ्यता(3300-1750 ईस्वी पूर्व) से मिट्टी के जानवर और मिट्टी की ही खिलौना गाड़ी मिली है. इन खिलौनों का रूपाकार एक जैसा नहीं है. समय और सभ्यता के विभिन्न चरणों में वह निरंतर परिवर्तनशील रहा है. प्राचीन यूनानी शहर केरामीकोस में एक मजार से एक पहियों पर चलने वाला, 2800-2900 वर्ष पुराना एक खिलौना मिला है, जिसकी आकृति घोड़े जैसी है. स्वीडिश पुरातत्ववेत्ता एल्क रोगरडोटर का निष्कर्ष है कि मोहनजोदड़ो, हड़प्पा तथा दूसरे ठिकानों से प्राप्त पुरातत्व महत्त्व की कुल सामग्री में से कम से कम 10 प्रतिशत अवशेष किसी न किसी खिलौने से संबद्ध हैं. आप अनुमान लगा सकते हैं कि बचपन उन सभ्यताओं में भी कितना महत्व रखता होगा.
संस्कृत ग्रंथों चरकसंहिता, अष्ठांगसंग्रह में निर्देश है कि उपवेशन और अन्नप्राशन संस्कार के समय बालक को ‘क्रीडनक’ यानी खिलौना दिया जाना चाहिए. यही नहीं, बालक को उसकी उम्र के अनुरूप कैसे खिलौने दिए जाएं, इसका वर्णन भी इन ग्रंथों में है. वाग्भट्ट ने सुझाव दिया है कि बच्चों के खिलौनों को लाख से बनाया जाना चाहिए. उन्हें रंग-बिरंगा, मनोहारी तथा आकार में यथासंभव बड़ा होना चाहिए. कोने गोल होने चाहिए. यदि वह आवाज उत्पन्न करने वाला खिलौना है तो उससे मृदुल-कर्णप्रिय ध्वनियां निकलनी चाहिए. खिलौने को डरावना तो बिलकुल नहीं होना चाहिए. वाग्भट्ट के अनुसार 3 वर्ष के बालक को दिए जाने वाले खिलौने गाय, घोड़े, फल जैसे किसी भी आकार के हो सकते हैं. आयुर्वेदाचार्य चरक भी इसकी पुष्टि करते हैं. उनके अनुसार बच्चे के क्रीडनक को सुंदर, मनभावन, तीक्ष्ण किनारों से मुक्त, अच्छी ध्वनि करने वाला, हल्का और न कुतरा जा सकने वाला होना चाहिए. उसे डरावना और नुकसानदेह तो हरगिज नहीं होना चाहिए. ‘वृहदजीवकतंत्र कश्यप संहिता’ के 12वें अध्याय में लड़कियों के लिए गुड़िया और गेंद के खिलौने तथा लड़कों के लिए विभिन्न प्रकार के जानवरों के खिलौने बनाने की सलाह दी गई है. इस तरह खिलौनों का इतिहास, मानव-सभ्यता के विकासकाल से जुड़ा है. चूंकि लेख का उद्देश्य खिलौनों के इतिहास से पर्दा उठाना नहीं है, अतः हमारी कोशिश केवल बालमन और खिलौनों के अंतर्संबंध को टटोलने की होगी. हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि खिलौने बालक को किस प्रकार से भावनात्मक रूप से प्रभावित करते हैं? और बचपन के विकास में उनकी भूमिका क्या है?
खिलौने केवल बच्चों के लिए नहीं, बड़ों के लिए भी जरूरी होते हैं. अंतर बस इतना है कि बड़े जब खेल खेलते हैं तो उनका प्रमुख उद्देश्य मनोरंजन होता है. बच्चों से पूछा जाए तो वे भी कहेंगे कि खिलौने आनंद लेने की चीज हैं. वे मजेदार हैं. असल में वे ऐसे उपकरण हैं जिनके माध्यम से बालक स्वयं को तथा अपने आसपास की दुनिया को जानने की कोशिश करते हैं. बालक का प्रत्येक कार्यकलाप उसकी जिज्ञासा तथा कौतूहल द्वारा नियंत्रित होता है. किसी भी बालक का सबसे बड़ा बचपना यह होता है कि व्यक्तित्व के स्तर पर वह खुद को बालक नहीं समझता. इसलिए दुनिया को अपनी तरह से, अपने जैसा बनाकर समझना चाहता है. खिलौने इस उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होते हैं. वे बालक में संज्ञानात्मक प्रेरणाएं जगाते हैं. जिज्ञासा संतुष्टि के लिए बालक खिलौने को तोड़ भी सकता है. भले ही इस काम से उसे माता-पिता से दंड मिलने की आशंका हो या कुछ ही क्षण पहले तक वह उसके सर्वाधिक प्रिय खिलौनों में से एक रहा हो. उसके लिए प्रत्येक खिलौना एक ‘टूल’ होता है, जिससे वह अपने परिवेश की आंतरिक संरचना को समझने की कोशिश करता रहता है.
खिलौने बालमन की कल्पना का प्रतिरूप होते हैं. चूंकि कल्पना को किसी एक रूप में ढालना संभव नहीं है, इसलिए खिलौनों का भी कोई तयशुदा रूपाकार नहीं होता. बालक अपनी परिस्थिति और रुचि के अनुसार किसी भी चीज को खिलौना समझकर उससे खेल सकता है. हर खेल उसके विवेकीकरण में सहायक बनता है. बालक को भले ही न्यूटन के तीसरे नियम या गुरुत्वाकर्षण बल का बोध न हो, लेकिन खाली पड़ी चारपाई पर उछलते-उछलते वह समझ जाता है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है. कि जो वस्तु ऊपर जाती है, कुछ अंतराल के पश्चात वह नीचे लौट आती है. चारपाई पर लगातार उछलते या पत्थर से पेड़ पर निशाना लगाते-लगाते वह समझ जाता है कि निश्चित ऊंचाई तक उछलने या पत्थर फेंकने के लिए उसे कितने बल की आवश्यकता होगी. इससे वह अपने सामर्थ्य काभी अंदाजा लगा लेता है. उस समय चारपाई और पत्थर उसके लिए खिलौने का काम करते हैं. बालक अपने ज्ञान का 40 से 60 प्रतिशत हिस्सा ऐसे ही औपचारिक-अनौपचारिक खिलौनों द्वारा प्राप्त करता है.
घरों और चौपालों पर सुनाई जाने वाली कहानियां भी बच्चे के लिए खिलौने जैसी होती हैं. उन्हें हम भाषिक खिलौना भी कह सकते हैं. पसंदीदा कहानी सुनने के बाद बालक उसके पात्रों के साथ अपनी कल्पना में देर तक खेल सकता है. खिलौने से खेल रहा बालक धीरे-धीरे उसने अपना सहचर मान लेता है. खिलौना उसकी चेतना का हिस्सा बन जाता है. उसके माध्यम से बालक अपने विचारों, सपनों और फंतासियों को विस्तार देने लगता है. इससे उसे अपनी क्षमताओं को पहचानने तथा आत्मावलोकन करने का अवसर मिलता है. माता-पिता के आपसी झगड़े या समाज में बढ़ती हिंसा का असर बालक के मनोमस्तिष्क पर भी पड़ता है. परिणामस्वरूप कभी-कभी बालमन में भी हिंसा अंकुराने लगती है. विषम परिस्थिति में खिलौने उसे अपने और परिवेश के प्रति संवेदनशील बनाने का काम करते हैं. मस्तिष्क में जमा विकारों को खिलौनों के माध्यम से अभिव्यक्त कर, वह स्वयं को हल्का महसूस करने लगता है. खिलौने बालमन में बेहतर जीवन के सपने देखने की प्रेरणा भी जगाते हैं.
खिलौने बालमन की कल्पनाओं के झरोखे हैं. उसकी सांसारिक चेतना के गलियारे हैं. उनमें बालक की दुनिया बसती है. ऐसी दुनिया जिसका स्वयंभू सम्राट वह स्वयं होता है. खिलौने के माध्यम से वह ऐसी दुनिया की कल्पना करता है जैसी वह अपने लिए बनाना चाहता है. कल्पना की विशेषता है कि उसका एक छोर सुदूर अंतरिक्ष में होता है तो दूसरा अनिवार्यतः जमीन से जुड़ा होता है. इसी गुण के कारण मनुष्य की प्रत्येक कल्पना उसके वर्तमान और भविष्य के बीच सूत्रधार का काम करती है. खिलौने उसको रचनात्मक बनाने में मदद करते हैं. जैसा कि ऊपर संकेत दिया गया है, बालक की दुनिया कल्पनामय होकर भी निरी काल्पनिक भी नहीं होती. उनमें उसके माता-पिता, मित्र-पड़ोसी, पशु-पक्षी, परिवेश आदि सब समाए होते हैं. बालक का परिवेश खिलौनों के प्रति उसकी पसंद को प्रभावित करता है. दूसरे शब्दों में समाज के विकास के साथ-साथ खिलौने तथा उन्हें लेकर बालक की पसंद भी बदलती रहती है. आज से चालीस-पचास वर्ष पहले का बालक मिट्टी की गाड़ी को लेकर शान से इतराता हुआ चलता था. क्योंकि वैसे खिलौने भी गांव में इक्का-दुक्का बच्चों के पास होते थे. इसलिए मिट्टी का होने के बावजूद वे बालक को आत्मसंतोष का अनुभव कराते थे. अब वह संभव नहीं है. क्योंकि प्रौद्योगिकी के विकास के साथ बाजार में तरह-तरह के वीडियो गेम्स, इलेक्ट्रानिक खिलौने आ चुके हैं. पहले बालक मिट्टी में खेलता था, और उसके लिए किसी को चिंता नहीं होती थी. आज खेलते हुए बालक का शरीर मिट्टी से छू जाए तो भी बड़ों को इन्फेक्शन का डर सताने लगता है. ऐसे में मिट्टी की खिलौना गाड़ी को चलन-बाह्य होना ही था.
बालक के पसंदीदा खिलौनों के माध्यम से उसके वर्तमान और भविष्य का अंदाजा लगाया जा सकता है. कुछ दशक पहले के खिलौनों की कल्पना कीजिए. उन दिनों गुड्डे-गुड़िया लड़कियों के पसंदीदा खिलौनों में शामिल थे. प्रेमचंद की कहानी में बच्चे भिश्ती, सिपाही, वकील, धोबी जैसे मिट्टी के खिलौनों का उल्लेख हुआ है. जिन दिनों यह कहानी लिखी गई उन दिनों पश्चिमी उत्तरप्रदेश के गांवों में लगने वाले हाट-बाजारों में मिट्टी और बांस की खिलौना गाड़ी, आटा-चक्की, चकला-बेलन जैसे खिलौने बिका करते थे. दशहरे के मेले पर उनमें तीर-कमान भी शामिल हो जाते थे. चूंकि उन दिनों लड़कियों को पढ़ाने की प्रवृत्ति कम थी और स्त्री को घर की चार-दीवारी के बीच रहना पड़ता था, इसलिए गुड्डे-गुड़िया के अलावा लकड़ी या मिट्टी के बने चकला-बेलन लड़कियों के पसंदीदा खिलौने हुआ करते थे. आज समाज में हिंसात्मक प्रवृत्तियां बढ़ी हैं. फिल्म और दूरदर्शन के मारधाड़ वाले कार्यक्रम समाज को असहिष्णु बना रहे हैं. उनके प्रभाव से बालक भी अछूता नहीं है. इसके चलते प्लास्टिक की बंदूक सर्वाधिक बिक्री वाले खिलौनों में शामिल हो चुकी है. कार, हेलीकॉप्टर, वीडियो गेम वगैरह बच्चों के पसंदीदा खिलौनों में शामिल हैं.
खिलौना बालक को स्वतंत्रता की अनुभूति देता है. बालक खिलौने को खेल और मनोरंजन की चाहत में आजमाता है. परंतु बहुत शीघ्र वह उसे अपने विवेकीकरण का माध्यम बना लेता है. मिट्टी के घोड़े या प्लास्टिक की कार को देखकर बालक भली-भांति जानता है कि वे असली घोड़े या कार जैसे नहीं हैं. बावजूद इसके वह उन्हें असली जितना ही महत्त्व देता है, क्योंकि वे उसकी अपनी संपदा हैं, जिनका वह जैसी मर्जी हो इस्तेमाल कर सकता है. उसके लिए न तो कोई टोका-टाकी करेगा न ही कोई उसके अधिकार को चुनौती देने आएगा. इस तरह खिलौने बालक के अहंबोध को संतुष्ट करते हैं. वे उसे उसकी स्वतंत्रता का एहसास दिलाते हैं. बड़ों पर निर्भरता, उनके जैसा सामथ्र्यवान न हो पाने की कुंठा से उबारते हैं. बालमनोवैज्ञानिकों के अनुसार चार से दस वर्ष के प्रत्येक बालक का एक काल्पनिक मित्र होता है. उसमें वह अपनी छवि देखता है. उसके अनुसार बनना भी चाहता है. उस काल्पनिक मित्र को गढ़ने में उसकी रुचियों का भी योगदान होता है. फुर्सत के क्षणों में जब कोई और खिलौना उसके पास न हो, वह अपने कल्पनामित्र के साथ संवाद भी करता है. उस समय उसका कल्पनामित्र ही मानस-खिलौने का काम करता है.
खिलौनों के बारे में सामान्य राय यह है कि वे बच्चों की पसंद को दर्शाते हैं. हमेशा ऐसा नहीं होता. अकसर वे माता-पिता और अभिभावकों द्वारा बालक पर थोप दिए जाते हैं. इन दिनों बाजार राजनीति और समाज दोनों पर भारी है. बच्चों की जरूरत को ध्यान में रखकर उसने तरह-तरह के खिलौने तैयार किए हैं. उनमें बड़ी संख्या इलेक्ट्रॉनिकखिलौनों की है. क्या वे सभी बालक की जिज्ञासा और कौतूहल को बढ़ाने वाले हैं? क्या वे बालक के संज्ञानात्मक विकास में सहायक हैं? भारत में इस तरह का कोई शोध उपलब्ध नहीं है. बाजार में मिलने वाले खिलौनों में बड़ी मात्रा ऐसे खिलौनों की होती है, जिनमें भरपूर चमक-दमक होती है. किंतु उनमें बालक को सिखाने, करने तथा उसकी रचनात्मक प्रवृत्तियों को निखारने की क्षमता बहुत कम होती है. मुनाफे को ही सबकुछ मानने वाले बाजार से यह उम्मीद भी बेमानी है कि खिलौना बनाते समय वह बालक की रुचि और आवश्यकता दोनों का ख्याल रखेगा. बाजार के लिए बालक महज एक उपभोक्ता है. रुचियों के परिष्कार से ज्यादा उसका ध्यान नए उत्पादों के अनुरूप रुचि-निर्माण पर केंद्रित रहता है. चमक-दमक और विज्ञापन के प्रलोभन से बच्चे उन खिलौनों के निकट जाते हैं. माता-पिता भी खिलौने की उपयोगिता से ज्यादा उसकी चमक-दमक और विज्ञापन द्वारा फैलाई जा रही भ्रांतियों के आधार पर निर्णय लेते हैं.
अच्छे खिलौने की विशेषता है कि वह बालमन में नैतिक, संवेदनात्मक तथा बौद्धिक अभिप्रेरणाओं में वृद्धि करता है. बाजार में उपलब्ध सभी खिलौने इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते. एक अमेरिकी शोध का हवाला देते हुए डुपलिंस्की ने लिखा है कि केवल 20 प्रतिशत बच्चों को ही अपनी पसंद का खिलौना खरीदने का अवसर मिल पाता है. 40 प्रतिशत मामलों में माता-पिता यह सोचकर खिलौने खरीदते हैं कि बालक उनके साथ लगा रहे और उन्हें परेशान न करे. शोध के दौरान हैरान कर देने वाला निष्कर्ष यह था कि 87 प्रतिशत माता-पिता अपने बच्चों को बंदूक, सिपाही, तीर-तलवार जैसे खिलौने खरीद कर देना पसंद करते हैं. ऐसे माता-पिता जो खिलौनों को बालक की शिक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण मानते थे, की संख्या मात्र 30 प्रतिशत थी. वे औसत रूप से दूसरे माता-पिता से ज्यादा पढ़े-लिखे थे.
खिलौनों के प्रभाव को देखते हुए कई बार उनका उपयोग बालमन में खास किस्म के संस्कार पैदा करने के लिए भी किया जाता है. हिटलर का मानना था कि ‘विचार बालक के साथ-साथ बड़े होते हैं.’ यह बात उसने दूसरे विश्वयुद्ध से वर्षों पहले कही थी. उसकी प्रेरणा से खिलौना बनाने वाली कंपनी, जो इन दिनों बार्बी गुड़िया बनाने के लिए जानी जाती है—ने 1933 में ‘जर्मन खिलौना सिपाही’ बनाना शुरू किया था. उससे पहले बच्चों को पढ़ाया जाता था कि किसान खेत में अन्न उपजाते हैं. तानाशाही के प्रभाव में पाठ्य-पुस्तकों के जरिये बच्चों को पढ़ाया जाने लगा कि ‘मेरे देश का विमान बम वर्षाता है.’ इसी के अनुसार बच्चों के खिलौनों में भी बदलाव किया गया. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद तो बंदूकें, टेंक बच्चों के खिलौनों का प्रमुख हिस्सा बन गए. बालमन में खास किस्म की धार्मिक-सामाजिक प्रेरणाएं जगाने के लिए भी खिलौनों का उपयोग किया जाता है. दशहरे के आसपास तलवार, तीन-कमान, गदा और तरह-तरह के मुखौटों की बाजार में भरमार हो जाती है. इनके इलेक्ट्रानिक संस्करण भी आने लगे हैं. इन खिलौनों की कमजोरी है कि वे बालक की रचनात्मक प्रतिभा को निखारने में कोई मदद नहीं करते. अपितु खास किस्म की धार्मिकता द्वारा बालमन का सांप्रदायिकरण करने में सहायक बनते हैं.
ज़िदनिक मेटजीका के अनुसार बच्चों को साधारण खिलौने देने चाहिए. उसके अनुसार—‘खिलौना बालक की मानसिक वय के अनुरूप होना चाहिए....छोटे बच्चों यानी शिशुओं को साधारण खिलौने केवल इसलिए नहीं देने चाहिए कि वे जटिल खिलौनों से खेलने में असमर्थ होते हैं. अपितु इसलिए देने चाहिए क्योंकि उनका स्नायुतंत्र इतना विकसित नहीं होता कि जटिल खिलौनों से खेल सके.’ बालक खिलौने को जितना समझेगा, उतना ही उसका रचनात्मक उपयोग कर पाएगा. इसलिए ब्लॉकवाले खिलौनों, जिनकी मदद से बालक अपनी रुचि के अनुसार विभिन्न आकृतियां गढ़ सके—को छोटे बच्चों के लिए आदर्श माना गया है. ऐसे खिलौने बच्चों में रचनात्मक प्रतिभा को निखारने में सहायक सिद्ध होते हैं. वे सामान्य भाषा ईजाद करने में भी बच्चों की मदद करते हैं. यही कारण है कि बहुत सामान्य कहे जाने वाले खिलौने भी महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक आविष्कारों की प्रेरणा बने हैं. बचपन में हम सब कागज की फिरकी से खेल चुके हैं. जब कागज नहीं था तब लंबी-नुकीली पत्तियों, जैसे आम को विशिष्ट आकार में काटकर, बीच में तीली लगाकर फिरकी बना ली जाती थी. उसी फिरकी से तकनीशियनों को पवन-चक्की बनाने की प्रेरणा मिली थी. कागज की पतंगें जिनसे बरसात के दिनों में आसमान पट जाता है, द्रोण बनाने की प्रेरणा है, जिनका आजकल फोटोग्राफी और जासूसी के कामों में भरपूर उपयोग होता है.
खिलौनों के महत्त्व को देखते हुए मनोवैज्ञानिक खिलौना संग्रहालय बनाने की सलाह देते हैं. पश्चिमी देशों जैसे ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस तथा जापान, रूस आदि में खिलौना संग्रहालय बनाने की परंपरा बहुत पहले से है. भारत में भी मशहूर कार्टूनिस्ट शंकर की स्मृति में ‘डॉलम्यूजियम’ बनवाया गया है. लेकिन उनकी पैठ समाज के विशिष्ट वर्गों तक है. साथ ही एक किस्म का परंपरावाद उनपर हावी है. बच्चों के विकास में खिलौनों की उपयोगिता को देखते हुए आवश्यकता इस बात की है कि प्रमुख नगरों, कस्बों आदि में छोटे-छोटे ‘खिलौना संग्रहालय’ बनवाए जाएं. खिलौनों से संबंधित जानकारी को बच्चों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए. हमें याद रखना चाहिए कि बालक की सृजनात्मकता को उभारने में एक अच्छे खिलौने की भूमिका किसी स्तरीय पुस्तक जितनी ही होती है.
जी-571, अभिधा, गोविंदपुरम्
गाजियाबाद-201013
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