चित्र 1: देश चिंतन, चित्रशाला, कानपुर, 1933। श्याम सुंदर लाल अग्रवाल, कानपुर द्वारा प्रकाशित। |
शोध सार : भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि और महत्व बहुत गहरा है। यह आंदोलन भारत को ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र कराने के लिए विभिन्न चरणों में चला, जिसमें लोगों की एकता, संघर्ष और बलिदान की कहानियाँ शामिल हैं। यह शोध भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में जनमत बनाने और समर्थन जुटाने में दृश्य कला प्रचार की महत्वपूर्ण भूमिका पर केंद्रित है। पोस्टर, पैम्फलेट, कार्टून और तस्वीरों के विश्लेषण से यह पता चलता है कि कैसे दृश्य मीडिया का उपयोग उपनिवेशवाद विरोधी संदेश देने, राष्ट्रवादी विचारों को बढ़ावा देने और लोगों को एकजुट करने के लिए किया गया। यह अध्ययन दृश्य संस्कृति, राजनीतिक सक्रियता और ऐतिहासिक संदर्भ के तालमेल को समझने का प्रयास करता है, और यह दर्शाता है कि कैसे इस प्रचार ने आंदोलन की दिशा और परिणामों को प्रभावित किया। यह शोध वह भी स्पष्ट करने की कोशिश करेगा की कैसे दृश्य संचार राजनीतिक विचारों और सामाजिक बदलावों को आकार देने में एक शक्तिशाली उपकरण जैसा काम करते है।
बीज शब्द : दृश्य कला, राष्ट्रवाद, स्वतंत्रता, जन-संचार, प्रोपेगंडा।
मूल आलेख : राष्ट्र वादी दृश्य कला भारत के राष्ट्रीय जागरूकता आंदोलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। और यही राष्ट्रवाद की भावना की शुरुआत 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी की शुरुआत में हुई, जहां राष्ट्रवाद नामक एक राजनीतिक अवधारणा का विकास हुआ। इस अवधारणा में साझा, भाषा, विश्वास और परंपराओं जैसे लक्षणों के आधार पर सामाजिक एकता पर जोर दिया गया, जिसे शास्त्रीय राष्ट्रवाद कहा जाता है। राष्ट्रवाद वह विचारधारा है जो किसी राष्ट्र की उत्पत्ति, प्रकृति और मूल्यों पर विश्वासों का समूह है। राष्ट्रवादियों के अनुसार, हम सामाजिक प्राणी हैं जिनका जीवन एक तरफ एकजुटता और समानता की भावना से, और दूसरी ओर विभाजन और मतभेदों से भरा है। उनके अनुसार, मानवता एक समान प्रजाति या व्यक्तियों का समूह नहीं, बल्कि अलग-अलग बिचार, धर्म, जातपात, आदि कारणो के लिए अनोखे राष्ट्रों में बंटी हुई है। राष्ट्रवाद का मूल हमारी सामाजिक पहचान और ज़रूरतों के दावों में निहित है, और यह विचारधारा राष्ट्र या राष्ट्र-राज्य के प्रति वफादारी और निष्ठा को सर्वोच्च मानती है।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को समाप्त करने के लिए दक्षिण एशिया में हुआ, मानव इतिहास के सबसे बड़े जन आंदोलनों में से एक था। इस आंदोलन ने लाखों लोगों को राजनीतिक कार्रवाई में शामिल किया और अंततः 1947 में भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के पारित होने के साथ भारत को स्वतंत्रता दिलाई।(1)
जन-संचार का एक महत्वपूर्ण रूप, प्रचार-प्रसार, मानव इतिहास के आरंभ से ही अस्तित्व में है, जो विचारों को संकेतों और प्रतीकों के माध्यम से फैलाया जाता है। प्रतीकों की शक्ति और भूमिका का अध्ययन हमें यह समझने में मदद कर सकता है कि वे किसी विचारधारा या इकाई को कैसे पहचान दिलाते हैं। दृश्य प्रचार, छवियों, प्रतीकों और कलाकृति का उपयोग करके जनता की राय को प्रभावित और हेरफेर करने का प्रयास करता है। टिक ऐसे ही जब आपके पास अपने उद्देश्य को समर्थन देने के लिए धन बाहुबल और आजादी नहीं होता है, तो ऐसे प्रतीकात्मक कार्य आपको अपना संदेश पहुंचाने में मदद कर सकते हैं।(2)
दृश्य कला प्रचार के माध्यम से भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन:
दृश्य कला प्रचार के माध्यम से भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन में लोगों की धारणा को आकार देने और भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्थन जुटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पोस्टर, पेंटिंग और कैरिकेचर सहित दृश्य प्रचार ने राष्ट्रवादी आदर्शों को व्यक्त करने, औपनिवेशिक शासन के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक बनाने और विभिन्न समूहों के बीच एकता की भावना को बढ़ावा देने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में काम किया। ये चित्र भारतवर्ष के अनेक भाषा की बाधाओं को पार करते हुए, व्यापक दर्शकों तक पहुँचे और भावनात्मक प्रतिक्रियाएँ पैदा कीं, जो केवल लिखित शब्दों से हासिल नहीं की जा सकती थीं। महात्मा गांधी, चरखा और तिरंगा जैसे प्रतीकों ने प्रतिरोध का एक दृश्य शब्दकोश तैयार किया, जिसने लोगों को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित और एकजुट किया। इस प्रकार, दृश्य मीडिया के कुशल उपयोग से राष्ट्रवादी आंदोलन ने अपने संदेश को प्रभावी ढंग से फैलाया और स्वतंत्रता संग्राम की सफलता में योगदान दिया।(3)
हाल ही में विद्वानों ने सुझाव दिया है कि भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन के इतिहास को दृश्य संस्कृति के माध्यम से फिर से समझा जा सकता है, जिससे कांग्रेस के उद्देश्यों और सरकारी दस्तावेजों में छिपे औपनिवेशिक पूर्वाग्रहों का मुकाबला किया जा सके।[11] यह लेख 1930 के दशक की एक प्रमुख राष्ट्रवादी छवि, 'देश चिंतन', की गहन जांच के माध्यम से इस विचार को आगे बढ़ाता है। अभिलेखीय स्रोतों, प्रतिबंधित साहित्य, मौखिक इतिहास साक्षात्कारों और उस समय के पोस्टरों के आधार पर, 'देश चिंतन' (चित्र - 1 देखें) को केंद्र में रखकर 1930 के दशक के उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन की एक नई तस्वीर उभरती है। यह विश्लेषण स्वतंत्रता संग्राम के उस समय की ओर इशारा करता है जब गांधीवादी अहिंसा के प्रति समर्थन और क्रांतिकारी हिंसा के प्रति सहानुभूति, दोनों एक साथ मौजूद थे।(4)
देश चिंतन, एक खूबसूरती से सजी महिला मंद रोशनी वाले कमरे में बैठी है। उसकी नाक में हीरे की नथ है, कलाई में मोती और सोने की चूड़ियाँ हैं, और उसके कंधे पर ब्रोकेड की साड़ी को एक इनेमल पिन संभाले हुए है। उसके माथे पर सिंदूर और बिंदी से पता चलता है कि वह शादीशुदा है। लेकिन उसकी आँखों में गहरी उदासी है, वह निराश होकर कहीं दूर देख रही है। उसने अपने कताई के काम को एक तरफ रख दिया है, जो खादी बनाने की राष्ट्रवादी भावना को दर्शाता है, भले ही वह खादी पहनती नहीं। पोस्टर का शीर्षक "देश चिंतन" उसे देश की चिंता में डूबी हुई दिखाता है, जो औपनिवेशिक शासन के बोझ से संघर्ष कर रही है।
चित्र 2; भारत माता
भारत माता की पेंटिंग स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत का प्रतीक है। इसमें भारत माता को एक युवा और चार भुजाओं वाली तपस्विनी के रूप में दिखाया गया है, जो हाथों में कपड़ा, धान, ताड़ के पत्ते और कमल की माला पकड़े हुए है। उसने भगवा साड़ी पहनी है, और उसके हाथों में पकड़ी गई हर चीज का खास अर्थ है। उदाहरण के लिए, सफेद कपड़ा स्वदेशी कपड़ों का प्रतीक है, धान भोजन का, पेपरबैक शिक्षा का, और कमल की माला आध्यात्मिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है।(5)
दृश्य कला प्रचार के गतिविधियाँ और आम लोगों की प्रेरणा:
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, जो कई दशकों तक चला, और जिस में विभिन्न प्रकार की दृश्य कला प्रचार के गतिविधियाँ भी शामिल थीं, जिन्होंने आम लोगों को स्वतंत्रता की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। उस समय कुछ अज्ञात कलाकारों ने ब्रिटिश विरोधी पोस्टर और पत्रक बनाए, जो बहुत प्रभावशाली साबित हुए। इन पोस्टरों ने जापानी सेना और भारतीयों को ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ने के लिए उत्साहित किया, जिससे वे राष्ट्रीय आंदोलन में खुसी खुसी शामिल हो गए। दृश्य संचार हमेशा अधिक प्रभावी होता है और बड़े पैमाने पर संदेश पहुंचाने में सक्षम होता है। ये पोस्टर उस समय के भारतीयों के लिए संदेश फैलाने का बड़ा माध्यम थे, क्योंकि कई लोग पढ़ या लिख नहीं सकते थे, लेकिन वे हिंदी, बंगाली, उर्दू, और अंग्रेजी जैसी विभिन्न भाषाओं में बने चित्रों को आसानी से समझ लेते थे।(6)
चित्र 3; ‘डीइंडस्ट्रियलिज़्ड इंडिया’ (‘अंग्रेजों की क्रूरता - जापानी प्रचार पत्रक, 1944)
डीइंडस्ट्रियलिज़्ड इंडिया, इस पोस्टर/पत्रक (चित्र - 3) में दिखाया गया है कि अंग्रेजों ने भारतीयों के साथ बहुत क्रूरता करके भारत को औद्योगिकीकरण से वंचित कर दिया। इस चित्र में स्वस्थ शरीर वाले एक व्यक्ति को देख सकते हैं, जिसकी त्वचा गोरी और बाल लाल हैं और सिर पर टोपी है जो ब्रिटिश कर्मियों का प्रतिनिधित्व का रूप दर्शाया गया ह। जो की एक दुबले-पतले भूरे रंग के व्यक्ति की उंगलियाँ काट रहा है, जिसके हाथ और पैर एक बड़े खंभे से बंधे हैं। भूरे रंग का व्यक्ति जो भारतीयों का प्रतिनिधित्व का रूपक है, चिल्ला रहा था, लेकिन कठोर हृदयहीन अंग्रेज उसके साथ बहुत क्रूरता कर रहा था। और पृष्ठभूमि में अंधेरा और आग है जो भारतीय उद्योगों को हुए भारी विनाश को दर्शाता है।(7)
चित्र 4; चर्चिल ट्रीटिंग शकलेड़ इंडियंस लाइक स्लेव्स
इस पोस्टर/पत्रक (चित्र 4) में दिखाया गया है कि कैसे ब्रिटिश कर्मचारी चर्चिल बेड़ियों में जकड़े भारतीयों के साथ गुलामों जैसा व्यवहार करते हैं। ब्रिटिश शासन में उन्हें गुलामों की तरह व्यवहार करने के लिए मजबूर किया जाता है। इस में कई फिगर्स दोहराई गई हैं। उनमें से एक है विंस्टन चर्चिल का गोल-मटोल, भद्दा कैरिकेचर - जिसे साम्राज्य के राजदूत के रूप में चित्रित किया गया है - और एक काले, कम कपड़े पहने, उग्र दिखने वाले भारतीय की आकृति, जो अक्सर ब्रिटिश प्रधानमंत्री के ऊपर हथियार पकड़े रहता है। बार-बार दिखाई देने वाली यह काली, पगड़ी वाली आकृति, साम्राज्य के खिलाफ आत्म-सशक्तिकरण के रूपक के रूप में दिखाई जा रहा है।(8)
चित्र 5; चलो दिल्ली चलें, आजादी और स्वतंत्रता अब आपके दरवाजे पर है
इस पेंटिंग (चित्र - 5) में, सुभाष चंद्र बोस का यह शानदार रंगीन कार्टून जैसा चित्रण किया गया है। जिसमे उन्हें भारतीय राष्ट्रीय सेना का नेतृत्व करते हुए दिखाता है, जो ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकने के लिए दिल्ली की ओर बढ़ रही है। यह एक जापानी प्रचार पुस्तिका है, जो संभवतः 1944 में भारत-बर्मा सीमा पर छोड़े गई थी, जहाँ भारतीय सेना, अन्य औपनिवेशिक और ब्रिटिश सैनिकों के साथ, बर्मा को पुनः प्राप्त करने के लिए एकत्र हो रही थी। उर्दू, हिंदुस्तानी और बंगाली - तीन सबसे व्यापक रूप से बोली जाने वाली भारतीय भाषाओं में - संदेश एक ही है: 'आओ, दिल्ली की ओर मार्च करो - सुभाष के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता ध्वज के नीचे इकट्ठा हों। स्वतंत्रता और आजादी अब आपके दरवाजे पर है!'(9)
चित्र 6; भारत की लूट। देवनारायण वर्मा। 1930 की एक प्रतिबंधित छवि: एक लालची और लालची इंग्लैंड भूखे भारत को लूट रहा है।
https://www.semanticscholar.org/paper/Visualising-India's-geo-body%3A-Globes%2C-maps%2C-Ramaswamy/8d8f392f88f84cb1f1f22447db4c5a1ceef8a9b1
यह 1930 में एक समाचार पत्र में प्रकाशित पोस्टर (चित्र 6) है। यह दर्शाता है कि कैसे लालची इंग्लैंड भारत के संसाधनों और आम लोगों को लूट रहा है और उन्हें भूखा मरने पर मजबूर कर रहा है।
तत्कालीन समय में स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए राष्ट्रवादी चिंतकों और बुद्धिजीवियों ने राष्ट्रवादी विचारों को भारत के हर कोने में पहुंचाने का प्रयास किया। उन्होंने जनता में जागरूकता फैलाने और उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित करने के लिए विविध माध्यमों का उपयोग किया, जिससे देशभर में स्वतंत्रता की भावना प्रबल हो सकी। इसी मकसद से रचित किए गए गीत, कविताएं, नाटक, साहित्य और दृश्य कला भारतीयों के बीच राष्ट्रवादिता का प्रकाश फैलाने का काम कर रहे थे। इन रचनाओं में पराधीन भारत के दर्द को स्पष्ट रूप से दर्शाया गया, जिससे कलाकारों के मन में जितना दर्द था, उतनी ही स्वाधीनता की बेकरारी भी उनकी रचनाओं में झलकती थी और यह भावनाएँ प्रत्येक भारतीय के दिलों में प्रतिध्वनित होती थीं। उदाहरण के लिए, रवि वर्मा की पेंटिंग्स में भारतीय देवी-देवताओं और महाकाव्यों के नायकों को चित्रित कर भारतीय संस्कृति और गौरव को उभारा गया। वहीं, भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटकों और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास "आनंदमठ" ने लोगों के दिलों में स्वाधीनता की लौ जगाई।[9][12] समाचार पत्रों और पत्रिकाओं ने भी इस आंदोलन में अहम भूमिका निभाई। "अमृत बाज़ार पत्रिका" और "केसरी" जैसे समाचार पत्रों ने जनता को जागरूक किया और स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया। इन समाचार पत्रों की पहुँच देश के कोने-कोने तक थी, जिससे देशवासियों में एकजुटता और देशभक्ति की भावना को बल मिला।(10)
चित्र 6: ओम आर्य कैलेंडर, 1919, मदर इंडिया के नीचे तिलक और लाला लाजपत राय की तस्वीरें
एक प्रतिबंधित प्रकाशन।
चित्र - 6, फरवरी 1919, 'एक प्रतिबंधित प्रकाशन' के ओम आर्य कैलेंडर में उन दोनों को भारत माता की तलवार चलाते हुए दिखाया गया है। तलवार पर 'शक्ति' लिखा है, और उसके हाथ में 'विद्या' लिखी एक पुस्तक है। कैलेंडर सम्मानपूर्वक प्रत्येक भारतीय से विनती करता है कि 'जागो, बहादुर भारतीयों!'। वर्ष का प्रत्येक महीना एक नई ऊर्जावान घोषणा करता है कि भारतीयों को अब अपनी स्वाभाविक विनम्रता को त्याग देना चाहिए। हमें अपनी मांगों को संदिग्ध और अस्पष्ट शब्दों में व्यक्त करने से बचना चाहिए। उठो भारत माता! जागो भारत माता! अपने चेहरे से आंसू पोंछो! चिंतित मत हो। आपके बेटों ने आपकी खातिर अपना जीवन देने का दृढ़ संकल्प किया है, यदि आपको इसकी आवश्यकता है।(11)
चित्र - 7: शहीद भगत सिंह, c1940, राइजिंग आर्ट कॉटेज, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित।
(बाद में रंगीन संस्करण जो रूप किशोर कपूर की प्रतीकात्मकता को विकसित करता है)
चित्र-7 में, जैसे अभिलेखागार में प्रतिबंधित फाइलों में भगत सिंह की तस्वीरें बहुतायत में हैं, वैसे ही रूप किशोर कपूर (1893-1978) की तस्वीरें इंडिया ऑफिस और राष्ट्रीय अभिलेखागार के प्रतिबंधित खंडों में किसी भी अन्य ज्ञात कलाकार की तस्वीरों से अधिक हैं। संभल में जन्मे रूप किशोर कपूर कानपुर चले गए, जहाँ उन्होंने एक मिडिल स्कूल में कला शिक्षक के रूप में काम किया और कांग्रेस में सक्रिय रहे। यह वह समय था जब कानपुर को 'लाल कानपुर' के नाम से जाना जाता था, और रूप किशोर कपूर ने क्रांतिकारी गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनके पोते के अनुसार, जिस दिन भगत सिंह को फांसी दी गई, उस दिन उन्होंने भगत सिंह का सिर कटा हुआ चित्र बनाया, जिसमें उनका सिर एक थाली में रखा है और भारत माता को भेंट किया जा रहा है। इस चित्र में भारत माता रो रही हैं।(12)
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अनेक चित्र और कलाकृतियाँ बनाई गईं, जिनमें से कुछ ने सदा जीवंत रहने वाली शैली को अपनाया। ये चित्र न केवल सौंदर्य में उत्कृष्ट थे, बल्कि विचारोत्तेजक भाव धारा से ओतप्रोत भी थे। ये भावनाएँ और विचार भारतीयों के हृदयों में एक चिंगारी की तरह प्रज्वलित हो गए। ये चित्र और उनकी भावनाएँ एक प्रकार का प्रोपेगंडा बन गए, जो हर भारतीय के मन में स्वाधीनता के लिए एक ज्वाला प्रज्वलित कर देते थे।[10] यह ज्वाला इतनी प्रबल थी कि इसने सभी को, चाहे वे किसी भी वर्ग के हों, स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए एक युद्ध जैसी भावना से ओतप्रोत कर दिया। भारतीय स्वतंत्रता केवल एक माध्यम, यह मुद्दे पर आधारित नहीं थी; इसके पीछे अनेक मुद्दों और कारणों का सम्मिलित योगदान था। इन सभी मुद्दों का उद्देश्य स्वतंत्रता की प्राप्ति था।(13)
राष्ट्रवादिता का जो महत्व इन चित्रों के माध्यम से प्रकट हुआ, वह भारतीय समाज के हर वर्ग को, चाहे वे शिक्षित हों या अशिक्षित, स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ने में सहायक सिद्ध हुआ। इन चित्रों ने न केवल विचारधारा को प्रभावित किया बल्कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को गति देने में भी अहम भूमिका निभाई। इस प्रकार, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम केवल राजनैतिक संघर्ष नहीं था, बल्कि यह एक सांस्कृतिक, सामाजिक और भावनात्मक आंदोलन भी था, जिसने हर भारतीय के हृदय में स्वतंत्रता की आग को प्रज्वलित किया।(14)
निष्कर्ष : भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर समकालीन राष्ट्र वादी दृश्य कला का प्रभाव न केवल गहरा और व्यापक था, बल्कि इसने पूरे देश में एक असाधारण ऊर्जा और जागरूकता उत्पन्न की। यह प्रभाव इतना प्रबल था कि इसने हर व्यक्ति के मन में राष्ट्रवादिता की भावना को गहराई से अंकित कर दिया। राष्ट्र वादी दृश्य कला ने स्वतंत्रता की लौ को प्रज्वलित किया और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को भारत छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस कला के माध्यम से राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर स्वतंत्रता संग्राम को समर्थन मिला। यह सिर्फ एक कला रूप नहीं था, बल्कि यह एक माध्यम बन गया था जिसके द्वारा भारतीय समाज एकजुट हुआ। इसने स्वतंत्रता की भावना को और भी सशक्त किया और लोगों को औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रेरित किया। यह कला रूप उन आदर्शों, मूल्यों और भावनाओं को चित्रित करता था जो स्वतंत्रता संग्राम के लिए आवश्यक थे।
राष्ट्र वादी दृश्य कला ने न केवल संघर्ष की प्रेरणा दी, बल्कि यह कला समाज के विभिन्न वर्गों को एक साथ लाने में भी सफल रही। इसने सांस्कृतिक पुनर्जागरण को भी जन्म दिया, जिसने भारतीयों को अपने गौरवशाली अतीत की याद दिलाई और उन्हें अपने भविष्य के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में समकालीन राष्ट्र वादी दृश्य कला का योगदान निस्संदेह महत्वपूर्ण था। इसने न केवल इतिहास के इस महत्वपूर्ण काल खंड को आकार देने में अहम भूमिका निभाई, बल्कि यह आंदोलन के हर पहलू में गहराई तक समाहित था। इसने भारतीय समाज में न केवल राजनीतिक चेतना जागृति की, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से भी एक नई दिशा प्रदान की, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सफलता का एक प्रमुख आधार बनी।
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- शहीद भगत सिंह, c1940, राइजिंग आर्ट कॉटेज, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित।
सदाय चंद्र दास
सहायक प्रोफेसर, दृश्य कला विभाग, असम विश्वविद्यालय सिलचर
sadaydasy3@gmail.com, 7002799541
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