शोध सार : समाज को आईना दिखाती ’गुठली’ और ‘हिचकी’ फिल्में केवल व्यक्तिगत जीवन पर ही ध्यान केंद्रित नहीं करती बल्कि तात्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और शैक्षिक परिस्थितियों को भी आधुनिक संदर्भ में हमारे सम्मुख प्रस्तुत करती है। दो जून की रोटी के लिए संघर्ष करते मजदूर की पीड़ा, पढ़ने की चाहत लिए एक गरीब अछूत बालक की छटपटाहट, भेदभाव और असमानता की परंपरा को समाज में स्थापित करते उच्च जाति के अध्यापकों की धूर्तता और शिक्षा के अधिकार की धज्जियां उड़ाता प्रशासन आदि का यथार्थ चित्र जिस तरह से गुठली फिल्म में प्रस्तुत किया गया है वह समाज, देश और दुनिया सभी के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल है। फिल्म का बेजोड़ कथानक, कलाकारों की भूमिका, फिल्म के दृश्य, फिल्म का वातावरण और फिल्म के संवाद जितनी संजीदगी से निर्देशक ने फिल्म में पिरोये है वह स्वयं मे तो बेहतरीन है ही बल्कि उनसे घटनाएं भी जीवंत हो उठी है।
बीज शब्द : गुठली, हिचकी, धूर्तता, संवैधानिक, असमानता, विकलांगता, अनसुलझे, क्रिटिकल थिंकिंग, प्रॉबलम सॉलविंग, क्रिएटिविटी, इनोवेशन, समावेशी, भावनात्मक, ट्रीट आदि।
मूल आलेख : गुठली फिल्म में गुठली नामक कलाकार की पढ़ाई के प्रति रुचि, स्कूल में भर्ती होने की अभिलाषा, शोषण का दर्द, संघर्षों से जूझता बचपन, गहन आत्मविश्वास और शिक्षकों का दोहरा चरित्र आज की शिक्षा व्यवस्था में छिपे नासूर को परत दर परत उलटने के प्रति जिज्ञासा जगाता है, जिस परत में ना जाने कितनों का बचपन शिक्षा से वंचित होकर, दबा हुआ कराह रहा है, और इन सबकी दोषी वह व्यवस्था है जो मानव को मानव से श्रेष्ठ और नीच ठहराती है। वह शिक्षक है जो खुद को गुरु बताता है और अपने विद्यार्थियों में भेद करता है।
दोनों ही फिल्मों में निर्देशक ने शिक्षा के वास्तविक अर्थ को समझाने का प्रयास किया है। ‘हिचकी’ फिल्म में छोटी बच्ची नैना माथुर विकलांगता के कारण परिवार और समाज से पीड़ित बचपन, जिंदगी तथा अपने सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद में अनेक कठिन रास्तों से होकर गुजरती है, जहां उसको अपमान भी झेलना पड़ता है और शोषण भी, परंतु नैना समस्याओं का डटकर मुकाबला करती है। ’हिचकी’ फिल्म में अनेक ऐसे सवाल उठाए गए है जो हमारी वर्तमान शिक्षा की असलियत की पोल खोल देने में सफल हुए है। शिक्षक बनने की चाहत दिल में लिए नैना अनेक संघर्षों के बावजूद उस मुकाम तक पहुँच पाने में सफल हो जाती है। नैना को बार-बार तेज आवाज में हिचकी आना और अनेक स्कूलों से उसको निकाला जाना, हमारी आज की समावेशी शिक्षा पर सवाल खड़े करते है। समावेशी शिक्षा के स्वरूप को बिगाड़ने की पूरी तरह से जिम्मेदारी उन शिक्षकों की है जिन्होंने दूसरों को कमतर दिखाने के लिए सभी के लिए एक समान शिक्षा के सिद्धांत पर कार्य करना जरूरी ही नहीं समझा। बच्चों से जुड़े बिना, उन्हे समझे बिना, उनकी इच्छा, रुचि, गति और योग्यता को जाने बिना उनको शिक्षा देना नहीं है बल्कि उन पर शिक्षा को जबरदस्ती थोपना है। ‘हिचकी’ फिल्म में यह बात पुरजोर रूप से उठाई गई है कि बच्चों से बेहतर जुड़ाव यदि शिक्षक का होता है तो बच्चों के सीखने की गति में सकारात्मक परिवर्तन आता है, इसी सिद्धांत के आधार पर नैना माथुर ने बच्चों के सीखने की रुचि, क्षमता, गति और योग्यता के आधार पर ही शिक्षण विधि का चुनाव किया, जिससे उनकी कक्षा के बच्चों में सीखने के प्रति रुचि उत्पन्न हुई और कक्षा का परिणाम भी बेहतर हुआ।
समाज की सच्चाई को बयां करती ‘हिचकी’ और ‘गुठली’ फिल्में अपने आप में एक अनूठी मिसाल है जो इस 21वीं सदी में भी शिक्षा और समाज के बुनियादी सरोकारों की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। जहां आज देश और दुनिया के तमाम शिक्षाविद्ध और शिक्षा से जुड़ी तमाम नीतियां बच्चों में क्रिटिकल थिंकिंग, प्रॉबलम सॉलविंग, क्रिएटिविटी और इनोवेशन जैसे कौशलों को विकसित करने की बात करती है वहीं ये फिल्में हमें समाज के उन महत्वपूर्ण और अनसुलझे पहलुओं से रूबरू कराती हैं जो समाज के गर्त में कहीं न कहीं दबकर रह जाते हैं या यूं कहे कि पैरों तले रौंद दिए जाते हैं।
अफसोस की बात तो ये है कि इस तरह की घटनाओं पर बहुत से लोग अपनी प्रतिक्रिया देने से भी कतराते हैं । अब सवाल ये उठता है कि समाज का एक बड़ा वर्ग जब इस प्रकार की भेदभाव युक्त घटनाओं की अनदेखी करता है तो फिर उन संवैधानिक मूल्यों का क्या होगा जो देश के सभी वर्गों के लिए शिक्षा के समान अधिकार की बात करते हैं। ‘हिचकी’ और ‘गुठली’ दोनों ही फिल्में ऐसी हैं जो भारत में शैक्षिक असमानता और विकलांगता के मुद्दों को एक विस्तृत फलक पर हमारे सामने रखती है। जहां ‘गुठली’ फिल्म में शिक्षा की भेदभाव वाली कुरितियों पर जोर दिया गया है, वहीं ‘हिचकी’ फिल्म में विकलांगता के मुद्दे पर गहराई से प्रकाश डाला गया है। दोनों ही फिल्मों में पात्रों के किरदारों, उनसे जुड़े संवादों और कथानक को जो सफलता मिली है वो अपने-आप में बेजोड़ हैं, दोनों फिल्में केवल दर्शकों को प्रेरित ही नहीं करती बल्कि उनसे भावनात्मक रूप से जुड़ती प्रतीत होती हैं साथ ही समावेशी शिक्षा को सही अर्थ में दर्शकों के सामने प्रस्तुत करती हैं।
‘गुठली’ फिल्म एक ऐसे गरीब परिवार की कहानी है जो समाज के सबसे तुच्छ समझे जाने वाले कार्य (मैला उठाने, गंदगी साफ करने) को करते हैं और उसी कार्य से होने वाली आमदनी से किसी तरह अपना पेट पालते हैं। उसी परिवार में एक छोटा लड़का है ‘गुठली’ जो दिन-रात शिक्षा पाने के संघर्ष में लगा रहता है। ‘गुठली’ फिल्म का मुख्य पात्र है, जो फिल्म के कथानक का केंद्र बिन्दु है। फिल्म में ‘गुठली’ का एक दोस्त भी है जिसका नाम है ‘लड्डू’, वह भी ‘गुठली’ की तरह ही छोटी जाति का है, परंतु वह नियति की मार को नहीं झेल पाता और पढ़ाई के बारे में सोचना छोड़कर अपने पिता के कार्य में हाथ बटाने लग जाता है जिससे कि घर में दो जून की रोटी का जुगाड़ ठीक से हो सके। उसी सफाई के कार्य को करते हुए एक दुर्घटना (गंदे नाले में गिरने) में उसकी मौत हो जाती है। ‘लड्डू’ का दोस्त ‘गुठली’ उसका परिवार और पड़ोस के लोग इस घटना से बहुत आहत होते हैं।
‘हिचकी’ फिल्म का मुख्य और केन्द्रीय किरदार एक मध्य वर्गीय परिवार की युवा महिला नैना माथुर है जिसे ‘टॉरेट सिंड्रोम’ नाम की बीमारी है, जिसके कारण उसको बहुत तेज आवाज में हिचकियां आती है। नैना माथुर की बीमारी के कारण उसको अपने परिवार और समाज में बहुत परेशानी झेलनी पड़ती है। किसी सार्वजनिक स्थल पर या घर पर नैना माथुर को पिता द्वारा बात-बात पर टोकना। उसकी पसंद और नापसंद को कहने से पहले ही अपना निर्णय उस पर थोपना आदि घटनाओं के कारण नैना माथुर अपने पिता को पसंद नहीं करती है। नैना माथुर का स्कूल में उसके सहपाठियों और शिक्षकों द्वारा उसकी हिचकियों के कारण मजाक बनाया जाना और उसे बारह स्कूलों से निकाला जाना ही आज की शिक्षा व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती है, जो आज की शिक्षा नीति पर बहुत से सवाल खड़े करती है, परंतु नैना माथुर भी ‘गुठली’ की तरह ही निडर और साहसी महिला है। वह इन तमाम घटनाओं से घबराती नहीं बल्कि उसके साथ किए जाने वाले भेदभाव का वह डटकर मुकाबला करती है। इसी साहस के कारण नैना माथुर अपनी विकलांगता के बावजूद एक सफल शिक्षिका बनती है।
‘नैना माथुर’ और ‘गुठली’ दोनों का सपना है कि वह खूब पढ़ाई करे और जीवन में कुछ बड़ा करे, जिससे वो भी अन्य पढ़े-लिखे लोगों के समान, आजादी और सम्मान से अपना जीवन जी सके। परंतु समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव जहां ‘गुठली’ को उसके सपनों को पूरा करने में कठिनाई पैदा तो करता है साथ ही अनेक बार उसके उत्साह को कमजोर करने का कार्य भी करता है। वहीं ‘हिचकी’ फिल्म की पात्र नैना माथुर को उसकी बीमारी के कारण समाज और स्कूल में उसके साथ अछूतों जैसा व्यवहार उसकों बचपन से ही मजबूत बनाता है। वह किसी भी दमनकारी नकारात्मक सोच को अपने ऊपर हावी नहीं होने देती बल्कि उनसे सबक लेते हुए अपनी काबिलियत से स्कूली छात्रा से लेकर स्कूल प्रिंसिपल तक का सफर तय करती है। ‘गुठली’ फिल्म में ‘गुठली’ एक बुद्धिमान, जिज्ञासु, तर्कशील और प्रगतिवादी सोच का लड़का है, वह स्कूल की खिड़की से वो सब समझ लेता है जो कक्षा में बैठे बच्चे नहीं समझ पाते। वह एक दिन अपनी मां से कहता है-“हलवाई का बेटा भी तो अपने घर की सफाई करता है तो वो भी हमारी ही जाति का हुआ, इस पर ‘गुठली की मां कहती है- कि वो अपने घर की सफाई करता है और हम बाहर वालों के घर की, तब ‘गुठली’ कहता है- वो अपने घर के अंदर सफाई करता है और हम बाहर की तो वो भी घर में हमारी ही जाति का हुआ और हम बाहर”1। ‘हिचकी’ फिल्म में नैना माथुर एक साहसी और धैर्यशील महिला है, स्कूल समारोह के दौरान नैना की हिचकी की आवाज सभी का ध्यान आकर्षित करती है, स्कूल प्रिंसिपल को नैना माथुर की हिचकी कार्यक्रम में बाधा लगती है इसलिए वह गुस्से में कहता है कि- “जिसने भी यह किया है वह जल्दी से स्टेज पर आ जाए”2। नैना डरती हुई स्टेज पर जाती है पर अपना धैर्य नहीं खोती और प्रिंसिपल के पूछने पर (कि तुम यह क्यों कर रहीं थी?) वह अपनी बीमारी के बारे में साहस के साथ बताती है। नैना की बीमारी के विषय में सुनकर स्कूल प्रिंसिपल का ह्रदय दर्वित हो जाता है, तब वह नैना को कहता है कि “बताओं हम आपके लिए क्या कर सकते है, तब नैना निडर होकर कहती है कि “मुझे अन्य बच्चों की तरह स्कूल में ट्रीट किया जाए”3। यह वाक्य ही इस फिल्म के मुख्य डायलॉग में से एक है जो सभी दर्शकों को भावात्मक रूप से फिल्म से जोड़ने का कार्य करता है, साथ ही उन सभी शिक्षा से जुड़े स्टेकहोल्डर्स को यह समझाने का प्रयास करता है कि बच्चे की इच्छा, क्षमता, योग्यता, गति, रुचि और अवसर को जाने बिना बच्चों को सिखा पाना मुश्किल है।
बच्चों के स्तर को अपना स्तर बनाकर ही उनसे बेहतर जुड़ाव स्थापित किया जा सकता है, तभी सीखने-सिखाने की प्रक्रिया सम्पूर्ण हो पाती है और शिक्षा के समावेशी मूल्यों को भी आत्मसात किया जा सकता है। नैना माथुर बच्चों की उपरोक्त क्षमताओं को पहचानने में माहिर दिखाई देती है। अपने शिक्षक बनने के सपने को वह बड़ी मुश्किल से पूरा करती है। वह अनेक मुसीबतों का सामना करती है परंतु खुद को टूटने नहीं देती। स्कूल की सबसे उपद्रवी मानी जाने वाली कक्षा नैना को पढ़ाने को दी जाती है। जिस कक्षा में पास की झुग्गी बस्ती से सबसे निचले तबके से बच्चे पढ़ने आते है। स्कूल प्रशासन मानता है कि इस उपद्रवी कही जाने वाली कक्षा के सामने कोई शिक्षक बड़ी मुश्किल से पंद्रह दिन रुक पाता है, ऐसे में ये नैना माथुर इस कक्षा के सामने कहां तक टिक पाएगी? परंतु नैना माथुर एक समझदार और मेहनती शिक्षिका है। वह उपद्रवी कही जाने वाली उस कक्षा को बहुत अच्छे से समझने में सफल ही नहीं हो पाती बल्कि उन बच्चों की इच्छा, क्षमता, योग्यता, गति, और रुचि को समझकर उन्हें ऐसे अवसर प्रदान करती है जिससे उनमें खेल-खेल में ही विषय की गहरी समझ विकसित हो जाती है और वह स्कूल की सबसे अच्छी कही जाने वाली कक्षा के बच्चों को भी उनके गलत सवाल को फट से सही हल करने लगते हैं। वह कहती है- “शिक्षा चार दीवारी और कुछ घंटों तक ही सीमित नहीं होती है”।4
‘गुठली’ फिल्म का ‘गुठली’ नायक आर्थिक तंगी और सामाजिक भेदभाव के कारण कई बार टूटता और विचलित होता दिखाई देता है परंतु वह अपने ह्रदय में शिक्षा पाने के संघर्ष को मरने नहीं देता। ‘गुठली’ की मां सामाजिक असमानता से दुखी होकर कहती है –“अगर पढ़ना होता तो ऊंची जाति में पैदा होता, हमारी कोख से काहें जन्म लिया”।5 इस डायलॉग में एक गहरी वेदना, उदासीनता और निराशावादिता देखी जा सकती है। ‘गुठली’ को स्कूल में प्रवेश नहीं मिलता क्योंकी स्कूल का स्टाफ और स्कूल का संस्थापक यह मानते हैं कि एक छोटी जाति के बच्चे का बड़ी जाति के बच्चों के साथ पढ़ना ठीक नहीं है, इसलिए स्कूल के बाहर से खिड़की के पास खड़ा होकर चोरी से पढ़ाई करना ‘गुठली’ के लिए तो एक बड़ी चुनौती है ही साथ ही यह उस तात्कालीन व्यवस्था और समाज के सामने भी एक बड़ी चुनौती है जो सभी को एक समान शिक्षा मुहैया कराने का दंभ भरते हैं। ‘गुठली’ के पिता जो एक सफाई कर्मचारी हैं, वह भी ‘गुठली’ की तरह निडर और साहसी व्यक्ति है। प्रारंभ में तो वह समाज की खोखली मान्यताओं के सामने झुकते से दिखाई देते हैं परंतु बाद में वह अपने बेटे के पक्ष में खड़े होकर उसके सपनों को पूरा करने के लिए उस जातिगत और भेदभाव पूर्ण समाज से लोहा भी लेते हैं ।
‘गुठली’ का पिता छोटी जात का होकर एक दिन वह बड़ी जात वाले घर की साइकिल छू लेता है। उसे खूब खरी-खोटी सुनने को मिलती है। साफ-सफाई के बदले उसे बड़ी जात की महिला पचास रुपए देती है और बीस रुपए जबरदस्ती वापस मांगती है तब छोटी जात वाला ‘गुठली’ का पिता निडर होकर कहता है कि- “मेरे छूने से साइकिल अछूत हो गई, फिर मेरे हाथ के छूए रुपए कैसे रख लोगे”।6 तब बड़ी जात वाली महिला कहती है- “ये लक्ष्मी है लक्ष्मी, लक्ष्मी के कमल में कीचड़ भी लगता है, तब भी वह कमल ही होता है”।7 इस प्रकार यह फिल्म जातिगत अत्याचार पर तो सवाल उठाती ही है बल्कि यह सवाल भी उठाती है कि आखिर कब तक भारत इन सामाजिक भेद-भाव जैसे कुकृत्य की बेड़ियों में जकड़ा रहेगा? आखिर कब तक आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को शिक्षा का मौलिक अधिकार मिल पाएगा?
‘हिचकी’ फिल्म की पात्र नैना माथुर भी एक दृढ़ संकल्प वाली साहसी शिक्षिका है जो अपने सपनों को पूरा करने में अपनी बीमारी को बाधा नहीं बनने देती। उनकी कक्षा के बच्चे जो पढ़ाई से हार मान गए थे, वह उनको प्रेरित ही नहीं करती बल्कि उनमें पढ़ने के प्रति लगन भी पैदा करती है। वह बच्चों से कहती है-“जब तक यह पेज कॉपी में है तुम्हारी जिंदगी की किताब यहीं खुलेगी और बंद हो जाएगी जब तुम उसे अपना बना लोगे यह पेज तुम्हारे पंख बनकर आसमान में उड़ेंगे”।8 वे आगे कहती है-“अपने सच से कहो आज तुम मेरी ताकत हो कमजोरी नहीं। अब तुम उड़ोगे और मुझे भी उड़ना सिखाओगे”।9 ‘गुठली’ फिल्म में जहां गुठली और उसका समाज शिक्षा के मौलिक अधिकार को पाने की जद्दोजहद में लगा रहता है वहीं ‘हिचकी’ फिल्म में नैना माथुर विभिन्न पारिवारिक और सामाजिक परिवेश से आए बच्चों को उनके शिक्षा के मौलिक अधिकार को दिलाने के लिए स्कूल के शिक्षकों से तीखे स्वर में वाद-विवाद करती दिखाई देती है।
‘गुठली’ फिल्म के एक किरदार है- हरिशंकर मिश्रा, जो कहने को तो स्कूल में प्रिंसिपल है, परंतु वह पुरातन-पंथी मान्यताओं से जकड़े हुए हैं, जो जातिगत भेदभाव की इस व्यवस्था का खुलकर विरोध नहीं कर पाते। एक कथन में हरिशंकर मिश्र की मां कहती है कि- “अगर बाजपेयी न होते तो हेडमास्टर न बन पाते”।10 वर्षों से चली आ रही इस परंपरा का विरोध हरिशंकर मिश्रा के लिए इतना आसान नहीं है, उनके ऊपर भी स्कूल के बहुत से अफसर और स्कूल संस्थापक है। स्कूल संस्थापक एक बहुत पहुँच वाले विधायक हैं। हरिशंकर मिश्रा शुरू में तो ‘गुठली’ को पसंद नहीं करते थे क्योंकी वह शुरू में उसी विचारधारा को मानते थे। वह कहते हैं- “पूजा पर ध्यान ना दें... सरस्वती पूजा पर ध्यान दें, लक्ष्मी खुद ही चलकर घर आ जाएगी”।11 लेकिन यहां सवाल इस बात का है कि क्या लक्ष्मी और पढ़ाई बड़ी जाति वाले लोगों के घर ही चलकर आती है, गरीब और अछूत लोगों के घर पर नहीं। इस प्रकार उपरोक्त डायलॉग से हरिशंकर मिश्रा के शुरुआती विचारों का पता चलता है, परंतु ‘गुठली’ की पढ़ने के प्रति रुचि और जिज्ञासा को देखकर हरिशंकर मिश्रा की सोच बदल जाती है, वह चाहते हैं कि ‘गुठली’ को भी अन्य बच्चों के समान पढ़ने का अधिकार मिले, इसलिए स्कूल प्रिंसिपल हरिशंकर मिश्रा चोरी-छिपे ‘गुठली’ और उसके समाज की मदद करते हैं उनको शिक्षा से जुड़े नियमों से अवगत कराते हैं । “शौचालय कितना भी साफ क्यों न हो इसका उपयोग केवल शौच के लिए ही किया जाता है”12। - फिल्म का यह डायलॉग जो ’गुठली’ के लिए एक स्कूल शिक्षक चौबे द्वारा कहा गया है अपने-आप में भारतीय समाज और शिक्षा व्यवस्था की कड़वी सच्चाई को उजागर करता है, जो आज भी भारतीय समाज में सामाजिक असमानता और भेदभाव के विचार स्थापित करने पर जोर देता है।
‘गुठली’ फिल्म के अंतिम सीन में हरिशंकर मिश्रा ‘गुठली’ के स्कूल में प्रवेश के लिए दौड़ के रूप में एक प्रतियोगिता तय करवाता है, जिसमें यह नियम बनाया जाता है कि अगर ‘गुठली’ दौड़ जीत जाता है तो उसको स्कूल में प्रवेश दे दिया जाएगा, परंतु इस दौड़ प्रतियोगिता में भी ‘गुठली’ के साथ भेदभाव किया जाता है। ‘गुठली’ की छाया ऊंची जाति के बच्चों पर न पड़ जाए, इसलिए ‘गुठली’ को शुरुआती बिन्दु से पीछे हटकर दौड़ना होगा। दौड़ शुरू होती है शुरुआती बिन्दु से पीछे हटकर दौड़ने पर भी (जबकि अन्य बच्चें ‘गुठली’ से आगे के बिन्दु से खड़े होकर दौड़ते है) ‘गुठली’ दौड़ को जीत जाता है। इस अंतिम सीन की समाप्ति पर फिल्म तो समाप्त हो जाती है, मगर बहुत से सवाल हमारे सामने छोड़ जाती है। जिस प्रतियोगिता के जीतने से ‘गुठली’ को प्रवेश दिया गया होगा क्या अब उसके साथ कोई भेदभाव नहीं होगा? जिस प्रतियोगिता में पहले ही छल किया गया है, क्या उसका परिणाम भी न्यायिक होगा? या फिर से कोई नई रणनीति के तहत कपटपूर्ण प्रतियोगिता से ‘गुठली’ को फिर से खुद को साबित करना होगा? आदि।
‘हिचकी’ फिल्म का अंतिम दृश्य (जब नैना माथुर प्रिंसिपल के पद से सेवा-निवृत्त होती है) सभी को भाव-विभोर कर देता है जब नैना माथुर अपने सामने खड़े उन्हीं उपद्रवी बच्चों को देखती है जो आज अच्छी स्थिति में है (हर कोई किसी न किसी नौकरी में है) और वो अपनी उसी शिक्षिका के स्वागत के लिए आए है जिसने उन्हें अच्छे से समझा और उन्हें अच्छी शिक्षा दी, जिसकी बदौलत आज वो सब इस मुकाम पर पहुंचे हैं। फिल्म का यह अंतिम सीन शिक्षिका और बच्चों के बीच आदर्श प्रेम का प्रतीक है, जो हमें यह सीख देता है कि शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच आपसी समझ और बेहतर जुड़ाव ही शिक्षण-अधिगम-प्रक्रिया को पूर्ण बनाता है।
‘गुठली’ और ‘हिचकी’ दोनों ही ऐसी फिल्में है जो आज की शिक्षा-व्यवस्था पर एक करारा व्यंग है। ये फिल्में दर्शकों को प्रेरित करती ही है बल्कि उनको शैक्षिक क्षेत्र में होने वाले भेदभाव से भी परिचित कराती है। शिक्षा और समाज के संबंधों की पहचान कराती और समाज के ज्वलंत मुद्दों की तरफ ध्यान आकर्षित करती ये फिल्में अपने-आप एक बेहतर संदेश प्रस्तुत करती है। ‘गुठली’ फिल्म जहां जातिगत भेदभाव के संदर्भ को समाज के सामने प्रस्तुत करती है, तथा शिक्षा के अधिकार की अवेलहना का जीवंत रूप दर्शाती है, वहीं ‘हिचकी’ फिल्म विकलांगता और समावेशी शिक्षा की और लोगों का ध्यान आकर्षित करती है।
समावेशी शिक्षा के सही रूप की पहचान कराना और उससे बच्चों को कैसे लाभान्वित किया जाए इन सभी बातों का समाधान प्रस्तुत करती ये फिल्म बेहतरीन कथानक को अपने अंदर समेटे हुए है। दोनों ही फिल्में सभी के लिए शिक्षा को सुलभ बनाने की वकालत करती हैं, चाहे किसी की सामाजिक और आर्थिक स्थिति कुछ भी हो साथ ही दोनों फिल्में इस बात पर जोर देती हैं कि समाज में एक बेतहर सकारात्मक बदलाव हो। ये दोनों ही फिल्में समाज को यह संदेश देती हैं कि कितनी भी बाधाएं जीवन में क्यों न आ जाए कभी उससे घबराना नहीं चाहिए तथा दृढ़ निश्चयी बनकर उन सभी बाधाओं को पार कर अपने सपनों की मंजिल तक पहुँच जाना चाहिए। दोनों ही फिल्मों का मत भले ही अलग-अलग हो परंतु दोनों ही फिल्में शिक्षा के अधिकार और सामाजिक समानता के महत्व को उजागर करती हैं। ‘गुठली’ जहां समाज के अछूत कहे जाने वाले बच्चे के संघर्ष को दिखती है वहीं ‘हिचकी’ ऐसे बच्चों के संघर्ष को समाज के सामने रखती है जिनको स्कूल में कम आंका जाता है।
संदर्भ :
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, एस. सी. ई. आर. टी. दिल्ली
rs.sharma642@gmail.com
राम निवास
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, सी. आई. ई. दिल्ली विश्वविद्यालय
prnce1977@gmail.com
बहुत ही अधिक अच्छी बात दर्शायी गए है बड़े भाई डॉ मुकेश कुमार जी
जवाब देंहटाएंये कविताएं जीवन में प्रेरणाएं देती हैं
और आप तो शिक्षित समाज का आईना भी हो
बहुत बहुत धन्यवाद्
बड़े भी जी
Ramkishor
जवाब देंहटाएंBamnauli Baghpat
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