शोध सार : यह लेख वेब सीरीज ‘मर्डर इन माहिम’का आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जो समाज में समलैंगिकता के प्रति विद्यमान गहरे पूर्वाग्रह और अस्वीकृति को उजागर करता है। सीरीज ने पात्रों के जटिल मानसिक संघर्षों और उनके व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन के विविध आयामों को प्रभावी ढंग से चित्रित किया है। हालाँकि यह एक मर्डर मिस्ट्री है, परंतु इसका असल उद्देश्य समाज में व्याप्त भेदभाव और संस्थागत दमन—खासकर पुलिस व्यवस्था के स्तर पर—की कठोर आलोचना करता है। सीरीज के दृश्य समलैंगिक उप-संस्कृति की छिपी हुई दुनिया को सबके सम्मुख प्रस्तुत करते हैं, जो यह बताता है कि समाज अभी भी समलैंगिक पहचान को क्यों मुख्यधारा में स्थान देने में विफल रहा है। ‘मर्डर इन माहिम’केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि एक गंभीर सामाजिक आलोचना है, जो समलैंगिकता के प्रति समाज की मानसिकता को चुनौती देती है और उसे बदलने का आह्वान करती है।
बीज शब्द : समलैंगिकता, हत्या, भेदभाव, एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय, पूर्वाग्रह, भारतीय सिनेमा, क्वीयर, स्वीकृति, दृष्टिकोण।
मूल आलेख : सिनेमाएक ऐसा माध्यम है जो सदियों से मनोरंजन और सामाजिक परिवर्तन का केंद्र रहा है। भारतीय सिनेमा, अपनी विविधता और व्यापक अपील के साथ, समाज के बदलते नज़रिए का आईना है।यह लंबे समय से लोकप्रिय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है।समय के साथ, सिनेमा अब हमारे सामाजिक और राजनीतिक विमर्श का एक अहम हिस्सा बन गया है। निःसंदेह “जिंदा सिनेमा अपने वक्त के जुल्म-ओ-सितम को दर्ज करने और इस बारे में सवाल पूछने का काम करता है”।1फिल्में सार्वजनिक राय को प्रभावित करती हैं और बदले में, समाज की प्रतिक्रियाएं फिल्मों को नई दिशाएं देती हैं।
हाल के वर्षों में, भारतीय सिनेमा में एलजीबीटीक्यूआईए+ पात्रों को अधिक प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करने के प्रयास हुए हैं, लेकिन ये प्रयास अक्सर अपर्याप्त रहते हैं। जबकि कुछ फिल्में जैसेफायर (1996) औरमार्गरिटा विद ए स्ट्रॉ (2014) ने समलैंगिकता के जटिल पहलुओं को साहसिकता से दिखाया, कई अन्य फिल्में जैसेदोस्ताना (2008), मस्तीज़ादे (2016), औरकल हो ना हो
(2003) ने क्वीयर पहचान को हास्य या नकारात्मक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया, जिससे यह धारणा बनी कि समलैंगिकता असामान्य या हास्यप्रद है। वहीं, पार्टनर (2007) समलैंगिकता का मजाक उड़ाती है, जबकिअलीगढ़ (2015) में समलैंगिक प्रोफेसर के संघर्षों को संवेदनशीलता से दिखाया गया है, जो क्वीयर पहचान को गंभीरता से प्रस्तुत करने का दुर्लभ उदाहरण है।
कुछ सकारात्मक प्रयासों के बावजूद, भारतीय सिनेमा में एलजीबीटीक्यूआईए+पात्रों की कई बार मनोरंजन के लिए गलत तरीके से प्रस्तुति की जाती है, जो समलैंगिकता की संवेदनशीलता को कम करके उसे हास्य का विषय बना देती है, और यह दशकों से चली आ रही सामाजिक असुविधा और रूढ़िवादिता को बनाए रखती है। हालांकि क्वीयर पहचानों के प्रति समझ और स्वीकृति को बढ़ावा देने के लिए फिल्में निरंतर इनसे संबंधित विषयों की वकालत और प्रतिनिधित्व की आवश्यकता को उजागर करती है। “भारत की वर्तमान स्थिति को पश्चिमी समाजों की समलैंगिक मुक्ति से पहले की स्थिति के समान और भिन्न दोनों ही माना जा सकता है। यह समान है क्योंकि धारा 377 को निरस्त करने के संघर्ष ने देश में एलजीबीटीक्यु सक्रियता को सशक्त बनाने में मदद की है।”2 समलैंगिकता पर सामाजिक दृष्टिकोण भारतीय समाज में सदियों से विवादास्पद रहा है, जहाँ पारंपरिक मान्यताओं और आधुनिकता के बीच संघर्ष चलता रहता है।
‘'मर्डर इन माहिम'3 वेब सीरीज, जेरी पिंटो की किताब पर आधारित यह आठ-एपिसोड की क्राइम ड्रामा, 10 मई 2024
को जियो सिनेमा पर रिलीज़ हुई। मुस्तफा नीमचवाला और उदय सिंह पवार द्वारा लिखित तथा राज आचार्य द्वारा निर्देशित यह सीरीज समाज के समलैंगिकता पर दोहरे मापदंडों को बेनकाब करती है।यह कहानी भारतीय समाज की जटिल भावनाओं और सामाजिक पेचीदगियों को दर्शाती है। मुंबई के माहिम रेलवे स्टेशन पर एक हत्या से शुरू होने वाली इस सीरीज में इंस्पेक्टर शिवाजी जेंडे (विजय राज) मामले की जांच करते हैं, जबकि उनके पूर्व मित्र, पत्रकार पीटर फर्नांडीस (आशुतोष राणा), इसमें शामिल हो जाते हैं। पीटर, अपने बेटे सुनील की समलैंगिकता से जूझते हुए, एलजीबीटीक्यू+समुदाय की कठिनाइयों को समझने लगते हैं, जबकि शिवाजी अपने पूर्वाग्रहों से पार पाने की कोशिश करते हैं। शानदार अभिनय और गहरी संवेदनशीलता से भरपूर यह सीरीज कहानी को विश्वसनीयता और गहराई प्रदान करती है।
जेंडे की टीम की एक अन्य सदस्य, फिरदौस रब्बानी, एक लेस्बियन हैं, अपने समलैंगिक होने की पहचान को छिपाते हुए समाज के पूर्वाग्रहों के बीच काम करती हैं। उसकी प्रेमिका रिहानापेशे से डॉक्टर है। वहीं, पीटर का बेटा सुनील, जो कॉलेज का छात्र है, समलैंगिक सेक्स वर्कर्स के उत्थान के लिए काम करता है, लेकिन अपने माता-पिता से अपने जीवन के बारे में स्वीकार्यता पाने के संघर्ष में फंसा हुआ है। इसके अलावा, यूनिट नामक एक परेशान युवक है जो प्रोक्सी का समलैंगिक दोस्त भी है, अत्यधिक कठिनाइयों और समाज की अस्वीकृति का सामना कर रहा है। वह अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए संघर्षरत है।
भारतीय समाज में समलैंगिकता को अक्सर अपराध या मानसिक विकार के रूप में देखा गया है। ‘मर्डर इन माहिम’इस समाज में समलैंगिकता और समलैंगिक लोगों के प्रति फैली गहरी गलत धारणाओं को आईना दिखाता है। पहला एपिसोडभूखा शहरसमलैंगिक समुदाय के प्रति समाज और पुलिस की रूढ़िवादी मानसिकता को उजागर करता है जो प्रोक्सी नाम के एक गे-सेक्स वर्कर की हत्या की जांच कर रहे थे। निम्न दिये गये संवाद से ही जांच कर रहे लोगों और उनके समाज की मानसिकता का पता चलता है:
रेलवे कर्मचारी, “अड्डा बना दिया है इन लोगो ने।”
शिवजीराव जेंडे - “इन लोगों ने?”
पगमत - “सर वो गुड़ लोगों का अड्डा है अंदर।”
जेंडे - “तुमको कैसे मालूम?”
पगमत - “सर वो पूछताछ की मैंने। वो टपरी पे पूछताछ की मैंने।”
इस संवाद में ‘गुड़ लोग’ शब्द का अपमानजनक प्रयोग पुलिस की असंवेदनशीलता और पूर्वाग्रह को उजागर करता है। जब रिपोर्टर इस पर सवाल उठाता है, तो पुलिसवाले की प्रतिक्रिया—”ये एलजीबीटी मत समझाओ मुझे”—समाज में एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय के प्रति मौजूद भेदभाव को दर्शाती है। वेब सीरीज समलैंगिक पात्रों के प्रति सामाजिक तिरस्कार को सामने लाती है, जहां समलैंगिकता को व्यक्तिगत अधिकार के बजाय ‘अप्राकृतिक’ और ‘अस्वीकृत’ माना जाता है।
सुनील के ‘गे एक्टिविस्ट’ होने का पता चलते ही पीटर और मिली चिंता में पड़ जाते हैं। मिली पूछती है, “कहीं वो सचमुच में तो गे नहीं है?”और समाज के डर से उसके गे होने की सच्चाई छिपाने का प्रयास करती है। वह बचपन की घटनाओं को भी इससे जोड़ती हुई कहती है, “तुम्हें याद है बचपन में तुम्हारी माँ उसे फ्रॉक पहनाती थीं। मैं उन्हें मना करती थी लेकिन वो मेरी बात नहीं सुनती थी। यू थिंक, कहीं उसकी वजह से कुछ हो गया?”इस पर पीटर जवाब देता है, “मेरी माँ मुझे भी फ्रॉक पहनाती थीं, मुझे कुछ हुआ क्या?”लेकिन फिर वह खुद इसे“मेंटल इश्यू, हार्मोनल इम्बैलेंस”से जोड़ने लगता है। यह दृष्टिकोण पितृसत्तात्मक संरचना और पूर्वाग्रहों को उजागर करता है, जो यौनिकता को सीमित और नियंत्रित करने की कोशिश करता है।
भारतीय समाज और उसमें निवास करने वाली सामान्य जनमानस आज भी स्त्री-पुरुष के संबंधों के इतर वो समलैंगिक सिनेमा को स्वीकारने में असमर्थ हैं। उनके लिए स्त्री-पुरुष के अलावा बाकि सब जेंडर को छक्के या हिजड़े की श्रेणी में रखते हैं। सुपर्णा भास्करन अपनी किताब “मेड इन इंडिया: डिकोलोनाइजेशन्स, क्वीयर सेक्शुअलिटीज, ट्रांस/नेशनल प्रोजेक्ट्स”में लिखती हैं, “स्ट्रीट लेवल के धारणा के अनुसार, समलैंगिकता को अन्य सभी प्रकार की वैकल्पिक यौनताओं के साथ एक ही श्रेणी में डाल दिया जाता है। इस प्रकार हिजड़ा, ट्रांसवेस्टाइट, ट्रांससेक्सुअल और समलैंगिक सभी को एक ही संदर्भ ‘छक्का’के रूप में देखा जाता है। यह शब्द अक्सर होमोफोबिक लोगों और शोषणकर्ताओं द्वारा धमकी देने वाली परिस्थितियों में उपयोग किया जाता है, जिससे इन समूहों के प्रति नकारात्मक और हिंसात्मक भावनाओं को प्रकट किया जाता है।”4
प्रोक्सी (लक्ष्मण कुमार) का दोस्त, दिनेश जिसकी भी आगे हत्या हो जाती है एक टीवी साक्षात्कार में बताता है कि प्रोक्सी को इसलिए मार दिया गया क्योंकि वो एक ‘गे-सेक्स वर्कर’ था। न्यूज रिपोर्टर कहता है,“आज हम एलजीबीटीक्यू समुदाय की बात करें तो हालात ये है कि जान को खतरा होने के बावजूद आदमी पुलिस से मदद नहीं मांग सकता क्योंकि धारा 377 तोड़ मरोड़ कर उसी को क्रीमीनिल बना देंगे ये पुलिस वाल।|”समलैंगिकता के प्रति असहिष्णुता का नतीजा यह होता है कि समलैंगिक व्यक्ति समाज के हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं। ‘मर्डर इन माहिम’में अपराधीकरण और हाशियाकरण के इन पहलुओं को कथानक के माध्यम से बखूबी उभारा गया है, जहाँ समलैंगिक समुदाय के सदस्यों को न केवल उनके अधिकारों से वंचित किया जाता है, बल्कि उनके अस्तित्व पर भी सवाल उठाए जाते हैं।
दूसरा एपिसोड हिसाब बराबर की शुरुआत समलैंगिक कार्यकर्ताओं के विरोध प्रदर्शन से होती है, जहां इंस्पेक्टर जेंडे कहता है, “मुझे साला पता ही नहीं कि इतने गुड़ लोग हैं इस दुनिया में।”इसी क्रम में हिमाली देसाई समलैंगिकता पर टिप्पणी करती है, “कितना डिस्गस्टिंग है ये।”रब्बानी, जो खुद एक लेस्बियन है, एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति को पैसे देती है, जिस पर टैक्सी ड्राइवर तंज कसता है, “मैडम, इन लोगों को इतना देने का नहीं। काम वाम करता नहीं, खाली-फोकट घूमता रहता है।”रब्बानी इसका जवाब देते हुए सवाल करती है, “क्या काम करेंगे? अगर आपकी टैक्सी चलाएँगे तो कितने लोग आके बैठेंगे?”लेकिन ड्राइवर अपने पूर्वाग्रह दोहराते हुए कहता है, “ठीक से रहने का न। ऐसे बीच का क्यों बनता है ये लोग।”यह दृश्य समाज की असंवेदनशीलता और पूर्वाग्रह को उजागर करता है, जो समलैंगिक समुदाय के अधिकारों की अवहेलना और उनकी पहचान के संघर्ष को और जटिल बनाता है।
भारतीय समाज अक्सर समलैंगिकता और समलैंगिक विमर्श को पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के रुप में देखता हैं। “यह दृष्टिकोण अक्सर समकालीन भारतीयों और अन्य दक्षिण एशियाई लोगों द्वारा व्यक्त किया जाता है जिन्होंने पहले के पश्चिमी, सेक्स-नकारात्मक दृष्टिकोण को आत्मसात किया है और इस प्रकार यह दावा करते हैं कि समलैंगिकता एक विशेष रूप से विदेशी बुराईहै, जिसे मुसलमानों या यूरोपीय लोगों द्वारा लाया गया है।”5इस पूर्वाग्रह के चलते समलैंगिकों को अछूत की तरह देखा जाता है। सीरीज में यह तब स्पष्ट होता है जब सुनील की माँ, मिली, उसके समलैंगिक दोस्त यूनिट को डिनर पर बुलाने पर कहती है, “जब वह चला जाए तो डोंट फॉरगेट टू स्प्रिंकल सम होलीवॉटर।”और यूनिट के आने पर अपने कमरे में जाते हुए कहती हैकि जब वह चला जाए तो मुझे बुलाना।
मर्डर इन माहिममें यह मुद्दा तब स्पष्ट होता है जब पुलिस पूर्वाग्रह के कारण समलैंगिक पात्रों को संदेह की नजर से देखती है। यह दृष्टिकोण समाज में व्याप्त समलैंगिकता-विरोधी धारणाओं से उपजता है, जो समलैंगिकता को नैतिक या कानूनी अपराध मानती हैं। इससे एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय के प्रति हिंसा को वैधता मिलती है और उनकी पीड़ा को नजरअंदाज किया जाता है। यह क्रूरता कोई प्राचीन सामाजिक परंपरा नहीं, बल्कि आधुनिक पूर्वाग्रहों का परिणाम है।जैसा कि रुथ वानिता अपनी किताब “लव्स राइट: सेम सेक्स मैरिज इन इंडिया एंड वेस्ट” में लिखती हैं,“आज हम जो चरम समलैंगिकफोबिया देख रहे हैं, जैसे कि पश्चिम में समलैंगिक लोगों की लिंचिंग और हत्या, मध्य पूर्व में उनकी सार्वजनिक फांसी, और कई देशों में, भारत और नेपाल समेत, समलैंगिक लोगों के खिलाफ हिंसा और उनके खिलाफ उत्पीड़न की अपील, यह प्राचीन या मध्यकालीन अतीत का उत्पाद नहीं है, बल्कि आधुनिकता का परिणाम है।”6सीरीज दिखाती है कि पुलिस और कानूनी संस्थाएँ समलैंगिक व्यक्तियों को केवल उनकी यौनिकता के आधार पर संदेह की नजर से देखती हैं, भले ही उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत न हो। उन्हें ‘असामान्य’ मानते हुए दोषी ठहराने की कोशिश की जाती है, जिससे उनका अमानवीकरण होता है।
तीसरे एपिसोडबाप बड़ा या बेटा में रब्बानी और रिहाना के प्रेम संबंधों को छिपाने की मजबूरी और पुलिसवालों की मानसिकता को दिखाया गया है। रब्बानी अपने रिश्ते के बारे में बात नहीं कर पाती, जबकि लेस्ली पीटर को समलैंगिकता से जुड़ी भ्रांतियों से मुक्त करने की कोशिश करता है। वह बताता है कि समलैंगिकों की जिंदगी अकेलेपन में गुजरती है, और “दे जस्ट करेव फॉर ह्यूमन टच,” लेकिन इस दमनकारी समाज में यह भी संभव नहीं होता। वे डरते हैं कि “बॉस नौकरी से निकाल देगा, घर वाले घर से निकाल देंगे।”इस एपिसोड में एलजीबीटीक्यू समुदाय के अकेलेपन, असंवेदनशीलता और ‘दूसरों’ के रूप में देखने की मानसिकता को उजागर किया गया है।
सीरीज के चौथे एपिसोड दो से दोस्तीके प्रारम्भ में पुलिस वाले रात में चौपाटी से कई सारे समलैंगिक सेक्स वर्करों को पकड़कर जेल में डाल देते हैं। फिर उनको रिहा करने, ब्लैकमेल करने, प्रताड़ित करके आदि के नाम पर पैसे बनाते थे।जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ती है, जेंडे और रब्बानी को पता चलता है कि पुलिस अधिकारियों का यह ब्लैकमेलिंग नेटवर्क समलैंगिकों के जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रहा है। यह नेटवर्क न केवल व्यक्तिगत स्तर पर, बल्कि समाज के विभिन्न हिस्सों में समलैंगिकों की मुश्किलों को और बढ़ाता है। पुलिस अधिकारी अपनी सत्ता का दुरुपयोग करके समलैंगिकों को धमकाते और उनका शोषण करते हैं, और इसके परिणामस्वरूप ये लोग समाज में और भी अधिक हाशिए पर चले जाते हैं।
रिहाना रब्बानी कहती है, “वर्दी पहन के भी कायर है फिरदौस….. अगर जो हमारे सबसे करीब है उनको बता नहीं सकते कि हम दोनों एक दूसरे से प्यार करते हैं, तो कायर नहीं है तो क्या है?”इस पर रब्बानी जवाब देती है, “क्या करना है बाकी को बता के? गुनाह समझते है लोग इसे। तू बताने जाएगी ना इसे तो तालियां नहीं मिलेंगी, गालियाँ पड़ेगी।”इस संवाद में समाज के तिरस्कार और असुरक्षाओं का डर समलैंगिक समुदाय की पीड़ा को उजागर करता है। रब्बानी की शादी तय होने के बाद उसे और रिहाना को छिपकर मिलने और किस करने पर बेशर्मी और बदचलन के आरोपों का सामना करना पड़ता है, जिससे उसे घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है। रिहाना के पिता उसे मारते हैं और गालियाँ देते हैं, फिर उसे एक कमरे में बंद कर देते हैं, जहाँ वह सोचते हुए फांसी लगा लेती है। यह स्थिति एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के संघर्ष और उनके परिवार और समाज से मिलने वाली हिंसा को दर्शाती है।
सीरीज में न्याय व्यवस्था का चित्रण भी महत्वपूर्ण है, जो समाज के पूर्वाग्रहों से प्रभावित होती है। वेब सीरीज में पुलिस अधिकारी और अन्य कानूनी संस्थाएँ समलैंगिक व्यक्तियों के प्रति उदासीन या क्रूर रवैया अपनाते हैं, जो इस बात को दर्शाता है कि कैसे भारत की न्याय प्रणाली भी इन पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं है। एपिसोड पांचपप्पू का भूत
के प्रारम्भ में जेंडे और पीटर, पगमत पुलिस वाले के यहाँ तलाशी लेते हैं तो उन्हें वहाँ पर समलैंगिक लोगों की अनगिनत रिकार्डिंग, मोबाइल, ढेरों मेमोरी कार्ड, कैमरा, उनके पास आदि बरामद होते हैं जो इस बात की पुष्टि करता है कि कैसे कानून और न्याय के रखवाले ही कानून और न्याय का मजाक बना रहे थे और समलैंगिक लोगों को ब्लैकमेल करके उनसे पैसे ले रहे थे।पप्पू की आत्महत्या उनके ब्लैकमेल का परिणाम है। जबकि एपिसोड छह
हनी ट्रैपिंग में भी यही दिखाया गया है कि एलजीबीटीक्युसमुदाय को समाज और कानून द्वारा तिरस्कृत और अपमानित किया जाता है और समाजिक क्रुरता के साथ-साथ कानून और पुलिस भी एलजीबीटीक्युलोगों को अन्यायपूर्ण ढंग से निशाना बनाते हैं।
सातवें एपिसोड झूठा सच का मुख्य आकर्षण इंसपेक्टर शिवाजीराव जेंडे का समलैंगिक समुदाय के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलना है। इंस्पेक्टर को लेस्ली बताता है, “माहिम स्टेशन से चर्च गेट तक” पुलिसवालों का हनी ट्रैपिंग रैकेट चलता है। जिंस बात से जेंडे बिलकुल अनभिज्ञ था। वह आगे बताता है कि पुलिसवालों ने अनगिनत समलैंगिक लोगों को इसमें फंसाया उन्हें प्रताड़ित किया और ब्लैकमेल किया है। वही जेंडे को बताता है कि सूरज देसाई नाम के व्यक्ति को पगमत और दुर्रा के ब्लैकमेल के चलते ही आत्महत्या करनी पड़ी।लेस्ली आगे बताता है कि वो लोग पुलिस वालों के खिलाफ़ इसलिए रिपोर्ट नहीं कर सकते क्योंकि आर्टिकल 377 के अंतर्गत वो तो क्रिमिनल है और क्रिमिनल खुद कैसे पुलिसवालों की रिपोर्ट कर सकते हैं।जब पीटर कहता है कि यह लोग समाज से काफी डरे हुए हैं और समाज इनको आज भी स्वीकार नहीं करता है तब जेंडे कहता है, “कौन है सोसायटी? हमी लोग तो हैं। अब मुझी को देख ले। बिना इनके बारे में कुछ जानें गुड़ कह के बुलाता है। इट्स वेरी इनसल्टिंग। इट इज़।”वह रब्बानी को तैयार करता है कि वो सबको बता दें कि वह समलैंगिक है और ये रोज़-रोज़ का डरना खत्म करें।
आठवें एपिसोडबराबरी की बारी में समलैंगिक अधिकारों और समाज की स्वीकार्यता की लड़ाई प्रमुख रूप से दिखाई जाती है। इस एपिसोड में विरल, जो हिमाली देसाई का भाई था, प्रॉक्सी और दिनेश की हत्या करता है। समलैंगिकों के प्रदर्शन के दौरान रब्बानी एसीपी और फिरदौस से मिलती है। एसीपी एक व्यक्ति से प्रोटेस्ट के बारे में पूछता है और उसे“क्रिमिनल लोग प्रोटेस्ट कर रहे हैं”कहकर नकारता है, जो रब्बानी को बुरा लगता है। इसके बाद समलैंगिक अधिकारों पर एसीपी और रब्बानी के बीच बहस होती है, और रब्बानी अपनी लेस्बियन पहचान को उजागर करते हुए प्रोटेस्ट में शामिल हो जाती है। यह एसपी को नागवार गुजरता है और वह जेंडे को रब्बानी के खिलाफ कार्रवाई का आदेश देता है।
पीटर, सुनील से समलैंगिकता के विषय पर खुलकर बात करता है। वह उसके ‘गे’ होने पर उसकी पसंद और उसका पहचान बताता है। एक दृश्य में जब जेंडे कहता है, “कानून सबके लिए बराबर होता है।”तो समलैंगिक लोगों के ऊपर हुए कानून के अत्याचार का हवाला देते हुए पीटर कहता है कि “ये सिर्फ पॉवरफुल लोगों के कम्फर्ट के लिए काम करता है।” और वहीं पर प्रदर्शन कर रहे समलैंगिक लोगों का उदाहरण देता है जो अपने प्यार के अधिकार को लेकर धरना दे रहे थे।इससे यह भी पता चलता है कि एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय के सदस्यों को अक्सर उचित कानूनी समर्थन और न्याय नहीं मिलता। हालांकि एलजीबीटीक्यूआईए+समुदाय के कुछ पात्र इन सामाजिक बंधनों के खिलाफ संघर्ष करते हैं। इस संघर्ष की यात्रा केवल बाहरी विरोध के खिलाफ नहीं होती, बल्कि आंतरिक रूप से स्वीकृति पाने की भी होती है। यह आत्म-स्वीकृति उन्हें समाज के बंधनों से स्वतंत्र होकर अपनी पहचान को पूरी तरह से अपनाने की शक्ति देती है।
जब एसीपी के रब्बानी पर कार्रवाई न करने के सवाल पर जेंडे एसपी से कहता है, “क्या एक्शन लूँ सर? अपना काम करती है।, पूरी ईमानदारी से, पूरी लगन से और अच्छा करती है सर। अपनी पर्सनल लाइफ में वो क्या करती है उससे आपको क्या मतलब होना चाहिए और क्यों होना चाहिए?”जेंडे के इस स्टैंड पर रब्बानी उसे थैंक यू बोलती है और पीटर उसे शाबाशी देता है। एसीपी और रब्बानी के बीच की बहस समलैंगिकता के प्रति समाज के दृष्टिकोण और संस्कृति के नाम पर एलजीबीटीक्यूआईए+समुदाय के तिरस्कार को उजागर करती है। अंततः जेंडे का रब्बानी के समर्थन में खड़ा होना समलैंगिक समुदाय के अधिकारों की स्वीकार्यता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इसके साथ वेब सीरीज समाप्त हो जाती है।
सीरीज़ में समलैंगिकता के तीन वर्गों का चित्रण किया गया है, जो सामाजिक स्थिति पर आधारित हैं। पहले वर्ग में उच्च वर्ग के व्यक्ति शामिल हैं, जैसे सुनील और लेस्ली, जिन्हें अपनी यौनिकता व्यक्त करने में अधिक स्वतंत्रता और अवसर मिलते हैं। दूसरे वर्ग में मध्य वर्गीय व्यक्ति होते हैं, जैसे रब्बानी और सूरज, जो सामाजिक दबाव के कारण अपनी यौनिकता को छिपा कर रखते हैं और भयभीत जीवन जीते हैं। तीसरे वर्ग में निम्न वर्ग के व्यक्ति आते हैं, जैसे प्रॉक्सी और यूनिट, जिनकी यौनिकता को नजरअंदाज किया जाता है और जो इसे जीवन यापन का साधन मानते हैं, खासकर सेक्स वर्कर के रूप में। इन वर्गों के अनुभव समाज के विभिन्न दृष्टिकोणों और चुनौतियों को उजागर करते हैं।
निष्कर्ष : यह सीरीज समलैंगिक उप-संस्कृति को दर्शाते हुए मुख्यधारा से छिपी हुई दुनिया की ओर ध्यान आकर्षित करती है। माहिम की गुप्त गलियों और अंडरग्राउंड ‘गे क्लबों’ के दृश्य इस बात को दर्शाते हैं कि यह समुदाय लगातार संस्थागत पूर्वाग्रहों और चुनौतियों का सामना करता रहा है। यह समाज में समलैंगिकता की स्वीकृति की ओर बढ़ते संघर्ष का प्रतीक है औरप्रणालीगत भेदभाव जैसे गंभीर मुद्दों को उठाते हुए उपदेशात्मक होने से बची रहती है। इसमें सामाजिक टिप्पणी और मनोरंजक अपराध कथा के बीच एक संतुलन कायम रखा गया है, जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर करता है।
जेरी पिंटो एक साक्षात्कार में बताते हैं, “इस तरह की श्रृंखला बनाने का आनंद अद्वितीय है क्योंकि इसमें एक सामूहिक रचनात्मकता का समावेश होता है—लेखक, निर्देशक, छायाकार, सेट डिज़ाइनर, अभिनेता, साउंड और कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर सभी मिलकर कुछ नया बनाते हैं।”7सीरीज की सबसे बड़ी ताकत यही है कि इसमें पात्रों के आंतरिक जीवन, उनके संघर्षों और समलैंगिकता-ग्रस्त समाज में उनके असुरक्षाओं को कुशल निर्देशन और सिनेमैटोग्राफी के माध्यम से सटीकता से दिखाने के साथ-साथयह भी प्रमाणित करती है कि “सिनेमा में विज्ञान की शक्ति और कला की सुंदरता है, जो बुद्धि को खाद्य देती है और हृदय को आंदोलित करती है।”8यह एक गहरी सामाजिक टिप्पणी है, जो एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय के प्रति समाज के पूर्वाग्रहों और भेदभाव को उजागर करती है। अतः हम कह सकते हैं कि “सिनेमा की सार्थकता उस बदलाव से जुड़ी होती है जो उसके प्रभाव से व्यक्ति, परिवार और समाज में दिखाई देता है।”9
संदर्भ :
- धीरेश सैनी, छोटी फिल्में बड़े सरोकर, समयांतर, मार्च,
2023, अंक 3, पृ. 17-19।
- शाहानी, परमेश, गे बांम्बे: ग्लोबलाइजेशन, लव एंड (बी)लोंगिंग इन कंटेम्परेरी इंडिया. सेज पब्लिकेशन, (2008),
पृ. 106।
- Murder
in Mahim. JioCinema, n.d., https://www.jiocinema.com/tv-shows/murder-in-mahim/3964969.
- सुपर्णा भास्करन, “मेड इन इंडिया: डिकोलोनाइजेशन्स, क्वीयर सेक्शुअलिटीज, ट्रांस/नेशनल प्रोजेक्ट्स”, पालग्रेव मैकमिलन, 2004, पृ.
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- वनिता, रुथ (सं.).
क्वीयरिंग इंडिया: सेम-सेक्स लव एंड एरोटिसिज़म इन इंडियन कल्चर एंड सोसाइटी. राउटलेज, 2002, पृ. 78।
- रुथ वनिता, “लव्स राइट: सेम सेक्स मैरिज इन इंडिया एंड वेस्ट” पालग्रेव मैकमिलन,
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- https://homegrown.co.in/homegrown-creators/web-series-murder-in-mahim-examines-homophobia-through-the-lens-of-a-crime-thriller
- डॉ अर्जुन तिवारी, आधुनिक पत्रकारिता, विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी,
2008, पृ. 222
- धनंजय चोपड़ा, तो क्यों न देखें फिल्में बार-बार,
‘मीडिया विमर्श’, सिनेमा विशेषांक,
2 मार्च 2013, पृ. 13।
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