- रतन लाल
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चित्र साभार : गूगल |
बीज शब्द : फिल्म, गीत, प्रगतिशील, मजदूर, शोषण, औरत, अधिकार, समानता, अत्याचार, मुनाफा।
मूल आलेख : नैसर्गिक रूप से गीत और संगीत बाल मन को भी अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इसकी सबसे बड़ी मिसाल है लोरी। लोरी की स्वर लहरियों को सुनकर एक रोता हुआ बच्चा चुप होकर उस लोरी की तान और लय में खो जाता है। इसके अतिरिक्त जब रोते हुए बच्चे को हम दिल के पास लगा लेते हैं, तो भी वह बच्चा चुप हो जाता है। इसका कारण यह है कि हमारे हृदय की लय (बीट) सुनकर उसे गर्भावस्था के दौरान अपनी माँ के दिल से निकली सुखद 'हार्ट बीट्स' का एहसास याद आ जाता है। मानव जीवन के हर पड़ाव पर गीत मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि दुनिया के प्रत्येक बच्चे की मातृभाषा गीत ही है क्योंकि माँ के दूध के साथ जो दूसरी चीज़ उसे दी जाती है वो लोरी ही है। लोरी भी गीत का ही एक रूप है। कविवर डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने गीत के महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है -
"गीत चेतना के सिर कलंगी,
गीत खुशी के मुख पर सेहरा
गीत विजय की कीर्तिपताका,
गीत नींद गफलत पर पहरा ”1
बच्चे के गर्भ में आने और सौ बरस की उम्र पूरी करके इस धरा से उसके प्रस्थान करने के उपरांत बारह दिनों तक भजन गाना भारतीय सभ्यता की परंपरा है। भजन भी गीत का ही एक प्रकार है। इस देश में सामाजिक जीवन के हर अवसर पर गीत गाए जाते हैं। सामाजिक कार्यक्रमों के अलावा धार्मिक उत्सवों और राष्ट्रीय त्योहारों पर भी गीतों की गरिमा को देखा जा सकता है। जब जिंदगी के हर मुकाम पर गीत अपना जादू जगाते हैं, तो भला हिंदी सिनेमा इसकी कशिश से अपने आप को कैसे स्वतंत्र रख सकता है। अपने इब्तिदाई दौर में जब हिंदी सिनेमा ने बोलना नहीं सीखा था, तब भी हिंदी फिल्मों में गीत-संगीत विद्यमान था। उस जमाने में सिनेमा के परदे के सामने बैठकर कलाकार फिल्म की सिचुएशन के अनुसार गीत गाते रहते थे। वर्ष
1931 में 'आलम आरा' फिल्म के प्रदर्शन के साथ ही हिंदी फिल्मों में गीतों का सैलाब आ गया। साल
1932 में प्रदर्शित इंद्रसभा फिल्म में 72 गीत दिखाए गए थे।
शुरुआती दौर से ही सिनेमा का एक ही मकसद था है-धन कमाना। लेकिन कुछ जागरुक और समाज को सही दिशा देने वाले फिल्मकारों, निर्देशकों, लेखकों और गीतकारों का अपना नज़रिया रहा है। ये इंसानियतपरस्त लोग प्रगतिशील मूल्यों को अपनी फिल्मों में तरजीह देते रहे। साहिर लुधियानवी, गुलज़ार, शैलेन्द्र, शकील, नीरज, प्रदीप, आरज़ू लखनऊ, मजरूह और भरत व्यास जैसी अदब से जुड़ी शख्सियतों ने मनोरंजन के साथ प्रगतिशील चेतना को भी अपने गीतों में स्थान दिया। लिंग, धर्म, जाति, देश और सरमायादारी के पैमानों पर इंसानों में भेद करने वाली मानसिकता पर इन अज़ीम शख्सियतों ने अपनी फिल्मों से प्रहार किया। इन्होंने फिल्मों को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया ताकि समाज की बुराइयों को नेस्तनाबूद किया जा सके। आधुनिक युग में प्रगति शब्द का बहुतायत रूप में प्रयोग किया जा रहा है, जिसका अर्थ है-आगे बढ़ना। प्रगति शब्द उन्नति का पर्याय है। महान उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने उन्नति को परिभाषित करते हुए लिखा है- “इससे हमारा तात्पर्य उस स्थिति से है, जिससे हम में दृढ़ता और कर्म शक्ति उत्पन्न हो, जिससे हमें अपनी दुखावस्था की अनुभूति हो, हम देखें कि किन अंतर्बाह्य कारणों से हम इस निर्जीविता और ह्रास की अवस्था को पहुंच गए और उन्हें दूर करने की कोशिश करें।”2
प्रगति शब्द में निहित गति महज शारीरिक गति को ही इंगित नहीं करती, बल्कि यह मानसिक गति की
भी द्योतक है। आदिम सभ्यता के दौर से लेकर आधुनिक इंटरनेट युग का इतिहास प्रगति का ही जीवंत दस्तावेज है। प्रगतिशील चेतना से अभिप्राय उस विचारधारा से है जो समाज की प्रगति में हितकारी है। प्रगतिशील चेतना को अक्सर प्रगतिशीलता के पर्याय में भी प्रयोग किया जाता है। अर्थ की दृष्टि से इन दोनों में कोई अंतर नहीं है। यह ऐसी विचारधारा है जो मनुष्य को जाति, धर्म और देश की सीमाओं से परे हटकर मनुष्य पर किए जाने वाले सभी अत्याचारों का विरोध करती है। प्रगतिशील व्यक्ति इस सम्पूर्ण धरा को अपना परिवार समझता है और इस धरा के प्रत्येक व्यक्ति को अपना बंधु-सखा। डॉ. दोडडा बाबू शेषु ने प्रगतिशीलता की परिभाषा देते हुए लिखा है- “परिवर्तन या गतिमान से जुड़ा हुआ शब्द है प्रगतिशीलता। परंपरागत रूप से आने वाली सभी विसंगतियों को तोड़कर एक नई जीवन पद्धति, नये समाज और नयी जमीन का प्रतिष्ठान करने वाली इच्छा है प्रगतिशीलता।”3
हमारे सामने आज भौतिक जगत में जो भी तरक्की दिखाई दे रही है, उसमें बहुतायत रूप से मेहनतकश वर्ग के खून-पसीने का ही योगदान है। तरक्की के ये मैयार- बांध, नहर, सुरंग, बिल्डिंगें, सड़कें, फ्लाईओवर या पुल हो सकते हैं। लेकिन इन सभी में एक चीज़ समान है- इनकी बुनियाद मजदूर के पसीने पर रखी जाती है, इनको मेहनतकश लोगों के लहू से सींचा गया है। तभी तो गीतकार शैलेन्द्र ने लिखा है -
“परबत काट सागर पाटे महल बनाए हमनेपत्थर पे बगिया लहराई फूल खिलाए हमने”4
तारीख़ गवाह है कि इंसान की मेहनत के ज़ोर के आगे कुदरत भी कमजोर हो जाती है। श्रम के बल पर ही मनुष्य जंगल और कंदराओं से निकलकर आज की इस तकनीकी सभ्यता के मुहाने पर आया है। मेहनत और लगन से इंसान मनचाही सफलता हासिल कर सकता है। इसीलिए कैफ़ी आज़मी ने लिखा है -
“अपने हाथों को पहचान,
मूरख इनमें है भगवान
हाथ उठाते हैं जो कुदाल,
परबत काट गिराते हैं
जंगल से खेतों की तरफ
मोड़ के दरिया लाते हैं
छेनी और हथौड़े का खेल,
अगर यह दिखलाएं
उभर चेहरे पत्थर में,
देवी-देवता मुस्काएं
आंखें झपकते लग जाए
मेला कोरे बर्तन का
हाथों के छूने से
सोना बनता है जेवर…”5
कहावत है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। इसलिए ज़िंदगी के हर मोड़ पर मनुष्य को साथ की जरूरत होती है। जीवन को सही तरीके से जीने के ए ही मनुष्य को समाज की आवश्यकता पड़ी। समाज में रहते हुए उसे दूसरों से मदद लेनी भी पड़ती है और दूसरों को सहयोग देना भी पड़ता है। भीड़ का नाम समाज नहीं है। समाज अनुशासन पर आधारित है और इसमें लोगों के कुछ निश्चित उद्देश्य भी होते हैं। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लोगों में सामूहिकता की भावना होती है। सामूहिकता की भावना के बल पर ही समाज और देश प्रगति के रास्ते पर अग्रसर होते हैं -
“साथी हाथ बढ़ाना…एक अकेला थक जाएगा
मिलकर बोझ उठाना
हम मेहनत वालों ने जब भी
मिलकर कदम बढ़ाया
सागर ने रस्ता छोड़ा
परबत ने सीस झुकाया
फौलादी हैं सीने अपने,
फौलादी हैं बाहें
हम चाहे तो पैदा कर दें
चट्टानों में राहें”6
मिलकर कार्य करने से कठिन से कठिन काम भी बहुत सरल हो जाता है। इमारत, नहरें, सड़कें, रेलवे लाइन, बांध, कृषि, उद्योग और राष्ट्र-सुरक्षा इत्यादि कार्य किसी एक व्यक्ति की बदौलत संपूर्ण नहीं हो सकते। बहुत से लोगों की मेहनत के बल पर ही ये सभी कार्य संपन्न होते हैं। जब देश की अर्थव्यवस्था में सब लोगों का योगदान है तो सबको अपनी मेहनत का फल भी मिलना चाहिए। इज़्ज़त(1968) फिल्म में इसी तथ्य को उद्घाटित किया गया है -
“बांट के खाओ इस दुनिया में,बांट के बोझ उठाओ
जिस रस्ते में सबका सुख हो
वो रस्ता अपनाओ
इस तालीम से बढ़कर जग में
कोई नहीं तालीम”7
पूंजीपतियों और सरमायादारों के उचित लाभ तक तो मामला ठीक है। लेकिन बात जब लालच और शोषण की ओर बढ़ने लगे तो मजदूर और मेहनतकश वर्ग को संभलकर कदम रखने की आवश्यकता है। इन मज़दूरों को यूनियन बनाकर अपने हितों का ख्याल रखना जरूरी हो जाता है -
“अलग-अलग फुसलाकरहमको फूट ना कोई डाले
मेहनत कोई और करे,
माल कोई और हड़प ले जाए
देखो चीटियां बिल जो बनाए,
सांप का बिल कहलाए
सारी चीटियां सिमट जाए
तो सांप को जिंदा खा जाए
अरे क्यों ना हम सब मिलकर
जालिम से टकरा जाएं”8
मजदूर अपने खून-पसीने से बड़े-बड़े भवनों को खड़ा करते हैं लेकिन उनका पूरा जीवन गरीबी में कटता है। रोटी, कपड़ा और मकान जैसी आधारभूत आवश्यकताएं भी उनकी पूरी नहीं होतीं। उनके सर पर छत का साया भी उनका अपना नहीं रहता -
“ऊंचे महल बनाने वाले,फुटपाथों पर क्यों रहते हैं
दिनभर मेहनत करने वाले
फाकों का दुख क्यों सहते हैं “9
अमीर वर्ग के मुनाफे की कोई सीमा नहीं है। उसे अपने बेशुमार लाभ के लिए अवाम के शोषण से भी गुरेज नहीं होता। अपने अनुचित फायदे के लिए ये लोग वस्तुओं की जमाखोरी करके बाज़ार में कृत्रिम महंगाई पैदा करते हैं जिससे आम व्यक्ति का जीवन बड़ा दुश्वार हो जाता है। गोदामों में रोज़मर्रा की आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी से उत्पन्न महंगाई गरीबों को जानवरों से भी बदतर कर देती है
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पेट की आग बुझाने को,
एक भूखे से दूसरा भूखा
छीनता है ले जाता है
होटल हो या कचराघर
हाय रोटी जहां मिल जाती है”10
पूंजीपतियों द्वारा मेहनतकश लोगों का हक़ छीन लिए जाने के कारण उनके जीवन की सारी बहारें खत्म हो जाती हैं और वे कुत्तों से भी बदतर जीवन जीते हैं-
कुंवारा बाप(1974)
फिल्म के गीत के माध्यम से गरीब और मजलूम लोगों की जिल्लतभरी जिंदगी पर प्रकाश डाला गया है
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ज़िंदगी लगती है गाली…”12
देश के शासक पब्लिक की सुविधाओं को नजरंदाज कर अपनी शान-ओ-शौकत को प्रदर्शित करने के लिए जनता के गाढ़े खून-पसीने की कमाई को अपने आडंबरभरी ज़िंदगी पर खर्च कर देते हैं। अपने वैभव की शेखी बघारने के लिए शासक जनता की दौलत को कब्रों की तामीर में खर्च कर देते हैं -
ये महलये मुनक्कश दरो दीवार
यह मेहराब ये ताक
एक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक”13
शासकवर्ग अपनी बेगमों की मृत्यु पर अपने प्यार के दिखावे के लिए आलीशान मकबरे बनवाते हैं जबकि उनकी सल्तनत के आम आदमी के लिये खाने को रोटी, पहनने को कपड़े और सर छुपाने के लिए घर भी मयस्सर नहीं होता। शिक्षा व्यक्ति को जीवन के लिए तैयार करके उसमें आत्मसम्मान की भावना जगाती है और यह भी संदेश देती है कि कोई भी कार्य छोटा या बड़ा नहीं होता। ऐसे व्यक्ति के लिए कार्य ही पूजा है। यह भी सच है कि व्यक्ति सादगी से अपना जीवन गुजारना चाहता है, लेकिन मेहनत करने पर भी पेट न भरने की अवस्था में व्यक्ति बगावत पर उतर आता है और किसी भी जरिये अपना हक़ पाने की कोशिश करने लगता है -
हो गए जब बेकार
तो हमको करना पड़ा व्यापार...
समाज में सदा से ही कुछ ऐसे लोग रहे हैं जो मेहनत की कमाई न खाकर दूसरे लोगों की गाढ़ी कमाई को डकारने की जुगत में रहते हैं। बिन मेहनत किए वे दुनिया के सारे ऐश-ओ-आराम को भोगना चाहते हैं। इसके लिए वे नए-नए समीकरण बिठाते हैं
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बण दे लोक अमीर
मैं एनू कहंदा चोरी
दुनिया कहंदी तकदीर
कि मैं झूठ बोलियां.... कोई ना...
राम नाम जपते ते खांदे गौशाला के चंदे"15
सामान्य व्यक्ति को केवल दो जून की रोटी चाहिए। उसके लिए वह सारा दिन मेहनत-मशक्कत में गुजार देता है। लेकिन ऐसा करने पर भी बहुत से ग़रीब लोगों को दो वक़्त का खाना नसीब नहीं होता। अमीर लोग उनकी मशक्कत की बदौलत अपनी तिजोरियाँ भरते हैं और आम आदमी दर-दर का भिखारी बना फिरता है। शैलेन्द्र ने अपने गीत में इसी तथ्य को उद्घाटित किया है
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रोटियां कम है क्यों,
क्यों दुनिया में कमी है,
आधुनिक युग में अमीरी और गरीबी के बीच की सीमारेखा बहुत ज्यादा लंबी हो गई है। उत्पादन के ज़्यादातर साधनों पर पूंजीपतियों का एकाधिकार है। सरकार द्वारा नीतियां भी पूंजीपतियों के मुनाफे को केंद्र में रखकर बनाई जाती हैं। ग़रीब के लिए पेट पालना ही दुश्वार है, बच्चों को अच्छी तालीम दिलाकर उच्च पदों पर काबिज करना तो उसके बलबूते से बाहर है। साहिर लुधियानवी ने एक गीत में इसी सवाल को उठाया है
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कितने बच्चे पढ़ सकते हैं
इल्म और अदब की मंजिल के
कितने जीने चढ़ सकते हैं
दौलत की कमी ऐसी तो नहीं,
सिक्के तो करोड़ों ढल ढल कर
टकसाल से बाहर आते हैं
किन ग़ारों में खो जाते हैं,
इतिहास साक्षी है कि संघर्ष और दृढ़ संकल्प के आगे प्रकृति और अत्याचारी दोनों ने घुटने टेके हैं। किसान और मजदूर जब मिलकर अपने शोषकों से टकराते हैं तो वे समाज की धारा को ही बदल देते हैं। वे अपना न्यायोचित अधिकार लेकर ही बैठते हैं
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धरती की बेहक़ आबादी
धरती का हक़दार बनेगी
सामंती सरकार न होगी
पूंजीवाद समाज न होगा
मेहनत पर मजदूर का हक़ है
खेतों पर दहकान का हक़ है "18
आदिम युग से ही युद्ध मनुष्य का दुश्मन रहा है। इंसानियत के लिए यह हमेशा खतरा बनकर सिर पर मंडराता रहा। दुनिया का कोई भी आम आदमी जंगपसंद नहीं है क्योंकि वह जानता है कि युद्ध के बाद रक्तरंजित रणभूमि में मानवता ही सिसकती नज़र आती है। युद्ध सत्ता के भूखे शासकों के शातिर दिमाग की उपज है-
दुनिया पे रोब जमाता है,
सारी दुनिया जल जा..."19
युद्ध विश्व व्यापी समस्या है। दुनिया के सभी देश इस भयंकर संकट से जूझ रहे हैं। मेहनत और सूझबूझ से प्राप्त किए गए विज्ञान और तकनीकी आविष्कारों को मानवता की भलाई में करने की अपेक्षा वे अपने देश की सुरक्षा की खातिर विनाशकारी हथियार जुटाने की अंधी दौड़ में शामिल हो रहे हैं। एक तरफ तो विकासशील देश अपने नागरिकों की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में भी असमर्थ हैं। तो दूसरी तरफ उनके वार्षिक बजट का एक बड़ा भाग विकसित देशों से आधुनिक हथियार, टैंक, विमान और मिसाइल खरीदने में खर्च हो रहा है
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चावल की जगह
ये बंदूकें क्यों होते हैं
जब दोनों ही की गलियों में
कुछ भूखे बच्चे रोते हैं"20
युद्धों के परिणाम बड़े भयंकर होते हैं। वर्तमान पीढ़ी को ही नहीं बल्कि आने वाली नस्लों को भी इसके अंजाम को भुगतना पड़ता है। अगस्त
1945 को हिरोशिमा पर संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा परमाणु बम से हमले की तबाही को देखकर मानवता की आत्मा भी कांप उठती है
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इंसान की सबसे बड़ी तकसीर देख लो
यह हाथ कटे पांव काटे, झूलते ढांचे
इन ढांचों में हम जैसे ही इंसान डाले थे
मांओं की मुस्कुराती गोद खाली हो गई"21
हिंदी फिल्मी गीतों के माध्यम से युद्ध की विभीषिका को दिखाने के साथ-साथ संसार से युद्ध को रोकने के संदर्भ में भी मनन किया गया है
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सब को सिखाऊंगा मैं प्यार का चलन
दुनिया में गिरने ना दूंगा कहीं बम”22
जातिवाद भारतीय संस्कृति के पाक दामन पर एक बदनुमा दाग है। वर्ण व्यवस्था के अनुसार कार्य के अनुसार को चार वर्णों में बांटा गया था। लेकिन कालांतर में समाज विभिन्न जातियों में बट गया। शातिर लोगों ने अपने स्वार्थ की खातिर जातियों को उच्च और नीच दो वर्गों में बांट दिया। व्यक्ति की पहचान उसके कार्य की बजाय
उसके कुल से होने लगी। तथाकथित नीची जातियों के साथ छुआछूत के नाम पर भेदभाव होने लगा और उनको समाज में हीन भावना से देखा जाने लगा। हीन समझी जाने वाली जातियों का सामाजिक बहिष्कार के साथ-साथ आर्थिक शोषण भी होने लगा। जाति व्यवस्था के कारण मनुष्य के श्रम का कोई मूल्य नहीं होता, बल्कि उसकी जाति के आधार पर ही उसके कार्य का मूल्यांकन किया जाता है। बूट पॉलिश
(1954) फिल्म के गीत में शैलेन्द्र ने लिखा है
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वह गंगा जी नहलाते हैं
हम पेट का मंतर पढ़ते हैं
जूता का मुंह चमकाते हैं
पंडित की पांच चवन्नी है
अपनी तो एक इकन्नी है
भेदभाव ये कैसा है
जब सबका प्यारा पैसा है"23
धीरे-धीरे समाज में व्यक्ति की जाति ही उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा का द्योतक हो गई। शूद्र जातियों का व्यक्ति चाहे कितना भी विद्वान हो, उसको सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। साहिर लुधियानवी ने एक फिल्म के गीत के माध्यम से समाज की इसी सच्चाई को बयान किया है-
कुछ इंसान हरिजन क्यों हैं
एक की इतनी इज्जत क्यों है
एक की इतनी जिल्लत क्यों है”24
हक़ीक़त यह है कि मानव की असली पहचान उसका कार्य है। तथाकथित उच्च कुल में जन्म लेने वाला व्यक्ति बहुत ही कुटिल हो सकता है। इसके अलावा तथाकथित नीची जाति में जन्म लेने वाला मनुष्य एक बहुत बड़ा विद्वान भी हो सकता है-
जन्म मनुष्य का तौल नहीं है
कर्म से है सब की पहचान
कोई नीच न कोई महान"25
नारी कुदरत की बेमिसाल रचना है जिसमें प्रेम, करुणा,दया,संवेदना,ममता और त्याग जैसे गुण कुदरत ने विशेष रूप से संजोये हैं। औरत तेरी यही कहानी
(1988) फिल्म में गीतकार राजेंद्र कृष्ण ने औरत की इसी सलाहियत का इज़हार किया है-
हंस-हंस के अपनों में बाटें
फल तू अपनी मेहनत का
सबका पेट भर और खुद
पानी पीकर सो जाए तू
कैसे कर्ज चुकाएगी
यह दुनिया तेरी खिदमत का "26
कृषि युग की शुरुआत के साथ ही समाज का संपूर्ण ढांचा पितृसत्तात्मक हो गया। गुलाम और जानवरों के साथ-साथ औरत भी मर्द की सत्ता के अधीन हो गई। इस संदर्भ में समालोचक श्रीधरन ने लिखा है, “जो स्त्री समाज के सबसे ऊँचे पायदान पर थी, कृषि युग में उसकी कीमत एक गाय के बराबर रह गई। स्त्रियों की स्वतंत्रता अब धर्म के अधीन थी और धर्म पुरुषों के अधीन था।"27
हमारे पौराणिक ग्रंथों में वर्णित है- 'यत्र नार्यस्तु पूज्यनते रमंते तंत्र देवता’, लेकिन व्यावहारिक रूप में हम देखते हैं कि समाज में नारी के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। साधना
(1958) फिल्म में औरत की दुर्दशा का साहिर लुधियानवी ने यथार्थवादी चित्रण पेश किया है
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सामंतवादी मानसिकता रखने वाले मर्द नारी को केवल भोगने की वस्तु समझते हैं। उनको तो नारी मांस का लोथड़ा ही नज़र आता है। नारी के जज़्बात, उसकी अपनी अस्मिता और भावनाएं ऐसे मर्दों के लिए कोई मायने नहीं रखतीं
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रूह भी होती है उसमें यह कहां सोचते हैं
लोग औरत की हर चीख को नगमा समझे
वो कबीलो का ज़माना हो कि शहरों का रिवाज"29
हर युग में औरत को मर्दों के जुल्म-ओ-सितम का सामना करना पड़ा है। आज के युग में भी कभी वह 'गैंग रेप' का शिकार होती है तो कभी उसके चेहरे पर तेजाब डालकर उसके ख़ूबसूरत चेहरे को बदनुमा कर दिया जाता है -
छपाक से पहचान ले गया
ना होश ना ख्याल सोच अंधा कुआं
एक नजर की आग से एक जहां झुलस गया
एक पल में बस सब झुलस गया
एक जहां झुलस गया, सब झुलस गया"30
जन्म लेने से पहले ही हमारा समाज लड़की पर सितम ढाना शुरु कर देता है। लिंग की जांच करवाकर लोग बेटी की इस दुनिया में आने से पहले ही उसके जाने की तैयारी करवा लेते हैं। अगर वह गर्भपात से बच भी जाती है तो उसके साथ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया जाता है। आज वक़्त का तकाजा है कि नारी को अपने पैरों पर खड़ा होकर उसे अबला की बजाय सबला बनकर मर्द की सामंतवादी सोच को ललकारना होगा -
अगर जरूरत पड़ जाए तो
धर लेना चंडी का भेष"31
माता-पिता का दायित्व बनता है कि वे बेटियों की परवरिश इस ढंग से करें कि भविष्य में आने संकटों का सामना करने के लिए वे आज ही पारंगत हो जाएं। समाज में लड़कियों को हर क्षेत्र में आगे आने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए -
खोल पंख अब मार उडारी
तोड़ के पिंजरा हवा सवारी,
पिछले कुछ बरसों से हम देख रहे हैं कि आज नारी जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कदम मिलाकर आगे बढ़ रही है। जिंदगी की हर मुकाम पर उसने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है
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मर्दन के पांव तले धरती फिसल रही है
चाबी का छल्ला खोला आंचल से नारियों ने
बंदूक भी उठा ली अब फौजी नारियों ने
हर देश और औरत की पलटन निकल रही है"33
पुरातन काल से ही हमारा समाज किन्नरों को हीन दृष्टि से देखता रहा है। लेकिन किन्नरों ने अपने संघर्ष और जिजीविषा के बल पर लोगों से अपनी काबिलियत को मनवा लिया है। आज बहुत किन्नर उच्च पदों पर काबिज हैं। जीवन के हर क्षेत्र में वे अपनी योग्यता को सिद्ध कर रहे हैं
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मौसी जीतेगी तो होगा
अपना बेड़ा पार
कब तक कोई झूठे
नेताओं के सितम सहेगा
राम ने कहा था कलयुग में
किन्नर राज करेगा
हिजड़े ने जो जीता
तो हिल जाएगी दिल्ली"34
आधुनिक नारी अब चुपचाप अपने ऊपर अत्याचार सहन नहीं करेगी। अपने ऊपर होने वाले वह हर जुल्म का वह पुरजोर विरोध कर मर्द की सत्ता को धराशाही कर देगी
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है हमारी जिम्मेदारी
यह जो है नारी, नहीं बेचारी
इससे रची है, इसमें बसी है दुनिया सारी
गली में रोकते हो, एसिड फेंकते हो
मैं राधा मैं लक्ष्मी मैं सीता हूं
मैं दुर्गा मैं चंडी मैं काली हूं"35
वसुधैव कुटुंबकम हमारी संस्कृति की पहचान है। लेकिन राजनीति की रोटियां सेंकने वाले सत्ता के लालची न केवल ज़मीन पर सीमारेखा खींच देते हैं बल्कि अवाम के दिलों में भी नफरत भर देते हैं
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कोई सरहद ना इन्हें रोके
सरहद इंसानों के लिए है
सोचो तुमने और मैंने
क्या पाया इंसानों हो के"36
मानवता दुनिया का सबसे बड़ा धर्म है। प्रकृति ने सभी मनुष्यों के उपभोग के लिए संसाधनों को उपलब्ध कराया है। शारीरिक रूप से भी प्रकृति ने सब मनुष्य को समान बनाया है, इसलिए इंसानों में भेदभाव नहीं होना चाहिए
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तो दूर क्या करीब क्या
लहू का रंग एक है
अमीर क्या गरीब क्या"37
कुछ असामाजिक तत्व इंसानों के मन में धर्म के आधार पर भेदभाव भर देते हैं। दिमागों में भरा यह जहर मनुष्यों को कभी एक साथ सुख-शांति से रहने नहीं देता। दुनिया में मजहब के नाम पर सबसे ज़्यादा रक्त बहा है। प्रगतिशील गीतकारों ने मजहब को दर किनार कर इन्सानियत पर बल दिया है -
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा”38
निष्कर्ष : हाशिये पर धकेल गये लोगों के जीवन को अभिव्यक्त करने में साहित्य महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सिनेमा भी समाज का दर्पण है। कुछ हिंदी फ़िल्मों में गीतों के माध्यम से प्रगतिशील चेतना को अभिव्यक्त किया गया है। पुरुष द्वारा नारी के शोषण और कालांतर में नारी के आत्मनिर्भर बनने की प्रक्रिया को हिंदी फिल्मी गीतों के जरिये अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया गया है। मानवतावादी गीतकारों और फिल्मकारों ने मजदूर और किसान के शोषण को भी फिल्मी गीतों के रूप में प्रकट किया है।
संदर्भ :
सहायक प्रोफेसर (हिंदी), राजकीय महाविद्यालय रेवाड़ी, नजदीक नगर परिषद रेवाड़ी (हरियाणा)
rattanlal750@gmail.com, 9416963750
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