शोध सार : सिनेमा एक सशक्त माध्यम है। हिन्दी जाति की गौरवशाली परंपरा, उसका स्वर्णिम इतिहास और सामाजिक संस्कृति को विश्व स्तर पर प्रसारित करने में हिन्दी सिनेमा का बहुत बड़ा योगदान है। आज की दुनिया में यह एक महत्वपूर्ण मनोरंजन का साधन तो है ही, एक सशक्त सामाजिक चेतना का भी। निःसंदेह इस छोटे से समय में सिनेमा ने एक लम्बी यात्रा तय की है। जीवन के एक वृहत्तर क्षेत्र में सिनेमा का दखल अब अस्वाभाविक नहीं रह गया है। जनमानस को इस कला रूप ने जितने गहरे स्पर्श किया है उतना और किसी माध्यम ने नहीं। देखते-देखते सामाजिक जिन्दगी में सिनेमा की उपस्थिति अनिवार्य हो गयी है, छोटे पर्दे से बड़े पर्दे तक की पहुँच अब गाँव-गाँव तक है। आज भूमंडलीकरण और उत्तर-आधुनिकता के युग में सिनेमा ने सम्पूर्ण विश्व को जोड़ने का कार्य किया है। पूर्वाग्रह से मुक्त हो अगर हम बात करें तो सिनेमा ने बहुआयामी रूप से यह समझाने का कार्य किया है कि विकास में ही जीवंतता का प्राण है।
बीज शब्द : सशक्त माध्यम, सामाजिक प्रतिबिम्ब, सांस्कृतिक संवाहक, लोकप्रियता, संप्रेषणीयता, भूमंडलीकरण, आधुनिकता, विषय-वैविध्य, जीवंतता, ज्वलंत मुद्दे।
मूल आलेख : सिनेमा एक सामूहिक रचनात्मक विधा है। सिनेमा, चलचित्र या फिल्म इनसाइक्लोपिडिया के अनुसार एक ऐसा दृश्य कला का प्रकार है जो चलती छवियों के उपयोग के माध्यम से अनुभवों को अनुकरण करता है अन्यथा विचारों, कहानियों, धारणाओं, भावनाओं, सौंदर्य या वातावरण को सम्प्रेषित करता है। फिल्में साधारणतः ध्वनि और शायद ही कभी अन्य संवेदी उत्तेजनाओं के साथ होती हैं। चलचित्रण शब्द फिल्म-निर्माण और फिल्म उद्योग को संदर्भित करता है। डॉ. रोजर्स के शब्दों में “चलचित्र किसी क्रिया को उत्प्रेरित करने हेतु एक उत्तरोत्तर अनुक्रम में प्रक्षेपित छायाचित्रों की एक लंबी शृंखला द्वारा विचारों के संप्रेषण का एक माध्यम है।1 सत्यजीत रे के शब्दों में ’’फिल्म एक कहानी है, फिल्म संगीत है, फिल्म हजारों अभिव्यक्त श्रव्य तथा दृश्य आख्यान है।’’2 यह आख्यान जीवन का है, संवेदना का है, भावनाओं का है, युग सत्य का है, जीवन मूल्यों का है, साथ ही सभ्यता और संस्कृति का भी है। डॉ. महेन्द्र मित्तल अपने शोध ग्रंथ में लिखते हैं ‘कला के विभिन्न रूपों को आत्मसात करके जीवन की सजीव और मार्मिक चित्राभिव्यक्ति करने वाली विधा का नाम ही चलचित्र है।’3 हिन्दी फिल्मों की लोकप्रियता के विषय में विजयेन्द्र स्नातक कहते हैं ‘कथा के आयाम, क्षेत्र, रूप, विषय और पात्र आदि की विशिष्ट सृष्टि ने हिन्दी चित्रपट को अहिन्दी प्रदेशों में भी लोकप्रिय बनाया है।’4
सिनेमा की यात्रा लगभग सौ साल पुरानी है। आज सिनेमा के बढ़ते कदम इस प्रश्न को जन्म दे रहे हैं कि ‘हिन्दी साहित्य में सिनेमा है या हिन्दी सिनेमा में साहित्य’। आज यह प्रश्न भले ही लघु हो, पर है महत्वपूर्ण।5‘हिन्दी के विराट जनक्षेत्र में नई सदी की बेचैनियाँ और आकांक्षाएँ जोर मार रही हैं। हिन्दी के नए पाठक को अब शुद्ध ’साहित्यवाद’ नहीं भाता। वह समाज को उसके समग्र में समझने को बेताब है। साहित्य के राजनीतिक पहलू ही नहीं, उसके समाजशास्त्रीय, अर्थशास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक पहलुओं को पढ़ना नए पाठक की नई मांग है। वह इकहरे अनुशासनों के अध्ययनों से ऊब चला है और अंतरानुशासनिक (इंटरडिसिप्लिनरी) अध्ययनों की ओर मुड़ रहा है जहाँ नए-नए विमर्श, उनके नए रंग-रेशे एक-दूसरे में घुलते-मिलते हैं। नई सदी का पाठक ग्लोबल माइंड का है और भूमंडलीकरण, उदारतावाद, तकनीक, मीडिया, उपभोक्तावाद, मानवाधिकारवाद, पर्यावरणवाद, स्त्रीत्ववाद, दलितवाद, उत्तर-आधुनिक विमर्श, उत्तर-संरचनावादी, चिन्ह शास्त्रीय विमर्श इत्यादि तथा उनके नए-नए संदर्भों, उपयोगों को पढ़ना-समझना चाहते हैं। थियरीज के इसी ’हाइपर रीयल’ में उसे पढ़ना होता है। साहित्य भी इस प्रक्रिया में बदल रहा है। पाठक भी।’6 इस तथ्य के आलोक में देखें तो भारत में हिन्दी सिनेमा का फलक साहित्य से बहुत बड़ा है। लोग साहित्य से कोसों दूर हैं। लेकिन सिनेमा की पहुँच ऊँचे तबके से लेकर निचले तबके तक है फिर चाहे वह किसी भी वर्ण, धर्म, जाति, वर्ग, समुदाय, लिंग तथा आयु का हो। सही मायने में देखा जाए तो सिनेमा समाज की अभिव्यक्ति है, समाज का प्रतिबिम्ब है। वह हमारे अंदर युगबोध जगाता है, हमारी जड़ों की पहचान कराता है। वह वर्तमान को गढ़ता है भविष्य की संभावनाएँ जगाता है। समाज को आईना दिखाने के साथ-साथ उसका परिष्कार भी करता है। सामाजिक परिवर्तनों को दिशा देने का कार्य भी सिनेमा करता है। हाँ यह एक अलग तथ्य है कि सिनेमा चूँकि एक मनोरंजनात्मक माध्यम है, अतः इसमें कई बार समाज की छवि को कोरे यथार्थ रूप में रूपहले पर्दे पर उतारा जाता है तो कई बार उसका प्रस्तुतीकरण अतिरेक में हो जाता है। किंतु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सिनेमा अपने समय तथा समाज को दर्शाता है। फिल्म या फिल्मकार तत्कालीन समाज की अनदेखी नहीं कर पाता, जाने-अनजाने तत्कालीन परिस्थितियों की घटनाओं की झलक सिनेमा में दिख ही जाती है। क्योंकि फिल्मकार जहाँ एक ओर कल्पना का सहारा लेता है, वहीं कल्पना की प्रस्तुतीकरण का आधार समाज और समाज में घटित घटनाओं, समस्याओं को ही लेता है, तभी सिनेमा का निर्माण होता है। इस विषय में जवरीमल्ल पारेख़ अपना मत व्यक्त करते हुए लिखते हैं - ’’सिनेमा का अपने समय और समाज से सम्बन्ध होता है। यह सम्बन्ध ही उन्हें हर बार नया और भिन्न बनाता है। लेकिन ऐसा होते हुए भी उनमें व्यापक एकता होती है, इसलिए फिल्में भी अपने पहले के दौर से भिन्न होती चली जाती हैं और एक ही दौर की अनेक फिल्में एक-दूसरे से अलग होकर भी एक ही समय को अभिव्यक्त कर रही होती हैं।’’7
आरंभ में आधी शताब्दी तक तो हिन्दी समाज भी सिनेमा को एक ’वल्गर’ चीज की तरह मानता था। बावजूद इसके सिनेमा में अनेक फिल्मकार आरंभ से अपनी कृतियों के द्वारा समाज को प्रभावित करने में भी सहायक होते रहे हैं। प्रमथेशचंद्र बरूआ, देवकी बोस, वी. शांताराम, महबूब ख़ान,राजकपूर, गुरूदत्त आदि अनेक फिल्मकारों ने सिर्फ हिन्दी भाषी ही नहीं, समूचे देश की जनता के दिलों पर राज किया है। राजकपूर ने ’’श्री 420’’ का निर्माण किया। उस फिल्म में एक गाना था ’’मेरा जूता है जापानी, पतलून इंग्लिशतानी, सिर पर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’’। यही भारतीय संस्कृति है, जो जीवन के तमाम विरोधाभाषी रंगों को स्वीकार कर अपने भीतर पचाती है और फिर एक नवीन कलेवर में प्रस्तुत करती है। अल्लमा इकबाल ने इन्हीं खूबियों के आधार पर भारतीय संस्कृति के विषय में कहा था -
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।।’’
उन्नीसवीं सदी के पांचवें-छठे दशक के कई चर्चित कलाकारों ने इसी संस्कृति की महक हिंदी की कई यादगार फिल्मों में बिखेर दी। अशोक कुमार, राजकपूर, दिलीप कुमार, बलराज साहनी, शम्मी कपूर, शशि कपूर, गुलजार आदि तथा महिला कलाकारों में सुरैया, निरूपा रॉय, कामिनी कौशल, मधुबाला, नरगिस, नूतन, बैजयन्तीमाला, आशा पारेख, सायरा बानो, शर्मिला टैगोर, राखी आदि ने अपने जानदार अभिनय के बल पर अनेक पारिवारिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक एवं धार्मिक फिल्में कर उन फिल्मों को यादगार फिल्मों की श्रेणी में खड़ा किया।
अपने शुरूआती दौर से ही सिनेमा ने भारतीय समाज को प्रतिबिम्बित किया है। इसने शहरी दर्शकों के साथ-साथ सुदूर ग्रामीण अंचलों तक गहरे प्रभावित किया है और आज भी अपना प्रभाव बनाए हुए है। टेलीविजन के माध्यम से इसकी पहुँच गाँव-कस्बों के सामान्य परिवारों तक हो गई है।’’आज हिंदी की व्यापक लोकप्रियता और संप्रेषण के रूप में मिली आत्म-स्वीकृति किसी संवैधानिक प्रावधान या सरकारी दबाव का परिणाम नहीं है।’’8
आज हिन्दी फिल्में जितनी लोकप्रिय हैं, शायद ही किसी अन्य भाषा की फिल्में होंगी। विश्व में बनने वाली हर चौथी फिल्म हिन्दी होती है। भारत में निर्मित होने वाली 60 प्रतिशत फिल्में हिन्दी भाषा में बनती हैं और वे ही सबसे अधिक चलन में होती हैं, वे ही सर्वाधिक लोकप्रिय हैं, वे ही सर्वाधिक बिकाऊ हैं।’’9 कुछ हिन्दी फिल्में लोकप्रिय हैं। खासकर तमिलनाडुमें हिन्दी का विरोध किया जाता है, लेकिन इसी तमिलनाडु के तीन शहरों मदुरै, चेन्नई और कोयंबटूर में हिन्दी फिल्म ’शोले’ ने स्वर्ण जयंती मनाई थी। इसके अलावा ’हम आपके हैं कौन’, ’दिलवाले दुल्हनियां ले जाएँगे’, ’बार्डर’, ’दिल तो पागल है’ भी पूरे देश में सफल रहीं। ’गदर’ और ’लगान’ जैसी कितनी ही फिल्में आईं और जिन्होंने पूरे देश में सफलता के झंडे गाड़ दिए।
हिन्दी फिल्मों में अहिन्दी भाषी कलाकारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सुब्बालक्ष्मी, बालसुब्रह्मण्यम पद्मिनी, बैजंती माला, रेखा, श्री देवी, हेमामालिनी, कमल हसन, चिरंजीवी, ए.आर. रहमान, रजनीकांत आदि प्रमुख सितारे हिन्दी में भी लोकप्रिय हैं। बंगाल की कई हस्तियाँ हिन्दी सिनेमा की महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रही हैं। मसलन मन्ना डे, पंकज मलिक, हंमेत कुमार, सत्यजीत रे (शतरंज के खिलाड़ी), आर.सी. बोरॉल, विमल रॉय, शर्मिला टैगोर,उत्तम कुमार आदि। प्रसिद्ध अभिनेता डेनी डेंग्जोप्पा अहिन्दी राज्य सिक्किम से हैं, तो हिन्दी फिल्मों के प्रसिद्ध संगीतकार सचिन देव बर्मन तथा राहुल देव बर्मन मणिपुर के राजघराने से संबंधित थे। इसी प्रकार हिन्दी फिल्मों के लोकप्रिय कलाकार जितेन्द्र पंजाबी होने के बावजूद दक्षिण में लोकप्रिय हैं। हिन्दी फिल्मों की प्रसिद्ध हस्तियाँ स्वर्गीय पृथ्वीराज कपूर एवं उनका समस्त खानदान, दारा सिंह, धर्मेन्द्र आदि पंजाब से हैं। इस प्रकार के और भी कई उदाहरण दिए जा सकते हैं।
हिन्दी फिल्मों में संवाद और गाने हिन्दी और उर्दू (खड़ी बोली) के साथ-साथ अवधी, बम्बईयाहिन्दी, भोजपुरी, राजस्थानी भाषाओं मेंभी होते हैं। इसमें विभिन्न प्रांतों के खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार, आस्था, मान्यताएँ एवं विश्वास की अनुगूँज होती हैं। हिन्दी सिनेमा ने पूरे देश को जोड़ा है। हिन्दी भले ही अदालती कार्यवाही और सरकारी कामकाज की भाषा नहीं बन पायी हो, लेकिन मातृभाषा के रूप में उसकी धमक बढ़ती जा रही है। “जनगणना के भाषाई वितरण के ताजा आंकड़ों के अनुसार देश में हिन्दी को मातृभाषा मानने वालों की संख्या में 25 फीसदी का इजाफ़ा हुआ है और यह हिन्दी भाषी राज्यों तक सीमित नहीं है। 60 के दशक में हिन्दी विरोधी आंदोलन करने वाले दक्षिण के राज्यों में भी हिन्दी को मातृभाषा मानने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है।’’10
भारत के बाहर भी हिन्दी फिल्मों को देखने के लिए सिर्फ भारतीय ही लालायित नहीं रहते। पूर्व सोवियत संघ से लेकर खाड़ी के देशों, अफ्रीका से लेकर दक्षिणी पूर्व एशियाई देशों में भी यह उतना ही लोकप्रिय है। बहुत सारे देशों में सामाजिक मान्यताएँ एवं नैतिकताएँ भारत के ही समान थीं। वहाँ हिन्दी फिल्में काफी लोकप्रिय हुईं। ’’पूर्व सोवियत संघ और उसके सहयोगी देशों, जैसे - पोलैंड, हंगरी, बुल्गारिया, चेकोस्लोवकिया, वगैरह में हिन्दी फिल्मों के लंबे समय से प्रशंसक रहे हैं।’’11 किसी समय सोवियत संघ की जनता राजकपूर की आवारा से लेकर श्री 420, मेरा नाम जोकर समेत तमाम फिल्मों को इसलिए पसंद करती थी, क्योंकि उनमें भविष्य को लेकर एक संभावना का संदेश मिलता था। लाखों रूसवासियों ने इन फिल्मों को देखने-समझने के लिए ही हिन्दी सीखी। हाल के एक वाकए में 2018 के फुटबॉल वर्ल्ड कप के दौरान गए भारतीय दर्शक को संबोधित करते हुए रूस के एक स्थानीय दुकान के मालिक ने कहा, ’’मुझे भारत, भारतीय, खाने, लोगों, फिल्मों, रंगों से प्यार है। हम उन्हें हमेशा छूट देते हैं।’’12
हिंदी का साहित्यिक चिंतन एक खास वर्ग तक ही पहुँचता है, जबकि सिनेमा अपनी मनोरंजन प्रधान प्रवृत्ति के कारण अपने समय और समाज को सहजता से जनमानस में उतार देता है। ’’साहित्य पढ़ते समय हम सिर्फ मनोरंजन की उम्मीद नहीं रखते, पर सिनेमा देखते समय हम मनोरंजन की एक बड़ी उम्मीद रखते हैं। सिनेमा में मनोरंजन की प्राथमिकता है, सिनेमा की पहली माँग है मनोरंजन।’’13‘दरअसल सिनेमा मनोरंजन का एक सशक्त माध्यम माना जाता है जो तरह-तरह की कलाओं के द्वारा जनता का मनोरंजन करता है। कभी अपनी कॉमेडी द्वारा जनताको हँसा-हँसा कर लोट-पोट कर देता है, कभी रोमांटिक सीन द्वारा जनता के हृदय को गुदगुदा जाता है, कभी दुखांत दृश्यों द्वारा जनता को रोने के लिए मजबूर कर देता है और कई बार कुछ अजीबो-गरीब स्थिति उत्पन्न कर जनता को असमंजस में डाल देता है।‘14 हिन्दी सिनेमा में विषय-वैविध्य भी रहा है और ज्वलंत सामाजिक मुद्दे, समस्याएँ एवं हाशिये के समाज की अभिव्यक्ति भी। दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, स्त्री, सभी झांकते हुए नजर आते हैं। किसानों की बदहाली की यात्रा भारतीय सिनेमा के पूरे सफर में देखी जा सकती है। “किसानों से जमीन छीनने का सिलसिला ऐसे चल पड़ा है, जो हकीकत की दुनिया मेंकभी खत्म होने का नाम नहीं लेता और इसलिए जब-तब यह वास्तविक पर्दे पर भी दिखाई दे जाती है। कभी कल-कारखानों के नाम पर किसानों से जमीन छीनी जाती है, तो कभी सुनहले कल का ख्वाब दिखाते हुए हाई-वे के लिए। इस तरह किसानों की जमीन विकास की भेंट चढ़ जाती है। जिन जमीनों पर कभी फसलें लहलहाया करती थीं, वे अब धुँआ उगल रही हैं। पीड़ित और शोषित किसान 1953 में ’दो बीघा जमीन’ में शहर की ओर पलायन करता है तो 2010 की ’पीपली लाइव’ में भी वही कहानी दोहराई जाती है।’’15
व्यक्तिगत मुक्ति और उदात्तता के सामाजीकरण पर रिलीज तीन फिल्में पिछले वर्षों - ’मसान’ (2015); ’मांझी: द माउंटेन मैन (2015) और ’न्यूटन’ (2017)। तीनों फिल्मों के नायक विपरीत परिस्थितियों में सामर्थयहीन दलित वर्ग का व्यक्ति होते हुए अपनी-अपनी मुक्ति और उदात्तता का सामाजीकरण करने में एक हद तक सफल होते हैं और इस प्रकार असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी सिद्ध होते हैं। इन फिल्मों के कथ्य और सुर बिना किसी शोर-शराबे और प्रचार पोस्टर के हिंसात्मक संघर्ष दिखाए बिना बड़ी ही खुबसूरती के साथ शास्त्रीय संगीत की भाँति धीरे-धीरे उठान भरते हुए सहज राह से मुक्ति के ताने-बाने का रचाव करते हैं।
आदिवासियों के जीवन पर आधारित भी कई फिल्में बनी हैं। अधिकांश फीचर फिल्मों में आदिवासी जीवन की विशेषताओं, प्रतिरोध एवं खामोशियों को ही विषय बनाया गया है। लेकिन ’’आंनद पटवर्द्धन, श्री प्रकाश मेघनाथ, संजय काक, रंजन पालित, बीज टोप्पो, समरेन्द्र सेन, अमिताभ पात्रा के अलावा नवोदित युवा फिल्मकार निरंजन कुमार कुजूर, रंजीत उराँव आदि कुछ गिने-चुने फिल्मकारों द्वारा आदिवासी समस्याओं को समझने की ईमानदार कोशिश ने अनेक लोगों को प्रभावित किया है।’’16 हिन्दी सिनेमा ने अपने समय के गंभीर और ज्वलंत समस्याओं की भी सटीक अभिव्यक्ति की है। जो समस्याएँ हिन्दी साहित्य में व्यक्त हो रही हैं, उन्हें हिन्दी फिल्मों ने भी वाणी दी है।
इन तमाम तथ्यों के बावजूद हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि सिनेमा और साहित्य दोनों ही प्रकृति में भिन्न-भिन्न कला विधाएँ हैं; एक सामूहिक रचनात्मक विधा है तो वहीं साहित्य एक नितांत व्यक्तिगत कर्म। ’भारतीय विद्वानों के प्रिय और सम्मानित फिल्मकार फ्रांसुओं तुफो स्पष्ट रूप से लोकप्रिय और कला सिनेमा के विभाजन को अस्वीकार करते थे। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि सभी फिल्में व्यावसायिक वस्तु होती हैं और अंततः उन्हें खरीदा और बेचा जाता है।’ सिर्फ तुफो ही नहीं विश्व के अनेक महान निरूपित किये जाने वाले फिल्मकार धन की महत्ता को अस्वीकार नहीं करते।’’17‘हालाँकि यह भी सोलहों आने सच है कि सिनेमा न होता तो अनेक कथाकारों की कृतियाँ केवल पन्नों तक सीमित रह जातीं। सिनेमा ने इन्हें देह देकर करोड़ों दर्शकों तक पहुँचाने का कार्य किया। चाहे भीष्म साहनी की ’तमस’ हो या फणीश्वरनाथ रेणु की ’तीसरी कसम’ यह अगर पर्दे पर नहीं आता तो एक बड़ा वर्ग इनसे अनभिज्ञ रह जाता। सिनेमा ही वह माध्यम बना जिसने हीरामन, हीराबाई और शैलेंद्र को दर्शकों के दिलों में जगह दी। सिनेमा ने ही ’पाथेर पांचाली’ जैसी रचना को विश्व के दर्शकों तक पहुँचाकर भारतीय साहित्य और सिनेमा का कद ऊँचा किया। लेकिन वहीं यह भी सत्य है कि प्रेमचंद, मंटो, अमृतलाल नागर, रेणु, अश्क, कमलेश्वर, भगवतीचरण वर्मा, राजेन्द्र सिंह बेदी सिनेमा में पटकथा लिखने के लिए उत्प्रेरित रहे, पर बाद में कमलेश्वर के सिवा कोई न टिक सका और अंततः वे भी माया नगरी छोड़ कर चले गए। अब सिनेमा का स्वरूप पूरी तरह परिवर्तित हो चुका है। वर्तमान समय में लोकप्रिय सिनेमा ने ऐसे विषयों को परोसा है जो युवा पीढ़ी को आकर्षित कर सके। रोमांस के लिए एकांत, नदी-झरने, बेडरूम, कैमरे, जासूसी और रहस्य की नकली कथाएँ, मृतात्माओं को प्रकट होकर बदला लेना, पुनर्जन्म के प्रसंग, पुरूष-स्त्री का अंग प्रदर्शन इत्यादि। इन फिल्मों मेंमहिलाओं की छवि उपभोक्ता सामग्री की भाँति प्रतीत होती है। इक्कीसवीं सदी में मल्टीप्लेक्स संस्कृति के उदित होते ही वह विख्यात चवन्नी छाप दर्शक विदा हो चुके हैं जो फिल्मों की खिड़की की रौनक हुआ करता था। अब फिल्में सिर्फ देश में ही नहीं विदेशों मेंभी करोड़ों का कारोबार करती हैं। वहाँ यह रूपयों में नहीं डॉलरों और पाउण्डों में बिकती हैं। कहने को तो हम इसे हिन्दी सिनेमा, नाम से संबोधित करते हैं परंतु वास्तविकता यह है कि लगभग एक-दो दशक से अधिक समय से ये फिल्में हिन्दी भाषी भुखमरे क्षेत्रों के लिए बन ही नहीं रही है।’18 आज सौ वर्षों बाद भी हम हिन्दी सिनेमा को वैश्विक स्तर के साथ खड़ा पाते हैं। शायद यह हमारी मानसिक कमजोरी ही है कि हम महज आर्थिक और तकनीकी मानदंडों को ही आधार मानकर सिनेमा के सफल और असफल का मूल्यांकन करते हैं। तब हमें अपनी फिल्में पिछड़ी हुई-सी प्रतीत होती हैं।
निष्कर्ष : कुल मिलाकर कहें तो अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद हिन्दी भाषा, हिन्दी जाति, हिंदी साहित्य, हिन्दी सभ्यता और संस्कृति’ को गाँव से लेकर कस्बों, शहरों तक, देश से लेकर विदेशों तक, बौद्धिक वर्ग से लेकर अनपढ़ों तक, किसानों-मजदूरों से लेकर छात्र-अध्यापकों तक, उच्च, मध्यम और निम्न वर्गों तक पहुँचाने का फिल्मों ने महनीय कार्य किया है। जिस समाज में हम जी रहे हैं उसके बहुपक्षीय रूपों को खोलने तथा उसकी घिनौनी कुरूपता पर प्रबल प्रहार करते हुए उसमें मानव मूल्यों के रंग भरने में, संगठन और विरोध की क्षमता विकसित करने में फिल्मों ने बेहद निर्णायक, प्रभावी और सशक्त भूमिका निभायी है।
संदर्भ :
2. -- वही --
3. प्रहलाद अग्रवाल, हिन्दी सिनेमा आदि से अनंत, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृष्ठ सं.- 52
4. -- वही --
5. सत्राची (त्रैमासिक पत्रिका) संयुक्तांक अप्रैल-सितम्बर 2021, सत्राची फाउंडेशन, पटना, पृष्ठ सं.- 27
6. वाक् (त्रैमासिक पत्रिका) वर्ष 2007 प्रवेशांक, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संपादकीय पृष्ठ से उद्धृत
7. जवरीमल्ल पारेख, लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, नयी दिल्ली, 2001, पृष्ठ सं. - 24
8. www.rachnakar.org,’भारतीय सिनेमा और हिन्दी, गोवर्द्धन यादव।
9. www.webdunia.com,’हिन्दी की लोकप्रियता में फिल्मों का योगदान’ दीपक भालचन्द्र कर्पे।
10. दैनिक जागरण, नई दिल्ली, 15 जुलाई 2018
11. उण्रंहतंदण्बवउए ’सिनेमा, साहित्य और हिन्दी’, आर.के. सिन्हा।
12. रविवासरीय हिन्दुस्तान, पटना, 15 जुलाई 2018, ’रूस में भारतीयों का गर्म जोशी से स्वागत’, पृष्ठ सं. - 18
13. हंस (पत्रिका), फरवरी 2013, सं. राजेन्द्र यादव, पृष्ठ सं. - 118
14. ’शोध परिधि’ (पत्रिका) जून - दिसंबर 2021, प्रेरणा साहित्य समिति, हापुड़ (उ.प्र.) एवं विलक्षणा एक सार्थक पहल समिति, अजयाव, रोहतक (हरियाणा), पृष्ठ सं. - 130
15. ’बया’ (पत्रिका), अप्रैल-जून 2018, सं. - गौरीनाथ, ’नहीं बदली किसान-मजूदर की तस्वीर’, पृष्ठ सं. - 6
16. ’बया’ (पत्रिका), अप्रैल-जून 2018, सं. - गौरीनाथ, आदिवासियों को देखती समझती कुछ फिल्में, पृष्ठ सं. - 35
17. प्रहलाद अग्रवाल, हिन्दी सिनेमा आदि से अनंत, साहित्य भंडार, इलाहाबाद, पृष्ठ सं. - 13
18. दृष्टिकोण (पत्रिका) जनवरी-फरवरी 2020, सं.- डॉ. अश्विनी महाजन, दृष्टिकोण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. –982
सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, राजेन्द्र मिश्र महाविद्यालय, सहरसा, बी. एन. एम. यू, मधेपुरा (बिहार)
dr.sindhusuman@gmail.com, 6283832652
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