शोध सार : प्राचीन भारतीय ग्रंथों में चित्रकला का इतिहास मुख्य रूप से उनके साहित्य, मूर्तिकला और वास्तुकला की जीवंतता में पाया जाता है। अगर हम चित्रकला के इतिहास को विशेष रूप से समझने का प्रयास करें, तो महाभारत और रामायण आदि इन महाकाव्यों में चित्रकला और उसकी महिमा का उल्लेख किया गया है । इन पौराणिक ग्रंथों में देवताओं और राजाओं की चित्रकला और उनके विशेष रूपों का वर्णन किया गया था । अर्थशास्त्र और वास्तु शास्त्र जैसे ग्रन्थों में चित्रकला और स्थापत्य कला के सिद्धांतों का वर्णन किया गया है, जो स्थापत्य और वास्तु निर्माण के नियमों और सिद्धांतों को दर्शाता है। कालिदास की रचनाएँ 'शकुंतला' और 'रघुवंश' जैसी पुस्तकों में चित्रकला और सौंदर्य से संबंधित विशद चित्रकारों और कल्पनाओं का उल्लेख है। जैन और बौद्ध ग्रंथों में चित्रकला और उसके महत्व का उल्लेख मिलता है, विशेष रूप से जैन मूर्तियों और बौद्ध प्रतिमाओं की चित्रकला। ये सभी ग्रंथ चित्रकला के इतिहास और उसके महत्व के विभिन्न पहलुओं का वर्णन करते हैं, जो भारतीय कला और संस्कृति के विकास को दर्शाते हैं। भारतीय कला और संस्कृति के विकास में मुख्यतया साहित्य, कला अथवा शिल्प, स्थापत्य, संगीत, मूर्ति एवं नाटक का विशेष महत्व रहा है। अतः किसी देश की संस्कृति का अध्ययन करने के लिये उस देश की कलाओं का ज्ञान परम आवश्यक है।
बीज शब्द : वैदिक साहित्य, सभ्यता, संस्कृति, चारू व कारू, अनुभूति, मंत्रसंहिता, उपनिषद, वैदिकग्रन्थ, रामायण, महाभारत, पुराण, नीतिसार, नाट्यशास्त्र, कामसूत्र, शिल्पशास्त्र, काव्य, नाट्यशास्त्र, अष्टाध्यायी।
मूल आलेख : भारतीय कला और संस्कृति का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से लेकर आधुनिक काल तक बहुत ही रोचक रहा है। मानव सभ्यता के इतिहास को आदिमानव के गुफा चित्रों के अध्ययन से ही समझा जाता है। सिंधु घाटी सभ्यता के पश्चात भारत में जिस नवीन सभ्यता का विकास हुआ उसे ही आर्य अथवा वैदिक सभ्यता के नाम से जाना जाता है। इस काल की जानकारी हमे मुख्यत: वेदों से प्राप्त होती है, जिसमे ऋग्वेद सर्वप्राचीन होने के कारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वैदिक काल को ऋग्वैदिक काल या पूर्व वैदिक काल (1500 -1000 ई.पु.) तथा उत्तर वैदिक काल (1000 - 600 ई.पु.) में बांटा गया है। आम तौर पर अधिकतर विद्वान वैदिक सभ्यता का काल 5 000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व के बीच में मानते है(1) |
साहित्य और चित्रकला हमारे जीवन-वास्तव को मूर्त और वैविध्यपूर्ण ढंग से प्रतिबिम्बित करती है। जीवन वास्तव के अन्तर्गत व्यक्ति का सम्पूर्ण अन्तर्बाह्य जीवन आ जाता है। आदिकाल से श्रेष्ठ कलाकार वस्तुन्मुखी रहे है, या कहें कि वस्तुन्मुखी चित्रकार की महानता प्राप्त कर सके हैं। उन्होंने समाज-वास्तव के साथ ही साथ मनुष्य के मनोवैज्ञानिक सत्य को भी प्रतिबिम्बित किया है। साहित्य में विशेष रूप से कलाकारो ने अपने युग और समाज के इतिहास व निर्दिष्ट केन्द्रिय समस्याओं का चित्रकला के माध्यम से कलात्मक उद्घाटन किया है और साथ ही उन समस्याओं से जूझने वाले पात्रों की विशिष्ट मानसिक प्रतिक्रियाओं का भी गहरा और मार्मिक चित्रण किया है। मानव-जीवन के इस सम्पूर्ण अन्तर और बाह्य सत्य को प्रतिबिम्बित करके ही कोई कलाकृति बनती है और मानव-जीवन में निहित संभावनाओं को उद्घाटित कर पाती है ।(2)
भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भागों में उत्पन्न वैदिक सभ्यता, महान प्रगति और सांस्कृतिक समृद्धि का काल था। वैदिक सभ्यता विश्व की सर्वप्रथम शाब्दिक सभ्यता थी और इसी सभ्यता से साहित्य की खोज हुई। इसी काल से ही सही मायनों में भारतीय संस्कृति का जन्म हुआ। इस वैदिक पौराणिक काल में बहुत से साहित्यिक ग्रंथों की उत्पत्ति हुई थी, जिनमे विभिन्न कलाओं का बखूबी उल्लेख मिलता है । वैदिक काल में वेदों के अतिरिक्त अन्य कई ग्रंथो की रचना भी 9वी शताब्दी से 5वी शताब्दी ई.पू काल में हुई थी। वेदांगसूत्रौं की रचना, मन्त्र, ब्राह्मणग्रंथ और उपनिषद आदि इन वैदिकग्रन्थों को रचने व व्यवस्थित करने मे हुआ है। रामायण, महाभारत और पुराणौं की रचना हुई जो इस काल के ज्ञानप्रदायी स्रोत माना गया हैं। अनन्तर चार्वाक, तान्त्रिकौं, बौद्ध और जैन धर्म का उदय भी हुआ।(3)
भारतीय कलात्मक विकास में मुख्यतया साहित्य, कला अथवा शिल्प, स्थापत्य, संगीत, मूर्ति एवं नाटक का विशेष महत्व है। अतः किसी देश की संस्कृति का अध्ययन करने के लिये उस देश की कलाओं का ज्ञान परम आवश्यक है। कला के द्वारा देश के समाज दर्शन तथा विज्ञान की यथोचित छवि प्रतिबिम्बित हो जाती है। दर्शन यदि मन की क्रिया है तो विज्ञान शरीर की क्रिया है, परन्तु कला मानव-आत्मा की वह क्रिया है, जिसमें मन व शरीर दोनों की अनुभूति निहित है। अतः कला मानव संस्कृति का प्राण है जिसमें देश तथा काल की आत्मा मुखरित होती है।(4) भारतीय चित्रकला साहित्य पर आश्रित रही है । चित्रकारों ने साहित्य के अनुरूप ही चित्रों का निर्माण किया। यानि कवियों के द्वारा प्रतिपादित विषयों को ही चित्रकार ने अपने माध्यम के अनुरूप ढालकर प्रस्तुत किया, जिससे उनकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति उभर कर सामने आई(5)।
प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यव्स्था अत्यन्त व्यापक थी। शिक्षा के अन्तर्गत केवल शास्त्रीय ज्ञान ही नहीं अपितु जीवनोपयोगी लौकिक ज्ञान का भी सम्यक् समावेश था। लोकोपयोगी ज्ञान के अन्तर्गत कलाओं की शिक्षा भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती थी। दण्डी ने काव्यादर्श में कहा है कि नृत्य और गीत आदि कलाएं काम और अर्थ के ऊपर आश्रित हैं (नृत्यगीतप्रभृतयः कलाः कामार्थसंश्रयाः)। श्रीकृष्ण विद्याध्ययन के लिये जब अवन्तिकापुरी (उज्जैन) के संदीपनी आश्रम गये थे, तब उन्होंने 64 दिन में 64 कलाएँ सीख ली थी। कल्कि पुराण के अनुसार कलियुग के अंत में धरा धाम पर आने वाले भगवान श्री कल्कि भी 64 कलाओं परिपूर्ण होंगे।(6) वैदिक काल के अधिकतर पौराणिक ग्रंथों में कलाओं की संख्या 64 बताई गयी थी, जिनसे हमारी प्राचीन सभ्यता और कला संस्कृती का इतिहास बहुत ही उन्नत स्तर का रहा है।
भारतीय पुरातन समाज और साहित्य में ललित कलाओं की क्या स्थिति थी, इसके यघपि जीवित प्रमाण बहुत कम उपलब्ध है तथापि इसका उल्लेख वेद वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत जैन-बौद्धों के साहित्य, पुराणों, नीतिसार, नाट्यशास्त्र, कामसूत्र, ज्योतिष, आयुर्वेद, शिल्पशास्त्र, काव्य, नाटक और कथा-आख्याचिका आदि अनेक विषयों के ग्रन्थों में देखने को मिलता है। ’विष्णुधर्मोत्तर पुराण का ’चित्रसूत्र;, महा और उपनिषद आदि इन वैदिकग्रन्थों राज भोज का ’समरांगणसूत्रधार और सोमेश्वर भूपति का ’मानसोल्लास’ आदि ग्रंथ भारतीय चित्रकला के विधि-विधाओं पर विस्तार से विचार प्रस्तुत करने वाले लक्षण श्रेणी के ग्रन्थों का इस प्रसंग में उल्लेखनीय स्थान है(7)
वैदिक साहित्य में चित्रकला-
भारत कला इतिहास में वैदिक युग का जन-जीवन कला के प्रति बहुत अनुरागी था। कला को मनोरजंन का साधन समझा जाता था। ऋग्वेद में भ्रगु ऋषि के वंशजों को लकड़ी के कार्य का विशेषज्ञ बताया गया है। यह कार्य वह अपने अवकाश के समय किया करते थे। कला के विभिन्न माघ्यमों से सौन्दर्य की अनुभूति को अभिव्यक्त करने वाला वैदिक युग अपने आप में निराला था। विश्व का सबसे प्राचीनत्तम। ग्रंथ ऋग्वेद है। जिसमें एक चर्म फलक पर अग्निदेव का चित्र अंकित किये जाने का उल्लेख है। इस चित्र को यज्ञ के समय लटकाया जाता था व यज्ञ समाप्ति पर उस चित्र को लपेट कर सुरक्षित रख दिया जाता था। इसी ग्रंथ में यज्ञ शालाओं के द्वारों की चारों चौखट पर अंकित अलंकृत रही आकृतियों का सौम्यरूप सृजन के लिए उल्लेखित है। यह देवियां उवां तथा रात्रि की प्रतीक है। ऋग्वेद के इस उल्लेख से यह स्पष्ट होता है कि वैदिक युग में भी चर्म पर चित्रण परम्परा रही है।(8)
इस दृष्टि से विदित हैं कि वैदिक धर्म एकांगी नहीं था। साहित्य और चित्रकला, दोनों को साथ लेकर उसका विकास हुआ तत्कालीन साहित्यिक प्रगति का दिग्दर्शन कराने वाले अनेक ग्रंथ आज हमारे समक्ष है। जहां तक कला का संबंध है उस युग में संगीत, मूर्ति, स्थापत्य, चित्र व काव्य (साहित्य) सभी दिशायें परम्परा की तुलना की दृष्टि से सुमन्नत थी।
मंत्रसंहितायें भारतीय साहित्य की प्राचीनत्तम ज्ञाननिधि है, वरन् विश्व के प्रत्येक भाग का इतिहासकार आज इस बात को स्वीकार करता है कि पृथ्वी के सम्पूर्ण मानव समाज में ज्ञान का इतिहास मंत्रसंहिताओं के उदय से आरम्भ होता है। मंत्रसंहिताओं में भी ऋग्वेद संहिता की प्राचीनता निर्विवाद सिद्ध है। ऋग्वेद (21-1-45) में हम चर्म पर अग्निदेव का चित्र अंकित किय जाने का उल्लेख पाते हैं। इसके अतिरिक्त ऋचाकाल में कलात्मक अभीप्साओं का मूर्धाभिषिक्त साक्ष्य प्रस्तुत करने वाले प्रसंगों में इन्द्र के घोड़े की, शालभंजिकाओं (ऋग्वेद 4-32-26) से उपमा देना और विशाल सुनहरी द्वारदेवियों को यज्ञशालाओं की चारों चौखट पर अंकित (ऋग्वेद 1-5-5) अलंकृत आकृतियों को पाते है। यज्ञशालाओं के द्वारों पर स्वर्णांकित इन देवी आकृतियों को पाणिनि (500 ई.पू.) ने ‘प्रतिकृति’ कहा है। इन प्रतिकृतियों की पुजारी पूजा करते थे ओर वे ही उनकी आजीविका के साधन थे। इस प्रकार की चित्राकृतियाँ मौर्य युग में व्यापारिक रूप से बनायी जाती थी, किन्तु उनकी परम्परा का मूल आधार वैदिक युग ही था। वैदिक काल की द्वारदेवियाँ वास्तव में कैसी थी, यथापि स्वरूपतः वे ज्ञात नहीं है; किन्तु जैसा कि बाद में भी उनकी परम्परा बनी रही, उससे यह अवगत होता है कि वे अर्धचित्र थी। वैदिक युग में इन अर्धचित्र देवियों के कुछ आगे बढ़कर पूर्ण चित्र देवियों के अंकन की ओर भी तत्कालीन कला प्रवण ऋषियों की दृष्टि गयी कि नहीं, इस संबंध में ऋग्वेद की दो ऋचायें बडे महत्व की है। इन ऋचाओं के साक्ष्य से हमे यह ज्ञात होता है कि उन ऋषियों ने उषादेवी और रात्रिदेवी की श्रीयुक्त उज्जवल आकृति को निहारा और उन महान रात्री और उषा की सुरचना पर बडे गौर से विचार किया। इस प्रकार निश्चय ही उन कला प्रवण सौन्दर्य प्रेमी ऋषियों ने रात्रि और उषा के प्रतीक चित्र उतारे और तब हमारी यह धारण सर्वथा उपयुक्त होती है कि वैदिक युग में यज्ञ शालाओं पर जिन जिन देवियों को अंकित किया जाता था, उनमें रात और उषा की प्रमुखता थी और वे चित्रित की जाती थी(9)।
रामायण- भारतीय साहित्य की उत्तम परमपरा का रामायण प्रतिनिधि ग्रंथ माना गया है। इस काल में वास्तुकला के साथ-साथ चित्रकला का भी पूर्ण विकास हो चुका था एवं समाज कला के प्रति बडा ही निष्ठावान था। महामुनि ने बालकाण्ड के छठे सर्ग में अयोध्या वासियों के केश सज्जा, चित्र-विचित्र वस्तुओं का व्यवहार, स्त्रियों के कपालों पर पत्रावली का अंकन, राजमहलों, रथों तथा पशुओं की सज्जा, नगरों एवं उद्यानों की कला पूर्ण रचना आदि का उल्लेख किया है। उससे वहां के समाज में कला के उच्च स्थान और व्यवहारिक रूप की प्रतिष्ठापन होती है। रामायण में कला के अर्थ में शिल्प शब्द का प्रयोग हुआ है। नृत्य संगीत वाद्य, चित्रकर्म आदि को ललित कलाओं में प्रमुख महत्व दिया है। कलाकार या शिल्पकार को समाज में उच्च स्थान प्राप्त था। रामायण में दीवारों, कक्षों, रथों और राजभवनों पर चित्रांकित करने के संबंध में प्रचुर उल्लेख मिलते हैं। राम के राजप्रसाद में अनुपम भित्ति चित्र उत्कीर्ण थे(10)।
महाभारत- रामायण की भाँति महाभारत में भी (600 ई.पू. से 500 ई.पू.) चित्रकला के संबंध में विवरण प्राप्त होता है। महाभारत में उषा और अनिरूद्ध की सुन्दर प्रेम कथा का उल्लेख मिलता है। राजकुमारी उषा वाणासुर की लडकी थी और एक दिन वह स्वप्न में एक सुन्दर राजकुमार से जो वाटिका में घूम रहा था प्रेम करने लगी। वह जागकर सम्पूर्ण वृतान्त अपनी प्रिय सखी चित्रलेखा को बताया। चित्रलेखा बहुत बडी चित्रकार थी, उसने संसार के सम्पूर्ण मनुष्यों का चित्र बना डाला और उषा अपने प्रेमी अनिरूद्ध को पहचान गयी।
महाभारत में सत्यवान के संबंध में विवरण प्राप्त होता है। सत्यवान को घोडे का बडा शौक था, इसलिए वह बचपन में जंगल में अपने माता-पिता के साथ रहते हुए मिट्टी के घोड़े बनाता था, तथा उन्हें दिवारों पर भी चित्रित करता था, अतः सत्यवान को लोग बचपन से ‘चित्राश्व’ भी कहते थे।(11)
नाट्यशास्र- आचार्य भरत मुनि (प्रथम शताब्दी ई.पू.) ने नाट्य शाला का स्वरूप प्रतिपादित किया था। सर्वप्रथम ’कला’ शब्द का प्रयोग इस ग्रंथ में किया गया। वर्ग मिश्रण संबंधी प्रविधि पर उनके विचार बहुत ही विस्तृत है उन्होंने इस उल्लेख में स्पष्ट किया है कि कौन सा वर्ग वैराग्य का प्रतीक है तथा कौन सा वर्ण श्रंगार का प्रतीक है। इस प्रकार इस ग्रंथ में लाल, पीले तथा श्याम रंग को मूल माना गया है। इस विवेचना के अतिरिक्त उन्होनें नाट्य शालाओं को सुसज्जित करने के लिए विविध प्रकार के भित्ति चित्रों का भी उल्लेख किया है।
मेघदूत- संस्कृत के महाकवि कालिदास (प्रथम शताब्दी ई.पू.) के ग्रंथों में भी उनेक स्थानों पर चित्रकला का वर्णन है। मेघदूत नामक ग्रंथ में विरहणी यक्षणी द्वारा अपने प्रवासी यक्ष का चित्र बनाने की चर्चा की गई है। इनकी रचनाओं से स्पष्ट है कि उस समय के स्त्री पुरूषों द्वारा चित्र बनाने की प्रथा थी। देवी-देवताओं के चित्र तथा विवाह आदि पर्वो पर भित्ति चित्र अलंकरण परम्पराओं का प्रचलन था। राजमहलों की भितियों पर सुन्दर अलंकरण प्रयुक्त किये जाते थे।
रघुवंश- रघुवंश महाकाव्य में ललित कला के सृजन का उल्लेख है। एक स्थल पर भित्ति चित्रों के वर्णन में पद्भवन के चित्रण का उल्लेख है। इस चित्र के चित्रित हाथियों को सजीव हाथी समक्ष कर सिंहो ने अपने नाखूनों से विदीर्ण कर दिया।(12)
अष्टाध्यायी- पाणिनी कृत अष्टाध्यायी में शिल्प को चारू (ललित) और कारू (उद्योग) इन दोनो अर्थो में प्रयुक्त किया गया है। अष्टाध्यायी में पशु, पक्षी, पुष्प, वृक्ष, नदी, पर्वत आदि के सांकेतिक लक्षणों की भी चर्चा की गयी है और उन्हें किस विधि से चित्रांकित किया जाता था, इसका भी उल्लेख मिलता है।
अर्थशास्त्र- आचार्य कौटिल्य (300 ई.पू.) का अर्थशास्त्र यथापि विश्वकोषात्मक रचना है, किन्तु उसमें चित्रकला का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। उसके ’धर्मस्थलीय’ नामक अधिकरण में कारूक शिल्पियों की नामावली और उनके कार्यो की तालिका भर दी गई है।
कामसूत्र- आचार्य वात्सायन (200-300 ई.) के कामसूत्र में वर्णित 64 कलाओं और आलेख (चित्रकला) के षड्गों पर टीकाकार यशोधर की व्याख्या का यथास्थान उल्लेख किया जा चुका है। कामसूत्र ने यह भी निर्देश किया गया है कि प्रत्येक नागरिक को चाहिए कि वह अपने विश्राम कक्ष में चित्रफलक के अतिरिक्त रंग तथा इनकी की पेटी रखे।
बृहत्संहिता- चित्रकला के षडंगों का स्वरूप ज्योति व ग्रन्थों की ग्रह-कुण्डलियो और तांत्रिक देवों की आकृतियों में रूपायित हुआ है। आचार्य वराहमिहिर (500 ई.) की वृहत्संहिता में वर्णित वास्तु, शिल्प तथा कला से संबद्ध 53 वे अध्याय में चित्रकर्म पर भी प्रकाश डाला गया है।
पुराण- ‘विष्णुधर्मोत्तर पुराण’ के चित्रसूत्र में कलाओं में चित्रकला को सर्वोच्च स्थान दिया गया है, ‘कलाना प्रवर चित्रम्’। इसके अतिरिक्त मत्स्य,गरूड, अग्नि, हरिवंश और स्कन्द आदि पुराणों में चित्रकला संबंधी प्रचुर सामग्री व्याप्त है। इसका उल्लेख यथास्थान स्वतंत्र रूप से किया गया है।
कादम्बरी- संस्कृत भाषा के असामान्य गद्यकार कवि और इतिहासज्ञ बाणभट्ट (700 ई) की महान कृति ‘कादम्बरी’ तो जैसे चित्रकला की प्रदर्शनी बन गयी है। चान्डाल कन्या में नीलम की कल्पना और सुन्दरी महाश्वेता को चाँदनी का घोल बताना कितनी संजीव अनुभूति है। कादम्बरी में नील, पीत, लोहित, धवल, (शुक्ल) और हरित (कृष्ण) इन पाँच शुद्ध वर्गो का उल्लेख हुआ है। उसमें वर्णचित्रों, भावचित्रों और रेखाचित्रों आदि की बडी प्रशंसा की गयी है। उसमें राज-प्रसादों तथा राज भवनों आदि में सुरक्षित चित्रशालाओं और चित्रकला के संबंध की अनेक अनूठी बातों की सूचनाएं देवो को मिलती है। ‘कादम्बरी’ का वैशम्पायन नामक तोता अन्य कलाओं के साथ चित्रकर्म में भी प्रवीण था
हर्षचरित- बाणभट्ट के ऐतिहासिक गद्यकाव्य ’हर्षचरित’ के अध्ययन से यह विदित होता है कि इस समय राजा को भेट स्वरूप जो वस्तुए प्रदान की जाती थी उनमें चित्रण संबंधी सामग्री अथवा चित्र भी रखे होते थे। ‘हर्षचरित’ (5-214) के एक प्रसंग से यह भी ज्ञात होता है कि कुछ लोग परलोक के काल्पनिक चित्र दिखाकर पैसे कमाते थे।
दशकुमारचरित- आचार्य दण्डी (700 ई.) को वाण की परम्परा का उतना ही प्रौढ लेखक और काव्यशास्त्र के क्षेत्र में एक विद्वान माना गया है। वह दक्षिणात्य था। उसके समकालीन दक्षिण भारत के रजवाडों में संभवतया यह नियम था कि अन्य विषयों की शिक्षा के साथ राजकुमारों के लिए चित्रकला की शिक्षा प्राप्त करना भी आवश्यक है। ‘दशकुमार चरित’ में ऐसा उल्लेख देखने को मिलता है कि कुमार उपहार वर्मा ने अपना चित्र स्वयं बनाया था।
तिलकमंजरी- धनपाल (10वी शताब्दी) की गद्यकृति ’तिलकमंजरी’ में चित्रकला-संबंधी तीन परिभाषिक शब्द मिलते हैः- (1) निपुण चित्रकार, अर्थात चित्रकर्म के अत्यन्त निष्णात, मास्टरपेंटर। (2) चित्रपट, अर्थात् किसी सम्पूर्ण कथा को चित्रों में अंकित करना, जिसकों कि ‘उत्तर-रामचरित’ में ‘वीथिका’ कहा गया है। (3) प्रतिबिम्ब, अर्थात् फारसी में जिसे शबीह कहते है वही प्रतिबिम्ब या विद्धचित्र है। प्रतिबिम्ब चित्रों का अपर नाम प्रकृति चित्र, रूपदृश्य चित्र या प्रतिछंदक चित्र भी कहा गया है। ‘तिलकमंजरी’ में गंधर्वक नामक एक युवक चित्रकार द्वार निर्मित लम्बे चित्रपट का वर्णन मिलता है, जिसमें चित्रित किसी राजकुमारी के चित्र की आकृति के उल्लेख का सुन्दर ढंग रंगों का यथोचित प्रयोग, शरीर के ऊचे-नीचे भागों की आकर्षक बनावट और सचेतन से दिखायी देने वाले पक्षो तथा मृग, सभी कुछ सुन्दर बन पडे है।
काव्यप्रकाश- आचार्य मम्मट (11वीं शताब्दी) के ‘काव्यप्रकाश’ में भी हमें चित्रकर्म की धुंधली छाया दिखायी देती है। उसके प्रथम उल्लास में कहा गया है कि क्या शब्दचित्र, क्या वाक्यचित्र, सभी में व्यंग्य या इंगित का होना आवश्यक है, अन्यथा उसका कोई महत्व नहीं।
नैषधचरित- 12वीं शताब्दी तक भारतीय चित्रकला का पर्याप्त विकास हो चुका था। इस प्रकार की कुछ नयी विधियों के चित्रों का परिचय हमें श्री हर्ष (12वी शताब्दी) के महाकाव्य ‘नैषधचरित’ में मिलता है। ’नैषधचरित’ में जिन चित्रों की चर्चा की गई है, उनके अनेक विषय थे। कुछ चित्रों में दारूवन में शंकर को ऋषिकन्याओं के साथ चित्रित किया गया था। कुछ चित्र ऐसे थे, जिनमें कृष्ण को ब्रजभूमि में गोपिकाओं के साथ लीला करते हुए दिखाया गया है, और कुछ चित्रों में अप्सराओं पर कामासक्त ऋषि-मुनियों को दर्शाया गया है।
इनके अतिरिक्त दूसरे भी अनेक ग्रंथों में चित्रकला का उल्लेख मिलता है। ये चित्र प्रधानतया पूजा-पाठ विषयक धार्मिक कृत्यों से संबंद्ध थे। किन्तु कुछ ऐसे चित्रों के संबंध में भी उल्लेख मिलता है, जिनका ऐतिहासिक महत्व होता था और जो दैनिक क्रिया-कलापों यथा प्रेम-प्रधान, पति-पत्नी-विषयक, विवाह-संबंधों के प्रतीक या गृहालंकरण आदि से संबंधित होते थे।(13)
निष्कर्ष : भारतीय पौराणिक साहित्य में कलाओं की विशद चर्चा मिलती है और इन सभी ग्रंथों में कलाओं की चर्चा व उनकी अलग-अलग संख्या प्राप्त होती है। वैदिक काल में हमारे ऋषि मुनियों ने अपने गहन अध्ययन और तपस्या से प्राप्त ज्ञान को शब्दों में पिरोकर पौराणिक ग्रंथों की रचना की थी। रामायण, महाभारत आदि आर्षग्रन्थों के अतिरिक्त पुराणों और काव्यग्रन्थों में अनेक कलाओं का वर्णन प्राप्त होता है। कामसूत्र में 64 कलाओं का वर्णन मिलता है। सनातन धर्म के ग्रंथों के अतिरिक्त जैन ग्रन्थ 'प्रबन्ध कोश' तथा 'शुक्रनीति सार' में भी कलाओं की संख्या 64 ही बताई प्राप्त होती है। 'ललितविस्तर' ग्रन्थ में तो 86 कलाएँ गिनायी गयी हैं। शैव तन्त्रों में 64 कलाओं का उल्लेख मिलता है। ललितासहस्रनाम में देवी को 64 कलाओं का मूर्तस्वरूप कहा गया है। इस प्रकार भारतीय पौराणिक ग्रंथों में ललित कलाओं के साथ चित्रकला के तात्विक सौंदर्य और सिद्धांतो पैर बखूबी प्रकाश डाला गया है।
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9A%E0%A5%80%E0%A4%A8_%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4
- शिवदान सिंह चैहान- साहित्यानुशीलन, आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली, 1955, पृ. 33
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%95_%E0%A4%B8%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%A4%E0%A4%BE#cite_note-1
- अविनाश बहादुर वर्मा- भारतीय चित्रकला का इतिहास, प्रकाश बुक डिपो, बरेली, 2000 पृ. 1-2
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- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B8%E0%A4%A0_%E0%A4%95%E0%A4%B2% E0%A4%BE%E0%A4%8F%E0%A4%81
- वाचस्पति गैरोला- भारतीय चित्रकला, चैखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली, 1990, पृ. 81
- ऋग्वेद: 1-5-5
- वाचस्पति गैरोला- भारतीय चित्रकला, चैखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली, 1990, पृ. 81-82
- रामायण : 2-15-35
- प्रेमशंकर द्विवेदी- भारतीय चित्रकला के विभिन्न आयाम, कला प्रकाशन, वाराणसी, 2007.पृ.10
- रघुवंश महाकाव्य : 8/68
- वाचस्पति गैरोला- भारतीय चित्रकला, चैखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली, 1990 पृ. 87-90
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