भोजपुरी साहित्य की मौखिक परम्परा और बाल साहित्य
- निरंजन कुमार यादव

बाल साहित्य की अनेक विधाएं हैं। जैसे -बाल काव्य, बाल कथा. बाल उपन्यास, बाल नाटक, बाल एकांकी, बाल जीवनी, बाल यात्रा, ज्ञान-विज्ञान संबंधी आलेख, सूचनापरक बाल साहित्य, आख्यायिका आदि।इनमें बाल काव्य की लोकप्रियता सर्वाधिक है। अपनी योग्यता, लयात्मकता, संगीतात्मकता एवं भाषा की सरलता के कारण बाल कविता बच्चों को सहज रूप में प्रभावित करके उनके मन एवं कंठ में उतर जाती है। हिंदी बाल साहित्य में बाल कविता की एक विशाल एवं प्राचीन परंपरा विद्यमान है।यह परम्परा लिखित और मौखिक दोनों रूपों में मिलती है। लिखित की तरह मौखिक के भी कई रूप और भेद हैं लेकिन उन सबका यहाँ विवरण देना अनावश्यक लेख का विस्तार देना होगा। अतः इस लेख में सिर्फ उसका एक परिचय प्रस्तुत है। मौखिक बाल साहित्य जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि इसका विकास एक दूसरे से सुनकर हुआ है। यह प्रायः खेल-खेल में या पहेली के रूप में रचा गया है। मेरा बचपन भोजपुरी भाषी समाज में बीता है मैं यहाँ उन्हीं मौखिक भोजपुरी बाल साहित्य का विवेचन करूँगा जो मेरी स्मृति में हैं। इसे मेरी सीमा समझी जाए।
बीज शब्द : भोजपुरी, गीत, बुझौवल, गाँव, संस्कार, स्वाभाव, बचपन, बाल जीवन, बाल साहित्य, योग्यता, बौद्धिकता, लयात्मकता, संगीतात्मकता, सहजता, सरलता, बबुवा, राजा-रानी, चतुर ,परम्परा, संस्कृति, भाषा, परिहास, उपदेश आदि।
लेख-बाल साहित्य सिर्फ लिखित साहित्य नहीं है। इसका आरंभिक स्वरुप मौखिक ही रहा है ; भले ही इसे हम लोक साहित्य कह कर खारिज कर दें, लेकिन यह सच्चाई आज भी है कि सभी बच्चों का परिचयलिखित बाल साहित्य से बहुत मुश्किल से ही हो पाता है। यदि हम कहें कि नहीं हो पाता है तो यह बात भी अतिश्योक्ति नहीं होगी। आज भी जिन बच्चों के पास लिखित बाल साहित्य की उपलब्धता नहीं है उनके मनोरंजन और बौद्धिक विकास के लिए मौखिक बाल साहित्य ही कारगर हैं। वैसे भी साहित्य की प्राचीन परम्परा मौखिक ही रही है। बाद में विद्वानों ने उसका वर्गीकरण अपने –अपने हिसाब से किया।ठीक वैसे ही बाल साहित्य की उत्पत्ति की कथा भी है जैसी अन्य विधाओं की उत्पत्ति के बारे में बताया जाता है।इस सन्दर्भ में देवेन्द्र मेवाड़ी बताते हैं कि-“आदिमानव जंगलों और गुफाओं में रहता था तो वह पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर था। उसे घनघोर जंगल में जानवरों का सामना करना पड़ता था। भोजन जुटाना पड़ता था। तब अपने सुख-दुख में मदद करने और दुष्टों को दंड देने के लिए शायद उसने 'परियों' की कल्पना की होगी-लाल, नीली, हरी, सुनहरी, छोटी और बड़ी परियां। यानी तरह-तरह की परियां। जब उसकी कल्पना में परियां उतर आई होंगी तो उसने उनकी कथा अपने दूसरे साथियों को सुनाई होगी। काग़ज़ कलम तो तब था नहीं, इसलिए परियों की ये कहानियां मौखिक रूप से सुनाई जाती थीं। हज़ारों साल तक ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुनाई गईं। परी कथाओं के पात्र काल्पनिक होते हैं। उनमें परियों के अलावा जादूगर होते हैं, बौने और भीमकाय लोग होते हैं। दैत्य और दानव होते हैं। और हां, मनुष्यों की भाषा बोलने वाले पशु-पक्षी भी होते हैं। धीरे-धीरे परी कथाओं में राजा, रानियां, राजकुमार और राजकुमारियां भी आ गईं। हमारे देश की प्राचीन कहानियों में पंखों वाली परियों के बजाय सुंदर अप्सराओं, गन्धर्वों और किन्नरों का वर्णन किया गया।”[ii] लेकिन यह सब लेखन में बहुत कम आ पाए। लेखन में जो आया वह पंचतंत्र की कहानियां थी। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में 'पंचतंत्र' की कहानियां आज से लगभग 2300 वर्ष पहले पं. विष्णु शर्मा ने सुनाई थीं। वे नीति की कहानियां थीं और उनके पात्र पशु-पक्षी और मनुष्य थे। ऐसे ही पश्चिमी देशों में “प्राचीन यूनान के निवासियों ने ईसप की कहानियां कम से कम 2600 साल पहले सुनाई। परी कथाओं को सहेज-संवार कर सबसे पहले जर्मनी के ग्रिम बंधुओं ने सामने रखा। उन्होंने देखा कि बच्चे और किशोर इन कहानियों को मन लगाकर पढ़ते हैं। इसलिए उन दोनों भाइयों अर्थात् जेकब लुडविग, कार्ल ग्रिम और विल्हेम कार्ल ग्रिम ने जर्मनी में दूर-दूर तक जाकर बड़े-बुजुर्गों से परियों की कहानियां सुनीं। उन्हें कागज़ पर उतारा और फिर परी कथाओं की किताब छाप दी। परीकथाओं की उनकी पहली पुस्तक सन् 1812 में छपी थी। 'सिंड्रेला', 'स्लीपिंग ब्यूटी' और 'स्नो स्वाइट एंड द सेवन ड्वार्स' जैसी प्रसिद्ध परी कथाएं उन्हीं की देन हैं। इसके बाद विश्व-भर में बच्चों के सबसे प्रिय लेखक हैंस क्रिश्चियन एंडरसन ने ऐसी मज़ेदार परी कथाएं लिखीं जो अमर हो गईं।”[iii] दरअसल पश्चिम में इस प्रकार के काम करने का चलन है।वहां के विद्वानों ने यहाँ आकर इस प्रकार के अनेक कार्य किए हैं।उन्हीं के तर्ज पर यहाँ की लोक कथाओं और गीतों का संकलन भी हुआ,लेकिन मौखिक बाल साहित्य को ध्यान में रखकर नहीं के बराबर काम हुए हैं।एक बात मैं यहाँ साफ-साफ स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यहाँ मौखिक बाल साहित्य से आशय लोरी या विभिन्न संस्कारों में गाये जाने वाले गीतोँ से कतई नहीं हैं, अपितु इसका आशय बालजीवन के विकास हेतु रची गई कविताओं एवं पहेलियों से है।
पढ़े-लिखे नागरिक समाज में भले ही बालजीवन का स्पेस नहीं है लेकिन भारतीय लोक (खासकर भोजपुरी समाज) में बचपन के लिए खूब स्पेस रहा है। वहाँ ‘बाल साहित्य' विमर्श का विषय कभी नहीं रहा है। यही वजह है कि लोक जीवन प्राय: नगरीय जीवन से ज्यादा स्वस्थ्य एवं मस्त रहता है। वहाँ बचपन की अस्मिता को स्वीकारने की एक स्वस्थ्य परम्परा रही है। बहुत जल्दी बड़े या सयाने होने की अकुलाहट वहाँ नहीं होती; जबकि नगरीय जीवन में शिशु के बाद सीधे वयस्क होने की तैयारी रहती है। अभिभावक अपनी अधूरी इच्छा को अपने बच्चे पर थोप कर उसे पूरा कराने के लिए लग जाते हैं। इसमें बच्चे का बचपन गुम हो जाता है। यदि वह अपने स्वभाविक जीवन में कभी आ भी जाता है तो अभिभावक उसे यह कहकर फटकार लगाने लगते हैं कि क्या बचपना है?अच्छे बच्चे ऐसे नहीं करते या सिंसियर बच्चे ऐसी हरकते नहीं करते ;जबकि लोक जीवन में बचपन की स्वीकार्यता बहुत सम्मान के साथ रही है। मुझे याद है कि जब कोई हमारे घर आता था तो वह हम लोगो से कुछ सवाल पूछता था। यदि हम लोग जबाब नहीं दे पाते थे तो हमें नसीहते सुनाने को हमारे पिता जी आते ठीक उसी वक्त हमारी दादी यही कहा करती थी कि "अभी खेलने-खाने की उमर है जब बड़े होंगे तो सब सीख जायेंगे।" इसी खेलने-खाने का स्पेस मेरी समझ से बचपन है। जहाँ व्यस्क होने की कोई जल्दबाजी नहीं है। जहाँ जीवन की जड़े स्वाभाविक रूप से स्नेह और प्रेम की छाँव में विकसित होकर मजबूत होती है। बचपन में ही यदि जिम्मेदारियों का बोझ लद जाये तो जीवन रुखा - रुखा सा हो जाता है। जीवन की मस्ती और हरापन गायब हो जाता है। इस बात को प्रेमचंद ने भी अपने उपन्यास ‘कर्मभूमि’ के माध्यम से पुष्ट की है। ‘कर्मभूमि’उपन्यास में अमरकान्त का यह कथन- “जिन्दगी की वह उम्र जब इंसान को मुहब्बत की सबसे ज्यादा जरुरत होती है, बचपन है। उस वक्त पौधे को तरी मिल जाय तो जिन्दगी भर के लिए उसकी जड़े मजबूत हो जाती है।”[iv]बचपन के महत्त्व को समझने के लिए पर्याप्त है।
जिन भोजपुरी मौखिक बाल साहित्य की मैं यहाँ बात कर रहा हूँ क्या उन्हें बाल साहित्य माना जायेगा ? इस बात को परखने के लिए हमें बाल साहित्य की कसौटी क्या है उसे जानना होगा। वैसे साहित्य का कोई मानदण्ड नहीं होता है अपितु साहित्य से मानदण्ड निर्धारित होते हैं। और जब मौखिक साहित्य की बात हो तो वहां मानदण्ड की बात करना सर्वथा उचित नहीं है ;फिर भी समकालीन वरिष्ठ बाल साहित्यकार दिविक रमेश ने अपने लेख में इस तरफ कुछ इशारा किया है। यह “विडम्बना ही कही जाएगी कि बाल साहित्य का नाम सुनते ही कितने ही बड़े विद्वान तक खुद को 'बाल' तक कैद कर लेते हैं, साहित्य को छोड़ देते हैं। वे भूले रहना चाहते हैं कि बालसाहित्य में 'साहित्य' अधिक महत्त्वपूर्ण है। असल में वे बालसाहित्य को मात्र बालक की चीज़ मानकर न उसको गम्भीरता से लेते हैं और न ही उसे 'साहित्य' के समकक्ष महत्त्वपूर्ण मानने को तैयार दिखते हैं। इस तरह की सोच का निस्संदेह आज प्रतिरोध भी शुरू हो चुका है। यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि बालसाहित्य भी सबसे पहले 'साहित्य' ही है। इसमें वे सब खूबियाँ, ज़रूरतें आदि हैं जो 'साहित्य' के लिए अपेक्षित होती हैं या मानी जाती हैं। माना कि यह सबसे पहले बालक के लिए होता है अर्थात बालक की पहुँच में पहुंचने के लिए होता है।”[v] इस मानक पर भोजपुरी मौखिक बाल साहित्य खरा उतरता हैं।आगे आप भी इसका आकलन सहज रूप से कर सकते हैं। एक बात और यहाँ महत्वपूर्ण हैं जिसे यहाँ कह देना आवश्यक है , बात यह है कि बाल साहित्य पढ़ना अलग बात है और बालजीवनको जीना बिल्कूल अलग बात है। यदि जीवन में इन दोनोका मेल हो जाये तो इससे अच्छा क्या हो सकता है?अर्थात सोने पर सुहागा वाली बात हो जाएगी। लेकिन विडम्बना यह है कि रटने वाली शिक्षा व्यवस्था में बाल साहित्य पढ़ने का स्पेस नहीं है और जहाँस्पेस है वहाँ न तो अच्छी शिक्षा व्यवस्था है और न ही बाल साहित्य की पहुँच हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि ठेठ ग्रामीण परिवेश में रहने वालेबच्चों का बाल साहित्य क्या रहा होगा ? जिसे बच्चेबहुत चाव के साथ पढ़ते और रचते हैं। ऐसे में मुझे बहुत सी भोजपुरी कविताएं एवं कहावतों केसाथ बुझौवल याद आते है जो हमारे खेल,जीवन का अनिवार्य हिस्सा हुआ करते है थे। जैसेबचपन के खेल में गोसैया(आरम्भ करने वाला)कौन बनेगा, इसका निर्णय कैसे हो ?इसके लिए सभी बच्चे एकपास एकत्र हो जाते थे और निम्नलिखित कविताका पाठ करते थे जिसपर कविता का शब्दसमाप्त होता था, वह उस समूह से निकल जाताथा, ऐसे करते-करते अंत में सिर्फ दो बच्चे बचतेथे। फिर उन पर यह कविता शुरु होती थी औरअंत में जो बच जाता था, वह गुसैया चुन लियाजाता था-
"ओका बोका तीन तलोका / लैया लाटी चंदन काटी / रघुआ क काव नाँव- 'विजई' / काव खाय- 'दूध-भात' / काव बिछवाई- 'चटाई' / काव ओढ़े- 'पटाई' / 'हाथ पटक, चोराइ ले।"
इस कविता में थोड़े बहुत –बहुत परिवर्तन के साथ कुशीनगर, महराजगंज, सिद्धार्थनगर, बलिया, देवरिया, गाजीपुर, वाराणसी में अब भी बहुत आसानी से सुना जा सकता है। भोजपुरी भाषा और साहित्य के बड़े अध्येता एवं संकलनकर्ता डॉ. रामनारायन तिवारी जी[vi] ने बताया कि भोजपुरी में ही इसके कई रूप देखने को मिलते हैं। जैसे -
ओका बोका तीन तलोका/लउवा लाठी, चन्नन काठी/चनना के का नाव ?/इजयी, विजयी, पनवा फूलवा/ बाबा जी क ढो ढोधिया प s चुप।
या
“ओक्का बोक्का तीन तलोक्का / लौवा लाठी चंदन काठी / चन्दना के नाम का / इजई-विजई/ पान फूल पचक्का।”
या
“ओका-बोका तीन तिलोका / लौवा लाठी वन के टाटी/ वन फूलै वनवारी फूलै / और फूलै वन के करैला /अंगने मा आल गूल / वन मा करैला / डिल्ली डगर ढप्प।”
या
“ओक्का बोक्का तीन तलोक्का / लौवा लाठी चंदन काठी /चन्दन के नाम की / फुचुवा फुचुक / सुइया लेबै कि डोरा?"
या
“ओका बोका तीन तलोका / लउवा लाठी चंदन काठी चन्दना में का बा, इजई कि विजई, पान कि फूल?/ बैगन टूटे खेत में, सास पकावे पूआ, ननद खेले जूआ / पुचुक गइलस पूआ।”
या
“ओक्का बोक्का तीन तलोक्का / लइया लाठी चन्नन काठी, चनन में का बा? / ललका सिपहिया..... दूनो कान कटवले बा। पराती में सुतवले बा। हँड़िया भुचुक / हमार गुइयाँ चुप।"
कुछ भोजपुरी विद्वानों एवं कवियों ने जैसे आकृति विज्ञा अर्पण ने अपनी कविता 'चुनावी सेतुआ' में इसे इस प्रकार से उद्धृत किया है- “ओका-बोका तीन तलोका / लड्या लाठी चंदन काठी/ चनने में काव-काव?/दूध भात पइसा/तीन पाव कै थरिया।/ राजा जी जब जेवन बइठे/ कूद परल लोखरिया। भइया कै रजाई भीजै,/भऊजी कै दुपट्टा। /भादों में करइली पाकी, ऊ करइली क काव नाँव? अमुनी कि जमुनी? पनिया पिचुक्क...।” पार्श्व गायक उदित नारायण ने इसको गाया है।वह यू ट्यूब पर भी उपलब्ध है। यह इतना लोकप्रिय है कि यह थोड़े बहुत अंतर के साथ भोजपुरी भाषी क्षेत्र के बाहर भी सुनने को मिल जाता है।मुझे कुछ दिन काम करने का मौका बुन्देलखण्ड में भी मिला था। वहां इसका रूप कुछ इस प्रकार मिला –“
“अक्का-बक्का तीन तिलक्का / लौवा लाठी चंदन काठी बनने में का बा / इजइल-विजइल पान फूल / एक चिरैया पचक जो।”
मेरे इस उद्धरण का आशय सिर्फ इतना है कि मौखिक साहित्य के कई रूप हैं।यह परिवर्तन जनपद स्तर पर नहीं कभी-कभी तो गाँव के स्तर भी देखने-सुनने को मिल जाते हैं। स्थानीयता एवं गतिशीलता का इन गीतों पर प्रभाव स्वभाविक है; जो एक स्वतंत्र शोधका विषय है। अतः इसके सभी परिवर्तीत रूपों पर यहाँ बात करने का न औचित्य है और नही स्पेस है। ओक्का बोक्का तीन तड़ोक्का की तरह कई कविताएँ हैं। जिन्हें हम अपने बाल जीवन में बड़े चाव से पढ़ते-गाते थे। आज वे सभी मेरी स्मृति में नहीं है लेकिन इसी तरह की कुछ अन्य कविताएँ जो हमें याद हैं; जिनसे हम अपना गुसैया चुनते थे ,उनको यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ। जैसे –
“ अटकन-चटकन, दही चटाकन/ बर फूले बनइला फूले/ सावन मास करईला फूले/सावन गइले चोरी/बांस के कटोरी/धर कान ममोरी।”
ऐसी ही एक कविता और स्मृति में है -
“तार काटो तरकुल काटो/ काटो रे बरकाजा/हाथी पर के घुघरू/पहिन के चले राजा/राजा जी। रजइया ओढे।/रानी के दुपट्टा/इंच मारो/धींच मारो। मुसर जइसे बेट्टा।
प्रायः इन कविताओं का प्रयोग चीका -बड्डी एवं ओल्हा- पाती,आइस-पाईस,लुका-छिपी के खेल की शुरुआत के लिए किया जाता रहा है। जिस बच्चे को यह कविताएँ याद होती थी,उस बच्चे को बहुत आदर मिलताथा और कभी-कभी बेईमानी का भी आरोपलगता रहता था। जो बच्चा बार- बार गुसैया चुना जाता ;वह प्रतिज्ञा करता था कि कल वह उसकविता को याद करके आयेगा और गुसैया वहचुनेगा। इससे एक स्वस्थ प्रतियोगिता के साथअपनी स्मरण शक्ति को मजबूत करने का अभ्यासअप्रत्यक्ष रूप में विकसित होता रहता था।भोजपुरी की मौखिक परम्परा में ऐसी सैकड़ों रचनाएं हैं जो अब प्राय: लुप्त होने कीकगार पर हैं। मोबाईल और टेलीविजन के बढ़तेप्रभाव एवं सामाजिक हैसियत की देखा-देखीस्वभाव ने बच्चों के बचपन को छीन लिया है।यहाँ मेरे कहने का यह आशय कतई न लगाया जायकि मैं उस परम्परा को बिल्कुल बहुत ठीक मानता हूँ याआज के समाज को पीछे ले जाना चाहता हूँ, लेकिनवह हमारी परम्परा रही है, उसे संरक्षित और संवर्धित कियाजाना चाहिए। उस उन्मुक्त परिवेश को आज कैसे बच्चों को उपलब्ध कराया जाय; जहाँ वह मुक्त भावसे बिना किसी दबाव के खेल-खेल में सीखसकें। जिससे कि बच्चे का शारीरिक एवं मानसिकविकास स्वाभाविक रूप से हो सके।यह भी हमारी हीजिम्मेदारी है।
बाल जीवन तनाव युक्त नहीं तनाव मुक्त होना चाहिए। उसका विकास किसी दबाव में नहीं अपितु अपने स्वभाव में होना चाहिए। आज के पाठ्यक्रमों की मोटी-मोटी किताबें और अभिभावकों एवं शिक्षकों के दबाव में बच्चा लगातार रट रहा है; लेकिन उसे याद ही नहीं हो रहा है। उसका एक बड़ा कारण यह है कि बच्चे के मस्तिष्कका विकास एक रेखीय ढंग से हो रहा है। वह अपने स्कूल में भी रट रहा है और घर पर भी रट रहा है। ऐसे में जो बच्चे आसानी से रट लेते हैं उन्हें हम शाबासी देते हैं और जो नहीं रट पाते वह हमारे कोप का भाजन बनते हैं। लेकिन बच्चे क्यों नहीं रट पा रहें हैं हम इसकी खोज नहीं करते। मुझे याद है हम लोग पाठ्यक्रमों मे लगी कविताओं से पहले खेल-खेल में बड़ी- बड़ी कविताओं को याद कर लिए थे। जैसे-
चऊक चाँदनी बारह मासा / पाण्डव निकल चले बनवासा।
आगे-आगे कुआ खोनाऊ, कुआ ऊपर चम्पक डालू।
जब-जब चम्पक लहर भरे, तब तब पण्डित पूजा लें।
पूजा लिन्हे एकै भाव, दिल्ली से गज मोती मगाऊ।
जे न करे लइकन के भाव, उनकर मरिहे छैल भतार।
ऐ लइका के माई, सब लड़का के मिठाई खियाउ।
मिठाई खियाउ एक भाव, नात मरिहे छैल भतार।
हाथ परसले पण्डित रहले, पण्डित होले वतकटही
चुप चाप ऊ विद्या दिन्ह ,विद्या ,दिहें एके भाव।
दिल्ली से गज मोती मगाऊ। जवन करे लइकन के भाव।
इसकी एक लम्बी श्रृंखला है जिसमें छल,कपट, इर्ष्या, द्वेष एवं चोरी की भर्त्सना करते हुए एक भाव की बात पर जोर दिया गया है। मेरे कहने का आशय यह है कि इन कविताओं' तुक और लय का विशेष ध्यान दिया गया है जिससे लम्बी से लम्बी कविताएं बहुत आसानी से याद हो जाया करती थी। गणित जैसे कठिन विषय की गिनती-पहाड़ा भी हम लोगों ने इसी तरह से याद किया था जैसे एक दूनी दो, दो दूंगी चार ..। बाल साहित्य दरअसल अभ्यास का साहित्य है।यह हमारी रुचियों को विकसित और परिष्कृत करता है। बाल साहित्य की पुस्तके पढ़ते-पढ़ते जैसे हमारी पढने की आदत विकसित हो जाती है ठीक वैसे ही भोजपुरी की मौखिक बाल साहित्य हमारे स्मरण शक्ति को बढ़ाने एवं मजबूत करने में बहुत कारगर हुआ करती रही हैं।
ऊपर उद्धृत कविता में ठीक काम न करनेवाले के लिए एक भय है कि उसका पुत्र,पति या पत्नि की मृत्यु हो जाएगी।लेकिन सिर्फ भय ही नहीं है भोजपुरी मौखिक बाल कविताओं में मनोरंजन के साथ भय और भय से मुक्ति का साधन भी मौजूद है। कीरीया (कसम) धराना और उतारना भी हम लोगो ने बचपन में ही जाना था, जिसका आगे के जीवन में क्रोध और क्षमा के रूप में विकास हुआ। जैसे अभी ऊपर वाली कविता में 'मरने की बात कही गई है। ऐसी अनेक बाल कविताएं हैं जिसमे झूठ बोलने पर चोरो करने पर,निंदा करने पर ऐसी कीरीया धराई जाती थी, लेकिन जब दूसरे बच्चे को अपनी गलती का एहसास हो जाता है या उसेपछतावा होने लगता है तब कसम (कीरीया) उतारने का भी विधान है जैसे -
“बकुला बकुला कहाँ जालsमुरई के खेत में।/ सातो पानी लेते जब जइह।/ गंगा में दहववले जइह /हमरो किरियवा उतरले जइह।”
जीवन में अनुशासन का बड़ा महत्व है और अनुशासन के लिए भय आवश्यक है। बच्चे अपने तथा अपनो के नुकसान के भय से बाल जीवन में करने वाली गलतियों से (जैसे गाली देना, चोरी करना, झूठ बोलना आदि) से बच जाते हैं और धीरे-धीरे उनमे मानवीय गुण एवं मूल्यों का विकास होता रहता है। हम लोग प्रायः गाली देने वालेबच्चों की गाली यह कहकर गाली बंद करवा दिया करते थे कि –“जेकर मुहवा किराइल बा, ओकर मुहबा में गारी बा।” इन सबके अलावा मौखिक भोजपुरी बाल साहित्य का सबसे सशक्त रूपबुझौवल (पहेली) है। बाल साहित्यकारों ने बाल साहित्य के लिए जो कसौटी निर्धारित की है वह सब यहाँ मौजूद हैं। इनका संकलन भी किया गया है; लेकिन इनकी उपयोगिता एवं महत्व पर बहुत कम बात की गई है।
बाल साहित्य के लिए जरूरी नहीं की बच्चे की हीकहानी हो। बाल साहित्य बच्चे के लिए होती है लेकिन उस साहित्य में बच्चा हो यह आवश्यक नहीं है। मन्नू भण्डारी का उपन्यास ‘आपका बंटी' एक बच्चे की कहानी है लेकिन वह बाल साहित्य नहीं है। एक बाल साहित्य का अनिवार्य गुण है कुतुहल और कलात्मकता के साथ शिक्षाप्रद होना। जिसमें अनुभव जानित सत्य का मिश्रण हो और बच्चों के मानसिक विकास में सहायक हो। भोजपुरी समाज में प्रचलित बुझौउल (पहेलियाँ) बाल जीवन के मनोरंजन एवं मानसिक विकास में बहुत सहयोगी सिद्ध हुई हैं। कुछ बुझौवल मुझे याद आ रहा है; जिसका विवरण निम्नवत है -
1-पण्डित जी पण्डोल - डोल /अण्डा पारे गोल गोल। एक अण्डा करिया ओमें सारी दुनिया॥ - (आकाश)
2-लाल ढकना, कृपाल ढकना. खोल खिरकी, पहुँचा परन। (डाक-चिटठी)
3-चाकर-चाकर पतवा ओ पर बइठे नगवा। नगवा सलाम करे, बाबूजी के अगवा॥
4- ऊपर आगि, नीचे पानी, बीच में बइठे पंडित ज्ञानी। (हुक्का-चिलम )
5- एक जीव अइसन, ओमे हाड़ न रहे कइसन। (जोंक)
6- चारि घर चौबीस दरवाजा यो मे बइठे दूई बंजारा॥ हाथ पसीजे जोगी जुझे, मरद होखे सो कहनी बहुझे॥
7- बीसों के सिर काट गैइल। ना मुअल न खून भईल।। (नाखून)
ऐसे अनेक बुझौवल थोड़े- बहुत अंतर के साथ पूर्वांचल के जनपदों में प्रचलित रहे हैं। इनके कुछ बहुत लघु रुप भी देखने और सुनने को मिलते रहे हैं, जैसे- तहरे घरे गइनी त खड़िया के बइठनी (लाठी,) तहरे बरै गइनी त खींच के बैठनी (पीढा) आदि ऐसी पहलियाँ अपनी मति और प्रतिभा के अनुरूप बनती रहती थी। बच्चे पहले सुनते थे फिर उसी तर्ज पर उनके अनुसार अपनी मेधा कापरिचय देते हुए दूसरी पहेली रच डालते थे।
इन सबके अलावा भी बहुत कुछ याद आ रहा है, जिसे हम बचपन में बहुत चाव के साथ सुना –पढ़ा करते थे। जिसमें जीवन, ईश्वर , प्रकृति और आस्था से हमारा सीधा सम्बन्ध बनता प्रतीत होता है।जैसे –घाम करs घाम करs खिचड़ी विहान कर तहरे बलकवा क जडवत बा कंडा बारी बारी तापत बा।या चंदा मामा आरे आवा, पारे आव नदिया किनारे आवा दूध-भात लेले आवा बबुआ के मुहवा में घुटूक।या चल कबड्डी आवतानी,तबला बजावतानी, तबला के धुन पर नाची के नाचावतानी याघुघ्घू रानी, घुघ्घू रानी केतना पानी। आदि ऐसी न जाने कितनी चीजे हमे बचपन की याद में रहती थी। जिनके माध्यम से हम खेलते थे। अपना मनोरंजन करते थे और बहुत कुछ सीखते थे। यही हमारे जीवन का बाल साहित्य था। विल्कुल मुफ्त। यह आज के लिये लिखे जा रहे बाल साहित्य से विल्कुल अलग है लेकिन जिस उद्देश्य की पूर्ति आज का बाल साहित्य करता है उसकी पूर्ति यह भी करने में सक्षम रहा है।
निष्कर्ष : उपर्युक्त लेख के माध्यम से हम देखें तो पाते हैं कि मौखिक भोजपुरी बाल-साहित्य की भाषा एवं शैली उबाऊ एवं जटिल न होकर मनोरंजक होती है। इनका शिल्प ऐसा होता है जिससे बच्चों की एकाग्रता( यानी सुनने में कोई शब्द छूटे न ) की अभिरुचि बढ़ती है और उत्सुकता बनी रहती है कि अब इसके आगे क्या होगा? यह जानने और बताने के लिए बच्चे खूब चाव से इन्हें पढ़ते हैं और दूसरे को भी आगे पढ़ाते हैं। इनके वाक्य छोटे और सरल होते हैं। इनकी भाषा के शब्दों में देशज की अपनी मिठास और सहजता रहती है लेकिन मूल्य-बोध या शिक्षा-बोध बहुत ऊँचे दरजे की होती है। यही इसकी मूल विशेषता है कि बच्चों को कभी लगता ही नहीं कि मुझ पर आदर्श या उपदेश थोपा जा रहा है।बच्चे स्वतः उन आदर्शों तथा उपदेशों के प्रति आकर्षित होंते हैं और अपने जीवन में उसे आत्मसात् कर अपने देश एवं समाज के लिए एक बेहतर संवेदनशील नागरिक बनते हैं।इस साहित्य में उबाऊपन नहीं होता- बच्चे हंसते-खेलते इसे गाते एवं एक –दूसरे को सुनते हुए अपनी कल्पना शक्ति को जगाते हैं और इस साहित्य के मूल्य-बोध को सहजता के साथ अपने जीवन में स्वीकारते हैं।
सन्दर्भ :
[i]-सिन्हा,विनोद कुमार,बाल-साहित्य :प्राचीन से अर्वाचीन तक ,आजकल ( 2018), नवम्बर 2018,पृष्ठ-48
[ii][ii]-मेवाड़ी,देवेन्द्र ,बाल पत्रिकाओं का वर्तमान परिदृश्य,आजकल ,दिसंबर- 2024,पृष्ठ-24
[iii]- वही ,पृष्ठ-24
[iv]- प्रेमचंद, कर्मभूमि, विश्वविद्यालय प्रकाशन , संस्करण-1988, पृष्ठ- 18
[v]- दिविक,रमेश, बाल साहित्य : नया चिंतन ,नया प्रतिमान , इंद् प्रस्थ भारती (बाल साहित्य विशेषांक), नवम्बर-दिसंबर2023, पृष्ठ-64
[vi]-राम नारायण तिवारी पी.जी.कालेज गाजीपुर में अंग्रेजी विषय के सहायक आचार्य हैं ।इन्होंने भोजपुरी लोक साहित्य का विपुल मात्रा में संकलन किया है । इस लेख में उनके द्वारा सुनाए गए कविताओं का भी उपयोग किया गया है ,खासकर विविधता वाला यह हिस्सा उन्ही के द्वारा बताया गया है ।
निरंजन कुमार यादव
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गाजीपुर
8726374017
बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक : दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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