जयपुरी की लोरियाँ : पशु और मानवीय संबंध
- छोटू राम मीणा

कुदरत जैसे अलग अलग रंग बिखेकर अपना श्रृंगार करती है, वैसे ही माँ सृजनहार होने के कारण बच्चे का श्रृंगार करते समय वह एक रचनाकार होती है। यह रचनात्मकता लोरी के रूप में सुनाई देती है। वह बच्चे के लिए एक विधाता भी है। “एक अपार सपने, उत्साह के साथ वह अपने शिशु को आकार देती है, फिर जन्म के साथ पालन-पोषण करती है, पालन-पोषण के साथ वह उसको संस्कार देती है, समाज के समक्ष उस रचना को प्रस्तुत करने से पूर्व उसे पारिवारिक व सामाजिक बनाने का प्रयत्न वह हर पल करती है, लोरियाँ और हालरिया उन्हीं का पाठ है। कोई बात है जिसे माँ जन्म के पश्चात् बिना देर किये कह देना चाहती है, और निश्चय ही उस कहनी का प्रभाव वैसे ही वातावरण, मन के निर्माण में योग देता है। माँ व परिवारजनों का वह संदेश ही लोरी पाठ में समा गया है”1।
लोरियाँ माँ के अलावा दादी, नानी, काकी, ताई, बुआ, बहन सभी को बुलाती है। इस तरह से लोरी को समझते हैं। “माँ उनींदे शिशु को सुलाने का उपक्रम करते (हुलसते) गोद या बिछावन में जो दुलार, स्नेह भरी थपकी देती है, इसके साथ ही उसके मुँह से शिशु को संबोधित दुलार भरे गीत-स्वर, गुनगुनहाट नि:सृत होती है- लोरी है”2। यह अधिकांश रात में बच्चे को सुलाते समय ये हालरिया, लाड़, चोचला गीत गाये जाते हैं। बच्चे अपनी कोड भाषा में सारी बात समझ लेते हैं। इन गीतों को पालना या झूले में गाया जाता है।
लोरियों की गायन कला एकल होती है। इनका गायन समूह या सामाजिक रूप से नहीं होता है। इनका श्रोता भी एकल होता है। एक तरह से यह कह सकते हैं कि इनका गायक और श्रोता दोनों के अलावा पशु या प्रकृति मौजूद होती है। लोरी का सीधा संबंध शिशु को सुलाने से संबंधित है। शिशु जब सोने का अभिनय करता है, आधी नींद में होता है तब माँ के मुख से लोरी निकलती है। इनमें सुर, लय और ताल अपने आप बनते जाते हैं। लोरी को हम नींद की दवा कहें तो बुरा नहीं है। शिशु के लिए सामाजिक बनाने की पहल है लोरी। शिशु को भाषा से दोस्ती कराने की पाठशाला है लोरी। शारीरिक व मानसिक पोषण है लोरी। लोरी लोकसाहित्य की पहली कड़ी है।
लोरी में बच्चों के लिए स्वास्थ्य व पोषण ज्ञान समाया रहता है। बच्चे को कैसे प्रसन्न, उल्लसित व पोषित रखना है यह माँ को बखूबी आता है? बच्चे को अच्छे पहनने वाले कपड़े, टोपी, झबले, आभूषण मिले वह जीवन का आरम्भ-अभाव व कुंद वातावरण में न करे ऐसी बातों का ख्याल भी माँ रखती है, इसलिए इन गीतों में सोने-चांदी के आभूषण के साथ सुंदर कपड़े की कल्पना इन लोरी गीतों में होती है। ये गीत जाति, क्षेत्र व सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थिति के अनुसार बनाये हुए होते है।
बच्चों के लिए दूध सबसे जरूरी होता है। आजकल दूध पीने के लिए बच्चे नाक भौं सिकोडते हैं। अब बच्चे होर्लिक्स या बॉर्नबिटा का विज्ञापन देखकर बडे हो रहे हैं। दूध पीलाने के लिए बच्चों को पहले जो मानसिक रूप से तैयार करते थे। दूध पिलाने की बात लोरी में गायी जाती थी उसका स्थान अब टी.वी. विज्ञापन ने ले लिया है। तकनीक ने माँ से लोरी को हड़प लिया है। नींद की बात लोरी में उतनी ही जरूरी है जितना दूध इसलिए लोरियों में ‘सो जा रे भाया, सात घडी’ या फिर लोरी के साथ हाथ की थपकी से नींद की घुट्ठी पिलाई जाती है। बच्चों के लिए सबसे ज्यादा सुलाने वाले लोरी गीत मिलते हैं। अब नींद के लिए पैंपर्स पोको पेंट ने ले लिया है। तकनीक ने बाजार के साथ मिलकर धीरे-धीरे माँ से लोरी का अपहरण कर लिया है। अच्छे स्वस्थ बच्चे के खान-पान, खेलकूद के साथ नींद पूरी होती है तब ही बच्चे का सर्वांगीण विकास होता है। इसलिए लोरियों में इनका ध्यान रखा जाता है।
परंपरागत लोरियों में पुत्र के प्रति ही अधिक मोह देखने में मिलता है। इसका कारण यह है कि समाज में पुरुष का महत्व स्त्री से ज्यादा मिलता रहा है। इसके सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं ऐतिहासिक कारण रहे हैं। लडका होने पर जीविका चलायेगा, बहू लायेगा, दहेज लायेगा, मरने पर संस्कार करेगा, संपत्ति का संरक्षण करेगा, वृद्ध होने पर सेवा करेगा आदि आदि। लेकिन मातृसत्तात्मक समाजों में लड़कियों को बराबरी का सम्मान मिलता रहा है। आदिम समाज की लोरियों में पुत्र-पुत्री के लिए बराबरी का स्थान है। लडकी के लिए शादी की कल्पना के साथ सुंदर वर की आंकाक्षा वाले लोरी गीत मिलते हैं।
खेती किसानी करने वाली जातियों के संदर्भ में बात करने पर पता चलता है। उनके यहां बहुत साधारण तरीके से अपने परिवेश के लोरी के रूप में जोडकर रखे हुए हैं। बच्चों वैसे भी पशु-पक्षी हमेशा अच्छे लगते है। सोने-चांदी के संदर्भ कभी-कभार ही देखने सुनने को मिलते हैं। आदिम समाज में पशुओं के साथ अलग तरह का संबंध रहा है। सभी बच्चों को पशु व पक्षियों की आवाजें अच्छी लगती है। इसलिए विभिन्न प्रकार के प्राणियों के साथ बच्चों के गयी जाने वाले लोरी गीत मिलते हैं। आदिवासी समुदाय के गीतों में बच्चों को पशु या पक्षियों को लोरी के रूप मानवीय रूप में जोडते हुए सुनाया जाता रहा है। ढूढ़ाडी में लोरियों को चावला, चोचला, लाड़, सबद व कोदू के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। लाड का गीत ज्यादा जगह सुनने में मिलता है। काम करने वाली दादी, माँ किसी दूसरी औरत को गीत गाते हुए सुनती है यदि उसके पास काम का बोझ कम है तो चोचला शब्द का प्रयोग करती है। लाड व चोचला एक दूसरे के समानार्थी प्रयोग किये जाते हैं।
खेती और पशुपालन का कार्य करने वाले समाज के लोकगीतों, लोककथाओं, लोकगाथा के साथ लोरीयों में भी पशुओं का बराबर वर्णन मिलता है। माँ-बच्चे का संबंध को गाय और बछडे से जोड़कर देखा जाता रहा है। मानवीय रिश्तों के जरिए अपने संकट को टालने की कला इन लोरी गीतों में देखने को मिलती है। अन्य खेती से संबंधित पशुओं के साथ भी इसी तरह का व्यवहार लोकसाहित्य के अलग-अलग रूपों में बिखरा हुआ है। उदाहरण के तौर पर एक दो गीत यहाँ देखे जा सकते हैं-
माई बेटा
काळा काळा खेत म हरी हरी चरड चरी र धोळी गाय,
चर चरार उल्टी बावडी र धोळी गायी,
गेला म नाहरयो मलग्यो र,
मत खावे र नाहरया, म्हारो बछड़ो रोवे छ झरण झरण,
मत खावे र नाहरया, म्हारो बछड़ो रोवे छ झरण झरण,
जा र झरण झरण रोवण लागी र धोळी गायी।।
बछडो बूझण लाग्यो, तू क्यों रोवे री म्हारी माता,
अयां रोऊ र म्हारा बेटा गेला म न्हारयो मलग्यो,
तड़के तू किणको दूध पीवेलो र म्हारा बेटा,
तू चंता मत कररी म्हारी माता, तड़के तो चालूं लो ये थारे साथ,
बछड़ो लेर चल दियो,
काळा काळा खेत म हरी हरी चरड चरी र धोळी गायी,
चरार र उल्टी बावडी र धोळी गायी, तो गेलां म न्हारयो मलग्यो,
बछड़ो तो बोल्यो मामाजी, थे मून खा ही, म्हारी माता न मत खा ही,
माता बोली वा भाई म्हारा बछड़ा,
दौडाई अकल खूब, बचवा ली म्हारी ज्यान।।
(भावार्थ है- काला खेत है जिसमें एक सफेद गाय चरड नामक घास है वह चर रही है। जब वह चरने के बाद वापस बछड़े के पास आने लगती है तो रास्ते में उसे एक शेर मिल जाता है। शेर गाय को खाने की बात करता है। गाय बछड़े का बहाना बनाती है कि आज तो मुझे जाने दे, कल तुम खा लेना। शेर मान लेता है गाय जब घर आकर रोने लगती है तो उसका बछड़ा उससे पूछता है कि हे माँ तू क्यो रो रही है। कल तू किसका दूध पियेगा। इस बात का कारण भी वह अपनी माता से पूछता है। माँ सारी बात बछड़े को बता देती है। फिर बछड़ा माँ से कहता है रोने की कोई बात नहीं है कल मैं आपके साथ ही चलूंगा। फिर उसी काले खेत में चरने के बाद जब वापस घर आते हैं तो वहाँ शेर रास्ते में मिल जाता है। शेर कहता है आज में खाये बिना नहीं जाने दूँगा तो माँ से पहले बछड़ा शेर को मामा बोलकर कहता है कि मामा आप मुझे खा लिजिये माता को घर जाने दीजिये। शेर को बछड़ा मामा बोलता है तो वह उनको छोड़ देता है। उस तरह से गाय अपने बछड़े से कहती है वाह भाई बछड़ा आपने खूब दिमाग लगाया आपने तो मेरी जान ही बचा ली)
माँ के कितना भी कष्ट हो वह अपनी संतान के साथ साझा नहीं करती हैं। वह नहीं चाहती हैं कि उसका बच्चा भी इस दुनिया में आते ही दुख की बात सुने और उसकी हंसती खेलती दुनिया गमगीन हो जायें, इसलिए यहाँ सब कुछ होने के बाद भी एक बछडे की माँ दुख तो है लेकिन वह यह दुख अपने तक ही सीमित रखती है। एक उदाहरण के तौर पर नीचे इस लोरी गीत से समझा जा सकता है-
धोळी गाय
कईयां रोवै ए, धोळी गाय गऊ बनी म एकली,
कईयां तो कईयां रोवै ए, धोळी गऊ बनी म एकली,
थारां जायेडा कुमावै दन रात, नाज की कोई कमी नई ए,
थारो दूध पीवै भगवान, मिशरी मावा डाल डाल क,
थारी छाछ पीवै सेंसार, सदा ही सुख पाबा न।।
(भावार्थ है- हे काली गाय क्यों रो रही है, इस सूने जंगल में खड़ी होकर? इस वन में अकेली खड़ी होकर क्या सोच रही है? क्या हो गया?, किस बात का दुख है? आपके पैदा किए हुए बैलों की जोडी ऐसी है कि वे दिन रात कमाते हैं, अनाज की कोई कमी नहीं है। भगवान भी आपका दूध पीता है मिश्री व मावा डालकर पीता है, सारी दुनिया, संसार ही छाछ पीता है, सदा सुख पाने के लिए ? जब इतना कुछ है तो रोने की क्या बात हो गयी)
शादी होने के बाद एक माँ बहुत कुछ सहती हैं। परिवार, नाते-रिश्ते वाले भी बच्चे के बारे में पूछने लगते हैं यदि कोई स्री माँ नहीं बन पाती है तो यही लोग व लोक उस व्यक्ति की दूसरी शादी की बात शुरू कर देते हैं। बांझ कहना किसी भी स्त्री के लिए सबसे बडा अपमान, दुख, व पीडा होती है। इसलिए माँ यह बात अपने बच्चे को सुना रही हैं-
रोवे मत ए दादाभाई
रोवे मत ए दादभाई, थारे होणे में बहोत दुख पाई,
थारी दादी म्हाने बांझडी बताई, थारा बाबा न शादी की जंचाई,
रोवे मत न दादभाई, थारे होणे मे बहोत दुख पाई,
थारा ताऊ न बांझडी बताई, थारी ताई न शादी की जंचाई,
सो जा र म्हारा दादभाई, थारे होणे में बहोत दुख पाई,
थारा चाचा न बांझडी बताई, तेरी चाची न शादी की जंचाई,
रोवे मत र दादभाई, थारे होणे में बहोत दुख पाई।।
शादी के तुरंत बाद बच्चे समय पर न होने पर संयुक्त परिवार में दादा, दादी, ताऊ, ताई, चाचा, चाची, बुआ, मामा, मामी को छोटे बच्चे का बेसब्री से इंतजार रहता है। उनको को बच्चे की तुतलाहट सुनना होता है। ऐसा नहीं होने में वे बहु के बारे में बातें करने लगते हैं और बेटे के लिए दूसरी शादी की बात शुरू कर देते हैं। एक दुल्हन के लिए यह बात बहुत दु:खद होती है। यही बात एक माँ अपने बेटे को सुलाने के समय गाते हुए सुना रही है।
(भावार्थ- दादभाई रोवे मत ए, आपके होने में मैंने बहुत दुख पाया है। आपके दादाजी ने मुझे बाँझ(नि:संतान) बता दिया, आपकी दादी ने बाबा की शादी की बात जचांई ली थी। ताऊजी ने तो मुझे नि:संतान बता दिया था। आपकी ताईजी ने दूसरी शादी करने की ठानी है। सो जा मेरे प्यारे आपके पैदा होते समय मैने बहुत दु:ख पाया है। आपके चाचा ने भी मुझे नि:संतान बता दिया था। आपकी चाची ने भी दूसरी शादी करने की ठानी थी।)
मामा मोटा
ज्यूं ज्यूं झोटा, मामा मोटा।
ज्यूं ज्यूं झोटा, मामा मोटा।।
(बच्चे को तुक बंदी के साथ कोई भी पंक्तियां सुनाये तो उनको नींद आने लगती है। जैसे उदाहरण ऊपर की पंक्तियों में देखा जा सकता है। झोटा का झूले के लिए प्रयोग किया गया है। मामा मोटा का मतलब मोटा आदमी भी हो सकता है और मोटा मतलब पैसा वाला से होता है। लेकिन पर यह मोटा शब्द अच्छी परिस्थिति और पैसे वाले के संदर्भ में किया गया है।)
बालमन पर पक्षीयों की बात आकर्षित करती रही है, आज यह आकर्षण बच्चों के मन में देखा जा सकता है। इसी बात को बाजार भी अपनी नजर से देखता है। इसलिए यह देखने में आता है कि घर का आँगन छोटा हुआ वहाँ पर बाजार आधारित पशु-पक्षियों ने ले ली है। बच्चों को अब वास्तविक रूप में बहुत सारे पक्षी देखने हो तो वे चिडियाघर जाते हैं साथ घर में खिलौनों से चिडियाघर बना लेते हैं, लेकिन एक समय ऐसा भी रहा है जहाँ अधिकांश पक्षीयों को प्रत्यक्ष देखा जाता रहा है। आँखों के सामने, कानों की सूनी, मुँह से कही हुई बातें संग्रहालय तक भी नहीं पहुँच पा रही है। लोक जिनके साथ खग मौजूद था, वह लोक के साथ ही खत्म हो रहा है।
छोटा सा भाया
आरे काग, दे र फाग,
जा रे मोर, द र बोर,
आ री चड़ी, द री दड़ी
आ र कबू, द र दबू।।
लाडूडो
ल्यारी म्हारी बाई लाडूडो
लाये म्हारी बाई लाडूडो,
चतडा चौथ भादूडो,
आये म्हारी फूलबाई,
लाये तू तो लाडूडो।।
(गणेश चतुर्थी के अवसर पर लाडू लाने की बात कही गयी है।)
लालीबाई
अये म्हारी लाली बाई,
तोने कूंण परण्य लो र,
अरे म्हारा लाला बीर,
परण्य लो र म्हारा बीर।।
(लडकियों के लिए शादी की बात जरूरी रहती है। चिढाने के लिए पूछा जाता है कि आपसे कौन शादी करेगा। पूछते हुए कहा जा रहा है कि आपके साथ कौन शादी करेगा, जवाब भी स्वयं ही दिया जाता है कि हे मेरे भाई मुझसे कोई वीर ही शादी करेगा। इस तरह की बात करते हुए छोटी सी बच्ची को भी समझाने की कोशिश की जाती है।)
बच्चे को चाँदनी रात में सुलाते समय चंद्रमा की बात कही जाती है। ये बातें गीत, कथा, गाथा या लोरी आदि के रूप में मिलती है। बच्चे के लिए दूध पिलाने से सुलाने तक के सारे बहाने चंद्रमा के द्वारा कहते हुए पूरे करवाते हैं। इसलिए मिठाई हो या दूध मलाई इसमें चंद्रमा का जिक्र जरूर आता है।
चांद बाबा
चांद बाबो चिटो,
बाणियो को गुड मीठो,
बाणियो बैठ्यो आड में,
द्यो साळा क ठांठ मे।।
चंद्रमा के संदर्भ बहुत ही अलग अलग तरह की कहानियाँ छोटे-छोटे बच्चों की सुनाई जाती रही है। इसलिए गर्मी में जब खूले आसमान के नीचे सोते हुए चंद्रमा की तरफ देखते हैं तो ऐसी पंक्तियाँ बच्चों को सुनाई जाती है। यह सब तुकबंदी की गई है लेकिन फिर भी यह बहुत ही प्रसिद्द है। चांद को चिटा के समान बताकर, बणियाँ का गुड मीठा बताया जाता है। यही बणियाँ यदि गुड न देकर छुप जाये तो उसके सिर में मारने की बात की जा रही है।
एक बच्चे के लिए मामा का संबंध सबसे अच्छा होता है, नानी के घर से जुडा होना तथा माँ के भाई के कार भाई का होना। दूसरा मामा में दो बार मा आता है। पहने ओढ़ने, खाने-पीने की चीजें मामा के यहाँ मिलती है इसलिए दुनिया की लोरियों में मामा के लिए लोरी का अलग ही स्थान है।
मामा की बेटी
आरी मामा की बेटी,
कोदूं दळां,
कोदूं का दन आबअद,
भर भर झबल्या लाबे द।।
लड़कियाँ माँ और मामा दोनों की प्यारी रहती है। ऐसे में मामा और भांजी के संबंध में लोरी गीत मिलता है। यहाँ कहा जा रहा है कि आप बिना काम के बैठे हैं, आओ मेरे पास कुछ गप ही करते हैं। तब मामा को बेटी कहती है अभी गप करने का दिन (समय) नहीं आया है। जब गप करना होगा तब टोकरी भर भरकर आप मेरे लिए तमाम चीजें लेकर आना तब मैं आपके साथ गप करूँगी। यानी मामा कुछ लेकर आयेगा तो कुछ बात की जायेगी।
दादभाई
दादभाई रोवो मत, सो जावो जी,
थांकी माता गई छ पाणी न,
चुक्ल्या तो चुक्ल्या लोवे पाणी न,
वा मटका न फोड्यावली।।
(बडी बहन अपने छोटे भाई जो रो रहा है उसको सुलाने का प्रयास कर रही है उसको कह रही है कि आप सो जाइए, आपकी माता पानी भरने गयी हुई है। हथेली में पानी लेकर आयेगी, पानी का मटका है उसको फोड देगी। पानी भी पीने के लिए नहीं मिलेगा आप सो जायेगें तो माँ पानी ला सकेगी)
काना (कान्हा)
माता तो बोली काना, याही डट जावो न,
माता तो बोली काना याही डट जावो न,
माईं म्हारो याहीं तो रहबो खोटो ये,
गोकल म धसतां ही गूजरयां को साथ मिललो री,
गोकल म धसतां ही गूजरयां को मखण मिललो री,
बेटा तू तो म्हारो ही मखन खा ले, गूजरयां को मत खावो न,
माता थारो मखन खट्टो, गूजरयां को मखन मीठो ये,
गूजरी ए तू दो आना ले, काना न मखन देदे री,
माईं याहीं कूणको साथ खेल्यू री,
गोकल म गोपयां को साथ मिललो री।।
माँ और बेटे के अच्छे संबंधों के तौर पर यशोदा औऱ कृष्ण का उदाहरण दिया जाता है। एक माँ के लिए बच्चे के रूप में कृष्ण जैसा बच्चा प्यारा होता है। वह कितनी भी शैतानी या उठापटक करता हो माँ के लिए वह हमेशा अच्छा लगने वाला होता है। इसलिए हरेक माँ की इच्छा होती है कि उसका बच्चा मासूम न बनकर कृष्ण के जैसे नटखट बने। इसलिए एक आदर्श बच्चे के रूप में माँ देखती है। उसको लोरी गीत भी इसलिए सुनाती है। चुपचाप व गुमसूम रहने वाले बच्चे को आदर्श रूप में किसी भारतीय भाषाओं की लोरी गीत में नहीं देखा गया है। मिथकीय आख्यानों के हिसाब से भी देखें तो राम के बाल रूप को उतना स्थान किसी लोरी गीत में नहीं मिला जितना कृष्ण के आख्यान को मिला है। (कृष्ण और देवकी का आपस में संवाद चल रहा है। माँ कान्हा से यहीं गोकुल में जाने से रोकने के लिए कह रही है। कान्हा माँ को जवाब दे रहा है कि हे माँ मेरा यहा रहना बुरा है। वहाँ तो गोकुल प्रवेश करते ही गुजरियों का साथ मिलेगा, उनका मक्खन भी मीठा है, आपका तो मक्खन भी खट्टा है और खेलने के लिए कोई साथ भी नहीं है। तब माँ गूजरियों से मक्खन खरीद कर देती है, तब कान्हा कहता है कि वहाँ तो साथ में खेलने वाली गोपियाँ भी हैं यहाँ तो कोई नहीं है।)
कान्हूडा के कांई हगो
हो म्हारा कान्हूडा क कान्हूडा कांई हगो,
प्याली म दूध धरयो ही रहगो,
मैं तो रावळा म रावळा गई छी र।।
म्हारा कान्हूडा क कान्हूडा कांई हगो,
दूंदा म दही धरयो ही रहगो,
मै तो रावळा म रावळा गई छी र।।
हो म्हारा कान्हूडा क कान्हूडा कांई हगो,
मटका म मखन भरयो ही रहगो,
मै तो रावळा म रावळा गई छी र,
म्हारा कान्हूडा क कांई हगो।।
जब एक बच्चा खाना-पीना बंद कर देता है तब एक माँ की चिंता बढ जाती हैं यह लोरी गीत उसी का उदाहरण है (कान्हा के क्या हो गया? प्याली में भरा हुआ दूध रखा रह गया या फिर वह दूध नहीं पी रहा है। मैं तो थोडी देर के लिए खेत के बीच जो घर है जहाँ सबकुछ है उसको देखने ही गयी थी। इतनी ही देर में मेरे बच्चे का क्या हो गया? पत्तल में दही रखा ही रह गया है। मेरे लाडले को क्या हो गया? मटकी में रखा हुआ मक्खन रखा रह गया हे मेरे कान्हा के क्या हो गया? हर माँ की यह ख्वाहिश होती है कि उसका बच्चा कान्हा की ही तरह नटखट बने। अपने बच्चे को उछलते कूदते हुए देखने से माँ सदा प्रसन्न रहती है। माँ अपने बच्चे को शांत और गुमसूम देखना नहीं चाहती है। इसलिए कृष्ण जैसे नटखट बच्चे की कल्पना करती है।)
सोजा भाया सात घडी
सो जा भाया सात घडी,
चावळां की चमची खांड की डळी,
थारी जीजी गई छ चैनपरे,
कांय कांय ल्यावली, गुड धाणी,
तोने दे न मूने दे,
वा तो उभी ही पळकावली,
थारे देली चाटू की,
म्हारे देली बेलण की।।
थारे देली मूसळ की,
म्हारे देली फूंकण की।।
थारे देली जूती की,
म्हारे देली मुक्का की।।
एक बडी बहन को छोटे को देखने की जिम्मेदारी मिलती है, तब वह कैसे अपने छोटे भाई सुलाने के लिए क्या क्या कहती है यह भाई-बहन के रिश्ते में चलता है। (एक बहन अपने भाई को सुलाने की कोशिश कर रही है। इस कोशिश में वह कह रही है कि आप सोयेगें जब तक माँ नानी के घर जाकर आ जाएगी। थोडी देर के सोने के लिए कह रही है। ऐसा करने में आपको चावल की चम्मच के खांड खोने को मिलेगा। तब छोटा सा बच्चा पूछ रहा है कि वह वहाँ से क्या-क्या लेकर आयेगी? गुड और धानी लेकर आयेगी लेकिन इन सबको वह स्वंय खडी खडी ही खा जायेगी। आपके चाटू से मेरे, बेलन की मारेगी। इसलिए थोडी देर सो जा। आपके मूसल से और मेरे फूँक मारने वाली पाइप से मारेगी। आपके जूती से मारेगी, मेरे मुक्का से मारेगी, इसलिए थोडी देर के सो जा।)
चिढाने के लिए भी लोरी गायी जाती है। जब बच्चे बहुत ज्यादा परेशान करते हैं, माँ अपने बच्चे को डराने के लिए कुछ ऐसी बात कहती है कि बच्चा डर जाए वह सो जाए जिससे माँ अपने जिम्मे के कार्य को पूरा कर सके-
आरे मोरया कर रे लटको,
भाया की तूंद में भर ज्या बटको।।
सोजा रे भाया बारहा न बागळ बोलै,
बाग बगीचा में कोयल बोलै।।
बाल विवाह की अवधारणा को सही व उसी के अनुसार लडकियों के बारे में वैवाहिक गीतों का चलन देखने को मिलता है। माता-पिता से ये गीत भाई बहनों तक पहँचता रहा है। बडी बहनें ने अपने लिये तो मां-बाप का पसंद किया वर स्वीकार किया है, लेकिन अपनी छोटी बहनों के लिए आदर्श पति के रूप में शिवजी को देखते रही है। लडकियों की वर रूप में इस बात का स्वीकोरोत्कित है कि पति के रूप में शिवजी आदर्श है। इसलिए सोमवार व्रत किया जाता है। उसी की आकांक्षा यहां एक बडी बहन अपने दादा से वर रूप में शिवजी को पसंद करने के लिए फरियाद कर रही है। जो कुछ इस तरह से है-
पार्वती शंकर का विवाह
पारवती तो पांच बरस की,
शंकर बूढो बाबाजी,
या देख अचमबो,
बेटो बामण को घबरागो ए,
शंकर मार मरोडो सोगो ए,
लेर चिमटो परबत में चढगो ए,
ले डमरू वा तो गायप हगो ए,
दादा वा तो छन में बूढो हजा,
छन में बाळक बन जा ए।।
आज के समय में लोरियों की टेर सुनाई नहीं देती है। परवरिश, पालन-पोषण के तरीके व संदर्भ भी बदल रहे है। देशी व घरेलू तरीकों को नजरअंदाज किया जा रहा है। अलग-अलग कार्य में बदलाव आ रहा है। अब बच्चे दाई के हाथ के बदले अस्पताल की कैंची और डॉक्टर की मोटी फीस के साथ इस दुनिया में आते है। कैंची और फीस परिवार की खुशियाँ छिजती है। धीरे-धीरे नयी और पुरानी पीढी के बीच सांमजस्य कम होता जा रहा है। कुछ आखर पढ़ी पीढी सास के सामने ऐसा व्यवहार करती है जैसे उससे ज्यादा कोई समझदार नहीं और सास तो कुछ जानती नहीं। दादी के हाथ बच्चे को न देने का चलन भी चल रहा है। ऐकल परिवारों में दादी की जगह मैड ने ले ली है। परिवार के सामने टीवी की स्क्रीन आ रही है। टीवी को देखते हुए बड़े हो रहे बच्चें लोरियों से मरहूम हो रहे हैं। उनके कानों में लोरी नहीं टीवी की अनगिनत बातें पहुंच रही है। टीवी सलील और अश्लील दोनों सामग्री परोस रहा है, जिनको देखकर बच्चों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बन रहा है।
जनसंचार की आहट से पहले बाज़ार के जादू ने बच्चे की माँ से लोरी की आवाज को दबा दिया और उसके बदले सस्ते छिलौने के रूप में स्थायित्व पा लिया। बाज़ार का जाल जब व्यापक व बडा बनकर आया तो उसका असर बच्चे की परवरिश पर भी दिखने लगा। टीवी और विज्ञापन देखती इस अबोध पीढी के लिए लोक व लोरी का स्थान कम होता चला गया। दूसरी तरफ आने वाली पीढीयाँ भी लोक की समृद्ध कड़ी से कटती चली गई। अब आलम यह है कि पुरानी पीढी में कोई गाने वाली दादी, नानी नहीं रही और नयी पीढी को ये सब याद नहीं। इस तरह से आजकल के बच्चे बचपन से लोकसाहित्य से दूर होते जाने के कारण भारत की आत्मा से भी दूर हो रहे हैं। स्मार्टफोन के आने व फ्री इंटरनेट (जो कि फ्री नहीं है) आने पर आजकल चावळ की चम्मची व खांड की डळी जैसे शब्दों की जगह BA BA BLACK SHEEP AND TWINKLE TWINKLE LITTLE STAR जैसे शब्द सीख रहे हैं। यह बात यही तक सीमित नहीं है, बच्चे फोन देख करके ही खाना खा रहे हैं, फोन में इंटरनेट नहीं होने पर उनको खाना खिलाना ही सबसे बडा सवाल हो रहा है। वहीं दूसरी तरफ दादी, नानी और बुआ की जगह क्रेच ने ली है। अब वहाँ लोरी नही London brigde is falling down जैसे वीडियो चल रहे हैं।
संयुक्त परिवार में माता-पिता को कई दफा पता भी नहीं चलता था कि बच्चे ने खाना खा लिया। ग्लोबल होती दुनिया इतनी नजदीक व छोटी हो गई अब हम स्मार्टफोन को अपनी जेब में रखकर मान रहे हैं कि हम भी उसके साथ चल रहे हैं, दूसरी तरफ अपने ही लोक से कोसों दूर भी जा रहे हैं। यह एक ऐसी सच्चाई है जिसको जानते हुए भी हम मुँह फेर रहे हैं। वाचिक लोरियों को तो अभी लिपिबद्ध भी नहीं कर पाये उससे पहले ग्लोबल होने का दबाव सब महसूस कर रहे हैं। इसका सबसे बडा नुकसान वाचिक साहित्य को भुगतना पड रहा है। जो कुछ संरक्षित हो पाया उसी को देखकर हम अपने आपको धन्य मानते हुए फूले नहीं समा रहे हैं। इसी स्मार्टफोन ने माँ से लोरी, दादी, नानी, बुआ व बहन से प्यार व हालरिया के साथ लोककथाएँ भी छीन ली है। कमाल तो यह कि यह सब कब व कैसे हो गया इसका अंदाजा भी हमें नहीं लगने दिया?
ढूढांडी से हिंदी में अर्थ- (काळा-काळा खेत- काला काला खेत या काला चरागाह, चरड-एक प्रकार की घास जिसकी ऊँचाई इंसान के कमर तक होती है, धोळी-धवल या सफेद रंग, गेला- रास्ता, नाहरयो-शेर, मलग्यो-मिल गया, झरण झरण- आँसुओं की धार लग जाना, कंईयां- कैसे, ज्यान- जान, जायेडा-पैदा किये हुए, कुमावै- कमाते हैं, तोने- तुझे, परण्य- शादी, ठांठ-सिर, कोदूं-गप करना, आबद- आने दे, दन-दिन, झबल्या- कपडे, थांकी – आपकी, चुक्ल्या- हथेली, रहबो- रहना, कूणक- किसके, दूंदा-पत्तल की कटोरी, कांई हगो-क्या हो गया, रावळा- वह स्थान जहाँ घर के अलावा खेत में रहने खाने की सारी सुख सुविधा, लटको-हाथ का इशारा, तूंद-पेट, बटको- चोंच से काट लेना, बागळ-चमकादड)
संदर्भ :
1. लूर पत्रिका,अंक 5-6, संपादक डॉ. जयपाल सिंह राठौड़।
2. वही।
गायन : मोता देवी, मन्ना देवी, लछी देवी, भूली देवी, दाफा देवी।
गांव-दौलतपुरा, दीपपुरा, माधोगढ, रामपुरा, धर्मपुरा आदि।
संकलन : डॉ. छोटूराम मीणा।
क्षेत्र : जयपुर (ढूंढाड़)।
छोटू राम मीणा,
सह-प्रोफेसर, हिंदी विभाग, देशबंधु महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) कालकाजी, नयी दिल्ली-110019,
बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक : दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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