रूसी रचनाकार चेखव की कहानियों में बाल मनोविज्ञान
- मीनू गेरा

बीज शब्द : बाल मनोविज्ञान, चेतना, अवधारणा, अंतःकारण, संस्कार,प्रतिबद्धता,संज्ञानात्मक विकास,अकृत्रिम, सादगी, संक्षिप्त, वेदना, मर्म, अंतस्, रिक्तता, एकाकी, ऊहापोह।
मूल आलेख : साहित्य में बाल मनोविज्ञान की अवधारणा का विश्लेषण वैचारिक स्तर पर अंतःकरण की तहों को समझने का अवसर तो प्रदान करता ही है साथ ही साथ अनुभूति के स्तर पर भी उम्र की सीमाओं को लाँघता, एक ऐसे संसार के मर्म को छूने का अवसर देता है जो मानवीय संवेदनाओं के दायरों को बृहत्तर करे। बच्चों की दुनिया को साहित्य में केन्द्रीयता प्रदान करना कहीं एक पूरे समाज की भाषा, संवेदना, संस्कार और प्रतिबद्धता को रेखांकित करना है। इन चित्रों में युगीन चेतना ही दृष्टिगोचर नहीं होती भविष्य की तस्वीर भी उभर कर सामने आती है। साहित्य में ऐसे चरित्रों का अनुशीलन मनोवैज्ञानिक आधार से विलग सृजनात्मक आधार पर मनःस्थितियों में बसी सामूहिक चेतना और साझा मान्यताओं को ग्रहण करने का सशक्त माध्यम है।
बाल मनोविज्ञान की स्थापना में योगदान देने वाले वैज्ञानिकों में स्विस मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे और सोवियत मनोवैज्ञानिक लेव वायगोत्सकी की महत्ती भूमिका है। कालक्रम की दृष्टि से देखें तो विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया को स्कॉटलैंड के लेखक रॉबर्ट चैम्बर्स ने सन् 1844 में प्रकाशित पुस्तक “वेस्टिजीज़ ऑफ़ दी नैचुरल हिस्ट्री” में परिभाषित किया। “That alongside gravitation there was great law of life the law of development”(1) इसके अंतर्गत मनुष्य के विकासात्मक क्रम के संदर्भ में विचार किया गया। सन् 1889 में चार्ल्स डार्विन की “ओरिजिन ऑफ़ स्पीशीज” प्रकाश में आई जिसके आधार पर “डेवलपमेंट साइकोलॉजी” की अवधारणा को बल मिला। आगे चलकर जेम्स मार्क बाल्डविन (1861-1934) और जॉन ड्यूई (1859-1952) ने क्रम विकास, बाल मनोविज्ञान और उसके परिप्रेक्ष में इतिहास को विश्लेषित किया। “Baldwin found natural lines of development in evolution, child development ,and historical change.”(2) “Dewey believed that the direction and ends of individual and social development were based on culturally negotiated values” (3) इस प्रकार विकास की प्रक्रिया को प्राकृतिक और सांस्कृतिक ,भाषाई आधारों पर विवेचित किया गया। स्विस वैज्ञानिक जीन पियाजे ने अपने संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत में विस्तार से बाल मनोविज्ञान की अवधारणा को विश्लेषित किया। पियाजे ने बच्चे की चेतना को केंद्रीयता प्रदान की और कई संप्रत्ययों जैसे अनुकूलन, समायोजन, विकेंद्रीकरण का उल्लेख करते हुए संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत को प्रतिपादित किया।पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास के चार चरणों का उल्लेख किया। संवेदी-पेशीय अवस्था(0-2वर्ष), पूर्व संक्रिय अवस्था(2-7 वर्ष), मूर्त संक्रिय अवस्था (7-12) और औपचारिक संक्रिय अवस्था(12 वर्ष से)। सोवियत मनोवैज्ञानिक लेव वायगोत्सकी ने संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत में समाज और संस्कृति को विशेष महत्व प्रदान किया। उनके अनुसार संकेत प्रणाली या समाज की भाषा, ज्ञान प्राप्त करने का एक उपकरण है और बालक के विकास में शिक्षक और व्यस्क की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उनके सिद्धांत को “सोशियो कल्चरल थ्योरी “ के रूप में जाना जाता है। इन मनोवैज्ञानिक स्थापनाओं ने शिक्षण प्रणाली के स्तर पर बच्चों की दुनिया को जानने और उन्हें अपने अस्तित्व और संभावनाओं को पहचानने का अवसर प्रदान किया।
साहित्य में बाल मनोविज्ञान की स्थापनाएँ संश्लिष्ट रूप में विद्यमान रहती हैं। दरअसल रचनाकार कभी भी सचेष्ट अभिव्यक्तियों का क़ायल नहीं होता। साहित्य में रचनाकार बाल चरित्रों की दुनिया, उनके चेतन, अवचेतन को छूने का प्रयास करता है और कई बार लेखक का अपना बचपन भी उसमें झाँकने लगता है।सन् 1852 में प्रकाशित लियो टोलस्टॉय का उपन्यास ‘चाइल्डहुड’ कहीं लेखक के अपने बचपन की अंतरयात्रा तो है ही मुख्य पात्र निकोलेंका की अंतःबाह्य यात्रा भी है।इससे पूर्व सन्1840 से सन्1850 के आरंभिक दौर में रूसी साहित्य और पाश्चात्य साहित्य के अंतर्गत लेखकों द्वारा बचपन के संस्मरण लिखे जा रहे थे। “The1840s and early 1850s witnessed a proliferation of childhood memoirs both in Russia and in the West.”(4) लेकिन टोलस्टॉय की औपन्यासिक कृति ‘चाइल्डहुड’ ने बचपन की दुनिया को तथ्यात्मकता से सृजनात्मक की ओर मोड़ दिया। टोलस्टॉय, सरग़ेई अक्सकोव, दोस्तोवस्की, तुर्गनेव उन आरंभिक रचनाकारों में हैं जिनके साहित्य में बाल चरित्र रचना के केंद्र में आए। साहित्य की विकासशील यात्रा में बाल मनोविज्ञान की अनेक छवियाँ पाठकों को पुर्नजीवित करती रही हैं। चाहे एमिली ब्रोंटे का उपन्यास ‘जेन आयर’ हो या मार्क ट्वेन का ‘एडवेंचर्स ऑफ़ टॉम सॉयर’, आर.के. नारायन का ‘मालगुड़ी डेज़’, प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ कहानी, जनेद्र की ‘पाजेब’, रवींद्रनाथ टैगोर की ‘काबुलीवाला’ आदि अनेक ऐसी रचनायें हैं जो अपने समय, समाज,संस्कृति तथा आर्थिक-राजनीतिक समीकरणों के बीच बाल मन के प्रश्नों को दर्ज़ करती हैं।
साहित्य में विशिष्ट रूप से बाल मनोविज्ञान के सबसे अधिक चित्र संभवतः रूसी लेखक अंतोन चेखव की कहानियों में मिलते हैं। नाद्या. एल. पीटर्सन के अनुसार, “Children are everywhere in Chekhov. Over a span of relatively short writing career Chekhov produced 287 child characters of all ages, belonging to nearly all classes of Russian society and living in very different family circumstance. Throughout roughly one third of his creative life Chekhov was engaged in writing about children directly. Twenty of Chekhov’s stories,written between 1880 and 1888,focus exclusively on children.(5) सन् 1880 में अपनी लेखन यात्रा शुरू करने वाले चेखव ने उस दुनिया की विशद तस्वीरें खींची जिसकी बारीकियों को सृजनात्मकता के दायरे में हाल ही में प्रवेश मिला था। चेखव ने जब अपनी कहानियों के केंद्र में बच्चों की दुनिया को प्रधानता दी उस समय रूस में बालकों के भावनात्मक पक्ष पर विचार किया जाने लगा था। “The vital importance of studying the child’s physiological and psychological makeup comprehensively was established by K.D.Ushinsky in his highly influential Pedagogical Anthropology in 1868 (6). चेखव स्वयं भी टोलस्टॉय का उपन्यास ‘बचपन’ पढ़ चुके थे।इसके अतिरिक्त वे हरबर्ट स्पेंसर की शिक्षा संबंधी विचारधारा तथा चार्ल्स डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत का अध्ययन कर चुके थे।मेडिकल की पढ़ाई करते हुए वे बालकों की दुनिया को क़रीब से परखने लगे थे। “Chekhov worked in a children’s clinic,wrote at least one child’s case history and contemplated pediatrics as his specialty.(7) बच्चों के व्यावहारिक पैटर्न को समझने वाले चेखव के मेडिकल साथी जी.आई.रोसोलिमो ने भी संभवतः उनके चिंतन को प्रभावित किया। G.I.Rossolimo,Chekhov’s fellow medical student and later a prominent psychologist,who worked on children’s intellectual development and created a system of psychology profiling of children might have been a source of some of Chekhov’s insights.”(8) इन सबके बीच चेखव ने बच्चों की जिस दुनिया को पाठकों के समक्ष रखा वह अहसास और चिंतन की ऐसी दुनिया है जो पाठक को आंदोलित,उद्वेलित,आनंदित करती हुई मर्म तक पहुँच जाती है।
बाल मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि पर लिखी चेखव की कहानियों का चित्रांकन इतना सहज ,सरल और अकृत्रिम है कि अचानक ही पाठक एक ऐसे वातावरण का हिस्सा हो जाता है जहाँ वह भाषा और संवेदना के स्तर पर वयस्कों और बच्चों के दृष्टि बिंदु को एक साथ देख पाता है।चेखव की कहानी ‘ग्रीशा’ ऐसी ही एक कहानी है। ‘ग्रीशा’ लगभग तीन वर्षीय बालक की कथा है जो भाषा की शक्ति को पहचानने लगा है और चेहरे के भावों को पढ़ने और उसी के अनुरूप कार्य करने की भरसक कोशिश में रहता है। सन् 1886 में लिखी इस कहानी में ग्रीशा की दुनिया बहुत सीमित है। जिसमें एक चार कोनों वाला कमरा है और माँ,आया और बिल्ली को छोड़ वह अन्य किसी को नहीं जानता। पिता उसके लिए एक पहेली हैं क्योंकि ग्रीशा के जीवन में उनकी कोई भूमिका नहीं है। कभी मौसी आती है पर फिर कहाँ ग़ायब हो जाती है यह रहस्य उसे परेशान किए रहता है। वह मौसी को पलंग के नीचे, संदूक के पीछे ढूँढ चुका है। जब पहली बार ग्रीशा आया के साथ बाहर गली में घूमने जाता है तो अचानक धूप, घोड़े, सिपाही, आया का मित्र, उसके कोट के चमकीले बटन,फिर उन तीनों का किसी पुरानी इमारत में जाना, ग्रीशा के माँगने पर उसे वाइन के दो घूँट पिला देना, ये सब अनुभव ग्रीशा को अनेक प्रकार के इंद्रीय बोध से भर देते हैं। घर लौटकर ग्रीशा अपनी सीमित भाषा में माँ से अपने अनुभव साझा करने की भरपूर्व कोशिश करता है। माँ उसकी उत्तेजना को अपने अनुसार भाँप कर कि वह थक गया है उसे दवाई देकर सुला देती है। चेखव बड़ी ख़ूबसूरती से बच्चे की दुनिया को पकड़ते हैं और बच्चे के एहसासात को शब्दचित्रों के माध्यम से प्रकट कर देते हैं।
‘ग्रीशा’ कहानी को यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से परखा जाए तो चेखव के समय जिस प्रकार बालक के विकास के विभिन्न चरणों को विश्लेषित किया जाने लगा था उसके अनुरूप ग्रीशा की मानसिक स्थिति को समझा जा सकता है, जहाँ वह अपने आस-पास की दुनिया को समझने लगा है,जैसे भाषा अनुभवों की अभिव्यक्ति का माध्यम है, कुछ कार्यों को करने से उसे रोका जाएगा ,जैसे आया ने उसके हाथ पर हल्का सा थप्पड़ मार उसे बाज़ार में फल उठाने से रोका था इत्यादि लेकिन डॉक्टर होने के बावजूद चेखव वैज्ञानिक आधार पर चरित्र निर्माण में नहीं जुटे। ग्रीशा की दुनिया में कल्पना, परिवार का अनुक्रम और अपनी भावनाओं को पूर्ण रूप से अभिव्यक्त न कर पाने की विवशता को चेखव इस रूप में विश्लेषित करते हैं कि पाठक एक साथ ग्रीशा से प्रेम भी करने लगता है और बालमन के कोनों में भी प्रवेश कर जाता है। ग्रीशा संवाद की शक्ति को पहचानने लगा है और चेखव इसी अभिव्यक्ति के क़ायल हैं। अपने बाल चरित्रों को अभिव्यक्ति और शब्द की शक्ति से परिचित कराना ही उनका ध्येय रहा।“Yet attempts at communication never stop, and the belief in the power of the word is as strong in Chekhov’s two-year-old Grisha as it is in his older characters. Chekhov’s children persist in purging their hurts and making sense of their lives by producing narratives.”(9)
चेखव की कहानी ‘बावर्चिन की शादी’ में भी बालक ग्रीशा अनुभव और अभिव्यक्ति के बीच शब्दों की खोज में लगा है।सात वर्षीय ग्रीशा और वयस्कों के प्रेक्षण स्थल अलग अलग हैं और वे उसी के अनुरूप प्रतिक्रियाएँ देते हैं। ग्रीशा रसोई के दरवाज़े में बने की-होल से रसोई में होने वाली गतिविधि को ध्यान से देख रहा है तथा की जाने वाली बातचीत को भी ध्यान से सुन रहा है, जहाँ घर की बूढ़ी गवर्नस बावर्चिन पिलागेया को 40 वर्षीय कैब चालक से विवाह करने के लिए मजबूर कर रही है।ग ग्रीशा माँ द्वारा वहाँ से भगा दिए जाने के उपरांत कमरे में आकर सोचता है “ अजीब बात है। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि वह शादी क्यों कर रही है? माँ ने बाप से शादी की, कज़िन वेराचका ने पावेल आंद्रेइच से शादी की। पापा और पावेल आंद्रेइच शादी कर सकते हैं: उनके पास सोने की चेन है, अच्छे सूट हैं, उनके जूते हमेशा पॉलिश किये होते हैं, पर इस सुर्ख़ नाक वाले और नमदे के जूते पहने हुए कबमैन से शादी…..थू! (10) ग्रीशा आरंभ से ही नियम क़ायदे तोड़ रहा है ,एक तो वह बड़ों की दुनिया में क्या चल रहा हैं, रसोई के की-होल से देख रहा है और उनकी बातों के मतलब जानने की कोशिश में है जिसके लिए वह माँ से डाँट भी खाता है, दूसरे उसे इस बात की उलझन है कि पैसे के बिना विवाह कैसे हो सकता है। वैवाहिक जीवन के भी तो कुछ नियम होंगे और अपेक्षाएँ होंगी फिर पिलागेया क्यों शादी कर रही है। पिलागेया का माँ से कहना कि वह बूढ़ा है ,खीझना और फिर उसी से शादी कर लेना ये सब प्रकरण ग्रीशा की चेतना को उलझन में डाल रहे हैं। अंततः ग्रीशा पिलागेया को दुःखी जान कर ,उसके दुख को दूर करने के लिए स्नेहपूर्वक स्टोर से सबसे बड़ा सेब निकाल कर चोरी चोरी रसोई में जाकर उसके हाथ में रख आता है ताकि वह उसके दुःख को थोड़ा कम कर सके। चेखव बड़ी बारीकी और मृदुता से सात वर्षीय बच्चे की उत्सुकता, निराशा, अहंभाव और साद्भावना को एक साथ पिरोते चले जाते हैं।
‘घर में’ कहानी में चेखव पिता और पुत्र के संवादों के बीच उनकी तहरीरों का प्रतिपादन करते हैं। जहाँ ‘ग्रीशा’ और ‘ बवर्चिन की शादी’ कहानी में बाल चरित्रों की अपनी प्रतिक्रियाएँ हैं वहीं ‘घर में’ कहानी में पिता और पुत्र की अपनी अपनी दलीलें हैं। सन् 1887 में लिखी इस कहानी में सात वर्षीय सिरयोझा पिता की टेबल से सिगरेट चुरा कर उसे पीने लगा है। गवर्नेस के इस खुलासे से पब्लिक प्रॉसिक्यूटर पिता सोच में पड़ जाते हैं। उन्हें अपने स्कूल के समय की बातें याद आने लगती हैं जब स्कूल में सिगरेट पीते पकड़े जाने पर निकाल दिया जाता था और माँ बाप भी बेरहमी से चाबुक से पीटते थे। “ प्रोसिक्यूटर को दो-तीन निकाले हुए लड़कों और उनकी बाद की ज़िंदगी याद आयी और तभी उसने सोचा कि अक्सर सज़ा जुर्म से भी कहीं ज़्यादा नुक़सान और बुराई पैदा कर देती है।”(11) इन विचारों से पिता सोच में पड़ जाते हैं कि वह इस स्थिति का सामना कैसे करें? सिरयोझा से नाराज़गी जताते पिता कहते हैं कि उसे उनकी टेबल से सिगरेट नहीं उठानी चाहिए थी ,दूसरों की चीज़ें बिना पूछे उठाना ग़लत है। उन्होंने कभी सिरयोझा के खिलौने नहीं उठाए। इसके विपरीत सिरयोझा बड़ी मासूमियत से कहता है कि यदि पिता चाहें तो उसका घोड़ा उठा सकते हैं और फिर अपनी किसी ड्राइंग में खो जाता है। पिता इसी पशोपेश में हैं कि बिना मारपीट बच्चे को कैसे समझाया जाए। चेखव जिस समय लिख रहे थे उस समय की शिक्षण प्रणाली में बदलाव आने लगे थे और मनोवैज्ञानिकों कि यह धारणा थी कि बच्चों को मारपीट कर सिखाना उनके भावनात्मक संतुलन के प्रतिकूल है। सिरयोझा को सुलाते समय पिता एक राजकुमार की कहानी के माध्यम से सिगरेट पीने के नुक़सान के विषय में बताते हैं कि किस तरह राजकुमार की सिगरेट पीने से मृत्य गई। बालक सिरयोझा मृत्यु की बात सुन उदासी में घिर जाता है क्योंकि वह अपनी माँ को खो चुका है और आज माँ की अनुपस्थिति को समझ नहीं पाया। उदास सिरयोझा पिता को आश्वस्त करता है कि वह अब कभी सिगरेट नहीं पिएगा। “The prosecutor’s search for a perfect didactic text allows Chekhov to allude to received opinions and contemporary debates on education,child psychology,corporal punishment, and morality in children.”(12)
इस समाधान के बाद भी पिता प्रसन्न नहीं हैं उन्हें लगता है “ जो भी हो ये असली तरीक़ा नहीं है….क्यों हम सीख और सच को सही तरीक़े से सामने नहीं रखते ,….ये झुठलावा एबनॉर्मल है,ये फ़ालसीफ़िकेशन है, धोखा है…. जादू है….।” (13) इस प्रकार चेखव जहाँ एक ओर पिता और पुत्र के बीच एक भावात्मक संबंध को बनते दिखाते हैं, वहीं यथार्थ के प्रस्तुतीकरण के माध्यम को भी तलाशते दिखाई देते हैं।
‘घर में’ कहानी में पिता और पुत्र के अपने अपने अख्यान हैं जो दो मनःस्थितिओं की परतों के बीच संबंध सूत्रों को खोजती हैं। वहीं चेखव की कहानी ‘परिवार का पिता’ पिता और पुत्र की संबंधहीनता की स्थिति को उकेरती है। ‘परिवार का पिता’ एक ऐसे तुनक मिज़ाज पिता झीलीन की कहानी है जिसके लिए परिवार के सभी सदस्य निकृष्ट हस्तियाँ हैं। उसे घर के हर प्राणी से नफ़रत है। घर का भरण पोषण करने वाले देवता के रूप में वह सदा यह आशा करता है कि घर का हर व्यक्ति उसके समक्ष नतमस्तक हो। झीलीन की पत्नी, जो एक सम्पन्न परिवार से आई है प्रतिरोध की क्षमता रखती है लेकिन घर की गवर्नेस को भी वह ज़लील करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। इन सबके बीच उसे सात वर्षीय पुत्र फेदया ही ऐसा मिलता है जिसे वह आतंकित कर सके। भोजन के समय जब परिवार डाइनिंग हॉल में है पिता लगातार पुत्र को डराता, धमकाता है और जब फेदया रोने लगता है तो उसे कमरे के कोने में खड़ा होने की सज़ा सुना, चाबुक से मारने की धमकी देता है। पिता के आतंक ने सात वर्षीय बालक की आवाज़ छीन ली है और वह केवल रोता, दया की भीख माँगता हुआ दिखाई देने लगा है। पिता स्थिर चित नहीं है। अगले दिन पिता के अचानक बदले मिज़ाज को देख वह और अधिक परेशान हो जाता है जब वह उसे गाल पर चुंबन देने को कहते हैं। पिता के निर्मम व्यवहार ने फेदया से शब्द छीन लिए हैं। इस कहानी में बालक और वयस्क का रिश्ता पीड़ित और उतपीड़क का है। कहानी में कहीं चेखव का बचपन भी झांकता दिखाई देता है। अपने भाई अलेक्ज़ेंडर को लिखे पत्र में चेखव दोनों के बचपन के एकाकीपन की याद दिलाते हुए उसे अपने बच्चों के प्रति क्रूरता पूर्ण व्यवहार न करने की सलाह देते हैं ताकि उनका बचपन अकेलेपन के दंश से बच जाए। “Children are saintly and pure…. … You cannot make them the playthings of your mood,one moment kissing them tenderly and another stomping your feet madly.It is better not to love, than to love despotically….Despotism and deceit warped our childhood.” (14) . यह कहानी जैनेंद्र की ‘पाजेब’ की याद दिलाती है जहाँ पिता का अनपेक्षित दबाव बालक आशुतोष को झूठ को भी सच के रूप में स्वीकार करने के लिए मजबूर करता है। आशुतोष हतप्रभ है कि पिता उसके सच को स्वीकार क्यों नहीं करते कि उसने पाजेब नहीं चुराई। आशुतोष की तनाव ग्रस्त मनःस्थिति उसे घर के दायरे से अलग करती चली जाती है और वह स्वयं को अकेला पाता है। घर का हिस्सा बने रहने की स्वाभाविक ललक ही उसे झूठ को स्वीकार करने के लिए बाध्य करती है। जैनेंद्र ने बड़ी कुशलता से बाल मन की उलझनों को उद्घाटित किया है।
बच्चों की दुनिया कितनी ख़ाली हो जाती जब वे अकेले जीवन की सच्चाइयों का सामना करने लगते हैं। ‘भगोड़ा’ कहानी का सात वर्षीय पाश्का एक ग़रीब किसान का बेटा है जिसके पिता नहीं रहे। वह पूरी रात माँ के साथ पैदल चलकर डॉक्टर के क्लिनिक पहुँचा है। कोहनी का पुराना घाव इतना बिगड़ गया है कि डॉक्टर के अनुसार वह अब बिना सर्जरी के ठीक नहीं हो सकता। डॉक्टर के कथानुसार पाश्का को क्लिनिक में रह कर ही इसका इलाज कराना होगा,यह जानकर पाश्का की माँ उसे अस्पताल में छोड़ जाती है। फिर प्रारंभ होती है पाश्का की मानसिक उद्वेलन की यात्रा। मानसिक तौर पर उसकी संज्ञानात्मक शक्ति इतनी विकसित नहीं है कि वह जीवन के अंधकारमय पक्षों को झेल पाए। डॉक्टर के प्रेम पूर्वक कहने पर कि “मैं तुम साथ रहेंगे।…तुम आराम से यहाँ रहना। और जैसे ही तुम्हारी कोहनी का ऑपरेशन हो जाएगा मैं और तुम सिसकिन पकड़ने चलेंगे और मैं तुम्हें लोमड़ी दिखाऊँगा।” (15) ,पाश्का अस्पताल में रुक जाता है। नर्स उसे वार्ड में ले जाती है और अस्पताल के कपड़े पहनने को देती है। नए कपड़े पहन उसके भीतर गर्व का भाव जागृत होता है और चाहता है कि इन कपड़ों में एक बार गाँव घूम आए। अच्छा खाना साफ़ पलंग उसे कुछ समय तक ही उलझा पाते हैं। “ पाश्का पलंग पर लेट कर सोचने लगा। उसे मिठाई की याद आई जिसे दिलाने के लिए डॉक्टर ने उससे वादा किया था। उसे माँ का चेहरा, उसकी आवाज़, घर का रात का वक्त,अंगीठी, चिड़चिड़ी नानी ईगारोव्ना की याद आई और अचानक वह बहुत दुःखी हो गया और घर जाने के लिए मचल उठा।”(16) रात में एक रोगी की मृत्यु से वह इतना आतंकित हो उठता है कि अस्पताल के अंधकारमय वातावरण से भागकर ठंड में इधर उधर भटकता अंततः रोशनी वाली खिड़की की और सरपट दौड़ पड़ता है। खिड़की से डॉक्टर को देख वह आश्वस्त तो हो जाता है लेकिन ठोकर खा सीढ़ियों से गिर जाता है और पुनः अंधकार की ओर धकेला जाता है।
चेखव अंधकार, प्रकाश के बिंबों द्वारा के पाश्का के अंतर्नाद को विश्लेषित करते हैं। माँ के चले जाने पर और मिठाई मिलने की आशा के समाप्त हो जाने पर पाश्का के भीतर की रिक्तता को घर की याद ही भर पाती है क्योंकि सात वर्षीय बालक के लिए वही ऐसी जगह है जहाँ वह स्वयं को अभिव्यक्त कर सकता है और महफूज़ रह सकता है। अस्पताल में रोगी की मृत्यु और घर से दूरी यह दोनों अवस्थाएँ पाश्का के लिए अकल्पनीय और असहनीय हो जाती हैं। उसकी मानसिक अवस्था इन दोनों को समझ पाने में असमर्थ है। मनोवैज्ञानिक पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के चरणों के अनुसार इस अवस्था में बालक कुछ हद तक परिचालक चिंतन करने में सक्षम हो जाता है लेकिन अभी भी वह पदार्थगत वास्तविकताओं को ही समझ पाता है और अमूर्त चिंतन नहीं कर पाता। चेखव बड़ी सूक्ष्मता से अस्पताल की दुनिया और बालक के ऊहापोह को एक साथ चित्रित करते चलते हैं हालाँकि मनोजगत की वैज्ञानिक अवधारणाएँ उस समय अपने प्रारंभिक दौर में थीं फिर भी चेखव की कहानियाँ मनोजगत की रहस्यों को समझने की कोशिश में हैं। चेखव की कहानियाँ अवधारणात्मक विश्लेषण नहीं भावात्मक प्रतिबद्धताएँ है ताकि पाठक मूक आवाज़ो के मर्म तक पहुँच सके।
सात वर्षीय पाश्का की वर्गीय और आर्थिक स्थिति ने उसके मनोबल को तोड़ दिया है इसलिए बहुत से सवालों को पूछने से वह कतराता है। अस्पताल में वह डॉक्टर से पूछना चाहता है कि क्या वह माँ को अपने साथ रख सकता है लेकिन पूछ नहीं पाता। जबकि ‘परिवार का पिता’ कहानी का फेदया तो पिता के आतंक से घिरा आसपास की घटनाओं का मूक दृष्टा है। इसके विपरीत चेखव की ‘नटखट’ कहानी का दस वर्षीय कोल्या अपनी क्षमताओं को पहचानता है। एक दिन अचानक उसे अपनी बहन आन्ना अपने बॉयफ्रेंड को चुंबन देते दिख जाती है। बस फिर पूरी गर्मी की छुट्टियाँ वह दोनों को ब्लैकमेल करता है। पहले वह उनसे एक रूबल की माँग करता और फिर तो ऐसा सिलसिला शुरू होता है और कभी उसके लिए बाज़ार से कुछ पेंट और बॉल लाई जाती, कभी बहन अपने खिलौनों की टोकरी उसे देती है। आख़िरकार कोल्या जब उनसे घड़ी की माँग करता है तो दोनों प्रेमी घबराकर उसे घड़ी दिलाने का वादा भी कर बैठते हैं। कोल्या प्रसन्न है कि वह वयस्कों को नियंत्रित कर सकता है और यह भाव उसे अपार सुख प्रदान करता है। उसे महसूस होता है कि बड़ों और बच्चों का समीकरण बदल गया है और स्थितियाँ उसके वश में है और यही अनुभूति उसे कोई भी मौक़ा चूकने नहीं देती। अधिकार का सुख तब समाप्त होता है जब बॉयफ्रेंड लापकिन अन्ना के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखता है और दोनों के माता-पिता अनुमति प्रदान करते हैं। तब दोनों प्रेमी कोल्या की खोज कर ज़ोर से उसके कान खींचते हैं मानो वयस्कों की सत्ता पुनः प्राप्त कर रहे हों। “बाद में इन दोनों ने स्वीकारा कि उन्हें एक बार भी इतनी ख़ुशी और परम आनंद नहीं मिला जितना इस नटखट बच्चे का कान खींचने में।” (17) चेखव की यह कहानी बच्चों और बड़ों के बीच शक्ति की गतिशीलता की कहानी है।
इसी तरह ‘बच्चे’ कहानी स्वतंत्रता के अहसास की कहानी है। कहानी में माता पिता और आँट नाद्या घर पर नहीं हैं। बच्चों में चार लड़के हैं यथा वास्या,ग्रीशा, आंद्रेई और आल्योशा और दो लड़कियाँ है आन्या और सोनिया। इनमें केवल आंद्रेई बावर्चिन का बेटा है। ये सभी वास्या को छोड़, जो बाद में खेल में शामिल हो जाता है, डाइनिंग रूम में पैसों से लोटो खेल रहे हैं। ग्रीशा, जो नौ वर्ष का है स्वयं को बहुत समझदार मानता है और खेल का संचालन वही कर रहा है। ग्रीशा को हारने का डर है इसलिए वह इसी बेचैनी में अपनी कुर्सी पर स्थिर बैठ नहीं पा रहा। कोई भी खेल के नियमों का उल्लंघन कर लड़ता नहीं है क्योंकि ऐसा मौक़ा फिर नहीं मिल सकता। इन सबके बीच आंद्रेई टेबल के कौने में खड़ा है क्योंकि वह बावर्चिन का बेटा है और समाज के वर्गीय अनुक्रम के अनुसार सभी के साथ बैठ नहीं सकता। आंद्रेई इस गुट का हिस्सा होने की पूरी कोशिश में है इसलिए जब ग्रिशा अपने स्कूल के एक बच्चे के आँखें मटकाने का क़िस्सा सुनाता है तो आंद्रेई भी झट ऐसा करने लगता है। खेल में आल्योशा और आंद्रेई के बीच झगड़ा भी हो जाता है लेकिन पाँच मिनट में ही सुलह हो जाती है क्योंकि कोई भी खेले का सम्मोहन छोड़ नहीं पाता। घंटों खेल में लगे अंततः धीरे-धीरे सभी माँ के कमरे में जाकर सो जाते हैं। चेखव की कहानी में बच्चों की एक स्वतंत्र दुनिया है जो कभी बड़ों की दुनिया से प्रभावित है जैसे आंद्रेई का टेबल के कोने में खड़े रहना और कभी बच्चों की अपनी दुनिया का समता भाव। खेल में जब आंद्रेई पर बेईमानी का इल्ज़ाम लगता है तो कोई वर्ग व्यवस्था आड़े नहीं आती। “आंद्रेई पीला पड़ गया, मुँह टेढ़ा किया और अल्योशा के सिर पर मारा! अल्योशा को गुस्सा आ गया,…और आंद्रेई को एक तमाचा मारा! दोनों एक दूसरे को तमाचे मार रहे थे और चिल्ला रहे थे।”(18) और पाँच मिनट बाद दोनों एकमेक होकर खेल में में मशगूल हो जाते हैं। चेखव इतनी सादगी से बच्चों की स्वतंत्र दुनिया को पाठक के समक्ष रखते हैं कि पाठक मुस्कराता भी है और सम्मोहित भी होता है।
बचपन के खो जाने की जो प्रक्रिया ‘परिवार का पिता’ कहानी में दिखती है वह वेदना के रूप में ‘वांका’ और ‘निंदिया आ जा रे’ कहानियों में प्रस्फुटित होती है। इन दोनों कहानियों में चेखव मुख्य पात्रों के प्रति सहानुभूति की माँग नहीं कर रहे बल्कि पाठक को अपने आसपास के समाज के प्रति सजग कर रहें हैं जहां बहुत से बच्चे विकराल परिस्थितियों में जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। अस्सी के दशक में कई रूसी लेखकों ने ग्रामीण क्षेत्रों के आम जन की दुर्दशा का अंकन किया। ‘वांका’ कहानी के वांका का जीवन भी इसका अपवाद नहीं है। यह कहानी नौ वर्षीय बालक की कथा है जो अपने माता- पिता को खो चुका है और अब दादा ने उसे मॉस्को में जूते बनाने वाले कारीगर के पास काम सीखने के लिए भेज दिया है। मास्टर की पिटाई, ज़लालत ,प्रताड़ना सहते वह थक चुका है और दहशत भरे इस माहौल से निकलना चाहता है। वांका क्रिसमस की पूर्व संध्या को दुकान में रखी अलमारी से स्याही और पेन निकाल एक मुसड़े कागज़ को सीधा कर, घुटनों के बल बैठ कर, मानो प्रार्थना की मुद्रा में हो, पत्र लिखता है कि दादाजी उसे इस नारकीय जीवन से बचा लें। अपनी दयनीय स्थिति का ज़िक्र करते बड़ी मायूसी से लिखता है कि वह भाग कर उनके पास आ भी नहीं सकता क्योंकि उसके पास जूते तक नहीं हैं। वह जानता है कि दादा के पास रहने में भी कोई सुख नहीं है, उसे बहुत काम करना पड़ेगा लेकिन वह इन सबके लिए तैयार है। उस जीवन में कम से कम रिक्तता का बोध नहीं और भावात्मक संतुलन के तार जुड़े हैं। जैसे ही उसे दादा के साथ बिताई क्रिसमस की याद हो आती है उसकी पीड़ा की कोई सीमा नहीं रहती। अश्रु की धारा उसकी आँखों से बहती चलती है और वह बार -बार यही लिखता चला जाता है कि उसे आकर ले जाएँ। कठिनाई से आसुओं को रोक, वह लिफाफे पर दादा का नाम लिख और पते के रूप में दादाजी का गाँव लिख, भाग कर लैटर बॉक्स में अपनी चिट्ठी डाल आता है। वांका प्रसन्न है कि शीघ्र ही दादाजी आकर उसे ले जाएँगे। इस कहानी में वांका की व्यथा,निरीहता, बाल-सुलभ आशाएँ एक साथ चित्रित हो जाती हैं। ठीक प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ के हामिद की मानिंद जो एक साथ बड़ों और बच्चों का जीवन जीने के लिए विवश है और उम्र से पहले ही परिपक्व हो गया है। ‘ईदगाह’ कहानी जहाँ बच्चे हामिद की बड़ी सोच की कहानी है वहीं ‘वांका’ वांका की मासूमियत की कहानी है।
चेखव की ‘निंदिया आ जा रे’ तेरह वर्षीय वारका की करुण गाथा है। आया वारका बच्चे को सुला रही है, स्वयं ढंग से सोये शायद सादियां बीत गई हैं। बच्चे को सुलाते हुए वह काल,स्थान की परिधियों को पार कर चुकी है क्योंकि उसे इस प्रक्रिया का कोई अंत दिखाई नहीं देता। घर की नौकरानी के रूप में प्रताड़ना सहते मानो इंद्रीय बोध की सीमाएँ संकुचित हो गई हैं। पिता की मृत्यु, माता की भीख माँगती तस्वीर, उसे लगातार काम के साथ-साथ मिलती मार, सब कुछ इतना गड्ड-मड्ड हो गया है कि वह रात और दिन, अतीत और वर्तमान के बीच अंतर नहीं कर पा रही। ऐसी अवस्था में,नींद के अभाव में उसे यकायक लगता है कि वह क्यों न बच्चे का गाला दबा दे ,फिर वह रोएगा नहीं और वह चैन से सो पाएगी। वारका ऐसा ही करती है और फिर गहरी नींद में डूब जाती है। चेखव उसकी मनोदशा का चित्रण करते हुए लिखते हैं “हँस कर झूमते हुए और हरे दाग पर उंगली नचाते हुए वारका पालने के पास चुपके -चुपके जाती है और बच्चे के ऊपर झुकती है। उसका गला दबाकर वह ज़मीन पर लेट जाती है। ख़ुशी से हँसती है कि वह अब सो सकती है। एक मिनट में वह ऐसे सो जाती है मानो हमेशा के लिए सो गई हो।”(19) लगातार के मानसिक दबाव के कारण वारका सोच ही नहीं पाती कि वह क्या कर रही है। अपनी कहानियों में चेखव पाठक को किन्ही विशेष संदर्भों तक ले जाने के क़ायल नहीं हैं। न ही वह समाज की विषमताओं को विश्लेषित करते है। वे सिर्फ़ अपने पात्रों की मानसिक दशा का विवेचन करना चाहते हैं, जो ज्ञान और बोध के बीच संतुलन खोज रहे हैं।
बाल मनोविज्ञान पर आधारित चेखव की कहानियों के पात्र दो वर्ष के ग्रीशा से लेकर तेरह वर्ष की वारका के बीच की आयु वर्ग के हैं। यदि मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे और लेव वायगोत्सकी की चिंतन प्रणाली के आधार पर इन पात्रों का विश्लेषण किया जाना हो तो संभवतः इन बाल चरित्रों की केवल व्याख्या ही हो सके लेकिन रचनाकार व्याखाएँ प्रस्तुत नहीं करता वह अपने चरित्रों के निर्माण के साथ एक पूरे समाज की बोधात्मक शक्ति और गतिशील चेतना का संवाहक होता है। चेखव ने बड़ी सादगी से अपने बाल चरित्रों को प्रस्तुत किया है। यथार्थ को प्रकट करने के लिए वह उलझाव के पक्षधर नहीं हैं। सन्1892 में मैक्सिम गोर्की को लिखे पत्र में चेखव लिखते हैं “ आपने पढ़ा ‘समुद्र खिलखिलाता है’ और आप उस पर मर गए उस जगह अटक गए।…..समुद्र न हँसता है न रोता है,वह गरजता है,पछाड़े मारता है और चमकता है! टोलस्टॉय के वर्णन देखिए-सूरज निकलता है और डूबता है, चिड़िया गाती है- वहाँ न कोई हँसता है न सिसकता है! कला में सबसे बड़ी चीज़ है सादगी!”(20) इस प्रकार चेखव की कहानियों में चित्र बिना किसी लाग-लपेट के प्रस्तुत होते हैं। कई बार पाठक को अनुभव होता है कि वह ‘बावर्चिन की शादी’ कहानी का ग्रीशा हो गया है जो दरवाज़े के की-होल से धधकती दुनिया के दृश्य देख रहा हो ठीक हमारे आस पास की दुनिया के चित्र। चेखव यथार्थ को यथार्थ रूप में पकड़ने की कला में माहिर हैं जिसमें व्यंग्य भी बड़ी सूक्ष्मता से अंकित होता है। वे बिंब भी खड़ा करते हैं तो वह मूलभूत रूप से द्वेत को प्रस्तुत करने के लक्ष्य से किया जाता है। जैसे ‘भगोड़ा’, ‘वांका’ और ‘निंदिया आ जा रे’ कहानी में अंधकार और प्रकाश का बिंब। बाल चरित्रों पर आधारित उनकी लगभग सभी कहानियों का क्लेवर संक्षिप्त है। डॉ पंकज मालवीय लिखते हैं “ चेखव की कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता कम से कम शब्दों में सारगर्भित अर्थ का निष्पादन है।इसीलिए चेखव कहा करते थे ‘संक्षिप्तता प्रतिभा की बहन है।’ ( Brevity is the sister of talent)” (21) सादगी, संक्षिप्तता और यथार्थ का सीधा साधा बखान चेखव की बाल मनोविज्ञान पर आधारित कहानियों का मूल बिंदु है।
संदर्भ:
1.Encyclopedia.com,Child Development,History Of the Concept Of
(गुरूत्वाकर्षण के सिद्धांत के साथ-साथ जीवन को परिभाषित करने वाला एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है-विकास का सिद्धांत।)
2.Encyclopedia.com,Child Development,History Of the Concept Of
(बाल्डविन का मत था कि विकास की यह प्रक्रिया प्राकृतिक है और व्यक्ति को उच्चतर मूल्यों कि और प्रेरित करती है।)
3. Encyclopedia.com,Child Development,History Of the Concept Of
( व्यक्ति और सामाजिक विकास संस्कृति आधारित मूल्यों पर केंद्रित होते हैं।)
4. Isabelle Naginski,Tolstoy’s Childhood:Literary Apprenticeship And Autobiographical Obsession, www.jstor.org,pg191 (1840 और 1850 के दशक की शुरुआत में रूस और पश्चिम दोनों में बचपन के संस्मरणों का प्रसार देखा गया।)
5. Nadya L. Peterson,Chekhov’s Children:Context and Text in Late Imperial Russia,McGill-Queen’s University Press,2021,Page4 ( चेखव के साहित्य में हर जगह बच्चे हैं। लेखन के छोटे से कार्यकाल में चेखव ने हर उम्र के 287 बाल चरित्रों का सृजन किया,जो रूसी समाज के हर वर्ग और सामाजिक परिस्थितियों से आते हैं।अपने सृजनात्मक लेखन का एक तिहाई हिस्सा उन्होंने बच्चों के लेखन को दिया और सन् 1880 से सन् 1888 के बीच बीस कहानियाँ ऐसी लिखीं जिसमें मुख्य पात्र बच्चे हैं।)
6.Nadya. L. Peterson,Chekhov’s Children:Context and Text in Late Imperial Russia,McGill-Queen’s University Press,2021,Page 5 (के.डी. उशिंस्की ने सन् 1868 में बच्चे की शारीरिक और मनोवैज्ञानिक संरचना का व्यापक अध्यययन अपनी अत्यधिक प्रभावशाली एंथ्रोपोलोजी में प्रस्तुत किया।)
7. Nadya. L. Peterson,Chekhov’s Children:Context and Text in Late Imperial Russia,McGill-Queen’s University Press,2021,Page 4 ( चेखव बच्चों के क्लिनिक में काम करते थे,कम से कम एक बच्चे की केस हिस्ट्री रोज़ लिखा करते थे ,मेडिकल में उन्होंने बाल चिकित्सा का चुनाव किया था।)
8. Nadya. L. Peterson,Chekhov’s Children:Context and Text in Late Imperial Russia,McGill-Queen’s University Press,2021,Page 4 (चेखव के साथी मेडिकल छात्र जो बाद में एक प्रमुख मनोवैज्ञानिक के रूप में स्थापित हुए,ने बच्चों के बौद्धिक विकास पर कार्य किया और बच्चों की मनोवैज्ञानिक प्रोफ़ाइलिंग की ,ने भी संभवतः चेखव को प्रभावित किया हो।)
9.Nadya L. Peterson,Chekhov’s Children:Context and Text in Late Imperial Russia,McGill-Queen’s University Press,2021,Page 147 (चेखव के चिरित्रों में चाहे वह दो वर्षीय ग्रीशा हो या अन्य बड़ी उम्र के बालक हों संवाद के प्रयास कभी समाप्त नहीं होते और न ही शब्द की शक्ति में विश्वास की कमी आती है। चेखव के बच्चे आख्यानों द्वारा अपने दुखों को दूर करने और जीवन को समझने में लगे रहते हैं।)
10. अंतोन चेखव,अनुवाद योगेश भटनागर, व्यथा कहानी संग्रह,प्रकाशन संस्थान,नई दिल्ली, संस्करण 2019, पृष्ठ-130
11.अंतोन चेखव,अनुवाद योगेश भटनागर, डॉक्टर तथा अन्य कहानियाँ, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2010, पृष्ठ -32
12. Nadya L. Peterson,Chekhov’s Children:Context and Text in Late Imperial Russia,McGill-Queen’s University Press,2021,Page 165 ( प्रॉसिक्यूटर पिता द्वारा पुत्र को सुनाई की उपदेशात्मक कहानी के माध्यम से चेखव एक तरह से समकालीन बहसों, शिक्षा प्रणाली के बदलते दृष्टिकोण,नैतिकता। बाल मनोविज्ञान की धारणाओं की ओर संकेत करते हैं।)
13. अंतोन चेखव,अनुवाद योगेश भटनागर, डॉक्टर तथा अन्य कहानियाँ, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली,पृष्ठ -38
14.Nadya L. Peterson,Chekhov’s Children:Context and Text in Late Imperial Russia,McGill-Queen’s University Press,2021,Page 13 (बच्चे संत और पवित्र होते हैं... ... आप उन्हें अपनी मनोदशा का खिलौना नहीं बना सकते, एक पल में उन्हें कोमलता से चूमना और दूसरे पल में पागलों की तरह आपके पैरों को पटकना। निरंकुश प्रेम करने से बेहतर है कि प्रेम न किया जाए...निरंकुशता और धोखे ने हमारे बचपन को विकृत कर दिया।)
15.आंतोन चेखव,अनुवादक पंकज मालवीय, कलाकृति (आंतोन चेखव की बहुरंगी कहानियाँ), ग्रथलोक प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली, प्रथम संस्करण,2008, पृष्ठ -200
16.आंतोन चेखव,अनुवादक पंकज मालवीय, कलाकृति (आंतोन चेखव की बहुरंगी कहानियाँ), ग्रथलोक प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली, प्रथम संस्करण,2008, पृष्ठ- 203
17.अंतोन चेखव, अनुवादक पंकज मालवीय, आईना (आंतोन चेखव की सतरंगी कहानियाँ), ग्रथलोक प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2009, पृष्ठ- 50
18.अंतोन चेखव,अनुवाद योगेश भटनागर, व्यथा कहानी संग्रह,प्रकाशन संस्थान,नई दिल्ली, संस्करण 2019, पृष्ठ-289
19. आंतोन चेखव,अनुवादक पंकज मालवीय, कलाकृति (आंतोन चेखव की बहुरंगी कहानियाँ), ग्रथलोक प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2008, पृष्ठ- 172
20.राजेंद्र यादव, एंटन पाव्लोविच चैखव- एक इंटरव्यू,
https://ia904701.us.archive.org/15/items/in.ernet.dli.2015.522559/2015.522559.Antan-Chaikhav.pdf, पृष्ठ- 63
21. आंतोन चेखव,अनुवादक पंकज मालवीय, कलाकृति (आंतोन चेखव की बहुरंगी कहानियाँ), ग्रथलोक प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली, प्रथम संस्करण,2008, पृष्ठ -6
मीनू गेरा
एसोसियेट प्रोफेसर (हिंदी विभाग), श्यामा प्रसाद मुखर्जी महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय
meenugera@spm.du.ac.in, 9999030018
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बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक : दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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