आलेख : रूसी बाल कहानियों में बचपन का परिवेश / रितेश वर्मा

रूसी बाल कहानियों में बचपन का परिवेश
- रितेश वर्मा


देश कोई भी हो, बच्चे स्वभावतः एक जैसे होते हैं। उनमें प्रश्नाकुलता जबरदस्त होती है। इसीलिए वे कल्पना की दुनिया में लंबी-लंबी उड़ानें भरतें हैं। उनका मन चंचल और खोजी स्वभाव का होता है। अतः बच्चों के लिए साहित्य लिखने का मतलब है इन सभी बातों को ध्यान में रखकर लिखना। बच्चों की रुचि, भावना, समझ, भाषा व मनोवृत्तियों को समझकर लिखा गया साहित्य बाल साहित्य कहलाता है। बाल साहित्य का अर्थ स्पष्ट करते हुए प्रसिद्ध कवि सोहनलाल द्विवेदी ने कहा है “सफल बाल साहित्य वही है जिसे बच्चे सरलता से अपना सकें और भाव ऐसे हों जो बच्चों के मन को भाएं। यों तो अनेक साहित्यकार बालकों के लिए लिखते रहते हैं,किंतु सचमुच जो बालकों के मन की बात, बालकों की भाषा में लिख दें, वही सफल बाल साहित्य लेखक हैं।”1

19वीं शताब्दी के लगभग सभी रूसी साहित्यकारों ने बच्चों के बारे में या बच्चों के लिए लिखा है। वे केवल बच्चों के मनोरंजन या ज्ञानवर्धन के लिए नहीं लिखते बल्कि उनके दुखों और कष्टों की भी बात करते हैं। “ वे बड़ों की क्रूरता और समझ के अभाव से बच्चों की रक्षा करने की चेष्टा करते थे। वे साहित्य को एक ऐसा सजीव सूत्र मानते थे जो बच्चों को एक छोटी सी दुनिया से बाहर लाकर सारे संसार से जोड़ देती है और उन्हें अपने देश की जनता और समूची मानव जाति के भविष्य के बारे में सोचना सिखाता है।”2 इनमें कुछ प्रमुख साहित्यकारों के नाम हैं- अंतोन चेखोव, लेव तोलस्तोय, इवान तुर्गनेव, निकोलाई तेलेशोव, फ़्योदोर दोस्तोएव्स्की, सर्गेई मिखालोव, विताउते जिलिन्स्काइते, तथा अरकादी गैदार आदि।

इन सभी रूसी साहित्यकारों ने उस समय जो बाल कहानियाँ लिखीं, उनमें जो परिवेश है, वह वहाँ की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक स्थितियों का परिणाम है।

1861 ई. तक रूस में भूदास प्रथा थी। जमींदार किसानों को खरीद व बेच सकते थे। अर्थात वह सदी जनता की कंगाली व दुखों की सदी थी। ऐसे में सर्वाधिक दयनीय स्थिति बच्चों की थी। उसी समय ज़ार की सरकार रूस के यूरोपीय भाग के गरीब किसानों को साइबेरिया के निर्जन इलाकों में बसा रही थी। वहाँ बसने गए अधिकतर किसान परिवार भूख, रोग व ठंढ से मर जाते थे। इस त्रासदी में बच्चे अनाथ हो जाते थे या माता पिता द्वारा मजबूरन छोड़ दिये जाते थे।

निकोलाई तेलेशोव, जिन्होंने अंतोन चेखोव के कहने पर साइबेरिया प्रदेश का भ्रमण किया, की अधिकतर कहानियाँ इन्हीं अभागे बच्चों की कहानियाँ हैं। ‘घर की ललक’ (1896) कहानी ऐसे ही एक अभागे बच्चे की कहानी है जिसका नाम स्योमका है। साइबेरिया में अनाथ हुआ यह बच्चा अपने घर वापस जाना चाहता है और अकेले ही निकल पड़ता है। क्या खाएगा? कहाँ रात बिताएगा? जैसे स्वाभाविक डरों से मुक्त, आँखों में घर की तस्वीर लिए वह आगे बढ़ता रहता है। उसके दुख और परिस्थितियाँ उसे साहसी बनने पर मजबूर कर देती हैं। दस-ग्यारह साल का अकेला बच्चा भूख लगने पर घरों में माँगकर खा लेता है; कोई घोड़ागाड़ी गुजरती है तो “बाबा गाड़ी में बैठा लो, दया करो!”3 कहकर मिन्नतें करता है; रूस जाने वाली मुख्य सड़क का रास्ता पूछ लेता है। परिस्थितियों ने उसे ऐसा बना दिया है कि वह सारे जोखिम उठा रहा है। रास्ते में उसे एक बूढ़ा व्यक्ति मिलता है जो कि काले पानी की सजा से भागा हुआ है। वह व्यक्ति बीमार स्योम्का को ठीक करता है और उसे उसके घर तक पहुँचाता है। चूँकि पुलिस उसे ढूँढ रही होती है अतः रूस पहुँचकर वह पकड़ा जाता है। बूढ़ा जानता था कि शहर जाएगा तो वह पकड़ा जाएगा। इसकी चिंता किए बगैर वह उस बच्चे को उसके घर तक पहुँचाता है।

कहानी में लेखक ने बूढ़े व्यक्ति के माध्यम से किसी बच्चे के लिए जो निस्वार्थ मदद करने का भाव दिखाया है, वह पाठकों को खींचता है। यह कहानी पढ़ते हुए जैनेन्द्र कि कहानी ‘अपना-अपना भाग्य’ के बच्चे की याद आती है।

दूसरा परिवेश है- रूसी-तुर्की युद्ध (1877-78) से उत्पन्न सामाजिक परिस्थितियाँ। कई बाल कहानियाँ इस परिवेश में लिखी गईं। इस युद्ध की पृष्ठभूमि में बच्चों की कोमल भावनाएँ कितनी प्रभावित हुई हैं? युद्ध के बारे में वे क्या सोचते हैं? शत्रु के लिए उनके मन में कितनी और क्या संवेदना है? यह सब दिखाना लेखक का उद्देश्य रहा है।

‘कोहकाफ़ का बंदी’ प्रसिद्ध रूसी लेखक लेव तोलस्तोय की ऐसी ही एक कहानी है। इसमें झीलिन नामक एक रूसी सैनिक अपने घर जाते हुये रास्ते में तातारों द्वारा पकड़कर कैद कर लिया जाता है। तातार तुर्कों की एक जाति है। तातारों के यहाँ दीना नाम की एक बच्ची है। दीना सोचती है कि दुश्मन बहुत ख़राब और खूँखार होते होंगे, तभी उन्हें इस तरह जंजीरों में बाँधकार, कोठरी में बंद करके, रखा जाता है, किन्तु झीलिन को देखते-देखते वह समझ जाती है कि वह अच्छा आदमी है। लेखक ने दिखाया है कि बच्चे शत्रुता, जाति और देश की दीवारों से परे होते हैं। उनमें मानवीय संवेदना अधिक होती है। झीलिन भी बच्चों के प्रति वात्सल्यपूर्ण भाव रखता है। ‘वे शत्रु के बच्चे हैं’, ऐसी कोई दुर्भावना उसके मन में नहीं है। वह बच्चों के लिए गुड़िया बनाता है। दीना भी अपने घर वालों से छुपाकर उसके लिए कभी पनीर की रोटियाँ, कभी दूध आदि दे जाती है। दीना न केवल उसे गहरे गड्ढे से निकालने में मदद करती है बल्कि वहाँ से भागने मे भी उसकी मदद करती है। चलते समय झीलिन कहता है, “अच्छा दीना, सारी उम्र तुझे याद रखूँगा।”4 दीना की दी हुई रोटियाँ लेकर प्यार से उसका सिर सहलाते हुये वह कहता है – “जीती रह बच्ची! कौन तुझे अब गुड़िया बनाकर देगा।”5 इस वात्सल्य से दीना के आँसू फूट पड़ते हैं और वह मुँह को हाथों से ढाँपकर वापस घर की ओर दौड़ जाती है।

अगली पृष्ठभूमि है - रूसी गृहयुद्ध का परिवेश। यह युद्ध व्हाइट गार्ड सेना और लाल सेना के बीच 1918 से 1920 ई. तक चला। इस परिवेश पर भी कई कहानियाँ बुनी गईं।

अरकादी गैदार द्वारा लिखित कहानी ‘नीला प्याला’ ऐसे ही परिदृश्य की एक कहानी है। यह कहानी व्हाइट गार्ड सेना ( फासिस्टों की सेना ) और लाल सेना ( मजदूरों और किसानों की सेना ) के बीच युद्ध काल के सामाजिक कैनवस में उपजी पिता और पुत्री के एडवेंचर की कहानी है। पिता जो कि स्वयं कहानी का वाचक है, अपनी पत्नी मारुस्या से रूठकर, घर छोड़कर, चला जाता है। उसे लगता है कि मारुस्या अब उससे प्यार नहीं करती और बात-बात पर डाँटती रहती है। एक दिन मारुस्या को घर में नीला प्याला टूटा मिलता है। उसे लगता है कि यह जरूर पिता और पुत्री कि हरकत होगी और वह उन्हें खूब सुना देती है। इसी से वह रूठकर अपनी साढ़े छः साल कि बच्ची स्वेत्लाना को लेकर घर से दूर चला जाता है। रास्ते में उसे कई और बच्चे मिलते हैं।

कहानी में जर्मनी से निकाले गए या मजबूरन भागकर रूस आए यहूदियों और उनके बच्चों के साथ सामाजिक बर्ताव की भी झलक है। ऐसी ही एक बच्ची है बेर्था, जिसे सान्का नाम का एक बच्चा ‘यहूदड़दन’ कहकर चिढ़ाता है और कहता है- “तुम अपने जर्मनी क्यों नहीं वापस चली जातीं?”6 ऐसे शरारती सान्का को हर कोई पीटना चाहता है किन्तु स्वेत्लाना को उस पर दया आ जाती है। पूरी कहानी में स्वेत्लाना सबसे अधिक संवेदनशील और समझदार दिखती है। बंदूक और मशीनगन चलने की आवाज़ सुनकर उसका काँपते हुए स्वर में पूछना कि “कौन किससे लड़ रहा है? क्या युद्ध छिड़ गया है?”7 यह दर्शाता है कि बच्चे युद्ध से कितना भयाक्रांत हैं, क्योंकि वे युद्ध के परिणामों को झेल रहे हैं।

स्वेत्लाना को रास्ते में गौरइय्या, मेढक, कुत्ता जैसे जीव-जन्तु मिलते हैं। वह उन सभी के प्रति प्रेम व दोस्ती का भाव रखती है। वह मिलने वाले सभी बच्चों कि भलाई सोचती है। सबसे बड़ी बात कि वह अपने पिता को घर वापस लौटने कि सलाह देती है और इस बिन्दु पर वह अपने पिता से अधिक समझदार दिखती है। कई बार बच्चे बड़ों की तुलना में छोटी-छोटी संवेदनाओं को अधिक गहराई से महसूस करते हैं, क्योंकि बड़ों की संवेदना में कई बार स्वाभिमान आड़े आता है, जबकि बच्चे इतने स्वाभिमानी नहीं होते। वह अपने पिता से पूछती है कि वे उसकी माँ से कैसे मिले? यह जानकार कि उसकी माँ युद्ध में अनाथ हो गयी थीं, उसे माँ पर तरस आने लगता है। दरअसल उसके पिता लाल सेना में थे और उन्होंने उसकी माँ यानी मारुस्या को बचाया था। तब से वे दोनों साथ रहने लगे। पूरी बात सुनकर स्वेत्लाना को अहसास होता है कि माँ पिता से खूब प्यार करती हैं और पिता को उन्हें इस तरह छोड़कर नहीं आना चाहिए। वह उनसे घर लौटने को कहती है। पिता के मना करने पर वह उन्हें समझाती है कि ऐसा नहीं है, माँ आपको प्यार करती हैं। इसके लिए वह तर्क भी देती है कि “पिछली रात को जब मेरी आँख खुली तो मैंने देखा कि माँ ने अपनी किताब एक तरफ हटा दी और वह आपको बहुत देर तक देखती रही।”8 किसी को प्यार से देखने और खिड़की से बाहर शून्य में देखने के अंतर को भी वह समझती है और अपने पिता को भी समझाती है। कई बार लगता है कि साढ़े छः साल की बच्ची इतनी समझदारी की बातें कैसे कर सकती है? उसमें बचपना कम और परिपक्वता अधिक दिखती है। संभवतः युद्ध के परिणामों ने उसे ऐसा बना दिया है। अंत में, घर पहुँचने पर, सोते समय स्वेत्लाना अपने पिता से चुहल के अंदाज़ में पूछती है – “अब बताइए पिता जी, क्या हमारी ज़िंदगी अब दुखी है?”9 युद्ध के इस परिवेश में वह घर होने का मतलब समझती है क्योंकि उसने कई बच्चों को देखा-सुना है जो कि युद्ध में बेघर हो गए।

अगले कहानीकार हैं - विताउते जिलिन्स्काइते। उपरोक्त परिवेश के इतर इनकी कहानियाँ कल्पना के सहारे बच्चों में ज्ञान-विज्ञान की समझ बढ़ाने और उन्हें अधिक मानवीय बनाने का काम करती हैं। ‘छत पर फँस गया बिल्ला’, ‘रोबोट और तितली’, ‘जब नटखट हिमिका पिघली नहीं’ और ‘बछेड़े का बदला’ इसी परिवेश की कहानियाँ हैं।

‘रोबोट और तितली’ कहानी में मशीन और जीव (मनुष्य भी) के बीच संवेदनात्मक अंतरसंबंधों को दिखाया गया है। इसमें रोबोट कुछ रटे-रटाए प्रश्नों के उत्तर क्रमशः देता है। इस पर बच्चे ख़ुश होकर तालियाँ बजाते हैं, तारीफ़ करते हैं। एक दिन एक तितली आती है और उससे बातें करती है। तब भी वह उन्हीं रटे हुए उत्तरों को दोहराता है। धीरे-धीरे रोबोट तितली की बातें समझने लगता है और उससे बात करना चाहता है, किन्तु उसके मुँह से वही उत्तर निकलते हैं। रोबोट स्वयं इस बात से दुखी है। एक मशीन होते हुए भी उसमें संवेदनाएँ आने लगती है। उसे तितली का साथ अच्छा लगने लगता है। इस बात से वह बहुत ख़ुश है कि तितली उसे ‘प्यारे दोनदोन’ कहकर संबोधित करती है। तितली के चले जाने पर वह बहुत उदास हो जाता है और एक दिन रटे-रटाए उत्तर देना भूल जाता है। इस वजह से उसका मालिक उसे ख़राब मशीन घोषित करके उसे एक कपड़े से ढक देता है। धीरे-धीरे वह तितली के कहे दो-एक शब्द बोलने की कोशिश करने लगता है। प्रेम और साहचर्य ने एक उस मशीन में भी मानवीय संवेदनाएँ जगा दी थीं।

‘जब नटखट हिमिका पिघली नहीं’ के माध्यम से कहानीकार ने एक तो विज्ञान के कुछ सामान्य नियमों को सिखाने की कोशिश की गयी है, दूसरे, बच्चों में त्याग और सहायता जैसे मानवीय मूल्य जगाए हैं। विज्ञान के सामान्य नियम, मसलन बर्फ़ सूरज की रोशनी में हमेशा पिघलती है; बर्फ़ को सीने पर रखकर सोने से जुकाम हो जाता है; पौधे पानी की कमी से सूख जाते हैं और बर्फ़ से पानी बनाकर पौधों की सिंचाई की जा सकती है आदि।

हिन्दी में भी इस तरह की बाल कहानियाँ लिखी गईं हैं ।बाल कहानीकार संजीव जायसवाल की ‘मानव फैक्स मशीन’ और शुकदेव प्रसाद की ‘हिमीभूत’ इसी विषय पर आधारित कहानियां हैं। विताउते की एक और कहानी है- ‘बछेड़े का बदला’। इस कहानी में पर्यावरणीय चिंता मुख्य विषय है। नन्हा बछेड़ा दुनिया को नहीं समझता। उसकी नजर में सब कुछ सुंदर और अच्छा है, “लेकिन उसकी माँ को पानी की हर बूंद में डिटर्जेंट की गंध महसूस होती थी, हवा में पेट्रोल और मोबिल आयल की भभक और चारागाह की घास में तरह-तरह के रासायनिक तत्वों का स्वाद आता। और सड़क के बारे में क्या कहना! वह उसके स्थाई शोर-शराबे और गर्द-गुबार से तंग आ चुकी थी। कारों को तो वह दुर्गंध वाला टीन का डिब्बा कहा करती थी।”10 कहानीकार ने बड़ी सरलता से घोड़ी, उसके बछड़े तथा गाय और उसकी बछिया के बीच संवाद के माध्यम से बच्चों को पर्यावरण के प्रति जागरूक किया है। इसके अलावा इसमें यह दिखाया गया है कि मशीनीकरण ने मनुष्यों के साथ-साथ कई जानवरों का भी रोजगार छीनकर उन्हें अनुपयोगी बना दिया है। उनके जीवन का अंत कसाईखानों में हो रहा है जैसे– घोड़े, बैल इत्यादि।

घोड़ी के बछेड़े को बछिया की बातों पर विश्वास नहीं होता तो वह अपनी माँ से पूछता है, “मम्मी, मम्मी! क्या घोड़े किसी काम के नहीं होते? क्या ट्रक और ट्रैक्टर हमारा ही काम करते हैं?’

उसे उम्मीद थी की माँ हँस कर कहेगी कि यह सब सफेद झूठ है! लेकिन घोड़ी ने मायूसी से सिर हिलाकर कहा:

‘हां, बेटे! यह सच है।’

‘तो क्या सचमुच उन घोड़ों को कसाईखाने ले जा रहे थे?’

‘तुम्हें किसने बताया?’ घोड़ी ने सतर्क होकर पूछा।

‘उसी भूरी वाली बछिया ने।”11

एक कहानी है- ‘मनमानी के मज़े’, सर्गेई मिखालोव द्वारा लिखित। यह कहानी एकदम भिन्न प्रकार की है। यह किसी भी देश-काल की परिस्थितियों से बंधी हुई नहीं है, न ही इसकी पृष्ठभूमि में किसी युद्ध या त्रासदी से जन्मा परिवेश है। यह बच्चों की अपनी अलग दुनिया के अंतर्संबंधों की कहानी है। यह कहानी जितनी बच्चों के लिए है, उतनी ही अभिभावकों के लिए भी है। लेखक ने बच्चों की आज़ादी और अभिभावकों के कड़े अनुशासन दोनों के महत्त्व और अनुपात को बताया है।

कहानी में शहर के सारे अभिभावक एक रात अपने बच्चों की शैतानियों से तंग आकर, उन्हें अकेला छोड़कर, चले जाते हैं। पहले तो बच्चे बहुत खुश होते हैं कि अब उन्हें रोकने-टोकने वाला कोई नहीं, किन्तु अपनी बहुत सी गलतियों और साफ-सफाई न करने की वजह से वे बीमार पड़ जाते हैं। तब उन्हें अपने अभिभावकों की याद आने लगती है। इस सबके बीच उनकी मौलिक प्रतिभा भी बाहर आती है। वे दीवारों पर अपनी कल्पना की उड़ानें भरते हुए चित्रकारी करते हैं।

उधर अभिभावकों को भी अपने-अपने बच्चों की याद आने लगाती है। “बुजुर्गों के कैंप में पहला दिन यादगारियों में गुजरा। कैंप में जलाए गए अलाव के चारों ओर बैठकर तमाम माताओं, पिताओं, बाबा-दादियों ने अपने ऊधमी बच्चों की शरारतों, बदमाशियों आदि के वे किस्से दुहराये जो सभी को मालूम थे। बच्चों की स्वार्थी प्रकृति, अड़ियलपन, झूठों और मनमानियों के एक से एक बढ़कर उदाहरण दिए गए और यादों में डूबते हुए कई अभिभावकों को यह भान हुआ कि अपने दिनों में कभी वह भी ऐसे भयंकर बच्चे रह चुके हैं।”12 उन्हें भी इस बात का अहसास होता है कि बच्चों पर इतना कड़ा अनुशासन नहीं करना चाहिए था।

कहानी में लेखक का उद्देश्य यह बताना है कि बच्चों पर इतना कड़ा अनुशासन भी ठीक नहीं है कि उनकी अपनी आज़ादी और बचपना ही मर जाए। प्रत्येक बच्चे में मौलिक प्रतिभा है। उन्हें बने बनाए साँचे में फिट करने की कोशिश, उनकी मौलिक प्रतिभा और कल्पना शक्ति को कुंद करती है। यह बात केवल अभिभावकों के ध्यान देने हेतु नहीं है बल्कि बाल साहित्यकारों और अध्यापकों के लिए भी उतनी ही जरूरी है, क्योंकि यह बाल साहित्य के उद्देश्य का हिस्सा है। डॉ. सुरेंद्र विक्रम इसके संबंध में लिखते हैं— “सच तो यह है कि बाल साहित्य का उद्देश्य बालक के व्यक्तित्व का निर्माण करना तथा उसके विकास के लिए समुचित दिशा प्रदान करना होना चाहिए। इस दृष्टिकोण से बाल साहित्य के लेखन एवं चुनाव के लिए आवश्यक हो जाता है कि लेखक तथा अध्यापक बालक के व्यक्तित्व के विकास की विविध अवस्थाओं में मनोवैज्ञानिक विशेषताओं को पहचानें।”13 साथ ही लेखक ने यह भी बताया कि बच्चे इतने भी समझदार नहीं होते कि उन्हें पूरी तरह अकेला छोड़ दिया जाए। ऐसी खुली आज़ादी उनका फायदा काम और नुकसान अधिक करेगी। कहानी में संरक्षण के बिना “बच्चे गलियों में पियराये, बिना नहाए, बिना कंघी किए, उनींदे-से भटक रहे थे। कुछ के पेट में दर्द था, कुछ खाॅंस-छींक रहे थे। चौराहों पर अपने पिताओं के पाइप ओठों से दबाए उदास लड़के और अपनी माताओं की लिपस्टिक और दादियों के पाउडर पोते नन्ही लड़कियाँ भटक रही थीं।”14 इसलिए जरूरी है कि बड़ों के सरंक्षण और मार्गदर्शन में बच्चों की रुचियों और सपनों को पंख मिले। युवा शायर शुभम का एक शेर है-

“नई नस्लों को समझाओ कि पाबंदी जरूरी है
नहीं होंगे किनारे तो नदी कैसे नदी होगी?”

बात सही भी है। अभिभावकों और अध्यापकों को चाहिए कि वे बच्चों के मन व विचारों के अनियंत्रित बहाव को एक दिशा दें। उनके लिए नदी का किनारा बने, बाँध नहीं।

ये सभी कहानियाँ बच्चों के परिवेश में रची बुनी हुई हैं। ये उस तरह की कहानियाँ नहीं है जिनका अंत किसी खास तरह के उद्देश्य या उपदेश पर होता है। जैसे कुछ हिंदी कहानियों का अंत देखिये- ‘बुरे आदमी का उपकार करना भी उतना ही बुरा है जितना सज्जन की बुराई करना’, ‘जिसके कुल-शील और स्वभाव का पता न हो, उसे कभी भी शरण नहीं देनी चाहिए’, ‘हनी ने प्रधानाध्यापक जी के पाँव छुए और भविष्य में उनकी सीख पर चलने का दृढ़ संकल्प लिया’।

ऐसे वाक्य कहानी का मज़ा ख़राब कर देते हैं। बाल पाठक भी ऐसे वक्तव्यों को पढ़कर समझ जाते हैं कि पूरी कहानी यही सिद्ध करने के लिए गढ़ी गई है।

बच्चों को बेतुकी भ्रांतियों से बाहर निकालना तथा उनमें मानवीय मूल्य और संवेदना को विकसित करना बाल साहित्यकारों का दायित्व है। आनंद कुमार जैन ने ‘पराग’ के सम्पादकीय में लिखा था- “जादूगरों और राक्षसों की कहानियाँ अब बच्चों के साहित्य में स्थान पाने योग्य नहीं रह गई हैं।”15 गुलजार साहब ने भी ‘चकमक’ के 300वें अंक के विमोचन समारोह (मध्य प्रदेश) में बाल साहित्य की गुणवत्ता पर बात रखते हुए कहा था - ‘अच्छा बाल साहित्य वह है जिसका आनन्द बच्चे से लेकर बड़े तक ले सकें।’16

संदर्भ :
  1. हिंदी बाल साहित्य एक अध्ययन, हरिकृष्ण देवसरे, आत्माराम एण्ड संस, दिल्ली, 1969, पृष्ठ 07
  2. प्रकाशकीय भूमिका, कोहकाफ का बंदी, लेव तोलस्तोय, अनुराग ट्रस्ट, लखनऊ, 2010
  3. घर की ललक, निकोलाई तेलेशाेव, अनुराग ट्रस्ट, लखनऊ, 2010, पृष्ठ 10
  4. कोहकाफ का बंदी, लेव तोलस्तोय, अनुराग ट्रस्ट, लखनऊ, 2010, पृष्ठ 38
  5. वही, पृष्ठ 38
  6. नीला प्याला, अरकादी गैदार, अनुराग ट्रस्ट, लखनऊ 2010, पृष्ठ 11
  7. वही, पृष्ठ 13
  8. वही, पृष्ठ 34
  9. वही, पृष्ठ 40
  10. छत पर फॅंस गया बिल्ला और तीन कहानियाॅं, विताउते जिलिन्स्काइते, अनुराग ट्रस्ट, लखनऊ, 2012, पृष्ठ 39
  11. वही, पृष्ठ 42,43
  12. मनमानी के मजे, सर्गेई मिखालोव, अनुराग ट्रस्ट, लखनऊ, 2010, पृष्ठ 29
  13. हिंदी बाल पत्रकारिता: उद्भव और विकास, सुरेंद्र विक्रम, साहित्य वाणी, इलाहाबाद, 1991, पृष्ठ 13,14
  14. मनमानी के मजे, सर्गेई मिखालोव, अनुराग ट्रस्ट, लखनऊ, 2010, पृष्ठ 28
  15. ‘विज्ञान और बाल साहित्य’ (आलेख) डॉ. शील कौशिक, पुस्तक संस्कृति, (बाल साहित्य विशेषांक), सं. पंकज चतुर्वेदी, अंक 4, जुलाई-अगस्त 2023, पृष्ठ 38
  16. ‘बाल साहित्य चुनौतियाॅं और संभावनाएं’ (आलेख), राजेश उत्साही, पुस्तक संस्कृति, (बाल साहित्य विशेषांक), सं. पंकज चतुर्वेदी, अंक 4, जुलाई-अगस्त 2023, पृष्ठ 13

रितेश वर्मा
शोधार्थी, हिंदी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय

बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक  दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

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