चित्रकथा और बाल साहित्य
- राजीव रंजन

बीज शब्द : बाल साहित्य, लोरियों, सोहर, तुकबंदी, पंचतंत्र, हितोपदेश, कथा सरितसागर, सिंहासन बत्तीसी, जातक कथा, कॉमिक्स एलबम, कॉमिक्स स्ट्रिप, टैंकोबॉन, मोगली, मालगुडी डेज, सुपर हीरो, जापानी कॉमिक्स या कार्टूनिंग (माँगा)
मूल आलेख : ज्यां-पाल सार्त्र (सन् 1905-1980) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘व्हाट इज लिटरेचर’ (What is Literature) में कहा है कि “भाषा हमारे लिए बारूदी गोला है और ऐंटेना भी, जो दूसरों से हमारी सुरक्षा करती है और उनके बारे में हमें सूचित करती है। भाषा हमारी संवेदनाओं का विस्तार है... हम भाषा में वैसे ही रहते हैं जैसे अपने देह में।” प्रत्येक रचनाकार की लेखन शैली, मौलिकता और भाषिक-संस्कार उसकी गहन अनुभूति से संचालित होते हैं। जीवन के यथार्थ और भाषिक कल्पनाएँ समन्वित होकर उसके रचनात्मक दायित्व के रूप में सामने आती हैं। इस व्यापक संरचना में शब्द, ध्वनि, प्रतीक, बिंब जैसे सभी तत्त्व एक दूसरे से प्रभावित होते हैं। इसीलिए भाषा समसामयिक चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम मानी जाती है। साहित्यकार की संवेदनशीलता और अनुभवों की भिन्नता से भाषा भी प्रभावित होती है। ग्राफिक उपन्यासों की भाषा भी कुछ ऐसे ही अनुभवों और अर्थछवियों के बीच पैदा हुई है।
भाषा मानव संस्कृति का सर्वाधिक शक्तिशाली और समृद्ध उपकरण है क्योंकि यह हमारी अस्मिता से जुड़ा हुआ है। अभिव्यक्ति के स्तर पर प्रत्येक कला अपने माध्यम की संवेदनशीलता को अन्तर्निहित कर के चलती है। कहा जाता है कि एक तस्वीर एक हजार शब्दों के बराबर है। इसीलिए शब्दों और छवियों में तारतम्य बिठाकर रचा गया साहित्य अत्यंत उत्कृष्ट होता है। ऐसा साहित्य जीवन की समस्याएँ, कठोर सच्चाइयाँ, अनुभवों की तीव्रता और अंतःसंघर्षों को अधिक सशक्त, गंभीर और परिपक्व रूप से सम्प्रेषित करता है।
लिपि के विकास के पूर्व से ही मानव अपने विचारों को चित्रों के माध्यम से दूसरों तक पहुंचाता था। इस तरह के भित्ति–चित्र प्राचीन मंदिरों और गुफाओं में आज भी देखे जा सकते हैं। इन चित्रों के माध्यम से तत्कालीन घटनाओं को सार्वकालिक चीजों के साथ जोड़ने का प्रयास किया जाता है। तय है कि चित्रों से कथा रोचक हो जाती है। जिस प्रकार भाषा का स्थान साहित्य में है उसी प्रकार छवियों का स्थान कॉमिक्स में है। कॉमिक्स यानी चित्रकथा मानव मन की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। इसमें विचारों को व्यक्त करने के लिए सामान्य पाठ्यक्रम के अपेक्षा चित्रों एवं बहुधा शब्दों के मिश्रण तथा अन्य चित्रित सूचनाओं की सहायता ली जाती है। कॉमिक्स में निरंतर किसी भी विशिष्ट भंगिमा एवं दृश्यों को चित्रों के पैनल द्वारा जाहिर किया जाता रहा है। अक्सर शाब्दिक अभिव्यक्तियों को स्पीच बैलूनों, अनुशीर्षकों (कैप्शन) एवं अर्थानुरणन जिनमें संवाद, वृत्तांत, ध्वनि-प्रभाव एवं अन्य सूचनाओं द्वारा व्यक्त किया जाता है। चित्रित पैनलों के आकार एवं उनके व्यवस्थित संयोजन से कहानी का व्याख्यान सरल हो जाता है। कार्टूनिंग एवं उसके अनुरूप किया गया इल्सट्रेशन (Illustration) द्वारा चित्र बनाना कॉमिक्स का एक अनिवार्य अंग रहा है। फ्युमेटी एक विशेष फॉर्म या शैली है जिसमें पहले से खिंची फोटोग्राफिक चित्रों का इस्तेमाल कर कॉमिक्स का रूप दिया जाता है। सामान्य फॉर्म या शैली में कॉमिक्स को हम कॉमिक्स स्ट्रिप (पट्टी या कतरनों), संपादकीय या गैग (झूठे) कार्टूनों तथा कॉमिक्स पुस्तकों द्वारा पढ़ा करते हैं। वहीं गत 20वीं शताब्दी तक, अपने सीमित संस्करणों जैसे ग्राफिक उपन्यास, कॉमिक्स एलबम, और टैंकोबॉन (एक कॉमिक्स या ग्राफ़िक उपन्यास के लिए जापानी शब्द है) के रूप में इसने सामान्यतया काफी उन्नति पायी है। आज 21वीं सदी में ऑनलाइन वेब कॉमिक्स भी काफी कामयाब साबित हुई है।
कॉमिक्स के इतिहास का विकास भी सांस्कृतिक विविधता की देन है। बुद्धिजीवी मानते हैं कि इस तरह की शुरुआत का अंदाजा हम प्रागैतिहासिक युग के लैस्काउक्स के गुफा चित्रों से लगा सकते हैं। वहीं 20वीं के मध्य तक कॉमिक्स के विस्तार में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, पश्चिमी यूरोपीय प्रांतों (विशेषकर फ्रांस एवं बेल्जियम में) और जापान में खूब निखार आया। यूरोपीय कॉमिक्स के इतिहास पर गौर करें तो सन् 1830 में रुडोल्फ टॉपफेर की बनाई कार्टून स्ट्रिप काफी लोकप्रिय थी, जो आगे चलकर उनकी बनाई ‘द एडवेंचर ऑफ टिनटिन’ सन् 1930 तक स्ट्रिप एवं पुस्तक के रूप काफी कामयाब रही थी। अमेरिकी कॉमिक्स ने सार्वजनिक माध्यम पाने के लिए 20वीं सदी के पूर्व तक अखबारों के कॉमिक्स स्ट्रिप द्वारा पैठ जमाई। इसी दौरान पत्रिका-शैली की कॉमिक्स पुस्तकें भी सन् 1930 में प्रकाशित होने लगी और सन् 1938 में सुपर मैन जैसे प्रख्यात किरदार के आगमन बाद सुपर हीरो पीढ़ी के एक नए दौर का उदय हुआ। वहीं जापानी कॉमिक्स या कार्टूनिंग (माँगा) का मूल इतिहास तो 12वीं शताब्दी से भी पुराना है। जापान में आधुनिक कॉमिक्स स्ट्रिप का उदय 20वीं सदी में ही हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान वहाँ कॉमिक्स, पत्रिकाओं एवं पुस्तकों का भारी उत्पादन हुआ जिसमें ओसामु तेज़ुका जैसे कार्टूनिस्टों को काफी शोहरत मिली। हालाँकि कॉमिक्स को तब तक दोयम दर्जे का साहित्य माना जाता था, लेकिन 20वीं सदी के अंत तक आते-आते जनता तथा शैक्षिक संस्थाओं ने इसे भली-भाँति से स्वीकृति दे दी।
कॉमिक्स शब्द को अंग्रेजी में एकवचन संज्ञा के तौर पर देखा जाता है जबकि इसका तात्पर्य कुछ विशेष उदाहरणों व घटनाओं को व्यक्तिगत स्ट्रिपों अथवा कॉमिक्स पुस्तकों के जरिए प्रस्तुत करना होता है। पहले कॉमिक्स हास्य-व्यंग्य आदि के लिए अखबारों के कॉमिक्स स्ट्रिपों पर छाया रहता था, पर जल्द ही इसने गैर-हास्य जैसे मापदंडों को भी अपना लिया। अंग्रेजी में सामान्य तौर पर कॉमिक्स के उल्लेख की तरह ही दूसरी संस्कृतियों में भी उनकी मूल भाषाओं का उपयोग होता रहा है, जैसे जापानी कॉमिक्स को ‘माँगा’ एवं फ्रेंच भाषा की कॉमिक्स को 'बांद डेसिने' कहा जाता है। लेकिन अभी तक कॉमिक्स की सही परिभाषा को लेकर विचारकों तथा इतिहासकारों के मध्य आम सहमति नहीं बनी है। कुछेक अपने तर्क पर बल देते हैं कि यह चित्रों एवं शब्दों का संयोजन है, कुछ इसे अन्य चित्रों से संबंधित या क्रमबद्ध चित्रों की कहानी कहते हैं और कुछ अन्य इतिहासकार स्वीकारते हैं कि यह किसी व्यापक पैमाने के पुनरुत्पादन की तरह है जिसमें किसी विशेष पात्र की निरंतर आवृत्ति होती रहती है। कॉमिक्स संस्कृति के व्यापक विस्तार और बढ़ते प्रभाव के कारण इसकी व्याख्या अब काफी जटिल हो चुकी है।
भारत में कॉमिक्स पठन एवं उसके प्रसंगों को लेकर एक लंबी परंपरा जुड़ी हुई है। यहाँ व्यापक पैमाने पर दशकों से लोककथाएँ एवं पौराणिक गाथाओं को बाल चित्रकथाओं के शक्ल में रूपांतरित किया जाता रहा है। भारतीय कॉमिक्स उद्योग का आरंभ सन् 1960 के मध्य हुआ जब द टाइम्स ऑफ इंडिया के शीर्ष अखबार ने इंद्रजाल कॉमिक्स स्ट्रिप को छापना शुरू किया। हालाँकि इस इंडस्ट्री द्वारा भारत में प्रस्तुत किए गए ज्यादातर विषय पश्चिमी संस्कृति के थे लेकिन 1990 के दशक तक इन सभी ने भारतीय बाजार में खुद को स्थापित कर लिया था। मोटे तौर पर भारतीय कॉमिक्स क्रम-विकास को चार चरणों पर बाँटा जा सकता है। सन् 1950 के दौरान पश्चिम जगत के सिंडीकेट प्रकाशन ने अपने स्ट्रिप कॉमिक्स स्ट्रिप द फ़ैन्टम, मैण्ड्रेक, फ्लैश गार्डन, रिप किर्बी आदि को भारतीय भाषाओं में अनूदित कर पाठकों के समक्ष पेश कर व्यावसायिक सफलता के नए आयाम को छुआ था। दूसरा चरण सन् 1960 के आखिरी दशक में शुरू होता है जब अमर चित्र कथा (लगभग अविस्मरणीय चित्रों की कहानियों) ने बाल साहित्य में अपनी गहरी पैठ बना ली थी।
सन् 1960 के दशक में विभिन्न पश्चिमी सुपरहीरो कॉमिक्स की प्रतिस्पर्धा में स्वदेशी सुपर हीरो 'बैतूल द ग्रेट' को उतारा गया था। सन् 1980 के दशक तक सुपर हीरो-कामिक्सों की लहर सी आ गई थी, जिसके साथ रचनाकारों एवं प्रकाशकों ने पश्चिमी देशों लोकप्रिय हुए सुपर हीरो कॉमिक्स की ओर आकर्षित हुए। समकालीन पीढ़ी की सफलता देखकर भारत में भी सुपर कमांडो ध्रुव, नागराज, डोगा आदि के चरित्र का निर्माण होने लगा।
उल्लेखनीय है कि सन् 1980 के दशक में शैक्षणिक संस्थानों से अवकाश पाते ही बच्चों का मन कॉमिक्स की टोह में व्यस्त हो जाता था। इधर आकर बाल मन में कॉमिक्स की जगह इंटरनेट और मोबाइल फोन ने ले ली है लेकिन एक वक्त था जब कॉमिक्स ही बच्चों की छुट्टियों का सहारा बनकर सामने आती थीं। सन् 1966 में प्रथम हिंदी कॉमिक्स 'बेताल की मेखला' प्रकाशित हुयी थी। कॉमिक्स की दुनिया में सन् 1971 में चाचा चौधरी का पर्दापण हुआ और इसके बाद पिंकी, बिल्लू, रमन जैसे कॉमिक्स किरदारों ने जन्म लिया था। यह ऐसे किरदार थे जिन्होंने न सिर्फ बच्चों को अपना दीवाना बनाया बल्कि हर उम्र के लोग इनमें रुचि लेते थे।
ज्यादातर बच्चे उन दिनों (गर्मियों की छुट्टी में) कॉमिक्स में खोये रहते थे। बहुत ही प्यारी दुनिया थी वो। पिंकी और बिल्लू की कॉमिक्स से शुरुआत करते हुए (मासूमियत) धीरे धीरे चाचा चौधरी (बुद्धिमता) की तरफ जाते हुए बांकेलाल (हास्य) के पास होते हुए फिर सुपर कमांडो ध्रुव (साहस) से गुजरते हुए नागराज (फंतासी) से मिलकर डोगा (क्रूरता) की ओर जाकर उस पीढी़ ने अपनी मानसिक परिपक्वता की फसल तैयार की थी। रमन की कॉमिक्स में शब्दों का अभाव होते हुए भी भावनाओं का समंदर होता था। चन्नी चाची ने कंजूसी और स्वार्थी तत्वों के उपयोग का ज्ञान दिया तो वहीं कोबी और भेड़िये ने जेनेटिक म्युटेशन और गमराज ने मैटर इंटरचेंज (सजीव से निर्जीव) तथा इंसपेक्टर स्टील ने ह्यूमन एक्सओ स्केलेटन एवं परमाणु ने मैटर ट्रांसपोर्टेशन जैसे वैज्ञानिक तकनीकों के बारे में बतलाया था। तिरंगा से देशभक्ति, हवलदार बहादुर सिंह से भ्रष्टाचार, भोकाल से राज्य प्रशासन, फाइटर टोड्स से टीम वर्क और तोषी से कर्तव्यपरायणता जैसे गुण सीखने को मिलते थे। अंगारा की हमेशा क्रमशः रहने वाली अधूरी कॉमिक्स ने धैर्य रखना सिखाया था।
साहित्य समाज का प्रतिरूप है। जिस देश का साहित्य उन्नत होता है वह देश स्वतः विकसित होता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य को जनता की संचित चितवृत्ति का प्रतिबिंब माना है। महादेवी वर्मा बाल्यावस्था को काव्य और साहित्य दोनो माना है। बच्चों की दुनिया सर्वथा पृथक होती है। उनका अपना व्यक्त्तिव होता है। वे संस्कृति, साहित्य तथा समाज से ही अपना व्यक्तित्व का सांचा बनाते हैं। साहित्य का मूल उत्स या स्त्रोत जीवन और मानव समाज है। बाल साहित्य का बच्चों के उपर कितना प्रभाव पड़ता है इसके मैं दो उदाहरण देना चाहूंगा। पहला राष्ट्रपिता ‘महात्मा गांधी’ का। उन्होंने अपनी जीवनी में लिखा है कि वे बहुत परिश्रम से अपने पाठ रटकर याद करते थे लेकिन उत्साह की कमी के कारण उसे जल्दी ही भूल जाते थे। एक दिन उन्हें ‘भक्त श्रृवण कुमार’ नामक पुस्तक पढ़ने को मिली जिसे उन्होंने कई बार पढ़ा। इसके बाद उन्हें ‘सत्यवादी राजा हरीषचन्द्र पुस्तक’ पढ़ने को मिली। इन दोनों पुस्तकों ने उनकी विचारधारा को ही बदल डाला और उन्होंने सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने और लोगों की सेवा करने का प्रण कर लिया। ‘छत्रपति शिवाजी’ को उनकी मां ‘जीजाबाई’ प्रेरक कहानियां सुनाया करती थीं जिसे सुनकर ही उनमें देश प्रेम की भावना जागृत हुई। कई क्रांतिकारी ऐसे है जिन्होंने कहानियां पढ़कर ही अंग्रेजी राज्य के विरूद्व बगावत का बिगुल बजाया। कहने का तात्पर्य है कि बाल मन कच्ची मिट्टी की तरह होता है और साहित्य का उसपर जबरदस्त प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव सकारात्मक भी हो सकता है और नकारात्मक भी। अतः बाल साहित्य सृजित करते समय अत्यंत सावधानी की आवश्यकता होती है। कहानियों में अक्सर बुराई पर अच्छाई की जीत दिखाई जाती है इसके लिए कुछ खलपात्रो और बुरी घटनाओं का सृजन करना आवश्यक हो जाता है किंतु यह दुधारी तलवार पर चलने के समान है क्योंकि यदि इनका वजन ज्यादा हो गया तो बच्चों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
साहित्य समाज का दर्पण होता है और बाल साहित्य बालकों के अंतर्मन का प्रतिबिंब। बाल साहित्य बच्चे के सहज, सरल मन का दर्पण होता है जिसमें हम बाल सुलभ चेष्टाएं, नटखटपन, कल्पनाशीलता, क्रीड़ायें आदि का आस्वाद ले सकते हैं। बाल साहित्य पढ़कर बालकों का तदनुरूप भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक, मानसिक, आत्मिक, संवेदनात्मक उत्कर्ष होता है। श्रेष्ठ बाल साहित्य की नींव पर ही उत्तम, समुन्नत, सम्यक स्वस्थ नागरिक गढ़ा जा सकता है। बाल साहित्य मानव मन की सुंदरतम एवं श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति है। साहित्य में बाल मानस की संवेदनाएं, मर्म के साथ ही बहुत गहरा प्रभाव लिए होता है। बच्चों की अपनी एक विशिष्ठ दुनियां होती है जिसमें लय, ताल, सुर के साथ औत्सुक्य का भाव, प्रश्नाकुलता, विस्मय, कल्पना, जिज्ञासा, समसामयिक परिवेश, उनके समस्याएं और उत्तर भी होते हैं। साहित्य, मानव संस्कृति की जीवन यात्रा का साक्षी और सहचर भी है। बाल साहित्य सृजन के मानसिक स्तर के अनुरूप सृजित होता है जिसमें चंचलता, चपलता, सरसता और समरसता का समन्वय होता है।
बाल साहित्य सृजन की परंपरा अत्यंत प्राचीन रही है। बाल साहित्य में पंचतंत्र की कहानियां, हितोपदेश, कथा सरितसागर, तेनालीरामन, बेताल पचीसी, अकबर बीरबल आदि प्रमुख हैं। पंचतंत्र की कथाओं में पशु-पक्षियों, जंगली जानवरों को प्रमुख पात्र बनाकर बच्चों को शिक्षाप्रद प्रेरणा दी गई है। साहित्य समाज का प्रतिरूप है। जिस देश का साहित्य उन्नत होता है वह देश स्वतः विकसित होता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य को जनता की संचित चितवृत्ति का प्रतिबिंब माना है। भक्तिकाल में महाकवि सूरदास के वात्सल्य वर्णन में बाल मनोविज्ञान के विविध दृश्य को प्रस्तुत करते हैं।
रूडयार्ड किपलिंग की प्रसिद्ध बालकृति जंगल बुक्स का प्रसिद्ध पात्र ‘मोगली’ को हर कोई जानता है। आर के नारायण कृत ‘मालगुडी डेज’ ने भी बालकों के बीच बहुत लोकप्रिय है जिस पर बनाई गई धारावाहिक भी उतना ही पसंद किया गया। बाल साहित्य की शक्ति और लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश की किसी भी प्रांत के हिंदी भाषी को निम्नलिखित पंक्तियां याद होगी। “मछली जल की रानी है…………अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो……., अस्सी नब्बे पूरे सौ……, लल्ला लल्ला लोरी दूध में कटोरी……, हाथी घोड़ा पालकी जय कन्हैया लाल की……..।”
कहानी बच्चों की सर्वाधिक प्रिय और प्राचीन विधा है। मानव ने जब से भाषा द्वारा अपने भाव व्यक्त करने की क्षमता विकसित की होगी तभी से कहानी सुनाने और सुनने की कला अस्तित्व ने आई। आदिम युग में मानव ने आत्मरक्षा की घटना को कल्पना में पिरोकर अपने हित जन को सुनाया होगा। भय, कौतूहल, अतिरंजना के कारण ये छोटी सी घटना ने कौतूहल पैदा किया होगा। एक ने दूसरे को अनुक्रम में वर्णन कर इसे दूर दूर तक प्रसारित किया। इन कहानी से बच्चों की कल्पनाशक्ति ने अपना आकार लेना शुरू किया। शब्द ने मानस पर जो बिम्ब चित्रित किए वो बाद में गुफा चित्र, शैलचित्र, पटचित्र पर देखे जा सकते हैं। यही से कॉमिक्स की अवधारणा को संबलता मिली जो बाद ने अनुक्रमिक कला के रूप में हम सबके सामने विभिन्न रूपों में देख पढ़ रहे हैं। कॉमिक्स या चित्रकथा में भी कहानी और कला का संगम होता है। कड़ियों में पिरोये दृश्य एक दूसरे से बँधकर बढ़ते जाते हैं। थ्री-डी और स्मार्ट डिजिटल ऐप्स के युग में किताबें भी स्मार्ट हो रही हैं और कागजों पर कहानी पढ़ने की बजाय कॉमिक्स या चित्रकथा को पढ़ना कई गुना मजेदार है।
निष्कर्ष : आज वैश्विक परिदृश्य पर अनेक परिवर्तन हुए हैं। प्रतिस्पर्धा ने बचपन को लिल लिया है। बाल गीत, बाल कथा, लोरी और सोहर का स्थान इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने ले लिया है। छोटे बच्चों पर बस्तों के बोझ के साथ हर क्षेत्र में अव्वल आने की दबाव ने ट्यूशन संस्कृति को बढ़ावा दिया है जिससे स्वाध्याय बहुत पीछे छूट गया। इस प्रकार बच्चों में रचनात्मक क्रिया को आवेग देने वाली गति भी समाप्त होती जा रही। बच्चे राष्ट्र के भविष्य हैं और बाल साहित्य राष्ट्र की बहुमूल्य संपत्ति है। यह एक उच्च कोटि का सृजन कार्य है जिसके लिए असाधारण प्रतिभा की आवश्यकता होती है। हार्वे डार्टन ने अपनी किताब 'चिल्ड्रेस 'बुक्स इन इंगलैंड' में बच्चों की पुस्तकों के सम्बन्ध में कहा है कि बाल साहित्य से मेरा अभिप्राय उन प्रकाशनों से है जिनका उद्देश्य बच्चों को सहजता से आनन्द देना है न कि उन्हें शिक्षा देना अथवा सुधारना और न ही शांत बनाए रखना। हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा ने भी कहा है कि मैं समझती हूँ कि उत्कृष्ट साहित्य की जो परिभाषा है, बाल साहित्य की परिभाषा उससे भिन्न नहीं होती क्योंकि मनुष्य की पूरी पीढ़ी बनाने का कार्य वह करती है। यह बालकों की रूचि और समझ के अनुकूल लिखा जाता रहा है, जिससे बालकों का उत्साह तथा जिज्ञासा बनी रहे। तभी वह बालकों के मन और बुद्धि के विकास में भी सहायक होगा।
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राजीव रंजन
बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक : दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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