हिंदी सिनेमा की यात्रा : कल और आज
(बीसवीं शताब्दी के विशेष सन्दर्भ में)
- सुनील कुमार

भारत में पहली बार लुमियर बंधुओं ने 7 जुलाई, 1896 को मुंबई के ’वाटसन होटल’ में अपनी फिल्मों का शो किया। इस शो में 'मैजिक लैंप'(चलचित्र)दिखाया गया। जो छः छोटे-छोटे चलचित्रों का एक संग्रह था। इस संग्रह में 'एंट्री ऑफ सिनेमाग्राफ', एडिमोलेशन', 'अराइवल ऑफ द ट्रेन', 'द सी वर्थ', ’लिविंग द फैक्ट्री’ तथा ’सोल्जर्स ऑफ़ ह्वील्स’ के चलचित्र शामिल थे।’मैजिक लैंप' देखने का टिकट दर एक रुपया निर्धारित किया गया था। इसी संग्रह(मैजिक लैंप)को 1897 में कोलकाता में भी प्रदर्शित किया गया। इस नवीनतम आविष्कार ने यहां के लोगों को भी प्रभावित किया। इनके प्रदर्शन से प्रभावित होकर कुछ भारतीयों ने इस दिशा में काम करना शुरू किया। महाराष्ट्र के एक फोटोग्राफर हरिश्चंद्र सखाराम भाटवाडेकर उर्फ सवेदादा ने एक कैमरा खरीदा और अपने आस - पास के दृश्यों को उसमें कैद करने लगे। उन्होंने अपने एक अंग्रेज मित्र के सहयोग से मुंबई के ’हैंगिंग गार्डन’ में एक कुश्ती प्रतियोगिता को कैमरे में कैद किया और उसे दिखाया। यहीं से भारत में चलचित्रों की शुरुआत हुई। अपने प्रारंभिक प्रयास के संदर्भ में साप्ताहिक फिल्म पत्रिका ’स्क्रीन’ में सबेदादा ने बताया है कि “लुमियर बंधुओं की फिल्मों से वे इतने प्रभावित हुए कि लंदन से 21 गिन्नी में एक कैमरा मंगवाया और सन 1897 में पहला लघुचित्र बनाया। इस चलचित्र में तत्कालीन दो प्रसिद्ध पहलवानों पुंडलिक दादा और कृष्ण नहाबी के कुश्ती के दृश्य थे। तत्पश्चात बंदर के तमाशे पर एक लघुचित्र बनाया।”1 सवेदादा ने 1901 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय, लंदन में एक भारतीय छात्र आर.पी.परांजपे को गणित की परीक्षा में सबसे अधिक अंक हासिल हुए थे, उसके भारत आगमन पर सवेदादा ने उसे कैमरे में कैद कर एक लघु चलचित्र बनाया। मान्यता है कि यह भारत का पहला वृत्तचित्र है। 1903 में सवेदादा ने अपने अमेरिकी मित्र बागोग्राफ की मदद से एक और चलचित्र बनाया, जिसका नाम उन्होंने ’दिल्ली दरबार ऑफ कर्जन' रखा था।
भारतीय फिल्म इतिहास में सवेदादा की तरह हीरालाल सेन (1866-1917)भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। ये मूलतः छायाकर थे लेकिन फिल्म निर्माण के जुनून ने इन्हें ऐसा उद्वेलित किया कि कोलकाता में सन 1898 में ’रॉयल बाइस्कोप कंपनी’ बनाई तथा चलचित्रों का प्रदर्शन आरंभ किया। सेन के संदर्भ में बासु भट्टाचार्य ने लिखा है कि “सन 1900 में फ्रांस की पाथे कंपनी के कुछ कैमरामैन कोलकाता पहुंचे। सेन ने उनसे कैमरे के बारे में जानकारी हासिल की और एक कैमरा स्वयं खरीदने का प्रयत्न किया। इस प्रयास में असफल होकर सेन ने स्वयं कैमरा बना डाला। इस स्वनिर्मित कैमरे से सेन ने कई शॉट लिए।"2 सेन इस कैमरे से राजाओं, महाराजाओं तथा उनके आलीशान महलों के चित्र उतारते थे। अपने छायाचित्रों के छायांकन के माध्यम से अनेक अखिल भारतीय प्रतियोगिताओं तथा प्रदर्शनियों में पुरस्कृत एवं सम्मानित हो चुके थे। उन्होंने 1901 से 1905 तक नाट्यकार अमर दत्त के लगभग 12 नाटकों का फिल्मांकन किया। सेन भारत के प्रथम विज्ञापन चित्रकार एवं राजनीतिक फिल्मकार के रूप में भी चिह्नित किए गए। 22 सितंबर 1905 को कोलकाता के टाउन हॉल में ’स्वदेशी आंदोलन’ नामक चलचित्र का प्रदर्शन किया। इसे फिल्म इतिहासकार भारत का प्रथम राजनीतिक चलचित्र मानते हैं। इसमें स्वदेशी आंदोलन से जुड़े कुछ पुरोधाओं की तस्वीर थी।कालांतर में इन्होंने कई फिल्में बनाई जिसमें 'अलीबाबा और चालीस चोर' प्रमुख है। उस समय के तकनीकी विकास की दृष्टी से ये सभी तकनीकी आधारिक आधुनिक फ़िल्में समझी गयी।
सवेदादा तथा हीरालाल सेन के अतिरिक्त शुरुआती चलचित्र बनाने वालों में मुंबई के थानावाला, प्रो.एंडर्सन, कोलकाता के. प्रो.स्टीवेंसन तथा जमशेद जी मदन एक अहम नाम है। इन सभी ने 1897 से 1912 के बीच कई लघु चलचित्र बनाएं। सदी के प्रारंभिक वर्षों में सिनेमा बनाने से ज्यादा इसके प्रदर्शन का फैलाव हुआ। उन दिनों सिनेमा घरों का अभाव था। देश में टूरिस्ट सिमेमा की शुरुवात सुरत के अब्दुल यूसुफ अली नें किया। भ्रमणशील चलचित्र प्रदर्शकों ने कई छोटे वाहन एवं बैल गाड़ियों से भ्रमणशील चलचित्र प्रदर्शकों ने एक जगह से दूसरी जगह घूम–घूमकर, तंबू गाड़कर, चलचित्र दिखाकर जनमानस में सिनेमा को जनप्रिय बनाया। बाइस्कोप कंपनी की बाढ़- सी आ गई। इन सब प्रदर्शकों में सिर्फ अब्दुल अली यूसुफ तथा जे.एफ.मदन ही अंत तक टिके रहे और घूम-घूमकर चलचित्र दिखाए। जे.एफ.मदन ने भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखी।ये पारसी शैली के मदन थिएटर के मालिक के साथ-साथ बहुत बड़े व्यवसायी भी थे। मदन जी प्रथम भारतीय हैं जिन्होंने 1902 में कोलकाता के खुले मैदान में टेंट लगाकर बाइस्कोप दिखाना शुरू किया। इस नए माध्यम में जनता की रुचि देखकर इन्होंने भारत का पहला स्थायी सिनेमा हॉल 1907 में ’एलिफिस्टन पिक्चर पैलेस ‘कोलकाता में बनवाया जो अब ’चैपलिन’ के नाम से जाना जाता है।वे धीरे-धीरे विदेशी फिल्मों के वितरक हो गए तथा संपूर्ण भारत, वर्मा, श्रीलंका में फिल्म प्रदर्शन करने लगे। कालांतर में मदन थियेटर के बैनर तले उन्होंने ‘दीर्घ मंगल’, ‘महाभारत’, ’जय माँ जगदम्बे’, ‘नल दमयंती’ आदि अनेक फ़िल्में बनाई। सन 1918 तक उनके सौ से अधिक सिनेमा हॉल भारत, वर्मा एवं श्रीलंका तक स्थापित हो गए।
देश के प्रसिद्ध छायाकार सवेदादा और हीरालाल सेन लुमियर भाइयों की यथार्थवादी छायांकन कला तक ही सीमित रहे। इनके चलचित्र किसी घटना के पुनर्प्रस्तुतीकरण मात्र थे। अतः भारत में अभी भी कल्पनाशील एवं और मौलिक सिनेमा के पदार्पण का इंतजार था। इस तरह कथा फिल्म की शुरुआत 18 मई, 1912 में रामचंद्र गोपाल तोरणे(दादा साहेब तोरणे)की ’पुंडलिक’ फिल्म से हुई। यह फिल्म मुंबई की ’कोरोनेशन थियेटर’ में रिलीज हुई तथा इसे अधिक से अधिक लोगों ने देखा, इसके लिए 25 मई, 1912 को ’द टाइम्स ऑफ इंडिया’ समाचार पत्र में विज्ञापन प्रकाशित कर जनता से अपील भी की गई थी। भारत में यह पहली फिल्म थी जिसका विज्ञापन किसी अखबार में आया था। लेकिन विशेषज्ञों ने इसे प्रथम भारतीय फीचर फिल्म मानने से इनकार कर दिया, क्योंकि इसके कैमरामैन एवं अन्य टेक्नीशियन विदेशी थे तथा इसकी प्रोसेसिंग भी लंदन में हुई थी। इस तरह हम देखते हैं कि दादा साहब फाल्के के सिनेमा क्षेत्र में आने से पहले फिल्म निर्माण का वातावरण बन चुका था।
भारतीय फ़िल्म जगत में कथा फिल्म बनाने का वास्तविक श्रेय ढुंढीराज गोविंद फाल्के यानी दादा साहब फाल्के (1870 – 1944) को जाता है। पौराणिक कथा चरित्र’राजा हरिश्चंद्र’ के नाम पर दादा साहब फाल्के ने भारत की प्रथम फीचर फिल्म बनाई।जिसका सार्वजनिक प्रदर्शन 3 मई 1913 को मुंबई के ’कोरोनेशन थियेटर’ में हुआ था। यह मूक फिल्म, विधिवत एक कहानी के आधार पर पटकथा चलन एवं निर्देशन के अनुसार कलाकारों द्वारा अभिनव पर आधारित थी।इस फिल्म की शूटिंग, प्रिंटिंग, प्रोसेसिंग सभी विशुद्ध रूप से भारत में ही हुई थी। यही कारण है कि दादा साहब फाल्के को भारतीय फिल्मों का जन्मदाता माना जाता है और यही से भारतीय सिनेमा का सूत्रपात होता है। उन्होंने लगभग सौ से अधिक कथा फिल्मों का निर्माण किया। दादा साहब फाल्के को राजा हरिश्चंद्र फिल्म बनाने की प्रेरणा अंग्रेजी फिल्म ’लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ से मिली थी।इस फिल्म को उन्होंने क्रिसमस के अवसर पर मुंबई के अमरीका–इंडिया पिक्चर पैलेस में देखा था और वे अभिभूत हो गए थे। उन्होंने इस फिल्म के बारे में लिखा था कि “जब क्राइस्ट के जीवन-दृश्य मेरी आंखों के सामने से गुजर रहे थे तो हिंदी देवी देवताओं में श्री राम, श्री कृष्ण के जीवन चरित्र, अयोध्या और गोकुल नगरी के दृश्य मेरे मन की आंखों के सामने से गुजर गये।मेरे मन में उथल-पुथल मच गयी।मेरे मन में आया कि क्या हम भारत की संताने कभी परदे पर इन चरित्रों और दृश्यों को देख सकेंगे ? सारी रात इसी उधेड़बुन व कशमकश बीती।”3 इस फिल्म को देखने के बाद दादा साहब के मन में फिल्म बनाने का विचार आया। इस दिशा में उन्होंने सोचना प्रारंभ कर दिया। इस दौरान वे किन मनः स्थितियों से गुजरे, किन संघर्षों और चुनौतियों का सामना किया।उसके बारे में नवयुग में प्रकाशित ’मेरी कहानी मेरी जुबानी’ में लिखा है कि “इसके बाद लगातार दो महीने तक यह हाल रहा कि जब तक मैं मुंबई के सिनेमा घरों में चलने वाली सभी फिल्में देख नहीं लेता, चैन नहीं आता।इस काल में देखी हुई हर फिल्म के विश्लेषण और उन्हें यहां बनाने की संभावनाओं पर सोच–विचार में लगा रहता। इस व्यवसाय की उपयोगिता और उद्योग के महत्व के बारे में कोई शंका नहीं थी। लेकिन यह सब कुछ कैसे संभव हो पाएगा ? भाग्यबस मैं इसे कोई समस्या नहीं मानता था। मुझे विश्वास था कि परमात्मा की दया से निश्चय ही सफलता मिलेगी। फिल्म निर्माण के लिए आवश्यक मूल शिल्प कलाओं– ड्राइंग, पेंटिंग, आर्किटेक्चर, फोटोग्राफी थिएटर और मैजिक की भी जानकारी मुझे थी। इन कलाओं मे प्रवीणता के लिए मैं स्वर्ण और रजत पदक भी जीत चुका था। फिल्म निर्माण में सफलता की मेरी आशा को इन कलाओं में मूलभूत प्रशिक्षण ही बलवती बना रहा था।”4
लेकिन सभी परिस्थितियां फाल्के साहब के विरुद्ध थीं।वे चालीस वर्ष के थे तथा आमदनी का कोई स्थाई स्रोत नहीं था। इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए धीरे-धीरे उन्होंने घर की जरूरी चीजों को बेचकर पैसे जुटाना शुरू कर दिया। उन्होंने लिखा है कि “मित्रों ने मुझे पागल करार दिया। एक ने तो मुझे थाना के पागलखाने पहुंचने तक की योजना बना ली थी। विलायत से कैटलाग्स, किताबें, कुछ जरूरी चीजें आदि मंगवाकर लगातार प्रयोग करने में छः महीने बीत गए। इस काल में मैं शायद ही किसी दिन तीन घंटे से ज्यादा सो पाया हूं।रोज शाम को चार-पांच घंटे सिनेमा देखना और शेष समय में मानसिक– विचार और प्रयोग, विशेषत: परिवार के लालन–पालन की जिम्मेदारी के साथ-साथ रिश्तेदारों द्वारा व्यंग–तिरस्कार, असफलता का भय आदि के कारण मेरी दोनों आंखें सूज गई थी। मैं बिल्कुल अंधा हो गया था। लेकिन डॉक्टर प्रभाकर के सामयिक उपचार के कारण मेरा दृश्य–जगत मुझे वापस मिल गया। वाकई, आशा बड़ी चमत्कारी होती है”5 फिल्म बनाने के लिए उनके दोस्त नाडकर्णी ने उन्हें कुछ रुपए उधार दिए। शेष उन्होंने अपनी बीमा पॉलिसी गिरवी रखकर दस हजार रुपये की व्यवस्था की, वे अपने संस्मरण में लिखते हैं कि" मैं किताबें पढ़ता और सूचियों और कैटलाग्स में फिल्मी उपकरणों की कीमतें देखता रहता था"6 1 फ़रवरी, 1912 में वे फिल्म निर्माण की तकनीकी जानकारी हासिल करने के लिए लंदन चले गए। वहां उन्होंने फिल्मी उपकरण खरीदे। स्वदेश आकर ’फाल्के फिल्म्स’ के बैनर तले वे ’राजा हरिश्चंद्र’ के निर्माण में लग गए। वे इसके निर्माता, निर्देशक, लेखक के साथ-साथ इसके पटकथाकार, संपादक और कैमरामैन सभी कुछ थे। दादा साहब ने अपने व्यवसाय प्रेम और हिंदुस्तान में सिनेमा कला की स्थापना करके रहूंगा ,इस आत्मविश्वास के साथ इस विशाल व्यवसाय की नींव रखी।
सिनेमा के प्रति दादा साहब के आकर्षण और फिल्म बनाने की उनकी श्रमसाध्य कोशिशों के प्रति मराठी फिल्मकार परेश मोकाशी की 2008 में प्रदर्शित फिल्म ’हरिश्चंद्राची फैक्ट्री’ में बड़ा ही जीवन चित्रण किया गया है।जिसके बारे में सुधीर सुमन ने लिखा है कि “फाल्के साहब को फोटोग्राफी का शौक था। फोटोग्राफर की हैसियत से उन्होंने पुरातत्व विभाग में काम भी किया, फिर प्रिंटिंग प्रेस से जुड़े। जादू दिखाने का काम किया।उसी दौरान उन्होंने चलती– फिरती तस्वीरों का जादू देखा और फिर कैसे उन्होंने सिनेमा की तकनीक का ज्ञान हासिल किया ’द लाइफ ऑफ़ क्राइस्ट’ फिल्म देखकर किस तरह उन्होंने उस तरह की फिल्म बनाने के बारे में सोचा और कैसे लंदन गए तथा एक विलियम्सन कैमरा और कुछ अन्य यंत्रों के साथ अपने देश में फिल्म बनाने का सपना लेकर वापस लौटे। कितनी चुनौतियों का सामना करते हुए पहली फिल्म बनाई।”7 दादा साहब के संघर्ष को हरिश्चंद्राची फैक्ट्री बखूबी दिखाती है। फाल्के साहब रामायण या महाभारत को आधार बनाकर फिल्म बनाना चाहते थे, लेकिन उन्हें जल्दी ही इस बात का आभास हो गया कि सीमित साधनों में वो इन विषयों के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे। इसीलिए उन्होंने पौराणिक कथा को आधार मानकर राजा हरिश्चंद्र के जीवन चरित्र को चुना। राजा राम की कहानी रामलीला द्वारा हजारों वर्षों से भारत के गांव-गांव में पेश की जाती रही है। इसी प्रकार राजा हरिश्चंद्र पर आधारित नाटक भी इस देश में अत्यंत लोकप्रिय था। गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में इस नाटक का वर्णन किया है और लिखा है कि ‘इस नाटक ने मेरे बाल मन पर बहुत असर डाला था।’ फाल्के साहब ने पटकथा लेखन करते हुए उसके निर्माण के लिए पैसे जुटाने में भी लग गए। पर पैसे लगाने को कोई तैयार नहीं हुआ। फाल्के साहब ने हिम्मत हारने के बजाय इस बीच एक लघु फिल्म ‘मटर के पौधे का विकास’ का निर्माण किया। यह उनका पैसे जुटाने का नया तरीका था। वह इस लघु फिल्म को दिखाकर लोगों को विश्वास दिलाते कि हमारी योजना कितनी दूरगामी है। उनका यह प्रयोग वास्तव में सफल रहा। एक सज्जन मिले जो उन्हें आर्थिक मदद करने के लिए तैयार हुए। पैसों की समस्या हल होते ही पत्रों की चयन प्रक्रिया की बारी आई। मुख्य पात्र राजा हरिश्चंद्र की भूमिका के लिए दत्तात्रेय दबे तो आसानी से उपलब्ध थे, परंतु उनकी अर्धांगिनी रानी तारामती की भूमिका के लिए उन्हें अब तक कोई कलाकार नहीं मिला था। फाल्के साहब चाहते थे कि इस भूमिका को कोई महिला कलाकार ही करें। धार्मिक मिथकीय कथा होने के बावजूद भी फालके साहब रानी तारामती की भूमिका निभाने वाली महिला कलाकार को खोजने में विफल रहे। यहां तक की जो स्त्रियां नाचने–गाने का काम करती थी और आम समाज से बहिष्कृत सी थी उन्होंने भी सिनेमा में काम करने से इनकार कर दिया। खुद तवायफों का समाज इसके लिए तैयार नहीं था। नायिका के लिए विज्ञापन देने के बावजूद उन्हें ढंग के कलाकार नहीं मिले। अंत में उन्होंने निर्णय लिया कि किसी पुरुष से ही इस पात्र की भूमिका करवानी होगी। तलाश शुरू हुई की वह पुरुष भी कौन होगा ? काफी तलाश के बाद उन्हें एक पुरुष नायिका मिली। उसका नाम ए.सालुंके था। वह एक होटल में बावर्ची था। पहले तो उसने भी मना कर दिया लेकिन बहुत कहने-सुनने पर मान गया। पूर्वाभ्यास के बाद जब शूटिंग का समय आया तो फाल्के ने कहा “सुनो कल से शूटिंग होनी है, तुम अपनी मूछें साफ कराकर आना।”8 यह सुनते ही रसोइया चौंक गया और जवाब में कहा–“साहब यह मैं नहीं कर सकता मूछें तो मर्द मराठा की शान है”9 रसोइया की बातें सुनकर फाल्के एकबारगी घबरा गए, परंतु अगले ही क्षण सहजता से उसे समझाया कि “रानी तारामती एक औरत है, भला औरत की मूछों वाली होती है क्या? शूटिंग समाप्त होते ही वापस मूछें रख लेना।”10 आखिरकार रसोइया मान गया। वह रसोइया भारत की पहली फीचर फिल्म का दर्जा हासिल करने वाली फिल्म की पहली अभिनेत्री बना जिसने तारामती का रोल किया। आखिरकार इस फिल्म में एक पुरुष कलाकार को ही स्त्री की भूमिका निभानी पड़ी। राजा के बेटे रोहिताश की भूमिका खुद दादा साहब फाल्के के बेटे ने की। दादा साहब फाल्के ने दादर(मुम्बई)मेन रोड पर अपना फिल्म स्टूडियो बनाया और वहीँ पर अपनी पहली फिल्म का फिल्मांकन किया।इस फिल्म को बनाने में 8 महीने लगे। इसकी लंबाई 3700 फुट थी। बाद में दादा साहब ने स्टूडियो को नासिक में स्थापित किया। वहीं पर ’मोहिनी भस्मासुर’ (1913) और ’सावित्री सत्यवान’ (1914) का निर्माण किया।सन् 1914 में अपनी तीनों फिल्मों को लेकर लंदन गए। वहां पर इन फिल्मों की काफी प्रशंसा हुई। लंदन के ’बाइस्कोप एंड सीनेमेटोग्राफ वीकली’ ने लिखा–“टेक्नीक की दृष्टि से दादा साहब की ये फिल्में बेजोड़ हैं। इनमें वर्जित जीवन का सूक्ष्म अध्ययन आश्चर्यजनक और इस मामले में सत्य हरिश्चंद्र दुनिया भर में अब तक बनी फिल्मों में सर्वोपरि रखी जा सकती है”11 फाल्के की फिल्म जब लंदन में प्रदर्शित हुई तो फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों ने लंदन में रहकर फिल्म बनाने का प्रस्ताव रखा, जिसे देशभक्त दादा ने अस्वीकार कर दिया। सन 1917 में अपने ससुर तथा कुछ अन्य व्यक्तियों की सहायता से दो फिल्में–‘राजा हरिश्चंद्र’का नया संस्करण तथा ‘लंका दहन’ बनाई। 1918 में ‘कृष्णजन्म’, 1923 में ‘महानंदा’, ‘कालिया मर्दन‘, 1932 में अपनी अंतिम फिल्म ‘सेतुबंध’ बनाई।कृष्णजन्म फिल्म से फाल्के ने अपनी बरसों की पूर्व कल्पना को साकारा किया और लंका दहन काफी सफल रही। फाल्के साहब नें अपनी लगभग सभी फिल्मों के विषय पौराणिक कथाओं से लिए उनके द्वारा निर्देशित एक मात्र सवाक फिल्म ‘गंगा अवतरण’ (1937) की विषय वास्तु भी पौराणिक ही थी। वे अपने जीवन काल में लगभग 20 वर्षों तक फिल्म निर्माण में सक्रिय रहे। उन्होंने 175 छोटी-बड़ी फिल्मों का निर्माण किया और इस तरह एक बड़े उद्योग को जन्म दिया।फाल्के के अंतिम दिन बहुत दुखदाई थे।आर्थिक अभावों के चलते उन्होंने अपनी कार्यस्थली नासिक में 16 फरवरी 1944 को दम तोड़ दिया।
पहला चरण(1896- 1930) मूक सिनेमा का दौर -
भारत में फिल्मों की विकास यात्रा देखें तो इसका पहला चरण सन् 1896से 1930तक है। यह मूक सिनेमा का समय है। छोटी-छोटी प्रारंभिक गतिविधियों को छोड़ दें तो मूक फिल्मों के निर्माता दादा साहब फाल्के को भारतीय सिनेमा का जनक कहा जाता है। सन् 1913 से लेकर 1930 तक सिनेमा में आवाज का इस्तेमाल करने की तकनीक का आविष्कार नहीं हुआ था। इसलिए सभी फिल्में मूक होती थी।मूक फिल्मों के इस दौर में ज्यादातर फिल्में पौराणिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित थी। जिनका मुख्य विषय भक्ति एवं नीति का था। पौराणिक और धार्मिक कहानी चुनने की एक वजह यह भी थी कि उस समय पश्चिम से आयातित फिल्में जिन्हें भारतीय सिनेमा घरों में दिखाया जाता था।उनकी तुलना में भारतीय फिल्मों को सफल होने के लिए यह सबसे आसान रास्ता नजर आता था।भारत जैसे देश में जहां नाटक और फिल्म देखना अच्छा नहीं समझा जाता था, धार्मिक और पौराणिक फिल्मों के माध्यम से दर्शकों को सिनेमाघर तक आसानी से खींचा जा सकता था। शुरुआती मूक फिल्मों में स्त्री चरित्र भी पुरुषों द्वारा निभाए जाते थे। जहां तक महिला कलाकारों की बात है तो पहली फिल्म में विफल रहने के बावजूद फाल्के साहब ने हर नहीं मानी ‘मोहिनी भस्मासुर’ फिल्म की भूमिका के लिए उन्होंने आखिरकार एक तवायफ कमलाबाई गोखले को तैयार किया। उसे फिल्म की जबरदस्त लोकप्रियता ने नृत्य-गायन के पेशे में लगी दूसरी स्त्रियों को भी सिनेमा की ओर आकर्षित किया और धीरे-धीरे स्त्रियों ने भी फिल्मों में काम करना शुरू किया और उनमें से कुछ अभिनेत्रियों (जुबैदा, गौहरबाई, जद्दनबाई, सरदार अख्तर) ने काफी प्रसिद्ध भी अर्जित की।इस दौर की महत्वपूर्ण फिल्में ’सत्यवान–सावित्री’ (1914)लंका दहन(1917) ध्रुव चरित्र, जगत जननी 1921 अहिरावण, भीष्म प्रतिज्ञा (1922) शिवाजी (1923) डंकी बहादुर(1924) चंद्रकांता और अहिल्याबाई, चर्खा (1925) आशा, भगत प्रहलाद (1926) चंडीदास, द्रोपदी, वस्त्र अपहरण, दुर्गेश नंदिनी(1927) भगत रामजी, देवकन्या, चंद्रावली(1928) अरुणोदय, हनुमान विजय(1930) आदि फिल्में बहुत लोकप्रिय हुई।1924 में भक्त विदुर के नाम पर एक फिल्म बनी जिसमें अंग्रेजों के ऊपर व्यंग्य किया गया था। इसमें अंग्रेजों को ’डंकी बहादुर’ नाम से संबोधित किया फलस्वरुप अंग्रेजों ने इस फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया।उन दिनों एक फिल्म बनाने में दस से पन्द्रह हजार रुपए खर्च होते थे लेकिन इतने रुपयों का इंतजाम करना आसान काम नहीं था। स्वयं दादा साहब फाल्के ने अन्य भागीदारों की सहायता से 1918 में ’हिंदुस्तान फिल्म्स’ के नाम से एक कंपनी की स्थापना की थी। इस तरह फिल्म बनाने और उसके प्रदर्शन के लिए कई अन्य कंपनियां स्थापित हुई, जिनमें से मुख्य रूप से(मदान थियटर्स जे.ऍफ़ मदन की मदान थियटर्स, बाबूराम पेंटकर महाराष्ट्र फिल्म कंपनी (1917), द्वारकादास एन . संपत की कोहिनूर फिल्म कंपनी, आर्देशिर ईरानी की इम्पीरियल फिल्म कंपनी तथा ओरिएंटल फिल्म कंपनी आदि स्थापित हुई, जिन्होंने उस दौर की कुछ महत्वपूर्ण और लोकप्रिय फिल्मों का निर्माण किया।इतना ही नहीं इन फिल्म कंपनियों ने सिनेमा को कई बड़े फिल्मकार और कलाकार भी दिए।
भारतीय सिनेमा के इतिहास में फाल्के के सहयोगी बाबूराव पेंटर के योगदान को भी बुलाया नहीं जा सकता।फिल्म शो व्यवसाय से फिल्म निर्माण में कदम रखने वाले बाबूराव ने दिसंबर 1917 को ‘महाराष्ट्र फिल्म कंपनी’ की स्थापना की और ‘सैरेंध्री’(1919)नामक फिल्म बनाई जो काफी सारी गई। इस फिल्म के लिए उन्हें बेहतर फिल्मकार घोषित किया गया। सन 1920 में दूसरी फिल्म ‘सिंहगढ़’बनाई।इस फिल्म की पृष्ठभूमि में शिवजी के शासन का स्वर्णिम प्रसंग था।वे फाल्के की तरह ही गंभीर, रचनात्मक और अन्वेषी फिल्मकार थे। मूक फिल्मों के युग में ‘कोहिनूर फिल्म’ का उल्लेखनीय योगदान रहा है।इस कंपनी की स्थापना द्वारकादास एन.संपत ने की थी। इस कंपनी की बैनर तले 98 फीचर फिल्मों का निर्माण किया गया।‘विक्रम उर्वशी’(1920) तथा ‘सती अनुसुइया’(1921) उनकी बहुचर्चित फ़िल्म थी। इस दौर में सामाजिक विषयों पर फिल्मों का निर्माण बहुत कम हुआ। 1924 में बनी फिल्म ‘बीसवीं सदी’ में मुंबई के पूंजीपति वर्ग की आलोचना की गई थी।1925 में बनी बाबूराव पेंटर की मूक फिल्म ‘सावकारी पाश’ किसानों की ऋण समस्या पर आधारित थी। सूदखोरो और जमीदारों का किसानों के प्रति अत्याचार और शोषण पूर्ण रवैया आलोचना की गई थी। इस फिल्म में उन्होंने वी.शांताराम को किसान की भूमिका दी थी। जिन्होंने आगे चलकर वी.जी.दामले, के.आर.धायबर, एम.फतेलाल और एस.बी.कुलकर्णी के साथ मिलकर 1 जून 1929 में कोल्हापुर में ‘प्रभात फिल्म कंपनी’का गठन किया गया। प्रभात फिल्म द्वारा कई मूक फिल्मों का निर्माण किया था। जैसे–गोपाल कृष्ण, खूनी खंजर, उदयकाल, साहिबा चंद्रसेना जुल्म, रानी साहिबा, चंद्रसेना आदि हैं। ये सभी वी.शांताराम द्वारा निर्देशित फिल्में थी जो बॉक्स ऑफिस पर काफी सफल रहीं। इन फिल्म कंपनियों ने 1913 से 1931 के दौरान लगभग 1200 फिल्मों और आठ धारावाहिकों का निर्माण किया। मूक फिल्में 1934 तक बनती रही।इसके बाद इनका बनना लगभग समाप्त हो गया।
दूसरा चरण (1931–1950) सवाक् फिल्मों का दौर -
बीसवीं सदी के चौथे दशक के आरंभ में यानी 1931 में भारतीय सिनेमा में एक नए युग का सूत्रपात हुआ।मूक फिल्मों की ओर से लोगों का रुझान धीरे-धीरे कम होने लगा।अब जनता कुछ नया चाहती थी। और वो था भारत की पहली सवाक् फिल्म ’आलमआरा' का प्रदर्शन। इसके निर्माता निर्देशक थे खान बहादुर अर्दिशर ईरानी जो ‘इंपीरियल फिल्म’ कंपनी के मालिक भी थे। इस फिल्म को मुंबई के ’मैजेस्टिक सिनेमा’ हॉल में 14 मार्च 1931 को प्रदर्शित किया गया था।(उसी साल तमिल की पहली बोलती फिल्म’कालिदास’और तेलुगु की ’भक्त प्रहलाद’ रिलीज हुई) इस फिल्म की कहानी फारसी के लोकप्रिय लेखक जोसेफ डेविड के पारसी नाटक पर आधारित थी। फिल्म की पटकथा भी खुद डेविड ने ही तैयार की थी। इस फिल्म में वे सभी तत्व हैं जो बाद में भारतीय फिल्मों की पहचान बने।पहली बार लोगों ने फिल्मों में संवाद सुने और साथ ही साथ नृत्य और गीतों का भी आनंद लिया। इस तरह से आलमआरा से हिंदी सिनेमा में जो गीत, संगीत और नृत्य की परंपरा शुरू हुई, वह आज तक बरकरार है। शुरू में अभिनेता–अभिनेत्रियां अपने गीत स्वयं गाते थे। यह पहली बोलती फिल्म थी इसलिए इसकी भाषा पर विचार करना आवश्यक है। इस फिल्म में उस भाषा को रखने की जरूरत थी जिसे आम आदमी आसानी से समझ सके।इस प्रथम सावक् फिल्म की भाषा के संदर्भ में स्वयं फिल्म निर्माता आर्देशिर ईरानी ने अपने भाषण में स्पष्टीकरण देते हुए कहा था कि "आलमआरा की भाषा न ठोस उर्दू है और ना खास हिंदी अर्थात दोनों की मिली जुली हिंदुस्तानी भाषा है। वस्तुतः यह हिंदुस्तानी प्रारंभिक हिंदी का एक रूप है।“स्पष्ट है कि यह फिल्म बोलचाल की भाषा में बनी थी जिसे हिंदुस्तानी जवान कहा जाता है और जो हिंदी की संस्कृतनिष्ठाता से और उर्दू के फारसीपन से काफी हद तक मुक्त थी। हिंदी सिनेमा की भाषा इसी हिंदुस्तानी से समृद्ध हुई है।”12
‘आलमआरा’ के प्रदर्शन के बाद भी मूक फ़िल्में बनती रही लेकिन जल्दी ही मूक फिल्मों का युग समाप्त हो गया। फिल्मों में गीत, संगीत और नृत्य प्रधान होते गए। दादा साहब फाल्के ने जिस भावना से फिल्म निर्माण शुरू किया था, उसका सवाक् युग में कोई स्थान न था फिर भी, फाल्के ने अपने जीवनकाल में एकमात्र सवाक् फिल्म 'गंगावतरण' का निर्माण किया था। भारतीय सिनेमा में 1930 के बाद ऐसे फिल्मकारों का आगमन हुआ जिनके लिए फिल्म निर्माण उच्च सामाजिक मकसद से प्रेरित था। इन फिल्मकारों ने सिनेमा निर्माण की मेलोड्रामाई परंपरा का अनुकरण करते हुए भी अपने सामाजिक उद्देश्य को कभी आंखों से ओझल नहीं होने दिया। फिल्मकार राजनीतिक फिल्में भले ही नहीं बना पा रहे थे लेकिन वे सामाजिक प्रश्न फिल्मों के माध्यम से उठाते रहे। न्यू थियेटर की स्थापना 10 फरवरी 1931 को कोलकाता में वीरेन्द्र नाथ सरकार ने की थी। न्यू थियेटर ने 1932 में देवकी बोस के निर्देशन में बांग्ला में ’चंडीदास’ फिल्म बनाई। जिसमें भक्ति आंदोलन के महान कवि चंडीदास के जीवन को आधार बनाया गया था। इस फिल्म के माध्यम से जातिगत उच्च–नीच का सवाल उठाया गया था और इसके दो साल बाद नितिन बोस के निर्देशन में यह फिल्म हिंदी में भी(चंडीदास)बनाई गई। देवकी बोस ने अगले वर्ष(1933)हिंदी और बांग्ला में मीराबाई के जीवन पर फिल्म ’राजरानी मीरा’और आगा हश्र कश्मीरी के नाटक पर आधारित 'यहूदी की लड़की' बनाई। यहूदी की लड़की फिल्म के माध्यम से सांप्रदायिक सद्भावना का संदेश दिया गया था।
1933 प्रभात फिल्म कंपनी तथा बाम्बे टाकिज नें सामाजिक एवं एतिहासिक दृष्टी से अनेक फिल्मों का निर्माण किया, प्रभात फिल्म द्वारा प्रस्तुत पहली सवाक फिल्म अयोध्या का राजा थी। भारतीय सिनेमा का ऐतिहासिक वर्ष था। जब वी.शांताराम ने प्रभात कंपनी के बैनर तले पहली रंगीन फिल्म 'सैरंध्री' का निर्माण किया।इस फिल्म को रंगीन करने का तकनीकी कार्य जर्मनी में कराया गया। फिल्म सफल रही और इसके बाद कंपनी ने ’अमृत मंथन’(1934) फिल्म बनाई,जिसमें धर्म के नाम पर दी जाने वाली पशुओं की बलि का विरोध किया गया था। मोहन भवनानी ने 1934 में ’मजदूर’ फिल्म बनाई जिसमें मजदूरों के अधिकारों का विषय बनाया गया था।इस फिल्म की पटकथा प्रेमचंद ने लिखी थी। इस फिल्म से प्रेमचंद इतने निराश हुए थे कि उन्होंने मुंबई को अलविदा कहना ही उचित समझा। वी.शांताराम ने 1935 में ‘धर्मात्मा’फिल्म बनाई। इस फिल्म का नाम पहले ‘महात्मा’ रखा गया था। बाद में सेंसर बोर्ड की आपत्ति से धर्मात्मा किया गया।यह फिल्म 16 वीं शताब्दी के महान संत एकनाथ के जीवन पर आधारित थी।’बॉम्बे टॉकीज’ की स्थापना 26 फरवरी 1934 को प्रसिद्ध अभिनेता एवं निर्देशक हिमांशु राय द्वारा की गई थी।1936 में बॉम्बे टॉकीज और फ्रेंच ऑस्टन द्वारा निर्देशित ‘अछूत कन्या’ फिल्म का हिंदी सिनेमा में ऐतिहासिक महत्व है।इस फिल्म में एक ब्राम्हण लड़के और एक दलित लड़की की प्रेम कहानी के माध्याम से छुआछूत के अमानवीय कृत्य की भर्त्सना की गई है। यह उस समय आसान बात नहीं थी। यह बीसवीं सदी का पूर्वार्ध था और राष्ट्र इस समस्या से गहराई तक ग्रस्त था।1936 में प्रभात फिल्म्स ने मराठी में ‘संत तुकाराम’ फिल्म बनाई जिसमें ब्राम्हणवादी जाति व्यवस्था की आलोचना की गई थी।हिमांशु राय की मृत्यु के पश्चात उनकी पत्नी देविका रानी,एस.मुखर्जी के सहायता से ‘पुनर्मिलन’(1940) ‘झूला’, ‘नया संसार’ (1941)‘किस्मत’ (1943) आदि फिल्में बनाई। इसमें ‘किस्मत’ सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म साबित हुई जिसने हिंदी सिनेमा के इतिहास में एक नया ट्रेंड स्थापित करने का कार्य किया।
40के दशक में कानून की शक्ति के चलते अधिकतर धार्मिक पौराणिक फिल्में ही बनती थी।लेकिन ’चल चल रे नौजवान चल’ और ’दूर हटो ए दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है’ जैसे गानों की मदद से विद्रोह और विरोध व्यक्त करने के अवसर ढूंढ लिए जाते थे।सोहराब मोदी ने प्रसिद्ध ऐतिहासिक फिल्म ’सिकंदर’ का निर्माण किया जिसका उद्देश्य देश भक्ति का भाव जागृत करना था। प्रगतिशील चेतना के प्रसार के फल स्वरुप देश प्रेम के साथ-साथ पूंजीवाद,सामंतवाद और गरीबों के शोषण जैसे मसले भी फिल्मों में स्थान पाने लगे। महबूब खान की 'रोटी’ विमल राय की बांग्ला फिल्म ’उदय पंथे’ ख्वाजा अहमद अब्बास की ’धरती के लाल' चेतन आनंद की ’नीचा नगर’ जैसी यथार्थवादी फिल्मों ने सिनेमा की उसे नई शक्ति को उजागर किया।
50 के दशक में विमल राय की ’दो बीघा जमीन’ राजकपूर की ’जागते रहो’ महबूब खान की ’मदर इंडिया’ वी.शांताराम की ’दो आंखें बारह हाथ’जैसे फिल्मों ने सिनेमा को समाज के सरोकारों से जोड़ने में अहम भूमिका निभाई।ऐसी फिल्मों को लोकप्रियता के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिली जिससे यह तथ्य सामने आया कि भारतीय जनमानस सार्थक और यथार्थ सिनेमा देखना चाहता है।गुरु दत्त की ’प्यासा’और ’कागज के फूल’ ने सामाजिक सरोकारों से जुड़ी फिल्मों की कड़ी को और मजबूत बनाया।जिसकी और ख्वाजा अहमद अब्बास ने गांधी जी को लिखे पत्र में इशारा किया था
इन दो दशकों में ऐसे कई फिल्मकार सामने आए जिनके लिए फिल्में महज मनोरंजन का माध्यम नहीं अपितु कला रूप का विकास थी। लंबे समय तक भारतीय भाषाओं की फिल्में आदर्श से उत्प्रेरित होती थी किन्तु धीरे-धीरे यथार्थ की ओर झुकने लगी। इसी दौर में हिंदी सिनेमा से हिंदी और उर्दू के कई महत्वपूर्ण लेखक भी जुड़े थे। उन्होंने फिल्मों के लिए पटकथा संवाद और गीत लिखे थे। जिनमें में प्रमुख रूप से प्रेमचंद,सहादत हसन मंटो,अमृतलाल नागर,नरेंद्र शर्मा आदि प्रमुख हैं।मार्क्सवाद का असर और प्रगतिशील चेतना के उभार के कारण संस्कृति के क्षेत्र में आंदोलनात्मक स्थितियां पैदा हुई जिसके फलस्वरुप फिल्मकारों को प्रगतिशील विषयवस्तु उठाकर फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। इसलिए उन्होंने साहित्यिक कृतियों को भी आधार बनाया। इप्टा का पूरे देश में प्रसार के कारण फिल्मों पर विचारधारा का प्रभाव दिखाई पड़ने लगा। इप्टा के मॅंजे हुए कलाकार फिल्मों में आए थे।वे निर्माता, निर्देशक,अभिनेता और गीतकार के रूप में सक्रिय हुए।उनकी योजनाओं से उल्लेखनीय फिल्में बनी।
इन दो दशकों में हिंदी सिनेमा के इतिहास में कई नए प्रयोग हुए जिसमें से एक को हम पार्श्वगायन के नाम से जानते हैं। पार्श्वगायन जरिए सिनेमा में गीत संगीत की उपस्थिति हुई। हिंदी सिनेमा में संगीतकार के तौर पार्श्वगायन की परंपरा का श्री गणेश करने का श्रेय आर.सी. बोरल को जाता है। वहीं प्रथम पार्श्वगायक होने का श्रेय के.सी.डे को। संगीतकार अनिल विश्वास ने बोराल को भारतीय फ़िल्म जगत में संगीत के भीष्म पितामह की संज्ञा दी थी।आ.सी. बोराल न्यू थियेटर्स के साथ-साथ ऑल इंडिया रेडियो (आकाशवाणी) में भी संगीत के विभाग अध्यक्ष थे।
तीसरा चरण (1950–1960) हिंदी सिनेमा का स्वर्ण युग -
आजादी की पूर्व संध्या तथा आजादी के बाद भारतीय हिंदी सिनेमा ने अपनी स्वर्णिम युग में प्रवेश किया। 1950 और 1960 के बीच स्वतंत्रता आंदोलन एवं विकास के पृष्ठभूमि पर आधारित कई महान और क्लासिक फिल्में बनीं। इसी वजह से1950 और 60 के दशक को भारतीय सिनेमा का स्वर्ण काल कहा जाता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय भावनाओं को लेकर नई फिल्में बनाई गई जिसमें ’बापू की अमर कहानी’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है।इसी तरह भगत सिंह के जीवन एवं स्वतंत्रता संग्राम में उनके संघर्ष पर आधारित फिल्म ’शहीद’ बनाई गई,जिसमें दिलीप कुमार के उत्कृष्ट अभिनव ने भगत सिंह की भूमिका में चार चांद लगा दिया।
इसी दौरान ’मुग़ले-ए-आज़म’ ने लोकप्रियता से शिखर को चूमा। शाहजादा सलीम और बंदी अनारकली की इस प्रेम कथा को देखने के लिए दर्शकों में होड़ लग गई। कहा जाता है सिने प्रेमियों ने कई –कई दिन तक लाइन में लगकर इस फिल्म के टिकट खरीदे। इसी समय हिंदी सिनेमा में एक और चेहरा उभरा जिसका नाम था गुरुदत्त। गुरुदत्त ने ’बाजी’ ’जाल’ और 'आरपार' जैसी फिल्मों से शुरुआत की। मगर ’प्यासा’ को उनकी सबसे यादगार फिल्म माना जाता है।यह एक ऐसी बेरोजगार शायर की कहानी थी जिसके संवेदनाओं की समाज को कोई परवाह नहीं है फिल्म का नायक विजय एक प्रतिभावान शायर है मगर उसका भाई उसकी नज्मों को रद्दी में भेज देता है। प्रकाशक उसका माहौल उड़ता है और उसे क्लर्क की नौकरी करनी पड़ती है। एक हादसे में विजय की मौत की गलत खबर के बाद प्रकाशित उसकी नज्मों की किताब बहुत लोकप्रिय होती है।मगर विजय जब यह कहता कि ये उसकी नज्में हैं तो उसे पागल करार दिया जाता है। प्यासा आजादी के बाद अपने सपने पूरे नहीं होने से हताश भारतीय समाज की कहानी है। इसमें धन और सत्ता के पीछे भागते समाज की असंवेदनशीलता को दिखाने की कोशिश की गई है।
इस दौर की फिल्में नेहरु युग की विचारधारा से प्रभावित थी।अधिकतर फिल्में मेलोड्रामाई शैली में बन रही थी लेकिन इन फिल्मों ने यथार्थवादी कथ्य को कमजोर नहीं किया बल्कि इसे और अधिक से संप्रेषणीय बना दिया था। इस दौर की फिल्में दो तरह के नजरिए पेस कर रही थीं।एक में आजादी के बाद का आशावाद था(दुख भरे दिन बीते रे भइया अब सुख आयो रे,रंग जीवन में नया लायो रे)और दूसरे में स्थितियों की भयावहता के कारण पैदा नैराश्य था।(‘जिन्हें नाज़ है हिंद पर वे कहां हैं’और ‘ये दुनियाअगर मिल भी जाए तो क्या है’) इन दोनों तरह की फिल्मों में मंनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक सवालों को भी फिल्मों की कथा का विषय बना गया था। इन दौर की महत्वपूर्ण फिल्मों में वी.शांताराम की ‘दहेज’,‘दो आंखें बारह हाथ’ ‘डॉ.कोटनीस की अमर कहानी' केदार शर्मा की ‘चित्रलेखा’,‘जोगन’,‘बावरे नैन’ राजकपूर की ‘आवारा’,‘बूट पालिसी’,‘श्री 420’,‘जागते रहो’,‘जिस देश में गंगा बहती है’,‘अब दिल्ली दूर नहीं’ महबूब खान की ‘आन’,‘अमर’,‘मदर इंडिया’ हेमन गुप्ता की ‘आनंद मठ’,‘काबुली वाला’ विजय भट्ट की ‘बैजू बावरा’ अमिय चक्रवर्तीकी‘दाग’,‘पतिता’,‘कठपुतली’,‘सीमा’ कमाल आरोही की ‘दायरा’ विमल रॉय की ‘दो बीघा जमीन’,‘सुजाता’,‘देवदास’,‘यहूदी’,‘परख’,‘मधुमती’,‘बंदिनी’ जिया सरहदी की ‘हमलोग’,‘फुटपाथ’,‘आवाज’ सोहराब मोदी की ‘मिर्जा गालिब’ ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘मुन्ना’,‘शहर और सपना’,‘चार दिल चार राहें’,‘आसमान महल’ राजेंद्र सिंह वेदी/ अमर कुमार की ‘गर्म कोट’ बी.आर. चोपड़ा की‘नया दौर’ गुरुदत्त की ‘साहब बीवी और गुलाम’,‘प्यासा’,‘कागज के फूल’ चेतन आनन्द की ‘अफसर’,‘टैक्सी ड्राइवर’ ऋषिकेश मुखर्जी की ‘अनाड़ी’ यस चोपड़ा की ‘धूल का फूल’ के.आसिफ की ‘मुगले आजम’हैं। इन प्रतिभाशाली फिल्मकारों ने श्रेष्ठ एवं लोकप्रिय फिल्में,कर्णप्रिय संगीत से सजाकर दर्शकों के सामने प्रस्तुत की जिनके कारण यह कालखंड हिंदी सिनेमा का स्वर्ण युग बन गया।
व्यावसायिक मानसिकता के बढ़ते वर्चस्व के कारण 1960 के बाद की फिल्मों में निर्देशक गौड़ होते चला गया।सामाजिक उद्देश्य हाशिए पर पहुंचने लगा और फिर वह लुप्त हो गया।उसकी जगह प्रेम त्रिकोण वाली कहानियों ने ले ली जिनमें खलनायक की मौजूदगी जरुरी हो गई। फिल्में नायक केंद्रित बनने लगी।1950- 1960 के दौरान जो फिल्मकार सामाजिक मकसद वाली फिल्में बना रहे थे उनमें से कुछ(विमल रॉय,गुरुदत्त और महबूब) का देहांत हो गया। कुछ (राज कपूर,चेतन आनंद, बी.आर.चोपड़ा)धीरे-धीरे व्यावसायिकता की ओर मुड़ने लगे।बढ़ती व्यावसायिकता ने फिल्म निर्माण के खर्च को बड़ा दिया। अभिनेता मुंहमांगा पैसा मांगने लगे। यह हिंदी सिनेमा के पतन का दौर था। यही कारण है कि लोकप्रिय सिनेमा पतनशील पूंजीवादी मूल्यों का वाहक बन गया और लोकप्रिय कला दृष्टि से भी उसमें रचनात्मकता का अभाव दिखने लगा तो एक नए तरह का सिनेमा सामने आया। जिसने अपनी प्रेरणा से 1970 के दशक में उभरे जनवादी आंदोलन से ली और जिसने प्रयत्न करके अपने को मुख्य धारा के सिनेमा से अलगाने का प्रयास किया। इसे ‘समानांतर’ या ‘न्यूवेब सिनेमा’ की संज्ञा दी गई यह सिनेमा का अखिल भारतीय आंदोलन था। इसने श्याम बेनेगल, अडूर गोपालाकृष्णन,गिरीश कसरवल्ली,गौतम घोष,सईद अख्तर मिर्जा, जब्बार पटेल, मणि कौल, कुमार साहनी, गोविंद निहलानी,केतन मेहता,अपर्णा सेन, सई परांजपे आदि कई फिल्मकार दिए जिन्होंने अपनी फिल्मों द्वारा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति और सम्मान प्राप्त किया।
हमारे यहां सिनेमा हमेशा से दो भिन्न प्रवृत्तियों के साथ विकसित होता रहा– मुख्य धारा का सिनेमा और नया सिनेमा(सार्थक सिनेमा)मुख्य धारा का सिनेमा आर्थिक महत्व के बरक्स दर्शक को सिर्फ अपने हितों को साधने का माध्यम बनता है।एक तरीके से कहा जाए तो दर्शको को सम्मोहित करता है जबकि सार्थक सिनेमा दर्शक को अपने भीतर उतरने देता है। मुख्य धारा यानी व्यावसायिक सिनेमा बनाने वालों की रुचि जन भावनाओं का दोहन कर उन्हें मनोरंजन प्रदान करना होता है। जबकि सार्थक सिनेमा दर्शक को वैचारिक धरातल पर लाकर खड़ा कर देता है। नया सिनेमा न केवल हिंदी अपितु अनेक भारतीय भाषाओं में बन रहा है इसलिए इसे हिंदी सिनेमा न कहकर हिंदुस्तानी सिनेमा कहना ज्यादातर तर्कसंगत होगा। भारत में इस तरह के नए सिनेमा की शुरुआत के सूत्र इटली के नवयथार्थवाद के अंत और फ्रेंच न्यू वेव के प्रारंभ से कामोबेश जुड़े हुए हैं। दूसरे विश्व युद्ध और फासीवाद के बाद इटली में रेनासां की शुरुआत होती है जिससे विश्व सिनेमा के संदर्भ में न्यू वेब आंदोलन कहा जाता है। न्यू वेव आंदोलन कमोबेश पूरे विश्व में एक साथ शुरू होता है। जर्मनी में युवा सिनेमा, फ्रांस में न्यू वेब (नई लहर) अमेरिका और इंग्लैंड में यह भूमिगत सिनेमा आदि संज्ञाओं से अभिहित किया गया।इतिहास में यह पहला अवसर था जब समान दृष्टि वाले सिने कलाकार एक नए ढंग के सिनेमा के निर्माण के लिए एक साथ खड़े हुए थे। इस संदर्भ में मानवेंद्र सिंह ने समानांतर सिनेमा आंदोलन एक नई परंपरा की खोज' विषयक लेख में लिखा है की "न्यू वेब का सैद्धांति का आधार था–विद्रोह, पूर्ववर्ती सिनेमा के प्रति विद्रोह,उसकी तमाम स्थापनाओं और व्यवस्था के प्रति विद्रोह। इन नए फिल्मकारों का मुख्य विद्रोह पारंपरिक सिनेमा के निर्माण प्रक्रिया से था। ये फिल्मकार सिनेमा में रूप और वस्तु के प्रति सचेत थे ताकि सिनेमा में भी बिना किसी लाग–लपेट के अपनी बात कर सकें।"13 फ्रेंच न्यू वेब की तरह ही भारतीय सिनेमा में भी नया सिनेमा एक कलात्मक भाव बोध लेकर उपस्थित हुआ। 1950 के दशक में इटली के नव यथार्थवाद से प्रेरित सत्यजीत राय की पथेर पांचाली (1952)ऋत्विक घटक की नागरिक (1952) और मृणाल सेन की रातिभोर(1955) में मानवी मूल्यों को केंद्र में रखकर मौलिक और यथार्थवादी फिल्मों का निर्माण किया। नवयथार्थवाद जीवन को पास लाने का आंदोलन था।जिसने विषय और तकनीक दोनों में बदलाव किया। 50 के दशक में ही साहित्य में भी खास तौर पर हिंदी में नई कहानी,नई कविता आंदोलन की शुरुआत हुई। भारतीय सिनेमा में न्यू वेब को नया सिनेमा,समानांतर सिनेमा, कला सिनेमा,सार्थक सिनेमा, गैर व्यावसायिक सिनेमा इत्यादि नामों से जाना जाता रहा है। सिनेमा से जुड़े संस्थानों ने भी नए सिनेमा आंदोलन के सूत्रपात में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। स्वतंत्र भारत के पहले दशक में सिनेमा संबंधित गतिविधियों में इजाफा हुआ। 1960 में सूचना प्रसारण मंत्रालय के अधीन 'फिल्म वित्त निगम’ की स्थापना हुई। इसका उद्देश्य नए फिल्मकारों को सार्थक सिनेमा बनाने के लिए ऋण मुहैया करना था। 1960 प्रभात स्टूडियो के प्रांगण में भारत सरकार ने ’फिल्म और टेलीविजन संस्थान’की स्थापना की।इसी के माध्यम से फिल्म अभिनेता,निर्देशक,छायाकर,साउंड रिकॉर्डिस्ट और पटकथा लेखकों की एक नई पीढ़ी सामने आई।इस संस्थान के माध्यम से वे विश्व के उस बेहतरीन सिनेमा से परिचित हुए जो फ्रांस, इटली,जर्मनी सोवियत संघ आदि देश में बन रहा था। वे भारत की विभिन्न भाषाओं में बनने वाली उन फिल्मों से भी परिचित हो रहे थे जिनकी ओर व्यावसायिक सिनेमा के शोरगुल के कारण ध्यान नहीं जाता था।बांग्ला में सत्यजीत राय, ऋतिक घटक,मृणाल सेन,मलयालम में जी अरविंदन, अडूर गोपालकृष्णन और दूसरी कई भाषा में बनने वाली ऐसी फिल्मों को देखकर फिल्मकारों को एहसास हुआ कि फिल्म की कला को सिखाना हो तो इन्हीं की फिल्मों से सीखा जा सकता है।
नया सिनेमा में भ्रष्ट सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर स्पष्ट रहा है। नए सिनेमा के संदर्भ में एक बात हमेशा मन में सवाल खड़े करती है कि इसका चरित्र शुरू से ही प्रतिरोध का रहा, चाहे वह सरकारी तंत्र हो, न्याय प्रणाली हो,मीडिया हो,सामंतशाही–व्यवस्था हो, नया सिनेमा व्यंग्यात्मक उपादानों के सहारे सबकी आलोचना का पक्षधर रहा है।फिर यह आंदोलन सरकार के पैसे से ही क्यों ना शुरू हुआ।? इस संदर्भ में अरुण वासुदेव ने भी स्वीकार किया है कि "भारत में समानांतर सिनेमा की शुरुआत लोकप्रिय सिनेमा के विरुद्ध फिल्म निर्माता के प्रोत्साहन से पैदा न होकर सरकारी निर्णय से उत्पन्न हुआ है"14 व्यावसायिक हिंदी फिल्मों को अपने उथल-पुथल से भरे समय की वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं था इस दृष्टि से 1960 के बाद का व्यावसायिक सिनेमा युवा फिल्मकारों को बहुत छिछला, अश्लील और निरर्थक लगा। यही वजह है की पहली बार व्यवसायिकता और रचनात्मकता का एक स्पष्ट भेद फिल्मों के माध्यम से स्थापित हुआ और समानांतर सिनेमा अस्तित्व में आया दर्शकों को भी एहसास हुआ कि ये वे फिल्में नहीं है जिसे अब तक देखते आ रहे हैं। ये आस्वाद वाली फिल्मे हैं।व्यावसायिक फिल्मों से आम दर्शकों की रुचि काफी हद तक भ्रष्ट हो चुकी थी। इसलिए शहरी और शिक्षित मध्यवर्ग के छोटे से हिस्से को छोड़कर नए तरह की सिनेमा को प्राय दर्शकों ने स्वीकार नहीं किया। लेकिन पहली बार हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में फिल्में एक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य और सामाजिक बदलाव के मकसद से बनाई जा रही थी। ये फिल्में मेलोड्रामाई शैली के बजाय यथार्थवादी शैली में बन रही थी। इस यथार्थवादी सिनेमा ने दर्शकों की आलोचनात्मक विवेक को विकसित करने तथा समाज और व्यवस्था के ताने-बाने की समझ बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।इस संदर्भ में जबरीमल्ल पारख का मानना है कि "व्यावसायिक सिनेमा प्रायः यथास्थितिवादी था जबकि समानांतर सिनेमा में यथार्थ के प्रति तीक्ष्ण आलोचनात्मक दृष्टि नजर आती थी और इसकी कुछ फिल्मों में सामाजिक बदलाव के संकेत देखे जा सकते हैं"15 यही कारण था कि फिल्मों से नाच–गाने और हास्य , के अनावश्यक प्रसंग गायब हो गए थे। ऐसी फिल्मों में रचनात्मक अभिव्यक्ति के स्तर पर कई तरह के प्रयोग हुए। इस दौर के प्रमुख्य फिल्मकारों में बासु भट्टाचार्य (तीसरी कसम,अनुभव, आविष्कार) श्याम बेनेगल (अंकुर,चरणदास चोर, निशांत ,मंथन , भूमिका,मंडी)गोविंद निहलानी(तमस, अर्धसत्य,आक्रोश)बासु चटर्जी (सारा आकाश,रजनीगंधा, स्वामी ) सईद अख्तर मिर्जा (अल्बर्ट पिंटू को गुस्सा क्यों आता है)गौतम घोष,प्रकाश झा,कुंदन शाह , मणि कौल,केतन मेहता आदि कई नाम लिए जा सकते हैं।इन फिल्मकारों ने समय और समाज के यथार्थ को लोकप्रिय सिनेमा से बिल्कुल भिन्न रूप में पेश किया। जिस नई सिनेमाई भाषा और शैलियों का प्रयोग इन फिल्मकारों ने किया उस पर यूरोप के पचास–साठ के दशक में उभरे सिनेमाई आंदोलन का प्रभाव था।भारतीय दर्शक इस तरह की फिल्मों को देखने का आदी नहीं था और न ही इन फिल्मों को दर्शकों तक पहुंचाने की कोई वैकल्पिक व्यवस्था मौजूद थी इसलिए यह आंदोलन मुख्यधारा के सिनेमा पर दूरगामी असर पैदा करने में नाकामयाब रहा। दूसरी ओर,इस दौर के जनआक्रोश का इस्तेमाल करने में व्यावसायिक फिल्मकार भी कामयाब रहे।
70 के दशक में हरिकेश मुखर्जी और गुलजार ने सिनेमा को एक नई ताजगी दी। हरकेश दा ने हल्की-फुल्की मनोरंजन फिल्में बनाकर सिनेमा को एक नए सांचे में गढ़ा और गुलजार ने पटकथा, संवाद और गीतों के जरिए उनका पूरा साथ दिया। लगभग इसी के आसपास देश की राजनीति और अर्थनीति में परिवर्तन के साथ फिल्मों ने भी नहीं अंगड़ाई ली। देश का युवा वर्ग निराशा और स्वप्न भंग की स्थिति का शिकार रहा था। इसलिए उस दौरान युवा आक्रोश की अभिव्यक्ति को दर्शाने वाली फिल्मों का दौर शुरू हुआ। पश्चिमी फिल्मों में इस्तेमाल की जा रही तकनीक का असर भी भारतीय सिनेमा में दिखाई देने लगा था। सिनेमा में भावुकता के साथ ऐक्शन की शुरुआत हो चुकी थी। इस दौर की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म 'शोले’ है। इसने बॉक्स ऑफिस के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए और सिनेमा में ऐक्शन, हिंसा और मारधाड़ को स्थापित किया।यह दशक भारतीय हिंदी सिनेमा के इतिहास में स्टार युग से जाना जाता है।इस युग में दिलीप कुमार,राजकुमार,देवानंद ,राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त, धर्मेंद्र ,शम्मी कपूर,शशि कपूर,संजीव कुमार, जितेंद्र, राजेश खन्ना,संजय खान, मनोज कुमार, राजकुमार, सिन्हा,और अमिताभ बच्चन जैसे अनेक सुपरस्टार अभिनेता हिंदी सिनेमा की रूपहले पर्दे पर आए और अनेक सदाबहार सुपरहिट फिल्में देकर सिनेमा जगत में धूम मचा दी दर्शकों के आदर्श व चहेते बन गए।
सातवें दशक के उत्तरार्ध आते-आते हिंदी सिनेमा व्यावसायिकता की गहरी छाप स्पष्ट दिखाई देने लगी तथा ‘दीवार’ और ‘शोले’ जैसी फिल्मों के माध्यम से हिंसा एवं अपराध को प्रमुख विषय वस्तु बनाकर परोसा गया। यही वह समय था जब एंग्री यंगमैन की संज्ञा से विभूषित सुपरस्टार महानायक अभिनेता अमिताभ बच्चन का प्रदार्पण हुआ।यद्यपि ख़्वाजा अहमद अब्बास की ‘सात हिंदुस्तानी’ उनकी पहली फिल्म थी लेकिन फिल्म ‘जंजीर’ से उनकी पहचान बनी। उस समय धर्मेंद्र व राजेश खन्ना जैसे सुपर स्टारो का जमाना था और उसमें अपनी एक अलग पहचान बनाना अमिताभ बच्चन के लिए बड़ी चुनौती थी लेकिन कड़ी मेहनत,संघर्ष और अदाकारी के वल पर सबको पीछे छोड़ते हुए अपने को स्थापित किया। इतनी शोहरत पाई जितना कि किसी महान अभिनेता ने नहीं पाई।अमिताभ बच्चन ने हिंदी सिनेमा को न केवल एक नया आयाम दिया बल्कि कई तरह के किरदार भी निभाए।
आठवां दशक व्यापक विचारधारात्मक बदलाव का दौर था जिसकी पृष्ठभूमि में कृषि क्रांति की मूल प्रश्नों पर केंद्रित आंदोलन था। 1973–74 में जब सारिका के संपादक कमलेश्वर ने ‘समानांतर कहानी’ आंदोलन चलाया था तो उसमें संजीव की एक कहानी ‘अपराध’ छपी थी।यानी 74 तक आते-आते शासक वर्गों के विरुद्ध जन आंदोलन अपने शीर्ष पर था इसे दबाने का प्रयास सत्ता कर रही थी। इसी क्रम में युवाओं की हत्या कर रही थी।लड़कियों पर अमानुषिक जुल्म हो रहे थे।इसी की झलक ‘अपराध’कहानी में है। अपराध अकेली कहानी नहीं थी जो सामाजिक बदलाव में युवाओं और नई पीढ़ी की भागीदारी को रेखांकित कर रही थी, बल्कि दर्जनों और भी कहानियां थीं जो इस बदले समीकरण की बातें कर रही थीं। फिल्मों में भी आठवें दशक के प्रारंभ में यह वैचारिक लड़ाई दिखाई देने लगी थी। जहां जमीदार अब उतना ताकतवर और जुल्मी नहीं रह गया था उसके हाथ पीछे लौटने लगे थे श्याम बेनेगल,गोविंद निहलानी,उत्पलेंद्र चक्रवर्ती, एम. एस.सथ्यू,प्रकाश झा ने ऐसी फिल्में बनाईं जिनमें यथा स्थितियां तो मौजूद थी पर उनके विरुद्ध प्रतिकार शुरू हो चुका था। श्याम बनेगा न 1974 से 1977 के बीच अंकुर,निशांत, मंथन और भूमिका जैसी फ़िल्में बनाई। इन फिल्मों में पहली बार आम आदमी की हाजरी हुई। गोविंद निहलानी की आक्रोश या प्रकाश झा के दामुल और मृत्युदंड जैसी फ़िल्में भी ऐसे ही सवालों से टकराती हैं। एम.एस.सथ्यू ने किस्मत चुगदाई की कहानी पर ‘गर्म हवा’फिल्म बनाई। इस फिल्म का मकसद साफ था फिल्म में दिखाना चाहती थी कि दिलों के रिश्ते भी सरहद के कटीले तारों को या नफरत और घृणा के रक्त बीच को हटा नहीं पाते,अगर एक बार हवा गर्म हो गई तो समय ही इसकी गर्मी कम कर सकता है।
हिंदी सिनेमा के इतिहास में 1973,74 व 1975 महत्वपूर्ण वर्ष थे क्योंकि 1973 प्रकाश मेहरा की ‘जंजीर’,राजकुमार की ‘बॉबी’ 1974 में श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ बासु चटर्जी की ‘रजनीगंधा’ तथा 1975 में ‘शोले’,‘दीवार’,‘आंधी’,‘जूली’,‘निशांत’,‘छोटी सी बात’ एवं ‘जय संतोषी मां’ जैसी फिल्म बनी। इन सभी फिल्मों की विषयवस्तु सामाजिक,धार्मिक बौद्धिक तथा रोमांटिक था।1977 में मनमोहन देसाई की ‘अमर अकबर एंथनी’,‘धर्मवीर’ 1978 में राज कपूर की ‘सत्यम,शिवम,सुंदरम’ देवानंद की ‘देश परदेश’ बाड़जात्या स्थापित राजश्री प्रोडक्शन की ‘अंखियों के झरोखों से’1980 में ‘याराना’, ‘लावारिस’ आदि फिल्मों का निर्माण हुआ।
80 के दशक के उत्तरार्ध और 90 की शुरुआत से लेकर अब तक फिल्मों पर विचार करें तो हम देख सकते हैं कि आक्रामक बाजारवाद किस तरह की आत्मकेंद्रित पाखंडी और बर्बर समाज को रच रहा है।किस तरह फिल्में उसका माध्यम बन गई है। मनुष्य को निर्माणकरी ताकत को प्रेरित करने के बजाए कोई कला जब उसे महज उपभोक्ता में तब्दील करने में लग जाए तो,उसमें बदलाव जरूरी हो जाता है। ऐसे में कई नए फिल्मकार बॉलीवुड की व्यावसायिक मसाला फिल्मों के ढर्रे को बदलने की सार्थक पहल कर रहे हैं। बाजार की इसी घुसपैठ और मध्यवर्ग की मजबूरियों को बासु भट्टाचार्य ने अपनी फिल्म ‘आस्था’ में उजाकर किया। इन कोशिशें से भी ज्यादा मुझे विभिन्न विषयों पर बनाई जा रही डॉक्यूमेंट्री फिल्मों में बेहतर संभावनाएं दिख रही हैं। साम्राज्यवादी संस्कृति का जिस कदर हमला फिल्मों के जरिए हो रहा है। उसे ध्यान में रखते हुए अपने समाज और देश के ज्वलंत प्रश्नों पर बनाई जाने वाली डॉक्यूमेंट्री फिल्में वर्तमान और भविष्य के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण लगती हैं। जिनको वैचारिक सरोकार के लिहाज़ से दुनिया की किसी भाषा और देश में बनने वाली बेहतरीन फिल्मों के समक्ष रखा जा सकता है। ये फिल्मी सामाजिक सुरक्षा,मानवाधिकार, नागरिक अधिकार के मुद्दे,स्त्रियों की आजादी,निम्नमध्यवर्गीय महिलाओं का यथार्थ,मुक्ति संबंधी बहसें और संगीत,कला,अध्यात्म जैसे जनसरोकार के मुद्दे को लेकर बनाई जाती है। फिल्मों के संबंध में सुधीर सुमन ने लिखा है “ अपने वक्त के संकटों, त्रासदियों, संघर्षों और प्रतिरोध को दर्ज करने वाली ये डॉक्यूमेंट्री फिल्में गरीबों–मेंहनतकशों की दुर्दशा, किसी क्षेत्र या समुदाय को आतंकवाद से जोड़कर प्रचारित करने की साजिश, देश के विभिन्न हिस्से में हो रही किसान आत्महत्याओं,भुखमरी,प्राकृतिक संसाधनों की लूट,किसानों और आदिवासियों के विस्थापन, खाप पंचायतों द्वारा प्रेमी जोड़ों की हत्या, इंसेफ्लाटिस से होने वाली मौतों, चौतरफा बेरोजगारी और श्रम में लगे लोगों की बदहाली की सच्चाइयों को सामने लाती है।”16 चर्चित कन्नड़ फिल्मों के निर्देशक गिरीश कसराबल्ली ने प्रतिरोध का सिनेमा विषयक आयोजन में कहा था कि "आज सिनेमा अधिक से अधिक धन कमाने के लिए बन रहा है, विचारों और आदर्शों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए नहीं। वह पूंजी कमाने का माध्यम बन चुका है।आज का भारतीय सिनेमा हॉलीवुड मोड की नकल का सिनेमा है, धन कमाने का सिनेमा है, विचार और सपनों का नहीं"17 भारतीय डॉक्यूमेंट्री फिल्मों को उन्होंने फीचर फिल्मों से बहुत आगे का बताया और उसे नियमित रूप से दिखाए जाने की जरूरत पर जोर दिया।
नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन और अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के विश्वव्यापी फैलाव ने उन स्थितियों को पैदा किया जिन्हें हम भूमंडलीकरण के नाम से जानते हैं। इन दशक में देश में उदारीकरण और वैश्वीकरण की बयार बही तो भारतीय सिनेमा भी मारधाड़,हिंसा प्रधान फिल्मों की गली से निकल पुनः रोमांटिक,पारिवारिक और भावपूर्ण फिल्मों के मार्ग पर चलने लगा। 21वीं सदी में इसमें और गति आई और बड़े बजट की महंगी फिल्में बनने लगी। मल्टीप्लेक्स संस्कृति का प्रार्दुभाव हुआ, फिल्म निर्माण में कॉरपोरेट क्षेत्र का प्रदार्पण हुआ और ए.आर. हमान के नेतृव में अनेक प्रयोगधर्मी संगीतकारों ने फिल्म संगीत का रुख मोड़ दिया।आज नए-नए विषय पर फिल्में बन रही है। इस दौर की भारतीय फिल्में यदि एक ओर अभिजातवर्ग की परिवार केंद्रित भावनात्मक समस्याओं को लोकप्रिय मुद्दा बना रही हैं, तो दूसरी तरफ समाज के अपराधीकरण और सैन्यीकारण की मुहिम को भी महिमामंडित कर रही हैं। वैश्वीकरण के प्रभाव वाली हिंदी फिल्मों को तीन कोटियों में रखा जाता है। पहला,जिसमें अपराध एक संस्था के रूप में स्थापित है और उन्हें इस रूप में पेश किया जा रहा है। पिछले दो दशकों में ऐसी बहुत सी फिल्में बनी जिनमें माफिया गिरोह की करस्तानियों का यथार्थपरक चित्रण सामने आया है। ‘वास्तव’,‘सत्या’,‘कंपनी’,‘हथियार’, ‘सरकार’ और इस तरह की कई फिल्में सिर्फ इसलिए सत्य को प्रदर्शित करती हैं कि स्थितियां पहले से ज्यादा खतरनाक हो चुकी हैं। दूसरी तरफ वे फिल्में हैं जिनमें समृद्धि,संपन्नता और बिलासिता का वैभव है।ये फिल्में उदारीकरण और निजीकरण से उत्पन्न समाज के एक हिस्से की समृद्धि को महिमामंडित करने में जुटी हैं।‘हम आपके हैं कौन’,‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’, ‘ताल’ ‘परदेस’,‘देवदास’ जैसी बहुत सी फिल्में इसी सत्य का प्रदर्शन करती हैं। तीसरी कोटि उन फिल्मों की है जिनमें देशभक्ति के नाम पर युद्ध और आतंकवाद के इर्द-गिर्द कहानी का ताना-बाना भूना जाता है। ’कर्मा’,‘तिरंगा’,‘बॉर्डर’‘सरफरोश’ जैसी फिल्मों के लिए देशभक्ति भी एक ऐसा फार्मूला है जो जनता को उनके वास्तविक मुद्दों से काटने का काम करती है।यही नहीं समाज के सैन्यीकरण की कोशिश को भी इसे बल मिलता और लोकतांत्रिक समाज की पहचान करने वाली संस्थाओं और कानून पर शासक वर्ग द्वारा किए जाने वाले हमले के पक्ष में जनसमर्थन जुटाने का काम भी ऐसे लिया जाता है। इन तीनों तरह की फिल्मों में आम आदमी की कथा के लिए कोई जगह नहीं है।सामाजिक उद्देश्य से प्रेरित फिल्म बनाने वालों के लिए सरकारी संस्थाओं ने भी वित्तीय सहायता देने से अपना हाथ पीछे खींच लिया था। इसके बावजूद भी सार्थक सिनेमा का सीमित रचनात्मक अभियान जारी था। श्याम बेनेगल की ‘सूरज का सातवां घोड़ा’1992 तथा गोविंद निहलानी निर्देशित ‘हजार चौरासी की मां’1998 नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर बनाई गई फिल्म है।
निष्कर्ष : सिनेमा एक लोकप्रिय माध्यम है। इसने अपने आरंभिक अवस्था से ही व्यापक जनसमूह को अपने हाव ,भाव,विचार,संवाद,कला,गीत, संगीत,नृत्य,मनोरंजन एवं अपने सामाजिक सरोकार से प्रभावित किया है।पहली बार परदे पर चलती–फिरती तस्वीरें देखना एक ऐसा अनुभव था जिसने सबको विस्मित कर दिया। नौटंकी, जात्रा और रंगमंच की सदियों पुरानी परंपरा वाले देश में यह एक अजूबा था। उस समय कोई नहीं जानता था कि भारत एक दिन सबसे अधिक फिल्में बनाने वाला दुनिया में दूसरे नंबर का देश बन जाएगा। एक सदी के अपने सफ़र में भारतीय सिनेमा ने कई मुकाम तय करने के अलावा देश की कामयाबियों,नाकामियों, उम्मीदों,नाउम्मिदों,अरमानों और एहसासों को जुबान दी है। नाटकीयता में लपेटकर ही सही, उसने सच को सामने लाने और समाज को रास्ता दिखाने की अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है। आज हिंदी सिनेमा अपने स्वरूप और व्यवसाय में बिल्कुल बदल चुका है।आज के पचास साल पहले के हिंदी सिनेमा के संबंध में स्थापित मान्यताएं पूरी तरह टूट चुकी हैं। नयी मान्यताएं कब टूटेंगी यह नहीं कहा जा सकता।सबसे बड़ी बात यह है कि सिनेमा ने अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंदी टेलीविजन को परास्त कर दिया है।टेलीविजन के आविष्कार के बाद ये शंकाएं उठने लगी थी कि शायद फिल्म पर इसका प्रभाव इस तरह पड़ेगा की फिल्म उद्योग अपनी चमक खो देगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आज टी.वी. और इंटरनेट फिल्मों के दर्शक तैयार करने का काम कर रहे हैं एक प्रकार से छोटे सहायक की भूमिका निभा रहे हैं।हिंदी सिनेमा के दर्शकों का प्रोफाइल बदल गया है पुराने समय में फिल्म देखने वालों में अनपढ़,गरीब और कम आय के लोक प्रमुख हुआ करते थे और यह माना जाता था की फिल्में इन्हीं दर्शकों के माध्यम से सफल होती हैं।यही कारण था कि पुराने सिनेमा हॉल में पहली, दूसरी और तीसरी श्रेणियां हुआ करती थी यानी की फिल्म के दर्शक निम्न मध्य वर्ग के लोग हुआ करते थे।लेकिन बाद में दर्शकों का प्रोफाइल तेजी से बदला और हिंदी सिनेमा अपने समाज और उसके अंतर विरोधों की निकट आने लगा। आज हम जिसे हिंदी सिनेमा कहते हैं, वस्तुतः हिंदुस्तानी सिनेमा है जो समूचे हिंदुस्तान में जहां-जहां भी हिंदुस्तानी मूल के लोग निवास करते हैं उनको भावनात्मक रूप से एक सूत्र में बांधने का काम कर रहा है। निसंदेह या कहा जा सकता है कि हिंदी सिनेमा ने सही अर्थों में भारतीय संस्कृति के मूलमंत्र अनेकता में एकता को चरितार्थ किया है।
सन्दर्भ :
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- नया पथ (संपादक), मुरली मनोहर प्रसाद सिंह(हिंदुस्तानी सिनेमा के सौ बरस पर केंद्रित), अंक-1- 2, जनवरी-जून(संयुक्तांक):2013, पृष्ठ–181
- आजकल (संपादक) सीमा ओझा(सिनेमा के सौ वर्ष),अंक-6, अक्टूबर : 2012, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली, पृष्ठ–8
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- आजकल (संपादक) सीमा ओझा(सिनेमा के सौ वर्ष),अंक-6, अक्टूबर : 2012, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली, पृष्ठ–4
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- शम्भूनाथ (संपादक), हिंदी साहित्य ज्ञानकोश-7,वाणी प्रकाशन ,नयी दिल्ली, 2019 , पृष्ठ–4519
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सुनील कुमार
सहायक आचार्य, हिंदी विभाग, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय , गोरखपुर -273009
harshsunilyadav@gmail.com, 7376579012
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved & Peer Reviewed / Refereed Journal
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग : विनोद कुमार
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