- माया देवी शर्मा
शोध
सार : सिनेमा
को अभिव्यक्ति
का एक
सशक्त माध्यम
माना गया
है। अपने
जन्मकाल से
ही सिनेमा
के स्वरूप
मेंकाफी फेरबदल
देखने को
मिला है।
सिनेमा के
कई प्रकारों
में से
एक हैं
लघु सिनेमा,
जिसे शॉट
मूवीज भी
कहा जाता है। आज विश्व के प्रत्येक भाषा में सिनेमा का निर्माण हो रहा है। भारत एक बहुभाषिक राष्ट्र हैं जहाँ 400 से
अधिक
भाषा
बोली
जाती
है।
इन्ही
भाषाओं
में
से
एक
हैं
नेपाली
भाषा,
जिसमें
1950 सें सिनेमा का निर्माण हो रहा है। भारत में नेपाली भाषा की लघु फिल्में नेपाली समुदाय की सांस्कृतिक और सामाजिक धरोहर को प्रस्तुत करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम बनी हैं। ये लेख इन लघु फिल्मों के परिचयात्मक अध्ययन पर केंद्रित हैं जिसमें उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभावों को समझने का प्रयास किया गया हैं।
वीज शब्द : सिनेमा,
कहानी,
मूवी,
फोटोग्राफी,
श्रव्य,
दृश्य,
ध्वनि,
संगीत,
लघु,
फिल्म, संस्कृति, समाज।
मूल आलेख : सिनेमा एक श्रव्य-दृश्य माध्यम है। जिसे फिल्म, मूवी या चलचित्र भी कहा जाता है। यह एक ऐसा कला का रूप है जिसके माध्यम से कहानियों, विचारों और भावनाओं को व्यक्त किया जाता है। सिनेमा चाक्षुस माध्यम से अपने गुणों के जरिए हमें चीजों को दिखलाता है।[1]
यह
कला
की
एक
ऐसी
विधा
है
जो
वीडियो
चित्रों,
ध्वनि
और
संगीत
के
संयोजन
का
उपयोग
करके
दर्शकों
कामनोरंजन
प्रदान
करता
है।
सिनेमा
का
गहरा
प्रभाव
समाज,
संस्कृति
और
मानवीय
भावनाओं
पर
पड़ता
है।
यह
एक
शक्तिशाली
माध्यम
है,
जो
दर्शकों
को
सोचने,
महसूस
करने
और
मनोरंजन
का
अवसर
प्रदान
करता
है।
डॉ.
कैलाशनाथ
पांडेय
के
शब्दों
मे
जीवन
की
हर
झांकी
और
मंजर
को
रुपायित
करने
वाला
सिनेमा
संसार
का
सबसे
सुंदर
सांस्कृतिक
उपहार
हैं।[2]विश्व में सिनेमा का जन्म फोटोग्राफी के खोज से हुआ है और फोटोग्राफी का जन्म फ्रांस में हुआ था। सिनेमा भी फ्रांस की देन है। सन् 1839 में
फ्रांस
के
लुई
दुगारे
ने
फोटोग्राफी
की
तकनीकीकोहल किया था। दुगारे ने फोटोग्राफी तकनीकी करने के ठीक 48वर्ष पश्चात सन् 1887 में
विश्व में फिल्मों का निर्माण शुरू हुआ। सन् 1896 मे
पेरिस
के
ग्राण्ड
कैफे
होटल
में
लूमिएर
ब्रदर्श
ने
पहली
बार
चलती-फिरती मूक फिल्मों का प्रदर्शन किया था। आज विश्व में विभिन्न प्रकार की फिल्मों का निर्माण हो रहा है। विद्वानों ने सिनेमाको विभिन्न शैलियों के आधार पर बहुत प्रकारों में विभाजन किया हुआ है। विषय और उद्देश्य के आधार से सिनेमा को पाँच प्रकार कथानक फिल्म, वृत्तचित्र, एनिमेशन फिल्म, जिंगलर लघु चलचित्र मे विभाजित किया है। लघु फिल्में वृत्तचित्र का ही विस्तारित रूप है।[3] लघु फिल्में या शॉटमूवीज उन फिल्मों को कहा जाता है जिनकी लंबाई आमतौर पर 40 मिनट से कम होती है। एकेडेमी ऑफ मोशन पिक्चर आर्टस् एंड सांइसेज ने लघु फिल्मों को एक मूल मोशन पिक्चर के रूप मे स्वीकार करते हुए इसकी चलने का समय40 मिनट तक तय किया है।[4] वास्तव में सिनेमा का जन्म ही लघु फिल्मों से हुआ है।अतः वास्तव में लघु फिल्म उतनी ही पुरानी हैं जितना कि सिनेमा स्यवं हैं।विश्व की पहली फिल्म ‘राउंडहे गार्डन’ सीन जिसका कुल समय 1.66 सेकंड था। कथानक चलचित्र की शुरुआत तो फिल्म अविष्कार होने के बाद मे आरम्भ हुआ था। आज विश्व मे विभिन्न शैलियों जैसे कि ड्रामा, कॉमेडी, हॉरर, विज्ञान कथा, रोमांस आदि मे लघु फिल्मों का निर्माण हो रहा है। लघु फिल्में एक संक्षिप्त अवधि में प्रभावशाली कहानी प्रस्तुत करने का प्रयास करती है। इसमें गैर जरूरी दृश्यों और सबप्लाटसको हटाकर कहानी के मुख्य तत्त्वोंपरध्यान दिया जाता है। इसमें एक स्पष्ट शुरुआत, मध्य और अन्त होता है।[5] लघु फिल्म छोटे समयमें जटिल भावनाओं और विचारों को प्रभावशाली तरीके से व्यक्त करती है। विश्व की हर एक भाषा में हजारों की संख्या में फिल्मों का निमार्ण हो रहा है उसमें भी भारत फिल्म निर्माण के मामले में विश्व के तीसरे नम्बर में आता है। भारत में फिल्म निर्माण का एक व्यापक इतिहास रहा है। 7 जुलाई 1896 का दिन भारतीय सिनेमा के इतिहास में महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसी दिन बॉम्बे (अब मुंबई के नाम से जाना जाता है) के वॉटसन होटल मे छह फिल्मों की स्क्रीनिगंकीगई थी और वहीं से भारत में सिनेमा ने जन्म लिया था।वाटसन होटल मे 7 से 13 जुलाई 1896 तक फिल्मों के लगातार प्रदर्शन होते रहे। बाद में इस प्रदर्शन को 14 जुलाई से बंबई के नौबेल्टी थिएटर में शिफ्ट कर दिया गया जहाँ यह 15 अगस्त 1896 तक लगातार चलते रहे।”[6]
वॉटसन होटल में आयोजित लघु फिल्मों के प्रदर्शन का अनुभव 1880 से मुम्बई से फोटो स्टूडिओं संचालित कर रहे भारतीय हरिशचंद्र सखाराम भाटवडेकर (जो सावेदादा के नाम से प्रसिद्ध थे) ने भी लिया। फोटो स्टूडिओं का संचालन करने वाले भाटवडेकर इस अद्भूत कला के बारे में जानने को उत्सुक हो गए। उन्होंने साल १८९८ में इंगलैंड के रिले भाइयों से 21डॉलर में एक कैमरा खरीदा और स्थानीय दृश्यों को फिल्माने लगे। सावेदादा ने मुंबई के प्रसिद्ध हैंगिगं गार्ड में उस समय के दो पहलवानों पुंडलीक दादा और कृष्णा के बीच हुए कुश्ती की प्रतिस्पर्धा को फिल्माया और इस फिल्मों को ‘दरेसलर’ के नाम में प्रदर्शित किया। यह भारतीय सिनेमा की इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना थी क्योंकि इसी सिनेमा को भारतीयद्वारा निर्मित प्रथम वृत्तचित्र माना जाता है। उनकी दूसरी फिल्म सर्कस के बन्दरों की ट्रेनिंग पर आधारित ‘अमैंन एंडहिजमंकीज’था। साल
1899 में उन्होनें इन दोनो फिल्मों को डेवलपिंग के लिए लंदन भेजा और विदेशी फिल्मों के साथ जोड़कर उनका प्रदर्शन कर दिया। इस प्रकार सावेदादा पहले भारतीय हैं जिन्होनें अपनी बुद्धि और कौशल से स्वदेशी लघु फिल्मों का निर्माण कर प्रथम निर्माता, निर्देशक तथा प्रदर्शक होने का श्रेय प्राप्त किया है।
भारत एक बहुभाषिक राष्ट्र है। कहा जाता है कि यहाँकुछ कि.मी. के भीतर भाषा, साहित्य, संस्कृति, भेषभूषा, खानपान आदि बदलता है। भारत की बहुभाषिकता केवल संख्या का मामला नहीं है, बल्कि यह तो संस्कृति, पहचान और इतिहास का भी विषय है। भारत की भाषाएँ इसके विविध और बहुलवादी समाज को प्रतिबिंबित करती है, जहाँ विभिन्न धर्मों, जातियों, नस्लों और वर्गों के लोग एकसाथ मिलकर रहते हैं। संभवतः सिनेमा ही एक ऐसा सशक्त माध्यम है, जो सांस्कृतिक गतिविधियों या संदेश को जनमानस तक अपनी भाषा में आसानी से संप्रेषित कर सकता है। इसी संदर्भ में डॉ. गजेंद्रप्रताप सिहं कहते हैं फिल्म मनोरंजन के साथ- साथ हमारे देश की सभ्यता,संस्कृति और नए युग को प्रदर्शित करती हैं। फिल्म ही एक ऐसा माध्यम हैं, जिसके जरिए लोग हर चीज से प्रभावित होते हैं।[7]किसी भी समुदाय के रहन-सहन, संस्कार, संस्कृति, भाषा आदि का प्रतिविम्ब होती हैं। आज भारत की क्षेत्रीय भाषाएँबंगाली, मणिपुरी, पंजाबी, आसामी, भोजपुरी, तमिल, मराठी, ओड़िया, मलयालम, नेपाली आदि में सिनेमा का निर्माण हो रहे हैं। यह विभिन्न क्षेत्रीय भाषा में निर्मित सिनेमा के माध्यम से उस भाषिक समुदाय के संस्कार, संस्कृति, इतिहस आदि के बारे में जानने को मिलता है। बंगाली भाषा में सदियों से लघु फिल्मों का निर्माण हो रहा है जिसमें सत्यजीत रे, मृणाल सेन आदि का नाम उल्लेखनीय है। ठीक ऐसे ही भारतीय भाषाओं में एक प्रमुख भाषा है नेपाली भाषा। नेपाली नेपाल की राष्ट्र भाषा है। नेपाल की राष्ट्र भाषा होने के अतिरिक्त नेपाली भाषा भारत के सिक्किम, पश्चिम बंगाल, उत्तर पूर्वी राज्यों असम, मणिपुर, अरूणाचल प्रदेश,मेघालय तथा उत्तराखण्ड के अनेक लोगों की मातृभाषा है। भारत में नर्मित नेपाली भाषा के फिल्मों को भारतीय नेपाली फिल्म कहा जाता है।विश्व में सिनेमा की खोज होने के ठीक पैसठ साल बाद भारत में नेपाली सिनेमा की शुरुआत हुई। सन् 1950 में भारत के कलकत्ता मे डि.बी परियार के निर्देशन में‘सत्यहरिशचन्द्र’ (श्यामश्वेत्) सिनेमा का प्रदर्शन हुआ था।[8] आजतक के अध्ययन एवं अनुसन्धान के आधार पर ‘सत्यहरिशचन्द्र’ नाम की सिनेमा से ही नेपाली भाषा में सिनेमा निर्माण की शुरुआत हुयी है।[9]हिन्दी भाषा में निर्मित पहली कथानक चलचित्र ‘सत्यहरिशचन्द्र’ से प्रभावित होकर निर्माण किया हुआ नेपाली भाषा की ‘सत्यहरिशचन्द्र’ चलचित्र को इतिहासकारों ने पहली नेपाली सिनेमा माना है। कलकत्ता में‘सत्यहरिशचन्द्र’ प्रदर्शन होने के ठीक 15 साल बाद नेपाल से ‘श्री ५ महेन्द्र के बयालिसौं शुभोजन्मोत्सव’ और ‘हिमालयन अवेकनिगं’ वृत्तचित्र निर्माण हुआ था। नेपाली सिनेमा के समीक्षक लक्ष्मीनाथ शर्मा के विचार में नेपाल में इन्ही दोनों वृत्तचित्रों के माध्यम से नेपाल में सिनेमा की नींव तैयार हुआ था।[10] भारतीय नेपाली लघु फिल्में न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि सामाजिक जागरूकता और सांस्कृतिक संरक्षण का एक प्रभावशाली माध्यम भी है। ये फिल्में भारतीय नेपाली समुदाय की आवाज को प्रकट करती हैं और उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को भी उजागर करती हैं। अभीतक भारत में नेपाली भाषा में बहुत सारी लघु फिल्मों का निर्माण हुआ है जिसमें से ‘एकान्त छायाँ’, ‘कहानी’, ‘औंठी’, ‘एक ढाकर जीवन’, ‘ज्योतिबिनाको उज्यालो’, ‘तिम्रो बासित पैसा छैन’, ‘तार चुँडिएको सारङ्गी’, ‘माछाको मोल’, ‘कुखुराको भाले’, ‘गोर्खे जीप’, ‘एक ढाकर जीवन’, ‘एउटा दिनको सामान्यता’, ‘शान्ति’,’ रितु’, ‘बिलास बाबु मरेपछि’, ‘मायागंज’, ‘गोर्खा रेजिमेंट’, ‘दर्जिलिंगको चियाबगान’, ‘सिक्किमका नेपाली समुदाय’, ‘सिलसिला’, ‘राँको’, ‘एभिनिंग फायर क्याम्प’, दलदलआदि मुख्य हैं। जिनमें से यहाँ प्रमुख- प्रमुख लघु फिल्मों का परिचय येआलेख में दिया है।
‘मायागंज’लघु चलचित्र को निर्देशन बिनोद प्रधान ने किया है। यह लघु चलचित्र में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नेपाली समुदाय के जीवन को दर्शाया गया है। इसमे नेपाली भाषी समुदाय की संस्कृति,सामाजिक संरचना, संगीत, नृत्य और मुख्य त्यौहारों को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया हैं।
‘दार्जिलिंगकोचियाबगान’सन्
2017 मे अमन प्रधान की निर्देशन मे निर्माण हुआ है। इस लघु चलचित्र दार्जिलिंग के चायबागानों में काम करने वाले नेपाली मजदूरों के जीवन पर आधारित है। चायबागानों में रहने वाले मजदूरों की जीवन और उनकी संघर्षपूर्ण परिस्थितियों को दर्शाया है। इसमें उनके जीवन की कठोर सच्चाईयों, सामाजिक, आर्थिक चुनौंतियों को उजागर किया गया हैं।
‘गोर्खारेजिमेंट’ सन्2015 में सुमन घिमिरे के निर्देशन में बना हुआ एक लघु चलचित्र है। गोर्खा सिपाहियों की वीरता, यश शौर्य को प्रस्तुत करने वाले इस फिल्म में गोर्खा सैनिकों के जीवन को प्रस्तुत किया है। भारतीय सेना में गोरखा रेजिमेंट की भूमिका और इतिहास को प्रस्तुत करने वालीइस फिल्म में गोरखा सिपाहियों का इतिहास प्रस्तुत किया है।
‘एकान्तछायाँ’ नामक फिल्म समाज में महिलाओं की स्थिति और उनके संघर्षों को दर्शाती है। इस फिल्म की कहानी एक महिला के जीवन पर आधारित है, जो अपने हक और अधिकारों के लिए पितृसत्तात्मक समाज के साथ लड़ती है।
‘शान्ति’एक भारतीय नेपाली लघु चलचित्र है जिसे कर्सियोंग के विवेकराई ने निर्देशित किया है। यह फिल्म एक गहन और मार्मिक कहानी को दर्शाती हैं, जो शान्ति औरमानवता के मुद्दों को उजागर करती है। फिल्म की मुख्य पात्र शान्ति एक ऐसी महिला है, जो अपने जीवन में शांति और संतोष की तलाश कर रही है। उसकी कहानी के माध्यम से फिल्म में बाहरी और आन्तरिक अशान्ति के बीच संतुलन बनाना कठिन होता है। यह फिल्म सन्2024 मे बनी थी। फिल्म ने मानवीय संवेदनशीलता, गहन संदेश और उत्कृष्ट सिनेमैटोग्राफी के कारण दर्शकों और समीक्षकों से सरहाना प्राप्त की है। यह फिल्म विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीयफिल्म महोत्सवों मे प्रदर्शित की गई है, जहाँ इसे एक महत्त्वपूर्ण सन्देश देनेवालासिनेमा के रूप में देखा गया।
‘राँको’ एक और महत्वपूर्ण भारतीय नेपाली लघु फिल्म हैं, जो समाज में जाति और धर्म के आधार पर होनेवाले भेदभाव को दर्शाती है। फिल्म की कहानी एक छोटे से गांव में रहने वाले लोगों की है, जो अपनी परंपराओं और धार्मिक विश्वासों के चलते कई संघर्षों से गुजरते है। यह फिल्म भारतीय नेपाली समुदाय के सामाजिक मुद्दों पर गहरी नजर डालती है।
‘एभिनिंगक्याम्पफायर’प्रभावी भारतीय नेपाली लघु फिल्म हैं जिसमें जीवन की सरलता और उसमें मौजूद सौंदर्योकोदर्शायागयाहै।इस फिल्म में मुख्य पात्र अपनें जीवन के एक साधारण शाम को याद कर करते हुए दर्शकों को अपने साथ एक गहरी भावनाओं में ले जाता है।
‘सिलसिला’ भी एक भारतीय नेपाली लघु फिल्म है, जो रिश्तोंऔर भावनाओं के जटिल ताने- वाने को उजागर करती है। यह फिल्म दिखाती है कि कैसे रिश्तों में उतार- चढ़ाव आते है और किस प्रकार व्यक्ति को इनसे निपटना पड़ता है। फिल्म में पारिवारिक मूल्यो और प्रेम को प्रमुखता दिया गया है।
‘औठी’लघु फिल्मसन् 2007 में कालिम्पोगं के विशिष्ट फिल्मस के ब्यानर में हुआ था। नेपाली साहित्य के विशिष्ट कहानीकार अच्छा राई ‘रसिक’ की कहानी पर आधारित ‘औंठी’फिल्म का कुल समय 27 मिनट हैं। सिनेमा से साहित्य का सम्बन्ध उतना पुराना है जितना स्वयं सिनेमा पुराना है। साहत्यिक कहानी औँठी मे आधारित इस चलचित्र ने सामाजिक विषय वस्तुओं को दिखाया है। ग्रामीण नेपाली परिवेश मे आधारित औंठी चलचित्र ने जातीय विभेद, प्रेम, लोगों के ठगने के स्वभाव आदि विषयों को प्रस्तुत किया है। सामाजिक संरचना के घेरे में रहकर समाज में रहने वाले नहकूलसिंह सराफी जैसे इंसानों केचरित्रों को उद्घाटन करना ही इस फिल्म का मुख्य उद्देश्य रहा है। इस फिल्म का अधिकांश भाग पूर्वदीप्ति शैली में प्रस्तुत किया है। कहानी को प्रभावकारी बनाने के लिए सिनेमा में जगह-जगह पर नेपथ्य पात्र का प्रयोग भी किया है।
सन् 2015 में फेरि टेल्स मूविज की ब्यानर में निर्मित ‘एकढाकरजीवन’ लघु चलचित्र के निर्देशक फुर्बा छिरिङ लामा है। नेपाली साहित्य की कहानी ‘मान्छे मान्छेकै बस्तीभित्र’ में आधारित ‘एक ढाकर जीवन’ के नायक रामसिंह और बलवीर है। मूल कहानी की तरह फिल्म में भी बलवीर और रामसिंह बाजार की दुकानों में ढाकर (टोकरी) में मांस पहुंचाने का काम करते है। मांस को ढाकर में रखकर दुकान तक पहुँचाने में रामसिंह और बलवीर के जीवन का एक बड़ा हिस्सा बीता हुआ है। अपना साथी की मृत्यु देख कर बलवीर स्तब्ध हो जाता है। मानवता और मित्रता के नातेवह बारी-बारी ढाकर में पडा हुआ मांस और दूसरे में रामसिंह की लाश को लेकर आगे बढ़ता है, जहां पे जाकर चलचित्र का अन्त हुआ है। यह चलचित्र बलवीर और रामसिंह के जीवन कहानी के आसपास घुमा हुआ है। जीवनभर मांस की ढाकर उठाकर भी कोइ उपलब्धि ना होना और अन्त में उसी ढाकर का अपने ऊपर गिरकर रामसिंह की मौत होना जैसी घटनाओं से गरीबी का चित्रण देखने को मिलता है। इस चलचित्र में दूसरों के भार को उठाकर अपने जीवन-यापन करने वाले रामसिंह और बलवीर जैसे कई व्यक्तिओं के जीवन के कई पहलूओं को दिखाया गया है।
‘माछाको मोल’ (द पिस अफ फिस) लघु चलचित्र फेरी टेल्स मूवीज की ब्यानर में निर्मित होकर सन् 2016 में प्रदर्शन में हुआ है। नेपाली साहित्य की प्रसिद्ध कहानीकार शिवकुमार राई की कहानी‘माछाको मोल’ को आधार बनाकरइस फिल्म का निर्माण किया गया है। कुल समय 30 मिनट रहा इस फिल्म के निर्देशक फुर्बा छिरिङ लामा है। सरल और सहज कथा में आधारित ‘माछाको मोल’ फिल्म में मछली पकड़कर अपनी जीविका चलाने वाले मछुआरा रने के जीवन पर आधारित है। फिल्म की शुरुआत रने की नदी में मछली पकड़ते हुए दृश्य से होता है। अपने पकडे हुए मछलियों को बाजार में बेचने के लिए उचित दाम का ना मिलना, रास्ते में घर वापस आते वक्त एक चायवाली अर्थात् कान्छी की दुकान में चाय नाश्ता करना, कान्छी की पति का मौत हो चुकी है और वह अकेली रहने वालीऔरत है, यह बात जानकर रने उसके साथ शादी करके घर बसाने की कल्पना करना, आज तो ढेर सारी मछली पकड़ कर कल ही बाजार में उसको बेचकर कान्छी से शादी करूंगा कहकर उसी रात मछली पकड़ने नदी में जाना और उसी रात नदी में डूबकर उसकी मौत होना जैसी घटनाओं को चलचित्र में कलात्मक ढंगसे प्रस्तुत किया गया है।
निष्कर्ष : सिनेमा और समाज बहुत पहले से एक आपस में जुड़ेहुएहैं। भारतीय नेपाली लघु फिल्मों में भी नेपाली समाज की संस्कृति, परंपराओं और सामाजिक मुद्दो को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इन फिल्मों में भारतीय नेपाली समुदाय की विशिष्टताओं और उनकी सांस्कृतिक पहचानको प्रमुखता दी गई है। प्रस्तुत आलेख में चर्चा कीगई कई फिल्में सामाजिक मुद्दो जैसे कि प्रवासी जीवन, शिक्षा, पारिवारिक समस्याएं और आर्थिक कठिनाइयों पर ध्यान केंद्रित करती है। यह फिल्म दर्शकों को उन समस्याओं पर विचार करने के लिए प्रेरित करती है, जो सामाजिक जागरुकता को बढ़ाने मे मदद करती है। नेपाली भाषा की इन लघु फिल्मों में साहित्यिक मूल्य और भाषा का सही उपयोग हुआ है। यह फिल्म भारतीय फिल्म उदयोग और भाषिक विविधता को भी उजागर करती है। इन्ही निष्कर्षों के आधार पर यह कहा जा सकता हैं कि भारतीय नेपाली लघु फिल्म नेपाली समुदाय की पहचान और उनकी समस्याओं को प्रदर्शित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
1.श्रीराम तिवारी, विश्व सिनेमा का सौन्दर्यबोध, सन् 2018 तृतीय संस्करण, ज्ञानपीठ प्रकाशन, पृ. सं- 110
2.कैलाश पांडेय, पत्रकारिता, सिनेमा और बाजार-संपा, मीडिया विमर्श, सिनेमा विशेषांक-1, दिसम्बर 2012, पृ. सं-25
3.राजेन्द्र पाण्डे, पटकथा कैसे लिखें, सन् 2015 प्रथम संस्करण, वाणी प्रकाशन, पृ. सं- 73
[5].श्रीराम तिवारी, विश्व सिनेमा का सौन्दर्यबोध, सन् 2018 तृतीय संस्करण, ज्ञानपीठ प्रकाशन, पृ. सं- 111
6.दिलचस्प, हिन्दी फिल्मं का संक्षिप्त इतिहास, सन् 2014, भारतीय पुस्तक परिषद, पृ. सं- 14
7.गजेंद्र प्रताप सिंह, फिल्मों की पृष्ठभूमि और युवाओं पर प्रभाव- संपा, मीडिया विमर्श, सिनेमा विशंषांक-2, मार्च 2013 पृ.सं- 37
[8].राजेन्द्र सुवेदी, चलचित्र सिद्धान्त र नेपाली चलचित्र, सन् 2012, प्रथम संस्करण, कञ्चन प्रिन्टिङ प्रेस, काठमाडौँ, पृ. सं- 227
[9].हरीश कुमार, सिनेमा और साहित्य, सन् 1998 प्रथम संस्करण, संजय प्रकाशन, पृ. सं- 07
शोधार्थी, नेपाली विभाग, उत्तर बङ्ग विश्वविद्यालय, राजाराम मोहनपुर, दार्जिलिङ, पश्चिम बंगाल
maya81357@gmail.com, 7031654269
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