शोध आलेख : हिन्दी सिनेमा में बाल सिनेमा के विविध पक्ष / पूजा सिंह

हिन्दी सिनेमा में बाल सिनेमा के विविध पक्ष
- पूजा सिंह


            सिनेमा ऐसी कलात्मक अभिव्यक्ति है, जिसके माध्यम से हम समस्त कलारूपों का उन्नत समायोजन देख सकते हैं। फिल्मकार इन विधाओं का सृजनात्मक प्रयोग करते हुए एक नई कृति को आकार देता है। यह नई रचना दर्शक को दृश्य-श्रव्य माध्यम से कल्पना और आलोचना के नए लोक की यात्रा पर ले जाती है। सिनेमा आज हमारे सामाजिक जीवन का एक महत्वपूर्ण अवयव है। सिनेमा शब्द सुनते ही व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में कई सारे दृश्यों, घटनाओं, गीतों की छवि एक साथ प्रस्तुत हो जाती है जिसका प्रभाव कहीं कहीं उसकी अभिव्यक्ति सोच पर भी पड़ता है। सिनेमा के विषय में आलोचक प्रो. जवरीमल्ल पारख कहते हैं- ‘‘किसी भी फिल्म को सिर्फ सामाजिक यथार्थ का पुनरूत्पादन मात्र नहीं समझा जा सकता है। वह एक नई रचना होती है। यह नई रचना यथार्थ से प्रेरित अवश्य होती है, लेकिन वह उसकी नकल नहीं होती। एक अर्थ में वह संपूर्ण सामाजिक यथार्थ में कुछ नया जोड़ती उसे यथार्थ की पुनर्रचना या प्रतिक्रिया समझना पर्याप्त नहीं है। वह अपने में एक रचना है जैसे कोई उपन्यास या कविता का चित्र।’’1 

            सिनेमा आज मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम है। जीवन की प्रगति और व्यस्तता के कारण नाटकों का प्रचलन धीरे-धीरे कम होता गया और उसका स्थान सिनेमा ने ले लिया। किसी समस्या को लेकर एक कहानी के माध्यम से चलचित्र कथानक रूप लेता है, जिसमें अनेक पात्र, अनेक घटनाएं, गीत, नृत्य, प्राकृतिक दृश्य, रहस्य, रोमांच, संवाद तथा अभिनय का विशेष महत्त्व होता है। इसकी लोकप्रियता के कारणों में यह एक विशेष कारण है कि इन सबको एक ही समय में एक ही पर्दे पर देखा जा सकता है। प्रकृति के सुंदर दृश्य, विदेशों के दृश्य दर्शकों को रोमांचित करते हैं। सिनेमा में समय केवल तीन घंटे लगते हैं तथा इतनी तेजी से अनेक घटनाएं घटित होती हैं कि दर्शक चित्र लिखित हो जाता है। संगीत और गीत का माधुर्य उसे मंत्रमुग्ध करता है। कम धन व्यय करके सभी लोग सिनेमा देख सकते हैं। यह सहज सुलभ साधन है, जो आज प्रत्येक शहर के सिनेमाघरों में प्रदर्शित किया जाता है। अतः इसकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। आज लोग घरों में बैठकर भी अपने टेलीविजन पर मनोनुकूल फिल्म देख सकते हैं और जो भी समय उपलब्ध हो, उसमें मनोरंजन कर सकते हैं मनोरंजन के साधनों में चलचित्र सर्वाधिक लोकप्रिय साधन है।

            प्रत्येक युग की अपनी विशिष्ट सामाजिक निर्मितियाँ होती हैं। कला का कार्य इन्हीं निर्मितियों को पकड़ना होता है। आजादी के बाद का परिवेश एक नया परिवेश था। सिनेमा ने इस नए परिवेश को पहचाना, आजादी के पूर्व के सिनेमा में व्यक्त सच्चाई अलग थी। उसने तत्कालीन समाज को मुक्ति और स्वतंत्रता के संघर्ष से जोड़ा। आजादी के बाद की सामाजिक परिस्थितियाँ नितांत भिन्न और जटिल थीं। भारतीय समाज में एक व्यापक परिवर्तन मध्यवर्ग के संदर्भ में भी देखा जा सकता है। यह वर्ग परिमाण में जितना व्यापक था, स्वभाव से उतना जटिल; इस नए उभरते हुए वर्ग ने अपने समय को बेहद सतर्कता से देखा। बदलते हुए युगबोध, सामाजिक मूल्यों, समस्याओं को अपना विषय बनाया। आलोचक सुरेन्द्र नाथ तिवारी अपनी पुस्तकभारतीय नया सिनेमामें लिखते हैं- ‘‘वस्तुतः नया सिनेमा की विषयवस्तु नयी नहीं है। विगत अनेक दशकों से इन्हें भारत के विविध क्षेत्रों के साहित्य में अपनाया गया है और किसी सीमा तक स्वतंत्रता के पहले और बाद के प्रारम्भिक वर्षों में भी उन विषयों पर फिल्में बनी हैं। फिल्मकारों ने उन्हीं विषयों को उनकी सम्पूर्णता की गहराइयों में देखा है। उनके मर्म को अनुभव किया है तथा उन्हें वाणी देने के लिएसिनेकलाके उपकरणों को, उसी भाषा और व्याकरण में ढाला है इसलिए ये प्रतिछवियाँ, बिंबों के मानवीय दस्तावेज बन गई हैं।’’2

            हिन्दी सिनेमा अपनी शताब्दी वर्ष के दौर में है। हिन्दी सिनेमा कई दौर से गुजरा है। इसमें अनेक विषयों को शामिल किया गया है। लेकिन इनके बीच ही बच्चों की भी एक दुनिया शामिल है जिनका मूल्यांकन होना, जिन पर चर्चा किया जाना अभी शेष है। आज के वर्तमान दौर में भी देश में बाल सिनेमा को वह स्थान नहीं मिल पाया है जो अब तक उसे मिल जाना चाहिए था। लेकिन इसके बावजूद भी बच्चों को लेकर फिल्में बनीं और उन्हें कम दर्जे का स्वीकार किया गया है। अन्य भारतीय भाषाओं की अपेक्षा हिन्दी में बाल सिनेमा का निर्माण अधिक देखा जा सकता है। राजकपूर से लेकर आमिर खान तक ने बच्चों को केन्द्र में रखते हुए बाल सिनेमा का निर्माण किया है। इन सिनेमाओं का उद्देश्य केवल मनोरंजन करना ही होकर, बच्चों से जुड़ी अनेक समस्याओं, उनके विविध पक्षों की ओर ध्यान आकर्षित करना है। सिनेमा के सौ वर्ष पूरे करने के साथ ही सिनेमा-जगत समृद्धशाली भी होता गया है। सिनेमा के इस समृद्धशाली दौर में आने के बाद भी बच्चों को कमोबेश रूप से इसमें शामिल करना उसकी समृद्धशालिता को चुनौती देता है। इसका मुख्य कारण कहीं कहीं निर्देशकों का पीछे हटना और बाल सेनमा में रूचि लेना है। बावजूद इसके बच्चों पर बनी कुछ फिल्मों का निर्माण हुआ और उन्हें प्राय: पसन्द भी किया गया। ‘‘एक पुरानी चीनी कहावत है कि हजार मील की यात्रा एक छोटे कदम से शुरू होती है। ऐसे ही छोटे किन्तु मजबूत कदम के बूते हिन्दी सिनेमा सैंकड़ों वर्षों की यात्रा पूरी कर चुका है। इतने कम अंतराल में सामाजिक सरोकारों से जुड़कर सिनेमा ने स्वयं को कला के स्तर पर स्थापित किया है। मानव सभ्यता, संस्कृति और बाल मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में फिल्मों का खास महत्य है। सिनेमा संस्कृतियों और सस्कारों के वाहक का काम करता है। यह सिर्फ मनोरंजन का साधन है, बल्कि शिक्षा, प्रयोगात्मक गतिविधियों एवं प्रोपेगेंडा का भी साधन है।’’3 1980 के दशक में आई फिल्ममिस्टर इण्डियाजिसकी कहानी भले ही अदृश्य मानव को लेकर फिल्मायी गयी हो लेकिन उसके केन्द्र में बच्चे ही थे। जिसमें नायक अनिल कपूर द्वारा अपनाये गये अनाथ बच्चों की अनेक समस्याओं को उभारा गया। बच्चों का कभी भूखे पेट सोना, कभी खुशी से उछलना। नायिका श्रीदेवी के साथ अनेक ठिठोलियां करना। अपने समय में काफी प्रचलित ओर पसंदीदा फिल्मों में रही।पाठशाला’, ‘अपना आसमान’, ‘बम बम बोले’, ‘थैंक्स माँ’, ‘स्टेनली का डब्बा’, ‘आई एम कलाम’, ‘फरारी की सवारीनामक फिल्मों के द्वारा बच्चों के अनेक पक्षों को उभारा गया।

            ‘‘भारतीय हिन्दी सिनेमा का विभिन्न स्वरूपों में समाज पर सकारात्मक प्रभाव जग-जाहिर है। बाल मनोविज्ञान केन्द्रित फिल्मों को बालक के समक्ष प्रदर्शित करने पर उन फिल्मों में दिखाई गई कहानियों के प्रति वास्तविकता का प्रतिबिम्व दिखाई देता है जिससे बालक उन्हीं कहानियों को वास्तविकता में अपने जीवन में प्रयोगात्मक तरीके से प्रयोग करने हेतु प्रेरित होते हैं तथा उनमें सीखने एवं समझने की क्षमता का विकास होता है।’’4

            बी.आर. चोपड़ा की भूतनाथ फिल्म, जिसका निर्देशन विवेक शर्मा द्वारा किया गया, जिसमें अमिताभ बच्चन बिग बी भूत के किरदार में दिखाई देते हैं। इस फिल्म द्वारा बंकू और भूतनाथ के रिश्ते में खोती जा रही संयुक्त परिवार की अवधारणा और भारतीय परिवारों के बिखर रहे मूल्यों को रचित किया है। 

            ‘मकड़ीफिल्म के द्वारा बच्चों को लेकर हमारी धारणा बदलती है।मकड़ीफिल्मों में चुन्नी-मुन्नी दो बहनों की कहानी है। चुन्नी थोड़ी शैतान मुन्नी सीधी-साधी लड़की है। चुन्नी का साथ मुगले-आजम नाम का लड़का देता है। फिल्म का आधार गाँव में रहने वाली चुड़ैल है। लोगों का मानना है कि जो इस भूतिया घर में जाता है वह वापस नहीं आता है। आता भी है तो कोई जानवर बनकर। मुन्नी को कल्लू कसाई द्वारा दौड़ाने पर वह उस भूतिया हवेली में जाती है। चुन्नी को यह पता चलने पर वह मुन्नी को वापस लाने जाती है, चुड़ैल मुन्नी के बदले 100 मुर्गियाँ लाने को कहती है। अंत में पता चलता है कि वह चुड़ैल नहीं थी बल्कि लोगों को मूर्ख बनाती और लोगों से खुदाई करवा कर प्राचीन अवशेष निकलवाना चाहती है। चुन्नी गाँव वालों की मदद से उस चुड़ैल बनी औरत की सच्चाई सामने लाने के साथ ही उसे पुलिस के हवाले भी करवाती है और गाँव का नाम रोशन करती है। 

            वर्तमान परिदृश्य में सिनेमा को मनोरंजन के साधन के रूप में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। आज फिल्में हमारे जीवन का महत्वपूर्ण अंग बन गई है। कम उम्र के बच्चों से लेकर वृद्धों तक सभी फिल्मों की कहानियों को अपने जीवन में उतारने की पुरजोर कोशिश में लगे हुए हैं, जिसमें बच्चों की संख्या अधिक है। वर्तमान दौर में स्मार्टफोन एवं अन्य प्रकार की डिवाईसेज के आविष्कार के बाद नई फिल्मों का घर बैठकर ही आनन्द उठाया जा सकता है। प्राय: बाल मनोविज्ञान केन्द्रित फिल्मों से प्रेरित होकर अपने नैतिक मूल्यों में वृद्धि कर रहा है। इसके अतिरिक्त अन्य फिल्मों में शहर अथवा सड़क पर गुंडों का उपद्रव भी किसी फिल्म से प्रभाव लेकर युवा वर्ग द्वारा उत्पन्न किया जाता है। अतः आज समाज में व्याप्त कई बुराइयों और समस्याओं की जड़ फिल्में ही हैं, किन्तु इसके विपरीत सकारात्मक फिल्मों से समाज में जनजागृति उत्पन्न हुई है तथा लोगों द्वारा अच्छे-बुरे का अन्तर समझकर अपने भावी जीवन को आगे बढ़ाने में सहायता मिली है। कुछ फिल्मों से समाज तथा बालकों पर अच्छा प्रभाव भी पड़ता है। सामाजिक विषयों से सम्बन्धित फिल्में व्यक्ति में देशभक्ति, राष्ट्रीय एकता और मानव मूल्यों का प्रसार करती है। ऐसी फिल्में जाति-प्रथा, दहेज प्रथा, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद जैसी सामाजिक कुरीतियों को दूर करने की प्रेरणा देती हैं। लेकिन फिल्मों के कुप्रभावों की मात्रा अधिक है। युवा वर्ग को हिंसा-प्रधान फिल्में ही अच्छी लगती हैं। आज यदि वे अपने प्रिय नायक-नायिकाओं का पदानुसरण करते हैं, तो इसके लिए पूर्णत: उन्हें दोषी नही ठहराया जा सकता है। इसमें जितना दोष फिल्मों का है, उतना ही उन फिल्म निर्माताओं का है, जिनके द्वारा नकारात्मक कहानियों पर केन्द्रित फिल्मों का निर्माण किया जा रहा है। फिल्मों ने सामाजिक जीवन को विकृत करने का प्रयास भी किया है, जिसमें सुधार लाने के लिए सामाजिक उद्देश्य प्रधान फिल्मों के निर्माण की आवश्यकता है।

            ‘थैंक्स माँइरफान कमल की फिल्म में झुग्गी, झोपड़ी गन्दी बस्तियों के आंवारा और अनाथ बच्चे के माध्यम से बचपन की मार्मिक कथा को दर्शाते हुए उनके अन्दर उठते दर्द को व्यक्त किया गया है। इस फिल्म में म्यूनिसिपालटी नाम का एक बच्चा माँ-बाप के प्रेम के लिए तरसता है। वह खुद को सलमान खान कहलाने की इच्छा रखता है और भी बच्चे चोरी और पाकेटमारी कर अपना गुजारा करते हैं। वह बस यही चाहता है कि उसको उसकी माँ मिल जाये। बाल सुधार गृह में उसे भेजा जाता है तो वार्डेन का व्यवहार खराब देख वहाँ से भाग जाता है और इसी दौरान एक नवजात बच्चा उसे मिलता है। वह बच्चे का लालन-पालन करता है, अनेक समस्याएँ झेलने के बाद भी उसको साथ लिए घूमता है। उसकी केवल एक ही इच्छा है कि वह उस बच्चे को उसकी माँ से मिला सके। अपने दोस्तों की मदद से अनेक मुसीबतों को झेलने के साथ उस बच्चे के माँ तक पहुँच भी जाता है। पर अंत में उसकी माँ की विवशता को देखता है और जब वह जान जाता है कि उसकी माँ ने ही उसे छोड़ा है वह आश्चर्य से भर जाता है। फिल्म का नामथैंक्स माँरखने के पीछे उन सभी माँ को धन्यवाद देना है जो खुद मुश्किलों में पड़कर अनेक समस्याओं को सहते हुए भी अपने बच्चों को अपने सीने से लगाये उनकी रक्षा करती हैं। इस फिल्म के अनुसार देश में 270 के लगभग बच्चे प्रतिदिन अनाथ छोड़ दिये जाते हैं। ऐसे बच्चों का जीवन शहर की गुमनाम गलियों में बीतता है और वे जीवन-यापन के लिए चोरी अपराध के रास्तों का चुनाव करते हैं। 

            प्रियदर्शन कीबम बम बोलेफिल्म दो भाई-बहनों की अनूठी कहानी है, जिनके माता-पिता बहुत गरीब हैं और मजदूरी करके किसी तरह अपना जीवन-यापन करते हैं। एक दिन भाई बहन की जूती बनवाने ले जाता है और वह गुम हो जाती है। माँ-बाप की नये जूते दिलाने की क्षमता हो पाने और डाँट के डर से दोनों भाई- बहन एक तरकीब सोच लेते हैं। एक ही जूते में दोनों भाई-बहन काम चलाते हैं, जो जूता बहन सुबह पहन कर जाती है, वही जूता दोपहर में भाई पहन कर स्कूल जाता है। परिवार और स्कूल के बीच जबरजस्त मैनेजमेन्ट को बड़ी खूबी से दर्शाया गया है। भाई के स्कूल में एक मैराथन की रेस होने वाली थी, जिसमें तीसरा इनाम एडीडास का जूता होता है। वह अपनी बहन से कहता है कि मैं दौड़ में तीसरा स्थान लाऊँगा और जूता जीत जाऊँगा। यह सुनकर बहन कहती है जूता तो तुम्हारे नाप का होगा। इस पर वह कहता है कि उसे बदल कर वो उसके नाप का मांग लेगा। वह रेस में दौड़ता है और अनेक समस्याओं को पार करता वह जीत भी जाता है पर मैराथन रेस में प्रथम जाता है। लेकिन प्रथम आकर भी वह खुश नहीं होता, क्योंकि उसे प्रथम नहीं बल्कि तीसरे स्थान पर आना था। उसे पढ़ाई के लिए स्कालरशिप भी मिलती है पर जूता के पुरस्कार का सपना टूट जाता है और वह प्रथम आकर भी निराशा से घर लौटता है। इस फिल्म में अनेक मार्मिक प्रसंग देखने को मिलते हैं। बच्चों को प्रत्येक चीजों के लिए संघर्ष, पिता को काम मिलना आदि पर इस फिल्म ने एक रास्ता दिखाया। अंत में अनेक समस्याओं के बाद पिता द्वारा पैसा मिलने पर दोनों बच्चों के लिए नये जूते खरीदना और इसी दृश्य के साथ फिल्म समाप्त होती है। इसी कहानी को आधार बनाकर माजित मजिदी नेचिल्ड्रेन आव हैवेन और खालिद वाई बाटलीवाला ने सलाम बच्चे नामक फिल्मों का निर्माण किया। इन फिल्मों के माध्यम से भाई-बहनों के आपसी प्रेम और तकरार को बखूबी दर्शाया गया है। 

            ‘तारे जमीं परअभिनेता आमिर खान की फिल्म डिस्लैक्सिया से पीड़ित एक मंदबुद्धि बच्चे और डिस्लैक्सिया में शब्दों का भूल जाने, समझ आने की समस्या पर आधारित है। ईशान नाम के बच्चे को केन्द्र में रखा गया है, जिसे सब शैतान समझते हैं, लेकिन उसकी कमियों और उसकी परेशानियों को कोई भी नहीं समझ पाता। यहाँ तक कि उसके माँ बाप भी उसकी हरकतों से परेशान होकर उसको बोर्डिंग स्कूल में डाल देते हैं। तभी उसे वहाँ शिक्षक के रूप में आमिर खान मिलते हैं जो उसे और उसके कमियों को समझता है और उसे सुधार कर ईशान में आत्मविश्वास पैदा करता है। अन्त में उस पीड़ित बच्चे ईशान और शिक्षक आमिर खान की पेन्टिंग को ही स्कूल के कवर पृष्ठ के रूप में स्वीकार किया जाता है। इस फिल्म के माध्यम से यह दर्शाया गया है कि एक अच्छा शिक्षक ही बच्चों के खोए आत्मविश्वास को वापस ला सकता है, जिसे कभी-कभी माँ-बाप के द्वारा भी नहीं किया जा सकता है। 

            इसी प्रकार की संजय लीला भंसारी कीब्लैकफिल्म आई थी, जो मिशेल नाम की छोटी अंधी, गूंगी-बहरी और निहायती जिद्दी लड़की की कहानी है। उसे जिद्दी कहना एक तरह से गलत भी होगा और सही भी। गलत इसलिए कि वह जिन परिस्थितियों से गुजरती है वह चुनौतीपूर्ण है। सही इस कारण से क्योंकि वह समझाने पर भी नहीं समझना चाहती है। इसके माता-पिता इसके ठीक होने की सारी उम्मीद छोड़ उसे असाइलम भेजना चाहते हैं। तभी अमिताभ उस लड़की के शिक्षक के रूप में आते हैं जो निहायत कठोर व्यवहार करते हैं। ब्रेललिपि के माध्यम से उसकी समस्याओं और उंगलियों के माध्यम से मुँह से बोले गए शब्दों को पहचानने में उसकी मदद करते हैं। कालेज में एडमिशन दिलवाते और वह अंधी, गूंगी और बहरी लड़की अपनी समस्याओं से लड़ती अंधेरे को चीरती रोशनी की तरफ अपनी शिक्षा के सपने को पूरा करती है और अंत में वह अपने उसी शिक्षक से मिलने जाती है जो खुद भी सब भूल चुका होता है। वह उसे याद दिलाती है और वह पहला शब्द जो शिक्षक द्वारा उसे बताया गया था अंत में याद दिलाती हैवाटरऔर यहीं फिल्म समाप्त होता है। यहां ब्लैक का अर्थ अँधेरा नहीं बल्कि मन का विश्वास है जो उसे उजाले की ओर अंधेरे को चीरती ले जाती है। 

            इसी तरह अमिताभ बच्चन द्वारा अभिनीतपाफिल्म में भी प्रिजेरिया रोग से ग्रसित एक बच्चे को दिखाया गया है, जिसमें एक बच्चा समय से पहले बूढ़ा होने लगता है।   

            ‘अपना आसमानभी एक ऐसे ही बालक की कहानी है, जो मानसिक रूप से विकलांग है। उस बच्चे का नाम बुद्धिराज है जबकि बच्चा उसके विपरीत है। इसी का सभी मजाक उड़ाते हैं। बच्चे की इस स्थिति के लिए उसकी माँ उसके पिता को जिम्मेदार मानती है कि बच्चा बचपन में उनके हाथ से छूटकर गिरा होता तो वह दूसरे बच्चों की तरह सामान्य होता। बच्चे को आम बच्चों की तरह बनाने के लिए उसे पिता द्वारा इंजेक्शन लगा दिया जाता है। इसके बाद वह बच्चा ठीक होने और तेज बुद्धि वाला होने के साथ ही निहायत बदतमीज़ हो जाता है। माता-पिता अपने बच्चे को वापस उसी रूप में पाना चाहते हैं जैसा वह पहले था। अचानक बच्चे की तबीयत खराब होती है और दिये गये इन्जेक्शन के एण्टी डोज से वह पहले की तरह हो जाता है। माता-पिता उसके पेन्टिंग को देखकर और बच्चे को वापस पाकर फिर से खुश हो जाते हैं।

            ‘‘हम विकलांग बच्चों को समाज का हिस्सा नहीं बल्कि बोझ समझते हैं। इन बच्चों को परेशान किया जाता है, वास्तविकता से दूर रखा जाता है। किनारे कर दिया जाता है। अस्पताल में भरती करना, असाइलम भेज देना, बोर्डिंग स्कूल भेज देना तथा सामान्य लोगों द्वारा अनदेखा कर दिया जाता है। जैसा भेदभाव हमारे समाज में ऐस बच्चों के लिए किया जाता है हमें नहीं करना चाहिए। हम यह बात भूल जाते हैं कि हर बच्चा अनोखा होता है और उसकी एक खास कहानी होती है। ये भिन्न जरूर होते हैं पर उन्हें भिन्न मानकर उनकी अवहेलना करना उनका मजाक बनाना गलत है।’’5

            ‘नन्हा जैसलमेरफिल्म एक राजस्थानी लड़के कैमल ब्वाय की कहानी है और फिल्म की शुरूआत किताब लेने के लिए लगी लाइन से शुरू होती है। वह उसी के द्वारा लिखी गई है और वह उसे सुनाता है। पूरी फिल्म की कहानी बॉबी देओल के इर्द-गिर्द घूमती है। वह राजस्थानी लड़का ऊँट चलाता है। राजस्थान आये लोगों को वहाँ के स्थानों को दिखाने का काम करता है और बॉबी देओल की फिल्मों को कई बार देखता है। उस गाँव की रानी-सा लोगों को पढ़ाना चाहती है। वह नन्हें जैसलमेर से भी कहती है पर वह नहीं पढ़ता। वह हर पिक्चर देखने के बाद अपनी बहन से बॉबी देओल को चिट्ठी लिखवाता है। एक दिन उसे बॉबी देओल मिलता है। वह उसे अपने बारे में बताता है। फिल्म ऐसे ही आगे बढ़ती है। एक बार जब वह दर्शकों को घूमाता है तो उसी दौरान उसे एक लड़का-लड़की मिलते हैं। जो उसके ऊँट को गधा कहती है। उसके ऊँट पर गधा और उसके हाथ पर उससे भी बड़ा गधा लिख देते हैं। गाँव के सभी लोग उसके ऊँट को देखकर हँसते हैं। वह रानी-सा के पास जाकर पूछता है और जब उसे पता चलता है कि उस पर क्या लिखा है वह रोता है और सोच लेता है अब वह पढ़ेगा। वह सारी बात आकर बॉबी देओल को बताता रहता है। एक दिन अपनी बड़ी बहन की शादी में वह अपने दोस्त बॉबी देओल को आने को कहता है और उसके आने पर वह गुस्सा होता है तब उसके माँ ने बताया कि तुमने तो शादी का कार्ड ही नहीं भेजा। तब उस लड़के को याद आता है कि वह उसकी कल्पना थी, बॉबी देओल से वह कभी मिला ही नहीं। उसके द्वारा बोले गये पिक्चर के डायलॉग थे, जो हर समय नन्हें के कानों में गूंजा करते थे। पर बॉबी देओल हमेशा उसके लिए प्रेरणा स्त्रोत रहा और अंत में वह खुद नन्हें जैसलमेर से मिलने आता है जो बड़ा हो गया और फिल्म यहीं समापत होती है। बॉबी देओल की कल्पना ने इस बच्चे को एक अच्छा व्यक्ति बनाया। इस फिल्म को लोगों द्वारा बहुत पसन्द भी किया गया। 

            सिनेमा देखते समय बालक अपने जीवन की वास्तविक कठिनाइयों और कटुता भुलाकर कल्पनामय सुखद लोक में विचरण करने लगता है। उसके जीवन की एकरसता दूर हो जाती है। साधारण बालक का जीवन संघर्षमय और ऊब से भरा होता है। इस नीरसता को दूर करने में सिनेमा प्रभावशाली भूमिका निभाता है। उदासीनता से परिपूर्ण बालक भी अपने जीवन के सभी अभावों और कटुताओं को कुछ देर के लिए भूलकर कल्पना-लोक में भ्रमण करने लगता है। इस प्रकार समाज के प्रत्येक वर्ग के लोगों का मनोरंजन करने का यह बड़ा सशक्त और सुगम साधन है। पर्दे पर देश-विदेश के मनोहारी दृश्य, हैरतअंगेज कार्य, नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण, रोमांस का वातावरण और सुन्दर तथा विशाल अट्टालिकायें आदि देखकर सभी व्यक्ति पुलकित और आनन्दित हो उठते हैं।

            ‘आई एम कलामफिल्म की कहानी भी राजस्थानी गरीब लड़के छोटू के पढ़ाई के लिए उसके संघर्षों को दिखाती है। फिल्म की पूरी कहानी गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर नन्हें छोटू के इर्द-गिर्द घूमता है, जो विपरीत परिस्थितियों में भी जोश और जज्बे को बनाए रखता है। एक दिन चाय की दुकान पर काम करते हुए कलाम जी का भाषण सुनने के बाद जीवन के प्रति छोटू का नजरिया ही बदल जाता है। छोटू किसी भी चीज को एक बार देख या सुन लेता उसे वह बातें याद हो जाती हैं। माँ गरीब थी इसलिए उसने छोटू को पढ़ाने के बजाए चाय की दुकान पर नौकरी करने को रखवा देती है। छोटू अपनी काबिलियत से सबका दिल जीत लेता है। दिन भर दुकान पर काम करता और रात में किताब लेकर पढ़ाई करता। वह अब्दुल कलाम का बहुत प्रशंसक है और उनसे मिलना भी चाहता है। छोटू की दोस्ती राजस्थान के राजा के लड़के से हो जाती है, जब वह महल में चाय देने जाता है। छोटू उसकी पढ़ाई में हर सम्भव  मदद करता है। राजा के लड़के को भाषण प्रतियोगिता में ट्रॉफी इनाम में मिलती है। इधर महल के लोगों द्वारा उसे चोर कहकर अपमानित किया जाता है। उसकी किताबें फाड़ दी जाती हैं। इस अपमान के कारण छोटू भागकर दिल्ली चला जाता है। उधर जब राजा के लड़के द्वारा सच्चाई का पता चलता है कि वह चोर नहीं उसका दोस्त है और जो इनाम उसे मिलता है वह छोटू के कारण ही तो सभी उसे ढूंढते हैं और ढूँढकर वापस लाते हैं। उसकी माँ को महल में नौकरी देकर छोटू को कुँवर के साथ पढ़ने की इजाजत भी मिल जाती है। जब उसके मामा चाय की दुकान के मालिक द्वारा यह कहा जाता है कि वह उनकी पढ़ाई का खर्च देंगे। इस पर वह कहता है नहीं मैं खुद अपनी पढ़ाई का खर्च उठा लूँगा। यही इस फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता है एक बच्चे का आत्मविश्वास से भरा होना दिखाया गया है। ‘‘छोटू को यकीन है कि एक दिन वह कलम जैसी बड़ी शख्सियत बनेगा।’’6

            बाल मनोविज्ञान केन्द्रित हिन्दी फिल्मों के निर्माण में निर्देशकों को बालक की स्थिति, मनोरोग की स्थिति एवं उसके आचार-व्यवहार का प्रदर्शन किया जाता है तथा इसके अतिरिक्त गंभीर बीमारियों से ग्रसित बालक एवं उनके द्वारा किये गये संघर्ष के प्रदर्शन से बालकों में आत्मनिर्भरता का विकास होता है। अत: वर्तमान निर्देशक-निर्माताओं को बाल मनोविज्ञान केन्द्रित फिल्मों का निर्माण करना चाहिये, जिससे समाज एवं देश के विकास में सहायता मिल सके।

            पियूष झा की फिल्मसिकंदरएक ऐसे कश्मीरी बच्चे की कहानी है, जो फुटबॉल खेलना बेहद पसंद करता है। पर अन्य लड़के उसे हमेशा परेशान करते हैं। एक दिन उन बच्चों को रास्ते में एक बंदूक मिल जाती है। उसके बाद उनका जीवन ही बदल जाता है। उसी के साथ पढ़ने वाली लड़की को वह सारी बात बताता है। बन्दूक दिखाकर वह बच्चों को डराता है और दुर्भाग्य वश वह बच्चा गलत हाथों में पड़ जाता है। चाहते हुए भी उसके हाथ से ऐसे काम हो जाते हैं कि उसे आतंकवादी मान कश्मीर की आर्मी उसके पीछे पड़ जाती है। तीन लड़के जो उसका बन्दूक छीन लेते हैं, उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता है।’’ इस फिल्म में अमन का राग अलापने वाले ही मानवता को तार-तार करते दिखाये गये हैं। ऐसा अमानवीयपन जो बच्चों को भी हिंसक बनाने में नहीं हिचकिचाता है। इस फिल्म में कश्मीर के तनाव और दर्द को बच्चों की आँखों से  देखने की कोशिश देखी जा सकती है और इसी के साथ कश्मीरी बच्चे के दर्द को पर्दे उतारने की भी कोशिश की गई है।’’7

            ‘स्टेनली का डिब्बाफिल्म की कहानी नौ वर्षीय बालक स्टेनली की है जो स्कूल में पढ़ता है। पढ़ने-लिखने में काफी अच्छा है। वह पढ़ाई और दोस्तों के साथ अच्छा जीवन बीताता है। स्कूल में पढ़ने का समय बढ़ता है और बच्चों के डिब्बे यानी टिफिन बॉक्स का साइज भी बढ़ेगा, ऐसा हिन्दी के शिक्षक बाबू राम का कहना है जो खुद कभी लंच बॉक्स लाने के बजाय अन्य शिक्षकों और बच्चों का लंच खाया करता था। बाबूराम की नज़र स्टेनली के दोस्तों के डिब्बे पर पड़ती है जो सभी बच्चों के लिए समस्या की बात थी क्योंकि वह बच्चों का सारा खाना खुद खा जाया करता था। बच्चों ने भी योजना बनाई उसे छुपाकर खाने की। वो लगातार बच्चों को लंच में खोजता रहा, बच्चे झूठ बोलकर उससे भागते रहे। एक दिन बच्चों को ढूंढ लेता है और जब उसे पता चलता है कि स्टेनली कभी डिब्बा लाता ही नहीं उसे बुरी तरह डांटता है और डिब्बा लाने का दबाव बनाता है। लाने पर उसे स्कूल में घुसने नहीं दिया जाता। यह बात अन्य शिक्षकों को पता चलती है तो बाबू राम शर्मिंदा होकर स्कूल छोड़ देता है और अंत में पता चलता है कि स्टेनली बिन माँ बाप का अपने खड़ूस चाचा के रहमोकरम पर पलने वाला बच्चा है। जो होटल में काम करता है और बचा हुआ खाना खाकर अपना गुजारा करता है। अंत में वही होटल का बचा खाना वह डिब्बा में भरकर फ्रिज में रख देता है और स्कूल में सभी को खिलाता है। सब खुशी से खाते हैं। इसी खुशी के माहौल के साथ फिल्म समाप्त हो जाती है। लेकिन उसके अनाथ होने और संघर्षों को झेल कर मुस्कुराते रहना दर्शकों की आँखों को नम कर जाते हैं।

            ‘फरारी की सवारीविधु चोपड़ा की फिल्म टूटते और साकार होते सपने के बीच तीन पीढ़ियों को आपस में जुड़े हुए सम्बन्ध और समझदारी की कहानी को प्रस्तुत करता है। पूरी कहानी बेटे केयो के इर्द-गिर्द घूमती है जो एक प्रतिभाशाली क्रिकेटर है और रूसी बेटे के लिए कुछ भी कर सकता है। इधर मोटा पापा यानी केयो का दादा जी टीवी देखते हुए घर की प्रत्येक गतिविधि पर नज़र रखता है, जो अपने किशोरावस्था में क्रिकेटर थे। रणजी भी खेल चुके थे, लेकिन नेशनल टीम में चुनने के दिन दोस्त दिलीप धर्माधिकारी की साजिश का शिकार होते हैं और छट जाते हैं। अपने साथ क्रिकेट में हुए छल-कपट को देखने के बाद वह एकदम नहीं चाहते थे कि उनका बेटा क्रिकेटर बने, बेटा तो फिर भी मान जाता है पर पोता अन्त में क्रिकेटर बन जाता है। इनके पोते केयो का चुनाव लार्डस के विशेष प्रशिक्षण लाईस के विशेष प्रशिक्षण के लिए होने वाला रहता है। पर दिक्कत एक ही है कि चुने जाने पर डेढ़ लाख रूपए की फीस भरनी होगी। सीमित आय वाले इस परिवार के लिए एक चुनौती थी कि वह इतनी बड़ी रकम कैसे जुटाये और रूसी ठहरा ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ नागरिक, लेकिन बेटे के भविष्य के लिए उसकी ईमानदारी डगमगा जाती है। वह अपने पिता से कहता है कि कुछ घंटों के लिए यदि सचिन तेंदुलकर का फरारी उसे मिल जाये तो उसकी खोज में उसे डेढ़ लाख रूपये मिल सकते हैं और घटनाएँ कुछ इस प्रकार घटती हैं कि वह सचिन तेंदुलकर को बताए बिना ही उनकी फरारी लेकर निकल जाता है। इस प्रकार ‘‘फरारी की सवारीमें पिता-पुत्र सम्बन्ध का मार्मिक चित्रण है। केयो के परिवार की स्थिति-परिस्थिति देखकर आँखें भर आती हैं। फरारी की सवारी मध्यवर्गीय महत्वाकांक्षा और उसे पूरा करने के संघर्ष को दिखलाती है। फिल्म में सचिन तेंदुलकर और उनकी लाल फरारी को प्रतीक रूप में इस्तेमाल किया गया है जो फिल्म को मार्मिकता प्रदान करती है।’’8

            राहुल बोस की फिल्मचेन खुली की मेन कुलीभी एक बच्चा अमन जो कि अनाथालय में रहता है कि कहानी है। वहाँ बच्चे हर दिन यह प्रतीक्षा करते हैं कि कोई माँ-बाप आये और उन्हें गोद ले। बच्चों के लिए खिलौनों का बक्सा खुलता है। सभी अपनी पसन्द का खिलौना निकालते हैं। अमन को एक बैट मिलता है जिसे वह कपिल देव का बैट समझ कर खेलता है और छक्के ही मारता है। एक दिन मैदान में खेलते भारतीय क्रिकेट टीम के कोच की नजर उस पर पड़ती है। वह उसे अपने साथ इण्डिया टीम में खेलने के लिए ले जाता है, जहाँ वह वरुण धवन के साथ रहता है और बताता है कि उसके इस बैट में मैजिक है, यह कपिल देव का बैट है। इस बात पर कोई विश्वास नहीं करता। अंत में फाइनल मैच के समय अनाथालय का एक बच्चा जो खुद को सलमान खान मानता है उसका बैट तोड़ देता है। वह मैदान छोड़कर भाग जाता है। उसे खोजा जाता है एवं मिलने पर वह बताता है कि उसकी मैजिक बैट टूटी गयी वो नहीं खेल सकता। यह सुनकर वरूण कहता है कि मैजिक बैट में नहीं, तुम्हारे विश्वास में है। फिर वह खेलता है और जीतता भी है। अतः वरूण और उसकी प्रेमिका के रूप में अमन को माँ-बाप मिलते हैं, वह उसे अनाथालय से अपने साथ ले जाते हैं और खुशी के साथ फिल्म समाप्ति की ओर बढ़ते हुए यह बताती है कि आत्मविश्वास से बड़ा कुछ भी नहीं होता।

            इसके अलावा भी विशाल भारद्वाज की ब्लू अम्बे्रला अनुराग कश्यप् कीबाल गणेश’, ‘माई फ्रेंड गणेश’, ‘रिटर्न ऑफ हनुमान’, अजय देवगन की राजू चाचा अनेक फिल्मों का निर्माण किया गया, जिसमें बच्चों को केन्द्र में रखकर कहानियाँ लिखी गयीं। इन फिल्मों को देखने से पता चलता है कि बीते एक दशक में बच्चों को लेकर अनेक फिल्मों का निर्माण हुआ है।

            फिल्म तारे जमीन पर के लेखक और स्टेनली का डब्बा के निर्देशकअमोल गुप्तने बीबीसी से बात करते हुए कहा था कि ‘‘हमारे यहां बच्चों के लिए बहुत ही कम फिल्में बनती हैं। इसी बात से पता चल जाता है कि हम बच्चों की कितनी इज्जत करते हैं। हमारे यहाँ बच्चों को बच्चा समझकर काट दिया जाता है। हमें लगता है बच्चे तो बस चाकलेट और टॉफी में ही खुश हैं। जिस दिन हम बच्चों से गाढ़ी दोस्ती कर लेंगे, उस दिन एक नया सूर्योदय होगा। सिनेमा 21वीं सदी की नई कला है। सिनेमा सारी कलाओं का मिश्रण है और यह उभर रहा है। बच्चे अगर इस कला में रूचि ले रहे हैं तो उनकी रूचि को बढ़ाने के लिए हमें उन्हें अच्छा सिनेमा दिखाना जरूरी है। अमोल गुप्त, चार्ली चैपलिन की किडफिल्म और मालिद मर्जीदी की फिल्मचिल्ड्रेन ऑफ हैवेनदेखने की सलाह देते हुए कहते हैं कि ये दोनों फिल्में बेहद ही खूबसूरत एवं दिल को छू लेने के साथ सच्चाई के करीब भी है।’’9

            इसके बावजूद भी बच्चों पर आधारित फिल्मों की संख्या काफी कम है। इसके एवज में आजकल के फिल्में सेक्स, हिंसा, अपराध जैसी फिल्मों का निर्माण ज्यादा होने से बच्चों के दिलो दिमाग पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है, जिसके कारण आजकल समाज में बढ़ रहे बाल अपराधों की संख्या को देखा जा सकता है। 

            बाल फिल्मों का निर्माण केवल मनोरंजन होकर बच्चों से जुड़ी समस्याओं की ओर दर्शकों का ध्यान आकर्षित करना भी है। कनाडा के बाल फिल्म विशेषज्ञ राबर्ट राय बाल फिल्म को परिभाषित करते हुए कहते हैं, ‘‘वह फिल्म जिसमें बच्चा खुद को एकात्म महसूस करे, हमें अपने विचारों को लादने की बजाए बच्चे को स्वतः अपनी राय कायम करते हुए स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए।’’10

            इन सबके अलावा भी अन्य फिल्मों का निर्माण बच्चों को आधार बनाकर किया गया, जिनमें तहान, चिल्लर पार्टी, नन्हें-मुन्ने, जागृति, मुन्ना, बूट पॉलिश, हवा हवेली, इकबाल, सतरंग पैराशूट, मासूम, पाठशाला, अब दिल्ली दूर नहींकाबुलीवाला, तूफान और दीया, बाल गणेश, माई फ्रेंड गणेश, रिटर्न ऑफ हनुमान, ब्लू अंब्रेला, पढ़ना जरूरी है, अलीफ, जंगल बुक, जलपरी, ये है पडबक, टॉकफोर्ड, घटोत्कच, अंजल, धनक, दो दूनी चार, जंतर मंतर, अकबर बीरबल, जोकोमान, आबरा का डाबरा, किताब, परिचय इसके बावजूद अन्य फिल्मों की अपेक्षा बाल फिल्मों का आंकड़ा कम ही रहा है। बाल सिनेमा को भी मुख्य धारा में स्थान मिलने पर निश्चित रूप् से बाल सिनेमा का भविष्य उज्ज्वल होगा और उसे एक नई दिशा मिलेगी। इसके लिए आवश्यक है कि क्षेत्रीय सिनेमा को प्रोत्साहित कर निर्माताओं को भी प्रोत्साहित सहायता प्रदान करने की आवश्यकता है। 

            बालकों की मानसिक चिंताओं को दूर करने हेतु बाल मनोवैज्ञानिक आधारित फिल्मों का प्रदर्शन किया जाना तथा फिल्मों में मौजूद उद्देश्यों पर ही शिक्षकों एवं अभिभावकों को बालकों से विचार-विमर्श किया जाना भी अत्यावश्यक है, जिससे बालकों में नैतिकता का विकास हो सके। फिल्मों में बालक जो आचार-व्यवहार देखता है, वे उस पर विश्वास कर लेता है तथा उनसे बहुत ही ज्यादा प्रभावित हो जाता है। फिल्मों में मौजूद कुछ तथ्यों का बालक पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है, जबकि कुछ दृश्यों को बालक अपने क्रियात्मक व्यवहार से प्रभावित करता है।

            बच्चों को लेकर बनी ये फिल्में बॉक्स ऑफिस पर व्यावसायिक रूप से तो सफल रही हैं साथ ही इनका सकारात्मक प्रभाव सिर्फ बच्चों पर बल्कि वयस्कों के  समाज पर भी पड़ा है। बाल मनोविज्ञान तथा बच्चों की समस्याओं से जुड़ी इन फिल्मों का बड़ी संख्या में निर्माण होना चाहिए। हमारा समाज अब तक डिक्सलैक्सिया और प्रिजेरिया जैसी बीमारियों से अनभिज्ञ था लेकिनतारे जमीं परऔरपाजैसी फिल्मों के कारण हम उनसे परिचित हुए। इन फिल्मों ने हमारी सोच को काफी गहरे तक प्रभावित किया है। कह सकते हैं कि इन फिल्मों के कारण बच्चों के प्रति हमारा नजरिया बदला है। बाल फिल्मों को सिर्फ मनोरंजन की दृष्टि से आंकना सही होगा। जरूरत इस बात की है कि हम पश्चिम से कुछ सीखें। बॉलीवुड की यह त्रासदी है कि यहाँ बच्चों की फिल्मों को उतना महत्व नहीं दिया जाता, जितना उसे मिलना चाहिए और ही उसे गंभीरता से ही लिया जाता है। इस मामले में सिनेमाकारों को शिक्षाविदों और मनोचिकित्सकों का भी सहयोग लेना चाहिए ताकि बच्चों से जुड़े विषयों पर स्तरीय और महत्वपूर्ण फिल्में बन सकें। मुख्यधारा की सिनेमा में बाल सिनेमा को भी स्थान मिले तो निश्चत रूप से देश में बाल सिनेमा का भविष्य उज्ज्वल होगा और उसे एक नई दिशा मिलेगी।

सन्दर्भ :

1. जवरीमल्ल पारख, हिन्दी सिनेमा का समाजशास्त्र, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2012 पृ0 22
2. सुरेन्द्र नाथ तिवारी, भारतीय नया सिनेमा, अनामिका पब्लिशर्स, दिल्ली, पृ0 49
3. वार्षिक रिपोर्ट 2011-12, भारतीय फिल्म सोसाईटी संघ
4. सुरेन्द्र नाथ तिवारी, भारतीय नया सिनेमा, अनामिका पब्लिशर्स, दिल्ली, पृ0 85
5. https://sahityacinemasetu.com
6. ब्रह्मात्मज अजय, सिनेमा समकालीन सिनेमा, संस्करण 2006, वाणी     प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ0 75
7. https://sahityacinemasetu.com
8. https://sahityacinemasetu.com
9. ichowk.in
10. बद्री प्रसाद जोशी, हिन्दी सिनेमा का सुहाना सफर, सिनेवाणी प्रकाशन, नई     दिल्ली, पृ0 64

 

पूजा सिंह
असिस्टेन्ट प्रोफेसर, पूर्णोदय महिला महाविद्यालय, अखरी, बाईपास, बच्छांव, वाराणसी
pooja.rng123@gmail.com, 96289 86198
  
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

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