भारतीय लोक संस्कृति में शगुन प्रतीक चिन्हों की अवधारणा
- शकुन्तला महावर
शोध सार : प्रत्येक व्यक्ति हमेशा यह चाहता है कि उसके घर में सदैव सकारात्मक ऊर्जा बनी रहे। कठिन से कठिन व विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी घर में हमेशा खुशियों का वास हो। इसके लिए परिवार के सभी सदस्य घर को पवित्र व शुद्ध बनाये रखने का पूरा-पूरा ध्यान रखते है। परिवार के सभी सदस्य सुबह जल्दी उठकर नित्य कार्य करने के बाद नियम से पूजा-पाठ करते है। यह एक शाश्वत और सार्वभौमिक जीवन शैली है। जिसमें विभिन्न प्रकार की मान्यताएं, प्रथाएं और परम्पराएं शामिल है। यह आत्म-साक्षात्कार और आध्यात्मिक विकास की ओर एक यात्रा है। जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के शाश्वत सिद्धान्तों द्वारा निर्देशित है। यह आज ही नहीं बल्कि सदियों से चली आ रही परम्परा है जो धीरे-धीरे हमारे अवचेतन मन में बैठ गई और हमारे रोजमर्रा के व्यवहार में घुल-मिल गई। एक ऐसी ही परम्परा, मान्यता शगुन के प्रतीक चिन्हों को लेकर भी है जो भारतीय संस्कृति में खास महत्व रखते है। हिन्दू संस्कृति में यह मान्यता है कि, कोई भी शुभ(मंगल)कार्य को करने से पहले इन प्रतीक चिन्हों को बनाने, इनसे कार्य की शुरूआत करने से या घर में इनके होने से कार्य में बाधा नहीं उत्पन्न होती सभी कार्य मंगलमय तरीके से सम्पन्न होते चले जाते है। शगुन के प्रतीक चिन्ह घर में सुख-समृद्धि लाने के साथ-साथ परिवार के सदस्यों का स्वास्थ्य भी बनाये रखते है।
बीज शब्द : संस्कृति, संस्कार, परम्परा, रीति-रिवाज, शुभ-शगुन, प्रतीक, शुद्ध, दोष, समाज, पवित्र एवं मंगल।
मूल आलेख : भारत का सांस्कृतिक वैभव अत्यंत ही गौरवपूर्ण है। अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं के कारण वैश्विक इतिहास में भारत सदैव एक अलग पहचान रखता है। भारतीयों ने ही नहीं अपतिु पाश्चात्य विद्धानों ने भी भारतीय संस्कृति की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। प्राचीन काल से भारत ज्ञान का केन्द्र रहा है। विदेशों से विद्धान ज्ञानार्जन हेतु भारत आते है। मानव शास्त्र की बुनियादी अवधारणा संस्कृति है। संस्कृति का दायरा व्यापक है। जिसे इसके लक्षणों से ही पहचाना जा सकता है। संस्कृति को किसी निश्चित परिभाषा में नहीं समेटा जा सकता। वस्तुतः संस्कृति शब्द हमारे लिए आज भी अर्वाचीन बना हुआ है। ‘‘संस्कृति’’ शब्द संस्कृत भाषा से लिया गया है। ‘‘संस्कृति’’ शब्द की व्युत्पति सम‘ कृ क्तिन से हुई। जिसका तात्पर्य है परिष्कार, तैयारी, पूर्णतः एवं मनोविकास आदि(1)
सरल शब्दों में हम कह सकते है कि, संस्कृति उस विधि का प्रतीक है। जिसमें हम सोचते है और कार्य करते है, इसमें वे चीजे भी सम्मिलित है जो हमने एक समाज के सदस्य के नाते उत्तराधिकार में प्राप्त की है। कला, साहित्य, वास्तुविज्ञान, शिल्पकला, दर्शन, धर्म और विज्ञान, रीति-रिवाज परम्पराएं, पर्व जीने के तरीके और जीवन के विभिन्न पक्षों पर व्यक्ति विशेष का अपना दृष्टिकोण भी सम्मिलित है।(2) यह लोक जीवन के विभिन्न तत्व हमारे देश के सांस्कृतिक मूल्य बन जाते है।
भारतीय लोक संस्कृति में ‘‘शगुन’’ शब्द का महत्वपूर्ण स्थान बतलाया गया है। आज के इस इक्कीसवीं शताब्दी में भी मानव समाज उन्नति के पथ पर अग्रसर होने के साथ-साथ कुछ ऐसे तथ्यों का योग भी मानता है। जिस कारण उसे अपनी उन्नति व अवनति की आशाओं का अनुभव होने लगता है। भारतीय लोक जीवन में जितनी भी वस्तुएं प्राप्त होती है। उन सभी के संबंध में कोई न कोई, किसी न किसी प्रकार के शगुन का प्रतीक चिन्ह प्रचलित है।
संस्कृति में शगुन का संकेत वेदों पुराणों व धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है। महाभारत व रामायण जैसे महाकाव्यों में भी कई जगह शगुन के प्रतीक चिन्हों की बात की गई है। धार्मिक ग्रंथों में भी कई ऐसे संकेत बताए गए है। जिसके द्वारा आप इस बात का अंदाजा लगा सकते है, कि आप जो कार्य कर रहे हैं। वह सफल होगा या नहीं।
लोक संस्कृति भारतीय विरासत है, जिसमें कला, साहित्य, संगीत और दर्शन का योगदान है। इसने भारतीय समाज को आकार दिया है। भारतीय संस्कृति में धर्म प्रतीकों से समृद्ध है व इनका खासा महत्व है। इनके घर में होने से सभी कार्य मंगलमय तरीके से सम्पन्न होते है।
हिन्दी साहित्य कोष के अनुसार कहा जा सकता है कि किसी अन्य स्तर की समानुरूप वस्तु द्वारा किसी अन्य स्तर के विषय का प्रतिनिधित्व करने वाली वस्तु प्रतीक है। अमूर्त, अदृश्य, अश्रव्य, अप्रस्तुत विषय का प्रतीक प्रतिविधान, मूर्त दृश्य श्रव्य रूप में प्रस्तुत करता है।(3) ये प्रतीक चिन्ह ‘‘यूंही’’ अस्तित्व में नहीं आ गये। इनको बनाने के पीछे कोई गंभीर दर्शन किंवदंती या कहानी होती है। यह उस धर्म विशेष की पहचान, भय, उपासना, रहस्य, अतिविश्वास आदि भावनाओं से जुड़ा होता है। आदिमानव से लेकर आधुनिक मानव ने कुछ प्रतीकों का अंकन बार-बार प्रत्येक शुभ कार्य से पहले भरपुर रूप से किया हुआ है। डाॅ. ए. एल श्रीवास्तव ने लिखा है ‘‘ये कला प्रतीक न केवल विचारों की अभिव्यक्ति करते है वरन् शोभा, रक्षा एवं मांगलिक भावनाओं की संवृद्धि भी करते है। जहां ये शगुन के प्रतीक चिन्ह किसी विशिष्ट विचार या भाव की सृष्टि के निर्मित नहीं भी होते है। वहां भी ये अपने स्वरूप का मांगलिक प्रभाव डालते है और दर्शक के शारीरिक एवं मानसिक सौन्दर्य बोध का परिष्कार करते है।’’(4)
डॉ. गिर्राज किषोर अग्रवाल मनोविज्ञानी युग का संदर्भ देते हुए प्रतीक को परिभाषित करते हुए लिखते है। ‘‘किसी अज्ञात वस्तु के लिए उसके श्रम के रूप में रखी गई आकृति प्रतीक कहलाती है और ऐसा विश्वास किया जाता है। कि उस वस्तु का अस्तित्व अवश्य है। ऐसी अज्ञात वस्तु को किसी अन्य विधि से बोधगम्य नहीं बनाया जा सकता’’(5)
ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, धर्म, तंत्र, कला साहित्य आदि के विभिन्न क्षेत्रों में प्रतीक चिन्हों के अर्थ, स्वरूप व उपयोग भिन्न-भिन्न होते है। प्रतीकों का सामान्य अर्थ ‘‘संकेत’’ या ‘‘चिन्ह’’ होता है किन्तु अलग-अलग प्रसंगों में प्रतीक की गुणवत्ता, उपयोगिता, अर्थवक्ता, अभिव्यंजना, क्षमता, संप्रेषणीयता आदि अलग-अलग होती है। इस प्रकार से प्रतीक का क्षेत्र अत्यंत व्यापक एवं विस्तृत है क्योंकि सभी प्रकार की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का प्रतीक से सहज संबंध होता है। दैनिक जीवन व लोक-व्यवहार के विविध क्रियाकलापों से लेकर ज्ञान-विज्ञान, धर्म, संस्कृति, तंत्र आदि के सरलतम से गूढ़तम प्रसंगों में प्रतीक चिन्हों का प्रयोग विषयवस्तु की सम्पे्रषणीयता हेतु किया जाता रहा है।
बिन्दू- बिन्दू (शून्य) एकता, उत्पत्ति आदि अवस्था। बिन्दू से किसी चित्र अलंकरण आदि की शुरूआत होती है। बिन्दू सृष्टि का केन्द्र है। बिन्दू से रेखा, रेखा से अनंत व शब्दों का सृजन होता है। इसलिए बिन्दू, पृथ्वी, आकाश और अनंत का प्रतीक है। बिन्दू में सृष्टि का बीज है। बिन्दू देवी शक्तियों का भी प्रतीक है। यह सूर्य ब्रहमाण्ड का प्रतीक है। इसका ध्यान करने वाले के वश में भगवान हो जाते है। इससे समस्त पुरूषार्थ की सिद्धि होती है।
ओंकार - ओंकार जो स्वयं सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड को समाये हुए है। ‘‘ओंकार’’ ईश्वर की प्रथम ध्वनि व हूंकार है। यह साक्षात ब्रम्हा है। यह साढ़े तीन मात्राओं से बना है। पहली मात्रा ‘अ’ कार, दूसरी मात्रा ‘उ’ कार, तीसरी मात्रा ‘म’ कार है। चन्द्रबिन्दू की आधी मात्रा है। ओम् जिसे ‘ओंकार’ या ‘प्रणव’ भी कहा जाता है। पूरे ब्रहमाण्ड का सार है। यह हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म जैसे कुछ धर्मों में एक पारम्परिक प्रतीक और पवित्र ध्वनि के रूप में प्रकट होता है। यह किसी एक की सम्पत्ति नहीं है, यह सार्वभौमिक है। यह शक्ति का प्रतीक है। कुछ मान्यताओं के अनुसार ओम् की उत्पति शिव के मुख से हुई है हालांकि ऋग्वेद और यजुर्वेद से लेकर कई उपनिषदों में ओम् का जिक्र मिलता है। मंडूक उपनिषद में कहा गया है, कि संसार में भूत, भविष्य और वर्तमान काल में एवं इनसे भी परे जो हमेशा हर जगह मौजूद है, वो ओम् है। यह स्वयं से जोड़ता है। हमारा मन शांत करता है। पाचन तंत्र को बेहतर बनाता है। शरीर व मन की नकारात्मक ऊर्जा को साफ करता है। तनाव और चिंता को कम करता है। आपका ध्यान खुद पर केन्द्रित करता है। कल्पना और रचनात्मकता को बेहत्तर बनाता है।(6)
स्वास्तिक - स्वास्तिक अत्यंत प्राचीन काल से भारतीय लोक संस्कृति में स्वास्तिक मंगल प्रतीक चिन्ह माना जाता रहा है। इसलिए किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वास्तिक चिन्ह अंकित करके उसका पूजन किया जाता है। स्वास्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। ‘सु’ का अर्थ अच्छा, ‘अस’ का अर्थ-सत्ता या अस्तित्व और ‘क’ का अर्थ-कर्ता या करने वाला से है। स्वास्तिक में एक-दूसरे को काटती दो रेखाएं होती है। यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम स्वास्तिक जिसमें रेखाएं आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दांयी ओर मुड़ती है, इसे स्वास्तिक कहते है। यह शुभ चिन्ह है, जो हमारी प्रगति की ओर संकेत करता है। दूसरी आकृति में रेखाएं पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर मुड़ती है। यह वामावर्त स्वास्तिक कहलाता है।
डॉ. आनन्द कुमार स्वामी के मतानुसार स्वास्तिक विश्व व्यापी अथवा सभी देशों में मिलने वाला प्राचीन प्रतीक है। यह चारों दिशाओं में व्याप्त, विश्व मण्डल के चतुर्भुजी रूप, चारों वर्णों, चार युग, चारों दिशाओं, चारों आश्रमों, चारों देवताओं (अग्नि, इन्द्र, वरूण व सोम) का प्रतीक माना जाता है। वासुदेव शरण के अनुसार ‘‘स्वास्तिक का यदि संकोचन होने लगे तब यही स्वास्तिक अंत में केवल बिन्दू के रूप में ही रह जायेगा । यही सृष्टि है, जीवन है, संसार है’’।(7)
कलश - कलश जिसे पूर्ण कलश, पूर्ण कुंभ, पूर्ण घट भी कहा जाता है, यह धातु या मिट्टी का बर्तन होता है। इसका बड़ा आधार और छोटा मुंह होता है। इसका उपयोग हिंदू, जैन और बौद्ध परम्पराओं में, अनुष्ठानों में देवता या किसी सम्मानित अतिथि को औपचारिक भेंट के रूप में मंदिरों और इमारतों को सजाने के लिए एक शुभ प्रतीक के रूप में किया जाता है।(8) वेदों में पूर्ण कलश को जीवन स्त्रोत का प्रतीक माना जाता है। यह माना जाता है कि, कलश में अमृत होता है। यह समुद्र मंथन के समय निकला था। इसे प्रचुरता ज्ञान और अमरता का प्रतीक माना जाता है। कलश में सभी देवी-देवताओं की मातृ शक्तियां विराजमान है। साथ ही सभी तीर्थों, सभी पवित्र नदियों का ध्यान भी किया जाता है।
कलश को लाल कपड़े, नारियल, आम के पत्तों और कुश की मदद से तैयार किया जाता है। पूजा करते समय कलश जहां स्थापित करना हो, वहां हल्दी से अष्टदल बनाया जाता है। उसके ऊपर चावल रखे जाते है। चावल के ऊपर कलश रखा जाता है। कलश में जल, दुर्वा, चंदन, पंचामृत, सुपारी, हल्दी, चावल, सिक्का, लौंग, इलायची, पान आदि शुभ चीजें डाली जाती है। कलश के ऊपर आम के पत्तों के साथ नारियल रखा जाता। इसके बाद धूप-दीप जलाकर कलश का पूजन किया जाता है। मान्यताओं के अनुसार कलश के प्रभाव से सकारात्मक शक्तियों का घर में वास होता है और जीवन से नकारात्मकता समाप्त होती है। जीवन में वैभव सुख- शांति की कमी नही होती। भारतीय लोक संस्कृति में कलश के बिना कोई पूजा नहीं होती।(9)
नारियल - नारियल भारतीय लोक संस्कृति में नारियल का बहुत बड़ा महत्व है। नारियल को संस्कृत में ‘‘श्रीफल’’ भी कहा जाता है। ये शगुन का प्रतीक है। प्रत्येक मांगलिक-विधान, देव-पूजन, हवन, गृह प्रवेश सभी मांगलिक संस्कारों में नारियल प्रमुख चढ़ावा है। नारियल ऊर्जा का एक बहुत अच्छा स्त्रोत है। शास्त्रों में बताया गया है कि देवी-देवताओं को नारियल अर्पित करने से सभी प्रकार के कष्टों का निवारण होता है। कोई भी व्यक्ति जब अपना नया व्यवसाय शुरू करता है, देव-पूजन, हवन, गृह प्रवेश, बालक के जन्म, मुण्डन, यज्ञोपवीत एवं विवाह के प्रत्येक मांगलिक अवसर पर नारियल के साथ टीका करते है या नारियल फोड़ते है। नारियल फोड़ने का मतलब है कि आप अपने अहंकार और स्वयं को भगवान के सामने समर्पित कर रहे है। माना जाता है कि ऐसा करने पर अज्ञानता और अहंकार का कठोर कवच टूट जाता है। नारियल के तीन निशान भगवान शिव के तीन उत्सव माने जाते है। इसलिए पूजा-पाठ में नारियल को रखना शुभ माना जाता है। एक समय था जब भगवान को खुश करने के लिए इंसानों द्वारा भगवान के सामने मनुष्य और जानवरों की बलि दी जाती थी। तभी आदिशंकराचार्य ने इस अमानवीय परम्परा को तोड़ा और मनुष्य के स्थान पर नारियल चढ़ाने की शुरूआत की। नारियल कई तरह से मनुष्य के मस्तिष्क से मेल खाता है। नारियल की जटा की तुलना मनुष्य के बालों से कठोर कवच की तुलना मनुष्य की खोपड़ी से और नारियल पानी की तुलना खून से की जा सकती है। साथ ही नारियल के गूदे की तुलना मनुष्य के दिमाग से की जा सकती है।
कौड़ी - भारतीय संस्कृति में कौड़ी का बहुत अधिक महत्व है। कौड़ी समुद्र मंथन के दौरान माता लक्ष्मी के साथ बाहर निकली थी, इस वजह से इसे माता लक्ष्मी जी का ही रूप माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि जिस घर में कौड़ी की पूजा होती है। वहां सदैव लक्ष्मी जी विराजमान रहती है। कभी भी अन्न-धन की कमी नहीं होती है। उसी प्रकार यदि नए घर की नींव बनाते समय उसमें तिजोरी में रखी हुई कौड़ी रखने से सभी नकारात्मक ऊर्जाएं दूर होगी और घर में हमेशा सुख समृद्धि बनी रहेगी। कौड़ी घर के सभी वास्तुदोषों को दूर करने में भी मदद करती है। बुरी नजरों से भी बचाती है।
प्राचीन काल में कौड़ी मुद्रा के रूप में प्रचलित थी। भारतीय संस्कृति में कौड़ी को गहनों की तरह प्रयोग किया जाता है। अनेक समाजो में विवाह संस्कार में कौड़ी को बहुत महत्व दिया जाता है। दूल्हा-दूल्हन की कलाई में कौड़ी बांधी जाती है। विवाह मण्डप को कौड़ियों से अलंकृत किया जाता है। कहते है कौड़ी धारण करने से जादू या टोना का असर नहीं होता। चिकित्सा पद्धतियों में पाचन शक्ति की गड़बड़ी, आंख, कान, हृदय तथा किडनी आदि से संबंधित रोगों के उपचार तथा अच्छी मात्रा में कैल्शियम उपलब्ध कराने के लिए भी कौड़ी का उपयोग किया जाता है।
शंख - भारतीय लोक संस्कृति में सभी वैदिक कार्यों में शंख का विशेष स्थान है। सुख-समृद्धि एवं सौभाग्यदायी शंख को भारतीय संस्कृति में मांगलिक चिन्ह के रूप में स्वीकार किया गया है। शंख भगवान विष्णु का प्रमुख आयुध है। शंख की उत्पत्ति शंखचूर्ण की हड्डियों से हुई है। इसलिए इसे पवित्र वस्तुओं में परम पवित्र व मंगल माना गया है। शंख कई प्रकार के होते है, लेकिन वामावर्ती और दक्षिणावर्ती शंख दोनों की ही उत्पत्ति समुद्र मंथन के समय सागर से हुई, इसलिए शंख को लक्ष्मी का छोटा भाई कहा जाता है। दक्षिणावर्ती शंख के शीर्ष में चन्द्र देवता मध्य भाग में, वरूण पृष्ठ भाग में, ब्रम्हा अग्र भाग में और गंगा, यमुना तथा सरस्वती का वास माना गया है। शंख को विजय का प्रतीक भी माना जाता है। किसी भी धार्मिक अनुष्ठान के आरम्भ में शंख ध्वनि की मान्यता है। कि इसकी ध्वनि जहां तक पहुंचती है। वहां तक के वातावरण में रहने वाले सभी कीटाणु नष्ट हो जाते है। ऐसा शोधों से स्पष्ट हुआ है। शंख का जल सभी को पवित्र करने वाला माना गया है। इसी वजह से आरती के बाद श्रद्धालुओं पर शंख से जल छिड़का जाता है।
चक्र - चक्र या पहिया भारत में प्राचीनतम काल में प्रयुक्त प्रतीकों में से एक है। यह आध्यात्मिकता और मानव शरीर के भीतर ऊर्जा केन्द्रों के अस्तित्व के संदर्भ में इसका शाब्दिक अर्थ ‘‘पहिया’’ है। यह रीढ़ में सूक्ष्म ऊर्जा के केन्द्रों को संदर्भित करता है। भारतीय दर्शन और योग में चक्र प्राण या आत्मिक ऊर्जा के केन्द्र होते है। ये नाड़ियों के संगम स्थान भी है। योगिक ग्रंथों में इन्हें शरीर के कमल भी कहा गया। मानव चक्र मेरूदण्ड में होते है। श्रेष्ठ या दिव्य चक्र मेरूदण्ड के शिखर और मस्तिष्क के शीर्ष पर होता है। यह ब्रम्हाण्ड से अधिक मजबूती के साथ ऊर्जा खींचकर इन बिन्दूओं में डालता है, इस मायने में यह ऊर्जा केन्द्र है। चक्र का मूल ज्यामितीय रूप वृत है। यह वैदिक काल से ही प्रतीक के रूप में अंकित हुआ। इसे विश्व का भावचक्र या संसार चक्र कहा जाता है। इसी वजह से प्राणमय जीवन को जीवनचक्र और विराट विश्व की स्थिति को ब्रम्हाचक्र कहा जाता है।(10)
यह विष्णु का प्रमुख आयुध है। मौर्य सम्राट अशोक ने इसे धर्म का प्रतीक मानकर अपने धर्म प्रचार के लिए बने स्तम्भों व लाटों पर अंकित करवाया। इस प्रकार चक्र भी प्रतीक के रूप में अपने भीतर अनेक अर्थ लिए भारतीय कला में चित्रित हुआ। मुख्य रूप से इसे जीवन काल, शक्ति, गति व ऊर्जा का प्रतीक माना गया है।
कमल (पद्म) - भारतीय पुष्पों में (पद्म) पुष्प को प्रमुख स्थान प्राप्त है। जल से संबंधित होने के कारण यह आदि सृष्टि का प्रतीक रहा है। इसी से सृष्टि के आदि देवता ब्रम्हा, विष्णु व सागर द्वारा उत्पन्न होने वाली देवी लक्ष्मी से भी इसका संबंध है। कमल की चार पंखुड़ियों की भांति ब्रहमपुत्र, गंगा, सिन्धु और कावेरी ये चार पवित्र नदियां इसी झील से फलती है। तथा चारों दिशाओं में फैलकर जनता को खुशहाल बनाती है।(11) विविध त्यौहारों, शुभ कार्यों तथा मंगल अनुष्ठानों में कमल का चित्रांकन अत्यधिक महत्वपूर्ण है। अपने रूप व रंगों के कारण कमल श्रृंगार का प्रतीक है और इस रूप में वह मुख, हाथ, पैर एवं नेत्र का उपनाम तथा कामदेव के पांच पुष्प बाणों में से एक है।(12) सभी देवताओं का आसन होने के साथ ही हरिवल्लभ तथा विष्णु प्रिय भी कहा गया है। कमल पुष्प जीवन तत्व का प्रतीक भी है। साथ ही इसे निर्मलता, कोमलता, पवित्रता, दिव्यता, निष्कलंता, शुद्धता, निर्लिप्तता, प्रजनन, श्रृंगार, जीवन पूर्णता, अदिता आदि का प्रतीक भी माना गया है।
दीपक - भारत ही नहीं पूरे विश्व के सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन में दीपक का विशिष्ट स्थान है। यह साधना, तपस्या, अराधना, शान, उल्लास का प्रतीक है। ‘‘तमसो मा ज्योर्तिगमय’’ यह भारतीय संस्कृति की आरती में समाया हुआ है। सूर्य और अग्नि का अंश दीपक है। भारत में दीपोत्सव की परम्परा सदियों से चली आ रही है। धार्मिक, सांस्कृतिक, उत्सवों, त्यौहार एवं जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारे जीवन में दीपक का महत्व अक्षुण्ण है। ईश्वर की पूजा से लेकर शैक्षणिक कार्यक्रमों की शुरूआत भी हम दीप प्रज्ज्वलन करके ही करते है। सुंदर कल्याणकारी आरोग्य और सम्पदा को देने वाले दीपक समृद्धि के साथ ही अग्नि और ज्योति का प्रतीक है। पारम्परिक दीपक मिट्टी का होता है। इसमें पांच तत्व है। हिन्दू अनुष्ठानों में पंचतत्वों की उपस्थिति अनिवार्य है।
थापा (पंचसूलक) - भारतीय लोक कला संस्कृति में थापों का महत्वपूर्ण स्थान है। व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन के हर पक्ष में इसका बड़ा महत्व है। बालक का जन्म, विवाह, गृह प्रवेश, तिल रस्म, दीपावली पूजा, अहोई अष्टमी आदि में गृहस्थ महिलाओं द्वारा हल्दी, चावल की पीठी से तैयार किये लेपन से दरवाजे दहलीज व घर की मुख्य दीवारों पर थापे लगाने की परम्परा आज भी है। कुल देवी-देवताओं की पूजा करते समय उसके मंदिर के प्रवेश द्वार पर हाथ के थापे अथवा सात टपकियां लगाती है। जो संभवतः सप्तमातृका पूजा की प्रतीक कहीं जा सकती है। गहराई से देखा जाये तो थापा का प्रमाण हमारे साहित्य अभिलेखों और कला में प्रमुख मांगलिक चिन्ह के रूप में हजारों सालों से पाया जाता रहा है। भारतीय लोक जीवन में यह पंचतत्व, पंचपरमेश्वर, पंचामृत प्रतीक माना जाता है।(13)
हंस-हंस का भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान है। हंस माया से पूर्णतः निलिप्त जीव का प्रतिनिधित्व करता है। आत्मा की तरह यह श्वेत है। जल-थल और आकाश में विचरण करने वाला है। इसका अपना कोई निवास स्थान नहीं है। आते-जाते का स्वभाव है। हंस आत्मा, परमात्मा और ब्रम्ह का प्रतीक है। हिन्दू धर्म में इसे बहुत विवेकी और शांत चित्त पक्षी तथा प्यार व पवित्रता का प्रतीक माना जाता है। यह पानी व दूध को अलग करने की क्षमता रखता है। यह विद्या की देवी सरस्वती का वाहन है। यह पक्षी दाम्पत्य जीवन के लिए आदर्श है। ये जीवनभर एक ही जीवन साथी के साथ रहता है। आध्यात्मिक दृष्टि से मनुष्य के निःश्वास में ‘हं’ और श्वास में ‘स’ ध्वनि सुनाई पढ़ती है। इस प्रकार मनुष्य का जीवनक्रम ‘हंस’ है। यह पुण्य आत्माओं का ठिकाना है।
मछली - प्राचीन काल से ही मछली (मीन) का संबंध खुशहाली से माना गया है। मछली का जोड़ाघर में प्रेम बढ़ाता है। उत्तर दिशा में मछली का प्रतीक या प्रतिमा रखने से धन में बरकत होती है। मछली के दर्शन करना शुभ माना जाता है। इसलिए घरों में फिश एम्पोरियम रखा जाता है। जिसमें घर से निकलने से पहले मछली के दर्शन हो।
तिलक - भारतीय परम्परा के अनुसार तिलक लगाना सम्मान का सूचक माना जाता है। माथे पर तिलक लगाने से सकारात्मकता आती है और कुण्डली में मौजूद उग्र गृह शांत होते है। कोई भी त्यौहार या धार्मिक आयोजन तिलक के बिना पूर्ण नहीं माना जाता। क्योंकि यह हिन्दू संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। देवी-देवताओं, योगियों, साधु संत, महात्माओं के मस्तक पर तो हमेशा तिलक सुशोभित रहता है। लेकिन आम लोगों में त्यौहार, पूजा-पाठ और संस्कारों जैसे शुभ अवसरों पर ही तिलक लगाने का प्रचलन है। तिलक लगाने से जीवन में यश बढ़ता है और पापों का नाश होता है। वैज्ञानिकों ने भी माना की दोनों भोहों के बीच सुषम्ना, इड़ा और पिंगला नाड़ियों के ज्ञान तंतुओं का केन्द्र है। जो दिव्य नेत्र या तृतीय नेत्र के समान माना जाता है। इस स्थान पर तिलक लगाने से आज्ञा चक्र जाग्रत होकर व्यक्ति की शक्ति को उध्र्वगामी बनाता है। जिससे उसका ओज और तेज बढ़ता है। ललाट पर नियमित रूप से तिलक लगाते रहने से शीतलता, तरावट एवं शांति का अनुभव होता है।
त्रिशुल - त्रिशुल बहुसंयोजी तथा प्रकृति में समृद्ध है। बहुसंयोजी होने के कारण इसमें कई संबंधित विषों का प्रतिकार करने या सूक्ष्मजीव के कई अलग-अलग प्रकारों के विरूद्ध प्रतिरक्षा प्रदान करने का गुण होता है। हिन्दू धर्म में गहन आध्यात्मिक और प्रतीकात्मक अर्थ वाला त्रिशुल भगवान शिव से जुड़ा एक विशिष्ट हथियार है। इसमें तीन कांटे या बिंदू होते है। जिनमें से प्रत्येक का अपना प्रतीकात्मक महत्व होता है। हिन्दू दर्शन में ब्रम्हाण्ड तीन मूलभूत गुणों से संचालित होता है। सत्व (पवित्रता, ज्ञान), रजस (गतिविधि, जुनून) और तमस (जड़ता, अंधकार)। त्रिशुल के तीन कांटे इन गुणों के प्रतीक है, जो ब्रम्हाण्ड में इन शक्तियों के संतुलन और परस्पर क्रिया को दर्शाते है। सृजन, संरक्षण अनन्तः विनाश की चक्रीय प्रक्रियाओं के लिए जिम्मेदार ब्रम्हाण्डीय शक्ति के रूप में उनकी भूमिका को दर्शाते है। त्रिशुल के नुकीले शिरे अज्ञानता के उन्मूलन और अंधकार पर दिव्य ज्ञान की विजय का प्रतीक है। यह भारतीय लोक संस्कृति में लोक देवी-देवताओं का भी प्रमुख हथियार है।
निष्कर्ष : शगुन मानव-मन में छिपे विश्वास-अविश्वास की एक कड़ी है। शुरू से ही मनुष्य का मन शंकालु रहा है। उसके मन में अनजाना-सा डर व्याप्त रहता है, कि यह काम होगा या नहीं होगा। उस पर शगुन- अपशगुन की मन में धारणा घर कर जाए, तो शंका और बढ़ जाती है। यह धारणा प्राचीन काल से चली आ रही है। इनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है बल्कि मानव मन की धारणा पर आधारित है। समाज का शायद ही कोई ऐसा वर्ग होगा। जो इस किस्म के अन्धविश्वासों, शगुनों और अपशगुनों पर विश्वास ना करता हो। कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ तो शक्ति होती है। इन धारणाओं में जो आदमी की आत्मा से जुड़ जाती है और उसके विश्वास-अविश्वास को बल देती है। उसकी भावनाओं को झकझोर देती है।
संदर्भ :
1. वासुदेव शरण अग्रवालः कला और संस्कृति, साहित्य भवन, लिमिटेड, इलाहाबाद, 1970 पृ.स. 12
2. हिन्दी साहित्य कोष भाग-1, वाराणसी 1989 पृ.स. 515
3. डाॅ. ए एल श्री वास्तवः भारतीय कला प्रतीक, इलाहाबाद 1970 पृ.स. 11
4. डाॅ. गिर्राज किशोर अग्रवालः कला निबन्ध, इलाहाबाद 1970 पृ.स. 98
5. मधुमती आर्यः संस्कृति का मंगल प्रतीक, 29 अप्रैल
6. वासुदेव शरण अग्रवालः भारतीय कला, इलाहाबाद, पृ.स. 67
7. के. सी. आर्यनः भारतीय कला में सजावटी तत्व का आधार रेखा प्रकाषन पृ.स. 93
8. डाॅ. सुरेन्द्र वर्माः भारतीय कला एवं संस्कृति के प्रतीक, मध्यप्रदेश, हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल पृ.स. 12
9. वासुदेव शरण अग्रवालः भारतीय कला, वाराणसी 1966, पृ.स. 70
10. डाॅ. मथुरा लाल शर्माः आकृति, राजस्थान ललित कला अकादमी, अक्टूबर 1971, लेख भारतीय सांस्कृतिक
कला परम्परा का प्रतीक कमल पृ.स. 5
11. डाॅ. गिर्राज किशोर अग्रवाल, कला समीक्षा, अलीगढ़ 1970 पृ.स. 115
13. http://www.jagarn.com.lifestyle
शकुन्तला महावर
सहायक आचार्य (चित्रकला) एस.एस. जैन सुबोध महाविद्यालय, सांगानेर, जयपुर
shakuntla.lalit@gmail.com, 9460062196
दृश्यकला विशेषांक
अतिथि सम्पादक : तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-55, अक्टूबर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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