बाल किन्नरों का मनोविज्ञान और उनकी समस्याएँ
- अरविंद शर्मा

बीज शब्द : बाल किन्नर, अस्मिता के सरोकार, थर्ड-जेंडर, जननांग विकलांगता, लोकापवाद, यौन-शोषण।
मूल आलेख : जब कभी हमारे तथाकथित समाज में किसी किन्नर का जिक्र होता है, तब एक विचार बार-बार कौंधती है- ‘पूर्णता का अभाव’। यह हमारे समाज की एक रूढ़िगत धारणा है कि किन्नरों का सम्पूर्ण जीवन अधूरेपन से ग्रसित होता है, जिसके केंद्र में है उनका अविकसित अस्पष्ट लिंग अथवा जननांग विकलांगता। अतः किन्नर जिस मानवीय योनि में जन्म लेते हैं, उस योनि पर प्रायः अधूरा, अविकसित, विकृत अथवा विकलांगता का ठप्पा लगा दिया जाता है। किन्नरों के प्रति स्थापित यह धारणा स्त्री-पुरुष द्वय को ही समाज का धुरी माननेवालों का बनी-बनाई एक थोथी धारणा है। अगर मान भी लिया जाए कि सामान्यतः किन्नर की शारीरिक बनावट अन्य स्त्री-पुरुष की तुलना में कमतर होता है, तब भी उन्हें जननांग विकलांगता की श्रेणी में रखना उनकी अस्मिता के खिलाफ है। सभ्यता के आरंभिक काल से लेकर मुग़ल काल तक किन्नरों की समाज में एक स्वतंत्र प्रतिष्ठा थी। यही कारण है कि किन्नर समुदाय धूमिल हो चुका अस्मिता की रक्षा करते हुए 2014 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें स्त्री-पुरुष लिंग के समतुल्य ‘तृतीय लिंग’(थर्ड-जेंडर) के रूप में दर्जा दिया है।
‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के आदर्श पर विश्वास करने वाला हमारे सामाज की यह एक विडम्बना है कि वह थर्ड-जेंडर के रूप में जन्मे बच्चे को स्वीकार नहीं कर पाती। इक्कीसवीं सदी का साहित्य भी किन्नरों से जुड़ी ऐसी धारणाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए स्थापित करता कि भ्रूण-हत्या जिस तरह का अपराधिक कुकृत्य है, उसी प्रकार थर्ड-जेंडर बच्चे को जन्मते ही अस्वीकार करना भी उतना ही जघन्य अपराध है।
“अधूरी देह क्यों मुझको बनाया?
बता ईश्वर! तुझे ये क्या रास सुहाया?
नारी नहीं हूँ मैं, औ’ नर नहीं हूँ
विवश हूँ मूक हूँ, पत्थर नहीं हूँ
उचित पथ क्यों नहीं मुझको दिखाया?
सभी ने रक्त के आँसू रुलाया,
अधूरी देह क्यों......”1
मानवीयता के इसी धरातल पर बाल किन्नरों के समस्त सरोकार केंद्रित हैं कि उन्हें भी अन्य बच्चों की तरह इन्सान माना जाए। दरअसल भारतीय समाज के साथ-साथ हिंदी साहित्य के लम्बे कालखंड में भी किन्नरों की अस्मिता, उनके सरोकारों अथवा उनके प्रश्नों को कभी तरजीह नहीं दी गई। अस्मिता के सवाल चाहे बाल किन्नरों का हो या वयस्क किन्नरों का, अथवा वृद्ध किन्नरों का, हमारा समाज कभी इन विषयों को लेकर मुखर नहीं दिखाई पड़ता। फलतः थर्ड जेंडर बच्चे को स्वीकार करना पड़ता है-किन्नरों की अभिशप्त जीवन शैली। क्यों हम थर्ड जेंडर बच्चे से छीन लेते हैं- उनका बचपन! उनका परिवार! उनकी शिक्षा! उनके सपने! हम क्यों नहीं जीने देते उन्हें एक सामान्य मनुष्य की तरह? किन्नर सम्बन्धी सामाजिक, राजनीतिक तथा साहित्यिक जगत की इसी उदासीनता पर करारा व्यंग्य करती हैं- नीरजा माधव। “एक हँसी अधरों पर-व्यंग्यात्मक अथवा उपेक्षात्मक। महिमामंडन भी किसका? सरोकार बन सकता था, साहित्यकार, कलाकार, धर्मचारी, समाज में स्त्री-विमर्श या फिर शोषण, संघर्ष। पर यह तृतीय प्रकृति का कब से होने लगा सामजिक सरोकारों से सिर टकराने का व्यापार? कच्छपी सीमा में अपने भाषिक और दैहिक निजीपन को नितांत अकेले महसूस करते और कभी-कभी सिर निकाल तालियाँ बजाते, ठनगन करते जीवन को जी-भर लेते मुट्ठी-भर लोगों के लिए दर्शन और साहित्य का इतना कीमती समय और शब्द जाया करने की आवश्यकता? आदर्श और प्रेरणा का कौन-सा बिंदु इनका पड़ाव होगा।”2 इक्कीसवीं सदी के कुछ उपन्यास बाल किन्नरों के इन्हीं सरोकारों और उनकी समस्याओं को नए संदर्भो में उद्घाटित करते हैं, जिसमें उल्लेखनीय नाम है- ‘यमदीप’(नीरजा माधव), ‘किन्नर कथा’(महेंद्र भीष्म), ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’(चित्रा मुद्गल), ‘गुलाम मंडी’(निर्मला भुराड़िया), ‘तीसरी ताली’(प्रदीप सौरभ), ‘जिंदगी 50-50’(भगवत अनमोल), ‘दरमियाना’(सुभाष अखिल), ‘अस्तित्व’(गिरिजा भारती) आदि।
भारतीय संस्कृति में बच्चे के जन्म को आनंदोल्लास के रूप में मनाया जाता है, गीत-सोहर गाये जाते हैं। लेकिन यही आनंदोल्लास बदल जाते हैं दुःख में, सभी गीत-सोहर तब्दील हो जाते हैं मातम में, जब जन्म होता है परिवार में एक किन्नर शिशु का। हम स्वीकार नहीं कर पाते हैं नन्हे से उस अपने अंश को। हमारे भारतीय समाज की यह एक विडम्बना है कि शारीरिक और मानसिक रूप से दिव्यांग बच्चे को स्वीकार तो करता है, लेकिन स्त्री-पुरुष द्वय से भिन्न लिंग प्राप्त बच्चे को पूर्णत अस्वीकृति की निगाह से देखता है। “जननांग विकलांगता बहुत बड़ा दोष है लेकिन इतना बड़ा भी नहीं की तुम मान लो की तुम धड़ का मात्र वही निचला हिस्सा भर हो। मस्तिष्क नहीं हो, दिल नहीं हो, धड़कन नहीं हो, आँख नहीं हो। तुम्हारे हाथ पैर नहीं है। हैं, हैं, हैं, सब वैसा ही है, जैसे औरों के हैं। यौन सुख लेने-देने से वंचित हो तुम, वात्सल्य सुख से नहीं! सोचो। बच्चे तुम पैदा नहीं कर सकते मगर पिता नहीं बन सकते, यह किसने नहीं समझने दिया तुम्हें? सुनो-पहचानो उन्हें। पहचानो। अपने श्रम पर जिओ। मनोरंजन की दक्षिणा पर नहीं। हिकारत की दक्षिणा ज़हर है, ज़हर। तुम्हें मारने का ज़हर। तुम्हें समाज से बाहर करने का ज़हर।”3 यद्यपि समाज के लोकापवाद के भय से हम किन्नर शिशुओं को नारकीय जीवन सौंपकर अपने कर्तव्यों का इतिश्री समझते हैं। बाल किन्नरों अथवा शिशु किन्नरों को दे आते हैं एक ऐसे गैर-सामजिक और अपराधिक तत्वों के हाथों, जहाँ आदमी इन्सान न रहकर समाज के लिए व्यंग्य तथा उपहास का विषय मात्र रह जाता है। प्रतीक-शैली में किन्नरों के जन्म एवं उनके बहिष्कार को रेखांकित करते हुए बयाँ करती है- नीरजा माधव की उपन्यास ‘यमदीप’। “प्रकाशपर्व की पूर्व-संध्या में दरवाजे के बाहर रात-भर टिमटिमाते उस यमदीप की भाँति जो उपेक्षित होते हुए भी याद दिलाता है अलोकित कल का। नहीं छूटती उसके प्रदीप्त होने पर फुलझड़ियाँ और पटाखे, नहीं होती पूजा अर्चना या चढ़ते थाल पर भोग, पर काली रात के विरोध में टिमटिमाता रहता है चुपचाप, निशब्द। सूखता जाता है अन्तस्-रस बूंद-बूंद-बूंद।........घर के दिए को केवल यम से संवाद करने के लिए उठाकर घूर(कूड़ा-करकट) पर रख देना और फिर उधर मुड़कर भी न देखना कि वह कब जलते-जलते बुझा, सत्य से विमुख होना है। उस माँ और उसके जीवन भर के लिए बिछुड़ने वाले उस बेटे(?) बेटी(?) के हृदय में झांककर कोई देखे। क्या भूल पाए दोनों एक दूसरे को? अपनी दुनिया में किसी को न झांकने देने वाले क्या निष्ठुर हो पाए हैं अपने मन की गहराइयों से? नारियल की तरह उलझी जटा-जूट और कठोरपन के नीचे मिली एक तरलता-चुपचाप कांपती, डोलती।”4
बाल किन्नरों का सम्बन्ध देश के पूंजीपति घराने से हो या अंतिम पायदान पर खड़े समुदाय से, सभी वर्गों में बाल किन्नरों की समस्या अथवा उनकी दशा लगभग एक-सी दिखलाई पड़ती है। बाल्यावस्था से किशोरावस्था के बीच बाल किन्नरों के मनोविज्ञान पर उसके परिवेश और समाज द्वारा कई गहरा आघात पहुंचाया जाता है। परिणामतः इन बाल किन्नरों के भीतर स्वयं के छवि को लेकर हीन ग्रंथियां विकसित होने लगाती है, जो आजीवन उनके मनोमस्तिष्क से अलग नहीं हो पाती।
परिवार के द्वारा ही बाल किन्नरों पर जानलेवा हमला किया जाना; किन्नरों के जीवन की सबसे त्रासद घटना होती है। प्रायः हमारे पितृसत्तात्मक वर्ग कभी स्वीकार नहीं कर पाता है कि उनका शिशु एक किन्नर है। परिवार के पुरुषों को कतई बर्दाश्त नहीं होता कि लोग उन्हें एक हिजड़े के बाप के रूप में जाने। “अपने बुंदेला खानदान को नाम डुबा दें, क्षत्री वंश में हिजड़ा, का ऊ हिजड़ा हां पाले-पोसे अरे आज नहीं तो कल, जब सबके सामने जा बात आ जेहे कि हमाई संतान हिजड़ा है, बुंदेला खून हिजड़ा पैदा करत तो का गत हुई है हमाई, समझत काय नईय्या तुम इत्ती सी बात।”5
बाल्यवस्था के सात वर्ष से चौदह वर्ष का पूरा समय बाल किन्नरों के लिए मानसिक असंतुलन एवं कई अप्रत्याशित शारीरिक बदलाव का दौर होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो बाल किन्नरों के लिए यह अवस्था उनके शारीरिक और उनके तीव्र मानसिक अंतर्द्वंद का दौर होता है, जब बाल किन्नर अपनी शारीरिक संरचना और मानसिक भावों के बीच सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाता है। शारीरिक-मानसिक अंतर्द्वंद्व के इसी दौर में इन्हें पहली बार आभास होने लगता है कि वह अन्य लड़के-लड़कियों से अलग है। उन्हें अपने शरीर में हो रहे अनैच्छिक परवर्तन के प्रति घृणा होने लगती है। धीरे-धीरे बाल किन्नरों में किन्नर-जीवन का सहज हाव-भाव विकसित होने लगता है। किशोरावस्था की ओर अग्रसर बाल किन्नर को प्रायः लुक-छिपकर स्त्रियों के कपड़े पहनना एवं स्त्रियों के रूप में सजना-सँवरना भाता है, लेकिन ऐसे बच्चे अपनी पसंद को जाहिर करने से कतराते हैं. बाल किन्नर कतराते हैं अपनी पसंद के खेल खेलने से, कतराते हैं अपनी भावनाओं को साझा करने से। लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी और मानोबी बंधोपाध्याय की आत्मकथाओं में क्रमशः ‘मैं हिजड़ा.... मैं लक्ष्मी!’ और ‘पुरुष तन में छिपा मेरा नारी मन’ में भी बाल किन्नरों के अंतर्द्वंद को प्रामाणिकता के साथ उद्घाटित किया गया है। “मैं बहुत भ्रमित थी; मेरा जीवन एक अंतहीन भूल-भुलैया बन गया था-हर बार मैं एक ही मोड़ पर आ जाती। मैं कौन थी? मेरी देह मेरी आत्मा से अलग क्यों थी? या मुझे अपनी पहचान को जानने में भूल हो रही थी? मेरा जन्म इस तरह क्यों हुआ? क्या यह पिछले जन्मों के कर्म थे, जिन्हें इस तरह चुकाया जा रहा था? मैं इस जाल से बाहर आने के लिए क्या कर सकती थी?”6
जैसे ही परिवार और सामाज को बाल किन्नरों में हो रहे शारीरिक-मानसिक बदलाव का पता चलता है, उसी वक्त खिंचक जाती है मानवता के धरातल और शुरू हो जाता है परिवार और समाज के द्वारा बाल किन्नरों पर हिंसा तथा शोषण का सिलसिला। परिवार द्वारा शोषण और हिंसा इन्हीं घटनाओं के क्रम में कई बार बाल किन्नरों पर जानलेवा हमला भी होते हैं अथवा पुरुषों द्वारा उनका यौन-शोषण या समाज के द्वारा फब्तियां कसी जाती हैं। मानसिक प्रतिकूलता के बीच जब परिवार और समाज से बाल किन्नरों को केवल उपेक्षा मिलने लगती हैं, तब वे अपनी शिक्षा, अपने अरमान को न चाहते हुए भी त्यागकर किन्नर समुदाय से जुड़ जाने के लिए मजबूर हो जाते हैं। किन्नरों द्वारा सामाजिक प्रतिकूलता को अपने त्रासद जीवन की नियति मान लेने के समान्तर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी उनके लैंगिक भिन्न्नता को स्वतंत्र पहचान देने के पक्ष में हैं। “तुम स्वस्थ हो। अन्य स्त्री-पुरुष की तरह तुम्हारी लैंगिकता ही अलग है, और इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है।“7
पोस्ट बॉक्स न 203 नाला सोपारा’ की ‘बिन्नी’ हो अथवा ‘जिंदगी 50-50’ की ‘हर्षा’ या ‘किन्नर कथा’ की ‘सोना’ आदि सभी बाल किन्नरों का बाल्यावस्था कई दर्दनाक त्रासदियों से भरी पड़ी हैं। ‘जिंदगी 50-50’ उपन्यास में एक पिता ही अपने किन्नर बच्चे को चूहें मारने की जहर पिलाते हुए दिखाई पड़ते हैं। “कट जायें ऐसे हाथ, जिसने अपने हर्षा के जबड़े को पकड़ लिया था ताकि मुँह खुल जाए। रुक जायें ऐसी धडकनें’ जो अपने बेटे को मारने के लिए तेज हो गई थीं। भाड़ में जाये ऐसा समाज जिसके कारण अपने बेटे को मौत के घाट उतार रहा था वह बाप। ऐसे बाप का नाश हो जो अपने ही बेटे को ज़हर पिलाने जा रहा था उस बात के लिए जिसमें उस नवजात का कोई दोष न था।”8
‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’ उपन्यास का केन्द्रीय पात्र विनोद उर्फ़ बिन्नी बड़े होकर विश्व-स्तरीय गणितज्ञ बनना चाहता था। वह अपने परिवार का संबल बनना चाहता था। लेकिन लोकापवाद का भय और किन्नर समुदाय के षड्यंत्र के आगे बिन्नी के परिवार वाले घुटने टेक देते हैं। बिन्नी की माँ लाख कोशिश करती है कि बिन्नी को वह कीड़े-मकौडों की तरह जीवन व्यतीत करने वाले के हाथों नहीं सौंपेंगी, परन्तु परिस्थियों की प्रतिकूलता के सामने एक माँ को अपने बच्चे से दूर होना पड़ता है। बिन्नी के पिता के द्वारा अपने किन्नर बच्चे (बिन्नी) की छाया को मिटाने के लिए बिन्नी की मौत की झूठी खबर फैलाई जाती है। बाल किन्नरों के लिए कठिन होता है अपने परिवार की सहज स्थिति से अलग सहसा ऐसे समुदाय में शामिल होना, जिसकी कल्पना वह आज तक नहीं किया होता है। “जिस जिंदगी का हिस्सा अचानक मुझे बना दिया गया था, वह इतना आकस्मिक और अविश्वसनीय था कि मेरा किशोरमन उसे किसी भी रूप में पचा पाने में असमर्थ था। मनुष्य के दो ही रूप अब तक देखे थे मैंने। इस तीसरे रूप से मैं परिचित तो था लेकिन उसे मैं पहले रूप का ही एक अलग हिस्सा मानता था। तूने मेरे जन्मते ही मनुष्य के इस तीसरे रूप को देख लिया था न बा! उसी समय ख़तम कर देना था न बा मुझे!”9 आखिर इतनी ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, प्रताड़ना खुद अपने बच्चे के लिए! क्योंकि वे न तो स्त्री है और न ही पुरुष। क्यों फिर भारतीय समाज शिव के अर्धनारीश्वर को पूज्यनीय मानकर ढोंग रचता है। “मानुष प्रेम भयेऊ बैकुंठी” को आत्मसात करते हुए वर्तमान भारतीय समाज हमारे बीच जन्मे अर्धनारीश्वर रूपी किन्नर बच्चे को क्यों अस्वीकार करता है? क्यों इन बच्चों से उनका बचपन, उनका जीवन छिनकर उन्हें अभिशप्त बना देते हैं किन्नर बनने के लिए?
पारिवारिक दंश के बाद बाल किन्नरों को प्रायः समाज की पाशविक वृत्ति का भी शिकार बनना पड़ता है। परिवार के पुरुष रिश्तेदार हो या स्कूल के साथी लड़के अथवा राह चलता कोई पुरुष, सभी जगह बाल किन्नरों का यौन-शोषण होता आया है। अपने शारीरिक-मानसिक अंतर्द्वंद्व एवं पारिवारिक प्रताड़ना के साथ जब बाल किन्नरों के साथ यौन शोषण होता है, तब उनके आत्मसम्मान व आत्मविश्वास को गहरा धक्का लगता है। बिखर जाती हैं उनकी बाल सुलभ सहज चंचलता व बिखर जाते हैं उनके सँजोए अरमान। किन्नरों को लेकर समाज में इतना फोबिया फैला दिया गया है कि बलात्कार होने पर भी वह अपने साथ घटना को भी अपने परिवारवालों से छुपाती है, अगर कोई बाल किन्नर हिम्मत जुटाकर किसी से कहने का साहस भी करता है, तो परिवारवाले उसी बच्चे को दोषी मानकर उन बच्चों का शारीरिक एवं मानसिक रूप से प्रताड़ित करना शुरू कर देते है अथवा जल्द से जल्द इन बाल किन्नरों को स्वयं से हमेशा के लिए दूर कर देते हैं। लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी ने अपनी आत्मकथा ‘मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी’ स्वीकार करती है कि मेरा पहला यौन-शोषण सात वर्ष की आयु के दौरान हुआ। वहीं ‘जिंदगी 50-50’ की हर्षा का स्कूल से लौटते वक्त गाँव के अधेड़ व्यक्ति द्वारा बलात्कार किया जाता हैं। हर्षा के पिता को जब इस घटना की जानकारी मिलती है तो वे अपराधी को सज़ा दिलवाने के बजाय उल्टे हर्षा की बुरी तरीके से पिटाई कर देते हैं। बचपन में ही कई तरह की त्रासदियों को झेल चुके बाल किन्नरों मन पर इसकी अमिट छाप पड़ती है। न जाने कितनी हीन ग्रंथियों का निर्माण होता होगा इनकी बाल-सुलभ भावनाओं के समान्तर? किन्नरों के अभिशप्त जीवन के तले ऐसे अनेक विद्रूपताएं कारण बनती हैं, जब एक किशोर किन्नर स्वयं अपनी परिस्थितिओं के दबाव में सभ्य समाज की रूढ़िगत धारणाओं का विरोध करते हुए किन्नर समुदाय में शामिल हो जाता है। “किन्नर होना इतना बड़ा अभिशाप क्यों है? बस मेरा अधूरापन ही तो न? कैसे-कैसे पल आये! इस शरीर ने सब भुगता, सब सहा। जिस शरीर का लोग मजाक उड़ाते हैं, उसे ही रात को अपने मन बहलाने का ज़रिया बना लेते हैं। अच्छा है इन लोगों से दूर अपना एक समुदाय है। मेरे शारीरिक अस्तित्व में दुहरापन है। लेकिन उस तथाकथित समाज के व्यक्तित्व के दुहरेपन पर थूकती हूँ। बचपन में बाबू जी को ये लोग न सताते तो आज मैं भी पढ़-लिखकर कुछ बन जाती। खींसें निपोरकर सड़क पर भीख मांगती नज़र नहीं आती। उस पर एक के बाद एक इस शरीर पर हुए अत्याचार! याद आता है तो खौफ़ से सिहर जाती हूँ।”10
आवश्यकता है कि बाल किन्नरों के समस्याओं तथा उनके भीतर समाज की उपेक्षा से विकसित होती हीन ग्रंथि को पनपने से पहले ही रोक दिया जाए। किन्नर समुदाय की गुरुओं और समाज के दायित्वबोध को रेखांकित करते हुए चित्रा मुद्गल जी लिखती हैं कि “असामाजिक तत्वों के हाथ की कठपुतली बनने में जितनी भूमिका किन्नरों के सन्दर्भ में सामाजिक बहिस्कार-तिरस्कार की रही है, उससे कम उनके पथभ्रष्ट निरंकुश सरदारों और गुरुओं की नहीं। ऊपर से विकल्पहीनता की कुंठा ने उन्हें आंधी का तिनका बना दिया है। आधुनिक होते लोग पिछड़ी परम्पराएं और मान्यताओं में विश्वास नहीं रखते। गुंडागर्दी करने वालों के हाथों में वह अपने शिशुओं को आशीषने का अधिकार कैसे सौंप सकते है? बुजुर्गों की बेसिर-पैर की बातें। एक ओर आशीषने का सम्मान तो दूसरी ओर उन्हें कलंक मान घर-परिवार से उनका निष्कासन।”11 ज़रूरत है थर्ड-जेंडर के रूप में जन्मे बच्चें को लेकर समाज में विजीबिलिटी बढ़ाने की एवं किन्नरों को लेकर नजरिया बदलने की। किन्नरों को केवल उनके लैंगिक भिन्नता के आधार पर उपेक्षित न मानकर, उसे भी एक स्वतंत्र पहचान मिले यानी स्त्री-पुरुष लिंग के समकक्ष तृतीय लिंग का सामाजिक स्वीकृति मिले। जिससे बाल किन्नरों को भी अन्य बच्चे की तरह उनका बचपन मिल सके, मिल सके उनको उनके परिवार से समर्थन। हम तीसरे लिंग में जन्मे शिशुओं को हिजड़ा समझकर न त्यागे, बल्कि उनको समाज और परिवार के संवेदनात्मक स्वीकृति दें।
सन्दर्भ :
- ‘अधूरी देह’, गीतिका ‘वेदिका’, क्वालिटी बुक्स पुब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, कानपुर(उत्तर-प्रदेश), द्वितीय संस्करण: 2019, पृष्ठ नं.- 15
- ‘यमदीप’, नीरजा माधव, सामयिक प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण : 2021, पृष्ठ नं.- 6
- ‘पोस्ट बोक्स नं. 203 नाला सोपारा’, चित्रा मुद्गल, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, छठा संस्करण: 2020, पृष्ठ नं.- 50
- ‘यमदीप’, नीरजा माधव, सामयिक प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण : 2021, पृष्ठ नं.- 6-7
- ‘किन्नर कथा’, महेंद्र भीष्म, सामयिक प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण : 2019, पृष्ठ नं.- 27
- ‘पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन’, मानोबी बंधोपाध्याय, राजपाल एंड संस, कश्मीरी गेट, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण : 201 , पृष्ठ नं.- 36
- ‘मैं हिजड़ा ...मैं लक्ष्मी!’ लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण: 2018, पृष्ठ नं.- 21
- ‘जिंदगी 50-50’, भगवंत अनमोल, राजपाल एंड संस, कश्मीरी गेट, नई दिल्ली, तीसरा संस्करण : 2019, पृष्ठ नं.- 50
- पोस्ट बोक्स नं. 203 नाला सोपारा, चित्रा मुद्गल, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, छठा संस्करण: 2020, पृष्ठ नं.- 24-25
- ‘जिंदगी 50-50’, भगवंत अनमोल, राजपाल एंड संस, कश्मीरी गेट, नई दिल्ली, तीसरा संस्करण : 2019, पृष्ठ नं.- 207
- पोस्ट बोक्स नं. 203 नाला सोपारा, चित्रा मुद्गल, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, छठा संस्करण: 2020, पृष्ठ नं.- 86
- http://vangmaypatrika.blogspot.com on 26.08.2024
अरविन्द शर्मा
7557755456
शोध निर्देशक
बसंत कुमार त्रिपाठी
हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज
बाल साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक : दीनानाथ मौर्य
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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