- सच्चिदानन्द मिश्र
शोध सार
: हिन्दी बाल कविता का बाल परिवेश उस धारणा से जुड़ा हुआ है। जिसमें हम बच्चों के लिए एक प्रकारसे मूल्यपरक कविताओं का सृजन करते हैं। जिनसे बच्चे अच्छे संस्कार ग्रहण करते हुए अपने आस-पास की स्थितियों को भी ठीक तरह से समझ सकें। उनके अनुरूप अपने आपको ढाल सके। इसमें सबसे बड़ा योगदान उन कवियों व लेखकों का होता है जो बच्चों के मनोविज्ञान को समझकर उसके अनुरूप कविता लेखन कर रहें हैं। हिन्दी बाल कविओं को अपने सामाजिक परिवेश व बाल मन को ध्यान में रखकर आगे बढ़ने की जरूरत हैं। अगर हम बच्चों को मनोरंजन के साथ उन्हें शिक्षाप्रद कविताओं का पिटारा भी उनके सामने रखेंगे तो यह उनके लिए बहुत ही रोचक व उपयोगी होगा। एक ओर उन्हें अच्छा खासा मनोरंजन प्राप्त हो जाएगा तो दूसरी ओर खेल-खेल में नई सीख भी प्राप्त हो जाएँगी। यही हमारे द्वारा भावी पीढ़ी के लिए अमूल्य योगदान होगा कि हम उन्हें कितना स्वस्थ, चारित्रिक, सामाजिक व मनोवैज्ञानिक रूप से सुदृढ़ व मजबूत बना सकते हैं।
बीज शब्द : बाल साहित्य, सांस्कृतिक, सामाजिक, युगीन परिवेश, संवेदना, लोक व्यवहार, वैचारिक पृष्ठभूमि, मनोरंजन, चारित्रिक विकास आदि।
मूल आलेख : जिस प्रकार एक बालक अपने समाज के स्वरूप एवं व्यक्तित्व का बीज रूप होता है, उसी प्रकार बाल साहित्य भी बालकों को संस्कार एवं दिशा प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह बालकों की प्रारम्भिक अवस्था से ही उनके मन, विचार और कल्पना को परिमार्जित करते हुए समाज एवं राष्ट्र के भावी स्वरूप की पृष्ठभूमि तैयार करता है। हिन्दी का बाल साहित्य सदैव ही युग-सापेक्ष रहा है। इसका विकास भी अत्यन्त तीव्र गति से हुआ है। हमारे देश में प्राचीनकाल से ही बाल मन की अभिव्यक्ति के लिए बाल साहित्य लिखा जाता रहा है। पंचतन्त्र, कथा-सरित्सागर, हितोपदेश, नीतिकथाओं तथा लोककथाओं का अथाह भण्डार इस तथ्य का साक्षी है। पंचतन्त्र तो ऐसी अनूठी और अनमोल कृति है जिसकी मिसाल पूरे विश्व के बाल साहित्य में नहीं मिलती। इसीलिए देश-विदेश की लगभग सभी भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है। आरंभिक बाल साहित्य घर की बुजुर्ग महिलाओं यथा दादी, नानी आदि से मुखरित हुआ है। इसी माध्यम से ही बाल साहित्य बच्चों तक पहुँचता था। पिछली शताब्दी के अन्तिम वर्षों में इस स्थिति में व्यापक बदलाव आया और बाल साहित्य का अलग अस्तित्व बनने लगा। साहित्यकारों ने बाल साहित्य के महत्व को समझा और उसके सृजन पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा।
आज जितनी विधाओं में बड़ों का साहित्य लिखा जा रहा है, उतनी ही विधाओं में बाल साहित्य का भी सृजन हो रहा है। इसके बावजूद यह सच है कि अभी भी बाल साहित्यकारों को वह सम्मान प्राप्त नहीं है जिसके वे अधिकारी हैं। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य की किसी भी विधा में बाल साहित्यकारों का नाम केवल बाल साहित्यकार के रूप में नहीं लिया जाता। बाल साहित्यकारों को अपने बाल साहित्य लेखन के लिए उच्च प्रतिष्ठित अखिल भारतीय सम्मान या पुरस्कार भी न के बराबर ही मिले हैं। राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी अथवा रामनरेश त्रिपाठी को भी साहित्य के इतिहास में कवि के रूप में मान्यता केवल उनके बालसाहित्य के आधार पर ही नहीं मिली है, बल्कि जब वे अन्य विशिष्ट कृतियों के आधार पर कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गए तो लोगों ने उनके द्वारा रचित बाल कविताओं को भी प्रतिष्ठा प्रदान कर डाली। हमें इसके लिए अंग्रेजी साहित्य से प्रेरणा लेनी चाहिये जहाँ डेनियल डिफो को केवल 'रॉबिन्सन क्रूसो' के कारण ही अपार ख्याति मिली! डेनियल ने यदि कुछ और न भी लिखा होता तो भी अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में उसका स्थान सुरक्षित था। रॉबिन्सन क्रूसो विशुद्ध बाल साहित्य है और उसके लेखक को अकेले इसी कृति के दम पर बड़ों के लिए साहित्य रचने वालों के बराबर बल्कि कहीं अधिक सम्मान मिला। यह स्थिति तब है जबकि हिन्दी जगत् में बाल साहित्य की विचारधारा अत्यन्त सबल और प्राचीन है।
बाल साहित्य बच्चों की जिज्ञासाओं और कल्पनाओं को शांत करके उनके स्तर के अनुसार, उनके मनोविज्ञान को समझ कर उनकी भाषा में लिखा जाना चाहिए। विभिन्न विद्वानों ने बाल साहित्य को अपने-अपने तरीके से परिभाषित किया है। डॉ. राष्ट्र बन्धु के अनुसार- “बाल साहित्य रोचक और प्रेरक दोनों होना चाहिए क्योंकि बाल साहित्य रोचक नहीं होगा तो बालकों को अपनी ओर आकर्षित नहीं करेगा। उसे प्रेरक भी होना चाहिए, अन्यथा वह निरुद्देश्य होने से गुणकारी नहीं हो सकता।”1
महान कवियित्री महादेवी वर्मा संक्षिप्त रूप में कहती हैं “बालक तो स्वयं एक काव्य है, स्वयं ही साहित्य है।”2
उनका मानना है कि बाल क्रीडा के अवलोकन से भी रस प्राप्त होता है। डॉ. लक्ष्मी नारायण दुबे के अनुसार- “बच्चों की दुनिया सर्वथा पृथक होती है। उनका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व होता हैं। वे संस्कृति, साहित्य तथा समाज के लिए नए होते हैं। स्कूली साहित्य बाल साहित्य नहीं है। अपितु बच्चों के जीवन तथा मनोभावों को जीवन के सत्य एवं मूल्यों के पहचानने की स्थिति से जोड़कर जो साहित्य सरल हो एवं उनकी अपनी भाषा में लिखा जाता है और जो बच्चों के मन को भाता है वही बाल साहित्य है।”3
इसी संबंध में 'बाल सखा' के सम्पादक लल्ली प्रसाद पाण्डेयकहते हैं - “बाल साहित्य का उद्देश्य है बालक, बालिकाओं में रूचि लाना, उनमें उच्च भावनाओं को भरना और दुर्गुणों को निकाल कर बाहर करना, उनका जीवन सुखमय बनाना और उनमें हर तरह का सुधार करना।”4
हिन्दी बाल साहित्य विशेषकर कविता का स्वरूप आज के परिप्रेक्ष्य में काफी बदला हुआ है। अगर इसकी आरम्भिक अवस्था को देखे तो इसमें बहुत कुछ बदलाव देखने को मिलता हैं। हिन्दी बाल कविताएं अपनी उत्थानिक अवस्था में जहाँ बच्चों के लिए भालू, बन्दर, चिड़िया, बादल व मोर आदि के ऊपर लिखी जाती थी। जिन कविताओं को पढ़ या सुनकर बच्चे बड़े उत्सुक व रोमांचित हो जाते थे। वे उनके बारे में जानने या समझने के लिए उत्सुक दिखते थे। आज के बदलते वैज्ञानिक युग में इन कविताओं की जगह बदलते स्वरूप के कारण जहाज रोबोट, रेलगाड़ी, कम्प्यूटर, रॉकेट व वीडियों गेम जैसी चीजों ने ले ली हैं। इनके ऊपर लिखी गई कविताओं को बच्चे आज बड़े चाव से सुनते हैं व इनके बारे में जानने का प्रयास भी करते हैं कि आखिर ये सब अपना काम कैसे करते हैं? इनका सृजन कैसे किया गया? ऐसा जानने के लिए बच्चों की उत्सुकता बढ़ी है। इस प्रकार से इन सब चीजों को देखते हुए। हम कह सकते हैं कि वास्तव में आज की कविता के अर्थ ही बदल गए हैं। हमारे ग्रामीण परिवेश में एक कहावत हैं कि
"कोस कोस पै पानी बदले और तीन कोस पै बानी"
कहने का मतलब ये हैं कि तीन कोस चलने पर पानी का स्वाद बदल जाता हैं और तीन कोस की दूरी तय कर लेने पर हमारी बोल चाल की भाषा में परिवर्तन दिखने लगता है।
जब भी कोई कवि कविता लिखता है, तो उसकी कविता का विषय अपनी युगीन परिवेश और उपस्थिति के अनुकूल होता है। कविता का कथ्य जितना सहज और सरल रूप में होता है बच्चे उससे उतना अधिक रूप से जुड़ाव महसूस करते हैं। बच्चों के स्वभाव सोच व विवेक में आमूलचूल परिवर्तन होता रहता हैं। इससे हमें चाहिए कि हम बच्चों के मनोविज्ञान को समझते हुए कविताओं का सृजन करें। हमें चाहिए कि हम बच्चों के लिए कुछ सार्थक चीजे कर सकते हैं। जिनके द्वारा बच्चों के अन्दर एक बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। अगर हम उन्हीं प्राचीन परिपाटियों पर ही कविता लेखन करते रहेगे तो हम अपने बाल समाज में अधिक बदलाव नहीं कर सकते हैं। हर बदलाव धीरे-धीरे ही होता है। यदि बदलाव समय सापेक्ष ना हुआ तो सामाजिक विसंगति का जन्म होता है। हमें पुरानी परिपाटी से निकलकर युगीन परिस्थितियों के अनुकूल कविताओं का विषय चुना होगा तभी बच्चे उसे कविता से जुड़ पाएंगे जहां पीछे के समय में कविता के विषय कुछ इस तरह के होते थे -
"भालू आया भालू आया,
नया मदारी लेकर आया ।
दिखने में सबको दहलाता,
उछल कूदकर मन बहलाता ।
दो पैरों पर खड़ा ये हो ले,
दो पैरों पर खड़ा ये हो ले
इधर उधर मस्ती में डोले ।"5
ऐसी कविताएँ जंगल के जीव भालू, मोर,
बन्दर आदि से जुड़ी हुई होती थी परंतु आज वैज्ञानिक आविष्कारों के चलते कविताओं का विषय तकनीकी और मशीनी हो गया है। इन आविष्कारों के ऊपर लिखी गई कविताओं को सुनकर बच्चे बहुत ही इठलाते व मुस्कराते हैं। बिना इनके बारे में जाने मन भी नहीं लगता है क्योंकि इनके बारे में जानने के लिए बच्चे हमेशा उत्सुक बने रहते हैं। इससे लगता है कि बच्चों को कुछ ऐसी कविताओं की आवश्यकता है जो वर्तमान परिवेश को ध्यान में रखकर लिखी गई हो। तभी हम बच्चों के साथ न्याय कर पाएँगे। हर एक दौर में वही एक प्रकार की परिपाटी को स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। इस नियम को हमें हर हाल में स्वीकार करना होगा। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो सामाजिक उत्थान से अपने आपको कही न कही अलग थलग कर लेंगे। यह किसी भी सामाजिक व्यवस्था के लिए अच्छा नहीं होगा। इस पर हमें सदैव विचार करते रहना चाहिए। परशुराम शुक्ल ने इसी सामाजिक उत्थान को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिक आविष्कारों की आवश्यकता व उनकी हमारे जीवन में उपयोगिता के बारे में बताते हुए कविता लिखते हैं
-
"आओ मम्मी आओ पापा,
आओ दादी आओ दादा।
चले घूमने हम बाजार,
लेकर अपनी मोटर कार।
अपनी मोटर बड़ी निराली,
छोटी-सी है चाबी वाली ।
जेन सेंट्रो वैगनआर
इसके आगे सब बेकार ।”6
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि युगीन परिवेश के अनुसार अपने आपको स्थापित करने के लिए हमें हमेशा तैयार रहना चाहिए। अगर हम अपने आपको युग के अनुसार ढालने में कामयाब नहीं हो सके तो यह हमारे सामाजिक दृष्टिकोण के अनुसार ठीक नहीं होगा। हमें अपनी आने वाली पीढ़ी को भी युगानुरूप ढालने के लिए हमेशा प्रेरित करते रहना चाहिए। तभी हमारी स्थापत्य कला स्थायी रूप से स्पष्ट हो सकेगी। जो हर एक सभ्यता के युगानुरुप बदलनी चाहिए क्योकि बच्चे भी अपने आस-पास के वातावरण से प्रभावित रहते हैं। बच्चे भी जानना चाहते हैं कि आखिर हमारे आस-पास क्या घटित हो रहा है? इन चीजों पर उनका भी ध्यान रहता है। अपने देश के अलावा अपने पड़ोसी देशों में क्या घटित हो रहा हैं इसके बारे में भी जानने के लिए बच्चे बड़े उत्सुक रहते हैं। ये घटनाएँ वहाँ घटी तो कैसे घटी इसके बारे में भी वो जानना चाहते हैं? इन जानकारियों के लिए उनके अन्दर की जिज्ञासा भी बलवती हो उठती है। इन्हीं जिज्ञासाओं को शान्त करना ही कवि का महत्वपूर्ण काम होता है।
हिन्दी बाल कविता का बाल परिवेश उस धारणा से जुड़ा हुआ है। जिसमें हम बच्चों के लिए एक प्रकार से मूल्यपरक कविताओं का सृजन करते हैं। जिनसे बच्चे अच्छे संस्कार ग्रहण करते हुए अपने आस-पास की स्थितियों को भी ठीक तरह से समझ सकें। उनके अनुरूप अपने आपको ढाल सके। जिसमें सबसे बड़ा योगदान उन कवियों व लेखकों का होता है। जो बच्चों के मनोविज्ञान को समझकर उसके अनुरूप कविता लेखन कर रहें हैं। सच बात तो यह हैं कि हमारे घर परिवार का जो माहौल होता हैं. बच्चों के अन्दर के भाव विचार वैसे ही बनते जाते हैं। हमारे घर के अन्दर जितनी अधिक किताबे होगी, बच्चे उन किताबों को उतना ही अधिक पढ़ेगें, उनके बारे में जानने का प्रयास करेंगे जिससे बच्चे का शारीरिक, मानसिक व चारित्रिक विकास भी उज्ज्वल होगा क्योकि हमारे आस पास का परिवेश ही बच्चे को पूरी तरह से प्रभावित करता है। जिससे बच्चे का भावी भविष्य जुड़ा हुआ होता है। इससे स्पष्ट होता हैं कि हम बालक के परिवेश को ध्यान में रखकर कविताओं का सृजन करें। जिससे उनका चारित्रिक विकास तो होगा ही, इसके साथ साथ उन्हें स्वस्थ मनोरंजन भी प्राप्त हो। तभी बाल साहित्य की सार्थकता सिध्द हो पकेगी। जिससे बच्चों को स्वस्थ मनोरंजन के साथ ही बेहतर सामाजिक परिवेश भी उपलब्ध हो सकेगा। इस क्रम में परशुराम शुक्ल की ये कविता बच्चों को एक सीख देती हुई प्रतीत होती हैं
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"नीम, बबूल, आम, पीपल से,
वरगद, साल और शीशम से।
बंजर धरती हरी बनाएँ,
आओ बच्चों पेड लगाएँ।
पेड़ लगेंगे हवा चलेगी,
लू गर्मी से मुक्त मिलेगी।
यह रहस्य सबको समझाएँ,
आओ बच्चों पेड़ लगाएं।”8
इस प्रकार से कहा जा सकता हैं कि हिन्दी बाल कविताओं को अपने सामाजिक व बाल परिवेश को ध्यान में रखकर आगे बढ़ने की जरूरत हैं। अगर हम बच्चों को मनोरंजन के साथ उन्हें शिक्षाप्रद कविताओं का पिटारा बच्चों के सामने रखेंगे तो यह उनके लिए बहुत ही रोचक काम होगा। एक ओर उन्हें अच्छा खासा मनोरंजन प्राप्त हो जाएगा तो दूसरी ओर खेल खेल में नई सीख भी प्राप्त हो जाएँगी। यही हमारे द्वारा भावी पीढ़ी के लिए अमूल्य दान होगा कि हम उन्हें कितना स्वस्थ, चारित्रिक, सामाजिक व मनोवैज्ञानिक रूप से सुदृढ़ व मजबूत बना पा रहे हैं। कुछ ऐसा ही प्रयोग परशुराम शुक्ल अपनी कविताओं में करते हैं -
"कौआ कांव कांव करता हैं,
कोयल गीत सुनाती हैं।
इसीलिए कौए से कोयल
अच्छी मानी जाती है।”8
ऐसी कविताएँ लिखने से बच्चों को एक शिक्षाप्रद सीख मिलती हैं कि मीठा बोलने से सभी अपने हो जाते हैं। यह बोलना सभी को कितना अच्छा लगता हैं। हम जितना मीठा बोलेंगे हर व्यक्ति हमसे उतना ही अधिक प्यार करेंगे। आगे के कवियों को ऐसी ही कविताओं को लिखने की जरूरत हैं क्योकि ये कविताएँ बच्चों के लिए मनोरंजन के साथ साथ उनके मन पर एक छाप छोड़ती हैं। जिसका असर बच्चों के ऊपर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हमें चाहिए कि हम उन्हे अपने परिवेश से जोड़े रहे। इस बारे में प्रकाश मनु लिखते हैं
"शुरुआत ऐसी कविताओं से की जाएँ, जिनमें बात कहने का ढंग इतना नाटकीय और अनूठा हो कि ये कविताएँ मन पर सीधे सीधे अपना प्रभाव छोड़ें हैं। इनके जादुई बिम्ब विधान और लयकारी के कारण बच्चे खुद ब खुद इन्हें याद करते और गुनगुनाते हैं। ऐसी कविताएँ, जाहिर हैं, उन रंग बिरंगे खिलौनों की तरह हैं बच्चे जिनसे खेलते और आनन्द लेते हैं। इस खेल खेल में अपनी समूची दुनियाँ बसा लेते हैं। इस तरह की कविताओं से खेलते-खेलते बच्चे सीखते भी हैं, लेकिन वे सिखाने वाले अंदाज में नहीं लिखी जाती और कोई सन्देश उनमें हो, तो वह छिपा हुआ ही रहता है।"9
इस प्रकार से कविताओं का अंकन खेल खेल में बच्चों को मनोरंजन के साथ शिक्षा देना होना चाहिए। जिससे बच्चे अपने परिवेश का अच्छे ढंग से निर्माण कर सके। तभी हमारी कविताओं का संसार सफल होता नजर आएँगा । कुछ इसी प्रकार से बच्चों को सार्थक ढंग से सीख देते हुए परशुराम शुक्ल कहते हैं कि प्रकृति भी हमें कैसे सीख देती हैं -
"धरती से सीखा हमने सबका बोझ उठाना ।
और गगन से सीखा हमने, ऊपर उठते जाना ।
सूरज की लाली से सीखा
जग को आलोकित करना ।
चन्दा की किरणों से सीखा,
सबकी पीड़ा हरना।"10
कवि कविता के माध्यम से कहना चाहता है कि प्रकृति किसी के साथ भेद- भाव नहीं करती हैं। वह सभी को समान रूप से अवसर देती हैं व लाभ पहुँचाती हैं। इससे बच्चों को चाहिए कि वे भी सभी के साथ समानता का व्यवहार करें। हमें किसी को परेशान नहीं करना चाहिए एवं हमें अपनी क्षमताओं और दक्षताओं से समस्त संसार को आलोकित करना चाहिए ।
निष्कर्ष : इस प्रकार हम कह सकते हैं कि इन नवीन कविता शैली के द्वारा हम बच्चों को एक नए दृष्टिकोण के द्वारा सही दिशा बोध की जानकारी प्रदान कर सकते हैं। जिससे इन्हें एक नवीन सोच के द्वारा उनके अन्दर वैज्ञानिक सोच उत्पन्न की जा सकती हैं। जिससे आगे आने वाले सामाजिक परिवर्तनों के द्वारा, बच्चे समाज के अन्दर एक नया दृष्टिकोण विकसित कर सकते हैं। साथ ही समाज में एक नवीन क्रांति का आगाज किया जा सकता है। इससे हमारे बीच बाल कविता की एक
मजबूत परिपाटी का चलन शुरू होगा। जिससे हमारा नवीन बाल समाज एक बड़े स्तर पर समृद्ध होकर तरक्की की राह पर निकल पड़ेगा। जो हमारे समाज में एक नवीन नजरिया प्रदान कर सकेगा। ऐसा माना जाता है कि आज के बच्चे कल युवा बनेंगे और यही हमारे समाज का कर्णाधार बनेंगे उनके आचरण जितने अच्छे और विशुद्ध होंगे हमारा सामाजिक परिवेश उतना ही अधिक समृद्धशाली बनेगा। इसीलिए कहा जाता है कि बाल साहित्य जितना अधिक समृद्धिशाली होगा हमारी सांस्कृतिक परंपराएं भी उतनी अधिक समृद्धशाली होगी जो कि वर्तमान तकनीकी युग के लिए बहुत उपयोगी है क्योंकि यही हमारी संवेदनाओं को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
संदर्भ :
- डॉ. नागेश
पाण्डेय
'संजय',
बाल
साहित्य
के
प्रतिमान,
पृष्ठ
सं.
12
- फरहत परवीन
(संपा.)
आजकल,
नवम्बर
2014, , पृष्ठ 15
- डॉ. नागेश
पाण्डेय
'संजय',
बाल
साहित्य
के
प्रतिमान,
पृष्ठ
सं.
12
- फरहत परवीन
(संपा.)
आजकल,
नवम्बर
2014, पृष्ठ सं.
12
- गौरी शंकर
उपाध्याय
"सरल", बाल
गीत
(संग्रह),
पृष्ठ
सं.
29
- परशुराम
शुक्ल,
उठो
सबेरे,
पृष्ठ
सं.
13
- परशुराम
शुक्ल,
बाल
गीत
भाग-3,
पृष्ठ
सं.
6
- परशुराम
शुक्ल,
बाल
गीत
भाग-1,
पृष्ठ
सं.
7
- मनु प्रकाश,
हिन्दी
बाल
कविता
का
इतिहास,
पृष्ठ
सं.
165
- परशुराम
शुक्ल,
कामना
(बाल
गीत
संग्रह),
पृष्ठ
सं.
3
शोधार्थी, हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला, हिमाचल-176215
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