- महेश कुमार कुमावत
शोध सार : भारत में ऐसी हजारों हजार नारी प्रतिमाएं, कलाकृतियां, रचनाएं बीती सदियों में इतिहासकारों व संस्कृतिविदों के सामने आईं जिनको भारतीय दृष्टि से व्याख्यायित नहीं किया जा सका। न ही उनका भारतीय दृष्टिकोण से मूल्यांकन, आकलन किया गया। भारतीय कला, समाज और संस्कृति में नारी और उसके स्वरुप को आदर्श रूप में दिखाया गया है। भारतीय कला में नारी नारी आकृतियों को अर्द्धनग्न, नग्न, आवृत बनाया गया परन्तु इनमें वासना के भाव ना होकर वात्सल्य, प्रेम और ममत्व भाव के दिग्दर्शन होते है। यह विशेषता भारतीय कला की पहचान है। भारतीय नारी के चित्रण साधारण न होकर विशेष है। बात सिर्फ चित्रों तक सिमित नहीं है, यह भारतीयता या भारत से जुड़ी हर कला चाहे वह गायन हो, नाट्य, संगीत हो या चित्रकारी। सभी पर लागू होती है। जाने-अनजाने में हमने इन सभी विधाओं पर, जो हमारी संस्कृति की थाती रही हैं या हो सकती हैं, उन पर पश्चिमी विचारकों से उधार ली गई सोच से सोचा, विचारा है।
बीज शब्द : नारी चित्रण, प्रागेतिहासिक, सिंधु सभ्यता, बौद्धकालीन, गांधार, मौर्यकाल, शुंगकाल, गुप्तकाल, चोलकाल, काँगड़ा (पहाड़ी शैली), किशनगढ़ (राजस्थानी शैली) में नारी सौन्दर्य।
मूल आलेख :
“यद्येक वृषोऽसि सृजारसोऽसि ।। यदि द्विवृषोऽसि ।। त्रिवोनोऽसि ।। चतुवर्षोऽसि ।। पञ्चवृषोऽसि ।। षड्वृषोऽसि ।। सप्तवृषोऽसि ।। अष्टवृषोऽसि ।। नववृषोऽसि सृजारसोऽसि ।। चद्येकादशोऽसि ।। सोपादेकोऽसि ।।”
।। अथर्ववेद ।।
“चाहे तुममें दस गुना सृजन-शक्ति हो चाहे एक ही गुना, अपनी क्षमता के अनुसार सृजन अवश्य करो। अन्यथा सृष्टि के लिए तुम्हारा कोई उपयोग नहीं। तुम्हारी क्षमताओं की सार्थकता तुम्हारे कृतित्व में ही है। सृजन ही तुम्हारा धर्म है। कला मानव की इसी दिव्य-सृजन-प्रतिभा का परिणाम है”।(1)
सृजन स्वयं में सौन्दर्य की मूल अवधारणा को समाहित किए होता है, जो कलाकार के सौन्दर्यबोध से उद्भासित हो कर कलाकृति के रूप में अभिव्यक्त होता है। भारतीय चिन्तन परम्परा में कला सदैव सत्यम और शिवम की अवधारणा लिए सौन्दर्य भाव से परिपूर्ण मानवीय मूल्यों की संवाहक रही है, जिसने प्राचीन काल से वर्तमान तक उन तमाम भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं ऐतिहासिक विषमताओं के उपरान्त न केवल अपने मूल दार्शनिक चिन्तन को ही बचाए रखा अपितु नवाचारों को समाहित करते हुए निरन्तर विकास की ओर प्रवृत रही है। भारतीय कला परम्परा में चित्रण हो या मूर्तन, सभी में भारतीय मूल्यों को रेखांकित किया गया है, जिसमें सम्यक सौन्दर्यबोध व सामाजिक व नीतिपरक मूल्यों की अवधारणा परिलक्षित होती है। कालान्तर में आए परिवर्तनों और स्वतन्त्रता के पश्चात वैश्विक प्रभावों ने भारतीय कला और कलाकारों को एक नया दृष्टिबोध प्रदान दिया, जिसके चलते आधुनिक युग में भारतीय कला और कलाकारों को वैश्विक पटल पर एक विशेष पहचान प्राप्त हुई। कला एवं सांस्कृतिक धरोहर किसी भी राष्ट्र की सम्प्रभुता एवं सामाजिक एक्य की आधारभूत अवधारणा होती है जिसमें भावी पीढ़ी को संस्कारित करने एवं राष्ट्र निर्माण की शक्ति निहित रहती है।(2)
हम अगर भारतीय कलाओं पर दृष्टिपात करे तो हम भारतीय संस्कृति के मर्म में प्रवेश करते हैं। भारत अनेकता में एकता का ऐसा अनोखा देश है यहाँ आरम्भ से ही पुरुष प्रधान समाज रहा। किन्तु पुरुष प्रधान समाज होने के पश्चात् भी यहाँ की कलाओं में नारी का नख-शिख वर्णन देखने को मिलता है, यह अद्भूत हैं। नारी सौन्दर्य का सांगोपांग वर्णन भारतीय कला में ही नही, साहित्यों में भी मिलता है। बात भारतीय सोच व संस्कृति में नारीचित्रण के महत्व या नारी सौन्दर्य की है तो वह चाहे सिन्धु घाटी की खुदाई में मिली 'मातृ देवी' की प्रतिमा हो, मौर्यकालीन यक्षिणी की प्रतिमा हो, कांगड़ा का नारी स्वरुप हो या किशनगढ़ की बणी-ठणी। वैश्विक कला परिदृश्य में भारतीय नारी सौन्दर्य की पराकाष्ठा दिखाई देती है।(3)
यथा नाराणां प्रवरः क्षितीशस्तथा कलानामिह इचित्रकल्पः।।"
“जैसे पर्वतों में सुमेरू श्रेष्ठ है, पक्षीयों में गरूड़ प्रधान है और मनुष्यों में राजा उत्तम है उसी प्रकार कलाओं में चित्रकला उत्कृष्ट है।" इन्हीं वाक्यों के साथ मार्कण्डेय मुनि ने 'चित्रसूत्रम्' को समाप्त किया”।(4)
इसीप्रकार भारत का नारी चित्रण विश्वभर में हुए नारी चित्रण से श्रेष्ठ है। भारतीय कला के नारी सौन्दर्य की व्याख्या बहुत विस्तृत और विराट रही है। भारतीय नारी को देवी, अर्धांगिनी, वात्सल्य, आदर्श प्रेमीका, अप्सरा आदि भावों के साथ चित्र में महत्वपूर्ण स्थान दिया जबकि पश्चिम की कला में नारीचित्रण मात्र चित्र का हिस्सा मात्र रही। हम अगर कला के आरम्भ की बात करे तो प्रागैतिहासिक काल में नारी चित्रण का उल्लेख देखने को मिलता है। उत्तराखण्ड के लखुडियार में स्त्री-पुरुष को हाथ पकड़े नृत्य करते तो दक्षिण भारत में कुपगल्लू नामक स्थान पर पुरुष द्वारा स्त्रियों को भगा कर ले जाते हुए चित्रित किया गया है। अर्थात प्रागैतिहासिक काल में भी सरल और साधारण रेखाओं के द्वारा नारीचित्रण किया गया है।(5) (चित्र सं-1)
भारतीय कला में नारी सौन्दर्य की परिकल्पना बौद्धकालीन गुफाओं में भी सुन्दरता से परिणत हुआ है। बौद्ध कालीन चित्रण में जोगीमारा की गुफा में लाल रंग की कुमुदनी के फूलों पर स्त्री-पुरुष (युगल) को सुंदरता से नृत्य करते दिखाया गया है।(6) वही बात अजंता हो तो यहाँ के चित्रों में नारी सौन्दर्य की पराकाष्ठा दिखाई देती है। अजन्ता के चित्रों में नारी चित्रण सौन्दर्य का प्रतीक है, जो यहाँ की प्रमुख विशेषता है। धर्म के आवेश में भी अजन्ता के ये चित्रकार नारी के महत्त्व को नहीं भूले। यहाँ जीवन के सभी प्रसंगों में नारी पुरुष की सहचरी रही है। किसी चित्र में वह प्रयेसी बनकर प्रेमी से प्रणय करते, तो कही माता बन सृष्टि की श्रृंखला को निरन्तरता देते। अजन्ता में नारी को माँ, रानी, दासी, पत्नी, पुत्री, सखी, सहचरी-अनुचरी जैसे विविध रूप में चित्रकारों ने जीवन्त चित्रित किया हैं। अजन्ता के चित्रों को देखकर लगता है कि सौंदर्य से परे नारी का चित्रण करना उन्हें पसंद ही नहीं था। इसीलिए गुफा संख्या 2 में "दण्ड पाती नायिका" के चेहरे को, इस डर से छिपा दिया कि विषयानुसार चेहरे पर कुरूपता न ला दे। नारी सौंदर्य के प्रति ऐसा समर्पण अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। अजन्ता के नारी चित्रण के लिये कला समीक्षक ग्लेडस्टोन सोलोमन ने लिखा है "कहीं भी नारी को इतनी पूर्ण सहानुभुति व श्रद्धा प्राप्त नहीं हुई है। अजन्ता में यह प्रतीत होता है कि इसे विशिष्टता के साथ नहीं बल्कि एक सारतत्व के रूप में निरूपित किया है। यह कोई व्यक्तिगत पात्र नहीं है, यह तो एक नियम है, यह यहाँ एक नारी ही नहीं, अपितु समस्त विश्व के सृजन व सौन्दर्य का अवतार है”।(7)(चित्र सं-2,3)
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चित्र सं.3 अजन्ता नारी सौन्दर्य |
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चित्र सं.2 अजन्ता नारी सौन्दर्य |
इन चित्रकारों को जहाँ भी सौन्दर्य की आवश्यकता हुई तों इन्होंने अपनी श्रेष्ठता का प्रमाण प्रस्तुत करने के लिये नारी को अगणित रूपों में चित्रित किया। इस प्रकार नारी चित्रण अजन्ता की चरम उपलब्धि है। अजन्ता के चित्रों में नारी का आवृत-अनावृत तथा अर्धआवृत जैसी विभिन्न स्थितियों में चित्रित किया है। अनावृत नारी शरीर इन चित्रकारों के लिये कोई गोपनीय विषय नहीं रहा, जिसे अध्ययन के लिये उन्हें व्यावसायिक मॉडल बैठाने पड़े हो। उन्होंने तो इन्हें खुले रूप में ही देखा और सोचा और खुले रूप में ही इन्हें चित्रित किया। नारी के शारीरिक अंग-उपांगों में उरोज और नितम्बों का आकार शारीरिक अनुपात से बढ़ाकर चित्रण करने पिछे कलाकार का भाव सृष्टी निर्माण में नारी को उर्वरा शक्ति रूप के साथ-साथ काव्य के श्रृंगार पक्ष को भी अभिव्यक्त करने का रहा है जो अजन्ता की चरम उपलब्धि है। अजन्ता के अंकन में अनेक प्रकार के भाव तथा अनेकानेक रस का दिग्दर्शन होता है। अजंता के चित्रकारों ने नारी सौंदर्य को मनुष्य के सहचरी के रूप में प्रदर्शित किया है। बात करे गुफा संख्या 9 में स्तूप पूजा चित्र में अर्धआवर्त स्त्रियों को दिखाया है, तो गुफा संख्या 10 में छ: दंत जातक में रानियों का अंकन सुंदर बन पड़ा है, हम बात करें गुफा संख्या 16 की तो यहां मरणासन्न राजकुमारी का जो मार्मिक चित्रण अत्यंत चित्ताकर्षक है। यहां चित्रित सभी स्त्रियों के भाव सौंदर्य का अद्भुत समन्वय देखा जा सकता है। इसी प्रकार गुफा संख्या 17 में राहुल समर्पण चित्र में चित्रकार ने बहुत सुंदरता से यशोधरा के चेहरे पर श्रद्धा और समर्पण का भाव चित्रित किया है। गुफा संख्या 1 में मार विजय चित्र में बुद्ध की तपस्या को भंग करती अप्सराओं का रूप चित्रण रमणीक है।(8) (चित्र सं-4)
चित्र सं.4 राहुल समर्पण,अजन्ता |
संस्कृत कवि बाणभट्ट का शब्द "त्रिभुवन संपुंजन" शब्द अजन्ता के लिए बहुत ही सार्थक शब्द है। सत्य है कि अजन्ता के चित्रों में तीनों लोकों की परिकल्पना है। रूप वैविध्य में यहाँ दैवीसृष्टि, देवता, इन्द्रादिक, अप्सरा-सुर-असुर, मानव, यक्ष, नाग, किन्नर, पृथ्वी, स्वर्ग, सूर्यचन्द्र, वन-पर्वत, सागर-सरिता, वृक्ष-लता, पुष्प-पत्र-फल, पशु-पक्षी, जलचर, नभचर, मानवीय अतिमानवीय आदि सभी तरह की आकृतियों का यर्थाथसाम्य का कल्पना के संस्पर्श के साथ अजन्ता में चित्रण हुआ है। इसी तरह बाल, युवा, वृद्ध, स्त्री-पुरुष, योगी-भोगी, रोगी-स्वस्थ, राजा-मन्त्री-सेवक, ब्राह्मण व्याध, सैनिक दूत, विदुषक-विद्वान, रानी, राजकुमारी, नर्तकी प्रेयसी, दासी-प्रणयिनी, विरहिणी-प्रसविनी सभी का अजन्ता में चित्रण किया गया है। भाव में राग-द्वेश, कोध-हर्ष, शोक-उत्साह, भय, करुणा, वैराग्य तथा राजमहल, वन, वाटिका, जलाशय आदि सभी इन कलाकारों ने चित्रित किये हैं। जीवन के विविध पक्षों का विश्वकोश रुप में इतना बड़ा महाकाव्य वह भी स्वाभाविकता से चित्रित करना निसंदेह अन्यत्र दुर्लभ है। जीवन के सभी पक्षों को समानरुप से और लौकिक अलौकिक भाव को इतने माधुर्य से चित्रित किया है कि अजन्ता के चित्रों में भौतिक और आध्यात्म का एकाकीरण हो गया है।(9)
नारी सौंदर्य और उत्कृष्ट मुद्राओं के लिए मध्यप्रदेश स्थिति बाघ गुफा में वियोग वाले चित्र में नारी की संवेदनाओं को चित्रित किया है। वही मंडलाकार रूप में नृत्य गायन में रत स्त्रियोचित सौंदर्य को दिखाया गया है। इसी प्रकार कर्नाटक (दक्षिण भारत) में स्थित बादामी की गुफा में सिंहासनारूढ़ राजा–रानी को संगीत का आनंद लेते व अन्य स्थान पर विरहणी रमणी का चित्र अपने सौंदर्य को प्रतिबिंबित करती है। तमिलनाडु में स्थित सित्तन्नवासल की गुफाओं में नृत्यरत अप्सराओं की मुद्राओं में गति, अंगों की थिरकन और भुजाओं, कानों आदि में रत्नजड़ित सुंदर आभूषणों से युक्त दिखाया गया है।(10)(चित्र सं-5)
चित्र सं.5 नृत्यरत स्त्रियाँ, बाघ गुफा |
भारतीय नारी सौन्दर्य न केवल चित्रों में अपितु स्तूप और मूर्तिकला में भी अपना अस्तित्व प्रदर्शित करती है। इसी सन्दर्भ में सिंधु घाटी सभ्यता से प्राप्त 'मातृ देवी' की अनेक मृण-मूर्तियाँ मिली हैं, जिसमें मातृदेवी की मूर्तियाँ उत्कृष्ट सौन्दर्य को प्रदर्शित करती है। इन मूर्तियों के गले में हार, माथे पर टिका, हाथ में चूड़ियाँ, आदि आभूषणों से अलंकृत दिखाया गया है। इसी प्रकार सिंधु घाटी में मोहनजोदड़ो से प्राप्त कॉस्य की 'नृतकी' प्राप्त हुई है, इस प्रतिमा के बायीं भुजा में कोहनी तक के मोटे कड़े पहने व दाहिना हाथ कमर पर टिका है। बायाँ पैर ताल देने की मुद्रा में मुड़ा हुआ है। मूर्ति में लय और गति का अद्भुत सौन्दर्य है।(11)(चित्र सं-6,7)
चित्र सं.7 काँस्य नृतकी, सिंधुघाटी |
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चित्र सं.6 मातृ देवी, सिंधुघाटी |
दीदारगंज (पटना) से प्राप्त यक्षी (चामर ग्राहिणी) मौर्यकालीन नारी सौन्दर्य की अनुपम कृति है। यह शिल्प अपने आदमकद, प्रतिमारूप तथा अद्भूत गठनशीलता के कारण विशेष महत्व रखती है। इसकी बायीं भूजा खण्डित है, किन्तु दाहिने हाथ में चामर उठाये हुए है। इस पर मौजूद चमकदार ओप मौर्यकाल के सुन्दरत्तम उदाहरण हैं। अत्यन्त कोमल व तरल प्रवाह युक्त, मोहक व कमनीय यक्षिणी रूप लिए यह मूर्ति भारतीय शिल्पकला की विशिष्ट नारी मूर्ति है। मूर्ति का गोल मुख मण्डल तथा शरीर गठिला है। पेट की सलवटों का उभार स्वभाविक है। मूर्ति के दाहिने हाथ में चवर है, केश राशि गुन्थि हुई है, हाथ की कलाई में कंगन पहने है। गले में एकावली पड़ी है तथा दो लड़ियों से युक्त लम्बा मुक्ताहार पुष्ट गोल स्तनों के मध्य झूल रहा है। कमर में करधनी पहने है जिसमें पांच लड़िया गुंथी है। पैरो में मोटा कड़ा (आभूषण) है। अधोभाग के वस्त्र सलवटों को दिखाने के लिए लहरदार गहरी रेखाएँ बना दी गई है। शरीर के उपरी भाग को ढकता हुआ एक पारदर्शक वस्त्र बाऐं कन्धे के उपर से दाहिनी भूजा के नीचे पैर तक फैला हुआ है। दीदारगंज की इस मूर्ति में भारतीय नारी सौन्दर्य को पूर्णत: मूर्तरूप देने में शिल्पकार सफल रहा है।(12) (चित्र सं-8)
चित्र सं.8 चामरग्राहिणी, मौर्यकाल |
साँची और भरहुत के स्तूप शुंगकालीन मूर्तिकला का विश्वकोश है। स्तूप रचना में भी शिल्पियों ने नारी स्वरुप को प्रमुखता से उकेरा है। मध्यप्रदेश में स्थित साँची के स्तूप में बडेरियों के अतिरिक्त बोझ को झेलने के लिए यक्षिनियों को सुन्दरता से बनाया गया है। इनमें शारीरिक सौन्दर्य के साथ-साथ कमनीय नारी रूप को स्थापित किया है। इस तरह भरहुत के स्तूप में कमल पर बैठी देवी पर हाथियों द्वारा पानी डालते गजलक्ष्मी रूप में निरुपित किया गया है। भरहुत में स्त्रियों अथवा यक्षिणी मूर्तियों में मुद्राओं को लयात्मक बनाने के प्रयोजन से पैरों को मोड़ कर अथवा हाथ को कमर पर रखे या झूलते हुऐ बनाया गया है।(13) गांधार शिल्प रचना में कुबेर और हारिति की युगल मूर्ति प्राप्त हुई है जो वर्तमान में लाहौर संग्रहालय में संग्रहित है। काले स्लेटी पत्थर से निर्मित इस शिल्प में हारिति को ममत्व भाव के साथ वस्त्राभूषण युक्त सौन्दर्य स्वरुप में दिखाया गया है।(14) (चित्र सं-9,10)
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चित्र सं.9 नारी सौन्दर्य, साँची |
चित्र सं.10 कुबेर और हारिति, गांधार |
नारी सौंदर्य का दिग्दर्शन मध्यकालीन भारतीय मूर्तिकला में भी होता हैं। पूर्व मध्यकालीन मूर्ति कला एवं स्थापत्य के प्रमुख केंद्र एलोरा का महत्व सर्वोपरि है। एलोरा में राष्ट्रकूट राजा कृष्णा राय प्रथम द्वारा निर्मित गुफा संख्या 16 कैलाश मंदिर जिसे रंग महल भी कहते हैं। यहाँ रावण द्वारा कैलाशोत्तोलन मूर्ति शिल्प में शिव संग पार्वती का निरूपण किया गया है। यहां भय के कारण पार्वती का भाव-सौंदर्य अद्भूत है। वही एलिफेंटा में शिव-विवाह के दृश्य में पार्वती व अर्धनारीश्वर में प्रकृति–पुरुष के संपूर्ण विस्तार के मनोवैज्ञानिक एवं सौंदर्यात्मक पक्ष की सत्यम-शिवम-सुंदरम की अवधारणा को पुष्ट करता है। गुप्तकालीन देवगढ़ के दशावतार मंदिर में अनन्तशायी विष्णु के शिल्प में विष्णु के पैर दबाते लक्ष्मी की आकृति को कुंडल, मुकुट, वनमाला हार आदि से सुसज्जित दिखाया गया है। दक्षिण भारत में महाबलिपुरम में गंगावतरण नामक शिल्प में कई स्त्री आकृतियों का सुंदर निरूपण है, तो सप्त रथ में द्रौपती रथ द्वारा शिल्पकार ने नारी स्वरूप की विधिवत व्याख्या की है। बात कोणार्क के सूर्य मंदिर की हो तो यहां नारी को दर्पण लिए, मजीरे बजाते, अंगड़ाई लेते, सौंदर्य प्रसाधन करते आदि स्वरूप में दिखाया गया है। बात स्थापत्य और मूर्ति शिल्प की हो तो मध्य प्रदेश में स्थित खजुराहो के मंदिर यहाँ की मिथुन आकृतियाँ स्त्री-पुरुष साहचर्य की व्याख्या है। चोल कालीन उमा (पार्वती) के शिल्प को त्रिभंगी मुद्रा में सर पर मुकुट, गले में हार, हाथों में कंगन, कमर में करधनी, तीखे नाक-नक्श युक्त नारी सौंदर्य प्रदर्शित कर रही है।(15) (चित्र सं-11,12,13)
चित्र सं.12 विष्णु-लक्ष्मी, देवगढ़ |
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चित्र सं.11 नारी सौन्दर्य, खजुराहों |
नारी सौंदर्य के चित्रण में भारतीय लघुचित्र शैलियों का भी अपना एक विस्तृत परीकर है, जहां चित्रकारों ने इन्हीं काव्यमयी चित्रात्मक अनुभूतियों से ही प्रागैतिहासिक गुफाओं, बौद्ध कला, राजस्थानी, मुगल और पहाड़ी चित्रकला को शिखर की अन्तिम परिणति तक पहुँचाया है। चित्र फलक पर ढालकर साकार रूप दिया है। भारतीय लघुचित्रण की काव्य आधारित शैली को सामान्य स्तर पर देखने से लगता है कि इस युग की चित्रकला ने काव्य का "इलस्ट्रेशन" किया है जबकि ऐसा नही है। परिस्थितियों के कारण कवि और चितेरों की मनोदशा एक ही रही होगी। विशेष परिस्थितियों में अपने प्राचीन कला वैभव का स्मरण करके, अपने स्वाभिमान की रक्षा एंव सनातन मूल्यों की स्थापना हेतु कवि और चितेरों ने मिलकर एक साथ संघर्ष किया होगा। ऐसा कदापि नहीं कि चितेरों ने मात्र काव्य बिम्बों को ही साकार किया हो इन्होंने आदिकाल से चली आ रही धार्मिक आस्थाओं को भी अपने ढंग से सोचा, समझा और अनुभव किया तथा गहन रसानुभूतियों को रंग-रेखाओं से व्यक्त किया। चूंकि काव्य उनका आदर्श था, अतः काव्य चित्रण के लिए शास्त्रीय शैली का विकास किया गया।(16)
चित्र सं.13 पार्वती, चोल काल |
लघुचित्रण परम्परा में नारी सौन्दर्य की चर्चा हो और काँगड़ा शैली की बात न हो यह सम्भव नहीं। पहाड़ी राज्यों में काँगड़ा शैली महाराजा संसार चन्द के समय अपने स्वर्ण काल में थी। 1820 ई. में प्रसिद्ध अंग्रेज यात्री मूरक्राफ्ट ने राजा संसार चंद से मिलने के बाद राजा संसार चन्द की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए कहा कि "राजा संसारचंद को चित्रकारी का शौक था। इनके दरबार में इस समय अनेक चित्रकार काम कर ये थे। इनके पास चित्रों का बड़ा संग्रह था"। वही कला मर्मज्ञ और कला पारखी 'डॉ. आनन्द कुमारस्वामी' ने कांगड़ा चित्रों के विषय में लिखा है कि "कांगड़ा की नारी आकृतियाँ अधिक सजीव हैं, रेखाओं में ओज और प्रवाह है। नारी आकृतियों में शारीरिक सौन्दर्य कोमल व छरहरे बदन का अद्भुत संयोग है।" कांगड़ा शैली दृश्यप्रधान तथा रोमांटिक है। कांगड़ा शैली में रागमाला, बारहमासा, नायक-नायिकाओं में नारी के अनेक नयनाभिराम चित्र हैं। यहाँ के चित्रकारों ने हमीरहठ, नलदमयन्ती, बिहारीसतसई, जयदेव (गीत-गोविन्द) तथा केशवदास (कविप्रिया, रसिकप्रिया) की रचनाओं को भी चित्रबद्ध किया गया है। नायिका-भेद के चित्रों में जिस प्रकार नारी श्रृंगार की सूक्ष्म से सूक्ष्म प्रवृत्ति का विवेचन किया गया है उसी प्रकार कांगड़ा शैली के चित्रकारों ने श्रृंगार की मनोरंजक और भावपूर्ण दशा की सजीव चित्रमय झांकियाँ प्रस्तुत की हैं। कांगड़ा शैली के चित्रकारों ने सौन्दर्य के आधार पर नायिकाओं की आठ अवस्थाएँ (अष्ठ नायिकाएँ) मानी हैं इनमें - स्वाधीनपतिका, उत्का या उत्कंठिता, वासकास्या या वासक सज्जा, अभिसन्धिता (कलहान्तरिता), खण्डिता, प्रेसितापत्तिका या प्रेयसी, विप्र-लब्धा, अभिसारिका आदि प्रमुख है। काँगड़ा के चित्रकारों ने नारीचित्रण और उसके अन्दर निहित सौन्दर्य को दिखाने में अपना सर्वस्व उड़ेल दिया।(17) (चित्र सं-14)
चित्र सं.14 राधा-कृष्ण, काँगड़ा शैली |
भारतीय नारी सौन्दर्य की पर्याय किशनगढ़ शैली किसी परिचय की मोहताज नहीं है। स्त्री सौन्दर्य और सुन्दर निरूपण में किशनगढ़ शैली सम्पूर्ण विश्व का प्रतिनिधित्व करती है। पहाड़ी कला में कांगड़ा शैली का जो स्थान है वही राजस्थानी कला में किशनगढ़ शैली का है। कांगड़ा के चितेरों ने जिस प्रकार नारी छवि का मनोरम अंकन कर अपनी कला को निखारा ठीक वैसा ही नारी का अनुपम सौन्दर्य किशनगढ़ शैली की महत्ता नारी चित्रण में निहित माधुर्य एवं भाव वैशिष्ट्य की दृष्टि से है। कला और काव्य की मनोरम झाँकियां प्रस्तुत करने में यहाँ के कलाकारों ने कमाल किया है। स्वर्ग को भी विमुग्ध कर देने वाली कल्पना की ऐसी दृष्टि किशनगढ़ शैली की मौलिक देन है जहाँ राधा के रूप में मनमोहिनी नारी आकृति 'बणी-ठणी' के नाम से विश्व प्रसिद्ध है जो राजस्थानी शैली में नारी आकृति के काव्यपूर्ण भाव सौन्दर्य का सर्वोत्तम उदाहरण है।(18)
पद्मश्री रामगोपाल विजयवर्गीय का कथन है कि " सौन्दर्य शास्त्रीय गुणों के सम्पन्न किशनगढ़ शैली को समझने के लिये भावनात्मक प्रबोध और संवेगात्मक आवेग की आवश्यकता है, न कि मात्र बौद्धिक चेतना की। वस्तुतः 'कला' और काव्य का आध्यात्मिक 'प्रेम' ही है, जिसने किशनगढ़ शैली की चित्रकला को जीवनदान दिया।"
कला मनीषी पद्मश्री कृपालसिंह शेखावत का मानना है कि "आकर्षक विशाल नेत्र, आगे निकली हुई इकहरी चिबुक वाली किशनगढ़ शैली की 'बनी-ठनी', 'लियोनार्डों दी विन्सी' कृत 'मोनालिसा' के समकक्ष है, जिसे विश्व का सर्वोत्कृष्ट चित्र माना गया है।" इस प्रकार 18वीं शताब्दी की राजस्थानी चित्रकला 'निहालचन्द' और उनके संरक्षक 'सावंतसिंह' की सदा ऋणी रहेगी। युवराज कवि की कल्पना और चित्रकार रचित कृष्ण-लीला की ऐसी चित्रपरक सौन्दर्य प्रस्तुति इसके पूर्व चित्रकला में अनजानी थी।(19)
वल्लभ सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र रहे किशनगढ़ की स्थापना राजा किशनसिंह ने 1609 ई. में की। किशनगढ़ के सभी शासक वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी थे। किशनगढ़ चित्रकला का विकास महाराजा राजसिंह के समय मुग़ल दरबार से आए चित्रकार भवानीदास से माना जाता है किन्तु किशनगढ़ शैली को विशिष्टता प्रदान करने तथा इसकी मौलिकता को रेखांकित करते हुए इसे स्वतंत्र शैली के रूप में ख्याति दिलाने का श्रेय यहाँ के शासक, सहज-सरल, कवि हृद्य, महाराजा सावंत सिंह को है। अपनी मौलिकता एवं निजी विशेषताओं के कारण यह शैली राजस्थानी शैलियों में सर्वोपरि स्थान रखती है। महाराजा सावन्त सिंह ने एक तरफ कृष्ण भक्ति और दूसरी तरफ उनकी प्रेयसी 'बणी-ठणी'
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चित्र सं.15 बणी-ठणी,किशनगढ़ शैली |
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चित्र सं.16 बणी-ठणी,किशनगढ़ शैली |
- शर्मा एंड अग्रवाल,रुपप्रद कला के मूल आधार,लायल बुक डिपो मेरठ,1992 पृ.1
- डॉ. मदनसिंह राठौड़, भारतीय कला-II,राज.राज्य पाठ्यपुस्तक मण्डल जयपुर,2020 पृ.1
- पृथ्वी परिहार,राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत, नई दिल्ली, मई-जून 2020
- डॉ. मदनसिंह राठौड़, भारतीय कला-I,राज.राज्य पाठ्यपुस्तक मण्डल जयपुर,2016 पृ.11
- भारतीय कला-II
- डॉ. मदनसिंह राठौड़, भारतीय कला-I,राज.राज्य पाठ्यपुस्तक मण्डल जयपुर,2016 पृ.66
- डॉ. रीता प्रताप, भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी,जयपुर,2016, पृ.82
- डॉ. अविनाश बहादुर वर्मा, भारतीय चित्रकला का इतिहास, प्रकाश बुक डिपों, बरेली,2000 पृ.80-86
- आर. एस. गुप्ता और बी. डी. महाजन, अजन्ता, एलोरा और औरंगाबाद केव्ज, एस चन्द एंड कम्पनी लिमिटेड, नई दिल्ली, 1990 पृ. 44-45
- डॉ. अविनाश बहादुर वर्मा, भारतीय चित्रकला का इतिहास, प्रकाश बुक डिपों, बरेली,2000 पृ.69-76
- डॉ. रीता प्रताप, भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी,जयपुर,2016, पृ.444
- भगवत शरण उपाध्याय, भारतीय कला का इतिहास, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस (प्रा.) लिमिटेड नईदिल्ली 1981 पृ. 35-36
- डॉ. रीता प्रताप, भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी,जयपुर,2016, पृ.459-471
- मदनसिंह राठौड़, भारतीय कला-I,राजस्थान राज्य पाठ्यपुस्तक मण्डल जयपुर,2018 पृ.113
- डॉ. मोती चन्द्र, आकृति (जुलाई), राजस्थान ललित कला अकादमी, जयपुर पृ.17-19
- डॉ. रामावतार मीना, राजस्थानी शैली के प्रमुख काव्य ग्रन्थ चित्रों का कलात्मक अध्ययन, राज पब्लिकेशन हाउस, जयपुर, 2022
- डॉ. अविनाश बहादुर वर्मा, भारतीय चित्रकला का इतिहास, प्रकाश बुक डिपों, बरेली,2000 पृ.230-240
- डॉ. अविनाश बहादुर वर्मा, भारतीय चित्रकला का इतिहास, प्रकाश बुक डिपों, बरेली,2000 पृ.192-200
- डॉ. रीता प्रताप, भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी,जयपुर,2016, पृ.206
- डॉ. अविनाश पारीक, किशनगढ़ का इतिहास, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी,जयपुर,201, पृ.459-471
महेश कुमार कुमावत
सहायक आचार्य (चित्रकला) , राजकीय महाविद्यालय, पिण्डवाडा (सिरोही)
kudal289@gmail.com, 9001898909
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