शोध सार : भारतीय कला और संस्कृति में सदैव ही प्रेम भावनाओं की अभिव्यक्ति का अद्वितीय स्थान है, जहाँ संयोग रस का विशिष्ट महत्व है। संयोग और वियोग प्रेम की दो विपरीत अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। संयोग, प्रेम की कोमलता, आकर्षण, और आनंद को दर्शाता है, जो प्रेम के मिलन और सौंदर्य के क्षणों को उजागर करता है। दूसरी ओर, वियोग प्रेम के विछोह, पीड़ा, और अकेलेपन को दर्शाने वाला भाव है, जिसमें प्रेमी-प्रेमिका के बिछड़ने की व्यथा और उनकी आंतरक वेदना को उजागर किया जाता है। हिंदी साहित्य में इन दोनों भावों की गहरी पैठ रही है और इनका प्रयोग प्रेम के विभिन्न पहलुओं को चित्रित करने के लिए किया गया है।
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इस शोध-पत्र का प्रमुख उद्देश्य रसिकप्रिया में चित्रित संयोग और वियोग के प्रतीकात्मक भावों का तुलनात्मक विश्लेषण करना है। उपयुक्त विषय के शोध से यह ज्ञात हुआ की कैसे इन दोनों भावों के माध्यम से प्रेम के विभिन्न पक्षों को प्रतीकों के रूप में प्रस्तुत किया गया है और ये प्रतीक किस प्रकार भावनाओं की गहनता को प्रकट करते हैं। साथ ही प्रतीकात्मक भावों का समकालीन साहित्य और समाज पर क्या प्रभाव पड़ा और इनकी प्रासंगिकता आज के साहित्यिक परिदृश्य में किस रूप में बनी हुई है।
बीज शब्द : संयोग, वियोग, प्रतीकात्मक, अभाव, मिलन, बिछोह, पीड़ा, रीतिकाल।
मूल आलेख- भारतीय चित्रण परम्परा अपने यथार्थ अंकन के लिए जितनी अधिक प्रसिद्ध है, उतनी ही लघु चित्रण शैली अपने आदर्श अंकन, प्रतीकात्मक चित्रण एवं भाव निरूपण के योगदान शृंगार पक्ष को प्रस्तुत करने में समर्थ है| राजस्थानी लघु चित्रकारों ने राधा कृष्ण को आधार मान कर शृंगार भाव और प्रेम उन्माद, नायक-नायिका भेद इत्यादि को रीतिकालीन काव्य प्रसंगों पर चित्रण किया है| राधा- कृष्ण को सम्पूर्ण विषय का मूल केन्द्र मानकर उनकी विभिन्न लीलाओं संयोग- वियोग, विरह-मिलन, प्रेम-घृणा को अंगणित अंकन से संस्कारित निरूपण किया है1| संयोग और वियोग भारतीय कला, साहित्य और संस्कृति के महत्वपूर्ण भाव हैं, जो विशेष रूप से प्रेम और सौंदर्य से जुड़े होते हैं। शृंगार शब्द का प्रयोग सहस्राब्दियों से चार अलग-अलग अर्थों में किया जाता रहा है। इसका मूल अर्थ सजावट या अलंकरण से है, जैसे कोई स्त्री अपने प्रिय से मिलने के लिए स्वयं को सजा संवार रही हो। इस संदर्भ में संयोग किसी स्थिति को आकर्षक और सुंदर बनाता है। भक्ति काव्य में यह शब्द आध्यात्मिक प्रेम की भावना को प्रकट करता है, जबकि रीतिकालीन साहित्य में यह काम भावना या प्रेम की अन्य विभिन्न अवस्थाओं को दर्शाता है।
साहित्यिक परंपरा में शृंगार रस को रसों का राजा कहा जाता है, जो सौंदर्यपूर्ण आनंद और पुनः सर्जित जीवन अनुभव का प्रतीक है। भारतीय कवि, लेखक, और आलोचक शृंगार रस का उपयोग करते समय इसके विभिन्न अर्थों और स्तरों को सूक्ष्मता से प्रस्तुत करते आये है। अनेक साहित्यकारों शृंगार रस को प्रधान रस की संज्ञा दी है, जैसे राजा भोज का शृंगार प्रकाश, रुद्रभट्ट का शृंगार तिलक, भानुदत्त की रस मंजरी, और शृंगभूपाल का रसवर्ण सुधाकर। रीतिकालीन कवियों की महत्वपूर्ण विशेषता थी,श्रृंगारिकता का आग्रह करना, रीतिबद्ध कवियों ने शृंगार के अंतर्गत नायक को धुस्ट, अधंड, मधुकर वृति का तथा रसिक रूप में दर्शाया है |
वियोग प्रेम की जागृत अवस्था है, जबकि मिलन सुषुप्ति के समान है। वियोग का अर्थ है प्रियतम से बिछड़ना। केशवदास ने अपने ग्रंथ रसिकप्रिया में राधा और कृष्ण के प्रेम में वियोग वेदना का अद्वितीय चित्रण किया है, जिसमें उनका प्रेम आध्यात्मिक रूप से प्राणवान प्रतीत होता है। कवि घनानंद ने विरहिणी स्त्री के आँसुओं की तुलना सावन की बारिश से की है, जो वियोग की तीव्रता को दर्शाता है।
शृंगार शब्द 'श्रृंग' और 'आर' से निर्मित है, जिसमें 'श्रृंग' का अर्थ है काम की वृद्धि और 'आर' का अर्थ है प्रगति। संयोग से हास्य रस की उत्पत्ति होती है| संयोग रस का वर्ण श्याम तथा इसके देवता विष्णु माने गए हैं| संयोग का मूल भाव ही सौन्दर्य होता है जो प्रेम भाव उत्पन्न करता है, प्रेम से ही सौन्दर्यात्मक हृदय से भावनाओं का जन्म होता है यदि मनुष्य में प्रेम का भाव न हो तो सौन्दर्य के आभास की कल्पना भी नहीं की जा सकती है| इस प्रकार शृंगार का तात्पर्य काम-वृद्धि की प्राप्ति से होता है। रति नामक स्थायी भाव से व्यक्त रस को शृंगार रस कहा गया है। संयोग की व्यंजना आलंबन और उद्दीपन विभावों से होती है, जिसमें नायक-नायिका आलंबन विभाव होते हैं, और ऋतु, माल्य, और अलंकार उद्दीपन विभाव के रूप में प्रकट होते हैं।
भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में नायक-नायिका के संबंधों के आधार पर शृंगार को संयोग और विप्रलंभ (वियोग) नामक दो भागों में विभाजित किया है।
संयोग शृंगार - में ऋतु, माल्य, अनुलेपन, अलंकार, इष्टजनानुरंजन, उपभोग, वनगमन, विहार, श्रवण-दर्शन, क्रीड़ा-लीला आदि अनुभाव शामिल होते हैं। नायक-नायिका के परस्पर दर्शन, स्पर्श, आलिंगन आदि व्यवहार संयोग शृंगार कहलाते हैं।
विप्रलंभ शृंगार - केशव ने रसिकप्रिया के आठवें प्रकाश में विप्रलंभ शृंगार के प्रथम भेद पूर्वानुराग और प्रिय के मिलन न होने के कारण उत्पन्न दशाओं का वर्णन किया है तथा ग्यारहवें प्रकाश में वियोग शृंगार के भेदों का वर्णन किया है | विप्रलंभ शृंगार को केशवदास ने चार प्रकारों में विभाजित किया है: मान, पूर्वानुराग, करुणा, और प्रवास।
केशवदास ने अपने ग्रन्थ रसिकप्रिया में प्रेमियों के मन की दस अवस्थाओं का वर्णन किया है जिनमें वियोग भी महत्वपूर्ण भाव है| जब नयनों ,वाणी और आत्मा के मिलन से प्रेम की इन्च्छा प्रकट होती है, तब उसे वियोग की अवस्था कहा गया है, वियोग के प्रसंग में केशवदास ने चिंता, अभिलाषा, गुणकथन, स्मृति, उद्देग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता, और मरण जैसी वियोग दशाओं का उल्लेख किया है। रसिकप्रिया में राधा-कृष्ण की वियोग वेदना के चित्रों में राधा कृष्ण का प्रेम आध्यात्मिकता से प्राणान्वित हुआ है| कलाकारों ने राधा के अमृतोपम मुख की सुकुमारता का संकेत कमल से दिया है जिससे सुकुमारता की व्यंजना के अतिरिक्त उस सुकुमार की पवित्रता से प्राप्त आनन्द का भी बोध होने लगता है |
शृंगार रस की जानकारी प्राप्त करने के लिए रसिकप्रिया महत्वपूर्ण ग्रन्थ है , कवि केशवदास द्वारा लिखित इस ग्रन्थ को इसके मूल बृज में, पारखियों और रसिकों की संगति में तथा सांस्कृतिक रूप से समृद्ध वातावरण में सुनना और आनंदित किया जाना चाहिए तभी कवि के सुगठित और सारगर्भित शब्द जिवंत हो उठेंगे और तभी हम प्रेम के मण्डप में नायक-नायिकायोँ के मध्य प्रेम के शांत क्षणों को अनुभव कर पायेंगे |केशव के काव्य में नारी सौंदर्य, प्रेम और मनोभावों का अत्यंत सूक्ष्म और सजीव चित्रण मिलता है। वे श्रीकृष्ण और राधा के प्रेम के अद्वितीय पक्षों को बहुत कुशलता से व्यक्त करते हैं। उनका काव्य प्राकृतिक सौंदर्य, स्त्री के आकर्षण, और प्रेम की गहन भावनाओं से सुशोभित है।(1)
केशव ने अपने काव्य में राधा-कृष्ण के सूक्ष्म मनोभावों का इतना सुंदर वर्णन किया है कि पाठक के मन में एक परलौकिक अनुभव उत्पन्न होता है। उनके द्वारा किया गया स्त्री सौंदर्य का वर्णन उसे केवल शारीरिक रूप से ही नहीं बल्कि आंतरिक सुंदरता और भावनात्मक गहराई को भी अभिव्यक्त करता है। उनकी शैली में शृंगार रस और प्रेम की भावुकता का प्रमुख स्थान है, लेकिन यह प्रेम भौतिक नहीं बल्कि एक आध्यात्मिक और आदर्श प्रेम के रूप में उभरता है। केशव का काव्य इस दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है कि उन्होंने हिन्दी साहित्य और भारतीय चित्रकला को प्रेम और सौंदर्य का एक अनूठा उपहार दिया है।(2)
केशवदास एक ऐसे बहुआयामी व्यक्ति थे जो न केवल एक निपुण कवि थे बल्कि खगोल विज्ञानं,भूगोल, इतिहास, दर्शन, राजनीति,संगीत और नृत्य जैसी कलाओं में भी पारंगत थे| रसिकप्रिया में यह सब दिखाई नही पड़ता है, लेकिन केशव के अन्य ग्रंथों में, विज्ञानगीता,रामचंद्रिका, और वीर सिंह देव चरित में यह सब दिखता है| केशव के उपरान्त के ग्रंथों से यह स्पष्ट होता है की इस समय बुंदेलखंड में राजनीतिक उथल-पुथल का समय था|, इस समय मुगलों के साथ अधिकतर मुठभेड़ तथा सरदारों के बिच आपसी युद्ध भी होते रहते थे|(3) यह सब देखते हुए यह सब आश्चर्य की बात है कि केशव ने रसिकप्रिया जैसे ग्रन्थ का लेखन प्रारम्भ किया, क्योंकि रूमानी आनन्द और कामुक साहित्य के लिए न केवल अवकाश की आवश्यकता होती है बल्कि कलायों को समझने और उनका आनन्द लेने की क्षमता भी होनी चाहिए| कहा जाता है कि जब भी कोई राजपूत युद्ध में रत नहीं होता है तो वह धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से नहीं बल्कि शृंगार रस के सौन्दर्यात्मक प्रेम सुखों के माध्यम से अपनी वैष्णव पहचान को स्थापित करना चाहता है, जैसा की रसिकप्रिया में प्रस्तुत है|(4) रसिकप्रिया को दो स्तरों में समझा जा सकता है – पहला स्तर कामुक और दूसरा आध्यात्मिक स्तर क्योंकि कृष्ण एक ही समय में भगवान और मानव दोनों हैं जो निम्बार्क के द्वेत-अद्वेत सिद्दांत से मिलता है जिसके बारे में केशव को जानकारी थी| इस तरह रसिकप्रिया की रचना बुंदेलखंड में सोलहवी और सत्रहवीं शताब्दी की राजनीतिक परिस्थितियों का स्वाभाविक परिणाम थी| इस तरह कुलीन वर्ग व राजघरानों को न केवल वैष्णव धर्म का पवित्र स्पर्श दिया, बल्कि रसिकप्रिया के कुछ सारगर्भित शब्दों की संक्षिप्तता में प्रेम की कामुक उत्तेजना भी दी|(5)
केशव ने अपने काव्य-सिद्धांत में शृंगार रस के विभिन्न भावों को दर्शाने के लिए प्रकृति को विशेष महत्व दिया है साथ ही रंगों के माध्यम से भी रस को उसके विशिष्ट रंग में व्यक्त किया है उदाहारण स्वरूप श्याम रंग का प्रयोग बहुतायत से किया है, क्योंकि यह कृष्ण का रंग है जो वास्तव में प्रेम के आदर्श रूप माने जाते है| संयोग शृंगार को दर्शाने के लिए खिले हुए फूल व लाल और पीले रंग का प्रयोग बहुलता से किया गया है जिससे वातावरण को आनंदित दर्शाया गया है| वहिं दूसरी और विप्रलम्भ शृंगार को चित्रित करने वाले चित्रों में फूल मुरझाये हुए, पेड़ उदास, दुसरे शब्दों में उजाड़ सा माहोल गहनता से विश्लेषित करने का प्रयास किया है। केशव ने इन दोनों प्रकारों को और अधिक विभाजित किया है, जिससे उनकी मौलिकता स्पष्ट होती है।(6)
1. संयोग शृंगार : इसमें नायक-नायिका के रति भावों का वर्णन होता है अर्थात नायक- नायिका के मध्य प्रेम और आकर्षण की स्थिति दर्शाया जाती है है।
2. वियोग शृंगार के अंतर्गत नायक-नायिका के अलग होने की स्थिति अर्थात वियोग का चित्रण होता है। इसमें प्रेम की पीड़ा और वियोग को दिखाया जाता है। संयोग और वियोग को केशव ने आगे दो श्रेणियों में विभाजित किया है—प्रकाश और प्रच्छन्न।(7)
प्रकाश: इसमें प्रेम या वियोग की भावनाएँ स्पष्ट रूप से प्रकट की जाती हैं।
प्रच्छन्न: इसमें प्रेम या वियोग की भावनाएँ छिपी होती हैं, जो सीधे नहीं दिखाई देतीं, बल्कि संकेतों या व्यंजना के माध्यम से प्रकट होती हैं।
नायक-नायिका को शृंगार रस का आलंबन मानते हुए केशव ने पारंपरिक विभाजनों को भी अपनाया है, जैसे अनुकूल, दक्षिण, शठ, और धृष्ट नायक। लेकिन, उन्होंने अपनी मौलिकता दिखाने के लिए इन विभाजनों को प्रकाश और प्रच्छन्न में बाँट दिया है, जिससे प्रत्येक श्रेणी के अंदर भी दो भेद हो जाते हैं।
इस प्रकार, केशव ने संयोग रस की परंपरागत व्याख्याओं में नई दृष्टि और गहराई जोड़ने का प्रयास किया है।(8)
संयोग तथा वियोग के प्रतीकात्मक भाव -
केशवदास की रसिकप्रिया में शृंगार रस के प्रतीकात्मक भाव को समझने के लिए हमें उनके दृष्टिकोण पर ध्यान देना होगा। केशवदास ने शृंगार को संयोग और वियोग के भावों के माध्यम से व्यक्त किया है, लेकिन उनके दृष्टिकोण में विशिष्टता है|(9)
केशवदास के अनुसार शृंगार के प्रमुख प्रतीकात्मक भाव निम्न प्रकार से है, जो शृंगार भाव को दर्शाते हैं:
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1. केशवदास ने संयोग भाव की स्थिति को दर्शाने के लिए विभिन्न आभूषणों और सजावट का उपयोग किया हैं, साथ ही कवि इन आभूषणों के हटाए जाने को भी महत्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि यह संकेत करता है कि प्रेम की वियोग के दौरान प्रेमिका ने अपने आभूषण उतार दिए हैं, जो उसकी पीड़ा को व्यक्त करते है।
2. केशव ने प्राकृतिक तत्वों के माध्यम से प्रतीकात्मक उपयोग किये हैं, जैसे कि सूखा पेड़ या मुरझाया फूल, जो प्रेम के वियोग की स्थिति को दर्शाते हैं। इन तत्वों के माध्यम से, वह प्रेम के परिवर्तित और दु:खद मनोदशा को अभिव्यक्त करते हैं।(10)
3. केशवदास वियोग को एक साहित्यिक अनिवार्यता मानते हैं और इसे साधारण भावनात्मक स्थिति के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनके अनुसार, वियोग को अत्यधिक भावनात्मक या गहन नहीं बनाया जाता; बल्कि इसे प्रेम की एक अनिवार्य स्थिति के रूप में दर्शाया जाता है, जिसे उन्हें नीति काव्य परंपरा के अनुसार प्रस्तुत करना पड़ता।(11)
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इन प्रतीकात्मक भावों के माध्यम से, केशवदास ने शृंगार रस को प्रस्तुत किया है, जो उनके समय के साहित्यिक परिप्रेक्ष्य और परंपराओं के अनुरूप है।
वियोग (वियोग) के प्रतीकात्मक भाव शृंगार रस में प्रेमियों के बिछड़ने और उनके पुनर्मिलन की प्रतीक्षा को दर्शाते हैं। केशवदास की रसिकप्रिया और अन्य काव्यकृतियों में वियोग के भाव प्रकट करने के लिए विभिन्न प्रतीकों का उपयोग किया गया है। यहाँ कुछ प्रमुख प्रतीकात्मक भाव दिए गए हैं:
1. सूखा पेड़ और मुरझाया फूल वियोग की स्थिति में प्रेमिका की पीड़ा और खालीपन को दर्शाते हैं। जब प्रेमी अनुपस्थित होता है, तो इन प्राकृतिक तत्वों के माध्यम से उसकी अनुपस्थिति की गहराई को व्यक्त किया जाता है।
2. प्रेमिका द्वारा आभूषणों और सजावट के हटाए जाने का प्रतीक यह दर्शाता है कि वियोग की स्थिति में प्रेमिका ने अपने आकर्षण और सौंदर्य को त्याग दिया है, जो उसकी पीड़ा और निराशा को दर्शाता है।(12)
3 रात का अंधेरा और बादल वियोग के भाव को दर्शाते हैं, क्योंकि यह प्रेम की अनुपस्थिति और दुख के समय को दर्शाते हैं। ये प्रतीक प्रेम की ऊँचाइयों के विपरीत, उसकी अनुपस्थिति और पीड़ा को उजागर करते हैं।(13)
4. एक सूखा बगीचा या खेत वियोग की स्थिति में प्रेम की कमी को दर्शाता है। जब प्रेमी अनुपस्थित होता है, तो यह प्रतीक प्रेमिका के जीवन की निष्पत्तिहीनता और बेरुखी को दर्शाता है।(14)
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5 जब प्रेमिका वियोग की स्थिति में होती है, तो फूलों का मुरझाना एक आम प्रतीक है जो उसके दुख और प्रेम की अनुपस्थिति को व्यक्त करता है।
ये प्रतीक साहित्यिक कृतियों में वियोग के भाव को गहराई से व्यक्त करने के लिए उपयोग किए जाते हैं, और प्रेम की अनुपस्थिति और उपस्थिति के बीच के भावनात्मक अंतर को व्यक्त करते है।(15)
निष्कर्ष : शृंगार रस की अवधारणा भारतीय कला सिद्धांत का अभिन्न अंग रही है संयोग और वियोग भारतीय काव्यशास्त्र के दो अत्यंत महत्वपूर्ण अंग हैं, जो प्रेम के विविध भावों को गहराई और भावनात्मक सजीवता के साथ प्रस्तुत करते हैं। किसी भी कलाकृति से रस का आनन्द लेने की प्रक्रिया व्यक्तिपरक तथा वस्तुनिष्ट दोनों होती है| कला का सार वस्तुनिष्ट होता है, परन्तु जैसे ही व्यक्ति किसी कलाकृति से रस का आस्वादन करता है तो व्यक्ति इससें जुड़ जाता है| रस का अनुभव पारलौकिक अर्थात साधारण अनुभव से प होता है| केशवदास की रसिकप्रिया में शृंगार रस का न केवल जीवंत चित्रण मिलता है, बल्कि इसके माध्यम से प्रेम की कोमलता और पीड़ा को प्रतीकात्मक रूप में अत्यंत सुंदरता से व्यक्त किया गया है। शृंगार रस में फूल, चाँद, और संगीत जैसे प्रतीक प्रेम की सुंदरता, आनंद, और मिलन की सुख को प्रकट करते हैं। इसके विपरीत, वियोग की दशा में सूना बगीचा, आँसू, और अंधकार जैसे प्रतीक प्रेम के अभाव, दुःख, और अकेलेपन को गहरे भाव से अभिव्यक्त करते हैं।
इन दोनों भावों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि प्रेम की विभिन्न अवस्थाओं में मानव भावनाएँ किस प्रकार बदलती हैं— सयोंग में प्रेम की पूर्णता और संतोष का भाव है, जबकि वियोग में प्रेम के अभाव से उत्पन्न दुःख और पीड़ा की अनुभूति होती है।
रसिकप्रिया में संयोग और वियोग का चित्रण केवल रीतिकालीन हिंदी साहित्य की उत्कृष्टता का प्रमाण नहीं है, बल्कि इसका प्रभाव आज भी समकालीन साहित्य और कला पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इन भावों ने हिंदी साहित्य को न केवल समृद्ध किया है, बल्कि भारतीय काव्यशास्त्र को भी एक गहरा आयाम दिया है। साहित्य और सिनेमा में आज भी संयोग और वियोग के प्रतीकात्मक भावों का प्रयोग प्रेम की गहरी संवेदनाओं को उजागर करने का प्रमुख साधन बना हुआ है।
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3. प्रसन्न-संयोग-संयोग (सवैया) मेवाड़
4 श्रीकृष्ण का प्रकाश-वियोग-संयोग (सवैया)मेवाड़ , कलाकार साहिब्दीन
शोधार्थी, चित्रकला विभाग, रा. वि.वि., जयपुर
प्रोफेसर, चित्रकला विभाग रा. वि.वि., जयपुर
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