उत्तर प्रदेश में समकालीन कला की प्रवृत्तियाँ और उनका वैश्विक प्रभाव
- जूही यादव एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्र सं-1 ‘लॉस कैप्रीकोस’ |
शोध सार : कला मानवीय भावों की अभिव्यक्ति है, जो आदिकाल से प्रारंभ होकर वर्तमान तक गतिशील है। प्राचीन काल से ही मनुष्य कला की निर्मिती करते आ रहे हैं, जो उस समय की समकालीनता को परिभाषित करती हैं। आधुनिक युग में जब कलाकारों ने पश्चिमी कला के अनुकरण से उभरकर, भारतीय कला परंपरा को विषय बनाकर चित्रण करना प्रारंभ किया, तो कला का पुनर्जागरण युग कहलाया। यह युग बंगाल से प्रारंभ होकर, धीरे-धीरे सारे देश में फैलकर राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित हुआ। यह दौर हमारे राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक उथल-पुथल का दौर था। उत्तर प्रदेश भी इन गतिविधियों से प्रभावित होता रहा और कला का विकास अन्य देशों के भाँति यहाँ भी होता रहा है। समकालीन के दौर में भी परंपरा और नवीन विचारों को आत्मसात करके कला के नए मार्ग खोजे और कला सृजन हुआ हैं। कला की शैलियों का प्रसार हुआ है। इस शोध में नवीन कला प्रवृत्तियों का अध्ययन करना है और उत्तर प्रदेश के कलाकार उन प्रवृत्तियों से प्रभावित होकर कैसे वैश्विक स्तर पर पहचान बना रहे हैं, इन तथ्यो पर विशेष अध्ययन कर प्रस्तुत किया है।
बीज शब्द : नवीनता, अनुकरण, समसामयिक, विविधता, आत्मसात, प्रतिबिंबित, सृजनशीलता, वैश्विक, उद्वेलित, दृष्टिगत, रहस्यमय, रचनात्मक।
मूल आलेख : “दि ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट ने माना कि वैश्वीकरण ने दुनिया भर के लोगों के लिए रचनात्मकता के सभी द्वार खोल दिए हैं। विचार और ज्ञान दूर-दूर तक पहुँच गए है।”(1) “गिडिन्स ने 2007 में भारत में लकड़ावाला मेमोरियल लेक्चर हॉल में अपने भाषण में आज की दुनिया को पहेली जैसी अजीबो-गरीब और सिकुड़ती हुई दुनिया कहा। इनका मानना है कि वैश्वीकरण का संबंध आधुनिकता के प्रसार से है। पूंजीवाद, औद्योगिकीकरण, आधुनिकीकरण के बढ़ते राष्ट्रों और राज्यों के परिप्रेक्ष्य में एक ऐसा नेटवर्क उभरा है जो आज वैश्वीकरण का प्रतीक है।”(2) आज की भारतीय कला में समकालीनता के नए अर्थ देखने को मिलते हैं, जो विविध माध्यमों में नवीन विषय वस्तु को लेकर कला का सृजन कर रहे हैं। यह विकास केवल कैनवास, कागज, पट आदि तक सीमित न होकर, बल्कि संस्थापन, डिजिटल, फोटोग्राफी जैसे नए-नए संयोजन का भी आविर्भाव हुआ, जिससे कला वैश्विक स्तर पर अपनी अलग पहचान बनाती है। नए कला आंदोलनों के प्रादुर्भाव में संस्थापन कला महत्त्वपूर्ण विधा हैं। जिसका प्रारम्भिक स्वरूप मार्शल डुचैम्प के बनाए “फव्वारा” (3) नामक रेडीमेड कला का श्रेष्ट उदाहरण हैं। कलाकारों ने ‘विचार’ या प्रत्यय को अपनी कला में मुख्य स्थान देकर, वस्तुओं को किसी भी स्थान पर अपने तरीके स्थापित करना आरंभ किया। भारत में इसके प्रमाण संस्थापन कलाकार सुबोध गुप्ता के कृतियों से माना जा सकता हैं जो विश्व भर में संस्थापन कला के लिए प्रसिद्ध हैं।
आधुनिक भारतीय चित्रकला में पश्चिमी शैली से प्रभावित होकर भारतीय विषयों को अंकित किया। जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमें ‘अमृता शेरगिल’(4) चित्रों में दिखाई पड़ता है। इनके चित्रों में भारतीय जनजीवन की गरीबी, असहायता, भोलापन, आदि रूप दिखाई देते हैं। यहीं से भारतीय कलाकारों को आधुनिकता समझ आने लगती है। अतः कलाकारों के सामने चुनौती थी, कि वे आधुनिकता को अपनाए या प्राचीन शैलियों का अनुकरण करें। समकालीन प्रवृत्तियों को भारतीय के कलाकारों ने नए-नए माध्यमों में प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया। जिसमें प्रमुख कलाकारों में रवीन्द्रनाथ टैगोर, अमृता शेरगिल, गगनेन्द्रनाथ टैगोर, जार्जे कीट, यामिनी राय, निकोलस रोरिक प्रमुख हैं।
उत्तर प्रदेश की समकालीन कला और उनकी प्रवृत्तियाँ : उत्तर प्रदेश की कला भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं। इस राज्य की कला विविध प्रागैतिहसिक शैल चित्र एवं कला परंपरा की थाती रही है। यह प्राचीन काल से ही अस्तित्व में रही हैं, यहाँ “मिर्जापुर, कौशाम्बी, लिखुनिया, बाँदा आदि राज्य की कला का प्रतिनिधित्व करती हैं।”(8) कालांतर में उत्तर प्रदेश की कला विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त होती रही हैं, जिनमें चित्रकला, शिल्प, संगीत, नृत्य और साहित्य क्षेत्र शामिल हैं। शिल्प कला में विशेष रूप से आगरा में संगमरमर की नक्काशी और बनारस में लकड़ी की कारीगरी भारतीय शिल्प की विशिष्टता को प्रदर्शित करती हैं। साहित्यिक दृष्टिकोण भी महत्त्वपूर्ण हैं, जिसमें तुलसीदास, कबीर और जायसी जैसे महान कवि और लेखक शामिल हैं। उत्तर प्रदेश में प्रयाग गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का पावन स्थल हैं, जहाँ कुम्भ एवं महाकुम्भ मेले लगते हैं। यह मेले भारत ही नहीं पूरे विश्व की जन-आस्था के केंद्र हैं। धार्मिक परंपरा और सांस्कृतिक महत्व की कला प्रदर्शनी, प्रतियोगिता व कलाओं से संबंधित गतिविधियां आए दिन होती हैं, जिसमें देश-विदेश के चित्रकार, छायाकार, मूर्तिकार, संस्थापन कलाकार भाग लेते हैं। एक ही क्षेत्र में विभिन्न कलाओं का आदान-प्रदान होता हैं, जिससे उत्तर प्रदेश की कला एवं संस्कृति का प्रदर्शन वैश्विक स्तर पर देखने को मिलता हैं।
श्री राम जन्म भूमि आयोद्धा, उत्तर प्रदेश की अपनी कला एवं सांस्कृतिक दृष्टि से हिन्दुओं के आस्था का प्रमुख केंद्र हैं। विश्व भर के धार्मिक पर्यटक राम मंदिर के दर्शनार्थ आते हैं। यह मंदिर भारतीय कला, वास्तुकला और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है, जो विश्व प्रसिद्ध है। इसका महत्व उसी प्रकार है जैसे मुस्लिम धर्म के लिए मक्का मदीना, ईसाई धर्म का येरुसेल्म, बौद्ध धर्म का लुम्बिनी, पर्सियन का बल्क शहर, सिक्खों का स्वर्ण मंदिर जैसे धार्मिक महत्व के तीर्थ स्थल हैं। इसलिए राम लला मंदिर की स्थापना से हिन्दू धार्मिक आस्था की दृष्टि से विश्व भर के सैकड़ों श्रद्धालुओं का आवागमन उत्तर प्रदेश में होता है। इससे कला एवं संस्कृति का आदान-प्रदान वैश्विक पटल पर देखने को मिलता है। इस विश्व प्रसिद्ध मंदिर में स्थापित रामलला की मूर्ति मैसूर के शिल्पी योगीराज ने बनाई हैं। इस मूर्ति के स्वरूप की कल्पना उत्तर प्रदेश के काशी विद्यापीठ ललित कला के अध्यक्ष डॉ. सुनील कुमार विश्वकर्मा ने की है। इसके लिए देशभर के 82 नामी चित्रकारों से पाँच वर्ष के रामलला का चित्र माँगा गया था, इनमें से तीन चित्रों का चुनाव किया गया। डॉ. विश्वकर्मा के बनाए स्केच के साथ महाराष्ट्र और पुणे के दो वरिष्ठ कलाकारों के स्केच शामिल थे, जिसमें डॉ. विश्वकर्मा के चित्र को चुना गया। इस चित्र के चित्रण में उन्होंने बताया कि इसके गहन मंथन और ग्रंथों का अध्ययन किया, जिससे यह चित्र की रचना हुई। यह रेखा चित्र इतिहास बनाते हुए वैश्विक दृष्टि में अमिट छाप बन गया। यह कदम उत्तर प्रदेश से वैश्विक पटल पर कलात्मक प्रदर्शन को साबित करता है। आज यहाँ वैश्विक स्तर की कलाओं से संबंधित कला आयोजन नवीन प्रवृत्तियों को लेकर हो रहे हैं, जिससे कलाकारों को अपनी कला का प्रदर्शन करने का अवसर प्राप्त हो रहा है। देश- विदेश से आने वाले श्रद्धालु राम लला के चित्र या मूर्ति प्रतीक के रूप को जरूर अपने साथ ले जाते हैं। यह कला के प्रसार का एक माध्यम है, जिससे उत्तर प्रदेश की कला का वैश्विक स्तर पर प्रसार हो रहा है, इससे हमारी आर्थिक स्थिति एवं कला को वैश्विक सम्मान प्राप्त होता है। राम मंदिर की स्थापना के बाद यहाँ आए दिन कला गतिविधियाँ हो रही हैं, साथ ही कला शिविर कार्यशाला समकालीन कलाकारों के साथ आयोजित हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश के अलावा देश भर के कलाकारों को आमंत्रित कर राम लला के धार्मिक महत्व का चित्रण किया गया। इस स्थल की विशेष चर्चा विदेश की मीडिया में प्राथमिकता से चलाया गया। इससे वैश्विक महत्व और बढ़ गया एवं इसके सौन्दर्य-करण के विविध कलात्मक आयाम भी देखने योग्य हैं, यहाँ के परिसर को देशज कला से सृजित किया गया है।
उत्तर प्रदेश के वाराणसी में स्थित काशी विश्वनाथ प्रसिद्ध मंदिर हैं। यह मंदिर बारह ज्योतिर्लिंग मंदिरों में से एक हैं। सांस्कृतिक नगरी काशी में देश-विदेश के लोगों की आस्था उन्हें यहाँ खींच लाती है। काशी में इन दिनों कला एवं संस्कृति से संबंधित प्रदर्शनियों का आयोजन हो रहा है। यहाँ अक्षय कला यात्रा-2 में देश के चौबीस कलाकारों के कला सृजन में दृष्टिगत होकर पहली बार प्रदर्शित हो रहा हैं। इसका आयोजन हिना भट्ट आर्ट वेचर्स, पुणे के द्वारा आयोजित किया गया। इस प्रदर्शनी का मुख्य उदेश्य था, कि हमारी कला संस्कृति विरासत की रक्षा की जाए। इस प्रदर्शनी की आयोजक पुणे की कलाकार हिना भट्ट हैं जो ऐसी ही सोच रखती हैं, कि कला को नए नजरिए से देखना और उसके महत्व को बखूबी समझती हैं। वैश्विक स्तर पर अक्षय कला यात्रा की पहली शुरुआत दक्षिण भारत बैंगलोर में की थी। दूसरी कड़ी में वाराणसी से गंगा तट पर स्थित राम छाटपार शिल्प न्यास, महेश नगर में कलाकृतिया का आयोजन किया। इस प्रदर्शनी में विभिन्न क्षेत्र के कलाकारों की कृतियों का प्रदर्शन हुआ। इससे कलाकारों को वैश्विक मंच प्राप्त हुआ, अपनी कला एवं संस्कृति को समाज तक पहुंचाने का अवसर प्राप्त हुआ। इसमें लखनऊ के कलाकार भूपेन्द्र अस्थाना के चित्र मौलिकता और सृजनात्मकता का आभास कराते हैं। चित्रों में काले स्याह रेखाओं की प्रधानता बिम्ब को उभारने और विविध रूपाकृति के साथ संयोजित होती दिखाई देती हैं, जिससे कलाकार की आस्था उसे वैश्विक स्तर से सृजनात्मक दृष्टिकोण को उजागर करती हैं। वाराणसी के डॉ. सुनील विश्वकर्मा के चित्रों में रामनगर की रामलीला और काशी के घाटों की झलक दिखाई पड़ती हैं। सुंदर संयोजन और संस्कृति की झलक कलाकार के चित्रों में परिलक्षित होकर विश्व में प्रदर्शित हो रही हैं।
अतः विभिन्न क्षेत्र के कलाकारों ने अपने कृतियों के माध्यम से समकालीन कला एवं संस्कृति के महत्व को प्रदर्शित करते हैं और वैश्विक स्तर पर दर्शाते हैं, कि हमारी कला एवं संस्कृति नवीन प्रवृत्तियों के साथ अग्रशील हैं। इस कला प्रदर्शनी में भारत के विभिन्न क्षेत्रों के कलाकारों ने भाग लिया और अपनी कला एवं संस्कृति को चित्रण के माध्यम से विश्व के लोगों को अवगत कराया।
इन सभी कला रूपों के माध्यम से उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक विविधता उसे वैश्विक स्तर पर परिलक्षित करती हैं। आधुनिक कला के स्वरूप से कलाएं विकसित हुई, जिससे कलाकारों का विकास हुआ और नवीन शैलियाँ विकसित होती रही हैं। उत्तर प्रदेश की समकालीन कला में विभिन्न आधुनिक और पारंपरिक तत्वों का मिश्रण हुआ, जिससे कला वैश्विक स्तर पर प्रभावी हुई हैं। समकालीन कलाकार धार्मिक और ऐतिहासिक विषयों का आधुनिक दृष्टिकोण से पुनरावलोकन कर रहे हैं, इसके माध्यम से वे पुरानी मान्यताओं और परम्पराओं को आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत कर रहे हैं। पारंपरिक चित्रकला और मूर्तिकला के साथ-साथ कलाकारों ने डिजिटल मीडिया, विडिओ आर्ट, और संस्थापन कला का प्रयोग कर रहे हैं। यहाँ की कला को देश-विदेश की प्रदर्शनियों, गैलेरियों और कला मेले में सराहा जा रहा है। नई तकनीक के विकास के साथ डिजिटल कला का क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है। आज उत्तर प्रदेश के कलाकार की सृजनशीलता उसे वैश्विक स्तर पर सम्मान दिलाने के लिए उद्वेलित कर रही हैं। अनेकों नई-नई दीर्घाएँ खुली जिनमें राज्य ललित कला अकादमी लखनऊ, एबीसी आर्ट गैलरी वाराणसी, उत्तर मध्य सांस्कृतिक केंद्र प्रयागराज इत्यादि हैं, जिससे कलाकारों को अपनी कार्यकुशलता को प्रदर्शित करने का मंच प्राप्त हुआ। अब कलाकार अपनी कृतियों को कुछ ही क्षणों में पूरी दुनिया के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है। वर्तमान समय के कलाकारों की सृजनशीलता नए-नए प्रयोग व नवीन तकनीक विकसित करने में उत्सुक हैं।
उत्तर प्रदेश के समकालीन प्रमुख कलाकारों का विवरण एवं उनका वैश्विक प्रभाव : उत्तर मध्य भारत का यह क्षेत्र कला एवं संस्कृति का थाती रहा हैं। निश्चित तौर पर इस सांस्कृतिक परम्परा का प्रभाव इस क्षेत्र पर रहा हैं। इसी पम्परा का निर्वाह वर्तमान पीढ़ियां भी करती हैं। इसी प्रकार प्रमुख कलाकार निम्न है-
अनीता दुबे- नवाबों का शहर लखनऊ की प्रसिद्ध संस्थापन कलाकार के रूप में जानी जाती हैं। उनके कार्य सामाजिक स्मृतियां, इतिहास व पौराणिक तथ्यो और मुहावरों पर आधारित हैं। इनके कार्य उत्तर प्रदेश ही नहीं भारत के प्रमुख कला दीर्घाओं में प्रदर्शित हो चुके हैं। वैश्विक स्तर पर भी कला को प्रदर्शित करके अपनी पहचान बना रही हैं। ये कला इतिहासकार व समीक्षक भी हैं।
इनका प्रमुख विषय- बनी बनाई वस्तुएँ, प्राप्त वस्तुएँ, औद्योगिक सामग्री, अक्षर, फोटोग्राफी आदि का प्रयोग कर, भारतीय समसामयिक, सामाजिक और राजनैतिक परिस्थियों व उसके परे विस्तृत विवेचन और आलोचना प्रस्तुत करती हैं। बनी-बनाई कला का उदाहरण हमें दादावाद में दिखाई देता है, जो प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ज्यूरिख, स्विट्ज़रलैंड में प्रारंभ हुआ था। यह मुख्य रूप से दृश्य कला, साहित्य कविता, कला प्रकाशन, कला सिद्धांत, रंगमंच और ग्राफिक डिजाइन को सम्मिलित करके, यह आंदोलन कला-विरोधी सांस्कृतिक कार्यक्रमों के द्वारा कला के वर्तमान मापदंडों को अस्वीकार कर प्रदर्शित किया। इसका मुख्य उद्देश्य आधुनिक बातों का उपहास करना था, जिसे इसके प्रतिभागी अर्थहीनता समझते थे।(5)
अनीता दुबे ‘भाषा’ (मूर्ति शिल्प) पर आधारित कार्य अधिक पसंद करती हैं। उन्होंने कहा था कि, “मुझे रुचिकर लगता है कि कैसे एक शब्द स्थापत्य में परिवर्तित होता हैं।“3.1 इसका उदाहरण हमें 2007 में बने ‘5 words’ शीर्षक से प्रतिबिंबित होता है, जिसे 2007-08 में मेट्रस फैक्ट्री, पिट्सबर्ग के प्रदर्शनी में शामिल किया गया था। हम कह सकते हैं कि अनीता दुबे ने अपनी कृतियों में सामाजिक, राजनैतिक, तथा पौराणिक तथ्यो को लेकर निरंतर नवीन प्रयोग किए, जो वैश्विक स्तर पर अपनी क्रियाशीलता पर अग्रसर हैं।
अनीता दुबे ने हिन्दू धर्म की आकृति से चिपकी हुई सेरेमिक आँख का प्रदर्शन किया। (चित्र संख्या-2) इसी तरह के कार्य का उदाहरण “द स्लीप ऑफ रीजन क्रेयट्स मोनिस्टर”3.2 हैं, जिसे कीयास्मा म्यूजियम ऑफ कंटम्परेरी आर्ट, फ़िनलैंड में प्रदर्शित किया था। इसमें औद्योगिक रूप से निर्मित सिरेमिक आँखें हैं। उन्होंने ऐसे सैकड़ों आँखों को गैलरी की दीवारों पर नदियों या महिला प्यूबिस के पैटर्न में चिपका रखा हैं। यह कार्य फ्रांसिस्को गोया के प्रसिद्ध एक्वाटिंट प्रिन्ट “लॉस कैप्रीकोस”3.3 से प्रभावित हैं। कलाकार ने इस चित्र की रचना से प्रभावित होकर, अपने कार्य का विषय बनाया। इनका यह इंस्टॉलेशन वैश्विक स्तर पर प्रदर्शित किया गया है, जो उत्तर प्रदेश की कलाकार की कार्यकुशलता को अलग आयाम पर ले जाता है। यह कलाकार की कला विविधता और समृद्धि को दर्शाती हैं।
चित्र सं-2 ‘द स्लीप रीजन प्रोड्यूस मॉन्स्टर्स’ |
नवजोत अल्ताफ - मेरठ मे जन्मी कलाकार अपनी संस्थापनों, चित्रों, स्क्रीन प्रिन्ट, फिल्मों आदि के साथ संगीत का एकल प्रदर्शन (“Links Destroyed and Pedis Covered”3.4 शीर्षक से मुंबई में ) किया। इनके कार्यों में राजनैतिक व यथार्थवाद की मानवीय स्थितियों की विकृतियों तथा विसंगतियों के साथ स्वयं के विषयों को स्थापित कर फिर से परिभाषित करती हैं। उनके कार्यों में तकनीकी कंप्यूटरीकरण का संस्थापन और साइट स्पेसिफिक सृजन मे दृष्टिगत होता है। इन्होंने अपने कार्यों में नारीवादी आंदोलनों के चलते महिला को जोड़ा, जिसका उदाहरण “touch 4”3.5 , touch and lachmi jagger (2006)p-2 आदि के द्वारा नारीवाद को अग्रसर करती हैं। यह अपने कार्यों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत करती हैं।
नवजोत ने सामाजिक, राजनैतिक और कलात्मक मुद्दों से संबंधित कृतियों को बड़े पैमानों पर प्रदर्शित करती हैं। दुनिया भर में समकालीन कला विधाओं से परिचित होकर अभिव्यक्ति कर रही हैं। इनके चित्रों की तुलना हम भारत की सबसे बेहतरीन कलाकार ‘नलिनी मालानी’ के साथ कर सकते हैं, जो देश की वीडियो इंस्टॉलेशन के लिए जानी जाती हैं। उन्होंने अपनी परियोजना में लिंग, स्मृति, नस्ल और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विषय शामिल किए हैं। (चित्र सं-3) वीडियो/छाया नाटक ‘ट्रांसग्रेशन’ हैं, जिसमें तीन-चैनल वीडियो इंस्टॉललेशन पारंपरिक छाया नाटकों की लोक संवेदनाओ को नई तकनीकों के साथ प्रदर्शित किया हैं। नवजोत का संस्थापन (चित्र सं-4) ‘टच 4’ हैं, जो नारी वाद को आगे बढाती हैं। दोनों कलाकार नारीवादी मुद्दों पर आवाज उठाती हैं और इससे संबंधित विषयों को अपने कृतियों में शामिल कर देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी प्रस्तुत कर अलग पहचान बनाती हैं। अतः दोनों कलाकार संस्थापन कला के माध्यम से समकालीन दृश्य का सृजन करती हैं।
चित्र सं-3 ‘ट्रांसग्रेशन’ |
चित्र सं-4 ‘टच फोर’ |
एस. प्रणाम सिंह- यह भारतीय समकालीन कला सौन्दर्य के यथार्थवादी व अलंकारिक चित्रकार हैं। उन्हे भारत सरकार के संस्कृति विभाग द्वारा चित्रकला में वरिष्ठ फैलोशिप से सम्मानित किया गया है। इनके विषय मुख्य रूप से महिलाओं के अंतरंग जीवन और उनके परिवेश का चित्रण, जिनमें वाराणसी की महिलाएं, गलियों में गायों को चराते हुए, मंदिर जाते हुए, कल्पना में खोई हुई महिलाएं चित्रित करना पसंद हैं। इनके चित्रों में जीवन और उम्मीद की चमक से भरे चित्र मुख्य रूप से होते हैं। वे नियमित रूप से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय व राज्य स्तरीय कला प्रदर्शनियों में भाग लेते रहे हैं, तथा इनकी कृतियाँ भारत में ही नहीं, विदेशों में भी संग्रहीत हैं। जिन्हे देखने से ज्ञात होता हैं, कि प्रणाम सिंह समसामयिक दृष्टिकोण को आत्मसात कर, कला के नवीन मार्ग खोज रहे हैं।
चित्र सं-5 ‘लाल साड़ी’ |
चित्र सं- 6 ‘नीली साड़ी’ |
प्रणाम सिंह एक समकालीन भारतीय कलाकार हैं, जो भारतीय महिलाओं के चित्र और आकृतियों को चित्रित करने में माहिर हैं। उनकी शैली यथार्थवादी और अभिव्यंजक है, जो चित्रित विषयों की सुंदरता, अनुग्रह और भावनाओ को दर्शाती हैं। भारतीय कला रेखा प्रधान हैं, जबकि यूरोपीय कला बाह्य सौन्दर्य अभिव्यंजक हैं। इन दोनों कलाओं का समन्वय उनकी कला में देखने को मिलता हैं, जो उन्हें वैश्विक स्तर पर अलग पहचान दिलाती हैं। उनकी चित्रण शैली में रेखा और रंगों का महत्त्वपूर्ण संयोजन दिखाई देता हैं। ‘लाल साड़ी’ (चित्र सं-5) उनकी पेंटिंग हैं, जो रंग-रूप पर उनकी महारत को दर्शाती हैं, साथ ही चित्र ‘नीली साड़ी’ (चित्र सं-6) में महिला की भावनाओं और आकाश से जुड़ाव का एक सुंदर रूपक हैं। वे ब्रश स्ट्रोक के नवीन तकनीक और एक्रेलिक, ऑयल रंगों का प्रयोग कर सृजित करते हैं। इनकी यह तकनीक एक विषय-वस्तु का प्रदर्शन उत्तर प्रदेश के सांस्कृतिक मूल्यों को वैश्विक स्तर पर प्रदर्शन से सांस्कृतिक प्रचार की भूमिका अदा कर रहे हैं।
अजय जैतली - मूलतः प्रयागराज के रहने वाले एक स्वतंत्र चित्रकार के रूप मे प्रसिद्ध हैं। यह विरासत उन्हें अपने पिता जी से मिली, सूक्ष्मताएं व तकनीकी निपुर्णता प्राप्त कर एक पोर्ट्रेट चित्रकार के रूप मे जाने जाते हैं। कवियों और लेखकों के साथ मित्रता ने इन्हें इस कृत्रिमता से बाहर आने में, यथार्थवाद और अमूर्तता में संघर्ष करने में मदद की। इस प्रकार वे लेखक और कवि मित्रों के साथ विचारों के आदान-प्रदान के माध्यम से कलात्मक दृष्टि विकसित कर सके। अब उनका मानना है कि मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण कलात्मक सृजन करने में मदद करता है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के संस्थापक ‘सिगमंड फ्रायड’ को माना जाता हैं। इनका मानना हैं, कि “अपने मन के नाटक में बसे अभिनेता हैं, जो इच्छा से प्रेरित होते हैं, संयोग से खिंचे जाते हैं, सतह के नीचे हमारा व्यक्तित्व, हमारे भीतर चल रहे शक्ति-संघर्ष का प्रतिनिधित्व करता हैं, और उसे रचता है।”6 इनकी विरासत आज भी कायम हैं। देश-विदेश के कलाकार इनके विचारों से प्रभावित होकर चित्रों की रचना कर रहे हैं। इनके सिद्धांत का प्रभाव कलाकार के चित्रों में दृष्टिगत है, जो कलाकार को उसके मौलिक रूप का सृजन करने में सहायक होता हैं।
रंगों के तीखे विरोध के साथ भावनात्मक पक्ष को ब्रश के माध्यम से वैश्विक स्तर पर प्रस्तुत करते हैं। हाल में उनकी रचनाएं सरल अमूर्त और मायावी हो गई, जो कलाकार की रचनात्मकता को दर्शाती हैं। वे निरंतर रचनात्मक प्रयोगों को विकसित और परिष्कृत कर रहे हैं।
अतः इनके चित्रों में हम देख सकते हैं, कि इन्होंने मानवीय संबंधों और अंतर्निहित मानवतावाद को लेकर चित्रण किया है, जो उस समयकाल को दर्शाता है जब भारतीय कला में आध्यात्मिक पक्ष महत्व है, कलाकार ने भी कला की निर्मिती में आध्यात्मिक पक्ष को महत्त्वपूर्ण स्थान देकर चित्रण किया है। इन्होंने अपने काम को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में प्रस्तुत किया। इनके योगदान को दुनिया भर के विषय-विशेषज्ञों से प्रशंसा मिली हैं।
चित्र सं-7 ‘गांधी जी’ |
चित्र सं-8 ‘संवाद’ |
लतिका कट्ट- भारत की पहली महिला मूर्तिकार के रूप मे जानी जाती हैं। यह पत्थर की नक्काशी, धातु की ढलाई और कांस्य मूर्तिकला में पारंगत हैं। प्रारंभ मे गाय के गोबर और कागज जैसी सामग्रियों से कलाकृतियाँ बनाने हेतु प्रयोग किया, लेकिन उनका प्रिय माध्यम पत्थर और संगमरमर हैं, जिससे उन्होंने प्रमुख राजनेताओं की प्रतिष्ठित मूर्तियां बनाई। उन्होंने “वाराणसी के दशाश्वमेध घाट पर सक्रांति”5.1 नामक कांस्य कृति के लिए बीजिंग आर्ट बिनाले पुरस्कार जीता। यह सम्मान कलाकार की पहचान को एक अलग स्तर पर ले जाती हैं।
लतिका अपनी कला में जटिल और रहस्यमय प्रक्रिया को व्यक्तिगत तरीके से रुचि और जिज्ञासा के साथ पकड़ने की कोशिश करती हैं। वह हमेशा अभिव्यक्ति की निरंतर इच्छा की प्यास बुझाने की तलाश में रहती हैं। मूर्तिकला मे निरंतर उन्होंने चिटियों और दीमकों द्वारा प्रकृति के खोखले डिज़ाइनों से लेकर, खूनी-युद्ध, वनों की कटाई और झुग्गी झोपड़ी पर उनकी नवीनता का समन्वय दिखाई देता हैं। इसी में इन्होंने ‘जवाहर लाल नेहरू’ की 20 फीट ऊंची मूर्ति से लेकर विलक्षण जैविक अमूर्त रूपों तक को ढाला हैं। यह भारत की पहली महिला मूर्तिकार मानी जाती हैं, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी समसामयिकता को प्रदर्शित करती हैं।
चित्र सं-9 ‘बाल्जाक का स्मारक’ |
चित्र सं-10 ‘सती’ |
फ्रांसीसी मूर्तिकार रोडिन, जो अपनी कलात्मक मूर्ति रचना हेतु जाने जाते हैं। उन्होंने ‘बाल्जाक का स्मारक’(चित्र सं-9) मूर्ति बनाई हैं, जो फ्रांसीसी उपन्यासकार बाल्जाक की याद में बनाई गई, एक प्रसिद्ध मूर्ति हैं। रोडिन के अनुसार, मूर्ति का उद्देश्य लेखक के व्यक्तित्व को चित्रित करना हैं, न कि उसकी शारीरिक समानता को। रोडिन के विचारों से प्रभावित होकर लतिका कट्ट अपने विषयों को आदर्श बनाने से इनकार करती हैं, क्योंकि वह वास्तविक लोगों को वैसे ही गढ़ती हैं, जैसे वे हैं। इनके मूर्ति शिल्प ‘सती’ (चित्र सं-10) में स्वाभाविक रूप के बजाए, आंतरिक भाव देखने को मिलता हैं। रोडिन की महान प्रशंसक, उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला मूर्तिकार लतिका कट्ट अपने प्रयोगात्मक काम को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाती हैं।
ज्ञान सिंह- उदयपुर, राजस्थान के राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता ज्ञान सिंह अपने बेटे अमित सिंह के साथ पहली बार 40 अद्भुत नक्काशीदार मूर्तियां लेकर अहमदाबाद में प्रदर्शित किया, जो देश में चर्चा का विषय रहा। स्वतंत्र कलाकार के रूप में कार्य करने हेतु, ये वाराणसी से बंबई गए, किन्तु संगमरमर पर अपने रूपों को विकसित करने का शौक इन्हें उदयपुर ले आया। इन्हें हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड के निर्देशक ने, उनके काम से प्रभावित होकर उन्हें यहाँ आमंत्रित किया। उदयपुर के पत्थरों से लगाव होने के कारण इन्हें कार्य करने हेतु प्रेरित किया और यहीं रहकर स्वतंत्र मूर्तिकार के रूप में काम करना शुरू कर दिया। यहीं उदयपुर में ही अपना निजी स्टूडियो स्थापित कर लिया। उनके बेटे और बेटी के कलात्मक प्रयोग भी उदयपुर स्टूडियो में ही फले-फुले। वे अपने पिता के विचारशील कार्यों से प्रेरित थे, जो आज भारत के विभिन्न कला संस्थानों के संग्रह में हैं।
चित्र सं -11 ‘लार्ज टू फार्मस’ |
चित्र सं-12 ‘मेल्टिंग फॉर्म्स’ |
बलवीर सिंह कट्ट के मार्गदर्शन में काम करते हुए इन्हें पत्थरों से लगाव हो गया था, क्योंकि उस समय ये पत्थर को खरीद नहीं सकते थे, इसलिए ये अपनी शैली विकसित करने के लिए केवल उसी पत्थर को तराशते थे, जो उनकी अवधारणा के लिए उपयुक्त था। 1990 के दशक में इन्होंने अंकुरित बीजों और बढ़ते पौधों की छवियों पर भी काम किया। ज्ञान सिंह बताते हैं कि “उन्होंने अपनी शिक्षिका लतिका कट्ट से पत्थरों को ठोस रूप देना और तराशना सीखा।”4 उन्हें अपनी इच्छानुसार सामग्री का उपयोग करना सिखाया। उनकी विशिष्ट कृतियों में “melting forms”6.1 हैं, जो बचपन में देखी गई सड़क निर्माण के दौरान पिघलना और बहता चिपचिपा टार साइटे। ये छवियां एक के बाद एक उनकी स्मृति से प्रभावित होती रही हैं। इन शृंखलाओं में उन्होंने गुलाबी, गहरे गुलाबी और काले रंग का संगमरमर धीमी गति से बहता हुआ प्रतीत होता हैं। इनका संगमरमर इतना नरम, कोमल और लचीला हो गया हैं, कि कोई भी रूप और गति ले लेता हैं। अतः इनकी कृतियां पारंपरिक और समकालीन कला दोनों से प्रेरित हैं।
ज्ञान सिंह अब मूर्तिकला व्यवसाय से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। देश के विभिन्न स्थानों में अपनी नवीनतम संगमरमर की मूर्तिकला कृतियों का प्रदर्शन करते रहे हैं। इनके मूर्तियों की तुलना इग्लैंड के प्रसिद्ध मूर्तिकार ‘हेनरी मूर’ से की जा सकती हैं। ये मुख्य रूप से स्मारकीय मूर्ति रचना के लिए जाने जाते हैं। हेनरी ने भी फॉर्म्स को लेकर मूर्तियो को गढ़ा हैं, इसका श्रेष्ठ उदाहरण ‘लार्ज टू फॉर्म्स’(चित्र सं-11) बनाई गई, यह कांस्य मूर्ति शिल्प में हैं। इनकी विचारधारा से ही आधुनिक मूर्तिकला को नई दृष्टि मिली, कलाकार को जीवनकाल में ही वैश्विक स्तर पर प्रसिद्धि मिली। अतः पारंपरिक और समकालीन विचारधारा कलाकार के कृतियों में अभिव्यक्त दिखाई देती हैं।
गोगी सरोज पाल- इनका जन्म नेओली, उत्तर प्रदेश के छोटे से गाँव में हुआ था। ये एक महिला कलाकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने गोउचे, तेल, सिरेमिक और बुनाई सहित कई मीडियम में काम किया। गोगी ने लगातार महिलाओं की स्थिति और आंतरिक जीवन का पता लगाया हैं। महिलाओं का जीवन, उनकी इच्छाएँ, मजबूरियाँ और स्त्रीतत्व की जटिल व जादुई दुनिया गोगी के अक्सर विषये रहे हैं। भारत के प्रचुर मात्रा में मौजूद मिथकों, दंतकथाओं और लोक कथाओं के विशाल भंडार की खोज करती हैं, उनका जवाब देती हैं।
वे नई पौराणिक/ आकाशीय महिला प्राणियों का पता लगाती हैं, और उनकी रचना करती हैं, जिसमें बहुत ताकत और समर्थ हैं। जैसे की ‘हटयोगनी’- काली कुशल योग साधक और शक्तिशाली महिला शक्ति जो आधुनिक परिदृश्य में खुद को मुखर करती हैं। इनकी कृतियों में आरंभिक शृंखला में ‘बीइंग अ वुमन एण्ड रिलेशनशिप’ से शुरू होती हैं, जिसके बाद इन्होंने आधे मानव और आधे पशु के मिश्रित प्राणियों की सशक्त कृतियों का संग्रह होता हैं, जिसके लिए कलाकार मुख्य रूप से जानी जाती हैं। इसका उदाहरण ‘कामधेनु’ (आधी महिला और गाय), ‘किन्नर’ (आधी महिला और पक्षी) शामिल हैं। हिन्दु पौराणिक कथाओं में देवताओं और असुरों ने अमृत बनाने के लिए विष्णु की सहायता से महासागर का मंथन किया, जिससे कामधेनु इच्छा पूर्ति वाली गायें जैसे भेट स्वरूप अस्तित्व में आए। गोगी की कामधेनु पेंटिंग समाज में महिलाओं के साथ किए व्यवहार पर एक टिप्पणी हैं। जहाँ सहमत और विनम्र महिलाओं को कभी-कभी वरदान देने वाली गाय के रूप में आदर्श बनाया हैं। किन्नरी नामक शृंखला में कल्पना की उड़ान में अपनी गतिहीनता की सह-परम्पराओं को स्वतंत्र रूप से चित्रित किया। रोजमर्रा की असहायता की धारणाओं और अनुभावों के माध्यम से चित्रण करने हेतु प्रेरित किया। गोगी स्वाभाविक रूप से क्रूर और अपमानजनक करार दिया।
गोगी के लिए एक स्थायी प्रभाव और आकर्षण का स्रोत लघुचित्र परंपरा हैं, विशेष रूप से नायिका भेद या नायिका की खोज। 2011 में दिल्ली आर्ट गैलरी में गोगी की एकल प्रदर्शनी हुई। इस प्रदर्शनी में उनके साढ़े चार दशकों के काम को शामिल किया गया हैं, जिसमें वह उत्तर प्रदेश की एक प्रमुख कलाकार और सामाजिक सरोकार में नारीवादी आवाज़ का प्रतिनिधित्व करती हैं। इनकी नारीवाद से संबंधित ‘द फेमिनिन अन्बाउन्ड : गोगी सरोज पाल पुनरावलोकन’ पुस्तक है, जिसकी लेखक गोगी सरोज पाल और किशोर सिंह हैं। जिसमें गोगी सरोज पाल की चयनित कृतियों की सूची शामिल हैं, इसमें कृतियों पर लेख भी शामिल हैं। इस प्रदर्शनी के माध्यम से कलाकार अपने मनोभावों को समाज के समक्ष प्रस्तुत करती हैं। गोगी अपने चित्रण के विषय में नारी को प्रमुखता से चित्रित करती हैं और उनकी आकृतियाँ सशक्त और आत्मनिर्भर हैं।
चित्र सं-13 ‘कामधेनु’ |
चित्र सं-14 ‘किन्नर’ |
“मेरे लिए कला वह सब कुछ है जिसके माध्यम से मैं खुद को अभिव्यक्त करती हूँ –लेखन, बुनाई, चीनी मिट्टी की चीजें, मूर्तिकला मिट्टी के बर्तन , पेंटिंग… मैं जो कुछ भी करती हूँ वह खुद को अभिव्यक्त करने की ओर उन्मुख हैं”5.2 -- गोगी सरोज पाल।
संतोष वर्मा- उत्तर प्रदेश के रचनात्मक कला के उभरते कलाकार हैं। उन्होंने ललित कला अकादमी का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता है और भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा वरिष्ठ फैलोशिप प्रदान की गई। इन्होंने भारत ही नहीं अपितु सीरिया (इराक), कोरिया और श्री लंका में अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों में भाग लिया और अपनी कला की अलग पहचान बनाई। उनकी कला में तकनीक अद्वितीय और रंग ताजगी भरे हुए हैं। प्रकाश और विचित्र रूपों की समृद्धि को शामिल करते हुए कैनवास को एक बहुरूपदर्शक स्थान में बदलते हैं।
संतोष वाराणसी के ग्रामीण इलाकों में पले-बढ़े, जो प्राचीन मान्यताओं, रीति-रिवाजों और परम्पराओं से समृद्ध भूमि रही हैं। यही पौराणिक कथाओं के प्रतीकों को रेखाओ और अमूर्त रूपों में दर्शाते हैं। ये अपनी कला में बचपन की यादों को उनके समकालीन पहलू को ध्यान में रखते हुए, अपनी पेंटिंग में दोहराने की कोशिश करते हैं। ये कहते हैं कि “मैं अपने साहित्य में अपने बचपन की यादों को समसामयिक ध्यान में रखते हुए चित्रित करता हूँ।”7 वे अपनी कला के निर्माण में कलाकारों में युवा और वृद्ध से प्रेरित हैं। इनके चित्रों (चित्र सं-16, ‘उभरते हुए रूप’) की तुलना हम जगदीश स्वामीनाथन के चित्रों से कर सकते हैं। जगदीश स्वामीनाथन चित्रकार होने के साथ-साथ वामपंथी पत्रिकाओं के लिए पत्रकार और कला समीक्षक के रूप में जाने जाते थे। इनकी पेंटिंग (चित्र सं-15) में सुव्यवस्थित ज्यामिति रूप को रंग और ब्रश के माध्यम से प्रतीकों का उपयोग करके किया है, साथ इनकी कला में आदिवासी कलाओं का प्रभाव था। यही विशेष गुण हमें संतोष के चित्रों में दिखाई देते हैं, जो कलाकार की विशेषता को अभिव्यक्त करता हैं।
चित्र सं-15 ‘शीर्षकविहीन’ |
चित्र सं-16 ‘उभरते हुए रूप’ |
राजेश सिंह- दुनिया भर के उभरते कलाकारों में राजेश सिंह इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध कलाकार हैं, जो समाज की समृद्ध चित्रकला का गहनता से चित्रण करते हैं, मानव प्रकृति के सार और जीवित प्राणियों के परस्पर संबंधों को अमूर्त रूपों में दर्शाते हैं। उनकी कृतियाँ प्रकृति के रहस्यों को दर्शाती हैं। उन्हे राज्य ललित कला अकादमी लखनऊ, ‘AIFACS’ नई दिल्ली, ललित कला अकादमी (राष्ट्रीय पुरस्कार) नई दिल्ली आदि पुरस्कार मिल चुके हैं।
प्रागैतिहासिक काल से भी प्रेरणा लेते हुए, प्राकृतिक रचनात्मकता को दर्शाते हैं, जो इनके रंगों, बनावट और जैविक रूप की सहजता में स्पष्ट हैं। इन्होंने गाँव में समय बिताने के बाद वहाँ की संस्कृति और भाषा को करीब से देखा है, और उन अनुभवों को चित्रों में शामिल किया है। अपने चित्रण में ये मिट्टी के रंगों और इससे जुड़े लोगों की सच्ची भावना को दर्शाते हैं। अपने शिल्प के प्रति ये 15 वर्षों से निरंतर गतिशील हैं। ये अपनी चित्रण पद्धति में रंग, कैनवास, पल्प, पेपर, रेत, और चावल शामिल करते हुये कलात्मक दृष्टि को अभिव्यक्त करते हैं। अतः इनके चित्रण का उद्देश्य समकालीन व पारंपरिक कला का समन्वय करके आंतरिक सुंदरता को व्यक्त करना हैं। कलाकार की पेंटिंग लयबद्ध रंगों, मधुर स्ट्रोक और मौलिक दुनिया की शानदार छवियों को बनाते हैं।
चित्र सं-17 ‘उभरती हुई गूंज’ |
चित्र सं-18 ‘अनकही प्रकृति’ |
धीरज यादव- यह उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध कलाकार हैं। जिन्हे संसार के विभिन्न क्षेत्रों में सम्मानित किया गया हैं। इनकी कला रोजमर्रा की गतिविधियों से प्रेरित हैं। अपनी रचनात्मक अन्वेषण के माध्यम से विभिन्न सामग्रियों का उपयोग करके लोगों और सक्रिय स्थानों की वास्तविकताओं में अभिव्यक्त करते हैं।
इनके चित्रों का सार रेखाओं के माध्यम से अंतरिक्ष की खोज में निहित हैं। यही इनके काम का प्रतीक हैं- अस्तित्व की स्वतंत्रता और बहने की स्वतंत्रता। इनकी अंतर्निहित प्रकृति रेखाओं और रेखाचित्रों के उपयोग के माध्यम से कलाकृति में परिलक्षित होती हैं।
अपने कामों के माध्यम से धीरज स्वतंत्रता की भावना और भौतिकवादी दुनिया में जीवित रहने वाले लोगों से भी प्रेरणा लेते हैं। इनके कार्यों में रेखाओं का प्रमुख स्थान हैं, जो उनके विचार को सशक्त बनाकर रचनाओं को रेखांकित करते हैं। चित्रों में मानव रूपों को प्रस्तुत करना और उनके भावों का वर्णन करना हैं। इनकी कला में रहस्यमय रेखाएं हैं, जो स्पष्ट करती हैं कि विषय, विचार और चित्रों व रंगों के माध्यम से अभिव्यक्ति करते हैं। इनके चित्रों की मूल भावना इन्हें वैश्विक स्तर पर परिचित कराती है।
हाल ही में कला संस्थान ‘शिल्पांगन’ इस घाटी की कला और संस्कृति की दुनिया में बदलाव लाने के लिए नई दिल्ली में स्थित संस्था JOOKTO के सतह मिल कर डेफोडिल्स स्कूल में 3 दिवसीय ‘न्यू मीडिया आर्ट पर कार्यशाला’ का आयोजन किया गया। कार्यशाला में पूरे क्षेत्र से प्रतिभागियों ने भाग लिया, जिसमें कला के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया। इस कार्यशाला में उत्तर प्रदेश के राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता कलाकार धीरज यादव ने अपनी कला का शानदार और ज्ञानवर्धक प्रदर्शन किया और उन्होंने कहा कि अपेक्षित प्रशिक्षण और मार्गदर्शन के सतह युवा कलाकार निश्चित रूप से राष्ट्रीय स्तर पर भी चमक सकते हैं।
चित्र सं-19 |
चित्र सं-20‘रहस्यमय पंक्तियो की कहानी’ |
उपर्युक्त कलाकारों के विवरण से ज्ञात होता हैं, कि उत्तर प्रदेश के कलाकार समकालीन कला की प्रवृत्तियाँ वैश्विक स्तर पर प्रभावित कर, दर्शकों के साथ संवाद स्थापित कर रही हैं।
निष्कर्ष : भारतीय कला में उत्तर प्रदेश की कला एवं संस्कृति का प्रमुख स्थान हैं। प्राचीन काल से प्रारंभ होकर आधुनिक युग तक कला का विकास होता रहा हैं। समकालीन कला के दृश्य में भी यह प्रवृत्ति गतिशील हैं। कलाकार नवीन प्रवृत्तियों को आत्मसात करके कला का सृजन कर रहे हैं, जो यहाँ की संस्कृति और पारंपरिक कला को विकसित करने के साथ-साथ नवीन कला रूपों को भी अभिव्यक्त करते हैं। यहाँ की कला विविध और समृद्ध हैं, जो सामाजिक, सांस्कृतिक और वैश्विक प्रभावों को परिलक्षित करती हैं। देश-विदेश की प्रदर्शनियों और कार्यक्रमों ने कलाकारों को आजीविका के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के ही कला के बारे में लोगों की धारणा को रूप दिया। कलाकारों ने स्थानीय संस्कृति, धार्मिक विषयों और सामाजिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर चित्रण का विषय बनाया हैं। वैश्विक रुझानों ने डिजिटल कला और संस्थापन कला का प्रभाव उत्तर प्रदेश की कला में दृष्टिगत होकर, कलाकारों ने अभिव्यक्त किया। उत्तर प्रदेश की कला में स्थानीय परम्पराओं और आधुनिक दृष्टिकोण का अनूठा संगम देखने को मिलता है। आज का कलाकार नए वातावरण को आत्मसात कर उसे सृजित करने में तैयार हो चुका है। अतः उत्तर प्रदेश भी प्रतिष्ठित कलाकारों की भूमि है, जिसमें नई तकनीकों, शैलियों और नवीन अभिव्यक्तियों के साथ नए-नए रूपों को विकसित कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश जैसे आध्यात्मिक महत्व के राज्य में समकालीन प्रवृत्तियों का सर्जन कर वैश्विक स्तर पर स्थापित होना दूसरे राज्यों की तुलना में असामान्य हैं, क्योंकि जहाँ आध्यात्मिक मूल्य प्रगाढ़ हो, वहाँ नवीन प्रवृत्तियाँ एवं प्रयोग की संभावना प्रायः कम रहती हैं। क्योंकि कोई भी कला उसके आस-पास के परिवेश का ही प्रतिबिंब होती हैं। ऐसे में अगर किसी धार्मिक विचार पर नए तरीके से काम कर प्रदर्शित किया तो उसका प्रभाव आम-जन पर नकारात्मक पड़ सकता है, जैसे प्रभाववाद में एडवर्ड माने का ओलंपिया चित्र। इसलिए पारंपरिक मूल्यों पर चित्रण अधिक दृष्टिगत होते हैं। इसके अलावा उत्तर प्रदेश की कला वैश्विक परिप्रेक्ष्य में समृद्ध करने वाले अधिकतर कलाकार उत्तर प्रदेश से निकलकर, किसी महानगर जैसे दिल्ली या विदेश गए। अतः उनके काम में वैश्विक कला के समक्ष अलग पहचान बनाती है, जैसे लतिका कट्ट, अनीता दुबे, नवजोत अल्ताफ, संतोष कुमार, ज्ञान सिंह, धीरज यादव, राजेश सिंह इत्यादि।
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अतिथि सम्पादक : तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-55, अक्टूबर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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