वैश्विक कला परिदृश्य में भारतीय दृश्य कला की अवस्थिति
- विजय मा. ढोरे, गुरुचरण सिंह एवं लकी टॉक
(Anupam Sud, "The odd one", 1994 etching on paper) |
शोध सार : इस देश के विशाल जन-मानस में पुरातन काल से कला के प्रति जो अपरिमित अनुराग और सौंदर्य के लिए अगाध अभिरुचि रही है, उसी का परिणाम है कि आज हमें इतनी विपुल कला थाती उपलब्ध है। समकालीन आधुनिक भारतीय कला के पिछले पिचहत्तर सालों का जब हम लेखा-जोखा करते हैं तो इस प्रसंग के अनेक अर्थ हमारे सामने आ जाते हैं। आज़ादी के तुरंद बाद मुंबई में आधुनिक भारतीय कला के सबसे बड़े आंदोलन प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप (PAG) की शुरूआत हुई थी। 1948 में कला जगत में नई क्रांति लाई, उसके बाद समयानुसार कला में नई प्रयोगधर्मिता के नये-नये प्रयोग आना शुरू हो गए। हमें अब कहीं से कुछ लेने की ज़रूरत नहीं है। अब देशी या यूरोपीय होने की ज़रूरत नहीं है। ये मुद्दे अब अप्रासंगिक हो गए हैं। भारतीय कला, फ़िल्म, नृत्य, नाटक यह पूरा रचना-संसार एक-दूसरे से गुंथा हुआ है। अब यही हमारे लिए प्रेरणा के स्रोत हैं, इस शोध-पत्र में मैं पिछले पिचहत्तर वर्षों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ।
बीज शब्द : चित्रकला की अवधारणा, यूरोपीयन कला का प्रभाव कला की रचनात्मकता, किच आर्ट, संस्थापन कला, वीडियो आर्ट।
मूल आलेख : यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि चित्रकला के क्षेत्र में भारतवर्ष की रचनात्मक प्रवृत्ति संसार के अन्य देशों की अपेक्षा सबसे अधिक है। चित्रकला का इतना लंबा इतिहास और ऐसा व्यापक क्षेत्र अन्य किसी देश में नहीं पाया जाता, यह सत्य है परंतु स्वाधीनता के बाद भारतीय कला का निजस्व उसके विरोधियों तक ने स्वीकार कर लिया। 1947 के बाद देशी और विदेशी विद्वानों और कला की पारखियों में भारतीय कला को निकट से जानने का उत्साह बढ़ा और इसके फलस्वरूप लोगों की जानकारी के लिए ग्रंथ लिखे गए। पर अभाग्यवश यह सारा का सारा साहित्य अंग्रेज़ी अथवा फ़्रेंच में ही प्रकाशित हुआ। हिंदी के लेखक प्रायः कला के इतिहास से दूर ही रहे। इसका कारण स्पष्ट है। कला पर पुस्तकें लिखना तो शायद उतना मुश्किल नहीं, पर उन्हें छापना आसान नहीं, क्योंकि उसमें काफ़ी ख़र्च लगता है। भारतीय मनीषियों ने मनुष्य के उल्लास को प्रकट करने वाली समस्त कलाओं में एक अंतर्निहित संबंध खोजा था। यही कारण है कि उन्होंने नृत्य, मूर्ति, नाट्य आदि में एक ही आनंदिनीवृर्ति को देखा था। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में नृत्य को श्रेष्ठ चित्र कहा गया है – नृत्य चित्र का स्मृतम् और कालिदास ने नृत्य को देवताओं का चाक्षुष यज्ञ कहा है – “देवानामिद्रमामा नन्ति मनुयः शांत ऋतु चाक्षुषम्”। चित्र नृत्य है और नृत्य यज्ञ है। इन बातों से इन कलाओं की महिमा और लोकोत्तर रुप को समझाया गया है। उन्नीसवीं शताब्दी का एक यूरोपियन मनीषी आदि मनुष्य के चित्र लेखन प्रयास को भय-मूलक प्रवृत्ति कहना चाहता था। फ्रेज़र ने जब अनेक जातियों के अध्ययन से इस बात को गलत सिद्ध किया तो वहाँ यह बात तुरंत स्वीकार करने योग्य नहीं मानी गई, परंतु अब पुराजनवृत के अध्येता स्वीकार करने लगे हैं कि चित्रांकन का हेतु भय नहीं आनंद है। जैसे-जैसे संसार की प्राचीनतम चित्रांकन प्रयासों का पता लगता है, वैसे-वैसे स्पष्ट होता गया है कि भयमूलक रूप सृष्टि की बात कोरी कल्पना है। वास्तविकता से उसका कोई संबंध नहीं है। यह सभी तो विचारणीय प्रश्न है। बात उन्नीसवीं शताब्दी के नब्बे के दशक में हैवल चेन्नई से कोलकाता आए। तब तक भारतीय कला स्कूल विक्टोरियाई कला-संस्कृति की दूसरे-तीसरे दर्ज़े की जूठन थे। ठाकुर परिवार के रूप में भारतीय कला में एक नई हलचल पैदा हुई। यह अलग बात है कि आज 80-90 साल बाद रवीन्द्रनाथ ठाकुर को हम सबसे नज़दीक पा रहे हैं, उन्हें अपने जीवन में चित्रकार के रूप में प्रतिष्ठा मिली ही नहीं। 1920 के दशक के आख़िर में रवीन्द्रनाथ जब सत्तर के करीब पहुँच रहे थे, तो वे पेंटिंग में अपनी पहचान बना चुके थे। तब तक उन्हें अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा मिल चुकी थी। वे एक अद्वितीय भारतीय प्रतिभा माने जाते थे। 1941 में निधन से पहले रवीन्द्रनाथ जी ने दो हज़ार से अधिक चित्र और रेखांकन बनाए। उन पर न पूर्व का असर था न पश्चिम का। शायद इसलिए भी उन्हें कलाकार के रूप में प्रतिष्ठा आसानी से नहीं मिल पाई। उनकी कला में एक अजीब-सी दुनिया थी। आज अवनीन्द्रनाथ, गगनेंद्रनाथ, यामिनी राय इन सभी की तुलना में रवीन्द्रनाथ कहीं अधिक समकालीन हो गए, कला विशेषज्ञों का दावा है।
बीस के दशक तक बंगाल स्कूल के कलाकार देश की चारों दिशाओं में कला को एक बंद दुनिया से निकालकर दूसरी बंद दुनिया में ले जा चुके थे। कला और देशभक्ति के मेल ने भी यह संभव किया। वहीं कोलकाता ग्रुप के एक संस्थापक कलाकार प्रदोष दास गुप्ता ने अपने संस्मरण में लिखा है – “रवीन्द्रनाथ बंगाल स्कूल की शक्तिहीनता के प्रति सजग थे” और भी बहुत-से प्रसंग देखने में आते हैं, रवीन्द्रनाथ के विद्रोह को पहचान पाए। यामिनी राय ने आधुनिक भारतीय कला को नई दिशा दी, यह अलग बात है। वे अपनी बनाई हुई दुनिया के कैदी बन गए। वे अपना अनुकरण करने वालों का अनुकरण करते हैं।
साठ और सत्तर के दशक में अचानक भारतीय कला के विदेशी संरक्षक महत्वपूर्ण हो गए थे। अब सौभाग्यवश उनका दबदबा भी कम हो गया है। इनसे कला की नैतिकता का दबाव कम झेलना पड़ रहा है। यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है। युवा मूर्तिशिल्पी पुष्पमाला का यह कथन महत्वपूर्ण है कि “भारतीय कला, फ़िल्म, नृत्य, नाटक, यह पूरा रचना-संसार एक-दूसरे से गुंथा हुआ है।“ यही हमारे प्रेरणास्रोत हैं। अवनींद्रनाथ ने भी यहीं से शुरूआत की थी। सुपरिचित जापानी फ़िल्मकार ओशिमा के अनुसार – “मैं फ़िल्म में क्रांति करने के बजाए कला में क्रांति की बात करूँगा, चूँकि हम फ़िल्म निर्माण को कोई अलग क़िस्म की कोशिश नहीं मानते हैं, बल्कि साहित्य पेंटिंग, संगीत आदि का एक हिस्सा ही मानते हैं और हमें महसूस होता है कि इन सभी क्षेत्रों में क्रांति की ज़रूरत है।” आज के दौर में लिखने का एक नया ढंग नया ज़रिया रखा। भाषा के स्तर पर बहुत बड़ा फ़र्क़ सामने आया।
सन 1965 में ‘दिनमान’ का प्रकाशन हिंदी पत्रकारिता में एक घटना थी। फ़िल्म, साहित्य, कला, संगीत, रंगमंच (यहाँ तक कि खेल भी) सरीखे स्तंभों को हिंदी में नई पहचान मिली। अज्ञेय ने ‘दिनमान’ के स्टाफ़ में हिंदी के कई बड़े आधुनिक लेखकों को नियुक्त किया था। वे सभी कलाओं की आवाजाही में विश्वास रखते थे, साथ ही अनेक विधाओं के निकट संपर्क में भी थे । भविष्य में शायद ही कोई हिंदी की ऐसी पत्रिका सामने आए, जिसमें अज्ञेय, श्रीकांत वर्मा, मनोहर श्याम जोशी, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, सरीखे नाम एकसाथ काम करते हुए नज़र आएँ। आधुनिक हिंदी पत्रकारिता का वह स्वर्णयुग था – अपनी समस्त सीमाओं के बावजूद। ‘दिनमान’ के ये संस्कृति-स्तंभ लेखक बहुत विनम्र नहीं थे, महत्वाकांक्षी थे, मूर्तिभंजक थे, विद्रोही थे और शायद ‘कलावादी’ भी थे।
इसके बावजूद ‘दिनमान’ एक अद्भुत शुरूआत थी। 1965 की ‘दिनमान’ की प्रारंभिक फ़ाइलें उठाकर देखिए तो आपको लेखकों के नाम नहीं मिलेंगे (नाम देने की परंपरा ‘दिनमान’ में रघुवीर सहाय के समय से शुरू होती है), पर हिंदी में आधुनिक समकालीन कला लेखन और सार्थक पत्रकारिता की शुरूआत ‘दिनमान’ से ही होती है। किसी अंग्रेज़ी पत्रिका ने भी उस समय ऐसा नहीं किया, अंग्रेज़ी अख़बार ज़रूर सक्रिय थे।
‘दिनमान’ में कला पर नियमित लेखन की शुरूआत श्रीकांत वर्मा ने की थी। उन्होंने शुरू के ही पाँच-सात महीनों में अनेक समकालीन कलाकारों पर एक अलग तरह की भाषा में फ़ोकस किया । तब तक आधुनिक कला पर हिंदी में लिखा तो गया था, लेकिन श्रीकांत वर्मा ने हुसैन, सूजा, अंबादास, स्वामीनाथन, जेराम पटेल, तैयब मेहता, हिम्मत शाह आदि पर अपनी प्रारंभिक टिप्पणियों से ही एक नई तरह की भाषा-शैली को विकसित किया। इस पुस्तक में श्रीकांत वर्मा के उन दिनों के लेखन के कुछ नमूने दिए हैं, जो यह अच्छी तरह से बताते हैं कि श्रीकांत वर्मा आधुनिक कलाकारों पर बात करने के लिए पुरानी भाषा और कला संस्कारों से मुक्त होकर लिख रहे थे। उन्होंने सिर्फ़ कला पर अपनी ‘भावुक’ प्रतिक्रिया ही नहीं दी, बल्कि कलाकार के रचना-संसार का संक्षिप्त विवरण देते हुए स्वयं कलाकार के कला संबंधी नज़रिए को रेखांकित भी किया। कला समीक्षा, भेंटवार्ता, टिप्पणी, आदि का मेल उन्होंने अच्छी तरह से सामने रखा जो दुर्भाग्यवश उनके संकलित लेख में नहीं है। ‘दिनमान’ की पुरानी फाइलों से ही उसका परिचय प्राप्त किया जा सकता है। वह भी ‘ऑफ़िस फ़ाइल’ से, चूँकि नाम न छपने के कारण पाठक सिर्फ़ अनुमान ही लगा सकता है। ‘दिनमान’ में उन दिनों मनोहर श्याम जोशी ने भी कला-स्तंभ में कभी-कभार लिखा था। ‘हुस्न और हुसैन’ टिप्पणी इस पुस्तक के दस्तावेज़ खंड में पढ़ी जा सकती है। शोधकर्ता खोज कर सकते हैं कि यह टिप्पणी मनोहर श्याम जोशी द्वारा ही लिखी गई थी।
‘दिनमान’ में 1965 में ही हुसैन पर आवरण कथा छपी थी, जिसका ऐतिहासिक महत्व है। उसे भी इस पुस्तक के दस्तावेज़ खंड में पढ़ा जा सकता है। श्रीकांत वर्मा के बाद उमेश वर्मा (जो स्वयं चित्रकार हैं) ने भी ‘दिनमान’ में लिखा और फ़िर बाद में यह स्तंभ नियमित रूप से प्रयाग शुक्ल ने लिखा, देखा और संभाला।
प्रयाग शुक्ल ‘दिनमान’ में शुरू से ही लिख रहे थे। पहले वे रंगमंच स्तंभ लिखते थे, बाद में कला पर लिखने लगे। रामकुमार से परिचय ने उन्हें कला पर लिखने के लिए प्रेरित किया। बाद में ‘दिनमान’ का संपादन रघुवीर सहाय के हाथ में आ गया था। रघुवीर सहाय ने तमाम कला विधाओं में गहरी दिलचस्पी के कारण सिनेमा, कला और संगीत पर समय-समय पर अनेक ऐसी आवरण कथाएँ भी दीं, जिनकी पाठक शायद कल्पना भी नहीं कर सकेंगे। कला की ही बात करें तो रामकिंकर की मृत्यु पर ‘दिनमान’ ने इस बड़े कलाकार पर आवरण कथा प्रकाशित की। दरअसल 1965-80 के समय ‘दिनमान’ में कला पर स्थायी महत्व की सामग्री प्रकाशित हुई, जिसका समुचित विश्लेषण होना अभी बाकी है।
सत्तर के दशक में ‘प्रतिपक्ष’ में कमलेश के संपादन में कला पर नियमित सामग्री प्रकाशित हुई। गीता कपूर के अनेक लेखों के बेहतर अनुवाद उस समय ‘प्रतिपक्ष’ में नियमित रूप से छपे थे। इसके अलावा के.जी. सुब्रमण्यम, गुलाम मोहम्मद शेख़ और आदि जस्सावाला आदि के महत्वपूर्ण लेख भी उन दिनों ‘प्रतिपक्ष’ में छपे थे। भोपाल की साहित्यिक पत्रिका ‘पूर्वाग्रह’ में भी हिंदी में कला पर स्थायी महत्व की सामग्री छपी है। रजा, रामकुमार, विवान सुंदरम सरीखे कलाकारों पर ‘पूर्वाग्रह’ में विशेष फ़ोकस हुआ, बाद में ‘कला वार्ता’ में भी कला पर नियमित सामग्री प्रकाशित हुई।
यह भी समकालीन की पहल है, जब तक आलोचक कला पर अपनी टिप्पणी नहीं देते, तब तक कला की सूक्ष्मता लोगों के समक्ष नहीं आती। अब रही बात कि भारतीय कला की समकालीन दस्तावेज़ क्या है? समकालीन भारतीय कला की उपलब्धियाँ की चर्चा होती है, तो चित्रकला पर ही अधिक फ़ोकस किया जाता है।
शोध-पत्र का सैद्धांतिक निरूपण :
मेरे शोध पेपर में सर्वेक्षण, सिद्धांतों, संकल्पनाओं और अनुसंधानात्मक पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन देखने को मिलेगा। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य कला से आज़ादी के पिचहत्तर वर्षों का समकालीन भारतीय कला के परिदृश्य का लेखा-जोखा; भारतीय सांस्कृतिक परिवेश तथा सौंदर्यबोध का मूल्यांकन किया गया है।
प्रयुक्त शब्दावली :
इंस्टालेशन-संस्थापन कला, किच आर्ट-कैलेंडर आर्ट, वीडियो आर्ट-चलचित्र कला, आर्ट अटैक-कला का व्यापार, क्यूरेटर-संयोजक।
मूल विषय पर गहन चर्चा और विश्लेषण :
आज कला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम करने वाले पाँच देशों की कोई सूची बनाई जाए, तो निश्चय ही उसमें भारत का नाम भी शामिल किया जाएगा। साठ के दशक में हम शायद यह बात आश्वस्त होकर नहीं कह सकते थे। चालीस के दशक में कोलकाता के प्रतिबद्ध कलाकारों और मुंबई के प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप ने एक नई लहर पैदा की थी। एम.एफ. हुसैन ने पचास के दशक में ‘ज़मीन’ जैसी महत्वपूर्ण और भारतीय ग्रामीण परिवेश से अर्थपूर्ण रूप से जुड़ी कलाकृति बनाई, तो लगा कि हम आधुनिक कला की दुनिया में एक नई ज़मीन बनाएँगे। पर साठ के दशक में अमेरिकी अमूर्त कला और पॉप कला के मुहावरे ने दुनियाभर में कला का नया उपनिवेश बना दिया, भारत सरीखे देशों के कलाकार इस अमूर्त और पॉप आतंक के सामने अपने आप को बौना समझने लगे, लेकिन सत्तर के दशक में बड़ोदरा कला विभाग में के.जी. सुब्रमण्यम के नेतृत्व में भारतीय कला की जड़ों को खोजने का एक बड़ा काम शुरू हुआ। वड़ोदरा में गुलाम मोहम्मद शेख़, नसरीन, विवान सुन्दरम, नीलिमा शेख़, भूपेन खक्खर, जेराम पटेल, ज्योति भट्ट, राघव कनेरिया, नागजी पटेल जैसे अनेक बड़े कलाकारों ने एक नये कला आंदोलन को जन्म दिया। कला और शिल्प का एक रचनात्मक संबंध स्थापित हुआ, भारतीय परंपरा और पश्चिमी आधुनिकता के सार्थक संबंधों का रेखांकित किया गया, पश्चिमी कला आंदोलन को भारतीय परिवेश में एक नया रूप दिया गया।
साठ के दशक में शांति निकेतन का भी पतन होने लगा था। नंदलाल बोस, राम किंकर, विनोद बिहारी मुखर्जी ने कला का जो उत्तेजक माहौल बनाया था, उसे विश्वविद्यालय के अकादमिक और रस्सी क़िस्म के माहौल ने भ्रष्ट करना शुरू कर दिया था। सौभाग्यवश नंदलाल बोस शांति निकेतन के कला विभाग के अध्यक्ष बन गए। उन्होंने पुराने और महान कला गुरुओं को आदरपूर्ण ढंग से काम करने और पढ़ाने का वातावरण दिया। सोमनाथ होर सरीखे महान कलाकारों ने शांति निकेतन में ग्राफ़िक विभाग को एक रचनात्मक और सबल आधार प्रदान किया। देशभर के युवा कलाकार वड़ोदरा या शांति निकेतन में जाकर प्रशिक्षित होने लगे। इन जगहों पर काम करने का माहौल भी था और कला इतिहास के प्रति एक गंभीर नज़रिया मौजूद था।
दरअसल इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में हम समकालीन भारतीय कला के नये आयामों को पहचान सकते हैं। नई सहस्त्राब्दी के प्रयोगधर्मी कला वातावरण में हम देख रहे हैं कि युवा कलाकार संस्थान कला (इंस्टालेशन आर्ट) और ग्राफ़िक कला (जिसे अब प्रिंटमेकिंग के नाम से अधिक पहचाना जाने लगा है) के क्षेत्र में सबसे अधिक काम कर रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि कला बाज़ार को ध्यान में रखते हुए ये दोनों ही विधाएँ अनुकूल नहीं नज़र आती हैं। प्रिंटमेकिंग को एक लोकतांत्रिक कला माध्यम माना जाता है, प्रिंटमेकर अपनी कला के एक से अधिक प्रिंट बनाता है। सिल्कस्क्रीन में तो सैकड़ों प्रिंट बनाए जाते हैं। यानी किसी कलाकृति विशेष का एक ही ‘ओनर’ नहीं होता है। पर इनके बावजूद आज दिल्ली, चेन्नई, वड़ोदरा, कोलकाता, शांति निकेतन कहीं भी चले जाइए – प्रिंटमार्केटिंग के क्षेत्र में सबसे अधिक दिलचस्प, उत्तेजक और प्रयोगधर्मी काम हो रहा है। अनुपम सूद, डाकोजी, देवराज, लक्ष्मा गौड़ सरीखे महत्वपूर्ण प्रिंटमेकर तो आज अपने एक प्रिंट को भी लगभग पेंटिंग की कीमत पर बेचने में सफ़ल साबित हो रहे हैं।
आधुनिक रचनात्मक प्रिंटमेकिंग का वास्तविक इतिहास जोड़ासांको (कोलकाता) से शुरू होता है। ठाकुर परिवार के दिग्गज इसी भव्य घर में रहकर साहित्य-कला-संस्कृति को समृद्ध कर रहे थे। गगनेंद्रनाथ ठाकुर को कुछ कला इतिहासकार पहला रचनात्मक प्रिंटमेकर मानते हैं। उन्होंने पहले ‘बुक इलस्ट्रेशन’ के क्षेत्र में प्रिंटमेकिंग को एक नई रचनात्मकता संभावना प्रदान की थी। जोड़ासांको की प्रसिद्ध ‘विचित्र सभा’ में मुकुल डे जैसे कलाकार सक्रिय हो गए, जो विदेश से एचिंग (अम्लांकन) का प्रशिक्षण लेकर आए थे। 1920 के दशक में शांति निकेतन में नंदलाल बोस ने रवींद्रनाथ के प्रसिद्ध चिल्ड्रन प्राइमर ‘सहज पाठ’ के लिए लीनोकट और वुडकट जैसे माध्यमों का इस्तेमाल किया। जापानी कलाकार ओकाकुरा शांति निकेतन आते-जाते रहते थे। जापानी काष्ट छापा चित्रकला (वुडकट) ने कलाकारों को आकर्षित किया। रमेंद्रनाथ चक्रवर्ती और हीरेन दास ने कोलकाता, वाई.के. शुक्ला ने मुंबई, एल.एम. सेन ने लखनऊ में प्रिंटमेकिंग को नये संस्कार और गरिमा प्रदान की। बंगाल के दुर्भिक्ष और प्रगतिशील आंदोलन के फैलाव ने चित्त प्रसाद और सोमनाथ होर जैसे वामपंथी कलाकारों को प्रिंटमेकिंग के प्रति आकर्षित किया।
यह कहना गलत नहीं होगा कि कंवल कृष्ण, कृष्ण रेड्डी आदि कलाकारों के ऐतिहासिक योगदान के बावजूद दिल्ली पॉलीटेक्निक में सोमनाथ होर ने सच्चे अर्थों में प्रिंटमेकिंग को एक गंभीर कला माध्यम के रूप में प्रतिष्ठित किया। कंवल कृष्ण और रेड्डी, हेटर के निर्देशन में बने पेरिस के प्रसिद्ध ‘एटेलियर 17’ की तकनीकी चमक और रंगीन छपाई से लैस थे। पर सोमनाथ होर ने भारत में रहकर जगमोहन चोपड़ा, जयकृष्ण, अनुपम सूद, ज्योति भट्ट, लक्ष्मा गौड़ जैसे बड़े प्रिंटमेकर्स का रास्ता बनाया। जगमोहन चोपड़ा के निर्देशन में ‘ग्रुप 8’ प्रिंटमेकिंग का एक बड़ा आंदोलन स्थापित हुआ। दिल्ली कला महाविद्यालय के बाद जगमोहन चोपड़ा ने चंडीगढ़ को भी प्रिंटमेकिंग का बड़ा गढ़ बना दिया। वड़ोदरा में ज्योति भट्ट, विनोद राय पटेल, जयंत पटेल, पी.डी. और रीनी धूमाल आदि इस क्षेत्र में सक्रिय हुए। जयकृष्ण ने लखनऊ कला महाविद्यालय में लगभग अकेले ही प्रिंटमेकिंग को गरिमा प्रदान की।
आज हम अनेक युवा कलाकारों को प्रिंटमेकिंग में सक्रिय देख रहे हैं। शांति निकेतन में ‘रियलिस्ट’ ग्रुप के कलाकार सामाजिक यथार्थवाद की भाषा का अच्छा इस्तेमाल कर रहे हैं। वड़ोदरा में धूमाल स्टूडियो ने गोगी सरोजपाल, वेद नायक और भूपेन खक्खर की सुंदर ‘एचिंग’ पुस्तकें तैयार की हैं। ‘छाप’ नाम से प्रिंटमेकर्स का एक नया ग्रुप 2000 की शुरूआत में वड़ोदरा में सक्रिय हुआ है। गुलाम मोहम्मद शेख, ज्योति भट्ट, जेराम पटेल जैसे वरिष्ठ कलाकार यहाँ पर सुरेंद्र नायर, कविता शाह जैसे युवा कलाकारों के साथ काम कर रहे हैं। ‘छाप’ ने ‘इको फ्रैंडली प्रिंटमेकिंग’ की दिशा में भी एक समझदार शुरूआत की है। चेन्नई में आर.एन. पल नियप्पन ने प्रिंटमेकिंग को एक गंभीर और नया तकनीकी विस्तार दिया है। कोलकाता की प्रसिद्ध सोसायटी ऑफ कंटंपरेरी आर्टिस्ट साठ के दशक की शुरूआत से प्रिंटमेकिंग के क्षेत्र में बड़े काम कर रही है। अरुण बोस (जो अब अमेरिका में रहते हैं) अमिताभ बनर्जी, श्यामल दत्त राय, लालू प्रसाद शॉ, सनत कर आदि अनेक कलाकारों ने इस क्षेत्र को समृद्ध किया है। हैदराबाद में देवराज (जो अब दिल्ली में सक्रिय हैं), लक्ष्मा गौड़ (हैदराबाद में रहते हैं) और डी.एल.एन. रेड्डी ने नई दिशाएँ खोजने वाला काम किया है। दिल्ली में इंडियन प्रिंटमेकर्स गिल्ड दस से भी अधिक वर्षों से प्रिंटमेकिंग को एक आंदोलन का रूप देने में सफल हुए हैं। कंचन चंदर, सुशांत गुहा, शुक्ला सवांत, सुब्बा घोष, आनंदमय बनर्जी, सुखविंदर सिंह, सुबन्ना, दत्तात्रय आप्टे आदि अनेक प्रतिभाशाली कलाकार इस ग्रुप के सदस्य हैं।
इंस्टालेशन आर्ट आज पश्चिम के कलाकारों का प्रिय माध्यम है। कला की यह ‘टर्म’ हाल में ही लोकप्रिय हुई है। वरिष्ठ कलाकारों में विवान सुंदरम ने इंस्टालेशन यानी संस्थापन को सबसे अधिक गंभीरता से लिया है। बाबरी मस्जिद के टूटने के बाद उन्होंने एक चर्चित इंस्टालेशन बनाया था। गोगी सरोजपाल और वेद नायक ने भी इंस्टालेशन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किया है। संस्थापन दरअसल एक तरह की समग्र कला है। इसे वातावरण कला भी कह सकते हैं। कलाकार किसी जगह विशेष में कला का एक माहौल पैदा करता है। इस माहौल में उसकी ख़ुद की हिस्सेदारी भी हो सकती है, वह पहले से मौजूद सामग्री का भी नये ढंग से इस्तेमाल कर सकता है और उसमें वह जोड़ या घटा भी सकता है। फ़ोटोग्राफ़ी, प्रिंटमेकिंग, मूर्तिशिल्प, पेंटिंग, रेखांकन, बॉडीआर्ट, हैप्पनिंग, संगी, कंप्यूटर सभी चीज़ों का इस्तेमाल इस तरह की कला में होता है। इसमें भारत के युवा कलाकार दुनियाभर के संवेदनशील कलाकारों के साथ एक शिविर में काम करते हैं। ‘खोज’ के शिविरों ने इस क्षेत्र में नई संभावनाएँ पैदा की हैं। भारतीय समकालीन कला में हुसैन, आरा, सूजा, रजा, राजकुमार, तैयब मेहता, कृष्ण खन्ना, अंबादास, हिम्मत शाह, आदि के बाद गुरुग्राम मोम्मद शेख़, मनजीत बाबा, अर्पित कौर, माधवी पारेख, मीनाक्षी भारती आदि अत्यंत प्रतिष्ठित हो चुके हैं। भारतीय चितेरियों की सक्रियता अद्भुत है। आधुनिकता को नब्बे के दशक में समसामयिक किया है। कला बाज़ार पेंटिंग के प्रति अधिक अनुकूल है, फ़िर भी कलाकार प्रिंटमेकिंग और इंस्टालेशन में नई संभावनाओं की तलाश कर रहे हैं।
2. (Vivan Sundaram, "Memorial" 1993)
ऐतिहासिक दृष्टि से समकालीन कला जगत में 1970 में प्रिंटमेकिंग का कार्य शुरू हुआ, अमेरिकी सेंटर ने वॉल लिग्रेन के निर्देशन में एक बड़ा वर्कशॉप आयोजित किया था। यह वर्कशॉप अपने ढंग का एक अनोखा प्रयास है, जिसमें रामेंद्रनाथ चक्रवर्ती, एल.एम. सेन, वाई.के. शुक्ल, चित्त प्रसाद, हीरेन दास, सोमनाथ होर, मुकुल डे, कंवल कृष्ण, कृष्ण रेड्डी, देवयानी, जगमोहन चोपड़ा प्रिंटमेंकिंग में उल्लेखनीय कार्य किया, इस वर्कशॉप के बाद एक नई लहर आई और ज्योतिभट्ट, अनुपम सूद, जयकृष्ण, लक्ष्मा गौड़, रिनी धूमाल, दीपक बनर्जी, देवराज जय झरोटिया, नोनी बोर पुजारी, पॉल कोली, आर. भास्करन आदि ने प्रिंटमेंकिंग को एक जीवंत आंदोलन में बदल दिया।
प्रिंटमेकिंग के साथ-साथ आधुनिकता के दौर में संस्थापन कला का नया रूप सामने आया है, जिसे इस्टॉलेशन आर्ट के नाम से जाना जा रहा है। जहाँ तक संस्थापन कला का सवाल है, आज भारतीय कलाकार पश्चिमी दुनिया का मुकाबला कर रहे हैं। गोगी सरोजपाल ने बरसों पहले भारतीय अंतरराष्ट्रीय वार्षिक कला प्रदर्शनी में अपना एक संस्थापन प्रस्तुत किया। वेदनायर और गोगी ने मिलकर इस क्षेत्र में बहुत काम किया है। विवान सुंदरम ने 1993 में मेमोरियल नाम से एक महत्वाकांक्षी संस्थापन प्रस्तुत किया था। संस्थापन कला की शुरूआत यूरोप में दादा कला आंदोलन के दिनों में मानी जाती है।
संस्थापन कला में कलाकृतियों की प्रस्तुति का विशेष महत्व है। उसे एक संपूर्ण कलाकर्म के रूप में देखा जाता है। किसी दीर्घा या अन्य स्थान पर जब चित्रों, मूर्तिशिल्प आदि को एक खास तरह से रखा जाता है, तो मोटे अर्थों में यह संस्थापन है। 1945 के बाद से पश्चिमी कला में संस्थापन का विशिष्ट स्थान बनता चला गया – भले ही इस नाम का इस्तेमाल बाद में हुआ। जब किसी ख़ास ‘स्पेस’ को ध्यान में रखकर एक कलाकार अपनी बात कहना चाहता है, तो वह एक चित्र या मूर्तिशिल्प की सरल प्रस्तुति से अपनी बात नहीं कहना चाहेगा। रचना सामग्री को लेकर भी उसमें पर्याप्त विविधता और प्रयोगधर्मिता आ जाएगी। हैपनिंग्स, साइट-स्पेसिफ़िक आर्ट, वातावरण कला, वीडियो कला, एसेंबलेज आर्ट, ग्रुप मेटेरियल आदि दर्जनों पश्चिमी कला आंदोलन आज संस्थापन कला की संपूर्ण धारणा का एक हिस्सा बन चुके हैं। शुरू में ऐसा लग रहा था कि इस तरह की प्रदर्शनियाँ बेचना आसान नहीं है, लेकिन पश्चिमी कला बाज़ार में संस्थापन को भी ख़रीदा जाने लगा, इस तरह के कलाकारों के कला बाज़ार में विशेष प्रोजेक्ट मिलने लगे। कुछ संस्थापन प्रदर्शनियों में तो कला प्रेक्षकों को भी हिस्सेदारी का मौका दिया जाता है। वे आकर अपनी ओर से कुछ जोड़ भी सकते हैं। 1990 में लंदन में ‘म्यूज़ियम ऑफ़ इंस्टालेशन’ की स्थापना हुई। ऊपर से देखने पर संस्थापन कला एक ‘शोशा’ भी नज़र आती है। निश्चय ही उसमें शोशेबाज़ी है, लेकिन एक अच्छा संस्थापन कलाकार कई विधाओं का एकसाथ बहुत अच्छा इस्तेमाल कर सकता है। वेनिस बिनाले में प्रसिद्ध कलाकार और फ़िल्मकार ‘पीटर ग्रीनवे’ ने एक पुराने महल की चीज़ों के बीच अपनी सोच को एक ख़ास तरह से रखा था। वीडियो, कंप्यूटर आदि की मदद से एक प्राचीन कला संपन्न नगरी वेनिस पर ही जैसे कई सार्थक टिप्पणियाँ की गई थीं। अक्सर अब वेनिस बिनाले के विभिन्न पवेलियनों में एक कलाकार कैनवास पर बने चित्रों की प्रदर्शनी के बजाय संपूर्ण पवेलियन को ही एक कला प्रस्तुति का माध्यम बनाना चाहता है। कोई आश्चर्य नहीं, आपको शुरू में जो कबाड़ नज़र आए, ग़ौर से देखने पर वह एक सार्थक कला वक्तव्य दिखाई दे। मिसाल के लिए, एक कलाकार ने पुलिस द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले ‘बैरियर्स’ एक-दूसरे पर ख़ास तरह से लाद दिए। ऊपर एक कोने में एयरपोर्ट की ट्राली भी पहचानी जा सकती थी। एक जर्मन कलाकार ने भारत आकर संस्कृति संग्रहालय में चावलों की मदद से एक अद्भुत संस्थापन बनाया। बड़ी मेहनत और कल्पना से चावलों के रूपाकार ज़मीन पर बनाए गए। कहीं-कहीं तो लग रहा था कि कलाकार ने एक ब्रश के सधे हुए ‘स्ट्रोक’ की तरह चावलों को ‘अरेंज’ किया है। अनेक युवा भारतीय कलाकार अपने गाँव-कस्बे आदि की स्मृतियों को संस्थापन का हिस्सा बना रहे हैं। बिहार के एक युवा कलाकार सुबोध गुप्ता ने कंडों (उपलों) की मदद से एक संस्थापन बनाया था। वहीं जापान में एक तो वहाँ कला दीर्घा के प्रबंधक कंडों की कला से उत्साहित नहीं हुए। सुबोध को फ़िर अपनी दूसरी स्मृतियों का सहारा लेना पड़ा।
एक बात तो तय है कि आधुनिक संस्थापन कला एक अल्पकालीन फ़ैशन नहीं है। वह परंपरागत कैनवास की सपाट सतह या मूर्तिशिल्प की लंबाई-गोलाई का विकल्प तो नहीं है, पर आज के वातावरण में अर्थपूर्ण कला ‘स्पेस’ की खोज के रूप में एक सार्थक काम है। शोशेबाज़ी के आकर्षण के बावजूद उसमें पर्याप्त गंभीरता है। ज़ाहिर है कि उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।
आमतौर पर जब भी समकालीन भारतीय कला की उपलब्धियों की चर्चा होती है तो चित्रकला पर ही अधिक फ़ोकस किया जाता है। इस दृष्टि से मूर्तिशिल्प लगभग एक उपेक्षित कला माध्यम है। स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारतीय मूर्तिशिल्पियों के सामने आधुनिक होने के आदर्श भी बहुत कम थे। शुरू-शुरू में पश्चिम के कुछ बड़े और चर्चित मूर्तिशिल्पियों के सामने एक अन्य महत्वपूर्ण रचनात्मक चुनौती भी थी।
महत्वपूर्ण बात यह है कि आज आज़ादी के पचास साल बाद हम मूर्तिशिल्प के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण कलाकारों को सक्रिय देख रहे हैं। रचना सामग्री को लेकर अब रुकावटें नहीं महसूस की जाती हैं। पश्चिम का प्रभाव ज़रूर है, पर आतंक कम है। संस्थापन कला (इंस्टालेशन आर्ट) पश्चिम से हमारे यहाँ आई है, पर हमारे यहाँ के युवा कलाकार संस्थापन कला के रचनात्मक शास्त्र में भारतीय परंपरा को भी एक उचित स्थान दे रहे हैं। वैसे तो कई चित्रकार भी संस्थापन कला में सक्रियता दिखा रहे हैं, पर यह माध्यम मूर्तिशिल्पियों को अधिक प्रेरित करता है। कोई आश्चर्य नहीं कि आज एन.एन. रिमजन, सुदर्शन शेट्टी, पी.एस. लाडी, राधिका बैद्यनाथन जैसे अनेक युवा और चर्चित मूर्तिशिल्पी संस्थापन को एक बड़ी रचनात्मक चुनौती के रूप में देख रहे हैं। इसके अलावा ध्रुव मिस्त्री, रविंदर रेड्डी जैसे कुछ भारतीय मूर्तिशिल्पी ऐसे हैं जो अपने एक निजी मुहावरे की एक समृद्ध पहचान बना चुके हैं। ख़ासतौर पर ध्रुव मिस्त्री वड़ोदरा में प्रशिक्षित होने के बाद अस्सी के दशक की शुरूआत में उच्च सफलता के लिए ब्रिटेन गए और उन्हें वहाँ असाधारण सफलता मिली। सोलह साल ब्रिटेन में रहने के बाद ध्रुव मिस्त्री अब भारत वापस आ गए हैं। उन्हें ब्रिटेन के सार्वजनिक स्थलों पर भी बड़े काम करने का मौका मिला। ध्रुव मिस्त्री जैसे मूर्तिशिल्पी भारतीय परंपरा और पश्चिमी परंपरा दोनों से ही प्रेरणा प्राप्त करते हैं। कला, दर्शन, मिथकशास्त्र आदि अनेक स्रोतों का इस्तेमाल करने में वह हिचकते नहीं है।
आज़ादी से पहले शांति निकेतन में राम किंकर बैज मूर्तिशिल्प की दुनिया में एक नई और लगभग क्रांतिकारी रचनाशीलता को स्थापित कर सके थे। उन्होंने पेंटिंग में भी काम किया। राम किंकर आधुनिक भारतीय मूर्तिशिल्पियों के ‘पिता’ कहे जा सकते थे। उनमें एक अद्भुत और मौलिक रचना दृष्टि थी। रचनात्मक ऊर्जा भी उनमें ज़बरदस्त थी। राम किंकर अपना मूर्तिशिल्प वास्तविक वातावरण में बनाते थे। उनकी कलाकृतियों में वातावरण से एक सहज रिश्ता है। राम किंकर के अलावा मीरा मुखर्जी एक दूसरा नाम है, जिनका मूर्तिशिल्प के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान है। मीरा मुखर्जी ने बंगाल, बिहार और मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाकों में जाकर उनके काम करने की शैली को अच्छी तरह से समझा। धातु में मीरा ने बहुत अच्छा काम किया है। उनकी ‘क्राफ्ट’ की पकड़ बहुत अच्छी है और वह एक समकालीन मुहावरे को भी जानती थी। ये दोनों महान कलाकार आज हमारे बीच नहीं हैं, पर मूर्तिशिल्प के विकास में इनका योगदान ऐतिहासिक है।
3. RANBIR KALEKA, Book shelves in the forest symbolise a library of knowledge134 x 236 inches (340.4 x 599.4 cm) |
सोमनाथ होर, शंखू चौधरी, धनराज भगत, सरबरी राय चौधरी, चिंतामणि कर, ए.एम. दाविएरवाला, पीलू पोचकनवाला, एस. धनपाल, बाकरे, बलवीर सिंह कट्ट, पी.वी. जानकीराम, अमरनाथ सहगल, एस. नंदगोपाल, हिम्मत शाह, मृणालिनी मुखर्जी, रमेश पटेरिया, राघव कनेरिया, प्रदोष दासगुप्त, नागजी पटेल, कुन्हीरमन, वेद नायर, मदन लाल, ध्रुव मिस्त्री, एन.एन. रिमजन, एन. पुष्पमाला, पी.एस. लाडी, सुदर्शन शेट्टी, लतिका कट्ट, रविंदर रेड्डी, राजेंद्र कुमार टिक्कू, के.पी. सोमन, वाल्सन कोल्लरी, रॉबिन डेविड जैसे नये-पुराने मूर्तिशिल्पियों की एक सूची बनाई जाए तो हमें समकालीन भारतीय मूर्तिशिल्प की उपलब्धियाँ बड़ी नज़र आती हैं। ख़ासतौर पर सोमनाथ होर, हिम्मत शाह, नागजी पटेल और ध्रुव मिस्त्री का काम मूर्तिशिल्प की भाषा को नई रचनात्मकता और नये तेवर देता है। पत्थर, काष्ठ, धातु, फाइबर ग्लास, रस्सी, टोराकोटा इन सभी रचना सामग्रियों का सुंदर इस्तेमाल हो रहा है। गौर करने की बात यह है कि चित्रकार की तुलना में मूर्तिशिल्पी को अपनी कला की ‘प्रस्तुति’ में भी कहीं अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। पर इन दिनों जो उत्तेजक और समृद्ध काम देखने को मिल रहा है, उससे भारतीय मूर्तिशिल्प का भविष्य कहीं बेहतर नज़र आता है।
4. (Atul Dodiya,"Gabbar on Gamabage", 2015, Textile Print on Silk (ForestLio'by Ranbir Kaleka,Video Art) |
आज़ादी के बाद लगातार नये-नये प्रयोग कला क्षेत्र में देखे गए हैं। उनमें किच आर्ट की एक छोटी-सी भूमिका देखी गई, जिसका इस्तेमाल लोकप्रिय और बाज़ार कला के लिए किया जाता है। पश्चिम के किच विशेषज्ञों ने कलात्मक कूड़े को किच माना है। भारत में कैलेंडर आर्ट का अर्थ यही रहा है। भारतीय कलाकारों ने किच कला का अपनी कलाकृतियों में खुलकर इस्तेमाल किया है। इन दिनों इंस्टालेशन आर्ट (संस्थापन कला) और वीडियो आर्ट या इंस्टालेशन का ज़माना है। भारतीय कलाकारों पर भी इस पश्चिमी रुझान का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। यहाँ स्पष्ट करना आवश्यक है कि वीडियो आर्ट सिनेमा नहीं है। उसमें सिनेमाई भाषा का इस्तेमाल ज़रूर किया जाता है। कैमरे का लगभग ब्रश की तरह इस्तेमाल होता है। पर वीडियो आर्ट को सिनेमा नहीं कहा जा सकता, इस क्षेत्र में विवान सुंदरम, नलिनी मलानी, रणवीर सिंह कालेका, सुबोध गुप्ता, सुब्बा घोष, प्रत्तुष दास आदि अनेक नये-पुराने कलाकार इन दिनों वीडियो इंस्टालेशन का सुंदर रचनात्मक इस्तेमाल कर रहे हैं। क्या कैनवास इतिहास की चीज़ हो जाएगा, यह जटिल प्रश्न है। यह एक अच्छी बात है कि समकालीन कला को संजोकर रखना और आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ नये प्रश्न खड़े करना।
अब बात उठती है कि स्वतंत्रता के बाद कला की दिशा और दशा की बात करते समय आज कला शिक्षण संस्थानों की हालत दिन पर दिन ख़राब होती जा रही है। देश के प्रतिष्ठित महाविद्यालयों मुंबई, वड़ोदरा, शांति निकेतन, बनारस जैसे नामचीन कला संस्थाओं में पहले शिक्षकों की भूमिका छात्रों से अधिक होती थी क्योंकि शिक्षक स्वयं काम करते थे, परंतु आज शिक्षक केवल किताबों तक सीमित रह गए हैं। वह स्वयं काम नहीं करते और छात्रों को मात्र किताबों के ज्ञान तक जानकारी उपलब्ध करा रहे हैं, जबकि कला एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें काम की महत्ता अधिक है, किताबी ज्ञान का अध्ययन कम, पर ज़रूरी है। यह हमारा प्रश्न है? कि नई पीढ़ी को जब तक शिक्षक कला की रहस्यमयी दुनिया के बारे में जानकारी नहीं देगा, तब तक कला की बारीकियों का अध्ययन छात्र कैसे करेगा? यह एक विचारणीय प्रश्न है। पिछले तीन दशकों में कला महाविद्यालयों में छात्र प्रवेश लेते रहे हैं, वे वहाँ मात्र क्राफ्ट मैनशिप का काम करते हैं। कला की रचनात्मकता के बारे में जब प्रश्न किया जाता है तो उनके पास कोई जवाब नहीं होता है, यह कहना गलत नहीं होगा कि वहाँ डिग्री की होड़ में सरकारी संस्थाओं में प्रवेश बी. एफ.ए., एम. एफ.ए. दूसरी तरफ बी.ए., एम.ए., की डिग्री दोनों द्वंद का प्रश्न खड़ा कर रहे हैं।
यदि कला की दिशा बदलती हो तो कला शिक्षकों को सामने आना पड़ेगा और स्वयं के काम करने के बाद छात्रों को कला रहस्य की रचनात्मकता के बारे में जानकारी देनी होगी, जिससे कला की दिशा और दशा बदल सकती है। यह कला संस्थानों के लिए विचारणीय प्रश्न है।
अब प्रश्न है? समकालीन कला बाज़ार का तिलिस्मा पता नहीं किस तरह कलाकार की कलाकृतियों की कीमत का आंकलन किया जाता है। सच तो यह है कि कलाकार की कलाकृति कम दामों में ख़रीदकर लाखों में बेचने का, वहीं फेक कलाकृति बनाकर कलाकार के नाम पर बेचना, यह कला बाज़ार का तिलिस्मा ही है? यह विचारणीय प्रश्न है। पर क्या सच, क्या झूठ है, किसी को पता नहीं है। इस सबका नतीजा? नकली कला का धंधा ज़ोरों पर है। गैलरियों में जो लोग कभी पेंटिंग उठाकर दिखाने का भला-सा काम करते थे। वे आज आर्ट क्यूरेटर हैं। पर कुछ जानकर डरते भी हैं। कहते हैं कि “यह मार्केट कभी भी क्रैश कर सकता है।” पर एक अच्छी बात यह हुई है कि आज कला के डॉक्टूमेंटेशन पर ज़ोर दिया जा रहा है।
निष्कर्ष : आधुनिक भारतीय कला का आत्मसंघर्ष स्वतंत्रता आंदोलन के समांतर ही चला। राजनैतिक स्वतंत्रता की आकांक्षा की तरह कलाकारों के एक वर्ग में गहरी छटपटाहट इस बात को लेकर थी कि वैचारिकता कला जगत पर थोप दी गई। आज का कला छात्र लम्बी चौड़ी बड़ी बाते नहीं सुनना चाहता, न ही वह शब्द आडंबर में उलझना नहीं चाहता है। उसे सुस्पष्ट, सरल एवं सीधी भाषा में कला मर्म को समझना है। अत: कला शिक्षको को सिर्फ सैद्धांतिक रूप में ना पढ़ा कर व्यवहारिक रूप से पढ़ना चाहिए जैसे कि महेंद्र पांड्या, नंदलाल बोस एवं के.जी. सुब्राहमन्यम इत्यादि ने किया । आधुनिक युग में इंटालेशन आर्ट, विडियो आर्ट एवं किच कला इत्यादि ने कला के विषय एवं माध्यम संबंधी सीमाओं को तोड़ दिया है। कलाकारों के दृष्टिकोणो में अंतर एवं विषय - माध्यम विस्तार की ललक की वजह से हम आए दिन नये- नये कला अभियान एवं उनके विभिन्न उद्देश्यों में मतभेद भी देखते हैं । भले ही आधुनिक भारतीय कलाकार विश्व पटल पर मजबूत पर जमा कर खड़ा है परंतु इसके साथ-साथ एक उदासीन एवं उपेक्षित व्यवहार हम राष्ट्रीय सरकार की ओर से महसूस करते हैं ।
आज के कलाकारों ने अपनी कृतियों में एक ऐसा रूप गड़ा है जो की न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी कला प्रेमियों का ध्यान आकर्षित किया है । इन कलाकारों की कलाकृतियों के बारे में विचार करते हैं तो ऐसा लगता है कि हम हिमालय की चोटियों से उतरकर गदीले मैदान प्रदेश में आ गये हैं जहां प्रशस्त मार्ग के कुछ थोड़े ही हैं परंतु पग पगड़ड़िया अनेक है, घने पेड़- पौधे है परंतु निकासी के रास्ते भी नहीं दिखते ।वीडियो आर्ट इंस्टालेशन आर्ट को देखने से कलाकारों का युग की वैज्ञानिकता के प्रति सचेत होना दिखता है।
आधुनिक कलाकारों की व्यापक प्रतिक्रियाओं को लेकर अपना रचनात्मक कार्य कर रहे हैं । जिस तरह टेक्नोलॉजी की उठा पटक को कलाकार अपनी कलाकृतियों में स्थान दे रहें है इसको देखते हुऐ भविष्य की रूपरेखा का निश्चित संकेत सम्भव नहीं है । शैली और टेक्नोलॉजी के समावेश से अनेक नई संभावित विशेष विशेषताऐं देखने को मिलेगी। साथ ही साथ अवास्तविक कर्ताओं से मुक्ति एवं थोपी हुई वैचारिकता पर प्रश्न विचारणीय है ।
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- 11वीं वार्षिक कला प्रदर्शनी कैटलॉग, राष्ट्रीय ललित कला अकादमी, नई दिल्ली
विजय मा. ढोरे
स्वतंत्र चित्रकार बी- 306 , वरटेक्स प्राइट अपार्टमेंट, जया भारत नगर, निजामपेठ एक्स रोड, कुकटपल्ली, हैदराबाद ( तेलंगाना राज्य) पिन - 500085
गुरचरण सिंह
विभागाध्यक्ष, ड्राइंग एंड पेंटिंग विभाग, उपाध्यक्ष, युवा एवं संस्कृति विभाग कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरूक्षेत्र ( हरियाणा राज्य) पिन -136119
लकी टॉक
असिस्टेंट प्रोफेसर, ड्राइंग एंड पेंटिंग विभाग, दयाल बाग शिक्षण संस्थान, दयाल बाग, आगरा ( उत्तर प्रदेश राज्य) पिन - 282005
lucky.tonk@gmail.com
दृश्यकला विशेषांक
अतिथि सम्पादक : तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-55, अक्टूबर, 2024 UGC CARE Approved Journal
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