सम्पादकीय : दृश्य कलाओं का शास्त्रीय एवं नव-शास्त्रीय आलोक / तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल

दृश्य कलाओं का शास्त्रीय एवं नव-शास्त्रीय आलोक

        दृश्यकलाएं जनजीवन और साहित्य से अभेद सम्बन्ध रखती हैं अतः हमारे जीवन की यह स्वाभाविक प्रक्रिया भी है। कलाओं की कलात्मकता एवं इसकी ऐतिहासिकता एक निर्विवाद सत्य है। समय का चक्र प्रकृति की संरचना का भाग है परन्तु मन की स्थिति का चंचल होते हुए भी सौन्दर्य की ओर आकर्षित रहना स्वाभाविक है। मन संवेदनशील होने के साथ ही सहेजना भी भरपूर जानता है और इस प्रवृत्ति के संकलन के फलस्वरूप, हमें दृश्यकला एक सांस्कृतिक विरासत के रूप में मिलती है। दृश्यकला के कई कलात्मक माध्यम (शैलीगत विविधता) रही हैं। जीवन के दैनिक पहलू को स्पर्श कर उसे संवारने का प्रयत्न इस कला ने किया है अतः हमें वेद, ग्रन्थ, काव्य, शिल्प, मूर्ति, चित्र आदि सभी में दृश्यकला के अन्तर्निहित सम्बन्ध के दर्शन होते हैं। कलाओं की यही दक्षता एक कलाकार को आयाम देती रही है। ये सभी आयाम कलाकार के सांस्कृतिक वातावरण से प्रभावित होने के साथ-साथ ही सामाजिक परिवेश, व्यक्ति की धार्मिक मान्यताएँ, विचार, विज्ञान में मिलने लगते हैं। कला का आध्यात्मिकता से जितना सम्बन्ध है उतना ही कल्पनाशीलता एवं विज्ञान से जुड़ाव। वैज्ञानिक जुड़ाव के प्रभाव से समय-समय पर शिल्प, मूर्ति, चित्र, चलचित्र आदि सभी कलाओं की उन्नति में विज्ञान का पक्ष अधिक बद‌लाव व व्यक्ति के स्वभाव व रचना के तौर तरीकों में नित-नए परिवर्तन हो रहे हैं। यही सतत् प्रक्रिया मनुष्य की जीवन गति भी बदलने की क्षमता रखती है। मन, विचार तौर-तरीकों के साथ ही कलाओं को देखने व समझने, उसको पुनः नए की ओर आकर्षित करने में लगा है। कलाओं में स्थानीयता का प्रभाव अभी भी वही है परन्तु उसे उसी स्थान पर होना आवश्यक नहीं रह गया है। दृश्यकला की खूबी इसी सौन्दर्य में है कि कलाकार संसाधनों में कला विषयों की निष्पत्ति करता है। इसी कारण स्थानीयता के भाव तत्कालीन परिस्थिति परिवेश इत्यादि के साथ ही चित्र माध्यम निजता के रूप में देखने को मिल जाते हैं। चित्रकला में प्रत्येक चित्रण में निजता का भाव व कलाकार की भी निजता रही है। चाहे कितने भी वैज्ञानिक तरीकों से हमें सब संसाधन मिलें परन्तु ये भाव (निजता) कभी समाप्त नहीं हो सकेगा। कलाएं भले शिथिल हो सकती हैं परन्तु वह भी नया रूप प्रदान करने वाली होंगी।

        दृश्यकला का सम्बन्ध मानव उत्पति के इतिहास से जुड़ा है। प्रागैतिहासिक मानव ने भी सर्वप्रथम अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए शिलाचित्रों पर रेखांकन किया। यह शिलाचित्र मानव उत्पति इतिहास के प्रथम श्रोत हैं। मतलब मानव की अन्य सहज प्रवृतियों के साथ-साथ चित्रण भी आरंभ हो गया। इसमें उनकी स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के साक्ष्य सर्वविदित हैं। इनकी चित्राभिव्यक्ति में सामाजिक, सांस्कृतिक एवँ वैचारिक जन-जीवन की झाँकी हैं। आखेट, जादू टोना, विश्वास, भय, लक्ष्य, विजय, उत्सव, उद्देश्य एवं जिव-जन्तुओं के चित्र वाकई सांस्कृतिक जीवन के जीते-जागते उदाहरण हैं। प्रागैतिहासिक काल के शिलाचित्रों से कालांतर में लिपि से शिलालेख का विकास हुआ। यह शिला चित्र चित्रात्मक भाषा के प्रारम्भिक प्रमाण हैं।

        वर्तमान में दृश्यकला का दायरा प्रागैतिहासिक कला से आधुनिक काल तक अनवरत विस्तृत हुआ है। कालान्तर में कला के कई विषय एवं उप-विषय चलन में आए। कई मुख्य एवं गौण विषयों के रूप में यह पाठ्यक्रम का हिस्सा बना है। प्रागैतिहासिक मानव की भाव-अभिव्यक्ति की तरह आधुनिक दौर में भी यह परम्परा बनी हुई है। चित्र स्वयं भाषा के तौर पर विकसित हुआ लेकिन चित्र सृजन का शाब्दिक ऐतिहासिक लेखन प्रायःउम्मीद के अनुसार नहीं हुआ। कला की व्याख्या, समीक्षा, शोध एवं दस्तावेजीकरण के लिहाज से यह विषय अछूता रहा। इसकी जिम्मेदारी भी कलाकार की स्वयं की थी। आधुनिक कलाएँ आनंदानुभूति तक रह गई हैं। आज सृजन के मूल भाव-विचार को समझने के लिए दर्शक को स्वतंत्र छोड़ दिया है। कला को देखो, उसका स्वयं हिस्सा बनो, अनुभूति करो। इंटरेक्टिव आर्ट में दर्शक स्वयं कला का हिस्सा होते हैं। कला में कई नए विधि-विधान का प्रचलन हुआ है। पहले की तुलना में कला का व्यावसायीकरण तीव्र हुआ है। कला स्वांत-सुखाय की बजाए अर्थ-सुखाय हुई है। कला समीक्षक कलाकृति पर स्वतन्त्र समीक्षा लिख रहे हैं, कलाकार ज्यों-त्यों उसे अपना ले रहे हैं। कला समीक्षा का व्यवसाय पनपा है। कलाकार स्वयं लिखने की बजाए लिखवा रहे हैं। सामान्यतः देखा गया कि कलाकार में सृजन की शाब्दिक बुनाई का अभाव होता है। कलाकार इतना कमजोर होता जा रहा है कि आम आदमी के साधारण प्रश्न ‘कलाकृति क्या संदेश दे रही है’? इस पर अनुत्तरित है, दर्शक की जिज्ञासा को संतुष्ट नहीं कर पाते हैं। यह सभी कलाओं में वैचारिक कच्चेपन के परिणाम हैं क्योंकि हम देखादेखी पश्चिम का अन्धानुकरण करने लगे लेकिन, कृति के मूल विचार को समझाने या लिखने में पारंगत नहीं हुए। हालाकि यह तर्क दिया गया है कि चित्र अभिव्यक्ति की आदिकालीन परम्परा रही है, चित्र स्वयं बोलता है। चित्र स्वयं एक भाषा है। चित्रकार को बोलने या लिखने की आवश्यकता नही है। लेकिन इससे अछूता रहकर आज के मनोवैज्ञानिक एवं तार्किक युग में कला इतिहास का विकास कैसे संभव होगा? सहज उत्तर के अभाव में कई बार कलाकार के विचारों से दर्शक संतुष्ट नहीं हो पाते हैं, मन गढ़ंत कहानियां रचते हैं। बल्कि होना यह चाहिए कि कलाकार को अपने सृजन मनोविज्ञान को स्वयं लिपिबद्ध करना चाहिए। इस अछूते विषय पर भरपूर शोध संभावनाएं हैं।

        हर एक विषय का अपना ऐतिहासिक कालक्रम होता है। किसी भी विषय का व्यवस्थित लेखन आगामी पीढ़ियों के लिए इतिहास होता है। इतिहास के सहारे ही हम उस विषय की गंभीरता, शोध सम्भावना, विश्लेषण, समीक्षा को समाजोपयोगी बना सकते हैं। दृश्यकला के विषय में प्रायः अन्य विषय की तुलना में लेखन कार्य प्रायः कम देखने को मिलता है। कलाकार की कला कर्म में व्यस्तता से शोध लेखन से दूरी रही है। हालांकि पिछले कुछ वर्षो में शोध एवं लेखन कार्य होने लगा है। कला इतिहास को अलग विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है लेकिन अभी यह शुरुआत ही समझ सकते हैं।

        बंगाल स्कूल के आंदोलन एवं कला गुरु अवनिद्रनाथ टेगौर, नन्दलाल बोस की अगुवाई में स्वदेशी आंदोलन के तहत देशज कला से प्रेम करना सिखाया गया, इसके परिणाम स्वरूप देशज कला पर सर्जन के साथ लेखन कार्य भी हुआ। आज कई कलाकारों को स्वयं की कलाकृति पर लिखने-बोलने पर झिझक होती है। कुछ समीक्षा-लेखन कार्य हो रहा है, वह अन्य भाषा विशेषज्ञों द्वारा लिखा जा रहा है। बुराई नहीं है लेकिन इससे कलाकार के मनोविज्ञान से साक्षात्कार नहीं हो पाता है। कलाकार स्वयं कृति के बारे में अनुभव लिखे तो वह सत्य के ज़्यादा करीब होगा। दृश्यकला में तार्किक, मनोवैज्ञानिक एवं दार्शनिक विवेचन से इतिहास लेखन की आवश्यकता है। वर्तमान में दृश्यकला विषय का विस्तार कई शाखाओं के रूप में हुआ है; चित्रकला, मूर्तिकला, व्यवहारिक कला, कला इतिहास के अंतर्गत भी कई मुख्य विषयों का विस्तार हुआ है। समकालीन कला में नई तकनीक, विधि-विधान एवं प्रयोग लगातार हो रहे हैं। सोशियल मीडिया से कला के प्रसार-प्रचार एवं उसमें व्यावसायिक परिवर्तन हुआ हैं।

        यह विशेषांक इसी दृष्टि से अभिभूत होकर समस्त दृश्यकलाओं को समेटने के प्रयास से युक्त है अतः लोक कलाओं से लेकर शास्त्रीय परम्पराओं के साथ ही सौन्दर्यशास्त्र के भावों को समेटने का प्रयास कर रहा है। विश्वपटल पर भले ही दृश्यकलाओं में प्रमुखता व प्रखरता में परिवर्तन होता रहा परन्तु समानान्तर रूप बना रहा है। पश्चिमी कला में नव-शास्त्रीयता की तरह हमें भारतीय शास्त्रीय कला में हम नव-शास्त्रीयता का अंकुरण देख रहे हैं। कला-घरानों की नई पीढियां परम्परा पर गर्व करने वाली भी हैं तो आधुनिकता के अनुनायी भी हैं। कला परम्परा में परिवार बढ़े तो कई नवीन धाराएँ भी पनपी हैं तो वैचारिक मतभेद भी हुए। विषय-विधान बदले हैं। शास्त्रीय कला में शोध अन्तराल खोजने पर कई परतें सामने आई हैं। चित्रकला क्षेत्र में भी छापाचित्रण का अपना अभूतपूर्व योगदान बना रहा है। मेजोटिंट जैसी विलुप्त होती विधा के जीवंत कलाकार को प्रकाशित कर भारत में प्रसारित होने का प्रयास किया जा रहा है, अत: दृश्यकला विशेषांक में इसको शामिल किया गया है। इसके साथ ही दृश्य कलाओं में कृतित्व के साथ ही समकालीन प्रभाव में उपयुक्त शिक्षा प्रणाली में कई नवाचारी लेखों को भी जोड़ा गया है। वैश्विक पटल की स्थितियों में समकालीन कला परिदृश्य भी जीवन्त रूप में दृश्यमान है। दृश्यकलाओं के माध्यम भी समय-समय पर समृद्ध अनुभव हुए हैं। कालान्तर में बदलते सृजन आधार शैलचित्र से डिजिटल स्क्रीन तक का दौर। ताज़ातरीन कृत्रिम बुद्दिमता ए.आई. कला माध्यम के प्रयोग, कलात्मक अवदान एवं वर्तमान चुनौतियां, कला-रोजगार-संकट जैसे समर्पित वैचारिक शोध-पत्र आज के जिज्ञासुओं के लिए मुख्य सन्दर्भ स्रोत होगा। अतः आधुनिक माध्यम डिजिटल विधि विधान पर भी विशेषांक में शोध पत्रों को शामिल किया गया है। चलचित्र का माध्यम भी दृश्यकला का एक माध्यम है जो जीवन के समस्त सामाजिक पहलूओं के प्रदर्शन में सशक्त भूमिका का निर्वहन करता है, अत: उक्त विषय को भी विशेषांक द्वारा समझा जा सकता है। हमारे समाज में कई वर्षों तक कला साधना का कार्य कलाकारों ने किया है अतः कुछ कलाकारों के साक्षात्कार उनके साथ भेंटवार्ता व स्मृतियों को भी जोड़ा गया है। कला में युवा उपस्थिति पर भी विशेष स्थान देकर नवांकुरों को रेखांकित किया है। इस विशेषांक में राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय कला परिदृश्य को समेटने का भरपूर प्रयास किया जिसमें भारतीय कला के अलग-अलग क्षेत्रों से शोध-पत्र प्राप्त हुए हैं जिससे विशेषांक में विविधता दिखाई पड़ती है। यह विशेषांक मानस पटल पर लगभग सभी दृश्यकलाओं को प्रभावित करते हुये निर्वहन दृष्टि प्रदान करने में सहायक सिद्ध होगा। इन्हीं भावनाओं के साथ....

धन्यवाद

तनूजा सिंह
प्रोफ़ेसर, चित्रकला विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर(राज.)

संदीप कुमार मेघवाल
सहायक आचार्य, दृश्यकला विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज, (उ. प्र.)

दृश्यकला विशेषांक
अतिथि सम्पादक  तनुजा सिंह एवं संदीप कुमार मेघवाल
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-56, नवम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal

1 टिप्पणियाँ

  1. अत्यंत ज्ञानवर्धक और संग्रहणीय विशेषांक👌🏻अपनी माटी और अतिथि संपादकीय टीम को हार्दिक बधाई। यह विशेषांक कलात्मक ज्ञान के विविध आयाम को अपने भीतर संजोए है। आशा है अपनी माटी पत्रिका सदैव ही विशेषांक तथा साधारण अंक द्वारा लेखगण और पाठकगण को यूँ ही निरन्तर बाँधे रखेगी।

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